अनाहारक: Difference between revisions
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<p> षट्खण्डागम पुस्तक 1/1/1/सू.177/410/1 अणाहार चदुसु ट्ठाणेसु विग्गहगइसमावण्णाणं केवलीणं वा समुग्घाद-गदाणं अजोगिकेवली सिद्धा चेदि ॥177॥ </p> | <p class="SanskritText">षट्खण्डागम पुस्तक 1/1/1/सू.177/410/1 अणाहार चदुसु ट्ठाणेसु विग्गहगइसमावण्णाणं केवलीणं वा समुग्घाद-गदाणं अजोगिकेवली सिद्धा चेदि ॥177॥ </p> | ||
<p>= विग्रहगति को प्राप्त जीवों के, मिथ्यात्व, सासादन और अविरत सम्यग्दृष्टि तथा समुद्घातगत केवली, इन चार गुणस्थानोंमें रहनेवाले जीव और अयोगिकेवली तथा सिद्ध अनाहारक होते हैं ॥177॥ </p> | <p class="HindiText">= विग्रहगति को प्राप्त जीवों के, मिथ्यात्व, सासादन और अविरत सम्यग्दृष्टि तथा समुद्घातगत केवली, इन चार गुणस्थानोंमें रहनेवाले जीव और अयोगिकेवली तथा सिद्ध अनाहारक होते हैं ॥177॥ </p> | ||
<p>( धवला पुस्तक 1/1,1,5/153/2, ( गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या/666/1111)।</p> | <p>( धवला पुस्तक 1/1,1,5/153/2, ( गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या/666/1111)।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /2/29/186 उपपादक्षेत्रं प्रति ऋज्ब्यां गतौ आहारकः। इतरेषु त्रिषु समयेषु अनाहारकः। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /2/29/186 उपपादक्षेत्रं प्रति ऋज्ब्यां गतौ आहारकः। इतरेषु त्रिषु समयेषु अनाहारकः। </p> | ||
<p>= जब यह जीव उपपाद क्षेत्र के प्रति ऋजुगति में रहता है तब आहारक होता है। बाकी के तीन समयों में अनाहारक होता है।</p> | <p class="HindiText">= जब यह जीव उपपाद क्षेत्र के प्रति ऋजुगति में रहता है तब आहारक होता है। बाकी के तीन समयों में अनाहारक होता है।</p> | ||
<p>राजवार्तिक अध्याय 9,7/11/604/19 उपभोगशरीरप्रायोग्यपुद्गलग्रहणमाहारः, तद्विपरीतोऽनाहारः। तत्राहारः शरीरनामोदयात् विग्रहगतिनामोदयाभावाच्च भवति। अनाहारः शरीरनामत्रयोदयाभावात् विग्रहगतिनामोदयाच्च भवति। </p> | <p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 9,7/11/604/19 उपभोगशरीरप्रायोग्यपुद्गलग्रहणमाहारः, तद्विपरीतोऽनाहारः। तत्राहारः शरीरनामोदयात् विग्रहगतिनामोदयाभावाच्च भवति। अनाहारः शरीरनामत्रयोदयाभावात् विग्रहगतिनामोदयाच्च भवति। </p> | ||
<p>= उपभोग्य शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण आहार है, उससे विपरीत अनाहार है। शरीर नामकर्म के उदय और विग्रहगति नामके उदयाभाव से आहार होता है। तीनों शरीर नामकर्मों के उदयाभाव तथा विग्रहगति नाम के उदयसे अनाहार होता है।</p> | <p class="HindiText">= उपभोग्य शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण आहार है, उससे विपरीत अनाहार है। शरीर नामकर्म के उदय और विग्रहगति नामके उदयाभाव से आहार होता है। तीनों शरीर नामकर्मों के उदयाभाव तथा विग्रहगति नाम के उदयसे अनाहार होता है।</p> | ||
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Revision as of 13:46, 10 July 2020
षट्खण्डागम पुस्तक 1/1/1/सू.177/410/1 अणाहार चदुसु ट्ठाणेसु विग्गहगइसमावण्णाणं केवलीणं वा समुग्घाद-गदाणं अजोगिकेवली सिद्धा चेदि ॥177॥
= विग्रहगति को प्राप्त जीवों के, मिथ्यात्व, सासादन और अविरत सम्यग्दृष्टि तथा समुद्घातगत केवली, इन चार गुणस्थानोंमें रहनेवाले जीव और अयोगिकेवली तथा सिद्ध अनाहारक होते हैं ॥177॥
( धवला पुस्तक 1/1,1,5/153/2, ( गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / मूल गाथा संख्या/666/1111)।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /2/29/186 उपपादक्षेत्रं प्रति ऋज्ब्यां गतौ आहारकः। इतरेषु त्रिषु समयेषु अनाहारकः।
= जब यह जीव उपपाद क्षेत्र के प्रति ऋजुगति में रहता है तब आहारक होता है। बाकी के तीन समयों में अनाहारक होता है।
राजवार्तिक अध्याय 9,7/11/604/19 उपभोगशरीरप्रायोग्यपुद्गलग्रहणमाहारः, तद्विपरीतोऽनाहारः। तत्राहारः शरीरनामोदयात् विग्रहगतिनामोदयाभावाच्च भवति। अनाहारः शरीरनामत्रयोदयाभावात् विग्रहगतिनामोदयाच्च भवति।
= उपभोग्य शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण आहार है, उससे विपरीत अनाहार है। शरीर नामकर्म के उदय और विग्रहगति नामके उदयाभाव से आहार होता है। तीनों शरीर नामकर्मों के उदयाभाव तथा विग्रहगति नाम के उदयसे अनाहार होता है।