इतिहास: Difference between revisions
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<div style="MARGIN: 0in 0in 0pt">किसी भी जाति या संस्कृतिका विशेष परिचय पानेके लिए तत्सम्बन्धी साहित्य ही एक मात्र आधार है और उसकी प्रामाणिकता उसके रचयिता व प्राचीनतापर निर्भर है। अतः जैन संस्कृति का परिचय पानेके लिए हमें जैन साहित्य व उनके रचयिताओंके काल आदिका अनुशीलन करना चाहिए। परन्तु यह कार्य आसान नहीं है, क्योंकि ख्यातिलाभकी भावनाओंसे अतीत वीतरागीजन प्रायः अपने नाम, गाँव व कालका परिचय नहीं दिया करते। फिर भी उनकी कथन शैली पर से अथवा अन्यत्र पाये जानेवाले उन सम्बन्धी उल्लेखों परसे, अथवा उनकी रचनामें ग्रहण किये गये अन्य शास्त्रोंके उद्धरणों परसे, अथवा उनके द्वारा गुरुजनोंके स्मरण रूप अभिप्रायसे लिखी गयी प्रशस्तियों परसे, अथवा आगममें ही उपलब्ध दो-चार पट्टावलियों परसे, अथवा भूगर्भसे प्राप्त किन्हीं शिलालेखों या आयागपट्टोंमें उल्लखित उनके नामों परसे इस विषय सम्बन्धी कुछ अनुमान होता है। अनेकों विद्वानोंने इस दिशामें खोज की है, जो ग्रन्थोंमें दी गयी उनकी प्रस्तावनाओंसे विदित है। उन प्रस्तावनाओंमें से लेकर ही मैंने भी यहाँ कुछ विशेष-विशेष आचार्यों व तत्कालीन प्रसिद्ध राजाओं आदिका परिचय संकलित किया है। यह विषय बड़ा विस्तृत है। यदि इसकी गहराइयोंमें घुसकर देखा जाये तो एकके पश्चात् एक करके अनेकों शाखाएँ तथा प्रतिशाखाएँ मिलती रहनेके कारण इसका अन्त पाना कठिन प्रतीत होता है, अथवा इस विषय सम्बन्धी एक पृथक् ही कोष बनाया जा सकता है। परन्तु फिर भी कुछ प्रसिद्ध व नित्य परिचय में आनेवाले ग्रन्थों व आचार्योंका उल्लेख किया जाना आवश्यक समझकर यहाँ कुछ मात्रका संकलन किया है। विशेष जानकारीके लिए अन्य उपयोगी साहित्य देखनेकी आवश्यकता है।</div> | |||
<h1 style="text-align: center;"><span style="text-decoration: underline;">अनुक्रमणिका</span></h1> | |||
<h2>इतिहास -</h2> | |||
<h3>[[ #1 | 1. इतिहास निर्देश व लक्षण।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #1.1 | 1.1 इतिहासका लक्षण।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #1.2 | 1.2 ऐतिह्य प्रमाणका श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2 | 2. संवत्सर निर्देश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.1 | 2.1 संवत्सर सामान्य व उसके भेद।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.2 | 2.2 वीर निर्वाण संवत्।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.3 | 2.3 विक्रम संवत्।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.4 | 2.4 शक संवत्।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.5 | 2.5 शालिवाहन संवत्।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.6 | 2.6 ईसवी संवत्।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.7 | 2.7 गुप्त संवत्।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.8 | 2.8 हिजरी संवत्।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.9 | 2.9 मघा संवत्।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #2.10 | 2.10 सब संवतोंका परस्पर सम्बन्ध।]]</h3> | |||
<h3>[[ #3 | 3. ऐतिहासिक राज्य वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #3.1 | 3.1 भोज वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #3.2 | 3.2 कुरु वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #3.3 | 3.3 मगध देशके राज्य वंश (१. सामान्य; २. कल्की; ३. हून; ४. काल निर्णय)]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #3.4 | 3.4 राष्ट्रकूट वंश।]]</h3> | |||
<h3>[[ #4 | 4. दिगम्बर मूलसंघ।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.1 | 4.1 मूल संघ।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.2 | 4.2 मूल संघकी पट्टावली।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.3 | 4.3 पट्टावलीका समन्वय।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.4 | 4.4 मूलसंघ का विघटन।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.5 | 4.5 श्रुत तीर्थकी उत्पत्ति।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #4.6 | 4.6 श्रुतज्ञानका क्रमिक ह्रास।]]</h3> | |||
<h3>[[ #5 | 5. दिगम्बर जैन संघ।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #5.1 | 5.1 सामान्य परिचय।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #5.2 | 5.2 नन्दिसंघ।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #5.3 | 5.3 अन्य संघ।]]</h3> | |||
<h3>[[ #6 | 6. दिगम्बर जैनाभासी संघ।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #6.1 | 6.1 सामान्य परिचय।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #6.2 | 6.2 यापनीय संघ।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #6.3 | 6.3 द्राविड़ संघ।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #6.4 | 6.4 काष्ठा संघ।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #6.5 | 6.5 माथुर संघ।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #6.6 | 6.6 भिल्लक संघ।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #6.7 | 6.7 अन्य संघ तथा शाखायें।]]</h3> | |||
<h3>[[ #7 | 7. पट्टावलियें तथा गुर्वावलियें।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.1 | 7.1 मूल संघ विभाजन।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.2 | 7.2 नन्दिसंघ बलात्कार गण।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.3 | 7.3 नन्दिसंघ बलात्कार गणकी भट्टारक आम्नाय।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.4 | 7.4 नन्दिसंघबलात्कार गणकी शुभचन्द्र आम्नाय।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.5 | 7.5 नन्दिसंघ देशीयगण।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.6 | 7.6 सेन या ऋषभ संघ।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.7 | 7.7 पंचस्तूप संघ।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.8 | 7.8 पुन्नाट संघ।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.9 | 7.9 काष्ठा संघ।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.10 | 7.10 लाड़ बागड़ गच्छ।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #7.11 | 7.11 माथुर गच्छ।]]</h3> | |||
<h3>[[ #8 | 8. आचार्य समयानुक्रमणिका।]]</h3> | |||
<h3>[[ #9 | 9. पौराणिक राज्य वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.1 | 9.1 सामान्य वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.2 | 9.2 इक्ष्वाकु वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.3 | 9.3 उग्र वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.4 | 9.4 ऋषि वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.5 | 9.5 कुरुवंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.6 | 9.6 चन्द्र वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.7 | 9.7 नाथ वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.8 | 9.8 भोज वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.9 | 9.9 मातङ्ग वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.10 | 9.10 यादव वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.11 | 9.11 रघुवंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.12 | 9.12 राक्षस वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.13 | 9.13 वानर वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.14 | 9.14 विद्याधर वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.15 | 9.15 श्रीवंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.16 | 9.16 सूर्य वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.17 | 9.17 सोम वंश।]]</h3> | |||
<h3 style="padding-left: 30px;">[[ #9.18 | 9.18 हरिवंश।]]</h3> | |||
<h3>[[ #10 | 10. आगम समयानुक्रमणिका।]]</h3> | |||
<p style="text-align: justify;"> </p> | |||
<h2><strong>इतिहास - </strong></h2> | |||
<p style="text-align: justify;">किसी भी जाति या संस्कृतिका विशेष परिचय पानेके लिए तत्सम्बन्धी साहित्य ही एक मात्र आधार है और उसकी प्रामाणिकता उसके रचयिता व प्राचीनतापर निर्भर है। अतः जैन संस्कृति का परिचय पानेके लिए हमें जैन साहित्य व उनके रचयिताओंके काल आदिका अनुशीलन करना चाहिए। परन्तु यह कार्य आसान नहीं है, क्योंकि ख्यातिलाभकी भावनाओंसे अतीत वीतरागीजन प्रायः अपने नाम, गाँव व कालका परिचय नहीं दिया करते। फिर भी उनकी कथन शैली पर से अथवा अन्यत्र पाये जानेवाले उन सम्बन्धी उल्लेखों परसे, अथवा उनकी रचनामें ग्रहण किये गये अन्य शास्त्रोंके उद्धरणों परसे, अथवा उनके द्वारा गुरुजनोंके स्मरण रूप अभिप्रायसे लिखी गयी प्रशस्तियों परसे, अथवा आगममें ही उपलब्ध दो-चार पट्टावलियों परसे, अथवा भूगर्भसे प्राप्त किन्हीं शिलालेखों या आयागपट्टोंमें उल्लखित उनके नामों परसे इस विषय सम्बन्धी कुछ अनुमान होता है। अनेकों विद्वानोंने इस दिशामें खोज की है, जो ग्रन्थोंमें दी गयी उनकी प्रस्तावनाओंसे विदित है। उन प्रस्तावनाओंमें से लेकर ही मैंने भी यहाँ कुछ विशेष-विशेष आचार्यों व तत्कालीन प्रसिद्ध राजाओं आदिका परिचय संकलित किया है। यह विषय बड़ा विस्तृत है। यदि इसकी गहराइयोंमें घुसकर देखा जाये तो एकके पश्चात् एक करके अनेकों शाखाएँ तथा प्रतिशाखाएँ मिलती रहनेके कारण इसका अन्त पाना कठिन प्रतीत होता है, अथवा इस विषय सम्बन्धी एक पृथक् ही कोष बनाया जा सकता है। परन्तु फिर भी कुछ प्रसिद्ध व नित्य परिचय में आनेवाले ग्रन्थों व आचार्योंका उल्लेख किया जाना आवश्यक समझकर यहाँ कुछ मात्रका संकलन किया है। विशेष जानकारीके लिए अन्य उपयोगी साहित्य देखनेकी आवश्यकता है।</p> | |||
<p style="text-align: justify;"> </p> | |||
<h3 id="1"><strong>1. इतिहास निर्देश व लक्षण</strong></h3> | |||
<h4 id="1.1" style="padding-left: 30px;"><strong>1.1 इतिहासका लक्षण</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">म.पु.१/२५ इतिहास इतीष्टं तद् इति हासीदिति श्रुतेः। इति वृत्तमथै तिह्यमाम्नायं चामनस्ति तत् ।२५। = `इति इह आसीत्' (यहाँ ऐसा हुआ) ऐसी अनेक कथाओंका इसमें निरूपण होनेसे ऋषिगण इसे (महापुराणको) `इतिहास', `इतिवृत्त' `ऐतिह्य' भी कहते हैं ।२५।</p> | |||
<p id="1.2" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>1.2 ऐतिह्य प्रमाणका श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">रा.वा.१/२०/१५/७८/१९ ऐतिह्यस्य च `इत्याह स भगवान् ऋषभः' इति परंपरीणपुरुषागमाद् गृह्यते इति श्रुतेऽन्तर्भावः। = `भगवान् ऋषभने यह कहा' इत्यादि प्राचीन परम्परागत तथ्य ऐतिह्य प्रमाण है। इसका श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव हो जाता है।</p> | |||
<p style="text-align: justify;"> </p> | |||
<h3 id="2" style="text-align: justify;"><strong>2. संवत्सर निर्देश</strong></h3> | |||
<h4 id="2.1" style="padding-left: 30px;"><strong>2.1 संवत्सर सामान्य व उसके भेद<br /></strong></h4> | |||
<p style="padding-left: 30px;">इतिहास विषयक इस प्रकरणमें क्योंकि जैनागमके रचयिता आचार्योंका, साधुसंघकी परम्पराका, तात्कालिक राजाओंका, तथा शास्त्रोंका ठीक-ठीक कालनिर्णय करनेकी आवश्यकता पड़ेगी, अतः संवत्सरका परिचय सर्वप्रथम पाना आवश्यक है। जैनागममें मुख्यतः चार संवत्सरोंका प्रयोग पाया जाता है - १. वीर निर्वाणसंवत्; २. विक्रम संवत्; ३. ईसवी संवत्; ४. शक संवत्; परन्तु इनके अतिरिक्त भी कुछ अन्य संवतोंका व्यवहार होता है - जैसे १. गुप्त संवत् २. हिजरी संवत्; ३. मधा संवत्; आदि।</p> | |||
<h4 id="2.2" style="padding-left: 30px;"><strong>2.2 वीर निर्वाण संवत् निर्देश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">क.पा.१/$५६/७५/२ एदाणि [पण्णरसदिवसेहि अट्ठमासेहि य अहिय-] पंचहत्तरिवासेसु सोहिदे वड्ढमाणजिणिदे णिव्वुदे संते जो सेसो चउत्थकालो तस्स पमाणं होदि। = इद बहत्तर वर्ष प्रमाण कालको (महावीरका जन्मकाल-दे. महावीर) पन्द्रह दिन और आठ महीना अधिक पचहत्तरवर्षमेंसे घटा देनेपर, वर्द्धमान जिनेन्द्रके मोक्ष जानेपर जितना चतुर्थ कालका प्रमाण [या पंचम कालका प्रारम्भ] शेष रहता है, उसका प्रमाण होता है। अर्थात् ३ वर्ष ८ महीने और पन्द्रह दिन। (ति.प. ४/१४७४)। | |||
<br />ध.१ (प्र. ३२ H. L. Jain) साधारणतः वीर निर्वाण संवत् व विक्रम संवत्में ४७० वर्ष का अन्तर रहता है। परन्तु विक्रम संवत्के प्रारम्भके सम्बन्धमें प्राचीन कालसे बहुत मतभेद चला आ रहा है, जिसके कारण भगवान् महावीरके निर्वाण कालके सम्बन्धमें भी कुछ मतभेद उत्पन्न हो गया है। उदाहरणार्थ-नन्दि संघकी पट्टावलीमें आ. इन्द्रनन्दिने वीरके निर्वाणसे ४७० वर्ष पश्चात् विक्रमका जन्म और ४८८ वर्ष पश्चात् उसका राज्याभिषेक बताया है। इसे प्रमाण मानकर बैरिस्टर श्री काशीलाल जायसवाल वीर निर्वाणके कालको १८ वर्ष ऊपर उठानेका सुझाव देते हैं, क्योंकि उनके अनुसार विक्रम संवत्का प्रारम्भ उसके राज्याभिषेकसे हुआ था। परन्तु दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही आम्नायोंमें विक्रम संवत्का प्रचार वीर निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चात् माना गया है। इसका कारण यह है कि सभी प्राचीन शास्त्रोंमें शक संवत्का प्रचार वीर निर्वाणके ६०५ वर्ष पश्चात् कहा गया है और उसमें तथा प्रचलित विक्रम संवत्में १३५ वर्षका अन्तर प्रसिद्ध है। (जै. पी. २८४) (विशेष दे. परिशिष्ट १)। दूसरी बात यह भी है कि ऐसा मानने पर भगवान् वीर को प्रतिस्पर्धी शास्ताके रूपमें महात्मा बुद्धके साथ १२-१३ वर्ष तक साथ-साथ रहनेका अवसर भी प्राप्त हो जाता है, क्योंकि बोधि लाभसे निर्वाण तक भगवान् वीरका काल उक्त मान्यताके अनुसार ई. पू. ५५७-५२७ आता है जबकि बुद्धका ई. पू. ५८८-५४४ माना गया है। जै.सा.इ.पी. ३०३)</p> | |||
<h4 id="2.3" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.3 विक्रम संवत् निर्देश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">यद्यपि दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों आम्नायोंमें विक्रम संवत्का प्रचार वीर निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चात् माना गया है, तद्यपि यह संवत् विक्रमके जन्मसे प्रारम्भ होता है अथवा उनके राज्याभिषेकसे या मृत्युकालसे, इस विषयमें मतभेद है। दिगम्बरके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् ६० वर्ष तक पालकका राज्य रहा, तत्पश्चात् १५५ वर्ष तक नन्द वंशका और तत्पश्चात् २२५ वर्ष तक मौर्य वंशका। इस समयमें ही अर्थात् वी. नि. ४७० तक ही विक्रमका राज्य रहा परन्तु श्वेताम्बरके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् १५५ वर्ष तक पालक तथा नन्दका, तत्पश्चात् २२५ वर्ष तक मौर्य वंशका और तत्पश्चात् ६० वर्ष तक विक्रमका राज्य रहा। यद्यपि दोनोंका जोड़ ४७० वर्ष आता है तदपि पहली मान्यतामें विक्रमका राज्य मौर्य कालके भीतर आ गया है और दूसरी मान्यतामें वह उससे बाहर रह गया है क्योंकि जन्मके १८ वर्ष पश्चात् विक्रमका राज्याभिषेक और ६० वर्ष तक उसका राज्य रहना लोक-प्रसिद्ध है, इसलिये उक्त दोनों ही मान्यताओं से उसका राज्याभिषेक वी. नि. ४१० में और जन्म ३९२ में प्राप्त होता है, परन्तु नन्दि संघकी पट्टावलीमें उसका जन्म वी. नि. ४७० में और राज्याभिषेक ४८८ में कहा गया है, इसलिये विद्वान् लोग उसे भ्रान्तिपूर्ण मानते हैं। (विशेष दे. परिशिष्ट १)<br />इसी प्रकार विक्रम संवत्को जो कहीं-कहीं शक संवत् अथवा शालिवाहन संवत् माननेकी प्रवृत्ति है वह भी युक्त नहीं है, क्योंकि ये तीनों संवत् स्वतन्त्र हैं। विक्रम संवत्का प्रारम्भ वी. नि. ४७० में होता है, शक संवत्का वी.नि. ६०५ में और शालिवाहन संवत्का वी.नि. ७४१ में। (दे. अगले शीर्षक)</p> | |||
<h4 id="2.4" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.4 शक संवत् निर्देश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">यद्यपि `शक' शब्दका प्रयोग संवत्-सामान्यके अर्थ में भी किया जाता है, जैसे वर्द्धमान शक, विक्रम शक, शालिवाहन शक इत्यादि, और कहीं-कहीं विक्रम संवत्को भी शक संवत् मान लिया जाता है, परन्तु जिस `शक' की चर्चा यहाँ करनी इष्ट है वह एक स्वतन्त्र संवत् है। यद्यपि आज इसका प्रयोग प्रायः लुप्त हो चुका है, तदपि किसी समय दक्षिण देशमें इस ही का प्रचार था, क्योंकि दक्षिण देशके आचार्यों द्वारा लिखित प्रायः सभी शास्त्रोंमें इसका प्रयोग देखा जाता है। इतिहासकारोंके अनुसार भृत्यवंशी गौतमी पुत्र राजा सातकर्णी शालिवाहनने ई. ७९ (वी.नि. ६०६) में शक वंशी राजा नरवाहनको परास्त कर देनेके उपलक्ष्यमें इस संवत्को प्रचलित किया था। जैन शास्त्रोंके अनुसार भी वीर निर्वाणके ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात् शक राजाकी उत्पत्ति हुई थी। इससे प्रतीत होता है कि शकराजको जीत लेनेके कारण शालिवाहनका नाम ही शक पड़ गया था, इसलिए कहीं कहीं शालिवाहन संवत् को ही शक संवत् कहने की प्रवृत्ति चल गई, परन्तु वास्तवमें वह इससे पृथक् एक स्वतंत्र संवत् है जिसका उल्लेख नीचे किया गया है। प्रचलित शक संवत् वीर-निर्वाणके ६०५ वर्ष पश्चात् और विक्रम संवत्के १३५ वर्ष पश्चात् माना गया है। (विशेष दे. परिशिष्ट १)</p> | |||
<h4 id="2.5" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.5 शालिवाहन संवत्</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">शक संवत् इसका प्रचार आज प्रायः लुप्त हो चुका है तदपि जैसा कि कुछ शिलालेखोंसे विदित है किसी समय दक्षिण देशमें इसका प्रचार अवश्य रहा है। शकके नामसे प्रसिद्ध उपर्युक्त शालिवाहनसे यह पृथक् है क्योंकि इसकी गणना वीर निर्वाणके ७४१ वर्ष पश्चात् मानी गई है। (विशेष दे. परिशिष्ट १)</p> | |||
<h4 id="2.6" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.6 ईसवी संवत्</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">यह संवत् ईसा मसीहके स्वर्गवासके पश्चात् योरेपमें प्रचलित हुआ और अंग्रेजी साम्राज्यके साथ सारी दुनियामें फैल गया। यह आज विश्वका सर्वमान्य संवत् है। इसकी प्रवृत्ति वीर निर्वाणके ५२५ वर्ष पश्चात् और विक्रम संवत्से ५७ वर्ष पश्चात् होनी प्रसिद्ध है।</p> | |||
<h4 id="2.7" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.7 गुप्त संवत् निर्देश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">इसकी स्थापना गुप्त साम्राज्यके प्रथम सम्राट् चन्द्रगुप्तने अपने राज्याभिषेकके समय ईसवी ३२० अर्थात् वी.नि. के ८४६ वर्ष पश्चात् की थी। इसका प्रचार गुप्त साम्राज्य पर्यन्त ही रहा।</p> | |||
<h4 id="2.8" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.8 हिजरी संवत् निर्देश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">इस संवत्का प्रचार मुसलमानोंमें है क्योंकि यह उनके पैगम्बर मुहम्मद साहबके मक्का मदीना जानेके समयसे उनकी हिजरतमें विक्रम संवत् ६५० में अर्थात् वीर निर्वाणके ११२० वर्ष पश्चात् स्थापित हुआ था। इसीको मुहर्रम या शाबान सन् भी कहते हैं।</p> | |||
<h4 id="2.9" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.9 मघा संवत् निर्देश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">म. पु. ७६/३९९ कल्की राजाकी उत्पत्ति बताते हुए कहा है कि दुषमा काल प्रारम्भ होने के १००० वर्ष बीतने पर मघा नामके संवत्में कल्की नामक राजा होगा। आगमके अनुसार दुषमा कालका प्रादुर्भाव वी. नि. के ३ वर्ष व ८ मास पश्चात् हुआ है। अतः मघा संवत्सर वीर निर्वाणके १००३ वर्ष पश्चात् प्राप्त होता है। इस संवत्सरका प्रयोग कहीं भी देखनेमें नहीं आता।</p> | |||
<h4 id="2.10" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>2.10 सर्व संवत्सरोंका परस्पर सम्बन्ध</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">निम्न सारणीकी सहायतासे कोई भी एक संवत् दूसरेमें परिवर्तित किया जा सकता है।</p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>क्रम</th> | |||
<th>नाम</th> | |||
<th>संकेत</th> | |||
<th>१वी.नि.</th> | |||
<th>२ विक्रम</th> | |||
<th>३ ईसवी</th> | |||
<th>४ शक</th> | |||
<th>५ गुप्त</th> | |||
<th>६ हिजरी</th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>१</td> | |||
<td>वीर</td> | |||
<td>वी.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>निर्वाण</td> | |||
<td>नि.</td> | |||
<td>१</td> | |||
<td>पूर्व ४७०</td> | |||
<td>पूर्व ५२७</td> | |||
<td>पूर्व ६०५</td> | |||
<td>पूर्व ८४६</td> | |||
<td>पूर्व ११२०</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२</td> | |||
<td>विक्रम</td> | |||
<td>वि.</td> | |||
<td>४७०</td> | |||
<td>१</td> | |||
<td>पूर्व ५७</td> | |||
<td>पूर्व १३५</td> | |||
<td>पूर्व ३७६</td> | |||
<td>पूर्व ६५०</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३</td> | |||
<td>ईसवी</td> | |||
<td>ई.</td> | |||
<td>५२७</td> | |||
<td>५७</td> | |||
<td>१</td> | |||
<td>पूर्व ७८</td> | |||
<td>पूर्व ३१९</td> | |||
<td>पूर्व ५९३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४</td> | |||
<td>शक</td> | |||
<td>श.</td> | |||
<td>६०५</td> | |||
<td>१३५</td> | |||
<td>७८</td> | |||
<td>१</td> | |||
<td>पूर्व २४१</td> | |||
<td>पूर्व ५१५</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५</td> | |||
<td>गुप्त</td> | |||
<td>गु.</td> | |||
<td>८४६</td> | |||
<td>३७६</td> | |||
<td>३१९</td> | |||
<td>२४१</td> | |||
<td>१</td> | |||
<td>पूर्व २७४</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६</td> | |||
<td>हिजरी</td> | |||
<td>हि.</td> | |||
<td>११२०</td> | |||
<td>६५०</td> | |||
<td>५९४</td> | |||
<td>५३५</td> | |||
<td>२७४</td> | |||
<td>१</td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p style="text-align: justify;"> </p> | |||
<h3 id="3"><strong>3. ऐतिहासिक राज्यवंश</strong></h3> | |||
<h4 id="3.1" style="padding-left: 30px;"><strong>3.1 भोज वंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">द.सा./प्र. ३६-३७ (बंगाल एशियेटिक सोसाइटी वाल्यूम ५/पृ. ३७८ पर छपा हुआ अर्जुनदेवका दानपत्र); (ज्ञा./प्र./पं. पन्नालाल) = यह वंश मालवा देशपर राज्य करता था। उज्जैनी इनकी राजधानी थी। अपने समयका बड़ा प्रसिद्ध व प्रतापी वंश रहा है। इस वंशमें धर्म व विद्याका बड़ा प्रचार था। बंगाल एशियेटिक सोसाइटी वाल्यूम ५/पृ. ३७८ पर छपे हुए अर्जुनदेवके अनुसार इसकी वंशावली निम्न प्रकार है।</p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>सं.</th> | |||
<th>नाम</th> | |||
<th>समय</th> | |||
<th> </th> | |||
<th>विशेष</th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>वि.सं.</td> | |||
<td>ईसवी सन्</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१</td> | |||
<td>सिंहल</td> | |||
<td>९५७-९९७</td> | |||
<td>९००-९४०</td> | |||
<td>दानपत्रसे बाहर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२</td> | |||
<td>हर्ष</td> | |||
<td>९९७-१०३१</td> | |||
<td>९४०-९७४</td> | |||
<td>इतिहासके अनुसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३</td> | |||
<td>मुञ्ज</td> | |||
<td>१०३१-१०६०</td> | |||
<td>९७४-१००३</td> | |||
<td>दानपत्र तथा इतिहास</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४</td> | |||
<td>सिन्धु राज</td> | |||
<td>१०६०-१०६५</td> | |||
<td>१००३-१००८</td> | |||
<td>इतिहासके अनुसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५</td> | |||
<td>भोज</td> | |||
<td>१०६५-१११२</td> | |||
<td>१००८-१०५५</td> | |||
<td>दानपत्र तथा इतिहास</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६</td> | |||
<td>जयसिंह राज</td> | |||
<td>१११२-१११५</td> | |||
<td>१०५५-१०५८</td> | |||
<td>दानपत्र तथा इतिहास</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७</td> | |||
<td>उदयादित्य</td> | |||
<td>१११५-११५०</td> | |||
<td>१०५८-१०९३</td> | |||
<td>समय निश्चित है</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८</td> | |||
<td>नरधर्मा</td> | |||
<td>११५०-१२००</td> | |||
<td>१०९३-११४३</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९</td> | |||
<td>यशोधर्मा</td> | |||
<td>१२००-१२१०</td> | |||
<td>११४३-११५३</td> | |||
<td>दानपत्रसे बाहर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०</td> | |||
<td>अजयवर्मा</td> | |||
<td>१२१०-१२४९</td> | |||
<td>११५३-११९२</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११</td> | |||
<td>विन्ध्य वर्मा</td> | |||
<td>१२४९-१२५७</td> | |||
<td>११९२-१२००</td> | |||
<td>इसका समय निश्चित है</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>विजय वर्मा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२</td> | |||
<td>सुभटवर्मा</td> | |||
<td>१२५७-१२६४</td> | |||
<td>१२००-१२०७</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३</td> | |||
<td>अर्जुनवर्मा</td> | |||
<td>१२६४-१२७५</td> | |||
<td>१२०७-१२१८</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४</td> | |||
<td>देवपाल</td> | |||
<td>१२७५-१२८५</td> | |||
<td>१२१८-१२२८</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५</td> | |||
<td>जैतुगिदेव</td> | |||
<td>१२८५-१२९६</td> | |||
<td>१२२८-१२३९</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p style="padding-left: 30px;">नोट - इस वंशावलीमें दर्शाये गये समय, उदयादित्य व विन्ध्यवर्माके समयके आधारपर अनुमानसे भरे गये हैं। क्योंकि उन दोनोंके समय निश्चित हैं, इसलिए यह समय भी ठीक समझना चाहिए।</p> | |||
<h4 id="3.2" style="padding-left: 30px;"><strong>3.2 कुरु वंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">इस वंशके राजा पाञ्चाल देशपर राज्य करते थे। कुरुदेश इनकी राजधानी थी। इस वंशमें कुल चार राजाओं का उल्लेख पाया जाता है - १. प्रवाहण जैबलि (ई. पू. १४००); २. शतानीक (ई. पू. १४००-१४२०); ३. जन्मेजय (ई. पू. १४२०-१४५०) ४. परीक्षित (ई. पू. १४५०-१४७०)।</p> | |||
<h4 id="3.3" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>3.3 मगध देशके राज्यवंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>3.3.1 सामान्य परिचय</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">जै. पी./पु. - जैन परम्परामें तथा भारतीय इतिहासमें किसी समय मगध देश बहुत प्रसिद्ध रहा है। यद्यपि यह देश बिहार प्रान्तके दक्षिण भागमें अवस्थित है, तथापि महावीर तथा बुद्धके कालमें पञ्जाब, सौराष्ट्र, बङ्गाल, बिहार तथा मालवा आदिके सभी राज्य इसमें सम्मिलित हो गये थे। उससे पहले जब ये सब राज्य स्वतन्त्र थे तब मालवा या अवन्ती राज्य और मगध राज्यमें परस्पर झड़पें चलती रहती थीं। मालवा या अवन्तीकी राजधानी उज्जयनी थी जिसपर `प्रद्योत' राज्य करता था और मगधकी राजधानी पाटलीपुत्र (पटना) या राजगृही थी जिसपर श्रेणिक बिम्बसार राज्य करते थे।<br />प्रद्योत तथा श्रेणिक प्रायः समकालीन थे। प्रद्योतका पुत्र पालक था और श्रेणिकके दो पुत्र थे, अभय कुमार और अजातशत्रु कुणिक। अभयकुमार श्रेणिकका मन्त्री था जिसने प्रद्योतको बन्दी बनाकर उसके आधीनकर दिया था।३२०। वीर निर्वाणवाले दिन अवन्ती राज्यपर प्रद्योतका पुत्र पालक गद्दीपर बैठा। दूसरी ओर मगध राज्यमें वी. नि. से ९ वर्ष पूर्व श्रेणिकका पुत्र अजातशत्रु राज्यासीन हुआ ।३१६। पालकका राज्य ६० वर्ष तक रहा। इसके राज्यकालमें ही मगधकी गद्दीपर अजातशत्रु का पुत्र उदयी आसीन हो गया था। इससे अपनी शक्ति बढा ली थी जिसके द्वारा इसने पालकको परास्त करके अवन्तीपर अधिकारकर लिया परन्तु उसे अपने राज्यमें नहीं मिला सका। यह काम इसके उत्तराधिकारी नन्दिवर्धनने किया। यहाँ आकर अवन्ती राज्यकी सत्ता समाप्त हो गई ।३२८, ३३१।<br />श्रेणिकके वंशमें पुत्र परम्परासे अनेकों राजा हुए। सब अपने-अपने पिताको मारकर राज्यपर अधिकार करते रहे, इसलिये यह सारा वंश पितृघाती कुलके रूपमें बदनाम हो गया। जनताने इसके अन्तिम राजा नागदासको गद्दीसे उतारकर उसके मन्त्री सुसुनागको राजा बना दिया। अवन्तीको अपने राज्यमें मिलाकर मगध देशकी वृद्धि करनेके कारण इसीका नाम नन्दिवर्धन पड़ गया ।३३१। यह नन्दवंशका प्रथम राजा हुआ। इस वंशने १५५ वर्ष राज्य किया। अन्तिम राजा धनानन्द था जो भोग विलासमें पड़ जानेके कारण जनताकी दृष्टिसे उतर गया। उसके मन्त्री शाकटालने कूटनीतिज्ञ चाणक्यकी सहायतासे इसके सारे कुलको नष्ट कर दिया और चन्द्रगुप्त मौर्यको राजा बना दिया ।३६२।<br />चन्द्र गुप्तसे मौर्य या मरुड वंशकी स्थापना हुई, जिसका राज्यकाल २५५ वर्ष रहा कहा जाता है। परन्तु जैन इतिहासके अनुसार वह ११५ वर्ष और लोक इतिहासके अनुसार १३७ वर्ष प्राप्त होता है। इस वंशके प्रथम राजा चन्द्रगुप्त जैन थे, परन्तु उसके उत्तराधिकारी बिन्दुसार, अशोक, कुनाल और सम्प्रति ये चारों राजा बौद्ध हो गये थे। इसीलिये बौद्धाम्नायमें इन चारोंका उल्लेख पाया जाता है, जबकि जैनाम्नायमें केवल एक चन्द्रगुप्तका ही काल देकर समाप्तकर दिया गया है ।३१६।<br />इसके पश्चात् मगध देशपर शक वंशने राज्य किया जिसमें पुष्यमित्र आदि अनेकों राजा हुए जिनका शासन २३० वर्ष रहा। अन्तिम राजा नरवाहन हुआ। तदनन्तर यहाँ भृत्य अथवा कुशान वंशका राज्य आया जिसके राजा शालिवाहनने वी. नि. ६०५ (ई. ७९) में शक वंशी नरवाहनको परास्त करनेके उपलक्षमें शक संवत्की स्थापनाकी। (दे. इतिहास २/४)। इस वंशका शासन २४२ वर्ष तक रहा।<br />भृत्य वंशके पश्चात् इस देशमें गुप्तवंशका राज्य २३१ वर्ष पर्यन्त रहा, जिसमें चन्द्रगुप्त द्वि. तथा समुद्रगुप्त आदि ६ राजा हुए। परन्तु तृतीय राजा स्कन्दगुप्त तक ही इसकी स्थिति अच्छी रही, क्योंकि इसके कालमें हूनवंशी सरदार काफी जोर पकड़ चुके थे। यद्यपि स्कन्दगुप्तने इन्हें परास्तकर दिया था तदपि इसके उत्तराधिकारी कुमारगुप्तसे उन्होंने राज्यका बहुभाग छीन लिया। यहाँ तक कि ई. ५०० (वी. नि. १०२७) में इस वंशके अन्तिम राजा भानुगुप्तको जोतकर हूनराज तोरमाणने सारे पंजाब तथा मालवा (अवन्ती) पर अपना अधिकार जमा लिया, और इसके पुत्र मिहिरपालने इस वंश को नष्ट भ्रष्ट कर दिया। (क. पा. १/प्र. ५४,६५/पं. महेन्द्र)। इसलिये शास्त्रकारोंने इस वंशकी स्थिति वी. नि. ९५८ (ई. ४३१) तक ही स्वीकार की। जैनआम्नायके अनुसार वी. नि. ९५८ (ई. ४३१)में इन्द्रसुत कल्कीका राज्य प्रारम्भ हुआ, जिसने प्रजापर बड़े अत्याचार किये, यहाँ तक कि साधुओंसे भी उनके आहारका प्रथम ग्रास शुक्लके रूपमें मांगना प्रारम्भकर दिया। इसका राज ४२ वर्ष अर्थात् वी. नि. १००० (ई. ४७३) तक रहा। इस कुलका विशेष परिचय आगे पृथक्से दिया गया है। (दे. अगला उपशीर्षक)।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>3.3.2 कल्की वंश</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">ति. प. ४/१५०९-१५११ तत्तो कक्की जादी इंदसुदो तस्स चउमुहो णामो। सत्तरि वरिसा आऊ विगुणियइगिवीस रज्जंतो ।१५०९। आचारांगधरादो पणहत्तरिजुत्तदुसमवासेसुं। वोलीणेसं बद्धो पट्टो कक्किस्स णरवइणो ।।१५१०।। अहसाहियाण कक्की णियजोग्गे जणपदे पयत्तेणं। सुक्कं जाचदि लुद्धो पिंडग्गं जाव ताव समणाओ ।।१५११।। = गुप्त कालके पश्चात् अर्थात् वी. नि. ९५८ में `इन्द्र' का सुत कल्की अपर नाम चतुर्मुख राजा हुआ। इसकी आयु ७० वर्ष थी और ४२ वर्ष अर्थात् वी. नि. १००० तक उसने राज्य किया ।।१५०९।। आचारांगधरों (वी.नि. ६८३) के पश्चात् २७५ वर्ष व्यतीत होनेपर अर्थात् वी. नि. ९५८ में कल्की राजाको पट्ट बाँधा गया ।।१५१०।। तदनन्तर वह कल्की प्रयत्न पूर्वक अपने-अपने योग्य जनपदोंको सिद्ध करके लोभको प्राप्त होता हुआ मुनियोंके आहारमें-से भी अग्रपिण्डको शुल्कमें मांगने लगा ।।१५११।। (ह.पु. ६०/४९१-४९२)<br />त्रि.सा. ८५० पण्णछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिव्वुइदे। सगराजो तो कक्की चदुणवतियमहिय सगमासं।। = वीर निर्वाणके ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात् शक राजा हुआ और उसके ३९४ वर्ष ७ मास पश्चात् अर्थात् वीर निर्वाणके १००० वर्ष पश्चात् कल्की राजा हुआ। उ. पु. ७६/३९७-४०० दुष्षमायां सहस्राब्दव्यतीतौ धर्महानितः ।३९७। पुरे पाटलिपुत्राख्ये शिशुपालमहीपतेः। पापी तनूजः पृथिवीसुन्दर्यां दुर्जनादिमः ।३९८। चतुर्मुखाह्वयः कल्किराजो वेजितभूतलः।....।३९९। समानां सप्तितस्य परमायुः प्रकीर्तितम्। चत्वारिंशत्समा राज्यस्थितिश्चाक्रमकारिणः ।।४०।। = जन्म दुःखम कालके १००० वर्ष पश्चात्। आयु ७० वर्ष। राज्यकाल ४० वर्ष। राजधानी पाटलीपुत्र। नाम चतुर्मुख। पिता शिशुपाल।<br />नोट - शास्त्रोल्लिखित उपर्युक्त तीन उद्धरणोंसे कल्कीराजके विषयमें तीन दृष्टियें प्राप्त होती हैं। तीनों ही के अनुसार उसका नाम चतुर्मुख था, आयु ७० वर्ष तथा राज्यकाल ४० अथवा ४२ वर्ष था। परन्तु ति. प. में उसे इन्द्र का पुत्र बताया गया है और उत्तर पुराणमें शिशुपालका। राज्यारोहण कालमें भी अन्तर है। ति. प. के अनुसार वह वी. नि. ९५८ में गद्दीपर बैठा, त्रि. सा. के अनुसार वी. नि. १००० में और उ. पु. के अनुसार दुःषम काल (वी. नि. ३) के १००० वर्ष पश्चात् अर्थात् १००३ में उसका जन्म हुआ और १०३३ से १०७३ तक उसने राज्य किया। यहाँ चतुर्मुखको शिशुपालका पुत्र भी कहा है। इसपरसे यह जाना जाता है कि यह कोई एक राजा नहीं था, सन्तान परम्परासे होनेवाले तीन राजा थे - इन्द्र, इसका पुत्र शिशुपाल और उसका पुत्र चतुर्मुख। उत्तरपुराणमें दिये गए निश्चित काल के आधारपर इन तीनोंका पृथक्-पृथक् काल भी निश्चित हो जाता है। इन्द्रका वी. नि. ९५८-१०००, शिशुपालका १०००-१०३३, और चतुर्मुखका १०३३-१०७३ । तीनों ही अत्यन्त अत्याचारी थे।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>3.3.3 हून वंश</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">क. पा. १/प्र. ५४/६५ (पं. महेन्द्र कुमार) - लोक-इतिहासमें गुप्त वंशके पश्चात् कल्कीके स्थानपर हूनवंश प्राप्त होता है। इसके राजा भी अत्यन्त अत्याचारी बताये गये हैं और काल भी लगभग वही है, इसलिये कहा जा सकता है कि शास्त्रोक्त कल्की और इतिहासोक्त हून एक ही बात है। जैसा कि मगध राज्य वंशोंका सामान्य परिचय देते हुए बताया जा चुका है इस वंशके सरदार गुप्तकालमें बराबर जोर पकड़ते जा रहे थे और गुप्त राजाओंके साथ इनकी मुठभेड़ बराबर चलती रहती थी। यद्यपि स्कन्द गुप्त (ई. ४१३-४३५) ने अपने शासन कालमें इसे पनपने नहीं दिया, तदपि उसके पश्चात् इसके आक्रमण बढ़ते चले गए। यद्यपि कुमार गुप्त (ई. ४३५-४६०) को परास्त करनेमें यह सफल नहीं हो सका तदपि उसकी शक्तिको इसने क्षीण अवश्य कर दिया, यहाँ तक कि इसके द्वितीय सरदार तोरमाणने ई. ५०० में गुप्तवंशके अन्तिम राजा भानुगुप्तके राज्यको अस्त-व्यस्त करके सारे पंजाब तथा मालवापर अपना अधिकार जमा लिया। ई. ५०७ में इसके पुत्र मिहिरकुलने भानुगुप्तको परास्तकरके सारे मगधपर अपना एक छत्र राज्य स्थापित कर दिया।<br />परन्तु अत्याचारी प्रवृत्तिके कारण इसका राज्य अधिक काल टिक न सका। इसके अत्याचारोंसे तंग आकर विष्णु-यशोधर्म नामक एक हिन्दू सरदारने मगधकी बिखरी हुई शक्तिको संगठित किया और ई. ५२८ में मिहिरकुलको मार भगाया। उसने कशमीरमें शरण ली और ई. ५४० में वहाँ ही उसकी मृत्यु हो गई।<br />विष्णु-यशोधर्म कट्टर वैष्णव था, इसलिये उसने यद्यपि हिन्दू धर्मकी बहुत वृद्धिकी तदपि साम्प्रदायिक विद्वेषके कारण जैन संस्कृतिपर तथा श्रमणोंपर बहुत अत्याचार किये, जिसके कारण जैनाम्नायमें यह कल्की नामसे प्रसिद्ध हो गया और हिन्दुओंने इसे अपना अन्तिम अवतार (कल्की अवतार) स्वीकार किया।<br />जैन मान्य कल्कि वंशकी हून वंशके साथ तुलना करनेपर हम कह सकते हैं वी. नि. ९५८-१००० (ई. ४३१-४७३) में होनेवाला राजा इन्द्र इस कुलका प्रथम सरदार था, वी. नि. १०००-१०३३ (ई. ४७३-५०६) का शिशुपाल यहाँ तोरमाण है, वी. नि. १०३३-१०७३ वाला चतुर्मुख यहाँ ई. ५०६-५४६ का मिहिरकुल है। विष्णु यशोधर्मके स्थानपर किसी अन्य नामका उल्लेख न करके उसके कालको भी यहाँ चतुर्मुखके कालमें सम्मिलित कर लिया गया है।</p> | |||
<p id="3.4" style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>3.3.4 काल निर्णय</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">अगले पृष्ठकी सारणीमें मगधके राज्यवंशों तथा उनके राजाओंका शासन काल विषयक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।<br />आधार-जैन शास्त्र = ति. प. ४/१५०५-१५०८; ह. पु. ६०/४८७-४९१।<br />सन्धान - ति. प. २/प्र. ७, १४। उपाध्ये तथा एच. ऐल. जैन; ध. १/प्र. ३३/एच. एल. जैन; क. पा. १/प्र. ५२-५४ (६४-६५)। पं. महेन्द्रकुमार; द. सा./प्र. २८/पं. नाथूराम प्रेमी; पं. कैलाश चन्दजी कृत जैन साहित्य इतिहास पूर्व पीठिका।<br />प्रमाण - जैन इतिहास = जैन साहित्य इतिहास पूर्व पीठिका/ पृष्ठ संख्या<br />संकेत - वी. नि. = वीर निर्वाण संवत्; ई. पू. = ईसवी पूर्व; ई. = ईसवी; पू. = पूर्व; सं. = संवत्; वर्ष= कुल शासन काल; लोक इतिहास = वर्तमान इतिहास।</p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 60px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>नाम</th> | |||
<th>जैन शास्त्र (ति. प. ४/१५०५)</th> | |||
<th> </th> | |||
<th> </th> | |||
<th>मत्स्य पुराण</th> | |||
<th> </th> | |||
<th>जैन इतिहास</th> | |||
<th> </th> | |||
<th> </th> | |||
<th>विशेषताएँ</th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>प्रमाण</td> | |||
<td>वी.नि.</td> | |||
<td>ई.पू.</td> | |||
<td>प्रमाण</td> | |||
<td>वर्ष</td> | |||
<td>प्रमाण</td> | |||
<td>ई.पू.</td> | |||
<td>वर्ष</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>अवन्ती राज्य</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१. प्रद्योत वंश</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>सामान्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३१७</td> | |||
<td>१२५</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>प्रद्योत</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३१७</td> | |||
<td>२३</td> | |||
<td>३२५</td> | |||
<td>५६०-५२७</td> | |||
<td>३३</td> | |||
<td>श्रेणिक तथा अजातशत्रुका समकालीन ।३२२। श्रेणिकके मन्त्री अभयकुमारने बन्दी बनाकर श्रेणिकके आधीन किया था ।३२०।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>पालक</td> | |||
<td>३२६</td> | |||
<td>Jan-१९६०</td> | |||
<td>५२७-४६७</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३२५</td> | |||
<td>५२७-४६७</td> | |||
<td>६०</td> | |||
<td>इसे गद्दीसे उतारकर जनताने मगध नरेश उदयी (अजक) को राजा स्वीकार कर लिया ।३३२।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>विशाखयूप</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३१७</td> | |||
<td>५३</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>आर्यक, सूर्यक</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३१८</td> | |||
<td>२१</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>अजक (उदयी)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>४९९-४६७</td> | |||
<td>३२</td> | |||
<td>मगध शासनके ५३ वर्षोंमें से अन्तिम ३२ वर्ष इसने अवन्ती पर शासन किया ।२८९। परन्तु दुष्टताके कारण किसी भ्रष्ट राजकुमारके हाथों धोखेसे निःसन्तान मारा गया ।२३२।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>नन्दि वर्द्धन</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>४६७-४४९</td> | |||
<td>१८</td> | |||
<td>इसने मगधमें मिलाकर इस राज्यका अन्तकर दिया ।३२८।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>मगध राज्य</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१. शिशुनाग वंश</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>सामान्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>१२६</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>शिशुनाग</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३१८</td> | |||
<td>४०</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>जायसवालजीके अनुसार श्रेणिक वंशीय दर्शकके अपर नाम हैं। शिशुनाग तथा काकवण उसके विशेषण हैं ।३२२।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>काकवर्ण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३१८</td> | |||
<td>२६</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>क्षेत्रधर्मा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३१८</td> | |||
<td>३६</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>क्षतौजा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३१८</td> | |||
<td>२४</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td></td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p> </p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 60px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>नाम</th> | |||
<th>बौद्ध शास्त्र महावंश</th> | |||
<th> </th> | |||
<th> </th> | |||
<th>मत्स्यपुराण</th> | |||
<th> </th> | |||
<th>जैन इतिहास</th> | |||
<th> </th> | |||
<th> </th> | |||
<th>विशेषताएँ</th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>प्रमाण</td> | |||
<td>बु.नि.</td> | |||
<td>ई.पू.</td> | |||
<td>वर्ष</td> | |||
<td>वर्ष</td> | |||
<td>प्रमाण</td> | |||
<td>ई.पू.</td> | |||
<td>वर्ष</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२. श्रेणिक वंश</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>सामान्य</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td>राज्यके लोभसे अपने अपने पिताकी हत्या करनेके कारण यह कुल पितृघाती नामसे प्रसिद्ध है ।३१४।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>श्रेणिक (बिम्बसार)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>२८</td> | |||
<td>३०८</td> | |||
<td>६०४-६५२</td> | |||
<td>५२</td> | |||
<td>बुद्ध तथा महावीरके समकालीन ।३०४। इसके पुत्र अजातशत्रुका राज्याभिषेक ई. पू. ५५२ में निश्चित है।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>अजातशत्रु (कुणिक)</td> | |||
<td>३१६</td> | |||
<td>पू. ८-सं.२४</td> | |||
<td>५५२-५२०</td> | |||
<td>३२</td> | |||
<td>२७</td> | |||
<td>३०८</td> | |||
<td>५५२-५२०</td> | |||
<td>३२</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>भूमिमित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>१४</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>बौद्ध ग्रन्थोंमें इसका उल्लेख नहीं है ।३२२।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>दर्शक</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>२७</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>इसकी बहन पद्मावतीका विवाह उदयीके साथ होना माना गया है ।३२३।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>२४</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>वंशक</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>उदयी</td> | |||
<td>३१४</td> | |||
<td>२४-४०</td> | |||
<td>५२०-५०४</td> | |||
<td>१६</td> | |||
<td>३३</td> | |||
<td>३३३</td> | |||
<td>५२०-४६७</td> | |||
<td>५३</td> | |||
<td>अजातशत्रुका पुत्र ।३१४। अपरनाम अजक । ३२८। ई. पू. ४२९ में पालकको गद्दीसे हटाकर जनताने इसे अवन्तीका शासक बना दिया परन्तु यह उसे अपने देशमें नहीं मिला सका ।३२८।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>अनुरुद्ध</td> | |||
<td>३१४</td> | |||
<td>४०-४४</td> | |||
<td>५०४-५००</td> | |||
<td>४</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३३५</td> | |||
<td>४६७-४५८</td> | |||
<td>९</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>मुण्ड</td> | |||
<td>३१४</td> | |||
<td>४४-४८</td> | |||
<td>५००-४९६</td> | |||
<td>४</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३३५</td> | |||
<td>४५८-४४९</td> | |||
<td>८</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>नागदास</td> | |||
<td>३१४</td> | |||
<td>४८-७२</td> | |||
<td>४९६-४७२</td> | |||
<td>२४</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३१४</td> | |||
<td>४४९-४४९</td> | |||
<td>०</td> | |||
<td>पितृघाती कुलको समाप्त करनेके लिए जनताने उसके स्थानपर इसके मन्त्रीको राजा बना दिया ।३१४।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>सुसुनाग (नन्दिवर्धन)</td> | |||
<td>३१५</td> | |||
<td>७२-९०</td> | |||
<td>४७२-४५४</td> | |||
<td>१८</td> | |||
<td>४०</td> | |||
<td>३१४</td> | |||
<td>४४९-४०९</td> | |||
<td>४०</td> | |||
<td>नागदासका मन्त्री जिसे जनताने राजा बनाया ।३१४। अवन्ती राज्यको मिलाकर अपने देशकी वृद्धि करनेके कारण नन्दिवर्द्धन नाम पड़ा ।३३१।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>कालासोक</td> | |||
<td>३१५</td> | |||
<td>९०-११८</td> | |||
<td>४५४-४२६</td> | |||
<td>२८</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td></td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p> </p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 60px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>नाम</th> | |||
<th>जैन शास्त्र (ति. प. ४) १५०६</th> | |||
<th> </th> | |||
<th> </th> | |||
<th>मत्स्य पुराण</th> | |||
<th> </th> | |||
<th>जैन इतिहास</th> | |||
<th> </th> | |||
<th> </th> | |||
<th>विशेषताएँ</th> | |||
<th> </th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>प्रमाण</td> | |||
<td>वी.नी.</td> | |||
<td>ई.पू.</td> | |||
<td>वर्ष</td> | |||
<td>वर्ष</td> | |||
<td>प्रमाण</td> | |||
<td>ई.पू.</td> | |||
<td>वर्ष</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३. नन्द वंश</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>सामान्य</td> | |||
<td>३२९</td> | |||
<td>६०-२१५</td> | |||
<td>४६७-३१२</td> | |||
<td>१५५*</td> | |||
<td>१८३</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>खारवेल शिलालेखके आधारपर क्योंकि नंदिवर्द्धनका राज्याभिषेक ई. पू. ४५८ में होना सिद्ध होता है इसलिए जायसवाल जीने राजाओंके उपर्युक्त क्रममें कुछ हेर-फेर करके संगति बैठानेका प्रयत्न किया है ।३३४। श्रेणिक वंशीय नामदासका मन्त्री ही नन्दिवर्द्धनसे प्रसिद्ध हो गया था। (दे. ऊपर)। वास्तवमें यह नन्द वंशके राजाओंमें सम्मिलित नहीं थे। इस वंशमें नव नन्द प्रसिद्ध हैं। जिनका उल्लेख आगे किया गया है ।३३१।</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>अनुरुद्ध</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३३४</td> | |||
<td>४६७-४५८</td> | |||
<td>९</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>नन्दिवर्द्धन (सुसुनाग)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>४०</td> | |||
<td>३३४</td> | |||
<td>४५८-४१८</td> | |||
<td>४०</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>मुण्ड</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३३४</td> | |||
<td>४१८-४१०</td> | |||
<td>८</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>लोक इतिहास</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>नव नन्द :-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>५२६-३२२</td> | |||
<td>२०४</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>४१०-३२६</td> | |||
<td>८४</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>महानन्द</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>४३</td> | |||
<td>३३४</td> | |||
<td>४१०-३७४</td> | |||
<td>३६</td> | |||
<td>नन्दिवर्द्धनका उत्तराधिकारी तथा नन्द वंशका प्रथम राजा ।३३१।</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>महानन्दके २ पुत्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३३४</td> | |||
<td>३७४-३६६</td> | |||
<td>८</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>महापद्मनन्द (तथा इनके ४ पुत्र)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>८८</td> | |||
<td>३३४</td> | |||
<td>३६६-३३८</td> | |||
<td>२८*</td> | |||
<td>८८ तथा २८ वर्ष की गणनामें ६० वर्षका अन्तर है। इसके समाधानके लिए देखो नीचे टिप्पणी।</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>धनानन्द</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>१२</td> | |||
<td>३३४</td> | |||
<td>३३८-३२६</td> | |||
<td>१२</td> | |||
<td>भोग विलासमें पड़ जानेके कारण इसके कुलको नष्ट कर के इसके मन्त्री शाकटालने चाणक्यकी सहायतासे चन्द्र गुप्त मौर्यको राजा बना दिया ।३६४।</td> | |||
<td></td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">* जैन शास्त्रके अनुसार पालकका काल ६० वर्ष और नन्द वंशका १५५ वर्ष है। तदनन्तर अर्थात् वी. नि. २१५ में चन्द्रगुप्त मौर्यका राज्याभिषेक हुआ। श्रुतकेवली भद्रबाहु (वी. नि. १६२) के समकालीन बनानेके अर्थ श्वे. आचार्य श्री हेमचन्द्र सूरिने इसे वी. नि. १५५ में राज्यारूढ़ होनेकी कल्पना की। जिसके लिए उन्हें नन्द वंशके कालको १५५ से घटा कर ९५ वर्ष करना पड़ा। इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्यके कालको लेकर ६० वर्षका मतभेद पाया जाता है ।३१३। दूसरी ओर पुराणोंमें नन्द वंशीय महापद्मनन्दिके कालको लेकर ६० वर्षका मतभेद है। वायु पुराणमें उसका काल २८ वर्ष है और अन्य पुराणोंमें ८८ वर्ष। ८८ वर्ष मानने पर नन्द वंशका काल १८३ वर्ष आता है और २८ वर्ष मानने पर १२३ वर्ष। इस कालमें उदयी (अजक) के अवन्ती राज्यवाले ३२ वर्ष मिलानेपर पालकके पश्चात् नन्द वंशका काल १५५ वर्ष आ जाता है। इसलिए उदयी (अजक) तथा उसके उत्तराधिकारी नन्दिवर्द्धनकी गणना नन्द वंशमें करनेकी भ्रान्ति चल पड़ी है। वास्तवमें ये दोनों राजा श्रेणिक वंशमें हैं, नन्द वंशमें नहीं। नन्द वंशमें नव नन्द प्रसिद्ध हैं जिनका काल महापद्मनन्दसे प्रारम्भ होता है ।३३१।</p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 60px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>नाम</th> | |||
<th>जैन शास्त्र ति. प. ४/१५०६</th> | |||
<th> </th> | |||
<th> </th> | |||
<th>जैन इतिहास</th> | |||
<th> </th> | |||
<th> </th> | |||
<th>लोक इतिहास</th> | |||
<th> </th> | |||
<th>विशेष घटनायें</th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>वी.नि.</td> | |||
<td>ई.पू.</td> | |||
<td>वर्ष</td> | |||
<td>प्रमाण</td> | |||
<td>ई.पू.</td> | |||
<td>वर्ष</td> | |||
<td>ई.पू.</td> | |||
<td>वर्ष</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४. मौर्य या मुरुड़ वंश-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>सामान्य</td> | |||
<td>२१५-४७०</td> | |||
<td>३१२-५७</td> | |||
<td>२५५</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३२६-२११</td> | |||
<td>११५</td> | |||
<td>३२२-१८५</td> | |||
<td>१३७</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>चन्द्रगुप्त प्र.</td> | |||
<td>२१५-२५५</td> | |||
<td>३१२-२७२</td> | |||
<td>४०</td> | |||
<td>३५८</td> | |||
<td>३२६-३०२</td> | |||
<td>२४</td> | |||
<td>३२२-२९८</td> | |||
<td>२४</td> | |||
<td>जिन दीक्षा धारण करने वाले ये अन्तिम राजा थे।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३३६</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>ति. प. ४/१४८१। बुद्ध निर्वाण (ई. पू. ५४४) से २१८ वर्ष पश्चात् गद्दी पर बैठे ।२८७। श्रुतकेवली भद्र बाहु (वी. नि. १६२) के साथ दक्षिण गये। (दे. इतिहास ४)।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>बिन्दुसार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३०२-२७७</td> | |||
<td>२५</td> | |||
<td>२९८-२७३</td> | |||
<td>२५</td> | |||
<td>चन्द्रगुप्तका पुत्र ।३५८।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>अशोक</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>२७७-२३६</td> | |||
<td>४१</td> | |||
<td>२७३-२३२</td> | |||
<td>४१</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>कुनाल</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३५९</td> | |||
<td>२३६-२२८</td> | |||
<td>८</td> | |||
<td>२३२-१८५</td> | |||
<td>४७</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>दशरथ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३५९</td> | |||
<td>२२८-२२०</td> | |||
<td>८</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कुनालके ज्येष्ठ पुत्र अशोकका पोता ।३५१।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>सम्प्रति (चन्द्रगुप्त द्वि.)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३५८</td> | |||
<td>२२०-२११</td> | |||
<td>९</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कुनालका लघु पुत्र अशोकका पोता चन्द्रगुप्तके १०५ वर्ष पश्चात् और अशोकके १६ वर्ष पश्चात् गद्दी पर बैठा ।३५९।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>विक्रमादित्य*</td> | |||
<td>४१०-४७०</td> | |||
<td>११७-५७</td> | |||
<td>६०</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>*यह नाम क्रमबाह्य है।</td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p> </p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 60px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>वंशका नाम सामान्य/विशेष</th> | |||
<th>जैन शास्त्र ति. प. ४/१५०७</th> | |||
<th> </th> | |||
<th> </th> | |||
<th>लोक इतिहास</th> | |||
<th> </th> | |||
<th>विशेष घटनायें</th> | |||
<th> </th> | |||
<th> </th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td> </td> | |||
<td>वी.नि.</td> | |||
<td>ई.पू.</td> | |||
<td>वर्ष</td> | |||
<td>ई.पू.</td> | |||
<td>वर्ष</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५. शक वंश-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>सामान्य</td> | |||
<td>२५५-४८५</td> | |||
<td>२७२-४२</td> | |||
<td>२३०</td> | |||
<td>१८५-१२०</td> | |||
<td>६५</td> | |||
<td>यह वास्तवमें कोई एक अखण्ड वंश न था, बल्कि छोटे-छोटे सरदार थे, जिनका राज्य मगध देशकी सीमाओंपर बिखरा हुआ था। यद्यपि विक्रम वंशका राज्य वी. नि. ४७० में समाप्त हुआ है, परन्तु क्योंकि चन्द्रगुप्तके कालमें ही इन्होंने छोटी-छोटी रियासतों पर अधिकार कर लिया था, इसलिए इनका काल वी. नि. २५५ से प्रारम्भ करने में कोई विरोध नहीं आता।</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>प्रारम्भिक अवस्था में</td> | |||
<td>२५५-३४५</td> | |||
<td>२७२-१८२</td> | |||
<td>९०</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१. पुष्य मित्र</td> | |||
<td>२५५-२८५</td> | |||
<td>२७२-२४२</td> | |||
<td>३०</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२. चक्षु मित्र (वसुमित्र)</td> | |||
<td>२८५-३४५</td> | |||
<td>२४२-१८२</td> | |||
<td>६०</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>अग्निमित्र (भानुमित्र)</td> | |||
<td>२८५-३४५</td> | |||
<td>२४२-१८२</td> | |||
<td>६०</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>वसुमित्र और अग्निमित्र समकालीन थे, तथा पृथक्-पृथक् प्रान्तों में राज्य करते थे</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>प्रबल अवस्थामें</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td>अनुमानतः</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>गर्दभिल्ल (गन्धर्व)</td> | |||
<td>३४५-४४५</td> | |||
<td>१८२-८२</td> | |||
<td>१००</td> | |||
<td>१८१-१४१</td> | |||
<td>४०</td> | |||
<td>यद्यपि गर्दभिल्ल व नरवाहनका काल यहाँ ई. पू. १४२-८२ दिया है, पर यह ठीक नहीं है, क्योंकि आगे राजा शालिवाहन द्वारा वी. नि. ६०५ (ई. ७९) में नरवाहनका परास्त किया जाना सिद्ध है। अतः मानना होगा कि अवश्य ही इन दोनोंके बीच कोई अन्य सरदार रहे होंगे, जिनका उल्लेख नहीं किया गया है। यदि इनके मध्यमें ५ या ६ सरदार और भी मान लिए जायें तो नरवाहनकी अन्तिम अवधि ई. १२० को स्पर्श कर जायेगी। और इस प्रकार इतिहासकारोंके समयके साथ भी इसका मेल खा जायेगा और शालिवाहनके समयके साथ भी।</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>अन्य सरदार</td> | |||
<td>४४५-५६६</td> | |||
<td>ई.पू. ८२-ई. ३९</td> | |||
<td>१२१</td> | |||
<td>१४१-ई. ८०</td> | |||
<td>२२१</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>नरवाहन (नमःसेन)</td> | |||
<td>५६६-६०६</td> | |||
<td>३९-७९</td> | |||
<td>४०</td> | |||
<td>८०-१२०</td> | |||
<td>४०</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६. भृत्य वंश (कुशान वंश) -</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>इतिहासकारोंकी कुशान जाति ही आगमकारोंका भृत्य वंश है क्योंकि दोनोंका कथन लगभग मिलता है। दोनों ही शकों पर विजय पानेवाले थे। उधर शालिवाहन और इधर कनिष्क दोनोंने समान समय में ही शकोंका नाश किया है। उधर शालिवाहन और इधर कनिष्क दोनों ही समान पराक्रमी शासक थे। दोनोंका ही साम्राज्य विस्तृत था। कुशान जाति एक बहिष्कृत चीनी जाति थी जिसे ई. पू. दूसरी शताब्दीमें देशसे निकाल दिया गया था। वहाँसे चलकर बखतियार व काबुलके मार्गसे ई. पू. ४१ के लगभग भारतमें प्रवेश कर गये। यद्यपि कुछ छोटे-मोटे प्रदेशों पर इन्होंने अधिकार कर लिया था परन्तु ई. ४० में उत्तरी पंजाब पर अधिकार कर लेनेके पश्चात् ही इनकी सत्ता प्रगट हुई। यही कारण है कि आगम व इतिहासको मान्यताओंमें इस वंशकी पूर्वावधिके सम्बन्धमें ८० वर्षका अन्तर है।</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>सामान्य</td> | |||
<td>४८५-७२७</td> | |||
<td>पू. ४२-- ई. २००</td> | |||
<td>२४२</td> | |||
<td>४०-३२०</td> | |||
<td>२८०</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>प्रारम्भिक-अवस्थामें</td> | |||
<td>४८५-५६६</td> | |||
<td>पू. ४२-ई. ३९</td> | |||
<td>८१</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td></td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p> </p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 60px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>वंशका नाम सामान्य/विशेष</th> | |||
<th>लोक इतिहास</th> | |||
<th> </th> | |||
<th>विशेष घटनायें</th> | |||
<th> </th> | |||
<th> </th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td> </td> | |||
<td>ईसवी</td> | |||
<td>वर्ष</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>प्रबल स्थितिमें</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>ई. ४० में ही इसकी स्थिति मजबूत हुई और यह जाति शकों के साथ टक्कर लेने लगी। इस वंशके दूसरे राजा गौतमी पुत्र सातकर्णी (शालिवाहन)ने शकोंके अन्तिम राजा नरवाहनको वी. नि. ६०६ (ई. ७९) में परास्त करके शक संवत्की स्थापना की। (क. पा. १/प्र./५३/६४/पं. महेन्द्र।)</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>गौतम</td> | |||
<td>४०-७४</td> | |||
<td>३४</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>शालिवाहन (सातकर्णि)</td> | |||
<td>७४-१२० वी.नि. ६०१-६४७</td> | |||
<td>४६</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>कनिष्क</td> | |||
<td>१२०-१६२</td> | |||
<td>४२</td> | |||
<td>राजा कनिष्क इस वंशका तीसरा राजा था, जिसने शकोंका मूलच्छेद करके भारतमें एकछत्र विशाल राज्यकी स्थापना की।</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>अन्य राजा</td> | |||
<td>१६२-२०१</td> | |||
<td>३९</td> | |||
<td>कनिष्कके पश्चात् भी इस जातिका एकछत्र शासन ई. २०१ तक चलता रहा इसी कारण आगमकारोंने यहाँ तक ही इसकी अवधि अन्तिम स्वीकार की है। परन्तु इसके पश्चात् भी इस वंशका मूलोच्छेद नहीं हुआ। गुप्त वंशके साथ टक्कर हो जानेके कारण इसकी शक्ति क्षीण होती चली गयी। इस स्थितिमें इसकी सत्ता ई. २०१-३२० तक बनी रही। यही कारण है कि इतिहासकार इसकी अन्तिम अवधि ई. २०१ की बजाये ३२० स्वीकार करते हैं।</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>क्षीण अवस्थामें</td> | |||
<td>२०१-३२०</td> | |||
<td>११९</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७. गुप्त वंश-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td>आगमकारों व इतिहासकारोंकी अपेक्षा इस वंशकी पूर्वावधिके सम्बन्धमें समाधान ऊपर कर दिया गया है कि ई. २०१-३२० तक यह कुछ प्रारम्भिक रहा है।</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>सामान्य</td> | |||
<td>जैन शास्त्र</td> | |||
<td>२३१</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>प्रारम्भिक</td> | |||
<td>इतिहास</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>अवस्थामें</td> | |||
<td>३२०-४६०</td> | |||
<td>१४०</td> | |||
<td>इसने एकछत्र गुप्त साम्राज्य की स्थापना करनेके उपलक्ष्यमें गुप्त सम्वत् चलाया। इसका विवाह लिच्छिव जातिकी एक कन्याके साथ हुआ था। यह विद्वानोंका बड़ा सत्कार करता था। प्रसिद्ध कवि कालिदास (शकुन्तला नाटककार) इसके दरबारका ही रत्न था।</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>चन्द्रगुप्त</td> | |||
<td>३२०-३३०</td> | |||
<td>१०</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>समुद्रगुप्त</td> | |||
<td>३३०-३७५</td> | |||
<td>४५</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>चन्द्रगुप्त - (विक्रमादित्य)</td> | |||
<td>३७५-४१३</td> | |||
<td>३८</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>स्कन्द गुप्त</td> | |||
<td>४१३-४३५ वी. नि.</td> | |||
<td>२२</td> | |||
<td>इसके समयमें हूनवंशी (कल्की) सरदार काफी जोर पकड़ चुके थे। उन्होंने आक्रमण भी किया परन्तु स्कन्द गुप्तके द्वारा परास्त कर दिये गये। ई. ४३७ में जबकि गुप्त संवत् ११७ था यही राजा राज्य करता था। (क. पा. १/प्र. /५४/६५/पं. महेन्द्र)</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>९४०-९६२</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>इस वंशकी अखण्ड स्थिति वास्तवमें स्कन्दगुप्त तक ही रही। इसके पश्चात्, हूनोंके आक्रमणके द्वारा इसकी शक्ति जर्जरित हो गयी। यही कारण है कि आगमकारोंने इस वंशकी अन्तिम अवधि स्कन्दगुप्त (वी. नि. ९५८) तक ही स्वीकार की है। कुमारगुप्तके कालमें भी हूनों के अनेकों आक्रमण हुए जिसके कारण इस राज्यका बहुभाग उनके हाथमें चला गया और भानुगुप्तके समयमें तो यह वंश इतना कमजोर हो गया कि ई. ५०० में हूनराज तोरमाणने सारे पंजाब व मालवा पर अधिकार जमा लिया। तथा तोरमाणके पुत्र मिहरपालने उसे परास्त करके नष्ट ही कर दिया।</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>कुमार गुप्त</td> | |||
<td>४३५-४६०</td> | |||
<td>२५</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>भानु गुप्त</td> | |||
<td>४६०-५०७</td> | |||
<td>४७</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td></td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p> </p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 60px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>जैन शास्त्रका कल्की वंश</th> | |||
<th> </th> | |||
<th> </th> | |||
<th>इतिहासका हून वंश</th> | |||
<th> </th> | |||
<th> </th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>८. कल्की तथा हून वंश*</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>नाम</td> | |||
<td>वी.नि.</td> | |||
<td>वर्ष</td> | |||
<td>नाम</td> | |||
<td>ईस.वी.</td> | |||
<td>वर्ष</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>सामान्य</td> | |||
<td>९५८-१०७३</td> | |||
<td>११५</td> | |||
<td>सामान्य</td> | |||
<td>४३१-५४६</td> | |||
<td>११५</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>इन्द्र</td> | |||
<td>९५८-१०००</td> | |||
<td>४२</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>४३१-४७३</td> | |||
<td>४२</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>शिशुपाल</td> | |||
<td>१०००-१०३३</td> | |||
<td>३३</td> | |||
<td>तोरमाण</td> | |||
<td>४७६-५०६</td> | |||
<td>३३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>चतुर्मुख</td> | |||
<td>१०३३-१०५५</td> | |||
<td>४०</td> | |||
<td>मिहिरकुल</td> | |||
<td>५०६-५२८</td> | |||
<td>२</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>चतुर्मुख</td> | |||
<td>१०५५-१०७३</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>विष्णु यशोधर्म</td> | |||
<td>५२८-५४६</td> | |||
<td>१८</td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">आगमकारोंका कल्की वंश ही इतिहासकारोंका हूणवंश है, क्योंकि यह एक बर्बर जंगली जाति थी, जिसके समस्त राजा अत्यन्त अत्याचारी होनेके कारण कल्की कहलाते थे। आगम व इतिहास दोनोंकी अपेक्षा समय लगभग मिलता है। इस जातिने गुप्त राजाओंपर स्कन्द गुप्तके समयसे ई. ४३२ से ही आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिये थे। (विशेष दे. शीर्षक २ व ३)<br />नोट-जैनागममें प्रायः सभी मूल शास्त्रोंमें इस राज्यवंशका उल्लेख किया गया है। इसके कारण भी दो हैं-एक तो राजा `कल्की' का परिचय देना और दूसरे वीरप्रभुके पश्चात् आचार्योंकी मूल परम्पराका ठीक प्रकारसे समय निर्णय करना। यद्यपि अन्य राज्य वंशोंका कोई उल्लेख आगममें नहीं है, परन्तु मूल परम्पराके पश्चात्के आचार्यों व शास्त्र-रचयिताओंका विशद परिचय पानेके लिए तात्कालिक राजाओंका परिचय भी होना आवश्यक है। इसलिये कुछ अन्य भी प्रसिद्ध राज्य वंशोंका, जिनका कि सम्बन्ध किन्हीं प्रसिद्ध आचार्यों के साथ रहा है, परिचय यहाँ दिया जाता है।</p> | |||
<h4 style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>3.4 राष्ट्रकूट वंश</strong> (प्रमाणके लिए - दे. वह वह नाम)</h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">सामान्य-जैनागमके रचयिता आचार्योंका सम्बन्ध उनमें-से सर्व प्रथम राष्ट्रकूट राज्य वंशके साथ है जो भारतके इतिहासमें अत्यन्त प्रसिद्ध है। इस वंशमें चार ही राजाओंका नाम विशेष उल्लेखनीय है-जगतुङ्ग, अमोघवर्ष, अकालवर्ष और कृष्णतृतीय। उत्तर उत्तरवाला राजा अपनेसे पूर्व पूर्वका पुत्र था। इस वंशका राज्य मालवा प्रान्तमें था। इसकी राजधानी मान्यखेट थी। पीछेसे बढ़ाते-बढ़ाते इन्होंने लाट देश व अवन्ती देशको भी अपने राज्यमें मिला लिया था।<br />१. जगतुङ्ग-राष्ट्रकूट वंशके सर्वप्रथम राजा थे। अमोघवर्षके पिता और इन्द्रराजके बड़े भाई थे अतः राज्यके अधिकारी यही हुए। बड़े प्रतापी थे इनके समयसे पहले लाट देशमें `शत्रु-भयंकर कृष्णराज' प्रथम नामके अत्यन्त पराक्रमी और व प्रसिद्ध राजा राज्य करते थे। इनके पुत्र श्री वल्लभ गोविन्द द्वितीय कहलाते थे। राजा जगतुङ्गने अपने छोटे भाई इन्द्रराजकी सहायतासे लाट नरेश `श्रीवल्लभ' को जीतकर उसके देशपर अपना अधिकारकर लिया था, और इसलिये वे गोविन्द तृतीयकी उपाधि को प्राप्त हो गये थे। इनका काल श. ७१६-७३५ (ई. ७९४-८१३) निश्चित किया गया है। २. अमोघवर्ष-इस वंशके द्वितीय प्रसिद्ध राजा अमोघवर्ष हुये। जगतुङ्ग अर्थात् गोविन्द तृतीय के पुत्र होने के कारण गोविन्द चतुर्थ की उपाधिको प्राप्त हुये। कृष्णराज प्रथम (देखो ऊपर) के छोटे पुत्र ध्रुव राज अमोघ वर्ष के समकालीन थे। ध्रुवराज ने अवन्ती नरेश वत्सराज को युद्ध में परास्त करके उसके देशपर अधिकार कर लिया था जिससे उसे अभिमान हो गया और अमोघवर्षपर भी चढ़ाईकर दी। अमोघवर्षने अपने चचेरे भाई कर्कराज (जगतुङ्गके छोटे भाई इन्द्रराजका पुत्र) की सहायतासे उसे जीत लिया। इनका काल वि. ८७१-९३५ (ई. ८१४-८७८) निश्चित है। ३. अकालवर्ष-वत्सराजसे अवन्ति देश जीतकर अमोघवर्षको दे दिया। कृष्णराज प्रथमके पुत्रके राज्य पर अधिकार करनेके कारण यह कृष्णराज द्वितीयकी उपाधिको प्राप्त हुये। अमोघवर्षके पुत्र होनेके कारण अमोघवर्ष द्वितीय भी कहलाने लगे। इनका समय ई. ८७८-९१२ निश्चित है। ४. कृष्णराज तृतीय-अकालवर्षके पुत्र और कृष्ण तृतीयकी उपाधिको प्राप्त थे।</p> | |||
<p style="text-align: justify;"> </p> | |||
<h3 id="4" style="text-align: justify;"><strong>4. दिगम्बर मूल संघ </strong></h3> | |||
<h4 id="4.1" style="padding-left: 30px;"><strong>4.1 मूलसंघ</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">भगवान् महावीरके निर्वाणके पश्चात् उनका यह मूल संघ १६२ वर्षके अन्तरालमें होने वाले गौतम गणधरसे लेकर अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी तक अविच्छिन्न रूपसे चलता रहा। इनके समयमें अवन्ती देशमें पड़नेवाले द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षके कारण इस संघके कुछ आचार्योंने शिथिलाचारको अपनाकर आ. स्थूलभद्रकी आमान्य में इससे विलग एक स्वतन्त्र श्वेताम्बर संघकी स्थापना कर दी जिससे भगवानका एक अखण्ड दो शाखाओंमें विभाजित हो गया (विशेष दे. श्वेताम्बर)। आ. भद्रबाहु स्वामीकी परम्परामें दिगम्बर मूल संघ श्रुतज्ञानियोंके अस्तित्वकी अपेक्षा वी. नि. ६८३ तक बना रहा, परन्तु संघ व्यवस्थाकी अपेक्षासे इसकी सत्ता आ. अर्हद्बली (वी.नि. ५६५-५९३) के कालमें समाप्त हो गई।<br />ऐतिहासिक उल्लेखके अनुसार मलसंघका यह विघटन वी. नि. ५७५ में उस समय हुआ जबकि पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमणके अवसरपर आ. अर्हद्बलिने यत्र-तत्र बिखरे हुए आचार्यों तथा यतियोंको संगठित करनेके लिये दक्षिण देशस्थ महिमा नगर (जिला सतारा) में एक महान यति सम्मेलन आयोजित किया जिसमें १००-१०० योजनसे आकर यतिजन सम्मिलित हुए। उस अवसर पर यह एक अखण्ड संघ अनेक अवान्तर संघोंमें विभक्त होकर समाप्त हो गया (विशेष दे. परिशिष्ट २/२)<strong><br /></strong></p> | |||
<h4 id="4.2" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>4.2 मूलसंघकी पट्टावली</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">वीर निर्वाणके पश्चात् भगवान्के मूलसंघकी आचार्य परम्परामें ज्ञानका क्रमिक ह्रास दर्शानेके लिए निम्न सारणीमें तीन दृष्टियोंका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। प्रथम दृष्टि तिल्लोय पण्णति आदि मूल शास्त्रोंकी है, जिसमें अंग अथवा पूर्वधारियोंका समुदित काल निर्दिष्ट किया गया है। द्वितीय दृष्टि इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार की है जिसमें समुदित कालके साथ-साथ आचार्योंका पृथक्-पृथक् काल भी बताया गया है। तृतीय दृष्टि पं. कैलाशचन्दजी की है जिसमें भद्रबाहु प्र. की चन्द्रगुप्त मौर्यके साथ समकालीनता घटित करनेके लिये उक्त कालमें कुछ हेरफेर करनेका सुझाव दिया गया है (विशेष दे. परिशिष्ट २)।<br />दृष्टि नं. १ = (ति. प. ४/१४७५-१४९६), (ह. पु. ६०/४७६-४८१); (ध. ९/४,१/४४/२३०); (क.पा. १/$६४/८४); (म.पु. २/१३४-१५०)<br />दृष्टि नं. २ = इन्द्रनन्दि कृत नन्दिसंघ बलात्कार गणकी पट्टावली/श्ल. १-१७); (ती. २/१६ पर तथा ४/३४७ पर उद्धृत)<br />दृष्टि नं. ३ = जै.पी. ३५४ (पं. कैलाश चन्द)।</p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>क्रम</th> | |||
<th>नाम</th> | |||
<th>अपर नाम</th> | |||
<th>दृष्टि नं. १</th> | |||
<th> </th> | |||
<th>दृष्टि नं. २</th> | |||
<th> </th> | |||
<th> </th> | |||
<th> </th> | |||
<th>दृष्टि नं. ३</th> | |||
<th> </th> | |||
<th>विशेष</th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>ज्ञान</td> | |||
<td>समुदित काल</td> | |||
<td>ज्ञान</td> | |||
<td>कुल वर्ष</td> | |||
<td>वी.नि.सं.</td> | |||
<td>समुदित काल</td> | |||
<td>वी.नि.सं.</td> | |||
<td>कुल वर्ष</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>वीर निर्वाण के पश्चात्-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td>वर्ष</td> | |||
<td>०</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>०</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१</td> | |||
<td>गौतम</td> | |||
<td>इन्द्रभूति गणधर</td> | |||
<td>केवली</td> | |||
<td>६२ वर्ष</td> | |||
<td>केवली</td> | |||
<td>१२</td> | |||
<td>०-१२</td> | |||
<td>६२ वर्ष</td> | |||
<td>०-१२</td> | |||
<td>१२</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२</td> | |||
<td>सुधर्मा</td> | |||
<td>लोहार्य</td> | |||
<td>पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व</td> | |||
<td>६२ वर्ष</td> | |||
<td>केवली</td> | |||
<td>१२</td> | |||
<td>२४-Dec</td> | |||
<td>६२ वर्ष</td> | |||
<td>२४-Dec</td> | |||
<td>१२</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३</td> | |||
<td>जम्बू</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व</td> | |||
<td>६२ वर्ष</td> | |||
<td>केवली</td> | |||
<td>३८</td> | |||
<td>२४-६२</td> | |||
<td>६२ वर्ष</td> | |||
<td>२४-६२</td> | |||
<td>३८</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४</td> | |||
<td>विष्णु</td> | |||
<td>नन्दि</td> | |||
<td>पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व</td> | |||
<td>१०० वर्ष</td> | |||
<td>श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी</td> | |||
<td>१४</td> | |||
<td>६२-७६</td> | |||
<td>६२ वर्ष</td> | |||
<td>६२-८८</td> | |||
<td>२६</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५</td> | |||
<td>नन्दि मित्र</td> | |||
<td>नन्दि</td> | |||
<td>पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व</td> | |||
<td>१०० वर्ष</td> | |||
<td>श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी</td> | |||
<td>१६</td> | |||
<td>७६-९२</td> | |||
<td>६२ वर्ष</td> | |||
<td>८८-११६</td> | |||
<td>२८</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६</td> | |||
<td>अपराजित</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व</td> | |||
<td>१०० वर्ष</td> | |||
<td>श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी</td> | |||
<td>२२</td> | |||
<td>९२-११४</td> | |||
<td>६२ वर्ष</td> | |||
<td>११६-१५०</td> | |||
<td>३४</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७</td> | |||
<td>गोवर्धन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व</td> | |||
<td>१०० वर्ष</td> | |||
<td>श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी</td> | |||
<td>१९</td> | |||
<td>११४-१३३</td> | |||
<td>१०० वर्ष</td> | |||
<td>१५०-१८०</td> | |||
<td>३०</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८</td> | |||
<td>भद्रबाहु प्र.</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व</td> | |||
<td>१०० वर्ष</td> | |||
<td>श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी</td> | |||
<td>२९</td> | |||
<td>१३३-१६२</td> | |||
<td>१०० वर्ष</td> | |||
<td>१८०-२२२</td> | |||
<td>४१</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९</td> | |||
<td>विशाखाचार्य</td> | |||
<td>विशाखदत्त</td> | |||
<td>११ अंग व १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी</td> | |||
<td>१०</td> | |||
<td>१६२-१७२</td> | |||
<td>१०० वर्ष</td> | |||
<td>२२२-२३२</td> | |||
<td>१०</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०</td> | |||
<td>प्रोष्ठिल</td> | |||
<td>चन्द्रगुप्त मौर्य</td> | |||
<td>११ अंग व १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१९</td> | |||
<td>१७२-१९१</td> | |||
<td>१०० वर्ष</td> | |||
<td>२३२-२५१</td> | |||
<td>१९</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११</td> | |||
<td>क्षत्रिय</td> | |||
<td>कृति कार्य</td> | |||
<td>११ अंग व १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१७</td> | |||
<td>१९१-२०८</td> | |||
<td>१०० वर्ष</td> | |||
<td>२५१-२६८</td> | |||
<td>१७</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२</td> | |||
<td>जयसेन</td> | |||
<td>जय</td> | |||
<td>११ अंग व १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>२१</td> | |||
<td>२०८-२२९</td> | |||
<td>१०० वर्ष</td> | |||
<td>२६८-२८९</td> | |||
<td>२१</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३</td> | |||
<td>नागसेन</td> | |||
<td>नाग</td> | |||
<td>११ अंग व १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१८</td> | |||
<td>२२९-२४७</td> | |||
<td>१०० वर्ष</td> | |||
<td>२८९-३०७</td> | |||
<td>१८</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४</td> | |||
<td>सिद्धार्थ</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>११ अंग व १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१७</td> | |||
<td>२४७-२६४</td> | |||
<td>१०० वर्ष</td> | |||
<td>३०७-३२४</td> | |||
<td>१७</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५</td> | |||
<td>धृतषेण</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>११ अंग व १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१८</td> | |||
<td>२६४-२८२</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>३२४-३४२</td> | |||
<td>१८</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६</td> | |||
<td>विजय</td> | |||
<td>विजयसेन</td> | |||
<td>११ अंग व १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१३</td> | |||
<td>२८२-२९५</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>३४२-३५५</td> | |||
<td>१३</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७</td> | |||
<td>बुद्धिलिंग</td> | |||
<td>बुद्धिल</td> | |||
<td>११ अंग व १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>२०</td> | |||
<td>२९५-३१५</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>३५५-३७५</td> | |||
<td>२०</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८</td> | |||
<td>देव</td> | |||
<td>गंगदेव, गंग</td> | |||
<td>११ अंग व १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१४</td> | |||
<td>३१५-३२९</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>३७५-३८९</td> | |||
<td>१४</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९</td> | |||
<td>धर्मसेन</td> | |||
<td>धर्म, सुधर्म</td> | |||
<td>११ अंग व १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधारी</td> | |||
<td>१४ (१६)</td> | |||
<td>३२९-३४५</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>३८९-४०५</td> | |||
<td>१६</td> | |||
<td>१४ की बजाय १६ वर्ष लेनेसे संगति बैठेगी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०</td> | |||
<td>क्षत्र</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>११ अंग धारी</td> | |||
<td>२२० वर्ष</td> | |||
<td>११ अंगधारी</td> | |||
<td>१८</td> | |||
<td>३४५-३६३</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>४०५-४१७</td> | |||
<td>१२</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१</td> | |||
<td>जयपाल</td> | |||
<td>यशपाल</td> | |||
<td>११ अंग धारी</td> | |||
<td>२२० वर्ष</td> | |||
<td>११ अंगधारी</td> | |||
<td>२०</td> | |||
<td>३६३-३८३</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>४१७-४३०</td> | |||
<td>१३</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२</td> | |||
<td>पाण्डु</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>११ अंग धारी</td> | |||
<td>२२० वर्ष</td> | |||
<td>११ अंगधारी</td> | |||
<td>३९</td> | |||
<td>३८३-४२२</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>४३०-४४२</td> | |||
<td>१२</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३</td> | |||
<td>ध्रुवसेन</td> | |||
<td>द्रुमसेन</td> | |||
<td>११ अंग धारी</td> | |||
<td>२२० वर्ष</td> | |||
<td>११ अंगधारी</td> | |||
<td>१४</td> | |||
<td>४२२-४३६</td> | |||
<td>१८३ वर्ष</td> | |||
<td>४४२-४५४</td> | |||
<td>१२</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४</td> | |||
<td>कंस</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>११ अंग धारी</td> | |||
<td>२२० वर्ष</td> | |||
<td>११ अंगधारी</td> | |||
<td>३२</td> | |||
<td>४३६-४६८</td> | |||
<td>२२० वर्ष</td> | |||
<td>४५४-४६८</td> | |||
<td>१४</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५</td> | |||
<td>सुभद्र</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>११ अंग धारी</td> | |||
<td>२२० वर्ष</td> | |||
<td>११ अंगधारी</td> | |||
<td>६</td> | |||
<td>४६८-४७४</td> | |||
<td>२२० वर्ष</td> | |||
<td>४६८-४७४</td> | |||
<td>६</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६</td> | |||
<td>यशोभद्र</td> | |||
<td>अभय</td> | |||
<td>आचारांग धारी</td> | |||
<td>११८ वर्ष</td> | |||
<td>१० अंगधारी</td> | |||
<td>१८</td> | |||
<td>४७४-४९२</td> | |||
<td>२२० वर्ष</td> | |||
<td>४७४-४९२</td> | |||
<td>१८</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७</td> | |||
<td>भद्रबाहु द्वि.</td> | |||
<td>यशोबाहु जयबाहु</td> | |||
<td>आचारांगधारी</td> | |||
<td>११८ वर्ष</td> | |||
<td>९ अंगधारी</td> | |||
<td>२३</td> | |||
<td>४९२-५१५</td> | |||
<td>२२० वर्ष</td> | |||
<td>४९२-५१५</td> | |||
<td>२३</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८</td> | |||
<td>लोहाचार्य</td> | |||
<td>लोहार्य</td> | |||
<td>आचारांग धारी</td> | |||
<td>११८ वर्ष</td> | |||
<td>८ अंगधारी</td> | |||
<td>५२ (५०)</td> | |||
<td>५१५-५६५</td> | |||
<td>२२० वर्ष</td> | |||
<td>५१५-५६५</td> | |||
<td>५०</td> | |||
<td>५२ की बजाय ५० वर्ष लेनेसे संगति बैठेगी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td>६८३</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td>५६५</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>५६५</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८</td> | |||
<td>लोहाचार्य</td> | |||
<td>इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है।</td> | |||
<td>८ अंगधारी</td> | |||
<td>५२(५०)</td> | |||
<td>५१५-५६५</td> | |||
<td>५६५</td> | |||
<td>५१५-५६५</td> | |||
<td>५०</td> | |||
<td>श्रुतावतारकी मूल पट्टावलीमें इन चारोंका नाम नहीं है। (ध. १/प्र. २४/H. L. Jain)। एकसाथ उल्लेख होनेसे समकालीन हैं। इनका समुदित काल २० वर्ष माना जा सकता है (मुख्तार साहब) गुरु परम्परासे इनका कोई सम्बन्ध नहीं है (दे. परिशिष्ट २)</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९</td> | |||
<td>विनयदत्त</td> | |||
<td>इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है।</td> | |||
<td>१ अंगधारी</td> | |||
<td>२०</td> | |||
<td>५६५-५८५</td> | |||
<td>२० वर्ष</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०</td> | |||
<td>श्रीदत्त नं. १</td> | |||
<td>इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है।</td> | |||
<td>१ अंगधारी</td> | |||
<td>समकालीन है २०</td> | |||
<td>५६५-५८५</td> | |||
<td>२० वर्ष</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१</td> | |||
<td>शिवदत्त</td> | |||
<td>इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है।</td> | |||
<td>१ अंगधारी</td> | |||
<td>समकालीन है २०</td> | |||
<td>५६५-५८५</td> | |||
<td>२० वर्ष</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२</td> | |||
<td>अर्हदत्त</td> | |||
<td>इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है।</td> | |||
<td>१ अंगधारी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>२० वर्ष</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३</td> | |||
<td>अर्हद्बलि (गुप्तिगुप्त)</td> | |||
<td>इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है।</td> | |||
<td>अंगांशधर अथवा पूर्वविद</td> | |||
<td>२८</td> | |||
<td>५६५-५९३</td> | |||
<td>११८ वर्ष</td> | |||
<td>५६५-५७५</td> | |||
<td>१०</td> | |||
<td>आचार्य काल।</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>५७५-५९३</td> | |||
<td>११८ वर्ष</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td>संघ विघटनके पश्चात्से समाधिसरण तक (विशेष दे. परिशिष्ट २)</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४</td> | |||
<td>माघनन्दि</td> | |||
<td>इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है।</td> | |||
<td>अंगांशधर अथवा पूर्वविद</td> | |||
<td>२१</td> | |||
<td>५९३-६१४</td> | |||
<td>११८ वर्ष</td> | |||
<td>५७५-५७९</td> | |||
<td>४</td> | |||
<td>नन्दि संघके पट्ट पर।</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>११८ वर्ष</td> | |||
<td>५७९-६१४</td> | |||
<td>३५</td> | |||
<td>पट्ट भ्रष्ट हो जानेके पश्चात् समाधिमरण तक। (विशेष दे. परिशिष्ट २)</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५</td> | |||
<td>धरसेन</td> | |||
<td>इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है।</td> | |||
<td>अंगांशधर अथवा पूर्वविद</td> | |||
<td>१९</td> | |||
<td>६१४-६३३</td> | |||
<td>११८ वर्ष</td> | |||
<td>५६५-६३३</td> | |||
<td>६८</td> | |||
<td>अर्हद्बलीके समकालीन थे। वी. नि. ६३३ में समाधि। (विशेष दे. परिशिष्ट २)</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६</td> | |||
<td>पुष्पदन्त</td> | |||
<td>इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है।</td> | |||
<td>अंगांशधर अथवा पूर्वविद</td> | |||
<td>३०</td> | |||
<td>६३३-६६३</td> | |||
<td>११८ वर्ष</td> | |||
<td>५९३-६३३</td> | |||
<td>४०</td> | |||
<td>धरसेनाचार्यके पादमूलमें ज्ञान प्राप्त करके इन दोनोंने षट् खण्डागमकी रचना की (विशेष दे. परिशिष्ट २)</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७</td> | |||
<td>भूतबलि</td> | |||
<td>इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है।</td> | |||
<td>अंगांशधर अथवा पूर्वविद</td> | |||
<td>२०</td> | |||
<td>६६३-६८३</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>५९३-६८३</td> | |||
<td>९०</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td>६८३</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td></td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p> </p> | |||
<h4 id="4.3" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>4.3 पट्टावली का समन्वय </strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">ध. १/प्र./H. L. Jain/पृष्ठ संख्या-प्रत्येक आचार्यके कालका पृथक्-पृथक् निर्देश होनेसे द्वितीय दृष्टि प्रथमकी अपेक्षा अधिक ग्राह्य है ।२८। इसके अन्य भी अनेक हेतु हैं। यथा - (१) प्रथम दृष्टिमें नक्षत्रादि पाँच एकादशांग धारियोंका २२० वर्ष समुदित काल बहुत अधिक है ।२९। (२) पं. जुगल किशोरजीके अनुसार विनयदत्तादि चार आचार्योंका समुदित काल २० वर्ष और अर्हद्बलि तथा माघनन्दिका १०-१० वर्ष कल्पित कर लिया जाये तो प्रथम दृष्टिसे धरसेनाचार्यका काल वी. नि. ७२३ के पश्चात् हो जाता है, जबकि आगे इनका समय वी. नि. ५६५-६३३ सिद्ध किया गया है ।२४। (३) सम्भवतः मूलसंघका विभक्तिकरण हो जानेके कारण प्रथम दृष्टिकारने अर्हद्बली आदिका नाम वी. नि. के पश्चात्वाली ६८३ वर्षकी गणनामें नहीं रखा है, परन्तु जैसा कि परिशिष्ट २ में सिद्ध किया गया है इनकी सत्ता ६८३ वर्षके भीतर अवश्य है।२८। इसलिये द्वितीय दृष्टि ने इन नामोंका भी संग्रहकर लिया है। परन्तु यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि इनके कालकी जो स्थापना यहाँ की गई है उसमें पट्टपरम्परा या गुरु शिष्य परम्पराकी कोई अपेक्षा नहीं है, क्योंकि लोहाचार्यके पश्चात् वी. नि. ५७४ में अर्हद्बलीके द्वारा संघका विभक्तिकरण हो जानेपर मूल संघकी सत्ता समाप्त हो जाती है (दे. परिशिष्ट २ में `अर्हद्बली')। ऐसी स्थितिमें यह सहज सिद्ध हो जाता है कि इनकी काल गणना पूर्वावधिकी बजाय उत्तरावधिको अर्थात् उनके समाधिमरणको लक्ष्यमें रखकर की गई है। वस्तुतः इनमें कोई पौर्वापर्य नहीं है। पहले पहले वालेकी उत्तरावधि ही आगे आगे वालेकी पूर्वावधि बन गई है। यही कारण है कि सारणीमें निर्दिष्ट कालोंके साथ इनके जीवन वृत्तोंकी संगति ठीक ठीक घटित नहीं होती है। (४) दृष्टि नं. ३ में जैन इतिहासकारोंने इनका सुयुक्तियुक्त काल निर्धारित किया है जिसका विचार परिशिष्ट २ के अन्तर्गत विस्तारके साथ किया गया है। (५) एक चतुर्थ दृष्टि भी प्राप्त है। वह यह कि द्वितीय दृष्टिका प्रतिपादन करनेवाले श्रुतवतार में प्राप्त एक श्लोक (दे. परिशिष्ट ४) के अनुसार यशोभद्र तथा भद्रबाहु द्वि. के मध्य ४-५ आचार्य और भी हैं जिनका ज्ञान श्रुतावतारके कर्त्ता श्री इन्द्रनन्दिको नहीं है। इनका समुदित काल ११८ वर्ष मान लिया जाय तो द्वि. दृष्टिसे भी लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष पूरे हो जाने चाहिए। (पं. सं./प्र./H.L.Jain); (स. सि./प्र. ७८/पं. फूलचन्द)। परंतु इस दृष्टिको विद्वानोंका समर्थन प्राप्त नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर अर्हद्बली आदिका काल उनके जीवन वृत्तोंसे बहुत आगे चला जाता है।</p> | |||
<h4 id="4.4" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>4.4 मूल संघका विघटन</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">जैसा कि उपर्युक्त सारणीमें दर्शाया गया है भगवान् वीरके निर्वाणके पश्चात् गौतम गणधरसे लेकर अर्हद्बली तक उनका मूलसंघ अविच्छिन्न रूपसे चलता रहा। आ. अर्हद्बलीने पंचवर्षीय युगप्रतिक्रमणके अवसर परमहिमानगर जिला सतारामें एक महान यतिसम्मेलन किया, जिसमें सौ योजन तकके साधु सम्मिलित हुए। उस समय उन साधुओंमें अपने अपने शिष्योंके प्रति कुछ पक्षपातकी बू देखकर उन्होंने मूलसंघकी सत्ता समाप्त करके उसे पृथक् पृथक् नामोंवाले अनेक अवान्तर संघोंमें विभाजित कर दिया जिसमें से कुछके नाम ये हैं - १. नन्दि, २. वृषभ, ३. सिंह, ४. देव, ५. काष्ठा, ६. वीर, ७. अपराजित, ८. पंचस्तूप, ९. सेन, १०. भद्र, ११. गुणधर, १२. गुप्त, १३. सिंह, १४. चन्द्र इत्यादि<br />(ध. १/प्र. १४/H.L.Jain)।<br />इनके अतिरिक्त भी अनेकों अवान्तर संघ भी भिन्न भिन्न समयोंपर परिस्थितिवश उत्पन्न होते रहे। धीरे धीरे इनमें से कुछ संघों में शिथिलाचार आता चला गया, जिनके कारण वे जैनाभासी कहलाने लगे (इनमें छः प्रसिद्ध हैं - १. श्वेताम्बर, २. गोपुच्छ या काष्ठा, ३. द्रविड़, ४. यापनीय या गोप्य, ५. निष्पिच्छ या माथुर और ६. भिल्लक)।</p> | |||
<h4 id="4.5" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>4.5 श्रुत तीर्थकी उत्पत्ति </strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">ध. ४/१,४४/१३० चोद्दसपइण्णयाणमंगबज्झाणं च सावणमास-बहुलपक्ख-जुगादिपडिवयपुव्वदिवसे जेण रयणा कदा तेणिंदभूदिभडारओ वड्ढमाणजिणतित्थगंथकत्तारो। उक्तं च-`वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले। पडिवदपुव्वदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजिम्मि ४०।'<br />ध. १/१,१/६५ तित्थयरादो सुदपज्जएण गोदमो परिणदो त्ति दव्व-सुदस्स गोदमो कत्ता।<br />= चौदह अंगबाह्य प्रकीर्णकोंकी श्रावण मासके कृष्ण पक्षमें युगके आदिम प्रतिपदा दिनके पूर्वाह्नमें रचना की गई थी। अतएव इन्द्रभूति भट्टारक वर्द्धमान जिनके तीर्थमें ग्रन्थकर्त्ता हुए। कहा भी है कि `वर्षके प्रथम (श्रावण) मासमें, प्रथम (कृष्ण) पक्षमें अर्थात् श्रावण कृ. प्रतिपदाके दिन सवेरे अभिजित नक्षणमें तीर्थकी उत्पत्ति हुई।। तीर्थसे आगत उपदेशोंको गौतमने श्रुतके रूपमें परिणत किया। इसलिये गौतम गणधर द्रव्य श्रुतके कर्ता हैं।</p> | |||
<h4 id="4.6" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>4.6 श्रुतज्ञानका क्रमिक ह्रास </strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">भगवान् महावीरके निर्वाण जानेके पश्चात् ६२ वर्ष तक इन्द्रभूति (गौतम गणधर) आदि तीन केवली हुए। इनके पश्चात् यद्यपि केवलज्ञानकी व्युच्छित्ति हो गई तदपि ११ अंग १४ पूर्वके धारी पूर्ण श्रुतकेवली बने रहे इनकी परम्परा १०० वर्ष तक (विद्वानोंके अनुसार १६० वर्ष तक) चलती रही। तत्पश्चात् श्रुत ज्ञानका क्रमिक ह्रास होना प्रारम्भ हो गया। वी. नि. ५६५ तक १०,९,८ अंगधारियोंकी परम्परा चली और तदुपरान्त वह भी लुप्त हो गई। इसके पश्चात् वी. नि. ६८३ तक श्रुतज्ञानके आचारांगधारी अथवा किसी एक आध अंग के अंशधारी ही यत्र-तत्र शेष रह गए।<br />इस विषयका उल्लेख दिगम्बर साहित्यमें दो स्थानोंपर प्राप्त होता है, एक तो तिल्लोय पण्णति, हरिवंश पुराण, धवला आदि मूल ग्रन्थोंमें और दूसरा आ. इन्द्रनन्दि (वि. ९९६) कृत श्रुतावारमें। पहले स्थानपर श्रुतज्ञानके क्रमिक ह्रासको दृष्टिमें रखते हुए केवल उस उस परम्पराका समुदित काल दिया गया है, जब कि द्वितीय स्थान पर समुदित कालके साथ-साथ उस-उस परम्परामें उल्लिखित आचार्योंका पृथक्-पृथक् काल भी निर्दिष्ट किया है, जिसके कारण सन्धाता विद्वानोंके लिये यह बहुत महत्व रखता है। इन दोनों दृष्टियोंका समन्वय करते हुए अनेक ऐतिहासिक गुत्थियों को सुलझानेके लिए विद्वानोंने थोड़े हेरफेरके साथ इस विषयमें अपनी एक तृतीय दृष्टि स्थापित की है। मूलसंघकी अग्रोक्त पट्टावलीमें इन तीनों दृष्टियोंका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।</p> | |||
<p style="text-align: justify;"> </p> | |||
<h3 id="5"><strong>5. दिगम्बर जैन संघ</strong></h3> | |||
<h4 id="5.1" style="padding-left: 30px;"><strong>5.1 सामान्य परिचय</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">ती.म.आ. /४/३५८ पर उद्धृत नीतिसार-तस्मिन् श्रीमूलसंघे मुनिजनविमले सेन-नन्दी च संघौ। स्यातां सिंहारव्यसंघोऽभवदुरुमहिमा देवसंघश्चतुर्थः।। अर्हद्बलीगुरुश्चक्रे संघसंघटनं परम्। सिंहसंघो नन्दि संघः सेनसंघस्तथापरः।। = मुनिजनोंके अत्यन्त विमल श्री मूलसंघमें सेनसंघ, नन्दिसंघ, सिंहसंघ और अत्यन्त महिमावन्त देवसंघ ये चार संघ हुए। श्री गुरु अर्हद्बलीके समयमें सिंहसंघ, नन्दिसंघ, सेनसंघ (और देवसंघ) का संघटन किया गया।<br />श्रुतकीर्ति कृत पट्टावली-ततः परं शास्त्रविदां मुनिनामग्रेसरोऽभूदकलंकसूरिः। ....तस्मिन्गते स्वर्गभुवं महर्षौ दिव...स योगि संघश्चचतुरः प्रभेदासाद्य भूयानाविरुद्धवृत्तान्। ....देव नन्दि-सिंह-सेन संघभेद वर्त्तिनां देशभेदतः प्रभोदभाजि देवयोगिनां।<br />= इन (पूज्यपाद जिनेन्द्र बुद्धि) के पश्चात् शास्त्रवेत्ता मुनियोंमें अग्रेसर अकलंकसूरि हुए। इनके दिवंगत हो जानेपर जिनेन्द्र भगवान् संघके चार भेदोंको लेकर शोभित होने लगे-देवसंघ, नन्दिसंघ, सिंहसंघ और सेनसंघ।<br />नीतीसार (ती./४/३५८) - अर्हद्बलीगुरुश्चक्रेसंघसंघटनं परम्। सिंहसंघो नन्दिसंघः सेनसंघस्तथापरः।। देवसंघ इति स्पष्टं स्थ्पनस्थितिविशेषतः।<br />= अर्हद्बली गुरुके कालमें स्थान तता स्थितिकी अपेक्षासे सिंहसंघ, नन्दिसंघ, सेनसंघ और देवसंघ इन चार संघोंका संगठन हुआ। यहाँ स्थानस्थितिविशेषतः इस पदपरसे डा. नेमिचन्द्र इस घटनाका सम्बन्ध उस कथाके साथ जोड़ते हैं जिसके अनुसार आ. अर्हद्बलीने परीक्षा लेनेके लिए अपने चार तपस्वी शिष्योंको विकट स्थानों में वर्षा योग धारण करनेका आदेश दिया था। तदनुसार नन्दि वृक्षके नीचे वर्षा योग धारण करनेवाले माघनन्दि का संघ नन्दिसंघ कहलाया, तृणतलमें वर्षायोग धारण करनेसे श्री जिनसेनका नाम वृषभ पड़ा और उनका संघ वृषभ संघ कहलाया। सिंहकी गुफामें वर्षा योग धारण करनेवालेका सिंहसंघ और दैव दत्ता वेश्याके नगरमें वर्षायोग धारण करनेवाले का देवसंघ नाम पड़ा। (विशेष दे. परिशिष्ट/२/८)</p> | |||
<h4 id="5.2" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>5.2 नन्दि संघ</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>5.2.1 सामान्य परिचय</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">आ. अर्हद्बलीके द्वारा स्थापित संघमें इसका स्थान सर्वोपरि समझा जाता है यद्यपि इसकी पट्टावलीमें भद्रबाहु तथा अर्हद्बलीका नाम भी दिया गया परन्तु वह परम्परा गुरुके रूपमें उन्हें नमस्कार करने मात्र के प्रयोजनसे है। संघका प्रारम्भ वास्तवमें माघनन्दिसे होता है। गुरु अर्हद्बलीकी आज्ञासे नन्दि वृक्षके नीचे वर्षा योग धारण करनेके कारण इन्हें नन्दिकी उपाधि प्राप्त हुई थी और उसी कारण इनके इस संघका नाम नन्दिसंघ पड़ा। माघनन्दिसे कुन्दकुन्द तथा उमास्वामी तक यह संघ मूल रूपसे चलता रहा। तत्पश्चात् यह दो शाखाओंमें विभक्त हो गया। पूर्व शाखा नन्दिसंघ बलात्कार गणके नामसे प्रसिद्ध हुई और दूसरी शाखा जैनाभासी काष्ठा संघकी ओर चली गई। "लोहोचार्यस्ततो जातो जातरूपधरोऽमरैः। ततः पट्टद्वयी जाता प्राच्युदीच्युपलक्षणात्" (विशेष दे. आगे शीर्षक ६/४)।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>5.2.2 बलात्कार गण </strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">इस संघकी एक पट्टावली प्रसिद्ध है। आचार्योंका पृथक् पृथक् काल निर्देश करनेके कारण यह जैन इतिहासकारोंके लिये आधारभूत समझी जाती परन्तु इसमें दिये गए काल मूल संघकी पूर्वोक्त पट्टावली के साथ मेल नहीं खाते हैं, और न ही कुन्दकुन्द तथा उमास्वामीके जीवन वृत्तोंके साथ इनकी संगति घटित होती प्रतीत होती है। पट्टावली आगे शीर्षक ७के अन्तर्गत निबद्ध की जानेवाली है। तत्सम्बन्धी विप्रतिपत्तियोंका सुमक्तियुक्त समाधान यद्यपि परिशिष्ट ४में किया गया है तदपि उस समाधानके अनुसार आगे दी गई पट्टावली में जो संक्षिप्त संकेत दिये गये हैं उन्हें समझनेके लिए उसका संक्षिप्त सार दे देना उचित प्रतीत होता है।<br />पट्टावलीकार श्री इन्द्रनन्दिने आचार्योंके कालकी गणना विक्रम के राज्याभिषेकसे प्रारम्भ की है और उसे भ्रान्तिवश वी. नि. ४८८ मानकर की है। (विशेष दे. परिशिष्ट १)। ऐसा मानने पर कुन्दकुन्दके कालमें ११७ वर्ष की कमी रह जाती है। इसे पाटनेके लिये ४ स्थानों पर वृद्धि की गई है - १. भद्रबाहुके कालमें १ वर्षकी वृद्धि करके उसे २२ वर्षकी बजाय २३ वर्ष बनाया गया है। २. भद्रबाहु तथा गुप्तिगुप्त (अर्हद्बली) के मध्यमें मूल संघकी पट्टावलीके अनुसार लोहाचार्यका नाम जोड़कर उनके ५० वर्ष बढ़ाये गए हैं। ३. माघनन्दिकी उत्तरावधि वी. नि. ५७९ में ३५ वर्ष जोड़कर उसे मूलसंघके अनुसार वी. नि. ६१४ तक ले जाया गया है। ४. इस प्रकार १+५०+३५ = ८६ वर्ष की वृद्धि हो जानेपर माघनन्दि तथा कुन्दकुन्द के गुरु जिनचन्द्रके मध्य ३१ वर्षका अन्तर शेष रह जाता है, जिसे पाटनेके लिये या तो यहाँ एक और नाम कल्पित किया जा सकता है और या जिनचन्द्रके कालकी पूर्वावधिको ३१ वर्ष ऊपर उठाकर वी. नि. ६४५ की बजाय ६१४ किया जा सकता है।<br />ऐसा करने पर क्योंकि वी. नि. ४८८ में विक्रम राज्य मानकर की गई आ. इन्द्वनन्दिकी काल गणना वी. नि. ४८८+११७ = ६०५ होकर शक संवत्के साथ ऐक्यको प्राप्त हो जाती है, इसलिए कुन्दकुन्द से आगे वाले सभी के कालोंमें ११७ वर्षकी वृद्धि करते जानेकी बजाये उनकी गणना पट्टावली में शक संवत्की अपेक्षा से कर दी गई है। (विशेष दे. परिशिष्ट ४)।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>5.2.3 देशीय गण</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">कुन्दकुन्दके प्राप्त होने पर नन्दिसंघ दो शाखाओंमें विभक्त हो गया। एक तो उमास्वामीकी आम्नायकी ओर चली गई और दूसरी समन्तभद्रकी ओर जिसमें आगे जाकर अकलंक भट्ट हुए। उमास्वामीकी आम्नाय पुनः दो शाखाओंमें विभक्त हो गई। एक तो बलात्कारगण की मूल शाखा जिसके अध्यक्ष गोलाचार्य तृ. हुए और दूसरी बलाकपिच्छकी शाखा जो देशीय गणके नामसे प्रसिद्ध हुई। यह गण पुनः तीन शाखाओंमें विभक्त हुआ, गुणनन्दि शाखा, गोलाचार्य शाखा और नयकीर्ति शाखा। (विशेष दे. शीर्षक ७/१,५)</p> | |||
<h4 id="5.3" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>5.3 अन्य संघ</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">आचार्य अर्हद्बलीके द्वारा स्थापित चार प्रसिद्ध संघोंमें से नन्दिसंघ का परिचय देनेके पश्चात् अब सिंहसंघ आदि तीनका कथन प्राप्त होता है। सिंहकी गुफा पर वर्षा योग धारण करने वाले आचार्यकी अध्यक्षतामें जिस संघ का गठन हुआ उसका नाम सिंह संघ पड़ा। इसी प्रकार देव दत्ता नामक गणिकाके नगरमें वर्षा योग धारण करनेवाले तपस्वीके द्वारा गठित संघ देव संघ कहलाया और तृणतल में वर्षा योग धारण करने वाले जिनसेन का नाम वृषभ पड़ गया था उनके द्वारा गठित संघ वृषभ संघ कहलाया इसका ही दूसरा नाम सेन संघ है। इसकी एक छोटी-सी गुर्वावली उपलब्ध है जो आगे दी जानेवाली है। धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी ने जिस संघको महिमान्वित किया उसका नाम पंचस्तूप संघ है इसीमें आगे जाकर जैनाभासी काष्ठा संघ के प्रवर्तक श्री कुमारसेन जी हुए। हरिवंश पुराणके रचयिता श्री जिनसेनाचार्य जिस संघमें हुए वह पुन्नाट संघ के नामसे प्रसिद्ध है। इसकी एक पट्टावली है जो आगे दी जाने वाली है।</p> | |||
<p style="text-align: justify;"> </p> | |||
<h3 id="6" style="text-align: justify;"><strong>6. दिगम्बर जैनाभासी संघ</strong></h3> | |||
<h4 id="6.1" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>6.1 सामान्य परिचय </strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">नीतिसार (ती.म.आ.४/३५८ पर उद्धत) - पूर्व श्री मूल संघस्तदनु सितपटः काष्ठस्ततो हि तावाभूद्भादिगच्छाः पुनरजनि ततो यापुनीसंघ एकः। = मूल संघमें पहले (भद्रबाहु प्रथमके कालमें) श्वेताम्बर संघ उत्पन्न हुआ था (दे. श्वेताम्बर)। तत्पश्चात् (किसी कालमें) काष्ठा संघ हुआ जो पीछे अनेकों गच्छोंमें विभक्त हो गया। उसके कुछ ही काल पश्चात् यापुनी संघ हुआ।<br />नीतिसार (द. पा./टी. ११ में उद्धृत) - गोपुच्छकश्वेतवासा द्रविड़ो यापनीयः निश्पिच्छश्चेति चैते पञ्च जैनाभासा प्रकीर्तिताः। = गोपुच्छ (काष्ठा संघ), श्वेताम्बर, द्रविड़, यापनीयः और निश्पिच्छ (माथुर संघ) ये पांच जैनाभासी कहे गये हैं।<br />हरिभद्र सूरीकृत षट्दर्शन समुच्चयकी आ. गुणरत्नकृत टीका-"दिगम्बराः पुनर्नाग्न्यलिंगा पाणिपात्रश्च। ते चतुर्धा. काष्ठसंघ-मूलसंघ-माथुरसंघ गोप्यसंघ भेदात्। आद्यास्त्रयोऽपि संघा वन्द्यमाना धर्मवृद्धिं भणन्ति गोप्यास्तु बन्द्यमाना धर्मलाभं भणंति। स्त्रीणां मुक्तिं केवलीना भुक्तिं सद्व्रतस्यापि सचीवरस्य मुक्तिं च न मन्वते।....सवेषां च भिक्षाटने भोजने च द्वात्रिंशदन्तराया मलाश्च चतुर्दश वर्ननीया। शेषमाचारे गुरौ च देवे च सर्वश्वेताम्बरैस्तुल्यम्। नास्ति तेषां मिथः शास्त्रेषु तर्केषु परो भेदः। = दिगम्बर नग्न रहते हैं और हाथमें भोजन करते हैं। इनके चार भेद हैं, काष्ठासंघ, मूलसंघ, माथुरसंघ और गोप्य (यापनीय) संघ। पहलेके तीन (काष्ठा, मल तथा माथुर) वन्दना करनेवालेको धर्मवृद्धि कहते हैं और स्त्री मुक्ति, केवलि भुक्ति तथा सद्व्रतोंके सद्भावमें भी सर्वस्त्र मुक्ति नहीं मानते हैं। चारों ही संघों के साधु भिक्षाटनमें तथा भोजनमें ३२ अन्तराय और १४ मलोंको टालते हैं। इसके सिवाय शेष आचार (अनुदिष्टाहार, शून्यवासआदि तथा देव गुरुके विषयमें (मन्दिर तथा मूर्त्तिपूजा आदिके विषयमें) सब श्वेताम्बरोंके तुल्य हैं। इन दोनोंके शास्त्रोंमें तथा तर्कोंमें (सचेलता, स्त्रीमुक्ति और कवलि भुक्तिको छोड़कर) अन्य कोई भेद नहीं है। | |||
<br />द.सा./प्र. ४० प्रेमी जी-ये संघ वर्तमानमें प्रायः लुप्त हो चुके हैं। गोपुच्छकी पिच्छिका धारण करने वाले कतिपय भट्टारकोंके रूपमें केवल काष्ठा संघका ही कोई अन्तिम अवशेष कहीं कहीं देखनेमें आता है।</p> | |||
<h4 id="6.2" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>6.2 यापनीय संघ</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>6.2.1 उत्पत्ति तथा काल</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">भद्रबाहुचारित्र ४/१५४-ततो यापनसंघोऽभूत्तेषां कापथवर्तिनाम्। = उन श्वेताम्बरियोंमें से कापथवर्ती यापनीय संघ उत्पन्न हुआ।<br />द.सा./मू. २९ कल्लाणे वरणयरे सत्तसए पंच उत्तरे जादे। जावणियसंघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो ।२९। = कल्याण नामक नगरमें विक्रमकी मृत्युके ७०५ वर्ष बीतने पर (दूसरी प्रतिके अनुसार २०५ वर्ष बीतनेपर) श्री कलश नामक श्वेताम्बर साधुसे यापनीय संघका सद्भाव हुआ।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>6.2.2 मान्यतायें</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">द.पा./टी.११/११/१५-यापनीयास्तु वेसरा इवोभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति, कल्पं च वाचयन्ति, स्त्रीणां तद्भवे मोक्षं, केवलिजिनानां कवलाहारं, परशासने सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति। = यापनीय संघ (दिगम्बर तथा श्वेताम्बर) दोनोंको मानते हैं। रत्नत्रयको पूजते हैं, (श्वेताम्बरोंके) कल्पसूत्रको बाँचते हैं, (श्वेताम्बरियोंकी भांति) स्त्रियोंका उसी भवसे मुक्त होना, केवलियोंका कवलाहार ग्रहण करना तथा अन्य मतावलम्बियोंको और परिग्रहधारियोंको भी मोक्ष होना मानते हैं।<br />हरिभद्र सूरि कृत षट् दर्शन समुच्चयकी आ. गुणरत्न कृत टीका-गोप्यास्तु वन्द्यमाना धर्मलाभं भणन्ति। स्त्रीणां मुक्ति केवलिणां भुक्तिं च मन्यन्ते। गोप्या यापनीया इत्युच्यन्ते। सर्वेषां च भिक्षाटने भोजने च द्वान्तिंशदन्तरायामलाश्च चतुर्दश वर्जनीयाः। शेषमाचारे गुरौ च देवे च सर्वं श्वेताम्बरै स्तुल्यम्। = गोप्य संघ वाले साधु वन्दना करनेवालेको धर्मलाभ कहते हैं। स्त्रीमुक्ति तथा केवलिभुक्ति भी मानते हैं। गोप्यसंघको यापनीय भी कहते हैं। सभी (अर्थात् काष्ठा संघ आदिके साथ यापनीय संघ भी) भिक्षाटनमें और भोजनमें ३२ अन्तराय और १४ मलोंको टालते हैं। इनके सिवाय शेष आचारमें (महाव्रतादिमें) और देव गुरुके विषयमें (मूर्ति पूजा आदिके विषयमें) सब (यापनीय भी) श्वेताम्बरके तुल्य हैं।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>6.2.3 जैनाभासत्व</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">उक्त सर्व कथनपरसे यह स्पष्ट है कि यह संघ श्वेताम्बर मतमें से उत्पन्न हुआ है और श्वेताम्बर तथा दिगम्बरके मिश्रण रूप है। इसलिये जैनाभास कहना युक्ति संगत है।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>6.2.4 काल निर्णय</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">इसके समयके सम्बन्धमें कुछ विवाद है क्योंकि दर्शनसार ग्रन्थकी दो प्रतियाँ उपलब्ध हैं। एकमें वि. ७०५ लिखा है और दूसरेमें वि. २०५। प्रेमीजीके अनुसार वि. २०५ युक्त है क्योंकि आ. शाकटायन और पाल्य कीर्ति जो इसी संघके आचार्य माने गये हैं उन्होंने `स्त्री मुक्ति और केवलभुक्ति' नामक एक ग्रन्थ रचा है जिसका समय वि. ७०५ से बहुत पहले है।</p> | |||
<h4 id="6.3" style="text-align: justify; padding-left: 30px;">6.3 द्राविड़ संघ</h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">दे.सा./मू. २४/२७ सिरिपुज्जपादसीसो दाविड़संघस्स कारगो दुट्ठो। णामेण वज्जणंदी पाहुड़वेदी महासत्तो ।२४। अप्पासुयचणयाणं भक्खणदो वज्जिदो सुणिंदेहिं। परिरइयं विवरीतं विसेसयं वग्गणं चोज्जं ।२५। बीएसु णत्थि जीवो उब्भसणं णत्थि फासुगं णत्थि। सवज्जं ण हु मण्णइ ण गणइ गिहकप्पियं अट्ठं ।२६। कच्छं खेत्तं वसहिं वाणिज्जं कारिऊण जीवँतो। ण्हंतो सयिलणीरे पावं पउरं स संजेदि ।२७।<br />= श्री पुज्यपाद या देवनन्दि आचार्यका शिष्य वज्रनन्दि द्रविड़संघको उत्पन्न करने वाला हुआ। यह समयसार आदि प्राभृत ग्रन्थोंका ज्ञाता और महान् पराक्रमी था। मुनिराजोंने उसे अप्रासुक या सचित्त चने खानेसे रोका, परन्तु वह न माना और बिगड़ कर प्रायश्चितादि विषयक शास्त्रोंकी विपरीत रचनाकर डाली ।२४-२५। उसके विचारानुसार बीजोंमें जीव नहीं होते, जगतमें कोई भी वस्तु अप्रासुक नहीं है। वह नतो मुनियोंके लिये खड़े-खड़े भोजनकी विधिको अपनाता है, न कुछ सावद्य मानता है और न ही गृहकल्पित अर्थको कुछ गिनता है ।२६। कच्छार खेत वसतिका और वाणिज्य आदि कराके जीवन निर्वाह करते हुए उसने प्रचुर पापका संग्रह किया। अर्थात् उसने ऐसा उपदेश दिया कि मुनिजन यदि खेती करावें, वसतिका निर्माण करावें, वाणिज्य करावें और अप्रासुक जलमें स्नान करें तो कोई दोष नहीं है।<br />द.सा./टी. ११ द्राविड़ाः......सावद्यं प्रासुकं च न मन्यते, उद्भोजनं निराकुर्वन्ति। = द्रविड़ संघके मुनिजन सावद्य तथा प्रासुकको नहीं मानते और मुनियोंको खड़े होकर भोजन करनेका निषेध करते हैं।<br />द.सा./प्र. ५४ प्रेमी जी-"द्रविड़ संघके विषयमें दर्शनसारकी वचनिकाके कर्ता एक जगह जिन संहिताका प्रमाण देकर कहते हैं कि `सभूषणं सवस्त्रंस्यात् बिम्ब द्राविड़संघजम्' अर्थात् द्राविड़ संघकी प्रतिमायें वस्त्र और आभूषण सहित होती हैं। ....न मालूम यह जिनसंहिता किसकी लिखी हुई और कहाँ तक प्रामाणिक है। अभी तक हमें इस विषयमें बहुत संदेह है कि द्राविड़ संघ सग्रन्थ प्रतिमाओंका पूजक होगा।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>6.3.1 प्रमाणिकता</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">यद्यपि देवसेनाचार्यने दर्शनसार की उपर्युक्त गाथाओंमें इसके प्रवर्तक वज्रनन्दिके प्रति दुष्ट आदि अपशब्दोंका प्रयोग किया है, परन्तु भोजन विषयक मान्यताओंके अतिरिक्त मूलसंघके साथ इसका इतना पार्थक्य नहीं है कि जैनाभासी कहकर इसको इस प्रकार निन्दा की जाये। (दे.सा./प्र.४५ प्रेमीजी)<br />इस बातकी पुष्टि निम्न उद्धरणपर से होती है -<br />ह.पु.१/३२ वज्रसूरेर्विचारण्यः सहेत्वोर्वन्धमोक्षयोः। प्रमाणं धर्मशास्त्राणां प्रवक्तृणामिवोक्तयः ।३२। = जो हेतु सहित विचार करती है, वज्रनन्दिकी उक्तियाँ धर्मशास्त्रोंका व्याख्यान करने वाले गणधरोंकी उक्तियोंके समान प्रमाण हैं।<br />द.सा./प्र. पृष्ठ संख्या (प्रेमी जी) - इस पर से यह अनुमान किया जा सकता है कि हरिवंश पुराणके कर्ता श्री जिनसेनाचार्य स्वयं द्राविड़ संघी हों, परन्तु वे अपने संघके आचार्य बताते हैं। यह भी सम्भव है कि द्राविड़ संघका ही अपर नाम पुन्नाट संघ हो क्योंकि `नाट' शब्द कर्णाटक देशके लिये प्रयुक्त होता है जो कि द्राविड़ देश माना गया है। द्रमिल संघ भी इसीका अपर नाम है ।४२। २. (कुछ भी हो, इसकी महिमासे इन्कार नहीं किया जा सकता, क्योंकि) त्रैविद्यविश्वेश्वर, श्रीपालदेव, वैयाकरण दयापाल, मतिसागर, स्याद्वाद् विद्यापति श्री वगदिराज सूरि जैसे बड़े-बड़े विद्वान इस संघमें हुए हैं।४२। ३. तीसरी बात यह भी है कि आ. देवसेनने जितनी बातें इस संघके लिये कहीं हैं, उनमें से बीजोंको प्रासुकमाननेके अतिरिक्त अन्य बातोंका अर्थ स्पष्ट नहीं है, क्योंकि सावद्य अर्थात् पापको न माननेवाला कोई भी जैन संघ नहीं है। सम्भवतः सावद्यका अर्थ भी (यहाँ) कुछ और ही हो ।४३। ४. तात्पर्य यह है कि यह संघ मूल दिगम्बर संघसे विपरीत नहीं है। जैनाभास कहना तो दूर यह आचार्योंको अत्यन्त प्रमाणिक रूपसे सम्मत है।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>6.3.2 गच्छ तथा शाखायें</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">इस संघके अनेकों गच्छ हैं, यथा-१. नन्दि अन्वय, २. उरुकुल गण, ३. एरेगित्तर गण, ४. मूलितल गच्छ इत्यादि। (द.सा./प्र. ४२ प्रेमीजी)।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>6.3.3 काल निर्णय</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">द.सा.मू.२८-पंचसए छब्बीसे विकमरायस्स मरणपत्तस्स। दक्खिणमहुरादो द्राविड़ संघो महामोहो ।२८। = विक्रमराजकी मृत्युके ५२६ वर्ष बीतनेपर दक्षिण मथुरा नगरमें (पूज्यपाद देवनन्दिके शिष्य श्री वज्रनन्दिके द्वारा) यह संघ उत्पन्न हुआ।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>6.3.4 गुर्वावली</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">इस संघके नन्दिगण उरुङ्गलान्वय शाखाकी एक छोटी सी गुर्वावली उपलब्ध है। जिसमें अनन्तवीर्य, देवकीर्ति पण्डित तथा वादिराजका काल विद्वद सम्मत है। शेषके काल इन्हींके आधार पर कल्पित किये गए हैं। (सि. वि. /प्र. ७५ पं. महेन्द्र); (ती. ३/४०-४१, ८८-१२)।</p> | |||
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<h4 id="6.4" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>6.4 काष्ठा संघ</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">जैनाभासी संघोंमें यह सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसका कुछ एक अन्तिम अवशेष अब भी गोपुच्छकी पीछीके रूपने किन्हीं एक भट्टारकोंमें पाया जाता है। गोपुच्छकी पीछीको अपना लेनेके कारण इस संघ का नाम गोपुच्छ संघ भी सुननेमें आता है। इसकी उत्पत्तिके विषय में दो धारणायें है। पहलीके अनुसार इसके प्रवर्तक नन्दिसंघ बलात्कार गणमें कथित उमास्वामीके शिष्य श्री लोहाचार्य तृ. हुए, और दूसरीके अनुसार पंचस्तूप संघमें प्राप्त कुमार सेन हुए। सल्लेखना व्रतका त्याग करके चरित्रसे भ्रष्ट हो जानेकी कथा दोनोंके विषयमें प्रसिद्ध है, तथापि विद्वानोंको कुमार सेनवाली द्वितीय मान्यता ही अधिक सम्मत है। | |||
</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>प्रथम दृष्टि</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">नन्दिसंघ बलात्कार गणकी पट्टावली। श्ल. ६-७ (ती. ४/३९३) पर उद्धृत)-"लोहाचार्यस्ततो जातो जात रूपधरोऽमरैः। ....ततः पट्टद्वयी जाता प्राच्युदीच्युपलक्षणात् ।६-७। = नन्दिसंघमें कुन्दकुन्द उमास्वामी (गृद्धपिच्छ) के पश्चात् लोहाचार्य तृतीय हुए। इनके कालसे संघमें दो भेद उत्पन्न हो गए। पूर्व शाखा (नन्दिसंघकी रही) और उत्तर शाखा (काष्ठा संघकी ओर चली गई)।<br />ती. ४/३५१ दिल्लीकी भट्टारक गद्दियोंसे प्राप्त लेखोंके अनुसार इस संघकी स्थापनाका संक्षिप्त इतिहास इस प्रकार है-दक्षिण देशस्थ भद्दलपुरमें विराजमान् श्री लोहाचार्य तृ. को असाध्य रोगसे आक्रान्त हो जानेके कारण, श्रावकोंने मूर्च्छावस्थामें यावुज्जीवन संन्यास मरणकी प्रतिज्ञा दिला दी। परन्तु पीछे रोग शान्त हो गया। तब आचार्यने भिक्षार्थ उठनेकी भावना व्यक्तकी जिसे श्रावकोंने स्वीकार नहीं किया। तब वे उस नगरको छोड़कर अग्रीहा चले गए और वहाँके लोगोंको जैन धर्ममें दीक्षित करके एक नये संघकी स्थापना कर दी।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>द्वितीय दृष्टि</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">द.सा./मू.३३,३८,३९-आसी कुमारसेणो णंदियडे विणयसेणदिक्खियओ। सण्णासभंजणेण य अगहिय पुण दिक्खओ जादो ।३३। सत्तसए तेवण्णे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स। णंदियवरगामे कट्ठो संघो मुणेयव्वो ।।३८।। णंदियडे वरगामे कुमारसेणो य सत्थ विण्णाणी। कट्ठो दंसणभट्ठो जादो सल्लेहणाकाले ।३८। = आ. विनयसेनके द्वारा दीक्षित आ. कुमारसेन जिन्होंने संन्यास मरणकी प्रतिज्ञाको भंग करके पुनः गुरुसे दीक्षा नहीं ली, और सल्लेखनाके अवसरपर, विक्रम की मृत्युके ७५३ वर्ष पश्चात्, नन्दितट ग्राममें काष्ठा संघी हो गये।<br />द.सा./मू. ३७ सो समणसंघवज्जो कुमारसेणो हु समयमिच्छत्तो। चत्तो व समो रुद्दो कट्ठं संघं परूवेदी ।३७। = मुनिसंघसे वर्जित, समय मिथ्यादृष्टि, उपशम भावको छोड़ देने वाले और रौद्र परिणामी कुमार सेनने काष्ठा संघकी प्ररूपणा की।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>स्वरूप</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">द.सा./मू.३४-३६ परिवज्जिऊण पिच्छं चमरं घित्तूण मोहकलिएण। उम्मग्गं संकलियं बागड़विसएसु सव्वेसु ।३४। इत्थीणं पूण दिक्खा खुल्लयलोयस्स वीर चरियत्तं। कक्कसकेसग्गहणं छट्ठं च गुणव्वदं णाम ।३५। आयमसत्थपुराणं पायच्छित्तं च अण्णहा किंपि। विरइत्ता मिच्छत्तं पवट्टियं मूढलोएसु ।३६। = मयूर पिच्छीको त्यागकर तथा चँवरी गायकी पूंछको ग्रहण करके उस अज्ञानीने सारे बागड़ प्रान्तमें उन्मार्गका प्रचार किया ।३४। उसने स्त्रियोंको दीक्षा देनेका, क्षुल्लकों को वीर्याचारका, मुनियोंको कड़े बालोंकी पिच्छी रखनेका और रात्रिभोजन नामक छठे गुणव्रत (अणुव्रत) का विधान किया ।३५। इसके सिवाय इसने अपने आगम शास्त्र पुराण और प्रायश्चित्त विषयक ग्रन्थोंको कुछ और ही प्रकार रचकर मूर्ख लोगोंमें मिथ्यात्वका प्रचार किया ।३६।<br />दे. ऊपर शीर्षक ६/१ में हरि भद्रसूरि कृत षट्दर्शन का उद्धरण-वन्दना करने वालेको धर्म वृद्धि कहता है। स्त्री मुक्ति, केवलि भुक्ति तथा सर्वस्त्र मुक्ति नहीं मानता।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>निन्दनीय</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">द.स./मू. ३७ सो समणसंघवज्जो कुमारसेणो हु समयमिच्छत्तो। चत्तोवसमो रुद्दो कट्ठं संघं परूवेदि ।३७। = मुनिसंघसे बहिष्कृत, समयमिथ्यादृष्टि, उपशम भावको छोड़ देने वाले और रौद्र परिणामी कुमारसेनने काष्ठा संघकी प्ररूपणाकी।<br />सेनसंघ पट्टावली २६ (ती. ४/४२६ पर उद्धृत) - `दारुसंघ संशयतमो निमग्नाशाधर मूलसंघोपदेश। = काष्ठा संघके संशय रूपी अन्धकारमें डूबे हुओंको आशा प्रदान करने वाले मूलसंघके उपदेशसे।<br />दे.सा./प्र. ४५ प्रेमी जी-मूलसंघसे पार्थक्य होते हुए भी यह इतना निन्दनीय नहीं है कि इसे रौद्र परिणामी आदि कहा जा सके। पट्टावलीकारने इसका सम्बन्ध गौतमके साथ जोड़ा है। (दे. आगे शीर्षक ७)</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>विविध गच्छ</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">आ. सुरेन्द्रकीर्ति-काष्ठासंघो भुविख्यातो जानन्ति नृसुरासुराः। तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षितौ। श्रीनन्दितटसंज्ञाश्च माथुरो बागडाभिधः। लाड़बागड़ इत्येते विख्याता क्षितिमण्डले। = पृथिवी पर प्रसिद्ध काष्ठा संघको नर सुर तथा असुर सब जानते हैं। इसके चार गच्छपृथिवीपर शोभित सुने जाते हैं - नन्दितटगच्छ, माथुर गच्छ, बागड़ गच्छ, और लाड़बागड़गच्छ। (इनमेंसे नंदितट गच्छ तो स्वयं इस संघ का ही अवान्तर नाम है जो नन्दितट ग्राममें उत्पन्न होनेके कारण इसे प्राप्त हो गया है। माथुर गच्छ जैनाभासी माथुर संघके नामसे प्रसिद्ध है जिसका परिचय आगे दिया जानेवाला है। बागड़ देशमें उत्पन्न होनेवाली इसकी एक शाखाका नाम बागड़ गच्छ है और लाड़बागड़ देशमें प्रसिद्ध व प्रचारित होनेवाली शाखाका नाम लाड़बागड़ गच्छ है। इसकी एक छोटीसी गुर्वावली भी उपलब्ध है जो आगे शीर्षक ७ के अन्तर्गत दी जाने वाली है।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>काल निर्णय</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">यद्यपि संघकी उत्पत्ति लोहाचार्य तृ. और कुमारसेन दोनोंसे बताई गई है और संन्यास मरणकी प्रतिज्ञा भंग करनेवाली कथा भी दोनों के साथ निबद्ध है, तथापि देवसेनाचार्य की कुमारसेन वाली द्वितीय मान्यता अधिक संगत है, क्योंकि लोहाचार्य के साथ इसका साक्षात् सम्बन्ध माननेपर इसके कालकी संगति बैठनी सम्भव नहीं है। इसलिये भले ही लोहाचार्यज के साथ इसका परम्परा सम्बन्ध रहा आवे परन्तु इसका साक्षात् सम्बन्ध कुमारसेनके साथ ही है।<br />इसकी उत्पत्तिके कालके विषयमें मतभेद है। आ. देवसेनके अनुसार वह वि. ७५३ है और प्रेमीजी के अनुसार वि. ९५५ (द.सा./प्र. ३९)। इसका समन्वय इस प्रकार किया जा सकता है कि इस संघ की जो पट्टावली आगे दी जाने वाली है उसमें कुमारसेन नामके दो आचार्योंका उल्लेख है। एकका नाम लोहाचार्यके पश्चात् २९वें नम्बर पर आता है और दूसरेका ४० वें नम्बर पर। बहुत सम्भव है कि पहले का समय वि. ७५३ हो और दूसरेका वि. ९५५। देवसेनाचार्यकी अपेक्षा इसकी उत्पत्ति कुमारसेन प्रथमके कालमें हुई जबकि प्रद्युम्न चारित्रके जिस प्रशस्ति पाठके आधार पर प्रेमीजी ने अपना सन्धान प्रारम्भ किया है उसमें कुमारसेन द्वितीयका उल्लेख किया गया है क्योंकि इस नामके पश्चात् हेमचन्द्र आदिके जो नाम प्रशस्तिमें लिये गए हैं वे सब ज्योंके त्यों इस पट्टावलीमें कुमारसेन द्वितीयके पश्चात् निबद्ध किये गये हैं।<br />अग्रोक्त माथुर संघ अनुसार भी इस संघका काल वि. ७५३ ही सिद्ध होता है, क्योंकि द. सा. ग्रन्थमें उसकी उत्पत्ति इसके २०० वर्ष पश्चात् बताई गई है। इसका काल ९५५ माननेपर वह वि. ११५५ प्राप्त होता है, जब कि उक्त ग्रन्थकी रचना ही वि. ९९० में होना सिद्ध है। उसमें ११५५ की घटनाका उल्लेख कैसे सम्भव हो सकता है।</p> | |||
<h4 id="6.5" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>6.5 माथुर संघ</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">जैसाकि पहले कहा गया है यह काष्ठा संघकी एक शाखा या गच्छ है जो उसके २०० वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुआ है। मथुरा नगरीमें उत्पन्न होनेके कारण ही इसका यह नाम पड़ गया है। पीछीका सर्वथा निषेध करनेके कारण यह निष्पिच्छक संघके नामसे प्रसिद्ध है।<br />द.पा./मू. ४०,४२ तत्तो दुसएतीदे मे राए माहुराण गुरुणाहो। णामेण रामसेणो णिप्पिच्छं वण्णियं तेण ।४०। सम्मतपयडिमिच्छंतं कहियं जं जिणिंदबिंबेसु। अप्पपरणिट्ठिएसु य ममत्तबुद्धीए परिवसणं ।४१। एसो मम होउ गुरू अवरो णत्थि त्ति चित्तपरियरणं। सगगुरुकुलाहिमाणो इयरेसु वि भंगकरणं च ।४२। = इस (काष्ठा संघ) के २०० वर्ष पश्चात् अर्थात् वि. ९५३ में मथुरा नगरीमें माथुरसंघका प्रधान गुरु रामसेन हुआ। उसने निःपिच्छक रहनेका उपदेश दिया, उसने पीछीका सर्वता निषेध कर दिया ।४२। उसने अपने और पराये प्रतिष्ठित किये हुये जिनबिम्बोंकी ममत्व बुद्धि द्वारा न्यूनाधिक भावसे पूजा वन्दना करने; मेरा यह गुरु है दूसरा नहीं इस प्रकारके भाव रखने, अपने गुरुकुल (संघ) का अभिमान करने और दूसरे गुरुकुलोंका मान भंग करने रूप सम्यक्त्व प्रकृति मिथ्यात्वका उपदेश दिया।<br />द.पा./टी.११/११/१८ निष्पिच्छिका मयूरपिच्छादिकं न मन्यन्ते। उक्तं च ढाढसीगाथासु-पिच्छे ण हु सम्मत्तं करगहिए मोरचमरडंबरए। अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा वि झायव्वो ।१। सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य तह य अण्णो य। समभावभावियप्पा लहेय मोक्खं ण संदेहो ।२। = निष्पिच्छिक मयूर आदिकी पिच्छीको नहीं मानते। ढाढसी गाथामें कहा भी है - मोर पंख या चमरगायके बालोंकी पिछी हाथमें लेनेसे सम्यक्त्व नहीं है। आत्माको आत्मा ही तारता है, इसलिए आत्मा ध्याने योग्य है ।१। श्वेत वस्त्र पहने हो या दिगम्बर हो, बुद्ध हो या कोई अन्य हो, समभावसे भायी गयी आत्मा ही मोक्ष प्राप्त करती है, इसमें सन्देह नहीं है ।२। <br />द.सा./प्र. /४४ प्रेमीजी "माथुरसंघे मूलतोऽपि पिच्छिंका नादृताः। = माथुरसंघमें पीछीका आदर सर्वथा नहीं किया जाता।<br />दे. शीर्षक/६/१ में हरिभद्र सूरिकृत षट्दर्शनका उद्धरण-वन्दना करने वालेको धर्मबुद्धि कहता है। स्त्री मुक्ति, केवलि भुक्ति सर्वस्त्र मुक्ति नहीं मानता।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>काल निर्णय</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">जैसाकि ऊपर कहा गया है, द. सा./४० के अनुसार इसकी उत्पत्ति काष्ठासंघसे २०० वर्ष पश्चात् हुई थी तदनुसार इसका काल ७५३+२००= वि. ९५३ (वि. श. १०) प्राप्त होता है। परन्तु इसके प्रवर्तकका नाम वहां रामसेन बताया गया है जबकि काष्ठासंघकी गुर्वावलीमें वि. ९५३ के आसपास रामसेन नाम के कोई आचार्य प्राप्त नहीं होते हैं। अमित गति द्वि. (वि. १०५०-१०७३) कृत सुभाषित रत्नसन्दोहमें अवश्य इस नामका उल्लेख प्राप्त होता है। इसीको लेकर प्रेमीजी अमित गति द्वि. को इसका प्रवर्तक मानकर काष्ठासंघको वि. ९५३ में स्थापित करते हैं; जिसका निराकरण पहले किया जा चुका है।</p> | |||
<h4 id="6.6" style="padding-left: 30px;"><strong>6.6 भिल्लक संघ </strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">द.सा./मू. ४५-४६ दक्खिदेसे बिंझे पुक्कलए वीरचंदमुणिणाहो। अट्ठारसएतीदे भिल्लयसंघं परूवेदि ।४५। सोणियगच्छं किच्चा पडिकमणं तह य भिण्णकिरियाओ। वण्णाचार विवाई जिणमग्गं सुट्ठु गिहणेदि ।४६। = दक्षिणदेशमें विन्ध्य पर्वतके समीप पुष्कर नामके ग्राममें वीरचन्द नामका मुनिपति विक्रम राज्यकी मृत्युके १८०० वर्ष बीतनेके पश्चात् भिल्लकसंघको चलायेगा ।४५। वह अपना एक अलग गच्छ बनाकर जुदा ही प्रतिक्रमण विधि बनायेगा। भिन्न क्रियाओंका उपदेश देगा और वर्णाचारका विवाद खड़ा करेगा। इस तरह वह सच्चे जैनधर्म का नाश करेगा।<br />द.सा./प्र. ४५ प्रेमीजी-उपर्युक्त गाथाओंमें ग्रन्थकर्ता (श्री देवसेनाचार्य) ने जो भविष्य वाणीकी है वह ठीक प्रतीत नहीं होती, क्योंकि वि. १८०० को आज २०० वर्ष बीत चुके हैं, परन्तु इस नामसे किसी संघ की उत्पत्ति सुननेमें नहीं आई है। अतः भिल्लक नामका कोई भी संघ आज तक नहीं हुआ है।</p> | |||
<h4 id="6.7" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>6.7 अन्य संघ तथा शाखायें</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">जैसा कि उस संघका परिचय देते हुए कहा गया है, प्रत्येक जैनाभासी संघकी अनेकानेक शाखायें या गच्छ हैं, जिसमें से कुछ ये हैं - १. गोप्य संघ यापनीय संघका अपर नाम है। द्राविड़संघके अन्तर्गत चार शाखायें प्रसिद्ध हैं, २. नन्दि अन्वय गच्छ, ३. उरुकुल गण, ४. एरिगित्तर गण, और ५. मूलितल गच्छ। इसी प्रकार काष्ठासंघमें भी गच्छ हैं, ६. नन्दितट गच्छ वास्तवमें काष्ठासंघ की कोई शाखा न होकर नन्दितट ग्राममें उत्पन्न होनेके कारण स्वयं इसका अपना ही अपर नाम है। मथुरामें उत्पन्न होनेवाली इस संघकी एक शाखा ७. माथुर गच्छ के नामसे प्रसिद्ध है, जिसका परिचय माथुर संघ के नामसे दिया जा चुका है। काष्ठासंघकी दो शाखायें ८. बागड़ गच्छ और ९. लाड़बागड़ गच्छ के नामसे प्रसिद्ध हैं जिनके ये नाम उस देश में उत्पन्न होने के कारण पड़ गए हैं।</p> | |||
<p style="text-align: justify;"> </p> | |||
<h3 id="7" style="text-align: justify;"><strong>7. पट्टावलियें तथा गुर्वावलियें</strong></h3> | |||
<h4 id="7.1" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>7.1 मूलसंघ विभाजन</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">मूल संघकी पट्टावली पहले दे दी गई (दे. शीर्षक ४/२) जिसमें वीर-निर्वाणके ६८३ वर्ष पश्चात् तक की श्रुतधर परम्पराका उल्लेख किया गया और यह भी बताया गया कि आ. अर्हद्बलीके द्वारा यह मूल संघ अनेक अवान्तर संघोंमें विभाजित हो गया था। आगे चलने पर ये अवान्तर संघ भी शाखाओं तथा उपशाखाओंमें विभक्त होते हुए विस्तारको प्राप्त हो गए। इसका यह विभक्तिकरण किस क्रमसे हुआ, यह बात नीचे चित्रित करनेका प्रयास किया गया है।</p> | |||
[[File: Itihaas_2.PNG ]] | |||
<h4 id="7.2" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>7.2 नन्दि संघ बलात्कारगण </strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">प्रमाण-दृष्टि १= वि. रा. सं. = शक संवत्; दृष्टि नं. २ = वि. रा. सं. = वी. नि. ४८८। विधि = भद्रबाहुके कालमें १ वर्ष की वृद्धि करके उसके आगे अगले-अगलेका पट्टकाल जोड़ते जाना तथा साथ-साथ उस पट्टकालमें यथोक्त वृद्धि भी करते जाना - (विशेष दे. शीर्षक ५/२)</p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>नाम</th> | |||
<th>प्र. दृष्टि</th> | |||
<th> </th> | |||
<th>द्वि. दृष्टि</th> | |||
<th> </th> | |||
<th> </th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>वि.रा.सं.</td> | |||
<td>वी.नि.</td> | |||
<td>काल</td> | |||
<td>वी.नि.</td> | |||
<td>विशेषता</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१ भद्रबाहु २</td> | |||
<td>२६-Apr</td> | |||
<td>६०९-६३१</td> | |||
<td>२२</td> | |||
<td>४९२-५१४</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>१</td> | |||
<td>५१४-५१५</td> | |||
<td>मूलसंघके</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>लोहाचार्य २</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>५०</td> | |||
<td>५१५-५६५</td> | |||
<td>तुल्य</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२ गुप्तिगुप्त</td> | |||
<td>२६-३६</td> | |||
<td>६३१-६४१</td> | |||
<td>१०</td> | |||
<td>५६५-५७५</td> | |||
<td>नन्दिसंघोत्पत्ति तक</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३ माघनन्दि - प्र. आचार्यत्व</td> | |||
<td>३६-४०</td> | |||
<td>६४१-६४५</td> | |||
<td>४</td> | |||
<td>५७५-५७९</td> | |||
<td>भ्रष्ट होनेसे पहले</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>द्वि. आचार्यत्व</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>३५</td> | |||
<td>५७९-६१४</td> | |||
<td>पुनः दीक्षाके बाद</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४ जिनचन्द्र</td> | |||
<td>४०-४९</td> | |||
<td>६४५-६५४</td> | |||
<td>९</td> | |||
<td>६१४-६२३</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td>३१</td> | |||
<td>६२३-६५४</td> | |||
<td>कालवृद्धि</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५ पद्मनन्दि</td> | |||
<td>४९-१०१</td> | |||
<td>६५४-७०६</td> | |||
<td>५२</td> | |||
<td>६५४-७०६</td> | |||
<td>अपर नाम कुन्दकुन्द</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६ गृद्धपिच्छ</td> | |||
<td>१०१-१४२</td> | |||
<td>७०६-७४७</td> | |||
<td>४१</td> | |||
<td>७०६-७४७</td> | |||
<td>उमास्वामी का नाम</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>२३</td> | |||
<td>७४७-७७०</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>नोट - इससे आगे शक संवत् घटित हो जानेसे द्वि. दृष्टिका प्रयोजन समाप्त हो जाता है।</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>7 लोहाचार्य ३</td> | |||
<td>१४२-१५३</td> | |||
<td>७४७-७५८</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p> </p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>क्रम</th> | |||
<th>नाम</th> | |||
<th>शक सं.</th> | |||
<th>ई.सं.</th> | |||
<th>वर्ष</th> | |||
<th>विशेष</th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>७</td> | |||
<td>लोहाचार्य ३</td> | |||
<td>१४२-१५३</td> | |||
<td>२२०-२३१</td> | |||
<td>११</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८</td> | |||
<td>यशकीर्ति १</td> | |||
<td>१५३-२११</td> | |||
<td>२३१-२८९</td> | |||
<td>५८</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९</td> | |||
<td>यशोनन्दि १</td> | |||
<td>२११-२५८</td> | |||
<td>२८९-३३६</td> | |||
<td>४७</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०</td> | |||
<td>देवनन्दि</td> | |||
<td>२५८-३०८</td> | |||
<td>३३६-३८६</td> | |||
<td>५०</td> | |||
<td>जिनेन्द्रबुद्धि पूज्यपाद</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११</td> | |||
<td>जयनन्दि</td> | |||
<td>३०८-३५८</td> | |||
<td>३८६-४३६</td> | |||
<td>५०</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२</td> | |||
<td>गुणनन्दि</td> | |||
<td>३५८-३६४</td> | |||
<td>४३६-४४२</td> | |||
<td>६</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३</td> | |||
<td>वज्रनन्दि नं. १</td> | |||
<td>३६४-३८६</td> | |||
<td>४४२-४६४</td> | |||
<td>२२</td> | |||
<td>द्रविड़ संघके प्रवर्तक</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४</td> | |||
<td>कुमारनन्दि</td> | |||
<td>३८६-४२७</td> | |||
<td>४६४-५०५</td> | |||
<td>४१</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५</td> | |||
<td>लोकचन्द्र</td> | |||
<td>४२७-४५३</td> | |||
<td>५०५-५३१</td> | |||
<td>२६</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र नं. १</td> | |||
<td>४५३-४७८</td> | |||
<td>५३१-५५६</td> | |||
<td>२५</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७</td> | |||
<td>नेमीचन्द्र नं. १</td> | |||
<td>४७८-४८७</td> | |||
<td>५५६-५६५</td> | |||
<td>९</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८</td> | |||
<td>भानुनन्दि</td> | |||
<td>४८७-५०८</td> | |||
<td>५६५-५८६</td> | |||
<td>११</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९</td> | |||
<td>सिंहनन्दि २</td> | |||
<td>५०८-५२५</td> | |||
<td>५८६-६०३</td> | |||
<td>१७</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०</td> | |||
<td>वसुनन्दि १</td> | |||
<td>५२५-५३१</td> | |||
<td>६०३-६०९</td> | |||
<td>६</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१</td> | |||
<td>वीरनन्दि १</td> | |||
<td>५३१-५६१</td> | |||
<td>६०९-६३९</td> | |||
<td>३०</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२</td> | |||
<td>रत्ननन्दि</td> | |||
<td>५६१-५८५</td> | |||
<td>६३९-६६३</td> | |||
<td>२४</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३</td> | |||
<td>माणिक्यनन्दि १</td> | |||
<td>५८५-६०१</td> | |||
<td>६६३-६७९</td> | |||
<td>१६</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४</td> | |||
<td>मेघचन्द्र नं. १</td> | |||
<td>६०१-६२७</td> | |||
<td>६७९-७०५</td> | |||
<td>२६</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५</td> | |||
<td>शान्तिकीर्ति</td> | |||
<td>६२७-६४२</td> | |||
<td>७०५-७२०</td> | |||
<td>१५</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६</td> | |||
<td>मेरुकीर्ति</td> | |||
<td>६४२-६८०</td> | |||
<td>७२०-७५८</td> | |||
<td>३८</td> | |||
<td></td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p> </p> | |||
<h4 id="7.3" style="padding-left: 30px;"><strong>7.3 नन्दिसंघ बलात्कारगण की भट्टारक आम्नाय</strong></h4> | |||
<p style="padding-left: 30px;">नोट - इन्द्र नन्दिकृत श्रुतावतारकी उपर्युक्त पट्टावली इस संघकी भद्रपुर या भद्दिलपुर गद्दीसे सम्बन्ध रखती है। इण्डियन एण्टीक्वेरी के आधारपर डॉ. नेमिचन्दने इसकी अन्य गद्दियोंसे सम्बन्धित भी पट्टावलियें ती. ४/४४१ पर भदी हैं- </p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>सं. व. नाम</th> | |||
<th>वि. वर्ष</th> | |||
<th> </th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td><strong>२ उज्जयनी गद्दी</strong></td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७ महाकीर्ति</td> | |||
<td>६८६</td> | |||
<td>१८</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८ विष्णुनन्दि (विश्वनन्दि)</td> | |||
<td>७०४</td> | |||
<td>२२</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९ श्री भूषण</td> | |||
<td>७२६</td> | |||
<td>९</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३० शीलचन्द</td> | |||
<td>७३५</td> | |||
<td>१४</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१ श्रीनन्दि</td> | |||
<td>७४९</td> | |||
<td>१६</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२ देशभूषण</td> | |||
<td>७६५</td> | |||
<td>१०</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३ अनन्तकीर्ति</td> | |||
<td>७७५</td> | |||
<td>१०</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४ धर्म्मनन्दि</td> | |||
<td>७८५</td> | |||
<td>२३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५ विद्यानन्दि</td> | |||
<td>८०८</td> | |||
<td>३२</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६ रामचन्द्र</td> | |||
<td>८४०</td> | |||
<td>१७</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७ रामकीर्ति</td> | |||
<td>८५७</td> | |||
<td>२१</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८ अभय या निर्भयचन्द्र</td> | |||
<td>८७८</td> | |||
<td>१९</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९ नरचन्द्र</td> | |||
<td>८९७</td> | |||
<td>१९</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४० नागचन्द्र</td> | |||
<td>९१६</td> | |||
<td>२३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१ नयनन्दि</td> | |||
<td>९३९</td> | |||
<td>९</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२ हरिनन्दि</td> | |||
<td>९४८</td> | |||
<td>२६</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३ महीचन्द्र</td> | |||
<td>९७४</td> | |||
<td>१६</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४ माघचन्द्र (माधवचन्द्र)</td> | |||
<td>९९०</td> | |||
<td>३३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td><strong>३ चन्देरी गद्दी</strong></td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५ लक्ष्मीचन्द</td> | |||
<td>१०२३</td> | |||
<td>१४</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६ गुणनन्दि (गुणकीर्ति)</td> | |||
<td>१०३७</td> | |||
<td>११</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७ गुणचन्द्र</td> | |||
<td>१०४८</td> | |||
<td>१८</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८ लोकचन्द्र</td> | |||
<td>१०६६</td> | |||
<td>१३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td><strong>४ भेलसा (भोपाल) गद्दी</strong></td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९ श्रुतकीर्ति</td> | |||
<td>१०७९</td> | |||
<td>१५</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५० भावचन्द्र (भानुचन्द्र)</td> | |||
<td>१०९४</td> | |||
<td>२१</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१ महीचंद्र</td> | |||
<td>१११५</td> | |||
<td>२५</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td><strong>५ कुण्डलपुर (दमोह) गद्दी</strong></td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२ मोघचन्द्र (मेघचन्द्र)</td> | |||
<td>११४०</td> | |||
<td>४</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td><strong>६ वारां की गद्दी</strong></td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३ ब्रह्मनन्दि</td> | |||
<td>११४४</td> | |||
<td>४</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४ शिवनन्दि</td> | |||
<td>११४८</td> | |||
<td>७</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५ विश्वचन्द्र</td> | |||
<td>११५५</td> | |||
<td>१</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६ हृदिनन्दि</td> | |||
<td>११५६</td> | |||
<td>४</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७ भावनन्दि</td> | |||
<td>११६०</td> | |||
<td>७</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८ सूर (स्वर) कीर्ति</td> | |||
<td>११६७</td> | |||
<td>३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९ विद्याचन्द्र</td> | |||
<td>११७०</td> | |||
<td>६</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६० सूर (राम) चन्द्र</td> | |||
<td>११७६</td> | |||
<td>८</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१ माघनन्दि</td> | |||
<td>११८४</td> | |||
<td>४</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६२ ज्ञाननन्दि</td> | |||
<td>११८८</td> | |||
<td>११</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६३ गंगकीर्ति</td> | |||
<td>११९९</td> | |||
<td>७</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६४ सिंहकीर्ति</td> | |||
<td>१२०६</td> | |||
<td>३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६५ हेमकीर्ति</td> | |||
<td>१२०९</td> | |||
<td>७</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६६ चारु कीर्ति</td> | |||
<td>१२१६</td> | |||
<td>७</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६७ नेमिनन्दि</td> | |||
<td>१२२३</td> | |||
<td>७</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६८ नाभिकीर्ति</td> | |||
<td>१२३०</td> | |||
<td>२</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६९ नरेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>१२३२</td> | |||
<td>९</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७० श्रीचन्द्र</td> | |||
<td>१२४१</td> | |||
<td>७</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७१ पद्मकीर्ति</td> | |||
<td>१२४८</td> | |||
<td>५</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७२ वर्द्धमानकीर्ति</td> | |||
<td>१२५३</td> | |||
<td>३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७३ अकलंकचन्द्र</td> | |||
<td>१२५६</td> | |||
<td>१</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७४ ललितकीर्ति</td> | |||
<td>१२५७</td> | |||
<td>४</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७५ केशवचन्द्र</td> | |||
<td>१२६१</td> | |||
<td>१</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७६ चारुकीर्ति</td> | |||
<td>१२६२</td> | |||
<td>२</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७७ अभयकीर्ति</td> | |||
<td>१२६४</td> | |||
<td>०</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७८ वसन्तकीर्ति</td> | |||
<td>१२६४</td> | |||
<td>२</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td><strong>८ अजमेर गद्दी</strong></td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७९ प्रख्यातकीर्ति</td> | |||
<td>१२६६</td> | |||
<td>२</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८० शुभकीर्ति</td> | |||
<td>१२६८</td> | |||
<td>३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८१ धर्म्मचन्द्र</td> | |||
<td>१२७१</td> | |||
<td>२५</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८२ रत्नकीर्ति</td> | |||
<td>१२९६</td> | |||
<td>१४</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८३ प्रभाचन्द्र</td> | |||
<td>१३१०</td> | |||
<td>७५</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td><strong>९ दिल्ली गद्दी</strong></td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८४ पद्मनन्दि</td> | |||
<td>१३८५</td> | |||
<td>६५</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८५ शुभचन्द्र</td> | |||
<td>१४५०</td> | |||
<td>५७</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८६ जिनचन्द्र</td> | |||
<td>१५०७</td> | |||
<td>७०</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td><strong>१०.चित्तौड़ गद्दी</strong></td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८७ प्रभाचन्द्र</td> | |||
<td>१५७१</td> | |||
<td>१०</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८८ धर्म्मचन्द्र</td> | |||
<td>१५८१</td> | |||
<td>२२</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८९ ललितकीर्ति</td> | |||
<td>१६०३</td> | |||
<td>१९</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९० चन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>१६२२</td> | |||
<td>४०</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९१ देवेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>१६६२</td> | |||
<td>२९</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९२ नरेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>१६११</td> | |||
<td>३१</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९३ सुरेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>१७२२</td> | |||
<td>११</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९४ जगत्कीर्ति</td> | |||
<td>१७३३</td> | |||
<td>३७</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९५ देवेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>१७७०</td> | |||
<td>२२</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९६ महेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>१७९२</td> | |||
<td>२३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९७ क्षेमेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>१८१५</td> | |||
<td>७</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९८ सुरेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>१८२२</td> | |||
<td>३७</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९९ खेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>१८५९</td> | |||
<td>२०</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०० नयनकीर्ति</td> | |||
<td>१८७९</td> | |||
<td>४</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०१ देवेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>१८८३</td> | |||
<td>५५</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०२ महेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>१९३८</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td><strong>११ नागौर गद्दी</strong></td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१ रत्नकीर्ति</td> | |||
<td>१५८१</td> | |||
<td>५</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२ भुवनकीर्ति</td> | |||
<td>१५८६</td> | |||
<td>४</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३ धर्म्मकीर्ति</td> | |||
<td>१५९०</td> | |||
<td>११</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४ विशालकीर्ति</td> | |||
<td>१६०१</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५ लक्ष्मीचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६ सहस्रकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७ नेमिचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८ यशःकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९ वनकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१० श्रीभूषण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११ धर्म्मचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२ देवेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३ अमरेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४ रत्नकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५ ज्ञानभूषण</td> | |||
<td>-श. १८</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६. चन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७ पद्मनन्दी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८ सकलभूषण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९ सहस्रकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२० अनन्तकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१ हर्षकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२ विद्याभूषण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३ हेमकीर्ति*</td> | |||
<td>१९१०</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p style="padding-left: 30px;">हेमकीर्ति भट्टारक माघ शु. २ सं. १९१० को पट्टपर बैठे।</p> | |||
<h4 id="7.4" style="text-align: justify; padding-left: 30px;">7.4 नन्दिसंघ बलात्कारगणकी शुभचन्द्र आम्नाय</h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">(गुजरात वीरनगरके भट्टारकोंकी दो प्रसिद्ध गद्दियें)-<br />प्रमाण = जै. १/४५६-४५९; गै. २/३७७ ३७८; ती. ३/३६९।<br />देखो पीछे - ग्वालियर गद्दीके वसन्तकीर्ति (वि. १२६४) तत्पश्चात् अजमेर गद्दीके प्रख्यातकीर्ति (वि. १२६६), शुभकीर्ति (वि. १२६८), धर्मचन्द्र (वि. १२७१), रत्नकीर्ति (वि. १२९६), प्रभाचन्द्र नं. ७ (वि. १३१०-१३८५)</p> | |||
[[File: Itihaas_3.PNG ]] | |||
<h4 id="7.5" style="padding-left: 30px;"><strong>7.5 नन्दिसंघ देशीयगण</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">(तीन प्रसिद्ध शाखायें)<br />प्रमाण = १. ती. ४/३/९३ पर उद्धृत नयकीर्ति पट्टावली।<br />(ध. २/प्र. २/H. L. Jain); (त. वृ. /प्र. ९७)।<br />२. ध. २/प्र. ११/H. L. Jain/शिलालेख नं. ६४ में उद्धृत गुणनन्दि परम्परा। ३. ती. ४/३७३ पर उद्धृत मेघचन्द्र प्रशस्ति तथा ती. ४/३८७ पर उद्धृत देवकीर्ति प्रशस्ति।</p> | |||
[[File: Itihaas_4.PNG ]] | |||
<p style="padding-left: 30px;">टिप्पणी:-</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">१. माघनन्दि के सधर्मा=अबद्धिकरण पद्यनन्दि कौमारदेव, प्रभाचन्द्र, तथा नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती। श्ल. ३५-३९। तदनुसार इनका समय ई. श. १०-११ (दे. अगला पृ.)।<br />२. गुणचन्द्रके शिष्य माणिक्यनन्दि और नयकीर्ति योगिन्द्रदेव हैं। नयकीर्तिकी समाधि शक १०९९ (ई. ११७७) में हुई। तदनुसार इनका समय लगभग ई. ११५५।<br />३. मेघचन्द्रके सधर्मा= मल्लधारी देव, श्रीधर, दामनन्दि त्रैविद्य, भानुकीर्ति और बालचन्द्र (श्ल. २४-३४)। तदनुसार इनका समय वि. श. ११। (ई. १०१८-१०४८)।<br />५. क्रमशः-नन्दीसंख देशीयगण गोलाचार्य शाखा<br />प्रमाण :- १. ती.४/३७३ पर उद्धृत मेघचन्द्रकी प्रशस्ति विषयक शिलालेख नं. ४७/ती. ४/१८६ पर उद्धृत देवकीर्तिकी प्रशस्ति विषयक शिलालेख नं. ४०। २. ती. ३/२२४ पर उद्धृत वसुनन्दि श्रावकाचारकी अन्तिम प्रशस्ति। ३. (ध. २/प्र. ४/H. L. Jain); (पं. विं./प्र. २८/H. L. Jain)</p> | |||
[[File: Itihaas_5.PNG ]] | |||
<h4 id="7.6" style="padding-left: 30px;"><strong>7.6 सेन या वृषभ संघकी पट्टावली</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">पद्मपुराणके कर्ता आ. रविषेण को इस संघका आचार्य माना गया है। अपने पद्मपुराणमें उन्होंने अपनी गुरुपरम्परामें चार नामोंका उल्लेख किया है। (प. पु. १२३/१६७)। इसके अतिरिक्त इस संघके भट्टारकोंकी भी एक पट्टावली प्रसिद्ध है --<br />सेनसंघ पट्टावली/श्ल. नं. (ति. ४/४२६ पर उद्धृत)-`श्रीमूलसंघवृषभसेनान्वयपुष्करगच्छविरुदावलिविराजमान श्रीमद्गुणभद्रभट्टारकाणाम् ।३८।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">दारुसंघसंशयतमोनिमग्नाशाधर श्रीमूलसंघोपदेशपितृवनस्वर्यांतककमलभद्रभट्टारक....।२६। = श्रीमूलसंघमें वृषभसेन अन्वय के पुष्करगच्छकी विरुदावलीमें बिराजमान श्रीमद् गुणभद्र भट्टारक हुए ।३८। काष्ठासंघके संशयरूपी अन्धकारमें डुबे हुओंको आशा प्रदान करनेवाले श्रीमूल संघके उपदेशसे पितृलोकके वनरूपी स्वर्गसे उत्पन्न कमल भट्टारक हुए ।२६।</p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>सं.</th> | |||
<th>नाम</th> | |||
<th>वि.सं.</th> | |||
<th>विशेषतचा</th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>१. आचार्य गुर्वावली- (प.पु.१२३/१६७); (ती.२/२७६)</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१</td> | |||
<td>इन्द्रसेन</td> | |||
<td>६२०-६६०</td> | |||
<td>सं. १ से ४ तक का काल रविषेणके आधारपर कल्पित किया गया है।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२</td> | |||
<td>दिवाकरसेन</td> | |||
<td>६४०-६८०</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३</td> | |||
<td>अर्हत्सेन</td> | |||
<td>६६०-७००</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४</td> | |||
<td>लक्ष्मणसेन</td> | |||
<td>६८०-७२०</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५</td> | |||
<td>रविषेण</td> | |||
<td>७००-७४०</td> | |||
<td>वि. ७३४ में पद्मचरित पूरा किया।</td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p> </p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>सं.</th> | |||
<th>नाम</th> | |||
<th>वि.श.</th> | |||
<th>विशेष</th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>१</td> | |||
<td>नेमिसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२</td> | |||
<td>छत्रसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३</td> | |||
<td>आर्यसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४</td> | |||
<td>लोहाचार्य</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५</td> | |||
<td>ब्रह्मसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६</td> | |||
<td>सुरसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७</td> | |||
<td>कमलभद्र</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८</td> | |||
<td>देवेन्द्रमुनि</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९</td> | |||
<td>कुमारसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०</td> | |||
<td>दुर्लभसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११</td> | |||
<td>श्रीषेण</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२</td> | |||
<td>लक्ष्मीसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३</td> | |||
<td>सोमसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४</td> | |||
<td>श्रुतवीर</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५</td> | |||
<td>धरसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६</td> | |||
<td>देवसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७</td> | |||
<td>सोमसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८</td> | |||
<td>गुणभद्व</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९</td> | |||
<td>वीरसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०</td> | |||
<td>माणिकसेन</td> | |||
<td>१७ का मध्य</td> | |||
<td>नीचेवालोंके आधार पर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td> </td> | |||
<td>*नमिषेण</td> | |||
<td>१७ का मध्य</td> | |||
<td>शक १५१५ के प्रतिमालेखमें माणिकसेन के शिष्य रूपसे नामोल्लेख (जै.४/५९)</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१</td> | |||
<td>गुणसेन</td> | |||
<td>१७ का मध्य</td> | |||
<td>दे. नीचे गुणभद्र (सं.२३)।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२</td> | |||
<td>लक्ष्मीसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td> </td> | |||
<td>*सोमसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>पूर्वोक्त हेतुसे पट्टपरम्परासे बाहर हैं। </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td> </td> | |||
<td>*माणिक्यसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>केवल प्रशस्ति के अर्थ स्मरण किये गये प्रतीत होते हैं।</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३</td> | |||
<td>गुणभद्र</td> | |||
<td>१७ का मध्य</td> | |||
<td>सोमसेन तथा नेमिषेणके आधारपर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४</td> | |||
<td>सोमसेन</td> | |||
<td>१७ का उत्तर पाद</td> | |||
<td>वि. १६५६, १६६६, १६६७ में रामपुराण आदिकी रचना</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५</td> | |||
<td>जिनसेन</td> | |||
<td>श. १८</td> | |||
<td>शक १५७७ तथा वि. १७८० में मूर्ति स्थापना</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६</td> | |||
<td>समन्तभद्र</td> | |||
<td>श. १८</td> | |||
<td>ऊपर नीचेवालोंके आधारपर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७</td> | |||
<td>छत्रसेन</td> | |||
<td>१८ का मध्य</td> | |||
<td>श्ल. ५० में इन्हें सेनगणके अग्रगण्य कहा गया है। वि. १७५४ में मूर्ति स्थापना</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td> </td> | |||
<td>*नरेन्द्रसेन</td> | |||
<td>१८ का अन्त</td> | |||
<td>शक १६५२ में प्रतिमा स्थापन</td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">नोट - सं. १६ तकके सर्व नाम केवल प्रशस्तिके लिये दिये गये प्रतीत होते हैं। इनमें कोई पौर्वापर्य है या नहीं यह बात सन्दिग्ध है, क्योंकि इनसे आगे वाले नामोंमें जिस प्रकार अपने अपनेसे पूर्ववर्तीके पट्टपर आसीन होने का उल्लेख है उस प्रकार इनमें नहीं है।</p> | |||
<h4 id="7.7" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>7.7 पंचस्तूपसंघ</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">यह संघ हमारे प्रसिद्ध धवलाकार श्री वीरसेन स्वामीका था। इसकी यथालब्ध गुर्वावली निम्न प्रकार है- (मु.पु./प्र.३१/पं. पन्नालाल)</p> | |||
[[File: Itihaas_6.PNG ]] | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">नोट - उपरोक्त आचार्योंमें केवल वीरसेन, गुणभद्र और कुमारसेनके काल निर्धारित हैं। शेषके समयोंका उनके आधारपर अनुमान किया गया है। गलती हो तो विद्वद्जन सुधार लें।</p> | |||
<h4 id="7.8" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>7.8 पुन्नाटसंघ</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">ह.पु.६६/२५-३२ के अनुसार यह संघ साक्षात् अर्हद्बलि आचार्य द्वारा स्थापित किया गया प्रतीत होता है, क्योंकि गुर्वावलिमें इसका सम्बन्ध लोहाचार्य व अर्हद्बलिसे मिलाया गया है। लोहाचार्य व अर्हद्बलिके समयका निर्णय मूलसंघमें हो चुका है। उसके आधार पर इनके निकटवर्ती ६ आचार्योंके समयका अनुमान किया गया है। इसी प्रकार अन्तमें जयसेन व जयसेनाचार्यका समय निर्धारित है, उनके आधार पर उनके निकटवर्ती ४ आचार्योंके समयोंका भी अनुमान किया गया है। गलती हो तो विद्वद्जन सुधार लें। (ह.पु.६०/२५-६२), (म.पु./प्र.४८ पं. पन्नालाल) (ती.२/४५१)</p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>नं.</th> | |||
<th>नाम</th> | |||
<th>वी. नि.</th> | |||
<th>ई.सं.</th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>१</td> | |||
<td>लोहाचार्य २</td> | |||
<td>५१५-५६५</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२</td> | |||
<td>विनयंधर</td> | |||
<td>५३०</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३</td> | |||
<td>गुप्तिश्रुति</td> | |||
<td>५४०</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४</td> | |||
<td>गुप्तऋद्धि</td> | |||
<td>५५०</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५</td> | |||
<td>शिवगुप्त</td> | |||
<td>५६०</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६</td> | |||
<td>अर्बद्बलि</td> | |||
<td>५६५-५९३</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७</td> | |||
<td>मन्दरार्य</td> | |||
<td>५८०</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८</td> | |||
<td>मित्रवीर</td> | |||
<td>५९०</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९</td> | |||
<td>बलदेव</td> | |||
<td>इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०</td> | |||
<td>मित्रक</td> | |||
<td>इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११</td> | |||
<td>सिंहबल</td> | |||
<td>इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२</td> | |||
<td>वीरवित</td> | |||
<td>इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३</td> | |||
<td>पद्मसेन</td> | |||
<td>इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४</td> | |||
<td>व्याघ्रहस्त</td> | |||
<td>इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५</td> | |||
<td>नागहस्ती</td> | |||
<td>इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६</td> | |||
<td>जितदन्ड</td> | |||
<td>इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७</td> | |||
<td>नन्दिषेण</td> | |||
<td>इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८</td> | |||
<td>दीपसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९</td> | |||
<td>धरसेन नं.२</td> | |||
<td>ई. श. ५</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०</td> | |||
<td>सुधर्मसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१</td> | |||
<td>सिंहसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२</td> | |||
<td>सुनन्दिसेन १</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३</td> | |||
<td>ईश्वरसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४</td> | |||
<td>सुनन्दिषेण २</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५</td> | |||
<td>अभयसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६</td> | |||
<td>सिद्धसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७</td> | |||
<td>अभयसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८</td> | |||
<td>भीभसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९</td> | |||
<td>जिनसेन १</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>ई. श. ७ अन्त</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०</td> | |||
<td>शान्तिसेन</td> | |||
<td>वि. श. ७-८</td> | |||
<td>ई. श. ८ पूर्व</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१</td> | |||
<td>जयसेन २</td> | |||
<td>७८०-८३०</td> | |||
<td>७२३-७७३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२</td> | |||
<td>अमितसेन</td> | |||
<td>८००-८५०</td> | |||
<td>७४३-७९३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३</td> | |||
<td>कीर्तिषेण</td> | |||
<td>८२०-८७०</td> | |||
<td>७६१-८१३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४</td> | |||
<td>$जिनसेन २</td> | |||
<td>८३५-८८५</td> | |||
<td>७७८-८२८</td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">$श.सं.७०५ में हरिवंश पुराणकी रचना ह.पु.६६/५२</p> | |||
<p id="7.9" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>7.9 काष्ठासंघकी पट्टावली </strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">गौतमसे लोहाचार्य तकके नामोंका उल्लेख करके पट्टालीकारने इस संघका साक्षात् सम्बन्ध मूलसंघके साथ स्थापित किया है, परन्तु आचार्योंका काल निर्देश नहीं किया है। कुमारसेन प्र. तथा द्वि. का काल पहले निर्धारित किया जा चुका है (दे. शीर्षक ६/४)। उन्हींके आधार पर अन्य कुछ आचार्योंका काल यहाँ अनुमानसे लिखा गया है जिस असंदिग्ध नहीं कहा जा सकता। (ती.४/३६०-३६६ पर उद्धृत)-</p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>सं.</th> | |||
<th>नाम</th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>•</td> | |||
<td>गौतमसे लेकर लोहाचार्य द्वि. तकके सर्व नाम</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१</td> | |||
<td>जयसेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२</td> | |||
<td>वीरसेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३</td> | |||
<td>ब्रह्मसेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४</td> | |||
<td>रुद्रसेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५</td> | |||
<td>भद्रसेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६</td> | |||
<td>कीर्तिसेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७</td> | |||
<td>जयकीर्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८</td> | |||
<td>विश्वकीर्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९</td> | |||
<td>अभयसेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०</td> | |||
<td>भूतसेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११</td> | |||
<td>भावकीर्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२</td> | |||
<td>विश्वचन्द्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३</td> | |||
<td>अभयचन्द्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४</td> | |||
<td>माघचन्द्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५</td> | |||
<td>नेमिचन्द्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६</td> | |||
<td>विनयचन्द्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७</td> | |||
<td>बालचन्द्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८</td> | |||
<td>त्रिभुवनचन्द्र १</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९</td> | |||
<td>रामचन्द्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०</td> | |||
<td>विजयचन्द्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१</td> | |||
<td>यशःकीर्ति १</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२</td> | |||
<td>अभयकीर्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३</td> | |||
<td>महासेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४</td> | |||
<td>कुन्दकीर्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५</td> | |||
<td>त्रिभुवचन्द्र २</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६</td> | |||
<td>रामसेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७</td> | |||
<td>हर्षसेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८</td> | |||
<td>गुणसेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९</td> | |||
<td>कुमारसेन १ (वि. ७५३)</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०</td> | |||
<td>प्रतापसेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१</td> | |||
<td>महावसेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२</td> | |||
<td>विजयसेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३</td> | |||
<td>नयसेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४</td> | |||
<td>श्रेयांससेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५</td> | |||
<td>अनन्तकीर्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६</td> | |||
<td>कमलकीर्ति १</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७</td> | |||
<td>क्षेमकीर्ति १</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८</td> | |||
<td>हेमकीर्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९</td> | |||
<td>कमलकीर्ति २</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०</td> | |||
<td>कुमारसेन २ (वि. ९५५)</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१</td> | |||
<td>हेमचन्द्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२</td> | |||
<td>पद्मनन्दि</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३</td> | |||
<td>यशकीर्ति २</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४</td> | |||
<td>क्षेमकीर्ति २</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५</td> | |||
<td>त्रिभुवकीर्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६</td> | |||
<td>सहस्रकीर्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७</td> | |||
<td>महीचन्द्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८</td> | |||
<td>देवेन्द्रकीर्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९</td> | |||
<td>जगतकीर्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०</td> | |||
<td>ललितकीर्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१</td> | |||
<td>राजेन्द्रकीर्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२</td> | |||
<td>शुभकीर्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३</td> | |||
<td>रामसेन (वि. १४३१)</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४</td> | |||
<td>रत्नकीर्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५</td> | |||
<td>लक्षमणसेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६</td> | |||
<td>भीमसेन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७</td> | |||
<td>सोमकीर्ति</td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">प्रद्युम्न चारित्रको अन्तिम प्रशस्ति के आधारपर प्रेमीजी कुमारसेन २ को इस संघका संस्थापक मानते हैं, और इनका सम्बन्ध पंचस्तूप संघ के साथ घटित करके इन्हें वि. ९५५ में स्थापित करते हैं। साथ ही `रामसेन' जिनका नाम ऊपर ५३ वें नम्बर पर आया है उन्हें वि. १४३१ में स्थापित करके माथुर संघका संस्थापक सिद्ध करनेका प्रयत्न करते हैं (परन्तु इसका निराकरण शीर्षक ६/४ में किया जा चुका है)। तथापि उनके द्वारा निर्धारित इन दोनों आचार्योंके काल को प्रमाण मानकर अन्य आचार्योंके कालका अनुमान करते हुए प्रद्युम्न चारित्रकी उक्त प्रशस्तिमें निर्दिष्ट गुर्वावली नीचे दी जाती है।<br />(प्रद्युम्न चारित्रकी अन्तिम प्रशस्ति); (प्रद्युम्न चारित्रकी प्रस्तावना/प्रेमीजी); (द.सा./प्र.३९/प्रेमीजी); (ला.स.१/६४-७०)।</p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>सं. </th> | |||
<th>नाम</th> | |||
<th>वि.सं.</th> | |||
<th>ई. सन्</th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>४०</td> | |||
<td>कुमारसेन २</td> | |||
<td>९५५</td> | |||
<td>८९८</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१</td> | |||
<td>हेमचन्द्र १</td> | |||
<td>९८०</td> | |||
<td>९२३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२</td> | |||
<td>पद्मनन्दि २</td> | |||
<td>१००५</td> | |||
<td>९४८</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३</td> | |||
<td>यशःकीर्ति २</td> | |||
<td>१०३०</td> | |||
<td>९७३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४</td> | |||
<td>क्षेमकीर्ति १</td> | |||
<td>१०५५</td> | |||
<td>९९८</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३</td> | |||
<td>रामसेन</td> | |||
<td>१४३१</td> | |||
<td>१३७४</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४</td> | |||
<td>रत्नकीर्ति</td> | |||
<td>१४५६</td> | |||
<td>१३९९</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५</td> | |||
<td>लक्ष्मणसेन</td> | |||
<td>१४८१</td> | |||
<td>१४२४</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६</td> | |||
<td>भीमसेन</td> | |||
<td>१५०६</td> | |||
<td>१४४९</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७</td> | |||
<td>सोमकीर्ति</td> | |||
<td>१५३१</td> | |||
<td>१४९४</td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">नोट - प्रशस्तिमें ४५ से ५२ तकके ८ नाम छोड़कर सं. ५३ पर कथित रामसेनसे पुनः प्रारम्भ करके सोमकीर्ति तकके पाँचों नाम दे दिये गये हैं।</p> | |||
<h4 id="7.10" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>7.10 लाड़बागड़ गच्छ की गुर्वावली </strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">यह काष्ठा संघका ही एक अवान्तर गच्छ है। इसकी एक छोटी सी गुर्वावली उपलब्ध है जो नीचे दी जाती है। इसमें केवल आ. नरेन्द्र सेनका काल निर्धारित है। अन्यका उल्लेख यहाँ उसीके आधार पर अनुमान करके लिख दिया गया है। (आ. जयसेन कृत धर्म रत्नाकर रत्नक्रण्ड श्रावकाचारकी अन्तिम प्रशस्ति); (सिद्धान्तसार संग्रह १२/८८-९५ प्रशस्ति); (सिद्धान्तसार संग्रह प्र.८/A.N. Up)।</p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th></th> | |||
<th> </th> | |||
<th>वि. सं. ई. सन्</th> | |||
<th> </th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>१</td> | |||
<td>धर्मसेन</td> | |||
<td>९५५</td> | |||
<td>८९८</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२</td> | |||
<td>शान्तिसेन</td> | |||
<td>९८०</td> | |||
<td>९२३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३</td> | |||
<td>गोपसेन</td> | |||
<td>१००५</td> | |||
<td>९४८</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४</td> | |||
<td>भावसेन</td> | |||
<td>१०३०</td> | |||
<td>९७३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५</td> | |||
<td>जयसेन ४</td> | |||
<td>१०५५</td> | |||
<td>९९८</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६</td> | |||
<td>ब्रह्मसेन</td> | |||
<td>१०८०</td> | |||
<td>१०१३</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७</td> | |||
<td>वीरसेन ३</td> | |||
<td>११०५</td> | |||
<td>१०४८</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८</td> | |||
<td>गुणसेन १</td> | |||
<td>११३१</td> | |||
<td>१०७३</td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
[[File: Itihaas_7.PNG ]] | |||
<h4 id="7.11" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>7.11 माथुर गच्छ या संघकी गुर्वावली </strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">(सुभाषित रत्नसन्दोह तथा अमितगति श्रावकाचारकी अन्तिम प्रशस्ति); (द.सा./प्र.४०/प्रेमीजी)।</p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>सं.</th> | |||
<th>नाम</th> | |||
<th>वि.सं.</th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>१</td> | |||
<td>रामसेन१</td> | |||
<td>८८०-९२०</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२</td> | |||
<td>वीरसेन१ २</td> | |||
<td>९४०-९८०</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३</td> | |||
<td>देवसेन २</td> | |||
<td>९६०-१०००</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४</td> | |||
<td>अमितगति १</td> | |||
<td>९८०-१०२०</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५</td> | |||
<td>नेमिषेण</td> | |||
<td>१०००-१०४०</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६</td> | |||
<td>माधवसेन</td> | |||
<td>१०२०-१०६०</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७</td> | |||
<td>अमितगति २</td> | |||
<td>१०४०-१०८०*</td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">१ = प्रेमीजी के अनुसार इन दोनोंके मध्य तीन पीढ़ियोंका अन्तर है।१ = प्रेमीजी के अनुसार इन दोनोंके मध्य तीन पीढ़ियोंका अन्तर है।• = वि. १०५० में सुभाषित रत्नसन्दोह पूरा किया।</p> | |||
<p style="text-align: justify;"> </p> | |||
<h3 id="8" style="text-align: justify;"><strong>8. आचार्य समयानुक्रमणिका </strong></h3> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">नोट - प्रमाणके लिए दे, वह वह नाम</p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>क्रमांक</th> | |||
<th>समय (ई.पू.)</th> | |||
<th>नाम</th> | |||
<th>गुरु</th> | |||
<th>विशेष</th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>१. ईसवी पूर्व :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१</td> | |||
<td>१५००</td> | |||
<td>अर्जुन अश्वमेघ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कवि</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२</td> | |||
<td>५२७-५१५</td> | |||
<td>गौतम (गणधर)</td> | |||
<td>भगवान् महावीर</td> | |||
<td>केवली</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३</td> | |||
<td>५१५-५०३</td> | |||
<td>सुधर्माचार्य (लोहार्य १)</td> | |||
<td>भगवान् महावीर</td> | |||
<td>केवली</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४</td> | |||
<td>५०३-४६५</td> | |||
<td>जम्बूस्वामी</td> | |||
<td>भगवान् महावीर</td> | |||
<td>केवली</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५</td> | |||
<td>४६५-४५१</td> | |||
<td>विष्णु</td> | |||
<td>जम्बूस्वामी</td> | |||
<td>द्वादशांग धारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६</td> | |||
<td>४५१-४३५</td> | |||
<td>नन्दिमित्र</td> | |||
<td>विष्णु</td> | |||
<td>द्वादशांग धारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७</td> | |||
<td>४३५-४१३</td> | |||
<td>अपराजित</td> | |||
<td>नन्दिमित्र</td> | |||
<td>द्वादशांग धारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८</td> | |||
<td>४१३-३९४</td> | |||
<td>गोवर्धन</td> | |||
<td>अपराजित</td> | |||
<td>द्वादशांग धारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९</td> | |||
<td>३९४-३६५</td> | |||
<td>भद्रबाहु १</td> | |||
<td>गोवर्धन</td> | |||
<td>द्वादशांग धारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०</td> | |||
<td>३९४-३६०</td> | |||
<td>स्थूलभद्र स्थूलाचार्यरामल्य</td> | |||
<td>भद्रबाहु १</td> | |||
<td>श्वेताम्बर संघ प्रवर्तक</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११</td> | |||
<td>३६५-३५५</td> | |||
<td>विशाखाचार्य</td> | |||
<td>भद्रबाहु १</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२</td> | |||
<td>३५५-३३६</td> | |||
<td>प्रोष्ठिल</td> | |||
<td>विशाखाच्रय</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३</td> | |||
<td>३३६-३१९</td> | |||
<td>क्षत्रिय</td> | |||
<td>प्रोष्ठिल</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४</td> | |||
<td>३१९-२९८</td> | |||
<td>जयसेन १</td> | |||
<td>क्षत्रिय</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५</td> | |||
<td>२९८-२८०</td> | |||
<td>नागसेन</td> | |||
<td>जयसेन १</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६</td> | |||
<td>२८०-२६३</td> | |||
<td>सिद्धार्थ</td> | |||
<td>नागसेन</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७</td> | |||
<td>२६३-२४५</td> | |||
<td>धृतिषेण</td> | |||
<td>सिद्धार्थ</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८</td> | |||
<td>२४५-२३२</td> | |||
<td>विजय</td> | |||
<td>धृतिषेण</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९</td> | |||
<td>२३२-२१२</td> | |||
<td>बुद्धिलिंग</td> | |||
<td>विजय</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०</td> | |||
<td>२१२-१९८</td> | |||
<td>गंगदेव</td> | |||
<td>बुद्धिलिंग</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१</td> | |||
<td>१९८-१८२</td> | |||
<td>धर्मसेन १</td> | |||
<td>गंगदेव</td> | |||
<td>११ अंग १० पूर्वधर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२</td> | |||
<td>१८२-१६४</td> | |||
<td>नक्षत्र</td> | |||
<td>धर्मसेन</td> | |||
<td>११ अंगधारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३</td> | |||
<td>१६४-१४४</td> | |||
<td>जयपाल</td> | |||
<td>नक्षत्र</td> | |||
<td>११ अंगधारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४</td> | |||
<td>१४४-१०५</td> | |||
<td>पाण्डु</td> | |||
<td>जयपाल</td> | |||
<td>११ अंगधारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५</td> | |||
<td>१०५-९१</td> | |||
<td>ध्रुवसेन</td> | |||
<td>पाण्डु</td> | |||
<td>११ अंगधारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६</td> | |||
<td>९१-५९</td> | |||
<td>कंस</td> | |||
<td>ध्रुवसेन</td> | |||
<td>११ अंगधारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७</td> | |||
<td>५९-५३</td> | |||
<td>सुभद्राचार्य</td> | |||
<td>कंस</td> | |||
<td>१० अंगधारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८</td> | |||
<td>५३-३५</td> | |||
<td>यशोभद्र १</td> | |||
<td>सुभद्राचार्य</td> | |||
<td>९ अंगधारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९</td> | |||
<td>३५-१२</td> | |||
<td>भद्रबाहु २</td> | |||
<td>यशोभद्र</td> | |||
<td>८ अंगधारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०</td> | |||
<td>ई.पू. १२</td> | |||
<td>लोहाचार्य २</td> | |||
<td>भद्रबाहु २</td> | |||
<td>८ अंगधारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>क्रमांक</td> | |||
<td>समय ई. सन्</td> | |||
<td>नाम</td> | |||
<td>गुरु या विशेषता</td> | |||
<td>प्रधानकृति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२. ईसवी शताब्दी १ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>गणधर</td> | |||
<td>लोहाचार्य</td> | |||
<td>कषायपाहुड़</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>चन्द्रनन्दि १</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>बलदेव १</td> | |||
<td>चन्द्रनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>जिननन्दि</td> | |||
<td>बलदेव १</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>आर्य सर्व गुप्त</td> | |||
<td>जिननन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>मित्रनन्दि</td> | |||
<td>सर्वगुप्त</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>शिवकोटि</td> | |||
<td>मित्रनन्दि</td> | |||
<td>भगवती आरा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८</td> | |||
<td>३०-Mar</td> | |||
<td>विनयधर</td> | |||
<td>पुन्नाट संघी</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९</td> | |||
<td>१५-४५</td> | |||
<td>गुप्ति श्रुति</td> | |||
<td>पुन्नाट विनयधर</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०</td> | |||
<td>२०-५०</td> | |||
<td>गुप्ति ऋद्धि</td> | |||
<td>पुन्नाट गुप्तिश्रुति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१</td> | |||
<td>३५-६०</td> | |||
<td>शिव गुप्त</td> | |||
<td>पुन्नाट गुप्ति ऋद्धि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>रत्न नन्दि</td> | |||
<td>शुभनंदिकेसधर्मा</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>शुभनन्दि</td> | |||
<td>बप्पदेवके गुरु</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>बप्पदेव</td> | |||
<td>शुभनन्दि</td> | |||
<td>व्याख्याप्रज्ञप्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>कुमार नन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सरस्वतीआन्दोशिल्पड्डिकारं</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>इलंगोवडिगल</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>शिवस्कन्द</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८</td> | |||
<td>३८-४८</td> | |||
<td>गुप्तिगुप्त</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९</td> | |||
<td>३८-६६</td> | |||
<td>(अर्हद्बलि)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अंगांशधारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०</td> | |||
<td>३८-५५</td> | |||
<td>अर्हदत्त</td> | |||
<td>लोहाचार्य</td> | |||
<td>अंगांशधारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१</td> | |||
<td>३८-५५</td> | |||
<td>शिवदत्त</td> | |||
<td>लोहाचार्य</td> | |||
<td>अंगांशधारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२</td> | |||
<td>३८-५५</td> | |||
<td>विनयदत्त</td> | |||
<td>लोहाचार्य</td> | |||
<td>अंगांशधारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३</td> | |||
<td>३८-५५</td> | |||
<td>श्रीदत्त</td> | |||
<td>लोहाचार्य</td> | |||
<td>अंगांशधारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४</td> | |||
<td>३८-६६</td> | |||
<td>अर्हद्बलि</td> | |||
<td>लोहाचार्य</td> | |||
<td>अंगांशधारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५</td> | |||
<td>३८-४८</td> | |||
<td>(गुप्तिगुप्त)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६</td> | |||
<td>४८-८७</td> | |||
<td>माघनन्दि</td> | |||
<td>अर्हद्बलि</td> | |||
<td>अंगांशधारी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७</td> | |||
<td>३८-१०६</td> | |||
<td>धरसेन १</td> | |||
<td>क्रमबाह्य</td> | |||
<td>षट्खण्डागम</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८</td> | |||
<td>६६-१०६</td> | |||
<td>पुष्पदन्त</td> | |||
<td>धरसेन</td> | |||
<td>षट्खण्डागम</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९</td> | |||
<td>६६-१५६</td> | |||
<td>भूतबली</td> | |||
<td>धरसेन</td> | |||
<td>षट्खण्डागम</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०</td> | |||
<td>५३-६३</td> | |||
<td>मन्दार्य (पुन्नाट संघी)</td> | |||
<td>अर्हद्बलि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१</td> | |||
<td>६३</td> | |||
<td>मित्रवीर</td> | |||
<td>मन्दार्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६२</td> | |||
<td>६३-१३३</td> | |||
<td>इन्द्रसेन</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६३</td> | |||
<td>८०-१५०</td> | |||
<td>दिवाकरसेन</td> | |||
<td>इन्द्रसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६४</td> | |||
<td>६८-८८</td> | |||
<td>यशोबाहु (भद्रबाहु द्वि.)</td> | |||
<td>यशोभद्रके शिष्य लोहाचार्य २ के गुरु</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६५</td> | |||
<td>७३-१२३</td> | |||
<td>आर्यमंक्षु</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कषायपाहुड़</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६६</td> | |||
<td>९०-९३</td> | |||
<td>वज्रयश (श्वेताम्बर)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६७</td> | |||
<td>९३-१६२</td> | |||
<td>नागहस्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कषायपाहुड़</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६८</td> | |||
<td>१४३-१७३</td> | |||
<td>यतिवृषभ</td> | |||
<td>नागहस्ति</td> | |||
<td>कषायपाहुड़</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३. ईसवी शताब्दी २ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६९</td> | |||
<td>८७-१२७</td> | |||
<td>जिनचन्द्र</td> | |||
<td>कुन्दकुन्दके गुरु</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७०</td> | |||
<td>१२७-१७९</td> | |||
<td>कुन्दकुन्द (पद्मनन्दि)</td> | |||
<td>जिनचन्द्र</td> | |||
<td>समयसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७१</td> | |||
<td>१२७-१७९</td> | |||
<td>वट्टकेर</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>मूलाचार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७२</td> | |||
<td>१७९-२४३</td> | |||
<td>उमास्वामी (गृद्धपिच्छ)</td> | |||
<td>कुन्दकुन्द</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७३</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>देवऋद्धिगणी</td> | |||
<td>श्वे. के. अनुसार </td> | |||
<td>श्वे. आगम</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७४</td> | |||
<td>१२०-१८५</td> | |||
<td>समन्तभद्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>आप्तमीमांसा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७५</td> | |||
<td>१२३-१६३</td> | |||
<td>अर्हत्सेन</td> | |||
<td>दिवाकरसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७६</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>सिंहनन्दि १ (योगीन्द्र)</td> | |||
<td>भानुनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७७</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>कुमार स्वामी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कार्तिकेयानुप्रेक्षा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४. ईसवी शताब्दी ३ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७८</td> | |||
<td>२२०-२३१</td> | |||
<td>बलाक पिच्छ</td> | |||
<td>गृद्धपिच्छ</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७९</td> | |||
<td>२२०-२३१</td> | |||
<td>लोहाचार्य ३</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८०</td> | |||
<td>२३१-२८९</td> | |||
<td>यशःकीर्ति</td> | |||
<td>लोहाचार्य ३</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८१</td> | |||
<td>२८९-३३६</td> | |||
<td>यशोनन्दि</td> | |||
<td>यशःकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८२</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>शामकुण्ड</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पद्धति टीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५. ईसवी शताब्दी ४ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८३</td> | |||
<td>पूर्व पाद</td> | |||
<td>विमलसूरि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पउमचरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८४</td> | |||
<td>३३६-३८६</td> | |||
<td>देवनन्दि</td> | |||
<td>यशोनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८५</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>श्री दत्त</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>जल्प निर्णय</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८६</td> | |||
<td>३५७</td> | |||
<td>मल्लवादी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>द्वादशारनयचक्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८७</td> | |||
<td>३८६-४३६</td> | |||
<td>जयनन्दि</td> | |||
<td>देवनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६. ईसवी शताब्दी ५ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८८</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>धरसेन २</td> | |||
<td>दीपसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८९</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>पूज्यपाददेवनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सर्वार्थसिद्धि</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९०</td> | |||
<td>४३६-४४२</td> | |||
<td>गुणनन्दि</td> | |||
<td>जयनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९१</td> | |||
<td>४३७</td> | |||
<td>अपराजित</td> | |||
<td>सुमति आचार्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९२</td> | |||
<td>४४२-४६४</td> | |||
<td>वज्रनन्दि </td> | |||
<td>गुणनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९३</td> | |||
<td>४४३</td> | |||
<td>शिवशर्म सूरि (श्वेताम्बर)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्म प्रकृति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९४</td> | |||
<td>४५३</td> | |||
<td>देवार्द्धिगणी</td> | |||
<td>दि.के. अनुसार</td> | |||
<td>श्वे. आगम</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९५</td> | |||
<td>४५८</td> | |||
<td>सर्वनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सं. लोक विभाग</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९६</td> | |||
<td>४६४-५१५</td> | |||
<td>कुमारनन्दि</td> | |||
<td>वज्रनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९७</td> | |||
<td>४८०-५२८</td> | |||
<td>हरिभद्र सूरि</td> | |||
<td>(श्वेताम्बर)</td> | |||
<td>षट्दर्शन समु.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७. ईसवी शताब्दी ६ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९८</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>वज्रनन्दि</td> | |||
<td>पूज्यपाद</td> | |||
<td>प्रमाण ग्रन्थ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९९</td> | |||
<td>५०५-५३१</td> | |||
<td>लोकचन्द्र</td> | |||
<td>कुमारनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१००</td> | |||
<td>५३१-५५६</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र १</td> | |||
<td>लोकचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०१</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>योगेन्दु</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>परमात्मप्रकाश</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०२</td> | |||
<td>५६-५६५</td> | |||
<td>नेमिचन्द्र १</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०३</td> | |||
<td>५६५-५८६</td> | |||
<td>भानुनन्दि</td> | |||
<td>नेमि चन्द्र १</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०४</td> | |||
<td>५६८</td> | |||
<td>सिद्धसेन दिवा. (दिगम्बर)</td> | |||
<td>सन्मतितर्क</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०५</td> | |||
<td>५८३-६२३</td> | |||
<td>दिवाकरसेन</td> | |||
<td>इन्द्रसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०६</td> | |||
<td>५८६-६१३</td> | |||
<td>सिंहनन्दि २</td> | |||
<td>भानुनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०७</td> | |||
<td>५९३</td> | |||
<td>जिनभद्रगणी (श्वेताम्बराचार्य)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>विशेषावश्यक भाष्य</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०८</td> | |||
<td>ई.श.७ से पूर्व</td> | |||
<td>तोलामुलितेवर</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>चूलामणि</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०९</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>सिंह सूरि (श्वे.)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>नयचक्र वृत्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११०</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>शान्तिषेण</td> | |||
<td>जिनसेन प्र.</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१११</td> | |||
<td>श. ६-७</td> | |||
<td>पात्रकेसरी</td> | |||
<td>समन्तभद्र</td> | |||
<td>पात्रकेसरी स्तोत्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११२</td> | |||
<td>श. ६-७</td> | |||
<td>ऋषि पुत्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>निमित्त शास्त्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८. ईसवी शताब्दी ७ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११३</td> | |||
<td>पूर्व पाद</td> | |||
<td>सिंहसूरि (श्वे.)</td> | |||
<td>सिद्धसेन गणी के दादा गुरु</td> | |||
<td>द्वादशार नयचक्र की वृत्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११४</td> | |||
<td>६०३-६१९</td> | |||
<td>वसुनन्दि १</td> | |||
<td>सिंहनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११५</td> | |||
<td>६०३-६४३</td> | |||
<td>अर्हत्सेन</td> | |||
<td>दिवाकरसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११६</td> | |||
<td>६०९-६३९</td> | |||
<td>वीरनन्दि १</td> | |||
<td>वसुनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११७</td> | |||
<td>६१८</td> | |||
<td>मानतुङ्ग</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भक्तामर स्तोत्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११८</td> | |||
<td>६२०-६८०</td> | |||
<td>अकलङ्क भट्ट</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>राजवार्तिक</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११९</td> | |||
<td>६२३-६६३</td> | |||
<td>लक्ष्मणसेन</td> | |||
<td>अर्हत्सेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२०</td> | |||
<td>६२५</td> | |||
<td>कनकसेन</td> | |||
<td>बलदेवके गुरु</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२१</td> | |||
<td>६२५-६५०</td> | |||
<td>धर्मकीर्ति (बौद्ध)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२२</td> | |||
<td>६३९-६६३</td> | |||
<td>रत्ननंदि</td> | |||
<td>वीरनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२३</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>तिरुतक्कतेवर</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>जीवनचिन्तामणि</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२४</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र २</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>तत्त्वार्थसूत्र द्वि.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२५</td> | |||
<td>६५०</td> | |||
<td>बलदेव</td> | |||
<td>कनकसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२६</td> | |||
<td>६६३-६७९</td> | |||
<td>माणिक्यनन्दि १</td> | |||
<td>रत्ननन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२७</td> | |||
<td>६७५</td> | |||
<td>धर्मसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२८</td> | |||
<td>६७७</td> | |||
<td>रविषेण</td> | |||
<td>लक्ष्मणसेन</td> | |||
<td>पद्मपुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२९</td> | |||
<td>६७९-७०५</td> | |||
<td>मेघचन्द्र</td> | |||
<td>माणिक्यनन्दि १</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३०</td> | |||
<td>६९६</td> | |||
<td>कुमासेन</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र ४ के गुरु</td> | |||
<td>आत्ममीमांसा विवृत्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३१</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>सिद्धसेन गणी</td> | |||
<td>श्वेताम्बराचार्य</td> | |||
<td>न्यायावतार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३२</td> | |||
<td>७००</td> | |||
<td>बालचन्द्र</td> | |||
<td>धर्मसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३३</td> | |||
<td>ई. श. ७-८</td> | |||
<td>अर्चट (बौद्ध)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>हेतु बिन्दु टीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३४</td> | |||
<td>ई. श. ७-८</td> | |||
<td>सुमतिदेव</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सन्मतितर्कटीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३५</td> | |||
<td>ई. श. ७-८</td> | |||
<td>जटासिंह नन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>वराङ्गचरित</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३६</td> | |||
<td>ई. श. ७-८</td> | |||
<td>चतुर्मुखदेव</td> | |||
<td>अपभ्रंशकवि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८. ईसवी शताब्दी ८ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३७</td> | |||
<td>७०५-७२१</td> | |||
<td>शान्तिकीर्ति </td> | |||
<td>मेधचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३८</td> | |||
<td>७१६</td> | |||
<td>चन्द्रनन्दि २</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३९</td> | |||
<td>७२०-७५८</td> | |||
<td>मेरुकीर्ति</td> | |||
<td>शान्तिकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४०</td> | |||
<td>७२०-७८०</td> | |||
<td>पुष्पसेन</td> | |||
<td>अकलङ्कके सधर्मा</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४१</td> | |||
<td>७२३-७७३</td> | |||
<td>जयसेन २</td> | |||
<td>शान्तिसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४२</td> | |||
<td>७२५-८२५</td> | |||
<td>जयराशि (अजैन नैयायिक)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>तत्त्वोपप्लवसिंह</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४३</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>बुद्ध स्वामी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>बृ. कथा श्लोक संग्रह</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४४</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>हरिभद्र २ (याकिनीसूनु)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>तत्त्वार्थाधिगम भाष्य की टीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४५</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>श्रीदत्त द्वि.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>जल्प निर्णय</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४६</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>काणभिक्षु</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>चरित्रग्रंथ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४७</td> | |||
<td>७३६</td> | |||
<td>अपराजित</td> | |||
<td>विजय</td> | |||
<td>विजयोदया (भग.आ.टीका)</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४८</td> | |||
<td>७३८-८४०</td> | |||
<td>स्वयम्भू</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पउमचरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४९</td> | |||
<td>७४२-७७३</td> | |||
<td>चन्द्रसेन</td> | |||
<td>पंचस्तूपसंघी</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५०</td> | |||
<td>७४३-७९३</td> | |||
<td>अमितसेन</td> | |||
<td>पुन्नाटसंघी</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५१</td> | |||
<td>७४८-८१८</td> | |||
<td>जिनसेन १</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>हरिवंश पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५२</td> | |||
<td>७५७-८१५</td> | |||
<td>चारित्रभूषण</td> | |||
<td>विद्यानन्दिके गुरु</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५३</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>अनन्तकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>प्रामाण्य भंग</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५४</td> | |||
<td>७६२</td> | |||
<td>आविद्धकरण (नैयायिक)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५५</td> | |||
<td>७६३-८१३</td> | |||
<td>कीर्तिषेण</td> | |||
<td>जयसेन २</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५६</td> | |||
<td>७६७-७९८</td> | |||
<td>आर्यनन्दि</td> | |||
<td>पंचस्तूपसंघी</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५७</td> | |||
<td>७७०-८२७</td> | |||
<td>जयसेन ३</td> | |||
<td>आर्यनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५८</td> | |||
<td>७७०-८६०</td> | |||
<td>वादीभसिंह </td> | |||
<td>पुष्पसेन</td> | |||
<td>क्षत्रचूड़ामणि</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५९</td> | |||
<td>७७५-८४०</td> | |||
<td>विद्यानन्दि १</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>आप्त परीक्षा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६०</td> | |||
<td>७८३</td> | |||
<td>उद्योतन सूरि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कुवलय माला</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६१</td> | |||
<td>७९७</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र ३</td> | |||
<td>तोरणाचार्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६२</td> | |||
<td>७७०</td> | |||
<td>एलाचार्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६३</td> | |||
<td>७७०-८२७</td> | |||
<td>वीरसेन स्वामी</td> | |||
<td>एलाचार्य</td> | |||
<td>धवला</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६४</td> | |||
<td>ई.श. ८-९</td> | |||
<td>धनञ्जय</td> | |||
<td>दशरथ</td> | |||
<td>विषापहार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६५</td> | |||
<td>ई.श. ८-९</td> | |||
<td>कुमारनन्दि</td> | |||
<td>चन्द्रनन्दि</td> | |||
<td>वादन्याय</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६६</td> | |||
<td>ई. श. ८-९</td> | |||
<td>महासेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सुलोचना कथा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६७</td> | |||
<td>ई. श. ८-९</td> | |||
<td>श्रीपाल</td> | |||
<td>वीरसेन स्वामी</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६८</td> | |||
<td>ई. श. ८-९</td> | |||
<td>श्रीधर १</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>गणितसार संग्रह</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०. ईसवी शताब्दी ९ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६९</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>परमेष्ठी</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>वागर्थ संग्रह</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७०</td> | |||
<td>८००-८३०</td> | |||
<td>महावीराचार्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>गणितसार संग्रह</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७१</td> | |||
<td>८१४</td> | |||
<td>शाकटायन-पाल्यकीर्ति</td> | |||
<td>यापनीयसंघी</td> | |||
<td>शाकटायन-शब्दानुशासन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७२</td> | |||
<td>८१४</td> | |||
<td>नृपतुंग</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>कविराज मार्ग</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७३</td> | |||
<td>८१८-८७८</td> | |||
<td>जिनसेन ३</td> | |||
<td>वीरसेन स्वामी</td> | |||
<td>आदिपुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७४</td> | |||
<td>८२०-८७०</td> | |||
<td>दशरथ</td> | |||
<td>वीरसेन स्वामी</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७५</td> | |||
<td>८२०-८७०</td> | |||
<td>पद्मसेन</td> | |||
<td>वीरसेन स्वामी</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७६</td> | |||
<td>८२०-८७०</td> | |||
<td>देवसेन १</td> | |||
<td>वीरसेन स्वामी</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७७</td> | |||
<td>८२८</td> | |||
<td>उग्रादित्य</td> | |||
<td>श्रीनन्दि</td> | |||
<td>कल्याणकारक</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७८</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>गर्गर्षि (श्वे.)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्मविपाक</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७९</td> | |||
<td>८४३-८७३</td> | |||
<td>गुणनन्दि</td> | |||
<td>बलाकपिच्छ</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८०</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>अनन्तकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८१</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>त्रिभुवन स्वयंभू</td> | |||
<td>कवि स्वयंभूका पुत्र</td> | |||
<td>बृहत्सर्वज्ञसिद्धि</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८२</td> | |||
<td>८५८-८९८</td> | |||
<td>देवेन्द्र सैद्धान्तिक </td> | |||
<td>गुणनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८३</td> | |||
<td>८८३-९२३</td> | |||
<td>वीरसेन २</td> | |||
<td>रामसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८४</td> | |||
<td>८९३-९२३</td> | |||
<td>कलधौतनन्दि</td> | |||
<td>देवेन्द्रसैद्धान्तिक</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८५</td> | |||
<td>८९३-९२३</td> | |||
<td>वसुनन्दि २</td> | |||
<td>देवेन्द्र सैद्धान्तिक</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८६</td> | |||
<td>८९८</td> | |||
<td>कुमारसेन</td> | |||
<td>काष्ठा संघ संस्थापक</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८७</td> | |||
<td>८९८</td> | |||
<td>धर्मसेन २</td> | |||
<td>लाड़बागड़गच्छ</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८८</td> | |||
<td>८९८</td> | |||
<td>गुणभद्र १</td> | |||
<td>जिनसेन ३</td> | |||
<td>उत्तरपुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८९</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>धनपाल</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भवियसत्त कहा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९०</td> | |||
<td>ई. श. ९-१०</td> | |||
<td>चन्द्रर्षि महत्तर</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पंचसंग्रह (श्वे.)</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११. ईसवी शताब्दी १० :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९१</td> | |||
<td>९००-९२०</td> | |||
<td>गोलाचार्य</td> | |||
<td>कलधौतनन्दि</td> | |||
<td>उत्तरपुराण (शेष)</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९२</td> | |||
<td>९०-९४०</td> | |||
<td>लोकसेन </td> | |||
<td>गुणभद्र १</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९३</td> | |||
<td>९०३-९४३</td> | |||
<td>देवसेन १</td> | |||
<td>वीरसेन २</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९४</td> | |||
<td>९०५</td> | |||
<td>सिद्धर्षि</td> | |||
<td>दुर्गा स्वामी</td> | |||
<td>उपमिति भवप्रपञ्च कथा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९५</td> | |||
<td>९०५-९५५</td> | |||
<td>अमृतचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>आत्मख्याति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९६</td> | |||
<td>९०९</td> | |||
<td>विमलदेव</td> | |||
<td>देवसेनके गुरु</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९७</td> | |||
<td>पूर्वार्ध</td> | |||
<td>कनकसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कोई काव्यग्रन्थ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९८</td> | |||
<td>९१८-९४३</td> | |||
<td>नेमिदेव</td> | |||
<td>वाद विजेता</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९९</td> | |||
<td>९१८-९४८</td> | |||
<td>सर्वचन्द्र</td> | |||
<td>वसुनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२००</td> | |||
<td>९२०-९३०</td> | |||
<td>त्रैकाल्ययोगी</td> | |||
<td>गोलाचार्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०१</td> | |||
<td>९२३</td> | |||
<td>शान्तिसेन</td> | |||
<td>धर्मसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०२</td> | |||
<td>९२३</td> | |||
<td>हेमचन्द्र</td> | |||
<td>कुमारसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०३</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>विजयसेन</td> | |||
<td>नागसेनके गुरु</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०४</td> | |||
<td>मध्य पाद (अभयदेव (श्वे.)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>वाद महार्णव</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०५</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>हरिचन्द</td> | |||
<td>एक कवि</td> | |||
<td>धर्मशर्माभ्युदय</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०६</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>माधवचन्द (त्रैविद्य)</td> | |||
<td>नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती</td> | |||
<td>त्रिलोकसार टीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०७</td> | |||
<td>९२३-९६३</td> | |||
<td>अमितगति १</td> | |||
<td>देवसेन सूरि</td> | |||
<td>योगसार प्राभृत</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०८</td> | |||
<td>९३०-९५०</td> | |||
<td>अभयनन्दि</td> | |||
<td>वीरनन्दिके गुरु</td> | |||
<td>जैनेन्द्रमहावृत्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०९</td> | |||
<td>९३०-१०२३</td> | |||
<td>पद्यनन्दि (आविद्धकरण)</td> | |||
<td>त्रैकाल्ययोगी</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१०</td> | |||
<td>९३१</td> | |||
<td>हरिषेण</td> | |||
<td>भरतसेन</td> | |||
<td>बृहत्कथाकोश</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२११</td> | |||
<td>९३३-९५५</td> | |||
<td>देवसेन २</td> | |||
<td>विमलदेव</td> | |||
<td>दर्शनसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१२</td> | |||
<td>९३५-९९९</td> | |||
<td>मेघचन्द्र त्रिविद्य</td> | |||
<td>त्रैकाल्ययोगी</td> | |||
<td>ज्वालामालिनी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१३</td> | |||
<td>९९७</td> | |||
<td>कुलभद्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सारसमुच्चय</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१४</td> | |||
<td>९३९</td> | |||
<td>इन्द्रनन्दि</td> | |||
<td>बप्पनन्दि</td> | |||
<td>श्रुतावतार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१५</td> | |||
<td>९३९</td> | |||
<td>कनकनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सत्त्वत्रिभंगी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१६</td> | |||
<td>९४०-१०००</td> | |||
<td>सिद्धान्तसेन</td> | |||
<td>गोणसेनके गुरु</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१७</td> | |||
<td>९४३-९६८</td> | |||
<td>सोमदेव १</td> | |||
<td>नेमिदेव</td> | |||
<td>नीतिवाक्यामृत</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१८</td> | |||
<td>९४३-९७३</td> | |||
<td>दामनन्दि</td> | |||
<td>सर्वचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१९</td> | |||
<td>९४३-९८३</td> | |||
<td>नेमिषेण</td> | |||
<td>अमितगति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२०</td> | |||
<td>९४</td> | |||
<td>गोपसेन</td> | |||
<td>शान्तिसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२१</td> | |||
<td>९४</td> | |||
<td>पद्यनन्दि</td> | |||
<td>हेमचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२२</td> | |||
<td>९०</td> | |||
<td>पोन्न</td> | |||
<td>(कन्नड़कवि)</td> | |||
<td>शान्तिपुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२३</td> | |||
<td>९६०-९९३</td> | |||
<td>रन्न</td> | |||
<td>(कन्नड़कवि)</td> | |||
<td>अजितनाथपुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२४</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>पुष्पदन्त</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>जसहर चरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२५</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>भट्टवोसरि</td> | |||
<td>दामननन्दि</td> | |||
<td>आय ज्ञान</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२६</td> | |||
<td>९५०-९९०</td> | |||
<td>रविभद्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>आराधनासार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>वीरनन्दि २</td> | |||
<td>अभयनन्दि</td> | |||
<td>आचारसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२७</td> | |||
<td>९५०-१०२०</td> | |||
<td>सकलचन्द्र</td> | |||
<td>अभयनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२८</td> | |||
<td>९५०-१०२०</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र ४</td> | |||
<td>पद्मनन्दि सै.</td> | |||
<td>प्रमेयकमल मा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२९</td> | |||
<td>९५३-९७३</td> | |||
<td>सिंहनन्दि ४</td> | |||
<td>अजितसेनके गुरु</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३०</td> | |||
<td>९६०-१०००</td> | |||
<td>गोणसेन पं.</td> | |||
<td>सिद्धान्तसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३१</td> | |||
<td>९६३-१००३</td> | |||
<td>अजितसेन</td> | |||
<td>सिंहनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३२</td> | |||
<td>९६३-१००७</td> | |||
<td>माधवसेन</td> | |||
<td>नेमिषेण</td> | |||
<td>करकंडु चरिऊ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३३</td> | |||
<td>६५-१०५१</td> | |||
<td>कनकामर</td> | |||
<td>बुधमंगलदेव</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३४</td> | |||
<td>९६८-९९८</td> | |||
<td>वीरनन्दि</td> | |||
<td>दामनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३५</td> | |||
<td>९७२</td> | |||
<td>यशोभद्र (श्वे.)</td> | |||
<td>साडेरक गच्छ</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३६</td> | |||
<td>९७३</td> | |||
<td>यशःकीर्ति २</td> | |||
<td>पद्मनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३७</td> | |||
<td>९७३</td> | |||
<td>भावसेन</td> | |||
<td>गोपसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३८</td> | |||
<td>९७४</td> | |||
<td>महासेन</td> | |||
<td>गुणकरसेन</td> | |||
<td>प्रद्युम्न चरित्र सिद्धि विनि. वृ.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३९</td> | |||
<td>९७५-१०२५</td> | |||
<td>अनन्तवीर्य १</td> | |||
<td>द्रविड़ संघी</td> | |||
<td>जम्बूदीव पण्णति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४०</td> | |||
<td>९७७-१०४३</td> | |||
<td>पद्मनन्दि ४</td> | |||
<td>बालनन्दि</td> | |||
<td>कुंदकुंदत्रयी टी.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४१</td> | |||
<td>९८०-१०६५</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र ५</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>चारित्रसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४२</td> | |||
<td>९७८</td> | |||
<td>चामुण्डराय</td> | |||
<td>अजितसेन</td> | |||
<td>गोमट्टसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४३</td> | |||
<td>९८१</td> | |||
<td>नेमिचन्द्र</td> | |||
<td>इन्द्रनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सिद्धान्तचक्रवर्ती</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४४</td> | |||
<td>९८३</td> | |||
<td>बालचन्द्र</td> | |||
<td>अनन्तवीर्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४५</td> | |||
<td>९८३-१०२३</td> | |||
<td>अमितगति २</td> | |||
<td>माधवसेन</td> | |||
<td>श्रावकाचार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४६</td> | |||
<td>९८७</td> | |||
<td>हरिषेण</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>धम्मपरिक्खा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४७</td> | |||
<td>९८८</td> | |||
<td>असग</td> | |||
<td>नागनन्दि</td> | |||
<td>वर्द्धमान चरित्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४८</td> | |||
<td>९९०</td> | |||
<td>नागवर्म १</td> | |||
<td>कन्नड़कवि</td> | |||
<td>छन्दोम्बुधि</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४९</td> | |||
<td>९९०-१०००</td> | |||
<td>गुणकीर्ति</td> | |||
<td>अनन्तवीर्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५०</td> | |||
<td>९९०-१०४०</td> | |||
<td>देवकीर्ति २</td> | |||
<td>अनन्तवीर्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५१</td> | |||
<td>९८४</td> | |||
<td>उदयनाचार्य</td> | |||
<td>(नैयायिक)</td> | |||
<td>किरणावली</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५२</td> | |||
<td>९९१</td> | |||
<td>श्रीधर २</td> | |||
<td>(नैयायिक)</td> | |||
<td>न्यायकन्दली</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५३</td> | |||
<td>लगभग ९९३</td> | |||
<td>देवदत्त रत्न</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>वरांग चरिउ अजित</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५४</td> | |||
<td>९९३-१०२३</td> | |||
<td>श्रीधर ३</td> | |||
<td>वीरनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५५</td> | |||
<td>९९३-१०५०</td> | |||
<td>नयनन्दि</td> | |||
<td>माणिक्यनन्दि</td> | |||
<td>सुंदसण चरिऊ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५६</td> | |||
<td>९९३-१११८</td> | |||
<td>शान्त्याचार्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>जैनतर्क वार्तिकवृत्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५७</td> | |||
<td>९९८</td> | |||
<td>क्षेमकीर्ति १</td> | |||
<td>यशःकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५८</td> | |||
<td>९९८</td> | |||
<td>जयसेन ४</td> | |||
<td>भावसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५९</td> | |||
<td>९९८-१०२३</td> | |||
<td>बालनन्दि</td> | |||
<td>वीरनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६०</td> | |||
<td>९९९-१०२३</td> | |||
<td>श्रीनन्दि</td> | |||
<td>सकलचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६१</td> | |||
<td>अन्तिमपाद</td> | |||
<td>ढड्ढा</td> | |||
<td>श्रीपालके पुत्र</td> | |||
<td>पंचसंग्रह अनुवाद</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६२</td> | |||
<td>१०००</td> | |||
<td>क्षेमन्धर</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>बृ. कथामञ्जरी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६३</td> | |||
<td>ई. श. १०-११</td> | |||
<td>इन्द्रनन्दि २</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>छेदपिण्ड</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२. ईसवी शताब्दी ११ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६४</td> | |||
<td>१००३-१०२८</td> | |||
<td>माणिक्यनन्दि</td> | |||
<td>रामनन्दि</td> | |||
<td>परीक्षामुख</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६५</td> | |||
<td>१००३-१०६८</td> | |||
<td>शुभचन्द्र </td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>ज्ञानार्णव</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६६</td> | |||
<td>पूर्वार्ध</td> | |||
<td>विजयनन्दि</td> | |||
<td>बालनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६७</td> | |||
<td>१०१०-१०६५</td> | |||
<td>वादिराज २</td> | |||
<td>मति सागर</td> | |||
<td>एकीभाव स्तोत्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६८</td> | |||
<td>१०१५-१०४५</td> | |||
<td>सिद्धान्तिक देव</td> | |||
<td>शुभचन्द्र २</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६९</td> | |||
<td>१०१९</td> | |||
<td>वीर कवि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>जंबूसामि चरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७०</td> | |||
<td>१०२०-१११०</td> | |||
<td>मेघचन्द्र त्रैविद्य</td> | |||
<td>सकलचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७१</td> | |||
<td>१०२३</td> | |||
<td>ब्रह्मसेन</td> | |||
<td>जयसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७२</td> | |||
<td>१०२३-१०६६</td> | |||
<td>उदयसेन</td> | |||
<td>गुणसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७३</td> | |||
<td>१०२३-१०७८</td> | |||
<td>कुल भूषण</td> | |||
<td>पद्मनन्दि आविद्ध</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७४</td> | |||
<td>१०२९</td> | |||
<td>पद्मसिंह</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>ज्ञानसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७५</td> | |||
<td>१०३०-१०८०</td> | |||
<td>श्रुतकीर्ति</td> | |||
<td>पद्मनन्दि आविद्ध</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७६</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>यशःकीर्ति</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>चंदप्पह चरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७७</td> | |||
<td>१०३१-१०७८</td> | |||
<td>अभयदेव (श्वे.)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>नवांग वृत्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७८</td> | |||
<td>१०३२</td> | |||
<td>दुर्गदेव</td> | |||
<td>संयमदेव</td> | |||
<td>रिष्ट समुच्चय</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७९</td> | |||
<td>१०४३-१०७३</td> | |||
<td>चन्द्कीर्ति</td> | |||
<td>मल्लधारी देव १</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८०</td> | |||
<td>१०४३</td> | |||
<td>नयनन्दि</td> | |||
<td>नेमिचन्द्र के गुरु</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८१</td> | |||
<td>१०४६</td> | |||
<td>कीर्ति वर्मा</td> | |||
<td>आयुर्वेद विद्वान</td> | |||
<td>जाततिलक</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८२</td> | |||
<td>१०४७</td> | |||
<td>महेन्द्र देव</td> | |||
<td>नागसेनके गुरु</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८३</td> | |||
<td>१०४७</td> | |||
<td>मलल्लिषेण</td> | |||
<td>जिनसेन</td> | |||
<td>महापुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८४</td> | |||
<td>१०४७</td> | |||
<td>नागसेन</td> | |||
<td>महेन्द्रदेव</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८५</td> | |||
<td>१०४८</td> | |||
<td>वीरसेन ३</td> | |||
<td>ब्रह्मसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८६</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>रामसेन</td> | |||
<td>नागसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८७</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>धवलाचार्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>हरिवंश</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८८</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>मलयगिरि (श्वे.)</td> | |||
<td>श्वे. टीकाकार</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८९</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>पद्मनन्दि ५</td> | |||
<td>वीरनन्दि</td> | |||
<td>पंचविंशतिका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९०</td> | |||
<td>१०६२-१०८१</td> | |||
<td>सोमदेव २</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कथा सरित सागर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९१</td> | |||
<td>१०६६</td> | |||
<td>श्रीचन्द</td> | |||
<td>वीरचन्द</td> | |||
<td>पुराणसार संग्रह</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९२</td> | |||
<td>१०६८</td> | |||
<td>नेमिचन्द ३ सैद्धान्तिक देव</td> | |||
<td>नयनन्दि</td> | |||
<td>द्रव्यसंग्रह</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९३</td> | |||
<td>१०६८-१०९८</td> | |||
<td>दिवाकरनन्दि</td> | |||
<td>चन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९४</td> | |||
<td>१०६८-१११८</td> | |||
<td>वसुनन्दि तृ.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>प्रतिष्ठापाठ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९५</td> | |||
<td>१०७२-१०९३</td> | |||
<td>नेमिचन्द (श्वे.)</td> | |||
<td>आम्रदेव</td> | |||
<td>प्रवचनसारोद्धार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९६</td> | |||
<td>१०७४</td> | |||
<td>गुणसेन १</td> | |||
<td>वीरसेन ३</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९७</td> | |||
<td>१०७५-१११०</td> | |||
<td>जिनवल्लभ गणी</td> | |||
<td>जिनेश्वर सूरि</td> | |||
<td>षडशीति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९८</td> | |||
<td>१०७५-११२५</td> | |||
<td>वाग्भट्ट १</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>नेमिनिर्वाणकाव्य</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९९</td> | |||
<td>१०७५-११३५</td> | |||
<td>देवसेन ३</td> | |||
<td>विमलसेन गणधर</td> | |||
<td>सुलोयणा चरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३००</td> | |||
<td>१०७७</td> | |||
<td>पद्मकीर्ति (भ.)</td> | |||
<td>जिनसेन</td> | |||
<td>पासणाह चरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०१</td> | |||
<td>१०७८-११७३</td> | |||
<td>हेमचन्द्र (श्वे.)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>शब्दानुशासन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०२</td> | |||
<td>१०८९</td> | |||
<td>श्रुतकीर्ति</td> | |||
<td>अग्गल के गुरु </td> | |||
<td>पंचवस्तु (टीका)</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०३</td> | |||
<td>१०८९</td> | |||
<td>अग्गल कवि</td> | |||
<td>श्रुतकीर्ति</td> | |||
<td>चन्द्रप्रभ चरित</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०४</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>वृत्ति विलास</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>धर्मपरीक्षा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०५</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>देवचन्द्र १</td> | |||
<td>वासवचन्द्र</td> | |||
<td>पासणाह चरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०६</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>ब्रह्मदेव</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>द्रव्य संग्रह टीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०७</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>नरेन्द्रसेन १</td> | |||
<td>गुणसेन</td> | |||
<td>सिद्धांतसार संग्रह</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०८</td> | |||
<td>१०९३-११२३</td> | |||
<td>शुभचन्द्र २</td> | |||
<td>दिवाकरनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०९</td> | |||
<td>१०९३-११२५</td> | |||
<td>बूचिराज</td> | |||
<td>शुभचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१०</td> | |||
<td>११००</td> | |||
<td>नागचन्द्र (पम्प)</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>मल्लिनाथ पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३११</td> | |||
<td>ई. श. ११-१२</td> | |||
<td>सुभद्राचार्य</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>वैराग्गसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१२</td> | |||
<td>ई.श. ११-१२</td> | |||
<td>जयसेन ५</td> | |||
<td>सोमसेन</td> | |||
<td>कुन्दकुन्दत्रयी टीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१३</td> | |||
<td>ई. श. ११-१२</td> | |||
<td>जिनचन्द्र ३</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सिद्धान्तसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१४</td> | |||
<td>ई. श. ११-१२</td> | |||
<td>वसुनन्दि ३</td> | |||
<td>नेमिचन्द्र</td> | |||
<td>श्रावकाचार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३. ईसवी शताब्दी १२ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१५</td> | |||
<td>पूर्व पाद</td> | |||
<td>बालचन्द्र २</td> | |||
<td>नयकीर्ति</td> | |||
<td>कुन्दकुन्दत्रयी टीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१६</td> | |||
<td>पूर्व पाद</td> | |||
<td>वक्रग्रीवाचार्य</td> | |||
<td>द्रविड़ संघी</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१७</td> | |||
<td>पूर्व पाद</td> | |||
<td>विमलकीर्ति</td> | |||
<td>रामकीर्ति</td> | |||
<td>सौखबड़ विहाण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१८</td> | |||
<td>११०२</td> | |||
<td>चन्द्रप्रभ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>प्रमेय रत्नकोश</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१९</td> | |||
<td>११०३</td> | |||
<td>वादीभसिंह</td> | |||
<td>वादिराज द्वि.</td> | |||
<td>स्याद्वाद्सिद्धि</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२०</td> | |||
<td>११०८-११३६</td> | |||
<td>माघनंदि (कोल्हा)</td> | |||
<td>कुलचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२१</td> | |||
<td>१११५</td> | |||
<td>हरिभद्र सूरि</td> | |||
<td>जिनदेव उपा.</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२२</td> | |||
<td>१११५-१२३१</td> | |||
<td>गोविन्दाचार्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्मस्तव वृत्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२३</td> | |||
<td>१११९</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र ६</td> | |||
<td>मेघचन्द्र त्रैविद्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२४</td> | |||
<td>११२०-११४७</td> | |||
<td>शुभचन्द्र ३</td> | |||
<td>मेघचन्द्र त्रैविद्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२५</td> | |||
<td>११२०</td> | |||
<td>राजादित्य</td> | |||
<td>कन्नड़ गणितज्ञ</td> | |||
<td>व्यवहार गणित</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२६</td> | |||
<td>११२३</td> | |||
<td>जयसेन ६</td> | |||
<td>नरेन्द्रसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२७</td> | |||
<td>११२३</td> | |||
<td>गुणसेन २</td> | |||
<td>नरेन्द्रसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२८</td> | |||
<td>११२५</td> | |||
<td>नयसेन</td> | |||
<td>नरेन्द्रसेन</td> | |||
<td>धर्मामृत</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२९</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>योगचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>दोहासार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३०</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>अनन्तवीर्य लघु</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>प्रमेयरत्नमाला</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३१</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>वीरनन्दि ४</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>आचारसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३२</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>श्रीधर ४</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पासगाह चरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३३</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>पद्मप्रभ मल्लधारी देव</td> | |||
<td>वीरनान्द तथा श्रीधर १</td> | |||
<td>नियमसार टीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३४</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>सिंह</td> | |||
<td>भ.अमृतचन्द्र</td> | |||
<td>प्रद्युम्नचरित</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३५</td> | |||
<td>११२८</td> | |||
<td>मल्लिषेण (मल्लधारी देव)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सज्जनचित्त</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३६</td> | |||
<td>११३२</td> | |||
<td>गुणधरकीर्ति</td> | |||
<td>कुवलयचन्द्र</td> | |||
<td>अध्यात्म त. टीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३७</td> | |||
<td>११३३-११६३</td> | |||
<td>देवचन्द्र</td> | |||
<td>माघनंदि (कोल्हा)</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३८</td> | |||
<td>११३३-११६३</td> | |||
<td>कनक नन्दि</td> | |||
<td>माघनंदि (कोल्हा)</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३९</td> | |||
<td>११३३-११६३</td> | |||
<td>गण्ड विमुक्त देव १</td> | |||
<td>माघनंदि (कोल्हा)</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४०</td> | |||
<td>११३३-११६३</td> | |||
<td>देवकीर्ति ३</td> | |||
<td>माघनंदि (कोल्हा)</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४१</td> | |||
<td>११३३-११६३</td> | |||
<td>माघनंदि त्रैविद्य ३ </td> | |||
<td>माघनंदि (कोल्हा)</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४२</td> | |||
<td>११३३-११६३</td> | |||
<td>श्रुतकीर्ति</td> | |||
<td>माघनंदि (कोल्हा)</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४३</td> | |||
<td>११४०</td> | |||
<td>कर्ण पार्य</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>नेमिनाथ पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४४</td> | |||
<td>११४२-११७३</td> | |||
<td>परमानन्द सूरि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४५</td> | |||
<td>११४३</td> | |||
<td>श्रीधर (विबुध) ५</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>भविसयत्त चरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४६</td> | |||
<td>११४५</td> | |||
<td>नागवर्म २</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>काव्यालोचन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४७</td> | |||
<td>११५०</td> | |||
<td>उदयादित्य</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>उदयदित्यालंकार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४८</td> | |||
<td>११५०</td> | |||
<td>सोमनाथ</td> | |||
<td>वैद्यक विद्वान्</td> | |||
<td>कल्याण कारक</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४९</td> | |||
<td>११५०</td> | |||
<td>केशवराज</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>शब्दमणिदर्पण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५०</td> | |||
<td>११५०-११९६</td> | |||
<td>उदयचन्द्र</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>सुअंधदहमीकहा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५१</td> | |||
<td>११५०-११९६</td> | |||
<td>बालचन्द्र</td> | |||
<td>उदय चन्द्र</td> | |||
<td>णिद्दुक्खसत्तमी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५२</td> | |||
<td>११५१</td> | |||
<td>श्रीधर ६</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>सुकुमाल चरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५३</td> | |||
<td>उतरार्ध</td> | |||
<td>विनयचन्द</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>कल्याणक रास</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५४</td> | |||
<td>११५५-११६३</td> | |||
<td>देवकीर्ति ४</td> | |||
<td>गण्डविमुक्तदेव १</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५५</td> | |||
<td>११५८-११८२</td> | |||
<td>गण्डविमुक्त देव २</td> | |||
<td>गण्डविमुक्त देव १</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५६</td> | |||
<td>११५८-११८२</td> | |||
<td>अकलंक २</td> | |||
<td>गण्डविमुक्तदेव १</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५७</td> | |||
<td>११५८-११८२</td> | |||
<td>भानुकीर्ति</td> | |||
<td>गण्डविमुक्तदेव १</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५८</td> | |||
<td>११५८-११८२</td> | |||
<td>रामचन्द्र त्रैविद्य</td> | |||
<td>गण्डविमुक्त देव १</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५९</td> | |||
<td>११६१-११८१</td> | |||
<td>हस्तिमल</td> | |||
<td>सेनसंघी</td> | |||
<td>विक्रान्त कौरव</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६०</td> | |||
<td>११६३</td> | |||
<td>शुभचन्द्र ४</td> | |||
<td>देवेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६१</td> | |||
<td>११७०</td> | |||
<td>ओडय्य</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>कव्वगर काव्य</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६२</td> | |||
<td>११७०-११२५</td> | |||
<td>जत्र</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>यशोधर चरित्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६३</td> | |||
<td>११७३-१२४३</td> | |||
<td>पं. आशाधर</td> | |||
<td>पं. महावीर</td> | |||
<td>अनगारधर्मामृत</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६४</td> | |||
<td>११८५-१२४३</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र ६</td> | |||
<td>बालचंद भट्टारक</td> | |||
<td>क्रियाकलाप</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६५</td> | |||
<td>११८७-११९०</td> | |||
<td>अमरकीर्ति गणी</td> | |||
<td>चन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>णेमिणाहचरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६६</td> | |||
<td>११८९</td> | |||
<td>अग्गल</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>चन्द्रप्रभु पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६७</td> | |||
<td>११९३</td> | |||
<td>माघनन्दि ४</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>११९३-१२६०</td> | |||
<td>माघनन्दि ४</td> | |||
<td>कुमुदचंद्रके गुरु</td> | |||
<td>शास्त्रसार समुच्चय</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६८</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>(योगीन्द्र)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६९</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>नेमिचंद सैद्धा.४ </td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्म प्रकृति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७०</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>आच्चण कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>वर्द्धमान पुराण</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७१</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र ७</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>सिद्धांतसार टीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७२</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>लक्खण</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>अणुवयरयण पईव</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७३</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>पार्श्वदेव</td> | |||
<td>यशुदेवाचार्य</td> | |||
<td>संगीतसमयसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७४</td> | |||
<td>१२००</td> | |||
<td>देवेन्द्र मुनि</td> | |||
<td>आयुर्वैदि विद्वान्</td> | |||
<td>बालग्रह चिकित्सा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७५</td> | |||
<td>१२००</td> | |||
<td>बन्धु वर्मा</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>हरवंश पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७६</td> | |||
<td>१२००</td> | |||
<td>शुभचन्द्र ५</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>नरपिंगल</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७७</td> | |||
<td>ई. श. १२-१३</td> | |||
<td>रविचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>आराधनासार समुच्चय</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७८</td> | |||
<td>ई. श. १२-१३</td> | |||
<td>वामन मुनि</td> | |||
<td>तमिल कवि</td> | |||
<td>मेमन्दर पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४. ईसवी शताब्दी १३ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७९</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>गुणभद्र २</td> | |||
<td>नेमिसेन</td> | |||
<td>धन्यकुमारचरित</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८०</td> | |||
<td>१२०५</td> | |||
<td>पार्श्व पण्डित</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>पार्श्वनाथ पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८१</td> | |||
<td>१२१३</td> | |||
<td>माधवचन्द्र त्रैविद्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>क्षपणसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८२</td> | |||
<td>१२१३-१२५६</td> | |||
<td>लाखू</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि </td> | |||
<td>जिणयत्तकहा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८३</td> | |||
<td>१२२५</td> | |||
<td>गुणवर्ण</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>पुष्पदन्त पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८५</td> | |||
<td>१२२८</td> | |||
<td>जगच्चन्द्रसूरि (श्वे.)</td> | |||
<td>देलवाड़ा मन्दिर के निर्माता</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८५</td> | |||
<td>१२३०</td> | |||
<td>दामोदर</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>णेमिणाह चरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८६</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>अभयचन्द्र १</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>स्याद्वाद् भूषण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८७</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>विनयचन्द्र</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>उवएसमाला</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८८</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>यशःकीर्ति ३</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>जगत्सुन्दरी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८९</td> | |||
<td>१२३४</td> | |||
<td>ललितकीर्ति</td> | |||
<td>यशःकीर्ति ३</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९०</td> | |||
<td>१२३९</td> | |||
<td>यशःकीर्ति ४</td> | |||
<td>ललितकीर्ति</td> | |||
<td>धर्मशर्माभ्युदय</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९१</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>नेमिचन्द्र ५</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>अर्धनेमिपुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९२</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>भावसेन त्रैविद्य</td> | |||
<td>प्रमाप्रमेय</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९३</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>रामचन्द्रमुमुक्षु केशवनन्दि</td> | |||
<td>पुण्यास्रवकथा</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९४</td> | |||
<td>१२३०-१२५८</td> | |||
<td>शुभचन्द्र ६</td> | |||
<td>गण्डविमुक्तदेव</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९५</td> | |||
<td>१२३५</td> | |||
<td>कमलभव</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>शान्तीश्वर पु.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९६</td> | |||
<td>१२४५-१२७०</td> | |||
<td>देवेन्द्रसूरि (श्वे.)</td> | |||
<td>जगच्चन्द्रसूरि</td> | |||
<td>कर्मस्तव</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९७</td> | |||
<td>१२४९-१२७९</td> | |||
<td>अभयचन्द्र २</td> | |||
<td>श्रुतमुनिके गुरु</td> | |||
<td>गो.सा./नन्दप्रबोधिनी टीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९८</td> | |||
<td>१२५०-१२६०</td> | |||
<td>अजितसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>शृङ्गार मञ्जरी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९९</td> | |||
<td>उत्तरार्द्ध</td> | |||
<td>विजय वर्णी</td> | |||
<td>विजयकीर्ति</td> | |||
<td>श्रंगारार्णव</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४००</td> | |||
<td>ई.श. १३</td> | |||
<td>धरसेन</td> | |||
<td>मुनिसेन</td> | |||
<td>विश्वलोचन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०१</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>अर्हद्दास</td> | |||
<td>पं. आशाधर</td> | |||
<td>पुरुदेव चम्पू</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०२</td> | |||
<td>१२५३-१३२८</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र ८</td> | |||
<td>रत्नकीर्तिके गुरु</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०३</td> | |||
<td>१२५९</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र ९</td> | |||
<td>श्रुतमुनिके गुरु</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०४</td> | |||
<td>१२६०</td> | |||
<td>माघनन्दि ५</td> | |||
<td>कुमुदचन्द्र</td> | |||
<td>शास्त्रसार समु.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०५</td> | |||
<td>१२७५</td> | |||
<td>कुमुदेन्दु</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>रामायण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०६</td> | |||
<td>१२९२</td> | |||
<td>मल्लिशेण (श्वे.)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>स्याद्वादमंजरी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०७</td> | |||
<td>१२९६</td> | |||
<td>जिनचन्द्र ५</td> | |||
<td>भास्कर के गुरु</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ सूत्रवृत्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०८</td> | |||
<td>१२९६</td> | |||
<td>भास्करनन्दि</td> | |||
<td>जिनचन्द्र ५</td> | |||
<td>ध्यानस्तव</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०९</td> | |||
<td>१२९८-१३२३</td> | |||
<td>धर्मभूषण १</td> | |||
<td>शुभकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१०</td> | |||
<td>अन्तिमपाद</td> | |||
<td>इन्द्रनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>नन्दि संहिता</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४११</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>नरसेन</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>सिद्धचक्क कहा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१२</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>नागदेव</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>मदन पराजय</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१३</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>लक्ष्मण देव</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>णेमिणाह चरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१४</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>वाग्भट्ट द्वि.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>छन्दानुशासन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१५</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>श्रुतमुनि</td> | |||
<td>अभयचन्द्र सं.</td> | |||
<td>परमागमसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१६</td> | |||
<td>ई.श. १३-१४</td> | |||
<td>वामदेव पंडित</td> | |||
<td>विनयचन्द्र</td> | |||
<td>भावसंग्रह</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५ ईसवी शदाब्दी १४ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१७</td> | |||
<td>१३०५</td> | |||
<td>पद्मनन्दि लघु ८</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यत्याचार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१८</td> | |||
<td>३११</td> | |||
<td>बालचन्द्र सै.</td> | |||
<td>अभयचन्द्र</td> | |||
<td>द्रव्यसंग्रहटीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१९</td> | |||
<td>पूर्वार्ध</td> | |||
<td>हरिदेव</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>मयणपराजय</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२०</td> | |||
<td>१३२८-१३९३</td> | |||
<td>पद्मनन्दि ९</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र</td> | |||
<td>भावनापद्धति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२१</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>श्रीधर ७</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>श्रुतावतार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२२</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>जयतिलकसूरि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>चार कर्म ग्रन्थ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२३</td> | |||
<td>१३४८-१३७३</td> | |||
<td>धर्मभूषण २</td> | |||
<td>अमरकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२४</td> | |||
<td>१३५०-१३९०</td> | |||
<td>मुनिभद्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२५</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>वर्द्धमान भट्टा.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>वरांगचरितकाव्य</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२६</td> | |||
<td>१३५८-१४१८</td> | |||
<td>धर्मभूषण ३</td> | |||
<td>वर्द्धमान मुनि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२७</td> | |||
<td>१३५९</td> | |||
<td>केशव वर्णी</td> | |||
<td>अभयचंद्र सै.</td> | |||
<td>गो.सा. कर्णाटक</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२८</td> | |||
<td>१३८४</td> | |||
<td>श्रुतकीर्ति</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र</td> | |||
<td>वृत्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२९</td> | |||
<td>१३८५</td> | |||
<td>मधुर</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>धर्मनाथ पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३०</td> | |||
<td>१३९०-१३९२</td> | |||
<td>विनोदी लाल</td> | |||
<td>भाषा कवि</td> | |||
<td>भक्तामर कथा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३१</td> | |||
<td>१३९३-१४४२</td> | |||
<td>देवेन्द्रकीर्ति भ.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३२</td> | |||
<td>१३९३-१४६८</td> | |||
<td>जिनदास १</td> | |||
<td>सकलकीर्ति</td> | |||
<td>जम्बूस्वामीचरित</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३३</td> | |||
<td>१३९७</td> | |||
<td>धनपाल २</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>बाहूबलि चरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३४</td> | |||
<td>१३९९</td> | |||
<td>रत्नकीर्ति २</td> | |||
<td>रामसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३५</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>हरिचन्द २</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>अणत्थिमियकहा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३६</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>जल्हिमले</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>अनुपेहारास</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३७</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>देवनन्दि</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>रोहिणी विहाण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३८</td> | |||
<td>ई. श. १४-१५</td> | |||
<td>नेमिचन्द्र ६</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>रविवय कहा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३९</td> | |||
<td>१४००-१४७९</td> | |||
<td>रइधु</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>महेसरचरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६. ईसवी शताब्दी १५ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४०</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>जयमित्रहल</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>मल्लिणाह कव्व</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४१</td> | |||
<td>१४०५-१४२५</td> | |||
<td>पद्मनाभ</td> | |||
<td>गुणकीर्ति भट्टा.</td> | |||
<td>यशोधर चरित्र,</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४२</td> | |||
<td>१४०६-१४४२</td> | |||
<td>सकलकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>मूलाचार प्रदीप</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४३</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>ब्रह्म साधारण</td> | |||
<td>नरेन्द्र कीर्ति</td> | |||
<td>अणुपेहा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४४</td> | |||
<td>१४२२</td> | |||
<td>असवाल</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>पासणाह चरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४५</td> | |||
<td>१४२४</td> | |||
<td>लक्ष्मणसेन २</td> | |||
<td>रत्नकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४६</td> | |||
<td>१४२४</td> | |||
<td>भास्कर</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>जीवन्धररचित</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४७</td> | |||
<td>१४२५</td> | |||
<td>लक्ष्मीचन्द</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>सावयधम्म दोहा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४८</td> | |||
<td>१४२९-१४४०</td> | |||
<td>यशःकीर्ति ६</td> | |||
<td>गुणकीर्ति</td> | |||
<td>जिणरत्ति कहा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४९</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>सिंहसूरि (श्वे.)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>लोक विभाग</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५०</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>गुणभद्र ३</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>पक्खइवयकहा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५१</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>सोमदेव २</td> | |||
<td>प्रतिष्ठाचार्य </td> | |||
<td>आस्रवत्रिभंगीकी लाटी भाषाटीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५२</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>विमलदास</td> | |||
<td>अनन्तदेव</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५३</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>पं. योगदेव</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>बारस अणुवेक्खा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५४</td> | |||
<td>१४३२</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र १०</td> | |||
<td>धर्मचन्द्र</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ रत्न?</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५५</td> | |||
<td>१४३६</td> | |||
<td>मलयकीर्ति</td> | |||
<td>धर्मकीर्ति</td> | |||
<td>मूलाचारप्रशस्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५६</td> | |||
<td>१४३७</td> | |||
<td>शुभकीर्ति</td> | |||
<td>देवकीर्ति</td> | |||
<td>संतिणाहचरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५७</td> | |||
<td>१४३९</td> | |||
<td>कल्याणकीर्ति</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>ज्ञानचन्द्राभ्युदय</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५८</td> | |||
<td>१४४२-१४८१</td> | |||
<td>विद्यानन्दि २</td> | |||
<td>देवेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>सुदर्शनचरित</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५९</td> | |||
<td>१४४२-१४८३</td> | |||
<td>भानुकीर्ति भट्ट</td> | |||
<td>सकलकीर्ति</td> | |||
<td>जीवन्धर रास</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६०</td> | |||
<td>१४४३-१४५८</td> | |||
<td>तेजपाल</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>वरंगचरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६१</td> | |||
<td>१४४८</td> | |||
<td>विजयसिंह</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अजितपुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६२</td> | |||
<td>१४४८-१५१५</td> | |||
<td>तारण स्वामी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>उपदेशशुद्धसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६३</td> | |||
<td>१४४९</td> | |||
<td>भीमसेन</td> | |||
<td>लक्ष्मणसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६४</td> | |||
<td>१४५०-१५१४</td> | |||
<td>जिनचन्द्र भट्टा.</td> | |||
<td>शुभचन्द्र</td> | |||
<td>सिद्धान्तसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६५</td> | |||
<td>१४५०-१५१४</td> | |||
<td>ब्रह्म दामोदर</td> | |||
<td>जिनचन्द्रभट्टा.</td> | |||
<td>सिरिपालचरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६६</td> | |||
<td>१४५४</td> | |||
<td>धर्मधर</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>नागकुमारचरित</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६७</td> | |||
<td>१४६१-१४८३</td> | |||
<td>सोमकीर्ति भट्टा. </td> | |||
<td>भीमसेन</td> | |||
<td>सप्तव्यसन कथा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६८</td> | |||
<td>१४६२-१४८४</td> | |||
<td>मेधावी</td> | |||
<td>जिनचन्द्र भट्टा.</td> | |||
<td>धर्मसंग्रहश्रावका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६९</td> | |||
<td>१४६८-१४९८</td> | |||
<td>ज्ञानभूषण १</td> | |||
<td>भुवनकीर्ति</td> | |||
<td>तत्त्वज्ञानतरंगिनी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७०</td> | |||
<td>१४८१-१४९९</td> | |||
<td>मल्लिभूषण</td> | |||
<td>विद्यानन्दि २</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७१</td> | |||
<td>१४८१-१४९९</td> | |||
<td>श्रुतसागर</td> | |||
<td>विद्यानन्दि २</td> | |||
<td>तत्त्वार्थवृत्ति</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७२</td> | |||
<td>१४८५</td> | |||
<td>वोम्मरस</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>सनत्कुमार चरित</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७३</td> | |||
<td>१४९५-१५१३</td> | |||
<td>विजयकीर्ति</td> | |||
<td>ज्ञानभूषण १</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७४</td> | |||
<td>१४९९-१५१८</td> | |||
<td>सिंहनन्दि</td> | |||
<td>मल्लिभूषण</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७५</td> | |||
<td>१४९९-१५१८</td> | |||
<td>लक्ष्मीचन्द</td> | |||
<td>मल्लिभूषण</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७६</td> | |||
<td>१४९९-१५२८</td> | |||
<td>वीरचन्द</td> | |||
<td>लक्ष्मीचन्द्र</td> | |||
<td>जंबूसामि बेलि</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७७</td> | |||
<td>१४९९-१५१८</td> | |||
<td>श्रीचन्द</td> | |||
<td>श्रुतसागर</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७८</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>महनन्दि</td> | |||
<td>वीरचन्द्र</td> | |||
<td>पाहुड़ दोहा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७९</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>श्रुतकीर्ति</td> | |||
<td>भुवनकीर्ति</td> | |||
<td>हरिवंश पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८०</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>दीडुय्य</td> | |||
<td>पण्डित मुनि</td> | |||
<td>भुजबलि चरितम्</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८१</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>जीवन्धर</td> | |||
<td>यशःकीर्ति</td> | |||
<td>गुणस्थान बेलि</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८२</td> | |||
<td>१५००</td> | |||
<td>श्रीधर</td> | |||
<td>कन्नड़ विद्वान्</td> | |||
<td>वैद्यामृत</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८३</td> | |||
<td>१५००</td> | |||
<td>कोटेश्वर</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>जीवन्धरषडपादि</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७. ईसवी शताब्दी १६ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८४</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>अल्हू</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>अणुवेक्खा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८५</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>सिंहनन्दि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>नमस्कार मन्त्र माहात्म्य</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८६</td> | |||
<td>१५००-१५४१</td> | |||
<td>विद्यानन्दि ३</td> | |||
<td>विशालकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८७</td> | |||
<td>१५०१</td> | |||
<td>जिनसेन भट्टा, ४</td> | |||
<td>यशःकीर्ति</td> | |||
<td>नेमिनाथ रास</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८८</td> | |||
<td>पूर्वार्ध</td> | |||
<td>नेमिचन्द्र ७</td> | |||
<td>ज्ञानभूषण</td> | |||
<td>गो.सा. टीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८९</td> | |||
<td>१५०८</td> | |||
<td>मङ्गरस</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>सम्यक्त्व कौ.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९०</td> | |||
<td>१५१३-१५२८</td> | |||
<td>जिनसेन भट्टा.५</td> | |||
<td>सोमसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९१</td> | |||
<td>१५१४-२९</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र ११</td> | |||
<td>जिनचन्द्र भट्टा.</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९२</td> | |||
<td>१५१५</td> | |||
<td>रत्नकीर्ति ३</td> | |||
<td>ललितकीर्ति</td> | |||
<td>भद्रबाहु चरित</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९३</td> | |||
<td>१५१६-५६</td> | |||
<td>शुभचन्द्र ५</td> | |||
<td>विजयकीर्ति</td> | |||
<td>करकण्डु चरित</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९४</td> | |||
<td>१५१८-२८</td> | |||
<td>नेमिदत्त</td> | |||
<td>मल्लिभूषण</td> | |||
<td>नेमिनाथ पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९५</td> | |||
<td>१५१९</td> | |||
<td>शान्तिकीर्ति</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>शान्तिनाथ पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>माणिक्यराज</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>नागकुमार चरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९६</td> | |||
<td>१५२५-५९</td> | |||
<td>ज्ञानभूषण २</td> | |||
<td>वीरचन्द</td> | |||
<td>कर्मप्रकृति टीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९७</td> | |||
<td>१५३०</td> | |||
<td>महीन्दु</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>संतिणाह चरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९८</td> | |||
<td>१५३५</td> | |||
<td>बूचिराज</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>म. जुज्झ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९९</td> | |||
<td>१५३८</td> | |||
<td>सालिवाहन</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>हरिवंशका अनुवाद</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५००</td> | |||
<td>१५४२</td> | |||
<td>वर्द्धमान द्वि.</td> | |||
<td>देवेन्द्र कीर्ति</td> | |||
<td>दशभक्त्यादि</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०१</td> | |||
<td>१५४३-९३</td> | |||
<td>पं. जिनराज</td> | |||
<td>आयुर्वेद विद्वान्</td> | |||
<td>होली रेणुका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०२</td> | |||
<td>१५४४</td> | |||
<td>चारुकीर्ति पं.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>प्रमेयरत्नालंकार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०३</td> | |||
<td>१५५०</td> | |||
<td>दौड्डैय्य</td> | |||
<td>कन्नड कवि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०४</td> | |||
<td>१५५०</td> | |||
<td>मंगराज</td> | |||
<td>कन्न? कवि</td> | |||
<td>खगेन्द्रमणि</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०५</td> | |||
<td>१५५०</td> | |||
<td>साल्व</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>रसरत्नाकर</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०६</td> | |||
<td>१५५०</td> | |||
<td>योगदेव</td> | |||
<td>कन्नड़ कपवि</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ सूत्र टी.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०७</td> | |||
<td>१५५१</td> | |||
<td>त्नाकरवर्णी</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>भरतैश वैभव</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०८</td> | |||
<td>१५५६-७३</td> | |||
<td>सकल भूषण</td> | |||
<td>शुभचन्द्र भट्टा.</td> | |||
<td>उपदेश रत्नमाला</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०९</td> | |||
<td>१५५६-७३</td> | |||
<td>सुमतिकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्मकाण्ड</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१०</td> | |||
<td>१५५६-९६</td> | |||
<td>गुणचन्द्र</td> | |||
<td>यशःकीर्ति</td> | |||
<td>मौनव्रत कथा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५११</td> | |||
<td>१५५६-१६०१</td> | |||
<td>क्षेमचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१२</td> | |||
<td>१५५७</td> | |||
<td>पं. पद्मसुन्दर</td> | |||
<td>पं. पद्ममेरु</td> | |||
<td>भविष्यदत्तचरित</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१३</td> | |||
<td>१५५९</td> | |||
<td>यशःकीर्ति ७</td> | |||
<td>क्षेमकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१४</td> | |||
<td>१५५९-१६०६</td> | |||
<td>रायमल</td> | |||
<td>अनन्तकीर्ति</td> | |||
<td>भविष्यदत्त च.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१५</td> | |||
<td>१५५९-१६८०</td> | |||
<td>प्रभाचंद्र १२</td> | |||
<td>ज्ञानभूषण</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१६</td> | |||
<td>१५६०</td> | |||
<td>बाहुबलि</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>नागकुमार च.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१७</td> | |||
<td>१५७३-९३</td> | |||
<td>गुणकीर्ति</td> | |||
<td>सुमतिकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१८</td> | |||
<td>१५७५</td> | |||
<td>शिरोमणि दास</td> | |||
<td>पं. गंगदास</td> | |||
<td>धर्मसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१९</td> | |||
<td>१५७५-९३</td> | |||
<td>पं. राजमल</td> | |||
<td>हेमचन्द्र भट्टा.</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२०</td> | |||
<td>१५७९-१६१९</td> | |||
<td>श्रीभूषण</td> | |||
<td>विद्याभूषण</td> | |||
<td>द्वादशांग पूजा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२१</td> | |||
<td>१५८०</td> | |||
<td>माणिक चन्द</td> | |||
<td>अपभ्रंश कवि</td> | |||
<td>सत्तवसणकहा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२२</td> | |||
<td>१५८०</td> | |||
<td>पद्मनाभ</td> | |||
<td>यशःकीर्ति</td> | |||
<td>रामपुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२३</td> | |||
<td>१५८४</td> | |||
<td>क्षेमकीर्ति</td> | |||
<td>यशःकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२४</td> | |||
<td>१५८०-१६०७</td> | |||
<td>वादिचन्द</td> | |||
<td>प्रभाचन्द</td> | |||
<td>पवनदूत</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२५</td> | |||
<td>१५८३-१६०५</td> | |||
<td>देवेन्द्र कीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कथाकोश</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२६</td> | |||
<td>१५८८-१६२५</td> | |||
<td>धर्मकीर्ति</td> | |||
<td>ललितकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२७</td> | |||
<td>१५९०-१६४०</td> | |||
<td>विद्यानन्दि ४</td> | |||
<td>देवकीर्ति</td> | |||
<td>पद्मपुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२८</td> | |||
<td>१५९३</td> | |||
<td>शाहठाकुर</td> | |||
<td>विशालकीर्ति</td> | |||
<td>संतिणाह चरिउ</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२९</td> | |||
<td>१५९३-१६७५</td> | |||
<td>वादिभूषण</td> | |||
<td>गुणकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३०</td> | |||
<td>१५९६-१६८९</td> | |||
<td>सुन्ददास</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३१</td> | |||
<td>१५९७-१६२४</td> | |||
<td>चन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>श्रीभूषण</td> | |||
<td>पार्श्वनाथ पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३२</td> | |||
<td>१५९९-१६१०</td> | |||
<td>सोमसेन</td> | |||
<td>गुणभद्र</td> | |||
<td>शब्दरत्न प्रदीप</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८. ईसवी शताब्दी १७ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३३</td> | |||
<td>१६०४</td> | |||
<td>अकलंक</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>शब्दानुशासन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३४</td> | |||
<td>१६०५</td> | |||
<td>चन्द्रभ</td> | |||
<td>कन्नड़ कवि</td> | |||
<td>गोमटेश्वरचरित</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३५</td> | |||
<td>१६०२</td> | |||
<td>ज्ञानकीर्ति</td> | |||
<td>वादि भूषण</td> | |||
<td>यशोधरचरित सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३६</td> | |||
<td>१६०७-१६६५</td> | |||
<td>महीचन्द्र</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३७</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>ज्ञानसागर</td> | |||
<td>श्री भूषण</td> | |||
<td>अक्षर बावनी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३८</td> | |||
<td>पूर्वार्ध</td> | |||
<td>कुँवरपाल</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३९</td> | |||
<td>पूर्वार्ध</td> | |||
<td>रूपचन्द पाण्डेय</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>गीत परमार्थी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४०</td> | |||
<td>१६१०</td> | |||
<td>रायम</td> | |||
<td>सकलचन्द्र</td> | |||
<td>भक्तामर कथा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४१</td> | |||
<td>१६१६</td> | |||
<td>अभयकीर्ति</td> | |||
<td>अजितकीर्ति</td> | |||
<td>अनन्तव्रत कथा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४२</td> | |||
<td>१६१७</td> | |||
<td>जयसागर १</td> | |||
<td>रत्नभूषण</td> | |||
<td>तीर्थ जयमाला</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४३</td> | |||
<td>१६१७</td> | |||
<td>कृष्णदास</td> | |||
<td>रत्नकीर्ति</td> | |||
<td>मुनिसुव्रत पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४४</td> | |||
<td>१६२३-१६४३</td> | |||
<td>पं. बनारसीदास</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>समयसार नाटक</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४५</td> | |||
<td>१६२३-१६४३</td> | |||
<td>भगवतीदास</td> | |||
<td>मही चन्द्र</td> | |||
<td>दंडाणारास</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४६</td> | |||
<td>१६२८</td> | |||
<td>चुर्भुज</td> | |||
<td>जयपुरसे लाहौर</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४७</td> | |||
<td>१६३१</td> | |||
<td>केशवसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्णामृत पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४८</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>पासकीर्ति</td> | |||
<td>भट्टा. धर्मचन्द २</td> | |||
<td>सुदर्शन चरित</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४९</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>जगजीवनदास</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>बनारसी विलास का सम्पादन</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५०</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>जयसागर २</td> | |||
<td>मही चन्द्र</td> | |||
<td>सीता हरण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५१</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>हेमराज पाण्डेय</td> | |||
<td>पं. रूपचन्द पाण्डे</td> | |||
<td>प्रवचनसार वच.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५२</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>पं. हीराचन्द</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पञ्चास्तिकाय टी.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५३</td> | |||
<td>१६३८-१६८८</td> | |||
<td>यशोविजय (श्वे.)</td> | |||
<td>लाभ विजय </td> | |||
<td>अध्यात्मसार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५४</td> | |||
<td>१६४२-१६४६</td> | |||
<td>पं. जगन्नाथ</td> | |||
<td>नरेन्द्र कीर्ति</td> | |||
<td>सुखनिधान</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५५</td> | |||
<td>१६४३-१७०३</td> | |||
<td>जोधराज गोदिका</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>प्रीतंकर चारित्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५६</td> | |||
<td>१६५६</td> | |||
<td>खड्गसेन</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>त्ररिलोक दर्पण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५७</td> | |||
<td>१६५९</td> | |||
<td>अरुणमणि</td> | |||
<td>बुधराघव</td> | |||
<td>अजित पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५८</td> | |||
<td>१६६५</td> | |||
<td>सावाजी</td> | |||
<td>मराठी कवि</td> | |||
<td>सुगन्ध दशमी</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५९</td> | |||
<td>१६६५-१६७५</td> | |||
<td>मेरुचन्द्र</td> | |||
<td>महीचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६०</td> | |||
<td>१६७६-१७२३</td> | |||
<td>द्यानत राय</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>रूपक काव्य</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६१</td> | |||
<td>१६८७-१७१६</td> | |||
<td>सुरेन्द्र कीर्ति</td> | |||
<td>इन्द्रभूषण</td> | |||
<td>पद्मावती पूजा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६२</td> | |||
<td>१६९०-१६९३</td> | |||
<td>गंगा दास</td> | |||
<td>धर्मचन्द्र भट्टा.</td> | |||
<td>श्रुतस्कन्ध पूजा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६३</td> | |||
<td>१६९६</td> | |||
<td>महीचन्द्र</td> | |||
<td>मराठी कवि</td> | |||
<td>आदि पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६४</td> | |||
<td>१६९७</td> | |||
<td>बुलाकी दास</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>पाण्डव पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६५</td> | |||
<td>अन्त पाद</td> | |||
<td>छत्रसेन</td> | |||
<td>समन्तभद्र २</td> | |||
<td>द्रौपदी हरण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६६</td> | |||
<td>अन्त पाद</td> | |||
<td>भैया भगवतीदास</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>ब्रह्म विलास</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६७</td> | |||
<td>ई. श. १७-१८</td> | |||
<td>सन्तलाल</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>सिद्धचक्र विधान</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६८</td> | |||
<td>ई. श. १७-१८</td> | |||
<td>महेन्द्र सेन </td> | |||
<td>विजयकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९. ईसवी शताब्दी १८ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६९</td> | |||
<td>१७०३-१७३४</td> | |||
<td>सुरेन्द्र भूषण</td> | |||
<td>देवेन्द् भूषण</td> | |||
<td>ऋषिपंचमी कथा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७०</td> | |||
<td>१७०५</td> | |||
<td>गोवर्द्धन दास</td> | |||
<td>पानीपतवासी पं.</td> | |||
<td>शकुन विचार</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७१</td> | |||
<td>पूर्वार्ध</td> | |||
<td>खुशालचन्द</td> | |||
<td>भट्टा. लक्ष्मीचन्द्र</td> | |||
<td>व्रत कथाकोष</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>काला</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७२</td> | |||
<td>१७१६-१७२८</td> | |||
<td>किशनसिंह</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>क्रियाकोश</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७३</td> | |||
<td>१७१७</td> | |||
<td>सहवा</td> | |||
<td>मराठी कवि</td> | |||
<td>नेमिनाथ पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७४</td> | |||
<td>१७१८</td> | |||
<td>ज्ञानचन्द</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पञ्चास्ति टी.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७५</td> | |||
<td>१७१८</td> | |||
<td>मनोहरलाल</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>धर्मपरीक्षा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७६</td> | |||
<td>१७२०-७२</td> | |||
<td>पं. दौलतराम</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>क्रियाकोश</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७७</td> | |||
<td>१७२१-२९</td> | |||
<td>देवेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>धर्मचन्द्र</td> | |||
<td>विषापहार पूजा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७८</td> | |||
<td>१७२१-४०</td> | |||
<td>जिनदास</td> | |||
<td>भुवनकीर्ति</td> | |||
<td>हरिवंश पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७९</td> | |||
<td>१७२२</td> | |||
<td>दीपचन्द शाह</td> | |||
<td>आध्यात्मिक</td> | |||
<td>चिद्विलास</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८०</td> | |||
<td>१७२४-४४</td> | |||
<td>जिनसागर</td> | |||
<td>देवेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>जिनकथा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८१</td> | |||
<td>१७२४-३२</td> | |||
<td>भूधरदास</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>जिन शतक</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८२</td> | |||
<td>१७२८</td> | |||
<td>लक्ष्मीचन्द्र</td> | |||
<td>मराठी कवि</td> | |||
<td>मेघमाला</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८३</td> | |||
<td>१७३०-३३</td> | |||
<td>नरेन्द्रसेन २</td> | |||
<td>छत्रसेन</td> | |||
<td>प्रमाणप्रमेय</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८४</td> | |||
<td>१७४०-६७</td> | |||
<td>पं. टोडरमल्ल</td> | |||
<td>प्रकाण्ड विद्वान</td> | |||
<td>गोमट्टसार टीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८५</td> | |||
<td>१७४१</td> | |||
<td>रूपचन्द पाण्डेय</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>समयसार नाटक टीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८६</td> | |||
<td>१७५४</td> | |||
<td>रायमल ३</td> | |||
<td>टोडरमल</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८७</td> | |||
<td>१७६१</td> | |||
<td>शिवलाल विद्वान्</td> | |||
<td>चर्चासंग्रह</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८८</td> | |||
<td>१७६७-७८</td> | |||
<td>नथमल विलाल</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>जिनगुणविलास</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८९</td> | |||
<td>१७६८</td> | |||
<td>जनार्दन</td> | |||
<td>मराठी कवि</td> | |||
<td>श्रेणिकचारित्र</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९०</td> | |||
<td>१७७०-१८४०</td> | |||
<td>पन्नालाल</td> | |||
<td>पं. सदासुखके गुरु</td> | |||
<td>राजवार्तिक वच.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९१</td> | |||
<td>१७७३-१८३३</td> | |||
<td>मुन्ना लाल</td> | |||
<td>पं. सदासुखके गुरु</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९२</td> | |||
<td>१७८०</td> | |||
<td>गुमानीराम</td> | |||
<td>टोडरमलके पुत्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९३</td> | |||
<td>१७८८</td> | |||
<td>रघु</td> | |||
<td>मराठी कवि</td> | |||
<td>सोठ माहात्म्या</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९४</td> | |||
<td>१७९५-१८६७</td> | |||
<td>सदासुखदास</td> | |||
<td>पन्नालाल</td> | |||
<td>रत्नक्रण्ड वचनि.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९५</td> | |||
<td>१७९८-१८६६</td> | |||
<td>दौलतराम २</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>छहढाला</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९६</td> | |||
<td>अन्तिम पाद</td> | |||
<td>नयनसुख</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९७</td> | |||
<td>१८००-३२</td> | |||
<td>मनरंग लाल</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>सप्तर्षि पूजा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९८</td> | |||
<td>१८००-४८</td> | |||
<td>वृन्दावन</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>चौबीसी पूजा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०. ईसवी शताब्दी १९ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९९</td> | |||
<td>१८०१-३२</td> | |||
<td>महितसागर</td> | |||
<td>मराठी कवि</td> | |||
<td>रत्नत्रयपूजा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६००</td> | |||
<td>१८०४-३०</td> | |||
<td>जयचन्द छाबड़ा</td> | |||
<td>हिन्दी भाष्यकार</td> | |||
<td>समयसार वच.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०१</td> | |||
<td>१८०८</td> | |||
<td>पं. जगमोहन</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>धर्मरत्नोद्योत</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०२</td> | |||
<td>१८१२</td> | |||
<td>रत्नकीर्ति</td> | |||
<td>मराठी कवि</td> | |||
<td>उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०३</td> | |||
<td>१८१३</td> | |||
<td>दयासागर</td> | |||
<td>मराठी कवि</td> | |||
<td>हनुमान पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०४</td> | |||
<td>१८१४-३५</td> | |||
<td>बुधजन</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>तत्त्वार्थबोध</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०५</td> | |||
<td>१८१७</td> | |||
<td>विशालकीर्ति</td> | |||
<td>मराठी कवि</td> | |||
<td>धर्मपरीक्षा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०६</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>परमेष्ठी सहाय</td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>अर्थ प्रकाशिका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०७</td> | |||
<td>१८२१</td> | |||
<td>जिनसेन ६</td> | |||
<td>मराठी कवि</td> | |||
<td>जंबूस्वामीपुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०८</td> | |||
<td>१८२८</td> | |||
<td>ललितकीर्ति</td> | |||
<td>जगत्कीर्ति</td> | |||
<td>अनेकों कथायें</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०९</td> | |||
<td>१८५०</td> | |||
<td>ठकाप्पा</td> | |||
<td>मराठी कवि</td> | |||
<td>पाण्डव पुराण</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१०</td> | |||
<td>१८५६</td> | |||
<td>पं. भागचन्द </td> | |||
<td>हिन्दी कवि</td> | |||
<td>प्रमाण परीक्षा वचनिका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६११</td> | |||
<td>१८५९</td> | |||
<td>छत्रपति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>द्वादशानुप्रेक्षा</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१२</td> | |||
<td>१८६७</td> | |||
<td>मा. बिहारीलाल </td> | |||
<td>विद्वान्</td> | |||
<td>बृहत्जैन शब्दार्णव</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१२</td> | |||
<td>१८७८-१९४८</td> | |||
<td>ब्र. शीतल प्रशाद</td> | |||
<td>आध्यात्मिक विद्वान्</td> | |||
<td>समयसार की भाषा टीका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१. ईसवी शताब्दी २० :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१४</td> | |||
<td>१९१९-१९५५</td> | |||
<td>आ. शान्ति सागर</td> | |||
<td>वर्तमान संघाधिपति</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१५</td> | |||
<td>१९२४-१९५७</td> | |||
<td>वीर सागर</td> | |||
<td>शान्तिसागर</td> | |||
<td>पंचविंशिका</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१६</td> | |||
<td>१९३३</td> | |||
<td>गजाधर लाल</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१७</td> | |||
<td>१९४९-६५</td> | |||
<td>शिवसागर</td> | |||
<td>वीरसागर</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१८</td> | |||
<td>१९६५-८२</td> | |||
<td>धर्मसागर</td> | |||
<td>शिवसागर</td> | |||
<td>-</td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
<p style="text-align: justify;"> </p> | |||
<h3 id="9" style="text-align: justify;"> <strong>9. पौराणिक राज्यवंश</strong></h3> | |||
<h4 id="9.1" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.1 सामान्य वंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">म.प्र.१६/२५८-२९४ भ. ऋषभदेवने हरि, अकम्पन, कश्यप और सोमप्रभ नामक महाक्षत्रियोंको बुलाकर उनको महामण्डलेश्वर बनाया। तदनन्तर सोमप्रभ राजा भगवान्से कुरुराज नाम पाकर कुरुवंशका शिरोमणि हुआ, हरि भगवान्से हरिकान्त नाम पाकर हरिवंशको अलंकृत करने लगा, क्योंकि वह हरि पराक्रममें इन्द्र अथवा सिंहके समान पराक्रमी था। अकम्पन भी भगवान्से श्रीधर नाम प्राप्तकर नाथवंशका नायक हुआ। कश्यप भगवान्से मधवा नाम प्राप्त कर उग्रवंशका मुख्य हुआ। उस समय भगवान्नने मनुष्योंको इक्षुका रससंग्रह करनेका उपदेश दिया था, इसलिए जगत्के लोग उन्हें इक्ष्वाकु कहने लगे।</p> | |||
<h4 id="9.2" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.2 इक्ष्वाकुवंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">सर्वप्रथम भगवान् आदिनाथसे यह वंश प्रारम्भ हुआ। पीछे इसकी दो शाखाएँ हो गयीं एक सूर्यवंश दूसरी चन्द्रवंश। (ह.पु.१३/३३) सूर्यवंशकी शाखा भरतचक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीर्तिसे प्रारम्भ हुई, क्योंकि अर्क नाम सूर्यका है। (प.पु.५/४) इस सूर्यवंशका नाम ही सर्वत्र इक्ष्वाकु वंश प्रसिद्ध है। (प.प्र.५/२६१) चन्द्रवंशकी शाखा बाहुबलीके पुत्र सोमयशसे प्रारम्भ हुई (ह.पु.१३/१६)। इसीका नाम सोमवंश भी है, क्योंकि सोम और चन्द्र एकार्थवाची हैं (प.पु.५/१२) और भी देखें सामान्य राज्य वंश। इसकी वंशावली निम्नप्रकार है - (ह.पु.१३/१-१५) (प.पु.५/४-९)<strong><br /></strong></p> | |||
[[File: Itihaas_8.PNG ]] | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">स्मितयश, बल, सुबल, महाबल, अतिबल, अमृतबल, सुभद्रसागर, भद्र, रवितेज, शशि, प्रभूततेज, तेजस्वी, तपन्, प्रतापवान, अतिवीर्य, सुवीर्य, उदितपराक्रम, महेन्द्र विक्रम, सूर्य, इन्द्रद्युम्न, महेन्द्रजित, प्रभु, विभु, अविध्वंस-वीतभी, वृषभध्वज, गुरूडाङ्क, मृगाङ्क आदि अनेक राजा अपने-अपने पुत्रोंको राज्य देकर मुक्ति गये। इस प्रकार (१४०००००) चौदह लाख राजा बराबर इस वंशसे मोक्ष गये, तत्पश्चात् एक अहमिन्द्र पदको प्राप्त हुआ, फिर अस्सी राजा मोक्षको गये, परन्तु इनके बीचमें एक-एक राजा इन्द्र पदको प्राप्त होता रहा।<br />पु.५ श्लोक नं. भगवान् आदिनाथका युगसमाप्त होनेपर जब धार्मिक क्रियाओंमें शिथिलता आने लगी, तब अनेकों राजाओंके व्यतीत होनेपर अयोध्या नगरीमें एक धरणीधर नामक राजा हुआ (५७-५९)</p> | |||
[[File: Itihaas_9.PNG ]] | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">प.पु./सर्ग/श्लोक मुनिसुव्रतनाथ भगवान्का अन्तराल शुरू होनेपर अयोध्या नामक विशाल नगरीमें विजय नामक बड़ा राजा हुआ। (२१/७३-७४) इसके भी महागुणवान् `सुरेन्द्रमन्यु' नामक पुत्र हुआ। (२१-७५)</p> | |||
[[File: Itihaas_10.PNG ]] | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">सौदास, सिंहरथ, ब्रह्मरथ, तुर्मुख, हेमरथ, शतरथ, मान्धाता, (२२/१३१) (२२/१४५) वीरसेन, प्रतिमन्यु, दीप्ति, कमलबन्धु, प्रताप, रविमन्यु, वसन्ततिलक, कुबेरदत्त, कीर्तिमान्, कुन्थुभक्ति, शरभरथ, द्विरदरथ, सिंहदमन, हिरण्यकशिपु, पुंजस्थल, ककुत्थ, रघु। (अनुमानतः ये ही रघुवंशके प्रवर्तक हों अतः दे. - रघुवंश। २२/१५३-१५८)।</p> | |||
<h4 id="9.3" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.3 उग्रवंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">ह.पु.१३/३३ सर्वप्रथम इक्ष्वाकुवंश उत्पन्न हुआ। उससे सूर्यवंश व चन्द्रवंशकी तथा उसी समय कुरुवंश और उग्रवंशकी उत्पत्ति हुई।<br />ह.पु.२२/५१-५३ जिस समय भगवान् आदिनाथ भरतको राज्य देकर दीक्षित हुए, उसी समय चार हजार भोजवंशीय तथा उग्रवंशीय आदि राजा भी तपमें स्थित हुए। पीछे चलकर तप भ्रष्ट हो गये। उन भ्रष्ट राजाओंमेंसे नमि विनमि हैं। दे.-`सामान्य राज्यवंश'। <br />नोट - इस प्रकार इस वंशका केवल नामोल्लेख मात्र मिलता है।</p> | |||
<h4 id="9.4" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.4 ऋषिवंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">प.पु.५/२ "चन्द्रवंश (सोमवंश) को ही ऋषिवंश हा है। विशेष दे. -`सोमवंश'</p> | |||
<h4 id="9.5" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.5 कुरुवंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">म.पु.२०/१११ "ऋषभ भगवान्को हस्तिनापुरमें सर्वप्रथम आहारदान करके दान तीर्थकी प्रवृत्ति करने वाला राजा श्रेयान् कुरुवंशी थे। अतः उनकी सर्व सन्तति भी कुरुवंशीय है। और भी दे. - `सामान्य राज्यवंश'<br />नोट - हरिवंश पुराण व महापुराण दोनोंमें इसकी वंशवाली दी गयी है। पर दोनोंमें अन्तर है। इसलिए दोनोंकी वंशावली दी जाती है।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>प्रथम वंशावली -(ह.पु.४५/६-३८)</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">श्रेयान् व सोमप्रभ, जयकुतमार, कुरु, कुरुचन्द्र, शुभकर, धृतिकर, करोड़ों राजाओं पश्चात्...तथा अनेक सागर काल व्यतीत होनेपर, धृतिदेव, धृतिकर, गङ्गदेव, धृतिमित्र, धृतिक्षेम, सुव्रत, ब्रात, मन्दर, श्रीचन्द्र, सुप्रतिष्ठ आदि करोड़ों राजा....धृतपद्म, धृतेन्द्र, धृतवीर्य, प्रतिष्ठित आदि सैकड़ों राजा...धृतिदृष्टि, धृतिकर, प्रीतिकर, आदि हुए... भ्रमरघोष, हरिघोष, हरिध्वज, सूर्यघोष, सुतेजस, पृथु, इभवाहन आदि राजा हुए.. विजय महाराज, जयराज... इनके पश्चात् इसी वंशमें चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार, सुकुमार, वरकुमार, विश्व, वैश्वानर, विश्वकेतु, बृहध्वज...तदनन्तर विश्वसेन, १६ वें तीर्थंकर शान्तिनाथ, इनके पश्चात् नारायण, नरहरि, प्रशान्ति, शान्तिवर्धन, शान्तिचन्द्र, शशाङ्काङ्क, कुरु...इसी वंशमें सूर्य भगवान्कुन्थुनाथ (ये तीर्थंकर व चक्रवर्ती थे)...तदनन्तर अनेक राजाओं के पश्चात् सुदर्शन, अरहनाथ (सप्तम चक्रवर्ती व १८ वें तीर्थंकर) सुचारु, चारु, चारूरूप, चारुपद्म,.....अनेक राजाओंके पश्चात् पद्ममाल, सुभौम, पद्मरथ, महापद्म (चक्रवर्ती), विष्णु व पद्म, सुपद्म, पद्मदेव, कुलकीर्ति, कीर्ति, सुकीर्ति, कीर्ति, वसुकीर्ति, वासुकि, वासव, वसु, सुवसु, श्रीवसु, वसुन्धर, वसुरथ, इन्द्रवीर्य, चित्रविचित्र, वीर्य, विचित्र, विचित्रवीर्य, चित्ररथ, महारथ, धूतरथ, वृषानन्त, वृषध्वज, श्रीव्रत, व्रतधर्मा, धृत, धारण, महासर, प्रतिसर, शर, पराशर, शरद्वीप, द्वीप, द्वीपायन, सुशान्ति, शान्तिप्रभ, शान्तिषेण, शान्तनु, धृतव्यास, धृतधर्मा, धृतोदय, धृततेज, धृतयश, धृतमान, धृत</p> | |||
[[File: Itihaas_11.PNG ]] | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;"><strong>द्वितीय वंशावली</strong> </p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 60px;">(पा.पु./सर्ग/श्लोक) जयकुमार-अनन्तवीर्य, कुरु, कुरुचन्द, शुभङ्कर, धृतिङ्कर,.....धृतिदेव, गङ्गदेव, धृतिदेव, धृत्रिमित्र,......धृतिक्षेम, अक्षयी, सुव्रत, व्रातमन्दर, श्रीचन्द्र, कुलचन्द्र, सुप्रतिष्ठ,......भ्रमघोष, हरिघोष, हरिध्वज, रविघोष, महावीर्य, पृथ्वीनाथ, पृथु गजवाहन,...विजय, सनत्कुमार (चक्रवर्ती), सुकुमार, वरकुमार, विश्व, वैश्वानर, विश्वध्वज, बृहत्केतु.....विश्वसेन, शान्तिनाथ (तीर्थंकर), (पा.पु.४/२-९)। शान्तिवर्धन, शान्तिचन्द्र, चन्द्रचिह्न, कुरु....सूरसेन, कुन्थुनाथ भगवान् (६/२-३, २७)....अनेकों राजा हो चुकनेपर सुदर्शन (७/७), अरहनाथ, भगवान् अरविन्द, सुचार, शूर, पद्मरथ, मेघरथ, विष्णु व पद्मरथ (७/३६-३७) (इन्हीं विष्णुकुमारने अकम्पनाचार्य आदि ७०० मुनियोंका उपसर्ग दूर किया था) पद्मनाभ, महापद्म, सुपद्म, कीर्ति, सुकीर्ति वसुकीर्ति, वासुकि,.....अनेकों राजाओंके पश्चात् शान्तनु (शक्ति) राजा हुआ।</p> | |||
[[File: Itihaas_12.PNG ]] | |||
<h4 id="9.6" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.6 चन्द्रवंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">प.पु.५/१२ "सोम नाम चन्द्रमाका है सो सोमवंशको ही चन्द्रवंश कहते हैं। (ह.पु.१३/१६) विशेष दे. - `सोमवंश'</p> | |||
<h4 id="9.7" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.7 नाथवंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">पा.पु.२/१६३-१६५ "इसका केवल नाम निर्देश मात्र ही उपलब्ध है। दे. - `सामान्य राज्यवंश'</p> | |||
<h4 id="9.8" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.8 भोजवंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">ह.पु.२२/५१-५३ जब आदिनाथ भगवान् भरतेश्वरको राज्य देकर दीक्षित हुए थे, तब उनके साथ उग्रवंशीय, भोजवंशीय आदि चार हजार राजा भी तपमें स्थित हुए थे। परन्तु पीछे तप भ्रष्ट हो गये। उसमेंसे नमी व विनमि दो भाई भी थे। ह.पु.५५/७२,१११ "कृष्णने नेमिनाथके लिए जिस कुमारी राजीमतीकी याचनाकी थी वह भोजवंशियों की थी। नोट - इस वंशका विस्तार उपलब्ध नहीं है।</p> | |||
<h4 id="9.9" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.9 मातङ्गवंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">ह.पु.२२/११०-११३ "राजा विनमिके पुत्रोंमें जो मातङ्ग नामका पुत्र था, उसीसे मातङ्गवंशकी उत्पत्ति हुई। सर्व प्रथम राजा विनमिका पुत्र मातङ्ग हुआ। उसके बहुत पुत्र-पौत्र थे, जो अपनी-अपनी क्रियाओंके अनुसार स्वर्ग व मोक्षको प्राप्त हुए। इसके बहुत दिन पश्चात् इसी वंशमें एक प्रहसित राजा हुआ, उसका पुत्र सिंहदृष्ट था। नोट - इस वंशका अधिक विस्तार उपलब्ध नहीं है।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">१. मातङ्ग विद्याधरोंके चिन्ह -</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">ह.पु.२६/१५-२२ मातङ्ग जाति विद्याधरोंके भी सात उत्तर भेद हैं, जिनके चिन्ह व नाम निम्न हैं - मातङ्ग = नीले वस्त्र व नीली मालाओं सहित। श्मशान निलय = धूलि धूसरति तथा श्मशानकी हड्डियोंसे निर्मित आभूषणोंसे युक्त। पाण्डुक = नील वैडूर्य मणिके सदृश नीले वस्त्रोंसे युक्त। कालश्वपाकी = काले मृग चर्म व चमड़ेसे निर्मित वस्त्र व मालाओंसे युक्त। पार्वतये = हरे रंगके वस्त्रोंसे पत्रोंकी मालाओंसे युक्त। वार्क्षमूलिक = सर्प चिन्हके आभूषणसे युक्त।</p> | |||
<h4 id="9.10" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.10 यादव वंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">ह.पु. १८/५-६ हरिवंशमें उत्पन्न यदु राजासे यादववंशकी उत्पत्ति हुई। देखो ‘हरिवंश’।</p> | |||
[[File: Itihaas_13.PNG ]] | |||
[[File: Itihaas_14.PNG ]] | |||
[[File: Itihaas_15.PNG ]] | |||
<h4 id="9.11" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.11 रघुवंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">इक्ष्वाकु वंशमें उत्पन्न रघु राजासे ही सम्भवतः इस वंशकी उत्पत्ति है - दे. इक्ष्वाकुवंश - प.पु./सर्ग/श्लोक २२/१६०-१६२</p> | |||
[[File: Itihaas_16.PNG ]] | |||
<h4 id="9.12" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.12 राक्षसवंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">प.पु./सर्ग/श्लोक मेघवाहन नामक विद्याधरको राक्षसोंके इन्द्र भीम व सुभीमने भगवान् अजितनाथके समवशरणमें प्रसन्न होकर रक्षार्थ राक्षस द्वीपमें लंकाका राज्य दिया था। (५/१५९-१६०) तथा पाताल लंका व राक्षसी विद्या भी प्रदान की थी। (५/१६१-१६७) इसी मेघवाहनकी सन्तान परम्परामें एक राक्षस नामा राजा हुआ है, उसी के नामपर इस वंशका नाम `राक्षसवंश' प्रसिद्ध हुआ। (५/३७८) इसकी वंशावली निम्न प्रकार है-</p> | |||
[[File: Itihaas_17.PNG ]] | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">इस प्रकार मेघवाहनकी सन्तान परम्परा क्रमपूर्वक चलती रही (५/३७७) उसी सन्तान परम्परामें एक मनोवेग राजा हुआ (५/३७८)</p> | |||
[[File: Itihaas_18.PNG ]] | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">भीमप्रभ, पूर्जाह आदि १०८ पुत्र, जिनभास्कर, संपरिकीर्ति, सुग्रीव, हरिग्रीव, श्रीग्रीव, सुमुख, सुव्यक्त, अमृतवेग, भानुगति, चिन्तागति, इन्द्र, इन्द्रप्रभ, मेघ, मृगारिदमन, पवन, इन्द्रजित्, भानुवर्मा, भानु, भानुप्रभ, सुरारि, त्रिजट, भीम, मोहन, उद्धारक, रवि, चकार, वज्रमध्य, प्रमोद, सिंहविक्रम, चामुण्ड, मारण, भीष्म द्वीपवाह, अरिमर्दन, निर्वाणभक्ति, उग्रश्री, अर्हद्भक्ति, अनुत्तर, गतभ्रम, अनिल, चण्ड लंकाशोक, मयूरवान, महाबाहु, मनोरम्य, भास्कराभ, बृहद्गति, बृहत्कान्त, अरिसन्त्रास, चन्द्रावर्त, महारव, मेघध्वान, गृहक्षोभ, नक्षत्रदम आदि करोड़ों विद्याधर इस वंशमें हुए...धनप्रभ, कीर्तिधवल। (५/३८२-३८८)<br />भगवान् मुनिसुव्रतके तीर्थमें विद्युत्केश नामक राजा हुआ। (६/२२२-२२३) इसका पुत्र सुकेश हुआ। (६/३४१)</p> | |||
[[File: Itihaas_19.PNG ]] | |||
<h4 id="9.13" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.13 वानरवंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">प.पु./सर्ग/श्लोक नं. राक्षस वंशीय राजा कीर्तिध्वजने राजा श्रीकण्ठको (जब वह पद्मोत्तर विद्याधरसे हार गया) सुरक्षित रूपसे रहनेके लिए वानर द्वीप प्रदान किया था (६/८३-८४)। वहाँ पर उसने किष्कु पर्वतपर किष्कुपुर नगरीकी रचना की। वहाँ पर वानर अधिक रहते थे जिनसे राजा श्रीकण्ठको बहुत अधिक प्रेम हो गया था। (६/१०७-१२२)। तदनन्तर इसी श्रीकण्ठकी पुत्र परम्परामें अमरप्रभ नामक राजा हुआ। उसके विवाहके समय मण्डपमें वानरोंकी पंक्तियाँ चिह्नित की गयी थीं, तब अमरप्रभने वृद्ध मन्त्रियोंसे यह जाना कि "हमारे पूर्वजनों वानरोंसे प्रेम किया था तथा इन्हें मंगल रूप मानकर इनका पोषण किया था।" यह जानकर राजाने अपने मुकुटोंमें वानरोंके चिह्न कराये। उसी समयसे इस वंशका नाम वानरवंश पड़ गया। (६/१७५-२१७) (इसकी वंशावली निम्न प्रकार है) :-<br />प.पु.६/श्लोक विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका राजा अतीन्द्र (३) था। तदनन्तर श्रीकण्ठ (५), वज्रकण्ठ (१५२), वज्रप्रभ (१६०), इन्द्रमत (१६१) मेरु (१६१), मन्दर (१६१), समीरणगति (१६१), रविप्रभ (१६१), अमरप्रभ (१६२), कपिकेतु (१९८), प्रतिबल (२००), गगनानन्द (२०५), खेचरानन्द (२०५), गिरिनन्दन (२०५), इस प्रकार सैकड़ों राजा इस वंशमें हुए, उनमें से कितनोंने स्वर्ग व कितनोंने मोक्ष प्राप्त किया। (२०६)। जिस समय भगवान् मुनिसुव्रतका तीर्थ चल रहा था (२२२) तब इसी वंशमें एक महोदधि राजा हुआ (२१८)। उसका भी पुत्र प्रतिचन्द्र हुआ (३४९)।</p> | |||
[[File: Itihaas_20.PNG ]] | |||
<h4 id="9.14" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.14 विद्याधर वंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">जिस समय भगवान् ऋषभदेव भरतेश्वरको राज्य देकर दीक्षित हुए, उस समय उनके साथ चार हजार भोजवंशीय व उग्रवंशीय आदि राजा भी तपमें स्थित हुए थे। पीछे चलकर वे सब भ्रष्ट हो गये। उनमें-से नमि और विनमि आकर भगवान्के चरणोंमें राज्यकी इच्छासे बैठ गये। उसी समय रक्षामें निपुण धरणेन्द्रने अनेकों देवों तथा अपनी दीति और अदीति नामक देवियोंके साथ आकर इन दोनोंको अनेकों विद्याएँ तथा औषधियाँ दीं। (ह.पु.२२/५१-५३) इन दोनोंके वंशमें उत्पन्न हुए पुरुष विद्याएँ धारण करनेके कारण विद्याधर कहलाये।<br />(प.पु.६/१०)</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>१. विद्याधर जातियाँ</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">ह.पु.२२/७६-८३ नमि तथा विनमिने सब लोगोंको अनेक औषधियाँ तथा विद्याएँ दीं। इसलिए वे वे विद्याधर उस उस विद्यानिकायके नामसे प्रसिद्ध हो गये। जैसे.....गौरी विद्यासे गौरिक, कौशिकीसे कौशिक, भूमितुण्डसे भूमितुण्ड, मूलवीर्यसे मूलवीर्यक, शंकुकसे शंकुक, पाण्डुकीसे पाण्डुकेय, कालकसे काल, श्वपाकसे श्वपाकज, मातंगीसे मातंग, पर्वतसे पार्वतेय, वंशालयसे वंशालयगण, पांशुमूलिकसे पांशुमूलिक, वृक्षमूलसे वार्क्षमूल, इस प्रकार विद्यानिकायोंसे सिद्ध होनेवाले विद्याधरोंका वर्णन हुआ।<br />नोट - कथनपरसे अनुमान होता है कि विद्याधर जातियाँ दों भागोंमें विभक्त हो गयीं-आर्य व मातंग।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>२. आर्य विद्याधरोंके चिह्न</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">ह.पु./२६/६-१४ आर्य विद्याधरोंकी आठ उत्तर जातियाँ हैं, जिनके चिन्ह व नाम निम्न हैं-गौरिक-हाथमें कमल तथा कमलोंकी माला सहित। गान्धार-लाल मालाएँ तथा लाल कम्बलके वस्त्रोंसे युक्त। मानवपुत्रक-नाना वर्णोंसे युक्त पीले वस्त्रोंसहित। मनुपुत्रक-कुछ-कुछ लाल वस्त्रोंसे युक्त एवं मणियोंके आभूषणोंसे सहित। मूलवीर्य-हाथमें औषधि तथा शरीरपर नाना प्रकारके आभूषणों और मालाओं सहित। भूमितुण्ड-सर्व ऋतुओंकी सुगन्धिसे युक्त स्वर्णमय आभरण व मालाओं सहित। शंकुक-चित्रविचित्र कुण्डल तथा सर्पाकार बाजूबन्दसे युक्त। कौशिक-मुकुटोंपर सेहरे व मणि मय कुण्डलों से युक्त।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>३. मातंग विद्याधरोंके चिन्ह</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">- दे. मातंगवंश सं.९।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>४. विद्याधरकी वंशावली</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">१. विनमिके पुत्र-ह.पु./२२/१०३-१०६ "राजा विनमिके संजय, अरिंजय, शत्रुंजय, धनंजय, मणिधूल, हरिश्मश्रु, मेघानीक, प्रभंजन, चूडामणि, शतानीक, सहस्रानीक, सर्वंजय, वज्रबाहु, और अरिंदम आदि अनेक पुत्र हुए। ...पुत्रोंके सिवाय भद्रा और सुभद्रा नामकी दो कन्याएँ हुईं। इनमें-से सुभद्रा भरत चक्रवर्तीके चौदह रत्नोंमें-से एक स्त्री-रत्न थी।<br />२. नमिके पुत्र-ह.पु./२२/१०७/१०८ नमिके भी रवि, सोम, पुरहूत, अंशुमान, हरिजय, पुलस्त्य, विजय, मातंग, वासव, रत्नमाली (ह.पु./१३/२०) आदि अत्यधिक कान्तिके धारक अनेक पुत्र हुए और कनकपुंजश्री तथा कनकमंजरी नामकी दो कन्याएँ भी हुई।<br />ह.पु./१३/२०-२५ नमिके पुत्र रत्नमालीके आगे उत्तरोत्तर रत्नवज्र, रत्नरथ, रत्नचित्र, चन्द्ररथ, वज्रजंघ, वज्रसेन, वज्रदंष्ट्र, वज्रध्वज, वज्रायुध, वज्र, सुवज्र, वज्रभृत्, वज्राभ, वज्रबाहु, वज्रसंज्ञ, वज्रास्य, वज्रपाणि, वज्रजानु, वज्रवान, विद्युन्मुख, सुवक्त्र, विद्युदंष्ट्र, विद्युत्वान्, विद्युदाभ, विद्युद्वेग, वैद्युत, इस प्रकार अनेक राजा हुए। (प.पु.५/१६-२१)<br />प.पु.५/२५-२६......तदन्तर इसी वंशमें विद्युद्दृढ राजा हुआ (इसने संजयन्त मुनिपर उपसर्ग किया था)। तदनन्तर प.पु.५/४८-५४ दृढरथ, अश्वधर्मा, अश्वायु, अश्वध्वज, पद्मनिभ, पद्ममाली, पद्मरथ, सिंहयान, मृगोद्धर्मा, सिंहसप्रभु, सिंहकेतु, शशांकमुख, चन्द्र, चन्द्रशेखर, इन्द्र, चन्द्ररथ, चक्रधर्मा, चक्रायुध, चक्रध्वज, मणिग्रीव, मण्यंक, मणिभासुर, मणिस्यन्दन, मण्यास्य, विम्बोष्ठ, लम्बिताधर, रक्तोष्ठ, हरिचन्द्र, पुण्यचन्द्र, पूर्णचन्द्र बालेन्दु, चन्द्रचूड़, व्योमेन्दु, उडुपालन, एकचूड़, द्विचूड़, त्रिचूड़, वज्रचूड़, भरिचूड़, अर्कचूड़, वह्निजरी, वह्नितेज, इस प्रकार बहुत राजा हुए। अजितनाथ भगवान्के समयमें इस वंशमें एक पूर्णधन नामक राजा हुआ (प.पु.५/७८) जिसके मेघवाहनने धरणेन्द्रसे लंकाका राज्य प्राप्त किया (प.पु.५/१४९-१६०)। उससे राक्षसवंशकी उत्पत्ति हुई। - दे. राक्षस वंश</p> | |||
<h4 id="9.15" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.15 श्री वंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">ह.पु.१३/३३ भगवान् ऋषभदेवसे दीक्षा लेकर अनेक ऋषि उत्पन्न हुए उनका उत्कृष्ट वंश श्री वंश प्रचलित हुआ। नोट-इस वंशका नामोल्लेखके अतिरिक्त अधिक विस्तार उपलब्ध नहीं।</p> | |||
<h4 id="9.16" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.16 सूर्यवंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">ह.पु.१३/३३ ऋषभनाथ भगवान्के पश्चात् इक्ष्वाकु वंशकी दो शाखाएँ हों गयीं-एक सूर्यवंश व दूसरी चन्द्रवंश।<br />प.पु.५/४ सूर्यवंशकी शाखा भरतके पुत्र अर्ककीर्तिसे प्रारम्भ हुई क्योंकि अर्क नाम सूर्यका है।<br />प.पु.५/५६१ इस सूर्यवंशका नाम ही सर्वत्र इक्ष्वाकुवंश प्रसिद्ध है। - दे. इक्ष्वाकुवंश</p> | |||
<h4 id="9.17" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.17 सोमवंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">ह.पु.१३/१६ भगवान् ऋषभदेवकी दूसरी रानीसे बाहुबली नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, उसके भी सोमयश नामका सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। `सोम' नाम चन्द्रमाका है सो उसी सोमयशसे सोमवंश अथवा चन्द्रवंशकी परम्परा चली। (प.पु.१०/१३) प.पु.५/२ चन्द्रवंशका दूसरा नाम ऋषिवंश भी है। ह.पु.१३/१६-१७; प.पु.५/११-१४।</p> | |||
[[File: Itihaas_21.PNG ]] | |||
<h4 id="9.18" style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>9.18 हरिवंश</strong></h4> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">ह.पु.१५/५७-५८ हरि राजाके नामपर इस वंशकी उत्पत्ति हुई। (और भी दे. सामान्य राज्य वंश सं.१) इस वंशकी वंशावली आगममें तीन प्रकारसे वर्णनकी गयी। जिसमें कुछ भेद हैं। तीनों ही नीचे दी जाती हैं।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>१. हरिवंश पुराणकी अपेक्षा</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">ह.पु./सर्ग/श्लोक सर्व प्रथम आर्य नामक राजाका पुत्र हरि हुआ। इसीसे इस वंशकी उत्पत्ति हुई। उसके पश्चात् उत्तरोत्तर क्रमसे महागिरी, गिरि, आदि सैंकड़ों राजा इस वंशमें हुए (१५/५७-६१)। फिर भगवान् मुनिसुव्रत (१६/१२), सुव्रत (१६/५५) दक्ष, ऐलेय (१७/२,३), कुणिम (१७/२२) पुलोम, (१७/२४)</p> | |||
[[File: Itihaas_22.PNG ]] | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">मूल, शाल, सूर्य, अमर, देवदत्त, हरिषेण, नभसेन, शंख, भद्र, अभिचन्द्र, वसु (असत्यसे नरक गया) (१७/३१-३७)।</p> | |||
[[File: Itihaas_23.PNG ]] | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">तदनन्तर बृहद्रथ, दृढरथ, सुखरथ, दीपन, सागरसेन, सुमित्र, प्रथु, वप्रथु, बिन्दुसार, देवगर्भ, शतधनु,....लाखों राजाओंके पश्चात् निहतशत्रु सतपति, बृहद्रथ, जरासन्ध व अपराजित, तथा जरासन्ध के कालयवनादि सैकड़ों पुत्र हुए थे। (१८/१७-२५) बृहद्वसुका पुत्र सुबाहु, तदनन्तर, दीर्घबाहु, वज्रबाहु, लब्धाभिमान, भानु, यवु, सुभानु, कुभानु, भीम आदि सैकड़ों राजा हुए। (१८/१-५) भगवान् नमिनाथके तीर्थमें राजा यदु (१८/५) हुआ जिससे यादववंशकी उत्पत्ति हुई। - दे. यादववंश।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>२. पद्यपुराणकी अपेक्षा</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">प.पु.२१/श्लोक सं. हरि, महागिरि, वसुगिरि, इन्द्रगिरि, रत्नमाला, सम्भूत, भूतदेव, आदि सैकड़ों राजा हुए (८-९)। तदनन्तर इसी वंशमें सुमित्र (१०), मुनिसुव्रतनाथ (२२), सुव्रत, दक्ष, इलावर्धन, श्रीवर्धन, श्रीवृक्ष, संजयन्त, कुणिम, महारथ, पुलोमादि हजारों राजा बीतनेपर वासवकेतु राजा जनक मिथिलाका राजा हुआ। (४९-५५)</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;"><strong>३. महापुराण व पाण्डवपुराण की अपेक्षा</strong></p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">म.पु.७०/९०-१०१ मार्कण्डेय, हरिगिरि, हिमगिरि, वसुगिरि आदि सैंकड़ों राजा हुए। तदनन्तर इसी वंशमें</p> | |||
<p style="text-align: justify;"> </p> | |||
<h3 id="10" style="text-align: justify;"><strong>10. आगम समयानुक्रमणिका</strong></h3> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">नोट-प्रमाणके लिए दे. उस उसके रचयिताका नाम।</p> | |||
<p style="text-align: justify; padding-left: 30px;">संकेत सं. = संस्कृत; प्रा. = प्राकृत; अप. = अपभ्रंश; टी. = टीका; वृ. = वृत्ति; व. = वचनिका; प्र. = प्रथम; सि. = सिद्धान्त; श्वे. = श्वेताम्बर; क. = कन्नड; भ. = भट्टारक, भा. = भाषा; त. = तमिल; मरा. = मराठी; हिं. = हिन्दी; श्रा. = श्रावकाचार।</p> | |||
<table class="tableizer-table" style="margin-left: 30px;"> | |||
<thead> | |||
<tr class="tableizer-firstrow"> | |||
<th>क्रमांक</th> | |||
<th>ग्रन्थ</th> | |||
<th>समय ई. सन्</th> | |||
<th>रचयिता</th> | |||
<th>विषय</th> | |||
<th>भाषा</th> | |||
</tr> | |||
</thead> | |||
<tbody> | |||
<tr> | |||
<td>१. ईसवी शताब्दी १ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१</td> | |||
<td>लोकविनिश्चय</td> | |||
<td>अज्ञात</td> | |||
<td>अज्ञात</td> | |||
<td>यथानाम (गद्य)</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२</td> | |||
<td>भगवती आरा</td> | |||
<td>पूर्व पाद</td> | |||
<td>शिवकोटि</td> | |||
<td>यत्याचार</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३</td> | |||
<td>कषाय पाहुड़</td> | |||
<td>पूर्व पाद</td> | |||
<td>गुणधर</td> | |||
<td>मूल १८० गाथा</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४</td> | |||
<td>शिल्पड्डिकार</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>इलंगोवडि</td> | |||
<td>जीवनवृत्त (काव्य)</td> | |||
<td>त.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५</td> | |||
<td>जोणि पाहुड़</td> | |||
<td>४३</td> | |||
<td>धरसेन</td> | |||
<td>मन्त्र तन्त्र</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६</td> | |||
<td>षट्खण्डागम</td> | |||
<td>६६-१५६</td> | |||
<td>भूतबलि</td> | |||
<td>कर्मसिद्धान्त मूलसूत्र</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७</td> | |||
<td>व्याख्या प्र.</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>बप्पदेव</td> | |||
<td>आद्य ५ खण्डोंकी टीका</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२. ईसवी शताब्दी २ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८</td> | |||
<td>आप्तमीमांसा</td> | |||
<td>१२०-१८५</td> | |||
<td>समन्तभद्र</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९</td> | |||
<td>स्तुति विद्या (जिनशतक)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भक्ति</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०</td> | |||
<td>स्वयंभूस्तोत्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याययुक्त भक्ति</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११</td> | |||
<td>जीव सिद्धि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२</td> | |||
<td>तत्त्वानुशासन</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३</td> | |||
<td>युक्त्यनुशासन</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४</td> | |||
<td>कर्मप्राभृत टी.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्मसिद्धान्त</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५</td> | |||
<td>षटखण्ड टी.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>आद्य ५ खण्डों पर</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६</td> | |||
<td>गन्धहस्ती-महाभाष्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>तत्त्वार्थसूत्र टी.</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७</td> | |||
<td>रत्नकरण्ड श्रा.</td> | |||
<td>१२७-१७९</td> | |||
<td>शामकुण्ड</td> | |||
<td>श्रावकाचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८</td> | |||
<td>पद्धति टी.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>(कुन्दकुन्द)</td> | |||
<td>कषाय पा. तथा षट्खण्डागमकी टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९</td> | |||
<td>परिकर्म</td> | |||
<td>१२७-१७९</td> | |||
<td>कुन्दकुन्द</td> | |||
<td>षट्खण्डके आद्य ५ खण्डोंकी टीका</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०</td> | |||
<td>समयसार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१</td> | |||
<td>प्रवचनसार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२</td> | |||
<td>नियमसार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३</td> | |||
<td>रयणसार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४</td> | |||
<td>अष्ट पाहुड़</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५</td> | |||
<td>पञ्चास्तिकाय</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६</td> | |||
<td>वारस अणुवेक्खा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>वैराग्य</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७</td> | |||
<td>मूलाचार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यत्याचार</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८</td> | |||
<td>दश भक्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भक्ति</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९</td> | |||
<td>कार्तिकेयानुप्रे.</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>कुमार स्वामी</td> | |||
<td>वैराग्य</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०</td> | |||
<td>कषाय पाहुड़</td> | |||
<td>१४३-१७३</td> | |||
<td>यतिवृषभ</td> | |||
<td>मूल १८० गाथाओं पर चूर्णिसूत्र</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१</td> | |||
<td>तिल्लोयपण्णत्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>लोक विभाग</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२</td> | |||
<td>जम्बूद्वीप समास</td> | |||
<td>१७९-२४३</td> | |||
<td>उमास्वामी</td> | |||
<td>लोकविभाग</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३</td> | |||
<td>तत्त्वार्थसूत्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३. ईसवी शताब्दी ३ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४</td> | |||
<td>तत्त्वार्थाधिगम भाष्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>उमास्वाति संदिग्ध हैं।</td> | |||
<td>तत्त्वार्थसूत्र टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४. ईसवी शताब्दी ४ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५</td> | |||
<td>पउम चरिउ</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>विमलसूरि</td> | |||
<td>प्रथमानुयोग</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६</td> | |||
<td>द्वादशा चक्र</td> | |||
<td>३५७</td> | |||
<td>मल्लवादी</td> | |||
<td>न्याय (नयवाद)</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५. ईसवी शताब्दी ५ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७</td> | |||
<td>जैनेन्द्र व्याकरण</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>पूज्यपाद</td> | |||
<td>संस्कृत व्याकरण </td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८</td> | |||
<td>मुग्धबोध</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>संस्कृत व्याकरण</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९</td> | |||
<td>शब्दावतार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>संस्कृत शब्दकोश</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०</td> | |||
<td>छन्द शास्त्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>संस्कृत छन्द शास्त्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१</td> | |||
<td>वैद्यसार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>आयुर्वेद</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२</td> | |||
<td>सिद्धि प्रिय स्तोत्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>चतुर्विंशतिस्तव</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३</td> | |||
<td>दशभक्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भक्ति</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४</td> | |||
<td>शान्त्यष्टक</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भक्ति</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५</td> | |||
<td>सार संग्रह</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भक्ति</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६</td> | |||
<td>सर्वार्थ सिद्धि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>तत्त्वार्थसूत्र टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७</td> | |||
<td>आत्मानुशासन</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>त्रिविध आत्मा</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८</td> | |||
<td>समाधि तन्त्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९</td> | |||
<td>इष्टोपदेश</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>प्रेरणापरक उपदेश</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०</td> | |||
<td>कर्म प्रकृति संग्रहिणी</td> | |||
<td>४४३</td> | |||
<td>शिवशर्म सूरि (श्वे.)</td> | |||
<td>कर्मसिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१</td> | |||
<td>शतक</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२</td> | |||
<td>शतक चूर्णि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३</td> | |||
<td>लोक विभाग</td> | |||
<td>४५८</td> | |||
<td>सर्वनन्दि</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४</td> | |||
<td>बन्ध स्वामित्व</td> | |||
<td>४८०-५२८</td> | |||
<td>हरिभद्रसूरि (श्वे.)</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५</td> | |||
<td>जंबूदीव संघायणी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>लोक विभाग</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६</td> | |||
<td>षट्दर्शन समु.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७</td> | |||
<td>कर्मप्रकृति चूर्णि</td> | |||
<td>४९३-६९३</td> | |||
<td>अज्ञात</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६. ईसवी शताब्दी ६ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८</td> | |||
<td>परमात्मप्रकाश</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>योगेन्दुदेव</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९</td> | |||
<td>योगसार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०</td> | |||
<td>दोहापाहुड़</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१</td> | |||
<td>अध्यात्म सन्दोह</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६२</td> | |||
<td>सुभाषित तन्त्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६३</td> | |||
<td>तत्त्वप्रकाशिका</td> | |||
<td>श.६ उत्तरार्ध</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>तत्त्वार्थसूत्र टी.</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६४</td> | |||
<td>अमृताशीति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६५</td> | |||
<td>निजाष्टक</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>अप</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६६</td> | |||
<td>नवकार श्रा.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>श्रावकाचार</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६७</td> | |||
<td>पंचसंग्रह</td> | |||
<td>श.५-८</td> | |||
<td>अज्ञात</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६८</td> | |||
<td>चन्द्रप्रज्ञप्ति</td> | |||
<td>लगभग ५६०</td> | |||
<td>अज्ञात (श्वे.)</td> | |||
<td>ज्योतिष लोक</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६९</td> | |||
<td>सूर्यप्रज्ञप्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>ज्योतिष लोक</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७०</td> | |||
<td>ज्योतिष्करण्ड</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>ज्योतिष लोक</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७१</td> | |||
<td>जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>लोक विभाग</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७२</td> | |||
<td>कल्याण मन्दिर</td> | |||
<td>५६८</td> | |||
<td>सिद्धसेन </td> | |||
<td>भक्ति (स्तोत्र)</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७३</td> | |||
<td>सन्मति सूत्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>दिवाकर</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ, नयवाद</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७४</td> | |||
<td>द्वात्रिंशिका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भक्ति</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७५</td> | |||
<td>एकविंशतिगुणस्थान प्रकरण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>जीव काण्ड</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७६</td> | |||
<td>शाश्वत जिनस्तुति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>भक्ति</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७७</td> | |||
<td>रामकथा</td> | |||
<td>६००</td> | |||
<td>कीर्तिधर</td> | |||
<td>इसीके आधार पर पद्मपुराण रचा गया</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७८</td> | |||
<td>विशेषावश्यक भाष्य</td> | |||
<td>५९३</td> | |||
<td>जिनभद्रगणी (श्वे.)</td> | |||
<td>जैन दर्शन</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७९</td> | |||
<td>त्रिलक्षण कदर्थन</td> | |||
<td>ई. श. ६-७</td> | |||
<td>पात्रकेसरी</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८०</td> | |||
<td>जिनगुण स्तुति (पात्रकेसरी स्त.)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भक्ति</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>७. ईसवी शताब्दी ७ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८१</td> | |||
<td>सप्ततिका (सत्तरि)</td> | |||
<td>पूर्वपद</td> | |||
<td>अज्ञात</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८२</td> | |||
<td>बृ. क्षेत्र समास</td> | |||
<td>६०९</td> | |||
<td>जिनभद्र गणी</td> | |||
<td>अढाई द्वीप</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८३</td> | |||
<td>बृ. संघायणी सुत्त</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>आयु अवगाहना आदि</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८४</td> | |||
<td>भक्तामर स्तोत्र</td> | |||
<td>६१८</td> | |||
<td>मानतुंग</td> | |||
<td>भक्ति</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८५</td> | |||
<td>राजवार्तिक</td> | |||
<td>६२०-६८०</td> | |||
<td>अकलंक भट्ट</td> | |||
<td>तत्त्वार्थसूत्र टी.</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८६</td> | |||
<td>अष्टशती</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>आप्त मी. टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८७</td> | |||
<td>लघीयस्त्रय</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८८</td> | |||
<td>बृहद् त्रयम्</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८९</td> | |||
<td>न्यायविनिश्चय</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९०</td> | |||
<td>सिद्धि विनिश्चय</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९१</td> | |||
<td>प्रमाण संग्रह</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९२</td> | |||
<td>न्याय चूलिका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९३</td> | |||
<td>स्वरूप सम्बो.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९४</td> | |||
<td>अकलंक स्तोत्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भक्ति</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९५</td> | |||
<td>जीवक चिन्तामणि</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>तिरुतक्कतेवर</td> | |||
<td>तमिल काव्य</td> | |||
<td>त.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९६</td> | |||
<td>पद्मपुराण</td> | |||
<td>६७७</td> | |||
<td>रविषेण </td> | |||
<td>जैन रामायण</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९७</td> | |||
<td>लघु तत्त्वार्थ सूत्र</td> | |||
<td>७००</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्रबृ.</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९८</td> | |||
<td>कर्म स्तव</td> | |||
<td>ई.श. ७-८</td> | |||
<td>अज्ञात</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>८. ईसवी शताब्दी ८ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९९</td> | |||
<td>तत्त्वार्थाधिगम भाष्य लघु वृत्ति</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>हरिभद्र (याकिनी सूनु)</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१००</td> | |||
<td>पउमचरिउ</td> | |||
<td>७३४-८४०</td> | |||
<td>कविस्वयंभू</td> | |||
<td>जैन रामायण</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०१</td> | |||
<td>रिट्ठणेमि चरिउ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>नेमिनाथ चारित्र</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०२</td> | |||
<td>स्वयम्भू छन्द</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>छन्द शास्त्र</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०३</td> | |||
<td>विजयोदया</td> | |||
<td>७३६</td> | |||
<td>अपराजित सूरि</td> | |||
<td>भगवती आराधना टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०४</td> | |||
<td>प्रामाण्य भंग</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>अनन्तकीर्ति</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०५</td> | |||
<td>सत्कर्म</td> | |||
<td>७७०-८२७</td> | |||
<td>वीरसेन</td> | |||
<td>षट्खण्डागमका अतिरिक्त अधि.</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०६</td> | |||
<td>धवला</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>षट्खण्डागम टी.</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०७</td> | |||
<td>जय धवला</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कषाय पाहुड़ टी.</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०८</td> | |||
<td>शतकचूर्णि बृहत्</td> | |||
<td>७७०-८६०</td> | |||
<td>अज्ञात (श्वे.)</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०९</td> | |||
<td>गद्य चिन्तामणि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>वादीभसिंह</td> | |||
<td>जीवन्धर चरित्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११०</td> | |||
<td>छत्र चूड़ामणि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>जीवन्धर चरित्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१११</td> | |||
<td>अष्ट सहस्री</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>विद्यानन्दि</td> | |||
<td>अष्टशतीकी टी.</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११२</td> | |||
<td>आप्त परीक्षा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११३</td> | |||
<td>पत्र परीक्षा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११४</td> | |||
<td>प्रमाण परीक्षा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११५</td> | |||
<td>प्रमाण मीमांसा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११६</td> | |||
<td>जल्प निर्णय</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११७</td> | |||
<td>नय विवरण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११८</td> | |||
<td>युक्त्यनुशासन</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११९</td> | |||
<td>सत्य शासन परीक्षा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२०</td> | |||
<td>श्लोकवार्तिक</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>तत्त्वार्थसूत्र टी.</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२१</td> | |||
<td>विद्यानन्द महोदय</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सर्वप्रथम रचना न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२२</td> | |||
<td>बुद्धेशभवन व्याख्यान</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२३</td> | |||
<td>श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ स्तोत्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२४</td> | |||
<td>वाद न्याय</td> | |||
<td>७७६</td> | |||
<td>कुमार नन्दि</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२५</td> | |||
<td>हरिवंश पुराण</td> | |||
<td>७८३</td> | |||
<td>जिनसेन १</td> | |||
<td>प्रथमानुयोग</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२६</td> | |||
<td>चन्द्रोदय</td> | |||
<td>७९७ से पहले</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र ३</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२७</td> | |||
<td>ज्योतिर्ज्ञानविधि</td> | |||
<td>७९९</td> | |||
<td>श्रीधर</td> | |||
<td>ज्योतिष शास्त्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२८</td> | |||
<td>द्विसन्धान महाकाव्य</td> | |||
<td>अन्तपाद</td> | |||
<td>धनञ्जय</td> | |||
<td>पाण्डव चरित्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२९</td> | |||
<td>विषापहार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>स्तोत्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३०</td> | |||
<td>धनञ्जय निघण्टु</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>संस्कृत शब्दकोश</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३१</td> | |||
<td>तत्त्वार्थाधिगम भाष्यवृत्ति</td> | |||
<td>ई.श. ८-९</td> | |||
<td>सिद्धसेनगणी</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ भाष्यकी टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३२</td> | |||
<td>जातक तिलक</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>श्रीधर</td> | |||
<td>ज्योतिष</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३३</td> | |||
<td>ज्योतिर्ज्ञानविधि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>ज्योतिष</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३४</td> | |||
<td>गणितसार संग्रह</td> | |||
<td>८००-८३०</td> | |||
<td>महावीराचा.</td> | |||
<td>ज्योतिष</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>९ ईसवी शताब्दी ९ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३५</td> | |||
<td>केवलिभुक्ति प्रकरण</td> | |||
<td>८१४</td> | |||
<td>शाकटायन पाल्यकीर्ति</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३६</td> | |||
<td>स्त्रीमुक्ति प्रकरण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३७</td> | |||
<td>शब्दानुशासन</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सं. व्याकरण</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३८</td> | |||
<td>आदिपुराण</td> | |||
<td>८१८-८७८</td> | |||
<td>जिनसेन २</td> | |||
<td>ऋषभदेव चरित</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३९</td> | |||
<td>पार्श्वाभ्युदय</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कमठ उपसर्ग</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४०</td> | |||
<td>कर्मविपाक</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>गर्गर्षि श्वे.</td> | |||
<td>कर्मसिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४१</td> | |||
<td>कल्याणकारक</td> | |||
<td>८२८</td> | |||
<td>उग्रादित्य</td> | |||
<td>आयुर्वेद</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४२</td> | |||
<td>वागर्थ संग्रह</td> | |||
<td>८३७</td> | |||
<td>कविपरमेष्ठी</td> | |||
<td>६३ शलाका पु.</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४३</td> | |||
<td>सत्कर्म पंजिका</td> | |||
<td>८२७ के पश्चात्</td> | |||
<td>अज्ञात</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४४</td> | |||
<td>लीलाविस्तार टीका</td> | |||
<td>८४०-८५२</td> | |||
<td>हेमचन्द्र सूरि (श्वे.)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४५</td> | |||
<td>लघुसर्वज्ञ सिद्धि</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>अनन्तकीर्ति</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४६</td> | |||
<td>बृ. सर्वज्ञ सिद्धि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४७</td> | |||
<td>जिनदत्त चरित</td> | |||
<td>८७०-९००</td> | |||
<td>गुणभद्र</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४८</td> | |||
<td>उत्तरपुराण</td> | |||
<td>८९८</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>२३ तीर्थंकरोंका जीवन वृत्त</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४९</td> | |||
<td>आत्मानुशासन</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>त्रिविध आत्मा</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५०</td> | |||
<td>भविसयत्त कहा</td> | |||
<td>अन्तपाद</td> | |||
<td>धनपाल कवि</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१०. ईसवी शताब्दी १० :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५१</td> | |||
<td>उपमिति भव प्रपञ्च कथा</td> | |||
<td>९०५</td> | |||
<td>सिद्धर्थि (श्वे.)</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५२</td> | |||
<td>आत्मख्याति</td> | |||
<td>९०५-९५५</td> | |||
<td>अमृतचन्द्र</td> | |||
<td>समयसार टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५३</td> | |||
<td>समयसार कलश</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५४</td> | |||
<td>तत्त्वप्रदीपिका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>प्रवचनसार टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५५</td> | |||
<td>तत्त्वप्रदीपिका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पञ्चास्तिकाय टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५६</td> | |||
<td>तत्त्वार्थसार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५७</td> | |||
<td>पुरुषार्थ सिद्धि उपाय</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>श्रावकाचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५८</td> | |||
<td>जीवन्धर चम्पू</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>हरिचन्द्र</td> | |||
<td>जीवन्धर चरित्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५९</td> | |||
<td>त्रिलोकसार टी.</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>माधवचन्द्र त्रैविद्य</td> | |||
<td>लोक विभाग</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६०</td> | |||
<td>नीतिसार</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>इन्द्रनन्दि</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६१</td> | |||
<td>वाद महार्णव</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>अभयदेव (श्वे.)</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६२</td> | |||
<td>सप्ततिका चूर्णि</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>अज्ञात (श्वे.)</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६३</td> | |||
<td>बृ. कथा कोष</td> | |||
<td>९३१</td> | |||
<td>हरिषेण</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६४</td> | |||
<td>भावसंग्रह</td> | |||
<td>९४८</td> | |||
<td>देवसेन</td> | |||
<td>अन्य मत निन्दा</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६५</td> | |||
<td>दर्शन</td> | |||
<td>९३३</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अन्य मत निन्दा</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६६</td> | |||
<td>तत्त्वसार</td> | |||
<td>९३३-९५५</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६७</td> | |||
<td>ज्ञानसार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६८</td> | |||
<td>आराधनासार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>चतुर्विध आराधना</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६९</td> | |||
<td>आलाप पद्धति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>नयवाद</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७०</td> | |||
<td>नय चक्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>नयवाद</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७१</td> | |||
<td>सार समुच्चय</td> | |||
<td>९३७</td> | |||
<td>कुलभद्र</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७२</td> | |||
<td>ज्वालामालिनी कल्प</td> | |||
<td>९३९</td> | |||
<td>इन्द्रनन्दि</td> | |||
<td>मन्त्र तन्त्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७३</td> | |||
<td>सत्त्व त्रिभंगी</td> | |||
<td>९३९</td> | |||
<td>कनकन्न्दि</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७४</td> | |||
<td>पार्श्वपुराण</td> | |||
<td>९४२</td> | |||
<td>पद्मकीर्ति</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७५</td> | |||
<td>तात्पर्यवृत्ति</td> | |||
<td>९४३</td> | |||
<td>समन्तभद्र २</td> | |||
<td>अष्टसहस्री टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७६</td> | |||
<td>योगसार</td> | |||
<td>९४३</td> | |||
<td>अमितगति १</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७७</td> | |||
<td>पुराण संग्रह</td> | |||
<td>९४३-९७३</td> | |||
<td>दामनन्दि</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७८</td> | |||
<td>महावृत्ति</td> | |||
<td>९४३-९९३</td> | |||
<td>अभयनन्दि</td> | |||
<td>जैन व्याकरण टी.</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७९</td> | |||
<td>कर्मप्रकृति रहस्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८०</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ वृत्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ सूत्र टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८१</td> | |||
<td>आयज्ञान</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>भट्टवोसरि</td> | |||
<td>ज्योतिष</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८२</td> | |||
<td>जयसहर चरिउ</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>पुष्पदन्तकवि</td> | |||
<td>यशोधर चरित्र</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८३</td> | |||
<td>णायकुमार चरिउ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>नागकुमार चरित्र</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८४</td> | |||
<td>नीतिवाक्यामृत</td> | |||
<td>९४३-९६८</td> | |||
<td>सोमदेव</td> | |||
<td>राज्यनीति</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८५</td> | |||
<td>यशस्तिलक</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यशोधर चरित्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८६</td> | |||
<td>अध्यात्मतरंगिनी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८७</td> | |||
<td>स्याद्वादो नषद्</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८८</td> | |||
<td>षण्णवति करण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८९</td> | |||
<td>त्रिवर्ण महेन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९०</td> | |||
<td>मातलि जल्प</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९१</td> | |||
<td>युक्तिचिन्तामणि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९२</td> | |||
<td>योग मार्ग</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९३</td> | |||
<td>चन्द्रप्रभ चरित्र</td> | |||
<td>९५०-९९९</td> | |||
<td>वीरनन्दि</td> | |||
<td>यथानाम काव्य</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९४</td> | |||
<td>शिल्पि संहिता</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९५</td> | |||
<td>अर्हत्प्रवचन</td> | |||
<td>९५०-१०२०</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र ५</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९६</td> | |||
<td>प्रवचन सारोद्धार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>प्रवचनसार टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९७</td> | |||
<td>पञ्चास्ति प्रदीप</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पञ्चास्तिकाय टी.</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९८</td> | |||
<td>गद्यकथा कोष</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९९</td> | |||
<td>तत्त्वार्थवृत्तिपद</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सर्वार्थसिद्धि टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२००</td> | |||
<td>समाधितन्त्रटी.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०१</td> | |||
<td>महापुराणतिसट्टिमहापुरिस</td> | |||
<td>९६५</td> | |||
<td>पुष्पदन्तकवि</td> | |||
<td>आदिपुराण व उत्तरपुराण</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०२</td> | |||
<td>करकंड चरिउ</td> | |||
<td>९६५-१०५१</td> | |||
<td>कनकामर</td> | |||
<td>महाराजा करकंडु</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०३</td> | |||
<td>प्रद्युम्न चरित</td> | |||
<td>९७४</td> | |||
<td>महासेन</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०४</td> | |||
<td>सिद्धिविनिश्चय टीका</td> | |||
<td>९७५-१०२२</td> | |||
<td>अनन्तवीर्य</td> | |||
<td>यथा नाम न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०५</td> | |||
<td>प्रमाणसंग्रहालंकार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>प्रमाण संग्रह टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०६</td> | |||
<td>जम्बूदीव पण्णत्ति</td> | |||
<td>९७७-१०४३</td> | |||
<td>पद्मनन्दि</td> | |||
<td>लोक विभाग</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०७</td> | |||
<td>पंचसंग्रह वृत्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>जीवकाण्ड</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०८</td> | |||
<td>धम्मसायण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>वैराग्य</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२०९</td> | |||
<td>गोमट्टसार</td> | |||
<td>९८१ के</td> | |||
<td>नेमिचन्द्र</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१०</td> | |||
<td>त्रिलोकसार</td> | |||
<td>आसपास</td> | |||
<td>(सिद्धान्त चक्रवर्ती)</td> | |||
<td>लोक विभाग</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२११</td> | |||
<td>लब्धिसार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>उपशम विधान</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१२</td> | |||
<td>क्षपणसार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>क्षपणा विधान</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१३</td> | |||
<td>वीर मातण्डी</td> | |||
<td>९८१ के</td> | |||
<td>चामुण्डराय</td> | |||
<td>गो.सा. वृत्ति</td> | |||
<td>क.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१४</td> | |||
<td>चारित्रसार</td> | |||
<td>आस-पास</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यत्याचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१५</td> | |||
<td>चामुण्डराय पुराण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>शलाका पुरुष</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१६</td> | |||
<td>धम्म परिक्खा</td> | |||
<td>९८७</td> | |||
<td>हरिषेण</td> | |||
<td>वैदिकका उपहास</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१७</td> | |||
<td>धर्मशर्माभ्युदय</td> | |||
<td>९८८</td> | |||
<td>असग कवि</td> | |||
<td>धर्मनाथ चरित</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१८</td> | |||
<td>वर्द्धमान चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२१९</td> | |||
<td>शान्तिनाथ चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२०</td> | |||
<td>छन्दोबिन्दु</td> | |||
<td>९९०</td> | |||
<td>नागवर्म</td> | |||
<td>छन्दशास्त्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२१</td> | |||
<td>महापुराण</td> | |||
<td>९९०</td> | |||
<td>मल्लिषेण</td> | |||
<td>शलाका पुरुष</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२२</td> | |||
<td>पंचसंग्रह</td> | |||
<td>अन्तपाद</td> | |||
<td>ढड्ढा</td> | |||
<td>मूलका रूपान्तर</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२३</td> | |||
<td>धर्म रत्नाकर</td> | |||
<td>९९८</td> | |||
<td>जयसेन १</td> | |||
<td>श्रावकाचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२४</td> | |||
<td>दोहा पाहुड</td> | |||
<td>१०००</td> | |||
<td>अनुमानतः देवसेन</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२५</td> | |||
<td>जैनतर्क वार्तिक</td> | |||
<td>९९३-१११८</td> | |||
<td>शान्त्याचार्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२६</td> | |||
<td>पंचसंग्रह</td> | |||
<td>९९३-१०२३</td> | |||
<td>अमितगति १</td> | |||
<td>मूलके आधार पर</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२७</td> | |||
<td>सार्धद्वय प्रज्ञप्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अढाई द्वीप</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२८</td> | |||
<td>जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>जम्बूद्वीप</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२२९</td> | |||
<td>चन्द्र प्रज्ञप्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>ज्योतिष लोक</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३०</td> | |||
<td>व्याख्या प्रज्ञप्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३१</td> | |||
<td>आराधना प्रज्ञप्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भगवती आरा. के मूलार्थक श्ल.</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३२</td> | |||
<td>श्रावकाचार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३३</td> | |||
<td>द्वात्रिंशतिका (सामायिक पाठ)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>वैराग्य</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३४</td> | |||
<td>सुभाषित रत्न सन्दोह</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्माचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३५</td> | |||
<td>छेद पिण्ड</td> | |||
<td>श. १०-११</td> | |||
<td>इन्द्रनन्दि</td> | |||
<td>यत्याचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>११. ईसवी शताब्दी ११ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३६</td> | |||
<td>परीक्षामुख</td> | |||
<td>१००३</td> | |||
<td>माणिक्यनंदि</td> | |||
<td>न्याय सूत्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३७</td> | |||
<td>प्रमेयकमल मार्तण्ड</td> | |||
<td>१००३-१०६५ (९८०-१०६५)</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र ५</td> | |||
<td>परीक्षामुख टी. न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३८</td> | |||
<td>न्यायकुमुदचन्द्र (लघीस्त्रयालंकार)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>लघीस्त्रय टीका न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२३९</td> | |||
<td>शाकटायन न्यास</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>व्याकरण</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४०</td> | |||
<td>शब्दाम्भोज भास्कर</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>शब्दकोश</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४१</td> | |||
<td>महापुराण टिप्पणी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>प्रथमानुयोग</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४२</td> | |||
<td>क्रियाकलाप टी.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४३</td> | |||
<td>समयसार टी.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४४</td> | |||
<td>ज्ञानार्णव</td> | |||
<td>१००३-१०६८</td> | |||
<td>शुभचन्द्र</td> | |||
<td>अध्यात्माचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४५</td> | |||
<td>पुराणसार संग्रह</td> | |||
<td>१००९</td> | |||
<td>श्री चन्द्र</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४६</td> | |||
<td>एकीभाव स्तोत्र</td> | |||
<td>१०१०-१०६५</td> | |||
<td>वादिराज</td> | |||
<td>भक्ति</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४७</td> | |||
<td>न्यायविनिश्चय विवरण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय वि टीका न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४८</td> | |||
<td>प्रमाण निर्णय</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२४९</td> | |||
<td>यशोधर चारित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५०</td> | |||
<td>धर्म परीक्षा</td> | |||
<td>१०१३</td> | |||
<td>अमितगति १</td> | |||
<td>अन्यमत उपहास</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५१</td> | |||
<td>पंचसंग्रह</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त (मूलके आधारपर)</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५२</td> | |||
<td>द्रव्य संग्रह लघु</td> | |||
<td>१०१८-१०६८</td> | |||
<td>नेमिचन्द्र २</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५३</td> | |||
<td>द्रव्य संग्रह बृ.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सिद्धा. देव</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५४</td> | |||
<td>द्रव्य संग्रह वृत्ति</td> | |||
<td>९८०-१०६५</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र ५</td> | |||
<td>लघु द्रव्यसंग्रह टी.</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५५</td> | |||
<td>जंबूसामि चरिउ</td> | |||
<td>१०१९</td> | |||
<td>कवि वीर</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५६</td> | |||
<td>कथाकोष</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>ब्रह्मदेव</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५७</td> | |||
<td>बृ. द्रव्य संग्रहटी.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५८</td> | |||
<td>तत्त्वदीपिका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२५९</td> | |||
<td>प्रतिष्ठा तिलक</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पूजापाठ</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६०</td> | |||
<td>चंदप्पह चरिउ</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>यशःकीर्ति</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६१</td> | |||
<td>पार्श्वनाथ चरित्र</td> | |||
<td>१०२५</td> | |||
<td>वादिराज २</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६२</td> | |||
<td>ज्ञानसार</td> | |||
<td>१०२९</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>कर्महेतुक भ्रमण</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६३</td> | |||
<td>अर्धकाण्ड</td> | |||
<td>१०३२</td> | |||
<td>दुर्ग देव</td> | |||
<td>मन्त्र तन्त्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६४</td> | |||
<td>मन्त्र महोदधि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>मन्त्र तन्त्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६५</td> | |||
<td>मरण काण्डिका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>मन्त्र तन्त्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६६</td> | |||
<td>रिष्ट समुच्चय</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>मन्त्र तन्त्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६७</td> | |||
<td>सयलविहिविहाण</td> | |||
<td>१०४३</td> | |||
<td>नय नन्दि</td> | |||
<td>श्रावकाचार</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६८</td> | |||
<td>सुदंसण चरिउ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२६९</td> | |||
<td>काम चाण्डाली कल्प</td> | |||
<td>१०४७</td> | |||
<td>मल्लिषेण</td> | |||
<td>मन्त्र तन्त्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७०</td> | |||
<td>ज्वालिनी कल्प</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>मन्त्र तन्त्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७१</td> | |||
<td>भैरव पद्मावती</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>मन्त्र तन्त्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७२</td> | |||
<td>सरस्वती मन्त्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>मन्त्र तन्त्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७३</td> | |||
<td>वज्रपंजर विधान</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>मन्त्र तन्त्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७४</td> | |||
<td>नागकुमार काव्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७५</td> | |||
<td>सज्जन चित्त</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्मोपदेश</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७६</td> | |||
<td>कर्म प्रकृति</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>नेमिचन्द्र ३</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७७</td> | |||
<td>तत्त्वानुशासन</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>रामसेन</td> | |||
<td>ध्यान</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७८</td> | |||
<td>पंचविंशतिका</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>पद्मनन्दि</td> | |||
<td>अध्यात्माचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२७९</td> | |||
<td>चरणसार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्माचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८०</td> | |||
<td>एकत्व सप्ततिका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>शुद्धात्मस्वरूप</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८१</td> | |||
<td>निश्चय पंचाशत</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>शुद्धात्मस्वरूप</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८२</td> | |||
<td>हरिवंश पुराण</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>कवि धवल</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८३</td> | |||
<td>कथाकोष</td> | |||
<td>१०६६</td> | |||
<td>श्रीचन्द</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८४</td> | |||
<td>दंसणकह रयणकरंडु</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कथाओंके द्वारा धर्मोपदेश</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८५</td> | |||
<td>प्रवचन सारोद्धार (श्वे.)</td> | |||
<td>१०६२-१०९३ (१०८०)</td> | |||
<td>नेमिचन्द्र ४ (श्वे.)</td> | |||
<td>गति अगति आयु आदि</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८६</td> | |||
<td>सुख बोधिनी बृ.</td> | |||
<td>१०७२</td> | |||
<td>नेमिचन्द्र ४ (श्वे.)</td> | |||
<td>उत्तराध्ययन सूत्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८७</td> | |||
<td>श्रावकाचार</td> | |||
<td>१०६८-१११८</td> | |||
<td>वसुनन्दि</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८८</td> | |||
<td>प्रतिष्ठासार संग्रह</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२८९</td> | |||
<td>सार्ध शतक</td> | |||
<td>१०७५-१११०</td> | |||
<td>जिनवल्लभ</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९०</td> | |||
<td>नेमिनिर्वाणकाव्य</td> | |||
<td>१०७५-११२५</td> | |||
<td>वाग्भट्ट</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९१</td> | |||
<td>सुलोयणा चरिउ</td> | |||
<td>१०७५</td> | |||
<td>देवसेन मुनि</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९२</td> | |||
<td>पारसणाह चरिउ</td> | |||
<td>१०७७</td> | |||
<td>पद्मकीर्ति</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९३</td> | |||
<td>पारसणाह चरिउ</td> | |||
<td>अन्त पाद</td> | |||
<td>कवि देवचन्द्र</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९४</td> | |||
<td>सिद्धान्तसार संग्रह</td> | |||
<td>अन्तपाद</td> | |||
<td>नरेन्द्र सेन</td> | |||
<td>तत्त्वार्थसूत्रका सार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९५</td> | |||
<td>प्रमाण मीमांसा</td> | |||
<td>१०८८-११७</td> | |||
<td>हेमचन्द्रसूरि</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९६</td> | |||
<td>शब्दानुशासन</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>संस्कृत शब्दकोश</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९७</td> | |||
<td>अभिधान-चिन्तामणि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>संस्कृत शब्दकोश</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९८</td> | |||
<td>देशीनाममाला</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>संस्कृत शब्द कोश</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>२९९</td> | |||
<td>काव्यानुशासन</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>काव्य शिक्षा</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३००</td> | |||
<td>द्वयाश्रयमहाकाव्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०१</td> | |||
<td>योगशास्त्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>ध्यान समाधि</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०२</td> | |||
<td>द्वात्रिंशिका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०३</td> | |||
<td>चन्द्रप्रभचारित्र</td> | |||
<td>१०८९</td> | |||
<td>कवि अग्गल</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>कन्न.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०४</td> | |||
<td>तात्पर्य वृत्ति</td> | |||
<td>श. ११-१२</td> | |||
<td>जयसेन</td> | |||
<td>समयसार टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>प्रवचनसार टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पंचास्तिकाय टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०५</td> | |||
<td>वैराग्गसार</td> | |||
<td>श. ११-१२</td> | |||
<td>सुभद्राचार्य</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१२ ईसवी शताब्दी १२ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०६</td> | |||
<td>प्रमेयरत्नकोष</td> | |||
<td>११०२</td> | |||
<td>चन्द्रप्रभसूरि (श्वे.)</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०७</td> | |||
<td>स्याद्वाद् सिद्धि</td> | |||
<td>११०३</td> | |||
<td>वादीभ सिंह</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०८</td> | |||
<td>तत्त्वार्थसूत्र वृत्ति</td> | |||
<td>पूर्व पाद</td> | |||
<td>बालचन्द्र मुनि</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३०९</td> | |||
<td>धर्म परीक्षा</td> | |||
<td>पूर्वार्ध</td> | |||
<td>वृत्ति विलास</td> | |||
<td>वैदिकोंका उपहास</td> | |||
<td>कन्नड़</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१०</td> | |||
<td>प्रमाणनय तत्त्वालङ्कार (स्याद्वाद रत्नाकर)</td> | |||
<td>१११७-६९</td> | |||
<td>वादिदेव सूरि (श्वे.)</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३११</td> | |||
<td>आचार सार</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>वीर नन्दि</td> | |||
<td>यत्याचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१२</td> | |||
<td>पार्श्वनाथ स्तोत्र</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>पद्मप्रभ</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१३</td> | |||
<td>नियमसार टीका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>मल्लधारी देव</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१४</td> | |||
<td>कन्नड़ व्याकरण</td> | |||
<td>११२५</td> | |||
<td>नयसेन</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>कन्नड़.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१५</td> | |||
<td>धर्मामृत</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कथा संग्रह</td> | |||
<td>कन्नड़</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१६</td> | |||
<td>ब्रह्म विद्या</td> | |||
<td>११२८</td> | |||
<td>मल्लिषेण</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१७</td> | |||
<td>पासणाह चरिउ</td> | |||
<td>११३२</td> | |||
<td>कवि श्रीधर २</td> | |||
<td>पार्श्वनाथ चरित्र</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१८</td> | |||
<td>वड्ढमाण चरिउ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>वर्द्धमान चरित्र</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१९</td> | |||
<td>संतिणाह चरिउ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>शान्तिनाथ चरित्र</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२०</td> | |||
<td>भविसयत्त चरिउ</td> | |||
<td>११४३</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भविष्यदत्त चरित्र</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२१</td> | |||
<td>सितपट चौरासी</td> | |||
<td>११४३-११६७</td> | |||
<td>पं. हेमचन्द</td> | |||
<td>यशोविजयके दिग्पट चौरासीका उत्तर</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२२</td> | |||
<td>सुअंध दहमी कहा</td> | |||
<td>११५०-९६</td> | |||
<td>उदय चन्द</td> | |||
<td>सुगन्धदशमी कथा</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२३</td> | |||
<td>सुकुमाल चरिउ</td> | |||
<td>११५१</td> | |||
<td>श्रीधर ३</td> | |||
<td>सुकुमालचरित्र</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२४</td> | |||
<td>अञ्जनापवनंजय</td> | |||
<td>११६१-११८१</td> | |||
<td>हस्तिमल</td> | |||
<td>यथा नाम नाटक</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२५</td> | |||
<td>मैथिली कल्याणम्</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सीता-राम प्रेम नाटक</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२६</td> | |||
<td>विक्रान्त कौरव</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सुलोचना नाटक</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२७</td> | |||
<td>सुभद्रानाटिका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भरत-सुभद्रा प्रेम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२८</td> | |||
<td>अनगार धर्मा</td> | |||
<td>११७३-१२४३</td> | |||
<td>पं. आशाधर</td> | |||
<td>यत्याचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३२९</td> | |||
<td>मूलाराधना दर्पण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यत्याचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३०</td> | |||
<td>सागार धर्मामृत</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>श्रावकाचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३१</td> | |||
<td>क्रिया कलाप</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>व्याकरण</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३२</td> | |||
<td>अध्यात्म रहस्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३३</td> | |||
<td>इष्टोपदेश टीका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्मोपदेश</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३४</td> | |||
<td>ज्ञानदीपिका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३५</td> | |||
<td>प्रमेय रत्नाकर</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३६</td> | |||
<td>वाग्भट्टसंहिता</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३७</td> | |||
<td>काव्यालङ्कार टी.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>काव्य शिक्षा</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३८</td> | |||
<td>अमरकोष टीका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>संस्कृत शब्दकोष</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३३९</td> | |||
<td>भव्यकुमुद चन्द्रिका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४०</td> | |||
<td>अष्टाङ्ग हृदयोद्योत</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४१</td> | |||
<td>भरतेश्वराभ्युदय काव्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भरत चक्री चरित्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४२</td> | |||
<td>त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>शलाका पुरुष</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४३</td> | |||
<td>राजमतिविप्रलम्भ सटीक</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>नेमिराजुल संवाद</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४४</td> | |||
<td>भूपाल चतुर्विंशतिका टीका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४५</td> | |||
<td>नित्य महोद्योत</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पूजा पाठ</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४६</td> | |||
<td>जिनयज्ञ कल्प</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पूजा पाठ</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४७</td> | |||
<td>प्रतिष्ठा पाठ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पूजा पाठ</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४८</td> | |||
<td>सहस्रनाम स्तव</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पूजा पाठ</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३४९</td> | |||
<td>रत्नत्य विधान टीका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पूजा पाठ</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५०</td> | |||
<td>धन्यकुमार चा.</td> | |||
<td>११८२</td> | |||
<td>गुणभद्र २</td> | |||
<td>यथानाम काव्य</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५१</td> | |||
<td>णेमिगाह चरिउ</td> | |||
<td>११८७</td> | |||
<td>अमरकीर्ति</td> | |||
<td>यथानाम काव्य</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५२</td> | |||
<td>छक्कम्मुवएस</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>गृहस्थ षट्कर्म</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५३</td> | |||
<td>पज्जुण्ण चरिउ</td> | |||
<td>अन्तपाद</td> | |||
<td>कवि सिंह</td> | |||
<td>प्रद्युम्न चरित्र</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५४</td> | |||
<td>शास्त्रसार समुच्चय</td> | |||
<td>अन्तपाद</td> | |||
<td>माघनन्दि योगिन्द्र</td> | |||
<td>शलाका पुरुष, तत्त्व तथा आचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५५</td> | |||
<td>सङ्गीत समयसार</td> | |||
<td>अन्तपाद</td> | |||
<td>पार्श्व देव</td> | |||
<td>सङ्गीत शास्त्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५६</td> | |||
<td>आराधनासार समुच्चय</td> | |||
<td>श. १२-१३</td> | |||
<td>रविचन्द्र</td> | |||
<td>चतुर्विध आराधना</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५७</td> | |||
<td>मेमन्दर पुराण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>वामन मुनि</td> | |||
<td>विमलनाथके दो गणधर</td> | |||
<td>त.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५८</td> | |||
<td>उदय त्रिभंगी</td> | |||
<td>११८०</td> | |||
<td>नेमिचन्द्र ४</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३५९</td> | |||
<td>सत्त्व त्रिभंगी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>(सैद्धान्तिक)</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१३. ईसवी शताब्दी १३ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६०</td> | |||
<td>बन्ध त्रिभंगी</td> | |||
<td>१२०३</td> | |||
<td>माधवचन्द्र</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६१</td> | |||
<td>क्षपणासार टी.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६२</td> | |||
<td>चंदप्पहचरिउ</td> | |||
<td>पूर्व पाद</td> | |||
<td>ब्रह्मदामोदर </td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६३</td> | |||
<td>चंदणछट्ठीकहा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पं. लाखू</td> | |||
<td>चन्दनषष्टी व्रत</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६४</td> | |||
<td>जिणयत्तकहा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६५</td> | |||
<td>कथा विचार</td> | |||
<td>मध्य पाद</td> | |||
<td>भावसेन त्रैविद्य</td> | |||
<td>न्यायाजल्प वितण्डा निराकरण</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६६</td> | |||
<td>कातन्त्र रूपमाला</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>शब्द रूप</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६७</td> | |||
<td>न्याय दीपिका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६८</td> | |||
<td>न्याय सूर्यावली</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३६९</td> | |||
<td>प्रमाप्रमेय</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७०</td> | |||
<td>भुक्तिमुक्तिविचार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>श्वे. निराकरण</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७१</td> | |||
<td>विश्व तत्त्वप्रकाश</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अन्यदर्शन निराकरण</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७२</td> | |||
<td>शाकटायन व्याकरण टी.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७३</td> | |||
<td>सप्तपदार्थी टीका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७४</td> | |||
<td>सिद्धान्तसार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७५</td> | |||
<td>पुण्यास्रव कथा कोष</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>रामचन्द्र मुमुक्षु</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७६</td> | |||
<td>जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>यशःकीर्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७७</td> | |||
<td>स्याद्वाद भूषण</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>अभयचन्द्र</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७८</td> | |||
<td>णेमिणाह चरिउ</td> | |||
<td>१२३०</td> | |||
<td>ब्रह्मदामोदर</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३७९</td> | |||
<td>पुष्पदन्त पुराण</td> | |||
<td>१२३०</td> | |||
<td>गुण वर्म</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८०</td> | |||
<td>सागार धर्मामृत</td> | |||
<td>१२३९</td> | |||
<td>पं. आशाधार</td> | |||
<td>श्रावकाचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८१</td> | |||
<td>त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र</td> | |||
<td>१२३४</td> | |||
<td>पं. आशाधर</td> | |||
<td>शलाका पुरुष</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८२</td> | |||
<td>कर्म विपाक</td> | |||
<td>१२४०-६७</td> | |||
<td>देवेन्द्रसूरि</td> | |||
<td>कर्मसिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८३</td> | |||
<td>कर्म स्तव</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>(श्वे.)</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८४</td> | |||
<td>बन्ध स्वामित्व</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८५</td> | |||
<td>षडषीति (सूक्ष्मार्थ विचार)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८६</td> | |||
<td>कर्म प्रकृति</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>अभयचन्द</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८७</td> | |||
<td>मन्दप्रबोधिनी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सिद्धान्त चक्र.</td> | |||
<td>गो.सा.टी.</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८८</td> | |||
<td>पुरुदेव चम्पू.</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>अर्हद्दास</td> | |||
<td>ऋषभ चरित्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३८९</td> | |||
<td>भव्यजन कण्ठाभरण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९०</td> | |||
<td>मुनिसुव्रत काव्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९१</td> | |||
<td>विश्वलोचन कोष</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>धरसेन</td> | |||
<td>नानार्थक कोष</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९२</td> | |||
<td>शृंगारार्णव चन्द्रिका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>विजयवर्णी</td> | |||
<td>काव्य शिक्षा (छन्द अलंकार)</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९३</td> | |||
<td>अलंकार चिन्तामणि</td> | |||
<td>१२५०-६०</td> | |||
<td>अजितसेन</td> | |||
<td>काव्य शिक्षा (छन्द अलंकार)</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९४</td> | |||
<td>शृंगार मञ्जरी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>काव्य शिक्षा (छन्द अलंकार)</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९५</td> | |||
<td>अणुवयय्यण पईव</td> | |||
<td>१२५६</td> | |||
<td>पं. लाखू</td> | |||
<td>अणुव्रत रत्न प्रदीप</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९६</td> | |||
<td>त्रिभंगीसार टीका</td> | |||
<td>अन्त पाद</td> | |||
<td>श्रुत मुनि</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९७</td> | |||
<td>आस्रव त्रिभंगी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९८</td> | |||
<td>भाव त्रिभंगी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>औपशमिकादि</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३९९</td> | |||
<td>काव्यानुशासन</td> | |||
<td>अन्त पाद</td> | |||
<td>वाग्भट्ट</td> | |||
<td>काव्य शिक्षा</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४००</td> | |||
<td>छन्दानुशासन</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>छन्द शिक्षा</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०१</td> | |||
<td>जिणत्तिविहाण (वड्ढमाणकहा)</td> | |||
<td>अन्त पाद</td> | |||
<td>नरसेन</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०२</td> | |||
<td>मयणपराजय</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>उपमिति कथा</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०३</td> | |||
<td>सिद्धचक्ककहा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>श्रीपाल मैना</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०४</td> | |||
<td>स्याद्वाद्मंजरी</td> | |||
<td>१२९२</td> | |||
<td>मल्लिषेण</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०५</td> | |||
<td>महापुराण कालिका</td> | |||
<td>१२९३</td> | |||
<td>शाह ठाकुर</td> | |||
<td>शलाका पुरुष</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०६</td> | |||
<td>संतिणाह चरिउ</td> | |||
<td>१२९५</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०७</td> | |||
<td>तत्त्वार्थसूत्र वृत्ति</td> | |||
<td>१२९६</td> | |||
<td>भास्कर नन्दि</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०८</td> | |||
<td>ध्यान स्तव</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>ध्यान</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४०९</td> | |||
<td>सुखबोध वृत्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>तत्त्वार्थसूत्र टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१०</td> | |||
<td>सुदर्शन चरित</td> | |||
<td>१२९८</td> | |||
<td>विद्यानन्दि २</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४११</td> | |||
<td>त्रैलोक्य दीपक</td> | |||
<td>श. १३-१४</td> | |||
<td>वामदेव</td> | |||
<td>लोक विभाग</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१२</td> | |||
<td>भावसंग्रह</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>देवसेन कृतका सं. रूपान्तर</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१४ ईसवी शताब्दी १४ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१३</td> | |||
<td>णेमिणाह चरिउ</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>लक्ष्मणदेव</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१४</td> | |||
<td>मयणपराजय चरिउ</td> | |||
<td>पूर्वपाद</td> | |||
<td>हरिदेव</td> | |||
<td>उपमिति कथा (खण्ड काव्य)</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१५</td> | |||
<td>भविष्यदत्त कथा</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>श्रीधर ४</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१६</td> | |||
<td>अनन्तव्रत कथा</td> | |||
<td>१३२८-९३</td> | |||
<td>पद्मनन्दि</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१७</td> | |||
<td>जीरापल्लीपार्श्वनाथ स्तोत्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भट्टारक</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१८</td> | |||
<td>भावना पद्धति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भक्तिपूर्ण स्तव</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४१९</td> | |||
<td>वर्द्धमान चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२०</td> | |||
<td>श्रावकाचार सारोद्धार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२१</td> | |||
<td>परमागमसार</td> | |||
<td>१३४१</td> | |||
<td>श्रुत मुनि</td> | |||
<td>आगमका स्वरूप</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२२</td> | |||
<td>वरांग चरित्र</td> | |||
<td>उत्तरार्ध</td> | |||
<td>वर्द्धमानभट्टा.</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२३</td> | |||
<td>गोमट्टसार टी.</td> | |||
<td>१३५९</td> | |||
<td>केशववर्णी</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>क.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२४</td> | |||
<td>न्यायदीपिका</td> | |||
<td>१३९०-१४१८</td> | |||
<td>धर्मभूषण</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२५</td> | |||
<td>जम्बूस्वामीचरित्र</td> | |||
<td>१३९३-१४६८</td> | |||
<td>ब्रह्म जिनदास</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२६</td> | |||
<td>राम चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२७</td> | |||
<td>हरिवंश पुराण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२८</td> | |||
<td>बाहूबलि चरिउ</td> | |||
<td>१३९७</td> | |||
<td>कवि धनपाल</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४२९</td> | |||
<td>अणत्थमिय कहा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कवि हरिचन्द</td> | |||
<td>रात्रिभुक्ति हानि</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१५. ईसवी शताब्दी १५ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३०</td> | |||
<td>अणत्थमिउ कहा</td> | |||
<td>१४००-७९</td> | |||
<td>कवि रइधु</td> | |||
<td>रात्रिभुक्ति त्याग</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३१</td> | |||
<td>धण्णकुमार चरिउ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३२</td> | |||
<td>पउम चरिउ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>जैन रामायण</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३३</td> | |||
<td>बलहद्द चरिउ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>बलभद्र चरित्र</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३४</td> | |||
<td>मेहेसर चरिउ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सुलोचना चरित्र</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३५</td> | |||
<td>वित्तसार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>श्रावक मुनि धर्म</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३६</td> | |||
<td>सम्मइजिणचरिउ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भगवान् महावीर</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३७</td> | |||
<td>सिद्धान्तसार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>श्रावक मुनि धर्म</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३८</td> | |||
<td>सिरिपाल चरिउ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>श्रीपाल चरित्र</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४३९</td> | |||
<td>हरिवंश पुराण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४०</td> | |||
<td>जसहर चरिउ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यशोधर चरित्र</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४१</td> | |||
<td>वड्ढमाण चरिउ (सेणिय चरिउ)</td> | |||
<td>पूर्वपाद </td> | |||
<td>जयमित्रहल</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४२</td> | |||
<td>मल्लिणाहकव्व</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४३</td> | |||
<td>यशोधर चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पद्मनाथ</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४४</td> | |||
<td>कर्म विपाक</td> | |||
<td>१४०६-१४४२</td> | |||
<td>सकलकीर्ति</td> | |||
<td>कर्मसिद्धान्त</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४५</td> | |||
<td>प्रश्नोत्तर श्राव.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>श्रावकाचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४६</td> | |||
<td>तत्त्वार्थसारदीपक</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४७</td> | |||
<td>सद्भाषितावली</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्मोप.</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४८</td> | |||
<td>परमात्मराजस्तोत्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भक्ति</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४४९</td> | |||
<td>आदि पुराण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>ऋषभ चरित्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५०</td> | |||
<td>उत्तर पुराण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>२३ तीर्थंकर</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५१</td> | |||
<td>पुराणसार संग्रह</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>६ तीर्थंकर</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५२</td> | |||
<td>शान्तिनाथचरित</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५३</td> | |||
<td>मल्लिनाथ चरित</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५४</td> | |||
<td>पार्श्वनाथ पुराण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५५</td> | |||
<td>महावीर पुराण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५६</td> | |||
<td>वर्द्धमान चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५७</td> | |||
<td>श्रीपाल चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५८</td> | |||
<td>यशोधर चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४५९</td> | |||
<td>धन्यकुमार चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६०</td> | |||
<td>सुकुमाल चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६१</td> | |||
<td>सुदर्शन चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६२</td> | |||
<td>व्रत कथाकोष</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६३</td> | |||
<td>मूलाचार प्रदीप</td> | |||
<td>१४२४</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यत्याचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६४</td> | |||
<td>सिद्धान्तसार दीपक</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यत्याचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६५</td> | |||
<td>लोक विभाग</td> | |||
<td>मध्यपाद</td> | |||
<td>सिंहसूरि (श्वे.)</td> | |||
<td>प्राचीन कृतिका सं. रूपान्तर</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६६</td> | |||
<td>पासणाह चरिउ</td> | |||
<td>१४२२</td> | |||
<td>कवि असवाल</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६७</td> | |||
<td>धर्मदत्त चरित्र</td> | |||
<td>१४२९</td> | |||
<td>दयासागर सूरि</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६८</td> | |||
<td>हरिवंश पुराण</td> | |||
<td>१४२९-४०</td> | |||
<td>यशःकीर्ति</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४६९</td> | |||
<td>जिणरत्ति कहा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>रात्रि भुक्ति</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७०</td> | |||
<td>रविवय कहा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७१</td> | |||
<td>ततक्त्वार्थ रत्न प्रभाकर</td> | |||
<td>१४३२</td> | |||
<td>प्रभाचन्द्र ८</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ सूत्र टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७२</td> | |||
<td>संतिणाह चरिउ</td> | |||
<td>१४३७</td> | |||
<td>शुभकीर्ति </td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७३</td> | |||
<td>पासणाह चरिउ</td> | |||
<td>१४३९</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७४</td> | |||
<td>सक्कोसल चरिउ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७५</td> | |||
<td>सम्मत्तगुण विहाण कव्व</td> | |||
<td>१४४२</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम लोकप्रिय</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७६</td> | |||
<td>सुदर्शन चरित्र</td> | |||
<td>१४४२-८२</td> | |||
<td>विद्यानन्दि ३ भट्टारक</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७७</td> | |||
<td>संभव चरिउ</td> | |||
<td>१४४३</td> | |||
<td>कवि तेजपाल</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७८</td> | |||
<td>आत्म सम्बोधन</td> | |||
<td>१४४३-१५०५</td> | |||
<td>ज्ञानभूषण </td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४७९</td> | |||
<td>अजित पुराण</td> | |||
<td>१४४८</td> | |||
<td>कवि विजय</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८०</td> | |||
<td>जिनचतुर्विंशति</td> | |||
<td>१४५०-१५१४</td> | |||
<td>जिनचंद्रभट्टा</td> | |||
<td>स्तोत्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८१</td> | |||
<td>सिद्धान्तसार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>जीवकाण्ड</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८२</td> | |||
<td>सिरिपाल चरिउ</td> | |||
<td>१४५०-१५१४</td> | |||
<td>ब्रह्म दामोदर</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८३</td> | |||
<td>वरंग चरिउ</td> | |||
<td>१४५०</td> | |||
<td>कवि तेजपाल</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८४</td> | |||
<td>नागकुमार चरिउ</td> | |||
<td>१४५४</td> | |||
<td>धर्मधर</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८५</td> | |||
<td>पासपुराण</td> | |||
<td>१४५८</td> | |||
<td>कवि तेजपाल</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८६</td> | |||
<td>यशोधर चरित्र</td> | |||
<td>१४६१</td> | |||
<td>सोमकीर्ति</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८७</td> | |||
<td>सप्तव्यसन कथा</td> | |||
<td>१४६१-१४८३</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८८</td> | |||
<td>चारुदत्त चरित्र</td> | |||
<td>१४७४</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४८९</td> | |||
<td>प्रद्युम्न चारित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९०</td> | |||
<td>तत्त्वज्ञान तरंगिनी</td> | |||
<td>४७१</td> | |||
<td>ज्ञानभूषण</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९१</td> | |||
<td>आत्म सम्बोधन आराधना</td> | |||
<td>१४४३-१५०५, १४६९</td> | |||
<td>अज्ञात</td> | |||
<td>अध्यात्म, पंचसंग्रह प्रा. की प्राकृत टीका</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९२</td> | |||
<td>पाण्डव पुराण</td> | |||
<td>१४७८-१५५६</td> | |||
<td>यशःकीर्ति</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९३</td> | |||
<td>धर्मसंग्रहश्रावका</td> | |||
<td>१४८४</td> | |||
<td>मेधावी</td> | |||
<td>श्रावकाचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९४</td> | |||
<td>औदार्य चिन्तामणि</td> | |||
<td>१४८७-१४९९</td> | |||
<td>श्रुतसागर</td> | |||
<td>प्राकृत व्याकरण</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९५</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ वृत्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>तत्त्वार्थसूत्र टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९६</td> | |||
<td>षट्प्राभृत टीका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कुन्दकुन्दके प्राभृतों की टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९७</td> | |||
<td>तत्त्वत्रय प्रकाशिका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>ज्ञानार्णव कथित गद्य भागकी टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९८</td> | |||
<td>यशस्तिलक चन्दिका</td> | |||
<td>यशस्तिलक चम्पूकी टीका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>४९९</td> | |||
<td>यशोधर चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५००</td> | |||
<td>श्रीपाल चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०१</td> | |||
<td>श्रुतस्कन्ध पूजा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०२</td> | |||
<td>योगसार</td> | |||
<td>अन्तपाद</td> | |||
<td>श्रुतकीर्ति</td> | |||
<td>श्रावकमुनि आचार</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०३</td> | |||
<td>धम्म परिक्खा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>वैदिकोंका उपहास</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०४</td> | |||
<td>परमेष्ठी प्रकाश सार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०५</td> | |||
<td>हरिवंश पुराण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०६</td> | |||
<td>भुजबलि रितम्</td> | |||
<td>अन्तपाद</td> | |||
<td>दोड्डय्य</td> | |||
<td>गोमटेश मूर्तिका इतिहास</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०७</td> | |||
<td>पाहुड़ दोहा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>महनन्दि</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०८</td> | |||
<td>पुराणसार वैराग्य माला</td> | |||
<td>१४९८-१५१८</td> | |||
<td>श्रीचन्द</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१६. ईसवी शताब्दी १६ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५०९</td> | |||
<td>सम्यक्त्व कौमुदी</td> | |||
<td>१५०८</td> | |||
<td>जोधराज</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१०</td> | |||
<td>सम्यक्त्व कौमुदी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>मंगरस</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ</td> | |||
<td>कन्नड़</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५११</td> | |||
<td>जीवतत्त्व प्रदीपिका</td> | |||
<td>१५१५</td> | |||
<td>नेमिचन्द्र ५</td> | |||
<td>गो.सा. टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१२</td> | |||
<td>भद्रबाहु चरित्र</td> | |||
<td>१५१५</td> | |||
<td>रत्नकीर्ति</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१३</td> | |||
<td>अंग पण्णत्ति</td> | |||
<td>१५१६-५६</td> | |||
<td>शुभचन्द्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>प्रा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१४</td> | |||
<td>शब्द चिन्तामणि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भट्टारक</td> | |||
<td>सं. शब्दकोष</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१५</td> | |||
<td>स्याद्वाद्वहन विदारण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१६</td> | |||
<td>सम्यक्त्व कौमुदी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१८</td> | |||
<td>अध्यात्मपद टी.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५१५</td> | |||
<td>परमाध्यात्म तरंगिनी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२०</td> | |||
<td>सुभाषितार्णव</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२१</td> | |||
<td>चन्द्रप्रभ चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२२</td> | |||
<td>पार्श्वनाथ काव्य पंजिका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२३</td> | |||
<td>महावीर पुराण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२४</td> | |||
<td>पद्मनाभ चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२५</td> | |||
<td>चन्दना चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२६</td> | |||
<td>चन्दन कथा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>चन्दना चरित्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२७</td> | |||
<td>अमसेन चरिउ</td> | |||
<td>१५१९</td> | |||
<td>माणिक्यराज</td> | |||
<td>मुनि अमसेनका जीवन वृत</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२८</td> | |||
<td>नागकुमार चरिउ</td> | |||
<td>१५२२</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५२९</td> | |||
<td>आराधना कथाकोष</td> | |||
<td>१५१८</td> | |||
<td>ब्र. नेमिदत्त</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३०</td> | |||
<td>धर्मोपदेश पीयूष</td> | |||
<td>१५१८-२८</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>श्रावकाचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३१</td> | |||
<td>रात्रि भोजनत्याग व्रतकथा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३२</td> | |||
<td>नेमिनाथ पुराण</td> | |||
<td>१५२८</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३३</td> | |||
<td>श्रीपाल चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३४</td> | |||
<td>सिद्धांतसारभाष्य</td> | |||
<td>१५२८-५९</td> | |||
<td>ज्ञानभूषण</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३५</td> | |||
<td>संतिणाह चरिउ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कवि महीन्दु</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३६</td> | |||
<td>चेतनपुद्गलधमाल</td> | |||
<td>१५३२</td> | |||
<td>बूचिराज</td> | |||
<td>यथानाम रूपक</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३७</td> | |||
<td>मयण जुज्झ</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>मदनयुद्ध रूपक</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३८</td> | |||
<td>मोहविवेक युद्ध</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम रूपक</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५३९</td> | |||
<td>संतोषतिल जयमाल</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>सन्तोष द्वारा लोभको जीतना (रूपक)</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४०</td> | |||
<td>टंडाणा गीत</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>संसार सुखदर्शन</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४१</td> | |||
<td>भुवनकीर्ति गीत</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भुवनकीर्तिकी प्रशस्ति</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४२</td> | |||
<td>नेमिनाथ बारहमासा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>राजमतिके उद्गार</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४३</td> | |||
<td>नेमिनाथ वसंत</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>नेमिनाथ वैराग्य</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४४</td> | |||
<td>कार्तिकेयानु प्रेक्षा टीका</td> | |||
<td>१५४३</td> | |||
<td>शुभचन्द्र भट्टारक</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४५</td> | |||
<td>जीवन्धर चरित्र</td> | |||
<td>१५४६</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४६</td> | |||
<td>प्रमेयरत्नालंकार</td> | |||
<td>१५४४</td> | |||
<td>चारुकीर्ति</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४७</td> | |||
<td>गीत वीतराग</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>ऋषभदेवके १० जन्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४८</td> | |||
<td>पाण्डवपुराण</td> | |||
<td>१५५१</td> | |||
<td>शुभचन्द्र भट्टारक</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५४९</td> | |||
<td>भरतेशवैभव</td> | |||
<td>१५५१</td> | |||
<td>रत्नाकर</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५०</td> | |||
<td>होलीरेणुकाचरित्र</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>पं. जिनदास</td> | |||
<td>पंचनमस्कारमहात्म्य</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५१</td> | |||
<td>करकण्डु चरित्र</td> | |||
<td>१५५४</td> | |||
<td>शुभचन्द्र भ.</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५२</td> | |||
<td>कर्म प्रकृति टी.</td> | |||
<td>१५५६-७३</td> | |||
<td>ज्ञानभूषण</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५३</td> | |||
<td>भविष्यदत्तचरित्र</td> | |||
<td>१५५८</td> | |||
<td>पं. सुन्दरदास</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५४</td> | |||
<td>रायमल्लाभ्युदय</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>२४ तीर्थङ्करोंका जीवन वृत्त</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५५</td> | |||
<td>कर्म प्रकृति टी.</td> | |||
<td>१५६३-७३</td> | |||
<td>सुमतिकार्ति</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५६</td> | |||
<td>कर्मकाण्ड</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५७</td> | |||
<td>पंच संग्रह वृत्ति</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५८</td> | |||
<td>सुखबोध वृत्ति</td> | |||
<td>लगभग १५७०</td> | |||
<td>पं. योगदेव भट्टारक</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ सूत्र टी.</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५५९</td> | |||
<td>अनन्तनाथ पूजा</td> | |||
<td>१५७३</td> | |||
<td>गुणचन्द्र</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६०</td> | |||
<td>अध्यात्मकमल मार्तण्ड</td> | |||
<td>१५७५-१५९३</td> | |||
<td>पं. राजमल</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६१</td> | |||
<td>पंचाध्यायी</td> | |||
<td>१५९३</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पदार्थ विज्ञान</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६२</td> | |||
<td>पिंगल शास्त्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>छन्द शास्त्र</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६३</td> | |||
<td>लाटी संहिता</td> | |||
<td>-१५८४</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>श्रावकाचार</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६४</td> | |||
<td>जम्बूस्वामीचरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६५</td> | |||
<td>हनुमन्त चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६६</td> | |||
<td>द्वादशांग पूजा</td> | |||
<td>१५७९-१६१९</td> | |||
<td>श्रीभूषण</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६७</td> | |||
<td>प्रतिबोध चिंतामणि</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>मूलसंघकी उत्पत्तिकी कथा</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६८</td> | |||
<td>शान्तिनाथपुराण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५६९</td> | |||
<td>सत्तवसनकहा</td> | |||
<td>१५८०</td> | |||
<td>मणिक्यराज</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>अप.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७०</td> | |||
<td>ज्ञानसूर्योदय ना.</td> | |||
<td>१५८०-१६०७</td> | |||
<td>वादिचन्द्र</td> | |||
<td>रूपक काव्य</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७१</td> | |||
<td>पवनदूत</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>मेघदूतकी नकल</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७२</td> | |||
<td>पार्श्व पुराण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७३</td> | |||
<td>श्रीपाल आख्यान</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७४</td> | |||
<td>सुभग सुलोचना चरित्र</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७५</td> | |||
<td>कथाकोष</td> | |||
<td>१५८३-१६०५</td> | |||
<td>देवेन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७६</td> | |||
<td>श्रीपाल चरित्र</td> | |||
<td>१५९४</td> | |||
<td>कवि परिमल्ल</td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७७</td> | |||
<td>पार्श्वनाथ पुराण</td> | |||
<td>१५९७-१६२४</td> | |||
<td>चन्द्रकीर्ति</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७८</td> | |||
<td>शब्दत्न प्रदीप</td> | |||
<td>१५९९-१६१०</td> | |||
<td>सोमसेन</td> | |||
<td>सं. शब्दकोष</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५७९</td> | |||
<td>धर्मरसिक (त्रिवर्णाचार)</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पंचामृत अभषेक आदि</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८०</td> | |||
<td>रामपुराण</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१७. ईसवी शताब्दी १७ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८१</td> | |||
<td>अध्यात्म सवैया</td> | |||
<td>१६००-१६२५</td> | |||
<td>रूपचन्दपाण्डे</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८२</td> | |||
<td>खटोलनागीत</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>(रूपक) चार कषायरूप पायों का खटोलना</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८३</td> | |||
<td>परमार्थगीत</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८४</td> | |||
<td>परमार्थ दोहा शतक</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८५</td> | |||
<td>स्फुटपद</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भक्ति</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८६</td> | |||
<td>यशोधर चरित्र</td> | |||
<td>१६०२</td> | |||
<td>ज्ञानकीर्ति</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८७</td> | |||
<td>शब्दानुशासन</td> | |||
<td>१६०४</td> | |||
<td>भट्टाकलंक</td> | |||
<td>सं. शब्द कोश</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८८</td> | |||
<td>चूड़ामणि</td> | |||
<td>१६०४</td> | |||
<td>तुम्बूलाचार्य</td> | |||
<td>षट्खण्ड टीका</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५८९</td> | |||
<td>भक्तामर कथा</td> | |||
<td>१६१०</td> | |||
<td>रायमल</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९०</td> | |||
<td>विमल पुराण</td> | |||
<td>१६१७</td> | |||
<td>ब्र. कृष्णदास</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९१</td> | |||
<td>मुनिसुव्रत पुराण</td> | |||
<td>१६२४</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९२</td> | |||
<td>ब्रह्म विलास</td> | |||
<td>१६२४-१६४३</td> | |||
<td>भगवती दास</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९३</td> | |||
<td>नाममाला</td> | |||
<td>-१६१३</td> | |||
<td>पं. बनारसी दास</td> | |||
<td>एकार्थक शब्द</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९४</td> | |||
<td>समयसार नाटक</td> | |||
<td>-१६३६</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९५</td> | |||
<td>अर्धकथानक</td> | |||
<td>-१६४४</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अपनी आत्मकथा</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९६</td> | |||
<td>बनारसी विलास</td> | |||
<td>-१७०१</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९७</td> | |||
<td>अध्यात्मोपनिषद</td> | |||
<td>१६३८-१६८८</td> | |||
<td>यशोविजय</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९८</td> | |||
<td>अध्यात्मसार</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>(श्वे.)</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>५९९</td> | |||
<td>जय विलास</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पदसंग्रह</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६००</td> | |||
<td>जैन तर्क</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०१</td> | |||
<td>स्याद्वाद मञ्जूषा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०२</td> | |||
<td>शास्त्रवार्ता समुच्चय</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०३</td> | |||
<td>दिग्पद चौरासी</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>दिगम्बरका खंडन</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०४</td> | |||
<td>चतुर्विंशति सन्धानकाव्य</td> | |||
<td>१६४२</td> | |||
<td>पं. जगन्नाथ</td> | |||
<td>२४ अर्थों वाला एक पद्य</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०५</td> | |||
<td>श्वे. पराजय</td> | |||
<td>१६४६</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>केवलि भक्ति निराकृति</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०६</td> | |||
<td>सुखनिधान</td> | |||
<td>१६४३</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>श्रीपालकथा</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०७</td> | |||
<td>शीलपताका</td> | |||
<td>१६९६</td> | |||
<td>महीचन्द्र</td> | |||
<td>सीताकी अग्नि परीक्षा</td> | |||
<td>मरा.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१८ . ईसवी शताब्दी १८ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०८</td> | |||
<td>चिद्विलास</td> | |||
<td>१७२२</td> | |||
<td>पं. दीपचन्द</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६०९</td> | |||
<td>स्वरूपसम्बोधन</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१०</td> | |||
<td>जीवन्धर पुराण</td> | |||
<td>१७२४-४४</td> | |||
<td>जिनसागर</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६११</td> | |||
<td>जैन शतक</td> | |||
<td>१७२४</td> | |||
<td>पं. भूधरदास</td> | |||
<td>पद संग्रह</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१२</td> | |||
<td>पद साहित्य</td> | |||
<td>१७२४-३२</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>अध्यात्मपद</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१३</td> | |||
<td>पार्श्वपुराण</td> | |||
<td>१७३२</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१४</td> | |||
<td>क्रिया कोष</td> | |||
<td>१७२७</td> | |||
<td>पं. किशनचंद</td> | |||
<td>गृहस्थोचित क्रियायें</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१५</td> | |||
<td>प्रमाणप्रमेय कालिका</td> | |||
<td>१७३०-३३</td> | |||
<td>नरेन्द्रसेन</td> | |||
<td>न्याय</td> | |||
<td>सं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१६</td> | |||
<td>क्रियाकोष</td> | |||
<td>१७३८</td> | |||
<td>पं. दौलतराम १</td> | |||
<td>गृहस्थोचित क्रियायें</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१७</td> | |||
<td>श्रीपाल चारित्र</td> | |||
<td>१७२०-७२</td> | |||
<td> </td> | |||
<td>यथा नाम</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>३१८</td> | |||
<td>गोमट्टसार टीका</td> | |||
<td>१७१६-४०</td> | |||
<td>पं. टोडरमल</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६१९</td> | |||
<td>लब्धिसार टी.</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६२०</td> | |||
<td>क्षपणसार टीका</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>कर्म सिद्धान्त</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६२१</td> | |||
<td>गोमट्टसार पूजा</td> | |||
<td>१७३६</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६२२</td> | |||
<td>अर्थसंदृष्टि</td> | |||
<td>१७४०-६७</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>गो.सा. गणित</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६२३</td> | |||
<td>रहस्यपूर्ण चिट्ठी</td> | |||
<td>१७५३</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६२४</td> | |||
<td>सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका</td> | |||
<td>-१७६१</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६२५</td> | |||
<td>मोक्षमार्ग प्रका.</td> | |||
<td>-१७६७</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्म</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६२६</td> | |||
<td>परमानन्दविलास</td> | |||
<td>१७५५-६७</td> | |||
<td>पं. देवीदयाल</td> | |||
<td>पदसंग्रह</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६२७</td> | |||
<td>दर्शन कथा</td> | |||
<td>१७५६</td> | |||
<td>भारामल</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६२८</td> | |||
<td>दान कथा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६२९</td> | |||
<td>निशिकथा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६३०</td> | |||
<td>शील कथा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६३१</td> | |||
<td>छह ढाला</td> | |||
<td>१७९८-१८६६</td> | |||
<td>पं. दौलतराम २</td> | |||
<td>ततत्वार्थ</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>१९. ईसवी शताब्दी १९ :-</td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
<td> </td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६३२</td> | |||
<td>वृन्दावन विलास</td> | |||
<td>१८०३-१८०८</td> | |||
<td>वृन्दावन</td> | |||
<td>पद संग्रह</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६३३</td> | |||
<td>छन्द शतक</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पद संग्रह</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६३४</td> | |||
<td>अर्हत्पासा केवली</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>भाग्य निर्धारिणी</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६३५</td> | |||
<td>चौबीसी पूजा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>थानाम</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६३६</td> | |||
<td>समयसार वच.</td> | |||
<td>१८०७</td> | |||
<td>जयचन्द</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६३७</td> | |||
<td>अष्टपाहुड़ा वच.</td> | |||
<td>१८१०</td> | |||
<td>छाबड़ा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६३८</td> | |||
<td>सर्वार्थ सिद्धि वच.</td> | |||
<td>१८०४</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६३९</td> | |||
<td>कार्तिकेया वच.</td> | |||
<td>१८०६</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६४०</td> | |||
<td>द्रव्यसंग्रह वच.</td> | |||
<td>१८०६</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६४१</td> | |||
<td>ज्ञानार्णव वच.</td> | |||
<td>१८१२</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६४२</td> | |||
<td>आप्तमीमांसा</td> | |||
<td>१८२९</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६४३</td> | |||
<td>भक्तामर कथा</td> | |||
<td>१८१३</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६४४</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ बोध</td> | |||
<td>१८१४</td> | |||
<td>पं. बुधजन</td> | |||
<td>तत्त्वार्थ</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६४५</td> | |||
<td>सतसई</td> | |||
<td>१८२२</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्मपद</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६४६</td> | |||
<td>बुधजन विलास</td> | |||
<td>१८३५</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>अध्यात्मपाद</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६४७</td> | |||
<td>सप्तव्यसन चारित्र</td> | |||
<td>१८५०-१८९०</td> | |||
<td>मनरंगलाल</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६४८</td> | |||
<td>सप्तर्षि पूजा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६४९</td> | |||
<td>सम्मेदाचल माहात्म्य</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६५०</td> | |||
<td>चौबीसी पूजा</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>यथानाम</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
<tr> | |||
<td>६५१</td> | |||
<td>महावीराष्टक</td> | |||
<td>-</td> | |||
<td>पं. भागचन्द</td> | |||
<td>स्तोत्र</td> | |||
<td>हिं.</td> | |||
</tr> | |||
</tbody> | |||
</table> | |||
[[Category:इ]] | |||
[[Category: इ]] |
Revision as of 14:12, 17 July 2020
अनुक्रमणिका
इतिहास -
1. इतिहास निर्देश व लक्षण।
1.1 इतिहासका लक्षण।
1.2 ऐतिह्य प्रमाणका श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव।
2. संवत्सर निर्देश।
2.1 संवत्सर सामान्य व उसके भेद।
2.2 वीर निर्वाण संवत्।
2.3 विक्रम संवत्।
2.4 शक संवत्।
2.5 शालिवाहन संवत्।
2.6 ईसवी संवत्।
2.7 गुप्त संवत्।
2.8 हिजरी संवत्।
2.9 मघा संवत्।
2.10 सब संवतोंका परस्पर सम्बन्ध।
3. ऐतिहासिक राज्य वंश।
3.1 भोज वंश।
3.2 कुरु वंश।
3.3 मगध देशके राज्य वंश (१. सामान्य; २. कल्की; ३. हून; ४. काल निर्णय)
3.4 राष्ट्रकूट वंश।
4. दिगम्बर मूलसंघ।
4.1 मूल संघ।
4.2 मूल संघकी पट्टावली।
4.3 पट्टावलीका समन्वय।
4.4 मूलसंघ का विघटन।
4.5 श्रुत तीर्थकी उत्पत्ति।
4.6 श्रुतज्ञानका क्रमिक ह्रास।
5. दिगम्बर जैन संघ।
5.1 सामान्य परिचय।
5.2 नन्दिसंघ।
5.3 अन्य संघ।
6. दिगम्बर जैनाभासी संघ।
6.1 सामान्य परिचय।
6.2 यापनीय संघ।
6.3 द्राविड़ संघ।
6.4 काष्ठा संघ।
6.5 माथुर संघ।
6.6 भिल्लक संघ।
6.7 अन्य संघ तथा शाखायें।
7. पट्टावलियें तथा गुर्वावलियें।
7.1 मूल संघ विभाजन।
7.2 नन्दिसंघ बलात्कार गण।
7.3 नन्दिसंघ बलात्कार गणकी भट्टारक आम्नाय।
7.4 नन्दिसंघबलात्कार गणकी शुभचन्द्र आम्नाय।
7.5 नन्दिसंघ देशीयगण।
7.6 सेन या ऋषभ संघ।
7.7 पंचस्तूप संघ।
7.8 पुन्नाट संघ।
7.9 काष्ठा संघ।
7.10 लाड़ बागड़ गच्छ।
7.11 माथुर गच्छ।
8. आचार्य समयानुक्रमणिका।
9. पौराणिक राज्य वंश।
9.1 सामान्य वंश।
9.2 इक्ष्वाकु वंश।
9.3 उग्र वंश।
9.4 ऋषि वंश।
9.5 कुरुवंश।
9.6 चन्द्र वंश।
9.7 नाथ वंश।
9.8 भोज वंश।
9.9 मातङ्ग वंश।
9.10 यादव वंश।
9.11 रघुवंश।
9.12 राक्षस वंश।
9.13 वानर वंश।
9.14 विद्याधर वंश।
9.15 श्रीवंश।
9.16 सूर्य वंश।
9.17 सोम वंश।
9.18 हरिवंश।
10. आगम समयानुक्रमणिका।
इतिहास -
किसी भी जाति या संस्कृतिका विशेष परिचय पानेके लिए तत्सम्बन्धी साहित्य ही एक मात्र आधार है और उसकी प्रामाणिकता उसके रचयिता व प्राचीनतापर निर्भर है। अतः जैन संस्कृति का परिचय पानेके लिए हमें जैन साहित्य व उनके रचयिताओंके काल आदिका अनुशीलन करना चाहिए। परन्तु यह कार्य आसान नहीं है, क्योंकि ख्यातिलाभकी भावनाओंसे अतीत वीतरागीजन प्रायः अपने नाम, गाँव व कालका परिचय नहीं दिया करते। फिर भी उनकी कथन शैली पर से अथवा अन्यत्र पाये जानेवाले उन सम्बन्धी उल्लेखों परसे, अथवा उनकी रचनामें ग्रहण किये गये अन्य शास्त्रोंके उद्धरणों परसे, अथवा उनके द्वारा गुरुजनोंके स्मरण रूप अभिप्रायसे लिखी गयी प्रशस्तियों परसे, अथवा आगममें ही उपलब्ध दो-चार पट्टावलियों परसे, अथवा भूगर्भसे प्राप्त किन्हीं शिलालेखों या आयागपट्टोंमें उल्लखित उनके नामों परसे इस विषय सम्बन्धी कुछ अनुमान होता है। अनेकों विद्वानोंने इस दिशामें खोज की है, जो ग्रन्थोंमें दी गयी उनकी प्रस्तावनाओंसे विदित है। उन प्रस्तावनाओंमें से लेकर ही मैंने भी यहाँ कुछ विशेष-विशेष आचार्यों व तत्कालीन प्रसिद्ध राजाओं आदिका परिचय संकलित किया है। यह विषय बड़ा विस्तृत है। यदि इसकी गहराइयोंमें घुसकर देखा जाये तो एकके पश्चात् एक करके अनेकों शाखाएँ तथा प्रतिशाखाएँ मिलती रहनेके कारण इसका अन्त पाना कठिन प्रतीत होता है, अथवा इस विषय सम्बन्धी एक पृथक् ही कोष बनाया जा सकता है। परन्तु फिर भी कुछ प्रसिद्ध व नित्य परिचय में आनेवाले ग्रन्थों व आचार्योंका उल्लेख किया जाना आवश्यक समझकर यहाँ कुछ मात्रका संकलन किया है। विशेष जानकारीके लिए अन्य उपयोगी साहित्य देखनेकी आवश्यकता है।
1. इतिहास निर्देश व लक्षण
1.1 इतिहासका लक्षण
म.पु.१/२५ इतिहास इतीष्टं तद् इति हासीदिति श्रुतेः। इति वृत्तमथै तिह्यमाम्नायं चामनस्ति तत् ।२५। = `इति इह आसीत्' (यहाँ ऐसा हुआ) ऐसी अनेक कथाओंका इसमें निरूपण होनेसे ऋषिगण इसे (महापुराणको) `इतिहास', `इतिवृत्त' `ऐतिह्य' भी कहते हैं ।२५।
1.2 ऐतिह्य प्रमाणका श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव
रा.वा.१/२०/१५/७८/१९ ऐतिह्यस्य च `इत्याह स भगवान् ऋषभः' इति परंपरीणपुरुषागमाद् गृह्यते इति श्रुतेऽन्तर्भावः। = `भगवान् ऋषभने यह कहा' इत्यादि प्राचीन परम्परागत तथ्य ऐतिह्य प्रमाण है। इसका श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव हो जाता है।
2. संवत्सर निर्देश
2.1 संवत्सर सामान्य व उसके भेद
इतिहास विषयक इस प्रकरणमें क्योंकि जैनागमके रचयिता आचार्योंका, साधुसंघकी परम्पराका, तात्कालिक राजाओंका, तथा शास्त्रोंका ठीक-ठीक कालनिर्णय करनेकी आवश्यकता पड़ेगी, अतः संवत्सरका परिचय सर्वप्रथम पाना आवश्यक है। जैनागममें मुख्यतः चार संवत्सरोंका प्रयोग पाया जाता है - १. वीर निर्वाणसंवत्; २. विक्रम संवत्; ३. ईसवी संवत्; ४. शक संवत्; परन्तु इनके अतिरिक्त भी कुछ अन्य संवतोंका व्यवहार होता है - जैसे १. गुप्त संवत् २. हिजरी संवत्; ३. मधा संवत्; आदि।
2.2 वीर निर्वाण संवत् निर्देश
क.पा.१/$५६/७५/२ एदाणि [पण्णरसदिवसेहि अट्ठमासेहि य अहिय-] पंचहत्तरिवासेसु सोहिदे वड्ढमाणजिणिदे णिव्वुदे संते जो सेसो चउत्थकालो तस्स पमाणं होदि। = इद बहत्तर वर्ष प्रमाण कालको (महावीरका जन्मकाल-दे. महावीर) पन्द्रह दिन और आठ महीना अधिक पचहत्तरवर्षमेंसे घटा देनेपर, वर्द्धमान जिनेन्द्रके मोक्ष जानेपर जितना चतुर्थ कालका प्रमाण [या पंचम कालका प्रारम्भ] शेष रहता है, उसका प्रमाण होता है। अर्थात् ३ वर्ष ८ महीने और पन्द्रह दिन। (ति.प. ४/१४७४)।
ध.१ (प्र. ३२ H. L. Jain) साधारणतः वीर निर्वाण संवत् व विक्रम संवत्में ४७० वर्ष का अन्तर रहता है। परन्तु विक्रम संवत्के प्रारम्भके सम्बन्धमें प्राचीन कालसे बहुत मतभेद चला आ रहा है, जिसके कारण भगवान् महावीरके निर्वाण कालके सम्बन्धमें भी कुछ मतभेद उत्पन्न हो गया है। उदाहरणार्थ-नन्दि संघकी पट्टावलीमें आ. इन्द्रनन्दिने वीरके निर्वाणसे ४७० वर्ष पश्चात् विक्रमका जन्म और ४८८ वर्ष पश्चात् उसका राज्याभिषेक बताया है। इसे प्रमाण मानकर बैरिस्टर श्री काशीलाल जायसवाल वीर निर्वाणके कालको १८ वर्ष ऊपर उठानेका सुझाव देते हैं, क्योंकि उनके अनुसार विक्रम संवत्का प्रारम्भ उसके राज्याभिषेकसे हुआ था। परन्तु दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही आम्नायोंमें विक्रम संवत्का प्रचार वीर निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चात् माना गया है। इसका कारण यह है कि सभी प्राचीन शास्त्रोंमें शक संवत्का प्रचार वीर निर्वाणके ६०५ वर्ष पश्चात् कहा गया है और उसमें तथा प्रचलित विक्रम संवत्में १३५ वर्षका अन्तर प्रसिद्ध है। (जै. पी. २८४) (विशेष दे. परिशिष्ट १)। दूसरी बात यह भी है कि ऐसा मानने पर भगवान् वीर को प्रतिस्पर्धी शास्ताके रूपमें महात्मा बुद्धके साथ १२-१३ वर्ष तक साथ-साथ रहनेका अवसर भी प्राप्त हो जाता है, क्योंकि बोधि लाभसे निर्वाण तक भगवान् वीरका काल उक्त मान्यताके अनुसार ई. पू. ५५७-५२७ आता है जबकि बुद्धका ई. पू. ५८८-५४४ माना गया है। जै.सा.इ.पी. ३०३)
2.3 विक्रम संवत् निर्देश
यद्यपि दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों आम्नायोंमें विक्रम संवत्का प्रचार वीर निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चात् माना गया है, तद्यपि यह संवत् विक्रमके जन्मसे प्रारम्भ होता है अथवा उनके राज्याभिषेकसे या मृत्युकालसे, इस विषयमें मतभेद है। दिगम्बरके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् ६० वर्ष तक पालकका राज्य रहा, तत्पश्चात् १५५ वर्ष तक नन्द वंशका और तत्पश्चात् २२५ वर्ष तक मौर्य वंशका। इस समयमें ही अर्थात् वी. नि. ४७० तक ही विक्रमका राज्य रहा परन्तु श्वेताम्बरके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् १५५ वर्ष तक पालक तथा नन्दका, तत्पश्चात् २२५ वर्ष तक मौर्य वंशका और तत्पश्चात् ६० वर्ष तक विक्रमका राज्य रहा। यद्यपि दोनोंका जोड़ ४७० वर्ष आता है तदपि पहली मान्यतामें विक्रमका राज्य मौर्य कालके भीतर आ गया है और दूसरी मान्यतामें वह उससे बाहर रह गया है क्योंकि जन्मके १८ वर्ष पश्चात् विक्रमका राज्याभिषेक और ६० वर्ष तक उसका राज्य रहना लोक-प्रसिद्ध है, इसलिये उक्त दोनों ही मान्यताओं से उसका राज्याभिषेक वी. नि. ४१० में और जन्म ३९२ में प्राप्त होता है, परन्तु नन्दि संघकी पट्टावलीमें उसका जन्म वी. नि. ४७० में और राज्याभिषेक ४८८ में कहा गया है, इसलिये विद्वान् लोग उसे भ्रान्तिपूर्ण मानते हैं। (विशेष दे. परिशिष्ट १)
इसी प्रकार विक्रम संवत्को जो कहीं-कहीं शक संवत् अथवा शालिवाहन संवत् माननेकी प्रवृत्ति है वह भी युक्त नहीं है, क्योंकि ये तीनों संवत् स्वतन्त्र हैं। विक्रम संवत्का प्रारम्भ वी. नि. ४७० में होता है, शक संवत्का वी.नि. ६०५ में और शालिवाहन संवत्का वी.नि. ७४१ में। (दे. अगले शीर्षक)
2.4 शक संवत् निर्देश
यद्यपि `शक' शब्दका प्रयोग संवत्-सामान्यके अर्थ में भी किया जाता है, जैसे वर्द्धमान शक, विक्रम शक, शालिवाहन शक इत्यादि, और कहीं-कहीं विक्रम संवत्को भी शक संवत् मान लिया जाता है, परन्तु जिस `शक' की चर्चा यहाँ करनी इष्ट है वह एक स्वतन्त्र संवत् है। यद्यपि आज इसका प्रयोग प्रायः लुप्त हो चुका है, तदपि किसी समय दक्षिण देशमें इस ही का प्रचार था, क्योंकि दक्षिण देशके आचार्यों द्वारा लिखित प्रायः सभी शास्त्रोंमें इसका प्रयोग देखा जाता है। इतिहासकारोंके अनुसार भृत्यवंशी गौतमी पुत्र राजा सातकर्णी शालिवाहनने ई. ७९ (वी.नि. ६०६) में शक वंशी राजा नरवाहनको परास्त कर देनेके उपलक्ष्यमें इस संवत्को प्रचलित किया था। जैन शास्त्रोंके अनुसार भी वीर निर्वाणके ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात् शक राजाकी उत्पत्ति हुई थी। इससे प्रतीत होता है कि शकराजको जीत लेनेके कारण शालिवाहनका नाम ही शक पड़ गया था, इसलिए कहीं कहीं शालिवाहन संवत् को ही शक संवत् कहने की प्रवृत्ति चल गई, परन्तु वास्तवमें वह इससे पृथक् एक स्वतंत्र संवत् है जिसका उल्लेख नीचे किया गया है। प्रचलित शक संवत् वीर-निर्वाणके ६०५ वर्ष पश्चात् और विक्रम संवत्के १३५ वर्ष पश्चात् माना गया है। (विशेष दे. परिशिष्ट १)
2.5 शालिवाहन संवत्
शक संवत् इसका प्रचार आज प्रायः लुप्त हो चुका है तदपि जैसा कि कुछ शिलालेखोंसे विदित है किसी समय दक्षिण देशमें इसका प्रचार अवश्य रहा है। शकके नामसे प्रसिद्ध उपर्युक्त शालिवाहनसे यह पृथक् है क्योंकि इसकी गणना वीर निर्वाणके ७४१ वर्ष पश्चात् मानी गई है। (विशेष दे. परिशिष्ट १)
2.6 ईसवी संवत्
यह संवत् ईसा मसीहके स्वर्गवासके पश्चात् योरेपमें प्रचलित हुआ और अंग्रेजी साम्राज्यके साथ सारी दुनियामें फैल गया। यह आज विश्वका सर्वमान्य संवत् है। इसकी प्रवृत्ति वीर निर्वाणके ५२५ वर्ष पश्चात् और विक्रम संवत्से ५७ वर्ष पश्चात् होनी प्रसिद्ध है।
2.7 गुप्त संवत् निर्देश
इसकी स्थापना गुप्त साम्राज्यके प्रथम सम्राट् चन्द्रगुप्तने अपने राज्याभिषेकके समय ईसवी ३२० अर्थात् वी.नि. के ८४६ वर्ष पश्चात् की थी। इसका प्रचार गुप्त साम्राज्य पर्यन्त ही रहा।
2.8 हिजरी संवत् निर्देश
इस संवत्का प्रचार मुसलमानोंमें है क्योंकि यह उनके पैगम्बर मुहम्मद साहबके मक्का मदीना जानेके समयसे उनकी हिजरतमें विक्रम संवत् ६५० में अर्थात् वीर निर्वाणके ११२० वर्ष पश्चात् स्थापित हुआ था। इसीको मुहर्रम या शाबान सन् भी कहते हैं।
2.9 मघा संवत् निर्देश
म. पु. ७६/३९९ कल्की राजाकी उत्पत्ति बताते हुए कहा है कि दुषमा काल प्रारम्भ होने के १००० वर्ष बीतने पर मघा नामके संवत्में कल्की नामक राजा होगा। आगमके अनुसार दुषमा कालका प्रादुर्भाव वी. नि. के ३ वर्ष व ८ मास पश्चात् हुआ है। अतः मघा संवत्सर वीर निर्वाणके १००३ वर्ष पश्चात् प्राप्त होता है। इस संवत्सरका प्रयोग कहीं भी देखनेमें नहीं आता।
2.10 सर्व संवत्सरोंका परस्पर सम्बन्ध
निम्न सारणीकी सहायतासे कोई भी एक संवत् दूसरेमें परिवर्तित किया जा सकता है।
<thead> </thead> <tbody> </tbody>क्रम | नाम | संकेत | १वी.नि. | २ विक्रम | ३ ईसवी | ४ शक | ५ गुप्त | ६ हिजरी |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|
१ | वीर | वी. | - | - | - | - | - | - |
- | निर्वाण | नि. | १ | पूर्व ४७० | पूर्व ५२७ | पूर्व ६०५ | पूर्व ८४६ | पूर्व ११२० |
२ | विक्रम | वि. | ४७० | १ | पूर्व ५७ | पूर्व १३५ | पूर्व ३७६ | पूर्व ६५० |
३ | ईसवी | ई. | ५२७ | ५७ | १ | पूर्व ७८ | पूर्व ३१९ | पूर्व ५९३ |
४ | शक | श. | ६०५ | १३५ | ७८ | १ | पूर्व २४१ | पूर्व ५१५ |
५ | गुप्त | गु. | ८४६ | ३७६ | ३१९ | २४१ | १ | पूर्व २७४ |
६ | हिजरी | हि. | ११२० | ६५० | ५९४ | ५३५ | २७४ | १ |
3. ऐतिहासिक राज्यवंश
3.1 भोज वंश
द.सा./प्र. ३६-३७ (बंगाल एशियेटिक सोसाइटी वाल्यूम ५/पृ. ३७८ पर छपा हुआ अर्जुनदेवका दानपत्र); (ज्ञा./प्र./पं. पन्नालाल) = यह वंश मालवा देशपर राज्य करता था। उज्जैनी इनकी राजधानी थी। अपने समयका बड़ा प्रसिद्ध व प्रतापी वंश रहा है। इस वंशमें धर्म व विद्याका बड़ा प्रचार था। बंगाल एशियेटिक सोसाइटी वाल्यूम ५/पृ. ३७८ पर छपे हुए अर्जुनदेवके अनुसार इसकी वंशावली निम्न प्रकार है।
<thead> </thead> <tbody> </tbody>सं. | नाम | समय | विशेष | |
---|---|---|---|---|
- | - | वि.सं. | ईसवी सन् | |
१ | सिंहल | ९५७-९९७ | ९००-९४० | दानपत्रसे बाहर |
२ | हर्ष | ९९७-१०३१ | ९४०-९७४ | इतिहासके अनुसार |
३ | मुञ्ज | १०३१-१०६० | ९७४-१००३ | दानपत्र तथा इतिहास |
४ | सिन्धु राज | १०६०-१०६५ | १००३-१००८ | इतिहासके अनुसार |
५ | भोज | १०६५-१११२ | १००८-१०५५ | दानपत्र तथा इतिहास |
६ | जयसिंह राज | १११२-१११५ | १०५५-१०५८ | दानपत्र तथा इतिहास |
७ | उदयादित्य | १११५-११५० | १०५८-१०९३ | समय निश्चित है |
८ | नरधर्मा | ११५०-१२०० | १०९३-११४३ | - |
९ | यशोधर्मा | १२००-१२१० | ११४३-११५३ | दानपत्रसे बाहर |
१० | अजयवर्मा | १२१०-१२४९ | ११५३-११९२ | - |
११ | विन्ध्य वर्मा | १२४९-१२५७ | ११९२-१२०० | इसका समय निश्चित है |
- | विजय वर्मा | - | - | - |
१२ | सुभटवर्मा | १२५७-१२६४ | १२००-१२०७ | - |
१३ | अर्जुनवर्मा | १२६४-१२७५ | १२०७-१२१८ | - |
१४ | देवपाल | १२७५-१२८५ | १२१८-१२२८ | - |
१५ | जैतुगिदेव | १२८५-१२९६ | १२२८-१२३९ | - |
नोट - इस वंशावलीमें दर्शाये गये समय, उदयादित्य व विन्ध्यवर्माके समयके आधारपर अनुमानसे भरे गये हैं। क्योंकि उन दोनोंके समय निश्चित हैं, इसलिए यह समय भी ठीक समझना चाहिए।
3.2 कुरु वंश
इस वंशके राजा पाञ्चाल देशपर राज्य करते थे। कुरुदेश इनकी राजधानी थी। इस वंशमें कुल चार राजाओं का उल्लेख पाया जाता है - १. प्रवाहण जैबलि (ई. पू. १४००); २. शतानीक (ई. पू. १४००-१४२०); ३. जन्मेजय (ई. पू. १४२०-१४५०) ४. परीक्षित (ई. पू. १४५०-१४७०)।
3.3 मगध देशके राज्यवंश
3.3.1 सामान्य परिचय
जै. पी./पु. - जैन परम्परामें तथा भारतीय इतिहासमें किसी समय मगध देश बहुत प्रसिद्ध रहा है। यद्यपि यह देश बिहार प्रान्तके दक्षिण भागमें अवस्थित है, तथापि महावीर तथा बुद्धके कालमें पञ्जाब, सौराष्ट्र, बङ्गाल, बिहार तथा मालवा आदिके सभी राज्य इसमें सम्मिलित हो गये थे। उससे पहले जब ये सब राज्य स्वतन्त्र थे तब मालवा या अवन्ती राज्य और मगध राज्यमें परस्पर झड़पें चलती रहती थीं। मालवा या अवन्तीकी राजधानी उज्जयनी थी जिसपर `प्रद्योत' राज्य करता था और मगधकी राजधानी पाटलीपुत्र (पटना) या राजगृही थी जिसपर श्रेणिक बिम्बसार राज्य करते थे।
प्रद्योत तथा श्रेणिक प्रायः समकालीन थे। प्रद्योतका पुत्र पालक था और श्रेणिकके दो पुत्र थे, अभय कुमार और अजातशत्रु कुणिक। अभयकुमार श्रेणिकका मन्त्री था जिसने प्रद्योतको बन्दी बनाकर उसके आधीनकर दिया था।३२०। वीर निर्वाणवाले दिन अवन्ती राज्यपर प्रद्योतका पुत्र पालक गद्दीपर बैठा। दूसरी ओर मगध राज्यमें वी. नि. से ९ वर्ष पूर्व श्रेणिकका पुत्र अजातशत्रु राज्यासीन हुआ ।३१६। पालकका राज्य ६० वर्ष तक रहा। इसके राज्यकालमें ही मगधकी गद्दीपर अजातशत्रु का पुत्र उदयी आसीन हो गया था। इससे अपनी शक्ति बढा ली थी जिसके द्वारा इसने पालकको परास्त करके अवन्तीपर अधिकारकर लिया परन्तु उसे अपने राज्यमें नहीं मिला सका। यह काम इसके उत्तराधिकारी नन्दिवर्धनने किया। यहाँ आकर अवन्ती राज्यकी सत्ता समाप्त हो गई ।३२८, ३३१।
श्रेणिकके वंशमें पुत्र परम्परासे अनेकों राजा हुए। सब अपने-अपने पिताको मारकर राज्यपर अधिकार करते रहे, इसलिये यह सारा वंश पितृघाती कुलके रूपमें बदनाम हो गया। जनताने इसके अन्तिम राजा नागदासको गद्दीसे उतारकर उसके मन्त्री सुसुनागको राजा बना दिया। अवन्तीको अपने राज्यमें मिलाकर मगध देशकी वृद्धि करनेके कारण इसीका नाम नन्दिवर्धन पड़ गया ।३३१। यह नन्दवंशका प्रथम राजा हुआ। इस वंशने १५५ वर्ष राज्य किया। अन्तिम राजा धनानन्द था जो भोग विलासमें पड़ जानेके कारण जनताकी दृष्टिसे उतर गया। उसके मन्त्री शाकटालने कूटनीतिज्ञ चाणक्यकी सहायतासे इसके सारे कुलको नष्ट कर दिया और चन्द्रगुप्त मौर्यको राजा बना दिया ।३६२।
चन्द्र गुप्तसे मौर्य या मरुड वंशकी स्थापना हुई, जिसका राज्यकाल २५५ वर्ष रहा कहा जाता है। परन्तु जैन इतिहासके अनुसार वह ११५ वर्ष और लोक इतिहासके अनुसार १३७ वर्ष प्राप्त होता है। इस वंशके प्रथम राजा चन्द्रगुप्त जैन थे, परन्तु उसके उत्तराधिकारी बिन्दुसार, अशोक, कुनाल और सम्प्रति ये चारों राजा बौद्ध हो गये थे। इसीलिये बौद्धाम्नायमें इन चारोंका उल्लेख पाया जाता है, जबकि जैनाम्नायमें केवल एक चन्द्रगुप्तका ही काल देकर समाप्तकर दिया गया है ।३१६।
इसके पश्चात् मगध देशपर शक वंशने राज्य किया जिसमें पुष्यमित्र आदि अनेकों राजा हुए जिनका शासन २३० वर्ष रहा। अन्तिम राजा नरवाहन हुआ। तदनन्तर यहाँ भृत्य अथवा कुशान वंशका राज्य आया जिसके राजा शालिवाहनने वी. नि. ६०५ (ई. ७९) में शक वंशी नरवाहनको परास्त करनेके उपलक्षमें शक संवत्की स्थापनाकी। (दे. इतिहास २/४)। इस वंशका शासन २४२ वर्ष तक रहा।
भृत्य वंशके पश्चात् इस देशमें गुप्तवंशका राज्य २३१ वर्ष पर्यन्त रहा, जिसमें चन्द्रगुप्त द्वि. तथा समुद्रगुप्त आदि ६ राजा हुए। परन्तु तृतीय राजा स्कन्दगुप्त तक ही इसकी स्थिति अच्छी रही, क्योंकि इसके कालमें हूनवंशी सरदार काफी जोर पकड़ चुके थे। यद्यपि स्कन्दगुप्तने इन्हें परास्तकर दिया था तदपि इसके उत्तराधिकारी कुमारगुप्तसे उन्होंने राज्यका बहुभाग छीन लिया। यहाँ तक कि ई. ५०० (वी. नि. १०२७) में इस वंशके अन्तिम राजा भानुगुप्तको जोतकर हूनराज तोरमाणने सारे पंजाब तथा मालवा (अवन्ती) पर अपना अधिकार जमा लिया, और इसके पुत्र मिहिरपालने इस वंश को नष्ट भ्रष्ट कर दिया। (क. पा. १/प्र. ५४,६५/पं. महेन्द्र)। इसलिये शास्त्रकारोंने इस वंशकी स्थिति वी. नि. ९५८ (ई. ४३१) तक ही स्वीकार की। जैनआम्नायके अनुसार वी. नि. ९५८ (ई. ४३१)में इन्द्रसुत कल्कीका राज्य प्रारम्भ हुआ, जिसने प्रजापर बड़े अत्याचार किये, यहाँ तक कि साधुओंसे भी उनके आहारका प्रथम ग्रास शुक्लके रूपमें मांगना प्रारम्भकर दिया। इसका राज ४२ वर्ष अर्थात् वी. नि. १००० (ई. ४७३) तक रहा। इस कुलका विशेष परिचय आगे पृथक्से दिया गया है। (दे. अगला उपशीर्षक)।
3.3.2 कल्की वंश
ति. प. ४/१५०९-१५११ तत्तो कक्की जादी इंदसुदो तस्स चउमुहो णामो। सत्तरि वरिसा आऊ विगुणियइगिवीस रज्जंतो ।१५०९। आचारांगधरादो पणहत्तरिजुत्तदुसमवासेसुं। वोलीणेसं बद्धो पट्टो कक्किस्स णरवइणो ।।१५१०।। अहसाहियाण कक्की णियजोग्गे जणपदे पयत्तेणं। सुक्कं जाचदि लुद्धो पिंडग्गं जाव ताव समणाओ ।।१५११।। = गुप्त कालके पश्चात् अर्थात् वी. नि. ९५८ में `इन्द्र' का सुत कल्की अपर नाम चतुर्मुख राजा हुआ। इसकी आयु ७० वर्ष थी और ४२ वर्ष अर्थात् वी. नि. १००० तक उसने राज्य किया ।।१५०९।। आचारांगधरों (वी.नि. ६८३) के पश्चात् २७५ वर्ष व्यतीत होनेपर अर्थात् वी. नि. ९५८ में कल्की राजाको पट्ट बाँधा गया ।।१५१०।। तदनन्तर वह कल्की प्रयत्न पूर्वक अपने-अपने योग्य जनपदोंको सिद्ध करके लोभको प्राप्त होता हुआ मुनियोंके आहारमें-से भी अग्रपिण्डको शुल्कमें मांगने लगा ।।१५११।। (ह.पु. ६०/४९१-४९२)
त्रि.सा. ८५० पण्णछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिव्वुइदे। सगराजो तो कक्की चदुणवतियमहिय सगमासं।। = वीर निर्वाणके ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात् शक राजा हुआ और उसके ३९४ वर्ष ७ मास पश्चात् अर्थात् वीर निर्वाणके १००० वर्ष पश्चात् कल्की राजा हुआ। उ. पु. ७६/३९७-४०० दुष्षमायां सहस्राब्दव्यतीतौ धर्महानितः ।३९७। पुरे पाटलिपुत्राख्ये शिशुपालमहीपतेः। पापी तनूजः पृथिवीसुन्दर्यां दुर्जनादिमः ।३९८। चतुर्मुखाह्वयः कल्किराजो वेजितभूतलः।....।३९९। समानां सप्तितस्य परमायुः प्रकीर्तितम्। चत्वारिंशत्समा राज्यस्थितिश्चाक्रमकारिणः ।।४०।। = जन्म दुःखम कालके १००० वर्ष पश्चात्। आयु ७० वर्ष। राज्यकाल ४० वर्ष। राजधानी पाटलीपुत्र। नाम चतुर्मुख। पिता शिशुपाल।
नोट - शास्त्रोल्लिखित उपर्युक्त तीन उद्धरणोंसे कल्कीराजके विषयमें तीन दृष्टियें प्राप्त होती हैं। तीनों ही के अनुसार उसका नाम चतुर्मुख था, आयु ७० वर्ष तथा राज्यकाल ४० अथवा ४२ वर्ष था। परन्तु ति. प. में उसे इन्द्र का पुत्र बताया गया है और उत्तर पुराणमें शिशुपालका। राज्यारोहण कालमें भी अन्तर है। ति. प. के अनुसार वह वी. नि. ९५८ में गद्दीपर बैठा, त्रि. सा. के अनुसार वी. नि. १००० में और उ. पु. के अनुसार दुःषम काल (वी. नि. ३) के १००० वर्ष पश्चात् अर्थात् १००३ में उसका जन्म हुआ और १०३३ से १०७३ तक उसने राज्य किया। यहाँ चतुर्मुखको शिशुपालका पुत्र भी कहा है। इसपरसे यह जाना जाता है कि यह कोई एक राजा नहीं था, सन्तान परम्परासे होनेवाले तीन राजा थे - इन्द्र, इसका पुत्र शिशुपाल और उसका पुत्र चतुर्मुख। उत्तरपुराणमें दिये गए निश्चित काल के आधारपर इन तीनोंका पृथक्-पृथक् काल भी निश्चित हो जाता है। इन्द्रका वी. नि. ९५८-१०००, शिशुपालका १०००-१०३३, और चतुर्मुखका १०३३-१०७३ । तीनों ही अत्यन्त अत्याचारी थे।
3.3.3 हून वंश
क. पा. १/प्र. ५४/६५ (पं. महेन्द्र कुमार) - लोक-इतिहासमें गुप्त वंशके पश्चात् कल्कीके स्थानपर हूनवंश प्राप्त होता है। इसके राजा भी अत्यन्त अत्याचारी बताये गये हैं और काल भी लगभग वही है, इसलिये कहा जा सकता है कि शास्त्रोक्त कल्की और इतिहासोक्त हून एक ही बात है। जैसा कि मगध राज्य वंशोंका सामान्य परिचय देते हुए बताया जा चुका है इस वंशके सरदार गुप्तकालमें बराबर जोर पकड़ते जा रहे थे और गुप्त राजाओंके साथ इनकी मुठभेड़ बराबर चलती रहती थी। यद्यपि स्कन्द गुप्त (ई. ४१३-४३५) ने अपने शासन कालमें इसे पनपने नहीं दिया, तदपि उसके पश्चात् इसके आक्रमण बढ़ते चले गए। यद्यपि कुमार गुप्त (ई. ४३५-४६०) को परास्त करनेमें यह सफल नहीं हो सका तदपि उसकी शक्तिको इसने क्षीण अवश्य कर दिया, यहाँ तक कि इसके द्वितीय सरदार तोरमाणने ई. ५०० में गुप्तवंशके अन्तिम राजा भानुगुप्तके राज्यको अस्त-व्यस्त करके सारे पंजाब तथा मालवापर अपना अधिकार जमा लिया। ई. ५०७ में इसके पुत्र मिहिरकुलने भानुगुप्तको परास्तकरके सारे मगधपर अपना एक छत्र राज्य स्थापित कर दिया।
परन्तु अत्याचारी प्रवृत्तिके कारण इसका राज्य अधिक काल टिक न सका। इसके अत्याचारोंसे तंग आकर विष्णु-यशोधर्म नामक एक हिन्दू सरदारने मगधकी बिखरी हुई शक्तिको संगठित किया और ई. ५२८ में मिहिरकुलको मार भगाया। उसने कशमीरमें शरण ली और ई. ५४० में वहाँ ही उसकी मृत्यु हो गई।
विष्णु-यशोधर्म कट्टर वैष्णव था, इसलिये उसने यद्यपि हिन्दू धर्मकी बहुत वृद्धिकी तदपि साम्प्रदायिक विद्वेषके कारण जैन संस्कृतिपर तथा श्रमणोंपर बहुत अत्याचार किये, जिसके कारण जैनाम्नायमें यह कल्की नामसे प्रसिद्ध हो गया और हिन्दुओंने इसे अपना अन्तिम अवतार (कल्की अवतार) स्वीकार किया।
जैन मान्य कल्कि वंशकी हून वंशके साथ तुलना करनेपर हम कह सकते हैं वी. नि. ९५८-१००० (ई. ४३१-४७३) में होनेवाला राजा इन्द्र इस कुलका प्रथम सरदार था, वी. नि. १०००-१०३३ (ई. ४७३-५०६) का शिशुपाल यहाँ तोरमाण है, वी. नि. १०३३-१०७३ वाला चतुर्मुख यहाँ ई. ५०६-५४६ का मिहिरकुल है। विष्णु यशोधर्मके स्थानपर किसी अन्य नामका उल्लेख न करके उसके कालको भी यहाँ चतुर्मुखके कालमें सम्मिलित कर लिया गया है।
3.3.4 काल निर्णय
अगले पृष्ठकी सारणीमें मगधके राज्यवंशों तथा उनके राजाओंका शासन काल विषयक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
आधार-जैन शास्त्र = ति. प. ४/१५०५-१५०८; ह. पु. ६०/४८७-४९१।
सन्धान - ति. प. २/प्र. ७, १४। उपाध्ये तथा एच. ऐल. जैन; ध. १/प्र. ३३/एच. एल. जैन; क. पा. १/प्र. ५२-५४ (६४-६५)। पं. महेन्द्रकुमार; द. सा./प्र. २८/पं. नाथूराम प्रेमी; पं. कैलाश चन्दजी कृत जैन साहित्य इतिहास पूर्व पीठिका।
प्रमाण - जैन इतिहास = जैन साहित्य इतिहास पूर्व पीठिका/ पृष्ठ संख्या
संकेत - वी. नि. = वीर निर्वाण संवत्; ई. पू. = ईसवी पूर्व; ई. = ईसवी; पू. = पूर्व; सं. = संवत्; वर्ष= कुल शासन काल; लोक इतिहास = वर्तमान इतिहास।
नाम | जैन शास्त्र (ति. प. ४/१५०५) | मत्स्य पुराण | जैन इतिहास | विशेषताएँ | |||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
- | प्रमाण | वी.नि. | ई.पू. | प्रमाण | वर्ष | प्रमाण | ई.पू. | वर्ष | |
अवन्ती राज्य | |||||||||
१. प्रद्योत वंश | |||||||||
सामान्य | - | - | - | ३१७ | १२५ | - | - | - | |
प्रद्योत | - | - | - | ३१७ | २३ | ३२५ | ५६०-५२७ | ३३ | श्रेणिक तथा अजातशत्रुका समकालीन ।३२२। श्रेणिकके मन्त्री अभयकुमारने बन्दी बनाकर श्रेणिकके आधीन किया था ।३२०। |
पालक | ३२६ | Jan-१९६० | ५२७-४६७ | - | - | ३२५ | ५२७-४६७ | ६० | इसे गद्दीसे उतारकर जनताने मगध नरेश उदयी (अजक) को राजा स्वीकार कर लिया ।३३२। |
विशाखयूप | - | - | - | ३१७ | ५३ | - | - | - | |
आर्यक, सूर्यक | - | - | - | ३१८ | २१ | - | - | - | |
अजक (उदयी) | - | - | - | - | - | - | ४९९-४६७ | ३२ | मगध शासनके ५३ वर्षोंमें से अन्तिम ३२ वर्ष इसने अवन्ती पर शासन किया ।२८९। परन्तु दुष्टताके कारण किसी भ्रष्ट राजकुमारके हाथों धोखेसे निःसन्तान मारा गया ।२३२। |
नन्दि वर्द्धन | - | - | - | - | - | - | ४६७-४४९ | १८ | इसने मगधमें मिलाकर इस राज्यका अन्तकर दिया ।३२८। |
मगध राज्य | |||||||||
१. शिशुनाग वंश | |||||||||
सामान्य | - | - | - | - | १२६ | - | - | - | |
शिशुनाग | - | - | - | ३१८ | ४० | - | - | - | जायसवालजीके अनुसार श्रेणिक वंशीय दर्शकके अपर नाम हैं। शिशुनाग तथा काकवण उसके विशेषण हैं ।३२२। |
काकवर्ण | - | - | - | ३१८ | २६ | - | - | - | |
क्षेत्रधर्मा | - | - | - | ३१८ | ३६ | - | - | - | |
क्षतौजा | - | - | - | ३१८ | २४ | - | - | - |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
नाम | बौद्ध शास्त्र महावंश | मत्स्यपुराण | जैन इतिहास | विशेषताएँ | |||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
- | प्रमाण | बु.नि. | ई.पू. | वर्ष | वर्ष | प्रमाण | ई.पू. | वर्ष | |
२. श्रेणिक वंश | |||||||||
सामान्य | राज्यके लोभसे अपने अपने पिताकी हत्या करनेके कारण यह कुल पितृघाती नामसे प्रसिद्ध है ।३१४। | ||||||||
श्रेणिक (बिम्बसार) | - | - | - | - | २८ | ३०८ | ६०४-६५२ | ५२ | बुद्ध तथा महावीरके समकालीन ।३०४। इसके पुत्र अजातशत्रुका राज्याभिषेक ई. पू. ५५२ में निश्चित है। |
अजातशत्रु (कुणिक) | ३१६ | पू. ८-सं.२४ | ५५२-५२० | ३२ | २७ | ३०८ | ५५२-५२० | ३२ | |
भूमिमित्र | - | - | - | - | १४ | - | - | - | बौद्ध ग्रन्थोंमें इसका उल्लेख नहीं है ।३२२। |
दर्शक | - | - | - | - | २७ | - | - | - | इसकी बहन पद्मावतीका विवाह उदयीके साथ होना माना गया है ।३२३। |
- | - | - | - | - | २४ | - | - | - | |
वंशक | |||||||||
उदयी | ३१४ | २४-४० | ५२०-५०४ | १६ | ३३ | ३३३ | ५२०-४६७ | ५३ | अजातशत्रुका पुत्र ।३१४। अपरनाम अजक । ३२८। ई. पू. ४२९ में पालकको गद्दीसे हटाकर जनताने इसे अवन्तीका शासक बना दिया परन्तु यह उसे अपने देशमें नहीं मिला सका ।३२८। |
अनुरुद्ध | ३१४ | ४०-४४ | ५०४-५०० | ४ | - | ३३५ | ४६७-४५८ | ९ | |
मुण्ड | ३१४ | ४४-४८ | ५००-४९६ | ४ | - | ३३५ | ४५८-४४९ | ८ | |
नागदास | ३१४ | ४८-७२ | ४९६-४७२ | २४ | - | ३१४ | ४४९-४४९ | ० | पितृघाती कुलको समाप्त करनेके लिए जनताने उसके स्थानपर इसके मन्त्रीको राजा बना दिया ।३१४। |
सुसुनाग (नन्दिवर्धन) | ३१५ | ७२-९० | ४७२-४५४ | १८ | ४० | ३१४ | ४४९-४०९ | ४० | नागदासका मन्त्री जिसे जनताने राजा बनाया ।३१४। अवन्ती राज्यको मिलाकर अपने देशकी वृद्धि करनेके कारण नन्दिवर्द्धन नाम पड़ा ।३३१। |
कालासोक | ३१५ | ९०-११८ | ४५४-४२६ | २८ | - | - | - | - |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
नाम | जैन शास्त्र (ति. प. ४) १५०६ | मत्स्य पुराण | जैन इतिहास | विशेषताएँ | ||||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
- | प्रमाण | वी.नी. | ई.पू. | वर्ष | वर्ष | प्रमाण | ई.पू. | वर्ष | ||
३. नन्द वंश | ||||||||||
सामान्य | ३२९ | ६०-२१५ | ४६७-३१२ | १५५* | १८३ | - | - | - | खारवेल शिलालेखके आधारपर क्योंकि नंदिवर्द्धनका राज्याभिषेक ई. पू. ४५८ में होना सिद्ध होता है इसलिए जायसवाल जीने राजाओंके उपर्युक्त क्रममें कुछ हेर-फेर करके संगति बैठानेका प्रयत्न किया है ।३३४। श्रेणिक वंशीय नामदासका मन्त्री ही नन्दिवर्द्धनसे प्रसिद्ध हो गया था। (दे. ऊपर)। वास्तवमें यह नन्द वंशके राजाओंमें सम्मिलित नहीं थे। इस वंशमें नव नन्द प्रसिद्ध हैं। जिनका उल्लेख आगे किया गया है ।३३१। | |
अनुरुद्ध | - | - | - | - | - | ३३४ | ४६७-४५८ | ९ | ||
नन्दिवर्द्धन (सुसुनाग) | - | - | - | - | ४० | ३३४ | ४५८-४१८ | ४० | ||
मुण्ड | - | - | - | - | - | ३३४ | ४१८-४१० | ८ | ||
लोक इतिहास | ||||||||||
नव नन्द :- | - | - | ५२६-३२२ | २०४ | - | - | ४१०-३२६ | ८४ | ||
महानन्द | - | - | - | - | ४३ | ३३४ | ४१०-३७४ | ३६ | नन्दिवर्द्धनका उत्तराधिकारी तथा नन्द वंशका प्रथम राजा ।३३१। | |
महानन्दके २ पुत्र | - | - | - | - | - | ३३४ | ३७४-३६६ | ८ | ||
महापद्मनन्द (तथा इनके ४ पुत्र) | - | - | - | - | ८८ | ३३४ | ३६६-३३८ | २८* | ८८ तथा २८ वर्ष की गणनामें ६० वर्षका अन्तर है। इसके समाधानके लिए देखो नीचे टिप्पणी। | |
धनानन्द | - | - | - | - | १२ | ३३४ | ३३८-३२६ | १२ | भोग विलासमें पड़ जानेके कारण इसके कुलको नष्ट कर के इसके मन्त्री शाकटालने चाणक्यकी सहायतासे चन्द्र गुप्त मौर्यको राजा बना दिया ।३६४। |
* जैन शास्त्रके अनुसार पालकका काल ६० वर्ष और नन्द वंशका १५५ वर्ष है। तदनन्तर अर्थात् वी. नि. २१५ में चन्द्रगुप्त मौर्यका राज्याभिषेक हुआ। श्रुतकेवली भद्रबाहु (वी. नि. १६२) के समकालीन बनानेके अर्थ श्वे. आचार्य श्री हेमचन्द्र सूरिने इसे वी. नि. १५५ में राज्यारूढ़ होनेकी कल्पना की। जिसके लिए उन्हें नन्द वंशके कालको १५५ से घटा कर ९५ वर्ष करना पड़ा। इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्यके कालको लेकर ६० वर्षका मतभेद पाया जाता है ।३१३। दूसरी ओर पुराणोंमें नन्द वंशीय महापद्मनन्दिके कालको लेकर ६० वर्षका मतभेद है। वायु पुराणमें उसका काल २८ वर्ष है और अन्य पुराणोंमें ८८ वर्ष। ८८ वर्ष मानने पर नन्द वंशका काल १८३ वर्ष आता है और २८ वर्ष मानने पर १२३ वर्ष। इस कालमें उदयी (अजक) के अवन्ती राज्यवाले ३२ वर्ष मिलानेपर पालकके पश्चात् नन्द वंशका काल १५५ वर्ष आ जाता है। इसलिए उदयी (अजक) तथा उसके उत्तराधिकारी नन्दिवर्द्धनकी गणना नन्द वंशमें करनेकी भ्रान्ति चल पड़ी है। वास्तवमें ये दोनों राजा श्रेणिक वंशमें हैं, नन्द वंशमें नहीं। नन्द वंशमें नव नन्द प्रसिद्ध हैं जिनका काल महापद्मनन्दसे प्रारम्भ होता है ।३३१।
<thead> </thead> <tbody> </tbody>नाम | जैन शास्त्र ति. प. ४/१५०६ | जैन इतिहास | लोक इतिहास | विशेष घटनायें | |||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
- | वी.नि. | ई.पू. | वर्ष | प्रमाण | ई.पू. | वर्ष | ई.पू. | वर्ष | |
४. मौर्य या मुरुड़ वंश- | |||||||||
सामान्य | २१५-४७० | ३१२-५७ | २५५ | - | ३२६-२११ | ११५ | ३२२-१८५ | १३७ | |
चन्द्रगुप्त प्र. | २१५-२५५ | ३१२-२७२ | ४० | ३५८ | ३२६-३०२ | २४ | ३२२-२९८ | २४ | जिन दीक्षा धारण करने वाले ये अन्तिम राजा थे। |
- | - | - | - | ३३६ | - | - | - | - | ति. प. ४/१४८१। बुद्ध निर्वाण (ई. पू. ५४४) से २१८ वर्ष पश्चात् गद्दी पर बैठे ।२८७। श्रुतकेवली भद्र बाहु (वी. नि. १६२) के साथ दक्षिण गये। (दे. इतिहास ४)। |
बिन्दुसार | - | - | - | - | ३०२-२७७ | २५ | २९८-२७३ | २५ | चन्द्रगुप्तका पुत्र ।३५८। |
अशोक | - | - | - | - | २७७-२३६ | ४१ | २७३-२३२ | ४१ | |
कुनाल | - | - | - | ३५९ | २३६-२२८ | ८ | २३२-१८५ | ४७ | |
दशरथ | - | - | - | ३५९ | २२८-२२० | ८ | - | - | कुनालके ज्येष्ठ पुत्र अशोकका पोता ।३५१। |
सम्प्रति (चन्द्रगुप्त द्वि.) | - | - | - | ३५८ | २२०-२११ | ९ | - | - | कुनालका लघु पुत्र अशोकका पोता चन्द्रगुप्तके १०५ वर्ष पश्चात् और अशोकके १६ वर्ष पश्चात् गद्दी पर बैठा ।३५९। |
विक्रमादित्य* | ४१०-४७० | ११७-५७ | ६० | - | - | - | - | - | *यह नाम क्रमबाह्य है। |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
वंशका नाम सामान्य/विशेष | जैन शास्त्र ति. प. ४/१५०७ | लोक इतिहास | विशेष घटनायें | |||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|
वी.नि. | ई.पू. | वर्ष | ई.पू. | वर्ष | ||||
५. शक वंश- | ||||||||
सामान्य | २५५-४८५ | २७२-४२ | २३० | १८५-१२० | ६५ | यह वास्तवमें कोई एक अखण्ड वंश न था, बल्कि छोटे-छोटे सरदार थे, जिनका राज्य मगध देशकी सीमाओंपर बिखरा हुआ था। यद्यपि विक्रम वंशका राज्य वी. नि. ४७० में समाप्त हुआ है, परन्तु क्योंकि चन्द्रगुप्तके कालमें ही इन्होंने छोटी-छोटी रियासतों पर अधिकार कर लिया था, इसलिए इनका काल वी. नि. २५५ से प्रारम्भ करने में कोई विरोध नहीं आता। | ||
प्रारम्भिक अवस्था में | २५५-३४५ | २७२-१८२ | ९० | - | - | |||
१. पुष्य मित्र | २५५-२८५ | २७२-२४२ | ३० | - | - | |||
२. चक्षु मित्र (वसुमित्र) | २८५-३४५ | २४२-१८२ | ६० | - | - | |||
अग्निमित्र (भानुमित्र) | २८५-३४५ | २४२-१८२ | ६० | - | - | वसुमित्र और अग्निमित्र समकालीन थे, तथा पृथक्-पृथक् प्रान्तों में राज्य करते थे | ||
प्रबल अवस्थामें | अनुमानतः | |||||||
गर्दभिल्ल (गन्धर्व) | ३४५-४४५ | १८२-८२ | १०० | १८१-१४१ | ४० | यद्यपि गर्दभिल्ल व नरवाहनका काल यहाँ ई. पू. १४२-८२ दिया है, पर यह ठीक नहीं है, क्योंकि आगे राजा शालिवाहन द्वारा वी. नि. ६०५ (ई. ७९) में नरवाहनका परास्त किया जाना सिद्ध है। अतः मानना होगा कि अवश्य ही इन दोनोंके बीच कोई अन्य सरदार रहे होंगे, जिनका उल्लेख नहीं किया गया है। यदि इनके मध्यमें ५ या ६ सरदार और भी मान लिए जायें तो नरवाहनकी अन्तिम अवधि ई. १२० को स्पर्श कर जायेगी। और इस प्रकार इतिहासकारोंके समयके साथ भी इसका मेल खा जायेगा और शालिवाहनके समयके साथ भी। | ||
अन्य सरदार | ४४५-५६६ | ई.पू. ८२-ई. ३९ | १२१ | १४१-ई. ८० | २२१ | |||
नरवाहन (नमःसेन) | ५६६-६०६ | ३९-७९ | ४० | ८०-१२० | ४० | |||
६. भृत्य वंश (कुशान वंश) - | - | - | - | - | - | इतिहासकारोंकी कुशान जाति ही आगमकारोंका भृत्य वंश है क्योंकि दोनोंका कथन लगभग मिलता है। दोनों ही शकों पर विजय पानेवाले थे। उधर शालिवाहन और इधर कनिष्क दोनोंने समान समय में ही शकोंका नाश किया है। उधर शालिवाहन और इधर कनिष्क दोनों ही समान पराक्रमी शासक थे। दोनोंका ही साम्राज्य विस्तृत था। कुशान जाति एक बहिष्कृत चीनी जाति थी जिसे ई. पू. दूसरी शताब्दीमें देशसे निकाल दिया गया था। वहाँसे चलकर बखतियार व काबुलके मार्गसे ई. पू. ४१ के लगभग भारतमें प्रवेश कर गये। यद्यपि कुछ छोटे-मोटे प्रदेशों पर इन्होंने अधिकार कर लिया था परन्तु ई. ४० में उत्तरी पंजाब पर अधिकार कर लेनेके पश्चात् ही इनकी सत्ता प्रगट हुई। यही कारण है कि आगम व इतिहासको मान्यताओंमें इस वंशकी पूर्वावधिके सम्बन्धमें ८० वर्षका अन्तर है। | ||
सामान्य | ४८५-७२७ | पू. ४२-- ई. २०० | २४२ | ४०-३२० | २८० | |||
प्रारम्भिक-अवस्थामें | ४८५-५६६ | पू. ४२-ई. ३९ | ८१ | - | - |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
वंशका नाम सामान्य/विशेष | लोक इतिहास | विशेष घटनायें | |||
---|---|---|---|---|---|
ईसवी | वर्ष | ||||
प्रबल स्थितिमें | - | - | ई. ४० में ही इसकी स्थिति मजबूत हुई और यह जाति शकों के साथ टक्कर लेने लगी। इस वंशके दूसरे राजा गौतमी पुत्र सातकर्णी (शालिवाहन)ने शकोंके अन्तिम राजा नरवाहनको वी. नि. ६०६ (ई. ७९) में परास्त करके शक संवत्की स्थापना की। (क. पा. १/प्र./५३/६४/पं. महेन्द्र।) | ||
गौतम | ४०-७४ | ३४ | |||
शालिवाहन (सातकर्णि) | ७४-१२० वी.नि. ६०१-६४७ | ४६ | |||
कनिष्क | १२०-१६२ | ४२ | राजा कनिष्क इस वंशका तीसरा राजा था, जिसने शकोंका मूलच्छेद करके भारतमें एकछत्र विशाल राज्यकी स्थापना की। | ||
अन्य राजा | १६२-२०१ | ३९ | कनिष्कके पश्चात् भी इस जातिका एकछत्र शासन ई. २०१ तक चलता रहा इसी कारण आगमकारोंने यहाँ तक ही इसकी अवधि अन्तिम स्वीकार की है। परन्तु इसके पश्चात् भी इस वंशका मूलोच्छेद नहीं हुआ। गुप्त वंशके साथ टक्कर हो जानेके कारण इसकी शक्ति क्षीण होती चली गयी। इस स्थितिमें इसकी सत्ता ई. २०१-३२० तक बनी रही। यही कारण है कि इतिहासकार इसकी अन्तिम अवधि ई. २०१ की बजाये ३२० स्वीकार करते हैं। | ||
क्षीण अवस्थामें | २०१-३२० | ११९ | |||
७. गुप्त वंश- | आगमकारों व इतिहासकारोंकी अपेक्षा इस वंशकी पूर्वावधिके सम्बन्धमें समाधान ऊपर कर दिया गया है कि ई. २०१-३२० तक यह कुछ प्रारम्भिक रहा है। | ||||
सामान्य | जैन शास्त्र | २३१ | |||
प्रारम्भिक | इतिहास | ||||
अवस्थामें | ३२०-४६० | १४० | इसने एकछत्र गुप्त साम्राज्य की स्थापना करनेके उपलक्ष्यमें गुप्त सम्वत् चलाया। इसका विवाह लिच्छिव जातिकी एक कन्याके साथ हुआ था। यह विद्वानोंका बड़ा सत्कार करता था। प्रसिद्ध कवि कालिदास (शकुन्तला नाटककार) इसके दरबारका ही रत्न था। | ||
चन्द्रगुप्त | ३२०-३३० | १० | |||
समुद्रगुप्त | ३३०-३७५ | ४५ | |||
चन्द्रगुप्त - (विक्रमादित्य) | ३७५-४१३ | ३८ | |||
स्कन्द गुप्त | ४१३-४३५ वी. नि. | २२ | इसके समयमें हूनवंशी (कल्की) सरदार काफी जोर पकड़ चुके थे। उन्होंने आक्रमण भी किया परन्तु स्कन्द गुप्तके द्वारा परास्त कर दिये गये। ई. ४३७ में जबकि गुप्त संवत् ११७ था यही राजा राज्य करता था। (क. पा. १/प्र. /५४/६५/पं. महेन्द्र) | ||
- | ९४०-९६२ | - | इस वंशकी अखण्ड स्थिति वास्तवमें स्कन्दगुप्त तक ही रही। इसके पश्चात्, हूनोंके आक्रमणके द्वारा इसकी शक्ति जर्जरित हो गयी। यही कारण है कि आगमकारोंने इस वंशकी अन्तिम अवधि स्कन्दगुप्त (वी. नि. ९५८) तक ही स्वीकार की है। कुमारगुप्तके कालमें भी हूनों के अनेकों आक्रमण हुए जिसके कारण इस राज्यका बहुभाग उनके हाथमें चला गया और भानुगुप्तके समयमें तो यह वंश इतना कमजोर हो गया कि ई. ५०० में हूनराज तोरमाणने सारे पंजाब व मालवा पर अधिकार जमा लिया। तथा तोरमाणके पुत्र मिहरपालने उसे परास्त करके नष्ट ही कर दिया। | ||
कुमार गुप्त | ४३५-४६० | २५ | |||
भानु गुप्त | ४६०-५०७ | ४७ |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
जैन शास्त्रका कल्की वंश | इतिहासका हून वंश | ||||
---|---|---|---|---|---|
८. कल्की तथा हून वंश* | |||||
नाम | वी.नि. | वर्ष | नाम | ईस.वी. | वर्ष |
सामान्य | ९५८-१०७३ | ११५ | सामान्य | ४३१-५४६ | ११५ |
इन्द्र | ९५८-१००० | ४२ | - | ४३१-४७३ | ४२ |
शिशुपाल | १०००-१०३३ | ३३ | तोरमाण | ४७६-५०६ | ३३ |
चतुर्मुख | १०३३-१०५५ | ४० | मिहिरकुल | ५०६-५२८ | २ |
चतुर्मुख | १०५५-१०७३ | - | विष्णु यशोधर्म | ५२८-५४६ | १८ |
आगमकारोंका कल्की वंश ही इतिहासकारोंका हूणवंश है, क्योंकि यह एक बर्बर जंगली जाति थी, जिसके समस्त राजा अत्यन्त अत्याचारी होनेके कारण कल्की कहलाते थे। आगम व इतिहास दोनोंकी अपेक्षा समय लगभग मिलता है। इस जातिने गुप्त राजाओंपर स्कन्द गुप्तके समयसे ई. ४३२ से ही आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिये थे। (विशेष दे. शीर्षक २ व ३)
नोट-जैनागममें प्रायः सभी मूल शास्त्रोंमें इस राज्यवंशका उल्लेख किया गया है। इसके कारण भी दो हैं-एक तो राजा `कल्की' का परिचय देना और दूसरे वीरप्रभुके पश्चात् आचार्योंकी मूल परम्पराका ठीक प्रकारसे समय निर्णय करना। यद्यपि अन्य राज्य वंशोंका कोई उल्लेख आगममें नहीं है, परन्तु मूल परम्पराके पश्चात्के आचार्यों व शास्त्र-रचयिताओंका विशद परिचय पानेके लिए तात्कालिक राजाओंका परिचय भी होना आवश्यक है। इसलिये कुछ अन्य भी प्रसिद्ध राज्य वंशोंका, जिनका कि सम्बन्ध किन्हीं प्रसिद्ध आचार्यों के साथ रहा है, परिचय यहाँ दिया जाता है।
3.4 राष्ट्रकूट वंश (प्रमाणके लिए - दे. वह वह नाम)
सामान्य-जैनागमके रचयिता आचार्योंका सम्बन्ध उनमें-से सर्व प्रथम राष्ट्रकूट राज्य वंशके साथ है जो भारतके इतिहासमें अत्यन्त प्रसिद्ध है। इस वंशमें चार ही राजाओंका नाम विशेष उल्लेखनीय है-जगतुङ्ग, अमोघवर्ष, अकालवर्ष और कृष्णतृतीय। उत्तर उत्तरवाला राजा अपनेसे पूर्व पूर्वका पुत्र था। इस वंशका राज्य मालवा प्रान्तमें था। इसकी राजधानी मान्यखेट थी। पीछेसे बढ़ाते-बढ़ाते इन्होंने लाट देश व अवन्ती देशको भी अपने राज्यमें मिला लिया था।
१. जगतुङ्ग-राष्ट्रकूट वंशके सर्वप्रथम राजा थे। अमोघवर्षके पिता और इन्द्रराजके बड़े भाई थे अतः राज्यके अधिकारी यही हुए। बड़े प्रतापी थे इनके समयसे पहले लाट देशमें `शत्रु-भयंकर कृष्णराज' प्रथम नामके अत्यन्त पराक्रमी और व प्रसिद्ध राजा राज्य करते थे। इनके पुत्र श्री वल्लभ गोविन्द द्वितीय कहलाते थे। राजा जगतुङ्गने अपने छोटे भाई इन्द्रराजकी सहायतासे लाट नरेश `श्रीवल्लभ' को जीतकर उसके देशपर अपना अधिकारकर लिया था, और इसलिये वे गोविन्द तृतीयकी उपाधि को प्राप्त हो गये थे। इनका काल श. ७१६-७३५ (ई. ७९४-८१३) निश्चित किया गया है। २. अमोघवर्ष-इस वंशके द्वितीय प्रसिद्ध राजा अमोघवर्ष हुये। जगतुङ्ग अर्थात् गोविन्द तृतीय के पुत्र होने के कारण गोविन्द चतुर्थ की उपाधिको प्राप्त हुये। कृष्णराज प्रथम (देखो ऊपर) के छोटे पुत्र ध्रुव राज अमोघ वर्ष के समकालीन थे। ध्रुवराज ने अवन्ती नरेश वत्सराज को युद्ध में परास्त करके उसके देशपर अधिकार कर लिया था जिससे उसे अभिमान हो गया और अमोघवर्षपर भी चढ़ाईकर दी। अमोघवर्षने अपने चचेरे भाई कर्कराज (जगतुङ्गके छोटे भाई इन्द्रराजका पुत्र) की सहायतासे उसे जीत लिया। इनका काल वि. ८७१-९३५ (ई. ८१४-८७८) निश्चित है। ३. अकालवर्ष-वत्सराजसे अवन्ति देश जीतकर अमोघवर्षको दे दिया। कृष्णराज प्रथमके पुत्रके राज्य पर अधिकार करनेके कारण यह कृष्णराज द्वितीयकी उपाधिको प्राप्त हुये। अमोघवर्षके पुत्र होनेके कारण अमोघवर्ष द्वितीय भी कहलाने लगे। इनका समय ई. ८७८-९१२ निश्चित है। ४. कृष्णराज तृतीय-अकालवर्षके पुत्र और कृष्ण तृतीयकी उपाधिको प्राप्त थे।
4. दिगम्बर मूल संघ
4.1 मूलसंघ
भगवान् महावीरके निर्वाणके पश्चात् उनका यह मूल संघ १६२ वर्षके अन्तरालमें होने वाले गौतम गणधरसे लेकर अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी तक अविच्छिन्न रूपसे चलता रहा। इनके समयमें अवन्ती देशमें पड़नेवाले द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षके कारण इस संघके कुछ आचार्योंने शिथिलाचारको अपनाकर आ. स्थूलभद्रकी आमान्य में इससे विलग एक स्वतन्त्र श्वेताम्बर संघकी स्थापना कर दी जिससे भगवानका एक अखण्ड दो शाखाओंमें विभाजित हो गया (विशेष दे. श्वेताम्बर)। आ. भद्रबाहु स्वामीकी परम्परामें दिगम्बर मूल संघ श्रुतज्ञानियोंके अस्तित्वकी अपेक्षा वी. नि. ६८३ तक बना रहा, परन्तु संघ व्यवस्थाकी अपेक्षासे इसकी सत्ता आ. अर्हद्बली (वी.नि. ५६५-५९३) के कालमें समाप्त हो गई।
ऐतिहासिक उल्लेखके अनुसार मलसंघका यह विघटन वी. नि. ५७५ में उस समय हुआ जबकि पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमणके अवसरपर आ. अर्हद्बलिने यत्र-तत्र बिखरे हुए आचार्यों तथा यतियोंको संगठित करनेके लिये दक्षिण देशस्थ महिमा नगर (जिला सतारा) में एक महान यति सम्मेलन आयोजित किया जिसमें १००-१०० योजनसे आकर यतिजन सम्मिलित हुए। उस अवसर पर यह एक अखण्ड संघ अनेक अवान्तर संघोंमें विभक्त होकर समाप्त हो गया (विशेष दे. परिशिष्ट २/२)
4.2 मूलसंघकी पट्टावली
वीर निर्वाणके पश्चात् भगवान्के मूलसंघकी आचार्य परम्परामें ज्ञानका क्रमिक ह्रास दर्शानेके लिए निम्न सारणीमें तीन दृष्टियोंका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। प्रथम दृष्टि तिल्लोय पण्णति आदि मूल शास्त्रोंकी है, जिसमें अंग अथवा पूर्वधारियोंका समुदित काल निर्दिष्ट किया गया है। द्वितीय दृष्टि इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार की है जिसमें समुदित कालके साथ-साथ आचार्योंका पृथक्-पृथक् काल भी बताया गया है। तृतीय दृष्टि पं. कैलाशचन्दजी की है जिसमें भद्रबाहु प्र. की चन्द्रगुप्त मौर्यके साथ समकालीनता घटित करनेके लिये उक्त कालमें कुछ हेरफेर करनेका सुझाव दिया गया है (विशेष दे. परिशिष्ट २)।
दृष्टि नं. १ = (ति. प. ४/१४७५-१४९६), (ह. पु. ६०/४७६-४८१); (ध. ९/४,१/४४/२३०); (क.पा. १/$६४/८४); (म.पु. २/१३४-१५०)
दृष्टि नं. २ = इन्द्रनन्दि कृत नन्दिसंघ बलात्कार गणकी पट्टावली/श्ल. १-१७); (ती. २/१६ पर तथा ४/३४७ पर उद्धृत)
दृष्टि नं. ३ = जै.पी. ३५४ (पं. कैलाश चन्द)।
क्रम | नाम | अपर नाम | दृष्टि नं. १ | दृष्टि नं. २ | दृष्टि नं. ३ | विशेष | |||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
- | - | - | ज्ञान | समुदित काल | ज्ञान | कुल वर्ष | वी.नि.सं. | समुदित काल | वी.नि.सं. | कुल वर्ष | |
वीर निर्वाण के पश्चात्- | वर्ष | ० | - | ० | |||||||
१ | गौतम | इन्द्रभूति गणधर | केवली | ६२ वर्ष | केवली | १२ | ०-१२ | ६२ वर्ष | ०-१२ | १२ | |
२ | सुधर्मा | लोहार्य | पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व | ६२ वर्ष | केवली | १२ | २४-Dec | ६२ वर्ष | २४-Dec | १२ | |
३ | जम्बू | - | पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व | ६२ वर्ष | केवली | ३८ | २४-६२ | ६२ वर्ष | २४-६२ | ३८ | |
४ | विष्णु | नन्दि | पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व | १०० वर्ष | श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी | १४ | ६२-७६ | ६२ वर्ष | ६२-८८ | २६ | |
५ | नन्दि मित्र | नन्दि | पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व | १०० वर्ष | श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी | १६ | ७६-९२ | ६२ वर्ष | ८८-११६ | २८ | |
६ | अपराजित | पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व | १०० वर्ष | श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी | २२ | ९२-११४ | ६२ वर्ष | ११६-१५० | ३४ | ||
७ | गोवर्धन | पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व | १०० वर्ष | श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी | १९ | ११४-१३३ | १०० वर्ष | १५०-१८० | ३० | ||
८ | भद्रबाहु प्र. | पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व | १०० वर्ष | श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी | २९ | १३३-१६२ | १०० वर्ष | १८०-२२२ | ४१ | ||
९ | विशाखाचार्य | विशाखदत्त | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी | १० | १६२-१७२ | १०० वर्ष | २२२-२३२ | १० | |
१० | प्रोष्ठिल | चन्द्रगुप्त मौर्य | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | १९ | १७२-१९१ | १०० वर्ष | २३२-२५१ | १९ | |
११ | क्षत्रिय | कृति कार्य | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | १७ | १९१-२०८ | १०० वर्ष | २५१-२६८ | १७ | |
१२ | जयसेन | जय | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | २१ | २०८-२२९ | १०० वर्ष | २६८-२८९ | २१ | |
१३ | नागसेन | नाग | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | १८ | २२९-२४७ | १०० वर्ष | २८९-३०७ | १८ | |
१४ | सिद्धार्थ | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | १७ | २४७-२६४ | १०० वर्ष | ३०७-३२४ | १७ | ||
१५ | धृतषेण | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | १८ | २६४-२८२ | १८३ वर्ष | ३२४-३४२ | १८ | ||
१६ | विजय | विजयसेन | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | १३ | २८२-२९५ | १८३ वर्ष | ३४२-३५५ | १३ | |
१७ | बुद्धिलिंग | बुद्धिल | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | २० | २९५-३१५ | १८३ वर्ष | ३५५-३७५ | २० | |
१८ | देव | गंगदेव, गंग | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | १४ | ३१५-३२९ | १८३ वर्ष | ३७५-३८९ | १४ | |
१९ | धर्मसेन | धर्म, सुधर्म | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | १४ (१६) | ३२९-३४५ | १८३ वर्ष | ३८९-४०५ | १६ | १४ की बजाय १६ वर्ष लेनेसे संगति बैठेगी |
२० | क्षत्र | ११ अंग धारी | २२० वर्ष | ११ अंगधारी | १८ | ३४५-३६३ | १८३ वर्ष | ४०५-४१७ | १२ | ||
२१ | जयपाल | यशपाल | ११ अंग धारी | २२० वर्ष | ११ अंगधारी | २० | ३६३-३८३ | १८३ वर्ष | ४१७-४३० | १३ | |
२२ | पाण्डु | ११ अंग धारी | २२० वर्ष | ११ अंगधारी | ३९ | ३८३-४२२ | १८३ वर्ष | ४३०-४४२ | १२ | ||
२३ | ध्रुवसेन | द्रुमसेन | ११ अंग धारी | २२० वर्ष | ११ अंगधारी | १४ | ४२२-४३६ | १८३ वर्ष | ४४२-४५४ | १२ | |
२४ | कंस | ११ अंग धारी | २२० वर्ष | ११ अंगधारी | ३२ | ४३६-४६८ | २२० वर्ष | ४५४-४६८ | १४ | ||
२५ | सुभद्र | ११ अंग धारी | २२० वर्ष | ११ अंगधारी | ६ | ४६८-४७४ | २२० वर्ष | ४६८-४७४ | ६ | ||
२६ | यशोभद्र | अभय | आचारांग धारी | ११८ वर्ष | १० अंगधारी | १८ | ४७४-४९२ | २२० वर्ष | ४७४-४९२ | १८ | |
२७ | भद्रबाहु द्वि. | यशोबाहु जयबाहु | आचारांगधारी | ११८ वर्ष | ९ अंगधारी | २३ | ४९२-५१५ | २२० वर्ष | ४९२-५१५ | २३ | |
२८ | लोहाचार्य | लोहार्य | आचारांग धारी | ११८ वर्ष | ८ अंगधारी | ५२ (५०) | ५१५-५६५ | २२० वर्ष | ५१५-५६५ | ५० | ५२ की बजाय ५० वर्ष लेनेसे संगति बैठेगी |
- | ६८३ | ५६५ | - | ५६५ | |||||||
२८ | लोहाचार्य | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | ८ अंगधारी | ५२(५०) | ५१५-५६५ | ५६५ | ५१५-५६५ | ५० | श्रुतावतारकी मूल पट्टावलीमें इन चारोंका नाम नहीं है। (ध. १/प्र. २४/H. L. Jain)। एकसाथ उल्लेख होनेसे समकालीन हैं। इनका समुदित काल २० वर्ष माना जा सकता है (मुख्तार साहब) गुरु परम्परासे इनका कोई सम्बन्ध नहीं है (दे. परिशिष्ट २) | ||
२९ | विनयदत्त | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | १ अंगधारी | २० | ५६५-५८५ | २० वर्ष | - | - | |||
३० | श्रीदत्त नं. १ | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | १ अंगधारी | समकालीन है २० | ५६५-५८५ | २० वर्ष | - | - | |||
३१ | शिवदत्त | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | १ अंगधारी | समकालीन है २० | ५६५-५८५ | २० वर्ष | - | - | |||
३२ | अर्हदत्त | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | १ अंगधारी | - | - | २० वर्ष | - | - | |||
३३ | अर्हद्बलि (गुप्तिगुप्त) | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | अंगांशधर अथवा पूर्वविद | २८ | ५६५-५९३ | ११८ वर्ष | ५६५-५७५ | १० | आचार्य काल। | ||
- | - | - | - | - | ५७५-५९३ | ११८ वर्ष | संघ विघटनके पश्चात्से समाधिसरण तक (विशेष दे. परिशिष्ट २) | ||||
३४ | माघनन्दि | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | अंगांशधर अथवा पूर्वविद | २१ | ५९३-६१४ | ११८ वर्ष | ५७५-५७९ | ४ | नन्दि संघके पट्ट पर। | ||
- | - | - | - | - | - | ११८ वर्ष | ५७९-६१४ | ३५ | पट्ट भ्रष्ट हो जानेके पश्चात् समाधिमरण तक। (विशेष दे. परिशिष्ट २) | ||
३५ | धरसेन | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | अंगांशधर अथवा पूर्वविद | १९ | ६१४-६३३ | ११८ वर्ष | ५६५-६३३ | ६८ | अर्हद्बलीके समकालीन थे। वी. नि. ६३३ में समाधि। (विशेष दे. परिशिष्ट २) | ||
३६ | पुष्पदन्त | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | अंगांशधर अथवा पूर्वविद | ३० | ६३३-६६३ | ११८ वर्ष | ५९३-६३३ | ४० | धरसेनाचार्यके पादमूलमें ज्ञान प्राप्त करके इन दोनोंने षट् खण्डागमकी रचना की (विशेष दे. परिशिष्ट २) | ||
३७ | भूतबलि | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | अंगांशधर अथवा पूर्वविद | २० | ६६३-६८३ | ५९३-६८३ | ९० | ||||
- | ६८३ |
4.3 पट्टावली का समन्वय
ध. १/प्र./H. L. Jain/पृष्ठ संख्या-प्रत्येक आचार्यके कालका पृथक्-पृथक् निर्देश होनेसे द्वितीय दृष्टि प्रथमकी अपेक्षा अधिक ग्राह्य है ।२८। इसके अन्य भी अनेक हेतु हैं। यथा - (१) प्रथम दृष्टिमें नक्षत्रादि पाँच एकादशांग धारियोंका २२० वर्ष समुदित काल बहुत अधिक है ।२९। (२) पं. जुगल किशोरजीके अनुसार विनयदत्तादि चार आचार्योंका समुदित काल २० वर्ष और अर्हद्बलि तथा माघनन्दिका १०-१० वर्ष कल्पित कर लिया जाये तो प्रथम दृष्टिसे धरसेनाचार्यका काल वी. नि. ७२३ के पश्चात् हो जाता है, जबकि आगे इनका समय वी. नि. ५६५-६३३ सिद्ध किया गया है ।२४। (३) सम्भवतः मूलसंघका विभक्तिकरण हो जानेके कारण प्रथम दृष्टिकारने अर्हद्बली आदिका नाम वी. नि. के पश्चात्वाली ६८३ वर्षकी गणनामें नहीं रखा है, परन्तु जैसा कि परिशिष्ट २ में सिद्ध किया गया है इनकी सत्ता ६८३ वर्षके भीतर अवश्य है।२८। इसलिये द्वितीय दृष्टि ने इन नामोंका भी संग्रहकर लिया है। परन्तु यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि इनके कालकी जो स्थापना यहाँ की गई है उसमें पट्टपरम्परा या गुरु शिष्य परम्पराकी कोई अपेक्षा नहीं है, क्योंकि लोहाचार्यके पश्चात् वी. नि. ५७४ में अर्हद्बलीके द्वारा संघका विभक्तिकरण हो जानेपर मूल संघकी सत्ता समाप्त हो जाती है (दे. परिशिष्ट २ में `अर्हद्बली')। ऐसी स्थितिमें यह सहज सिद्ध हो जाता है कि इनकी काल गणना पूर्वावधिकी बजाय उत्तरावधिको अर्थात् उनके समाधिमरणको लक्ष्यमें रखकर की गई है। वस्तुतः इनमें कोई पौर्वापर्य नहीं है। पहले पहले वालेकी उत्तरावधि ही आगे आगे वालेकी पूर्वावधि बन गई है। यही कारण है कि सारणीमें निर्दिष्ट कालोंके साथ इनके जीवन वृत्तोंकी संगति ठीक ठीक घटित नहीं होती है। (४) दृष्टि नं. ३ में जैन इतिहासकारोंने इनका सुयुक्तियुक्त काल निर्धारित किया है जिसका विचार परिशिष्ट २ के अन्तर्गत विस्तारके साथ किया गया है। (५) एक चतुर्थ दृष्टि भी प्राप्त है। वह यह कि द्वितीय दृष्टिका प्रतिपादन करनेवाले श्रुतवतार में प्राप्त एक श्लोक (दे. परिशिष्ट ४) के अनुसार यशोभद्र तथा भद्रबाहु द्वि. के मध्य ४-५ आचार्य और भी हैं जिनका ज्ञान श्रुतावतारके कर्त्ता श्री इन्द्रनन्दिको नहीं है। इनका समुदित काल ११८ वर्ष मान लिया जाय तो द्वि. दृष्टिसे भी लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष पूरे हो जाने चाहिए। (पं. सं./प्र./H.L.Jain); (स. सि./प्र. ७८/पं. फूलचन्द)। परंतु इस दृष्टिको विद्वानोंका समर्थन प्राप्त नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर अर्हद्बली आदिका काल उनके जीवन वृत्तोंसे बहुत आगे चला जाता है।
4.4 मूल संघका विघटन
जैसा कि उपर्युक्त सारणीमें दर्शाया गया है भगवान् वीरके निर्वाणके पश्चात् गौतम गणधरसे लेकर अर्हद्बली तक उनका मूलसंघ अविच्छिन्न रूपसे चलता रहा। आ. अर्हद्बलीने पंचवर्षीय युगप्रतिक्रमणके अवसर परमहिमानगर जिला सतारामें एक महान यतिसम्मेलन किया, जिसमें सौ योजन तकके साधु सम्मिलित हुए। उस समय उन साधुओंमें अपने अपने शिष्योंके प्रति कुछ पक्षपातकी बू देखकर उन्होंने मूलसंघकी सत्ता समाप्त करके उसे पृथक् पृथक् नामोंवाले अनेक अवान्तर संघोंमें विभाजित कर दिया जिसमें से कुछके नाम ये हैं - १. नन्दि, २. वृषभ, ३. सिंह, ४. देव, ५. काष्ठा, ६. वीर, ७. अपराजित, ८. पंचस्तूप, ९. सेन, १०. भद्र, ११. गुणधर, १२. गुप्त, १३. सिंह, १४. चन्द्र इत्यादि
(ध. १/प्र. १४/H.L.Jain)।
इनके अतिरिक्त भी अनेकों अवान्तर संघ भी भिन्न भिन्न समयोंपर परिस्थितिवश उत्पन्न होते रहे। धीरे धीरे इनमें से कुछ संघों में शिथिलाचार आता चला गया, जिनके कारण वे जैनाभासी कहलाने लगे (इनमें छः प्रसिद्ध हैं - १. श्वेताम्बर, २. गोपुच्छ या काष्ठा, ३. द्रविड़, ४. यापनीय या गोप्य, ५. निष्पिच्छ या माथुर और ६. भिल्लक)।
4.5 श्रुत तीर्थकी उत्पत्ति
ध. ४/१,४४/१३० चोद्दसपइण्णयाणमंगबज्झाणं च सावणमास-बहुलपक्ख-जुगादिपडिवयपुव्वदिवसे जेण रयणा कदा तेणिंदभूदिभडारओ वड्ढमाणजिणतित्थगंथकत्तारो। उक्तं च-`वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले। पडिवदपुव्वदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजिम्मि ४०।'
ध. १/१,१/६५ तित्थयरादो सुदपज्जएण गोदमो परिणदो त्ति दव्व-सुदस्स गोदमो कत्ता।
= चौदह अंगबाह्य प्रकीर्णकोंकी श्रावण मासके कृष्ण पक्षमें युगके आदिम प्रतिपदा दिनके पूर्वाह्नमें रचना की गई थी। अतएव इन्द्रभूति भट्टारक वर्द्धमान जिनके तीर्थमें ग्रन्थकर्त्ता हुए। कहा भी है कि `वर्षके प्रथम (श्रावण) मासमें, प्रथम (कृष्ण) पक्षमें अर्थात् श्रावण कृ. प्रतिपदाके दिन सवेरे अभिजित नक्षणमें तीर्थकी उत्पत्ति हुई।। तीर्थसे आगत उपदेशोंको गौतमने श्रुतके रूपमें परिणत किया। इसलिये गौतम गणधर द्रव्य श्रुतके कर्ता हैं।
4.6 श्रुतज्ञानका क्रमिक ह्रास
भगवान् महावीरके निर्वाण जानेके पश्चात् ६२ वर्ष तक इन्द्रभूति (गौतम गणधर) आदि तीन केवली हुए। इनके पश्चात् यद्यपि केवलज्ञानकी व्युच्छित्ति हो गई तदपि ११ अंग १४ पूर्वके धारी पूर्ण श्रुतकेवली बने रहे इनकी परम्परा १०० वर्ष तक (विद्वानोंके अनुसार १६० वर्ष तक) चलती रही। तत्पश्चात् श्रुत ज्ञानका क्रमिक ह्रास होना प्रारम्भ हो गया। वी. नि. ५६५ तक १०,९,८ अंगधारियोंकी परम्परा चली और तदुपरान्त वह भी लुप्त हो गई। इसके पश्चात् वी. नि. ६८३ तक श्रुतज्ञानके आचारांगधारी अथवा किसी एक आध अंग के अंशधारी ही यत्र-तत्र शेष रह गए।
इस विषयका उल्लेख दिगम्बर साहित्यमें दो स्थानोंपर प्राप्त होता है, एक तो तिल्लोय पण्णति, हरिवंश पुराण, धवला आदि मूल ग्रन्थोंमें और दूसरा आ. इन्द्रनन्दि (वि. ९९६) कृत श्रुतावारमें। पहले स्थानपर श्रुतज्ञानके क्रमिक ह्रासको दृष्टिमें रखते हुए केवल उस उस परम्पराका समुदित काल दिया गया है, जब कि द्वितीय स्थान पर समुदित कालके साथ-साथ उस-उस परम्परामें उल्लिखित आचार्योंका पृथक्-पृथक् काल भी निर्दिष्ट किया है, जिसके कारण सन्धाता विद्वानोंके लिये यह बहुत महत्व रखता है। इन दोनों दृष्टियोंका समन्वय करते हुए अनेक ऐतिहासिक गुत्थियों को सुलझानेके लिए विद्वानोंने थोड़े हेरफेरके साथ इस विषयमें अपनी एक तृतीय दृष्टि स्थापित की है। मूलसंघकी अग्रोक्त पट्टावलीमें इन तीनों दृष्टियोंका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
5. दिगम्बर जैन संघ
5.1 सामान्य परिचय
ती.म.आ. /४/३५८ पर उद्धृत नीतिसार-तस्मिन् श्रीमूलसंघे मुनिजनविमले सेन-नन्दी च संघौ। स्यातां सिंहारव्यसंघोऽभवदुरुमहिमा देवसंघश्चतुर्थः।। अर्हद्बलीगुरुश्चक्रे संघसंघटनं परम्। सिंहसंघो नन्दि संघः सेनसंघस्तथापरः।। = मुनिजनोंके अत्यन्त विमल श्री मूलसंघमें सेनसंघ, नन्दिसंघ, सिंहसंघ और अत्यन्त महिमावन्त देवसंघ ये चार संघ हुए। श्री गुरु अर्हद्बलीके समयमें सिंहसंघ, नन्दिसंघ, सेनसंघ (और देवसंघ) का संघटन किया गया।
श्रुतकीर्ति कृत पट्टावली-ततः परं शास्त्रविदां मुनिनामग्रेसरोऽभूदकलंकसूरिः। ....तस्मिन्गते स्वर्गभुवं महर्षौ दिव...स योगि संघश्चचतुरः प्रभेदासाद्य भूयानाविरुद्धवृत्तान्। ....देव नन्दि-सिंह-सेन संघभेद वर्त्तिनां देशभेदतः प्रभोदभाजि देवयोगिनां।
= इन (पूज्यपाद जिनेन्द्र बुद्धि) के पश्चात् शास्त्रवेत्ता मुनियोंमें अग्रेसर अकलंकसूरि हुए। इनके दिवंगत हो जानेपर जिनेन्द्र भगवान् संघके चार भेदोंको लेकर शोभित होने लगे-देवसंघ, नन्दिसंघ, सिंहसंघ और सेनसंघ।
नीतीसार (ती./४/३५८) - अर्हद्बलीगुरुश्चक्रेसंघसंघटनं परम्। सिंहसंघो नन्दिसंघः सेनसंघस्तथापरः।। देवसंघ इति स्पष्टं स्थ्पनस्थितिविशेषतः।
= अर्हद्बली गुरुके कालमें स्थान तता स्थितिकी अपेक्षासे सिंहसंघ, नन्दिसंघ, सेनसंघ और देवसंघ इन चार संघोंका संगठन हुआ। यहाँ स्थानस्थितिविशेषतः इस पदपरसे डा. नेमिचन्द्र इस घटनाका सम्बन्ध उस कथाके साथ जोड़ते हैं जिसके अनुसार आ. अर्हद्बलीने परीक्षा लेनेके लिए अपने चार तपस्वी शिष्योंको विकट स्थानों में वर्षा योग धारण करनेका आदेश दिया था। तदनुसार नन्दि वृक्षके नीचे वर्षा योग धारण करनेवाले माघनन्दि का संघ नन्दिसंघ कहलाया, तृणतलमें वर्षायोग धारण करनेसे श्री जिनसेनका नाम वृषभ पड़ा और उनका संघ वृषभ संघ कहलाया। सिंहकी गुफामें वर्षा योग धारण करनेवालेका सिंहसंघ और दैव दत्ता वेश्याके नगरमें वर्षायोग धारण करनेवाले का देवसंघ नाम पड़ा। (विशेष दे. परिशिष्ट/२/८)
5.2 नन्दि संघ
5.2.1 सामान्य परिचय
आ. अर्हद्बलीके द्वारा स्थापित संघमें इसका स्थान सर्वोपरि समझा जाता है यद्यपि इसकी पट्टावलीमें भद्रबाहु तथा अर्हद्बलीका नाम भी दिया गया परन्तु वह परम्परा गुरुके रूपमें उन्हें नमस्कार करने मात्र के प्रयोजनसे है। संघका प्रारम्भ वास्तवमें माघनन्दिसे होता है। गुरु अर्हद्बलीकी आज्ञासे नन्दि वृक्षके नीचे वर्षा योग धारण करनेके कारण इन्हें नन्दिकी उपाधि प्राप्त हुई थी और उसी कारण इनके इस संघका नाम नन्दिसंघ पड़ा। माघनन्दिसे कुन्दकुन्द तथा उमास्वामी तक यह संघ मूल रूपसे चलता रहा। तत्पश्चात् यह दो शाखाओंमें विभक्त हो गया। पूर्व शाखा नन्दिसंघ बलात्कार गणके नामसे प्रसिद्ध हुई और दूसरी शाखा जैनाभासी काष्ठा संघकी ओर चली गई। "लोहोचार्यस्ततो जातो जातरूपधरोऽमरैः। ततः पट्टद्वयी जाता प्राच्युदीच्युपलक्षणात्" (विशेष दे. आगे शीर्षक ६/४)।
5.2.2 बलात्कार गण
इस संघकी एक पट्टावली प्रसिद्ध है। आचार्योंका पृथक् पृथक् काल निर्देश करनेके कारण यह जैन इतिहासकारोंके लिये आधारभूत समझी जाती परन्तु इसमें दिये गए काल मूल संघकी पूर्वोक्त पट्टावली के साथ मेल नहीं खाते हैं, और न ही कुन्दकुन्द तथा उमास्वामीके जीवन वृत्तोंके साथ इनकी संगति घटित होती प्रतीत होती है। पट्टावली आगे शीर्षक ७के अन्तर्गत निबद्ध की जानेवाली है। तत्सम्बन्धी विप्रतिपत्तियोंका सुमक्तियुक्त समाधान यद्यपि परिशिष्ट ४में किया गया है तदपि उस समाधानके अनुसार आगे दी गई पट्टावली में जो संक्षिप्त संकेत दिये गये हैं उन्हें समझनेके लिए उसका संक्षिप्त सार दे देना उचित प्रतीत होता है।
पट्टावलीकार श्री इन्द्रनन्दिने आचार्योंके कालकी गणना विक्रम के राज्याभिषेकसे प्रारम्भ की है और उसे भ्रान्तिवश वी. नि. ४८८ मानकर की है। (विशेष दे. परिशिष्ट १)। ऐसा मानने पर कुन्दकुन्दके कालमें ११७ वर्ष की कमी रह जाती है। इसे पाटनेके लिये ४ स्थानों पर वृद्धि की गई है - १. भद्रबाहुके कालमें १ वर्षकी वृद्धि करके उसे २२ वर्षकी बजाय २३ वर्ष बनाया गया है। २. भद्रबाहु तथा गुप्तिगुप्त (अर्हद्बली) के मध्यमें मूल संघकी पट्टावलीके अनुसार लोहाचार्यका नाम जोड़कर उनके ५० वर्ष बढ़ाये गए हैं। ३. माघनन्दिकी उत्तरावधि वी. नि. ५७९ में ३५ वर्ष जोड़कर उसे मूलसंघके अनुसार वी. नि. ६१४ तक ले जाया गया है। ४. इस प्रकार १+५०+३५ = ८६ वर्ष की वृद्धि हो जानेपर माघनन्दि तथा कुन्दकुन्द के गुरु जिनचन्द्रके मध्य ३१ वर्षका अन्तर शेष रह जाता है, जिसे पाटनेके लिये या तो यहाँ एक और नाम कल्पित किया जा सकता है और या जिनचन्द्रके कालकी पूर्वावधिको ३१ वर्ष ऊपर उठाकर वी. नि. ६४५ की बजाय ६१४ किया जा सकता है।
ऐसा करने पर क्योंकि वी. नि. ४८८ में विक्रम राज्य मानकर की गई आ. इन्द्वनन्दिकी काल गणना वी. नि. ४८८+११७ = ६०५ होकर शक संवत्के साथ ऐक्यको प्राप्त हो जाती है, इसलिए कुन्दकुन्द से आगे वाले सभी के कालोंमें ११७ वर्षकी वृद्धि करते जानेकी बजाये उनकी गणना पट्टावली में शक संवत्की अपेक्षा से कर दी गई है। (विशेष दे. परिशिष्ट ४)।
5.2.3 देशीय गण
कुन्दकुन्दके प्राप्त होने पर नन्दिसंघ दो शाखाओंमें विभक्त हो गया। एक तो उमास्वामीकी आम्नायकी ओर चली गई और दूसरी समन्तभद्रकी ओर जिसमें आगे जाकर अकलंक भट्ट हुए। उमास्वामीकी आम्नाय पुनः दो शाखाओंमें विभक्त हो गई। एक तो बलात्कारगण की मूल शाखा जिसके अध्यक्ष गोलाचार्य तृ. हुए और दूसरी बलाकपिच्छकी शाखा जो देशीय गणके नामसे प्रसिद्ध हुई। यह गण पुनः तीन शाखाओंमें विभक्त हुआ, गुणनन्दि शाखा, गोलाचार्य शाखा और नयकीर्ति शाखा। (विशेष दे. शीर्षक ७/१,५)
5.3 अन्य संघ
आचार्य अर्हद्बलीके द्वारा स्थापित चार प्रसिद्ध संघोंमें से नन्दिसंघ का परिचय देनेके पश्चात् अब सिंहसंघ आदि तीनका कथन प्राप्त होता है। सिंहकी गुफा पर वर्षा योग धारण करने वाले आचार्यकी अध्यक्षतामें जिस संघ का गठन हुआ उसका नाम सिंह संघ पड़ा। इसी प्रकार देव दत्ता नामक गणिकाके नगरमें वर्षा योग धारण करनेवाले तपस्वीके द्वारा गठित संघ देव संघ कहलाया और तृणतल में वर्षा योग धारण करने वाले जिनसेन का नाम वृषभ पड़ गया था उनके द्वारा गठित संघ वृषभ संघ कहलाया इसका ही दूसरा नाम सेन संघ है। इसकी एक छोटी-सी गुर्वावली उपलब्ध है जो आगे दी जानेवाली है। धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी ने जिस संघको महिमान्वित किया उसका नाम पंचस्तूप संघ है इसीमें आगे जाकर जैनाभासी काष्ठा संघ के प्रवर्तक श्री कुमारसेन जी हुए। हरिवंश पुराणके रचयिता श्री जिनसेनाचार्य जिस संघमें हुए वह पुन्नाट संघ के नामसे प्रसिद्ध है। इसकी एक पट्टावली है जो आगे दी जाने वाली है।
6. दिगम्बर जैनाभासी संघ
6.1 सामान्य परिचय
नीतिसार (ती.म.आ.४/३५८ पर उद्धत) - पूर्व श्री मूल संघस्तदनु सितपटः काष्ठस्ततो हि तावाभूद्भादिगच्छाः पुनरजनि ततो यापुनीसंघ एकः। = मूल संघमें पहले (भद्रबाहु प्रथमके कालमें) श्वेताम्बर संघ उत्पन्न हुआ था (दे. श्वेताम्बर)। तत्पश्चात् (किसी कालमें) काष्ठा संघ हुआ जो पीछे अनेकों गच्छोंमें विभक्त हो गया। उसके कुछ ही काल पश्चात् यापुनी संघ हुआ।
नीतिसार (द. पा./टी. ११ में उद्धृत) - गोपुच्छकश्वेतवासा द्रविड़ो यापनीयः निश्पिच्छश्चेति चैते पञ्च जैनाभासा प्रकीर्तिताः। = गोपुच्छ (काष्ठा संघ), श्वेताम्बर, द्रविड़, यापनीयः और निश्पिच्छ (माथुर संघ) ये पांच जैनाभासी कहे गये हैं।
हरिभद्र सूरीकृत षट्दर्शन समुच्चयकी आ. गुणरत्नकृत टीका-"दिगम्बराः पुनर्नाग्न्यलिंगा पाणिपात्रश्च। ते चतुर्धा. काष्ठसंघ-मूलसंघ-माथुरसंघ गोप्यसंघ भेदात्। आद्यास्त्रयोऽपि संघा वन्द्यमाना धर्मवृद्धिं भणन्ति गोप्यास्तु बन्द्यमाना धर्मलाभं भणंति। स्त्रीणां मुक्तिं केवलीना भुक्तिं सद्व्रतस्यापि सचीवरस्य मुक्तिं च न मन्वते।....सवेषां च भिक्षाटने भोजने च द्वात्रिंशदन्तराया मलाश्च चतुर्दश वर्ननीया। शेषमाचारे गुरौ च देवे च सर्वश्वेताम्बरैस्तुल्यम्। नास्ति तेषां मिथः शास्त्रेषु तर्केषु परो भेदः। = दिगम्बर नग्न रहते हैं और हाथमें भोजन करते हैं। इनके चार भेद हैं, काष्ठासंघ, मूलसंघ, माथुरसंघ और गोप्य (यापनीय) संघ। पहलेके तीन (काष्ठा, मल तथा माथुर) वन्दना करनेवालेको धर्मवृद्धि कहते हैं और स्त्री मुक्ति, केवलि भुक्ति तथा सद्व्रतोंके सद्भावमें भी सर्वस्त्र मुक्ति नहीं मानते हैं। चारों ही संघों के साधु भिक्षाटनमें तथा भोजनमें ३२ अन्तराय और १४ मलोंको टालते हैं। इसके सिवाय शेष आचार (अनुदिष्टाहार, शून्यवासआदि तथा देव गुरुके विषयमें (मन्दिर तथा मूर्त्तिपूजा आदिके विषयमें) सब श्वेताम्बरोंके तुल्य हैं। इन दोनोंके शास्त्रोंमें तथा तर्कोंमें (सचेलता, स्त्रीमुक्ति और कवलि भुक्तिको छोड़कर) अन्य कोई भेद नहीं है।
द.सा./प्र. ४० प्रेमी जी-ये संघ वर्तमानमें प्रायः लुप्त हो चुके हैं। गोपुच्छकी पिच्छिका धारण करने वाले कतिपय भट्टारकोंके रूपमें केवल काष्ठा संघका ही कोई अन्तिम अवशेष कहीं कहीं देखनेमें आता है।
6.2 यापनीय संघ
6.2.1 उत्पत्ति तथा काल
भद्रबाहुचारित्र ४/१५४-ततो यापनसंघोऽभूत्तेषां कापथवर्तिनाम्। = उन श्वेताम्बरियोंमें से कापथवर्ती यापनीय संघ उत्पन्न हुआ।
द.सा./मू. २९ कल्लाणे वरणयरे सत्तसए पंच उत्तरे जादे। जावणियसंघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो ।२९। = कल्याण नामक नगरमें विक्रमकी मृत्युके ७०५ वर्ष बीतने पर (दूसरी प्रतिके अनुसार २०५ वर्ष बीतनेपर) श्री कलश नामक श्वेताम्बर साधुसे यापनीय संघका सद्भाव हुआ।
6.2.2 मान्यतायें
द.पा./टी.११/११/१५-यापनीयास्तु वेसरा इवोभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति, कल्पं च वाचयन्ति, स्त्रीणां तद्भवे मोक्षं, केवलिजिनानां कवलाहारं, परशासने सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति। = यापनीय संघ (दिगम्बर तथा श्वेताम्बर) दोनोंको मानते हैं। रत्नत्रयको पूजते हैं, (श्वेताम्बरोंके) कल्पसूत्रको बाँचते हैं, (श्वेताम्बरियोंकी भांति) स्त्रियोंका उसी भवसे मुक्त होना, केवलियोंका कवलाहार ग्रहण करना तथा अन्य मतावलम्बियोंको और परिग्रहधारियोंको भी मोक्ष होना मानते हैं।
हरिभद्र सूरि कृत षट् दर्शन समुच्चयकी आ. गुणरत्न कृत टीका-गोप्यास्तु वन्द्यमाना धर्मलाभं भणन्ति। स्त्रीणां मुक्ति केवलिणां भुक्तिं च मन्यन्ते। गोप्या यापनीया इत्युच्यन्ते। सर्वेषां च भिक्षाटने भोजने च द्वान्तिंशदन्तरायामलाश्च चतुर्दश वर्जनीयाः। शेषमाचारे गुरौ च देवे च सर्वं श्वेताम्बरै स्तुल्यम्। = गोप्य संघ वाले साधु वन्दना करनेवालेको धर्मलाभ कहते हैं। स्त्रीमुक्ति तथा केवलिभुक्ति भी मानते हैं। गोप्यसंघको यापनीय भी कहते हैं। सभी (अर्थात् काष्ठा संघ आदिके साथ यापनीय संघ भी) भिक्षाटनमें और भोजनमें ३२ अन्तराय और १४ मलोंको टालते हैं। इनके सिवाय शेष आचारमें (महाव्रतादिमें) और देव गुरुके विषयमें (मूर्ति पूजा आदिके विषयमें) सब (यापनीय भी) श्वेताम्बरके तुल्य हैं।
6.2.3 जैनाभासत्व
उक्त सर्व कथनपरसे यह स्पष्ट है कि यह संघ श्वेताम्बर मतमें से उत्पन्न हुआ है और श्वेताम्बर तथा दिगम्बरके मिश्रण रूप है। इसलिये जैनाभास कहना युक्ति संगत है।
6.2.4 काल निर्णय
इसके समयके सम्बन्धमें कुछ विवाद है क्योंकि दर्शनसार ग्रन्थकी दो प्रतियाँ उपलब्ध हैं। एकमें वि. ७०५ लिखा है और दूसरेमें वि. २०५। प्रेमीजीके अनुसार वि. २०५ युक्त है क्योंकि आ. शाकटायन और पाल्य कीर्ति जो इसी संघके आचार्य माने गये हैं उन्होंने `स्त्री मुक्ति और केवलभुक्ति' नामक एक ग्रन्थ रचा है जिसका समय वि. ७०५ से बहुत पहले है।
6.3 द्राविड़ संघ
दे.सा./मू. २४/२७ सिरिपुज्जपादसीसो दाविड़संघस्स कारगो दुट्ठो। णामेण वज्जणंदी पाहुड़वेदी महासत्तो ।२४। अप्पासुयचणयाणं भक्खणदो वज्जिदो सुणिंदेहिं। परिरइयं विवरीतं विसेसयं वग्गणं चोज्जं ।२५। बीएसु णत्थि जीवो उब्भसणं णत्थि फासुगं णत्थि। सवज्जं ण हु मण्णइ ण गणइ गिहकप्पियं अट्ठं ।२६। कच्छं खेत्तं वसहिं वाणिज्जं कारिऊण जीवँतो। ण्हंतो सयिलणीरे पावं पउरं स संजेदि ।२७।
= श्री पुज्यपाद या देवनन्दि आचार्यका शिष्य वज्रनन्दि द्रविड़संघको उत्पन्न करने वाला हुआ। यह समयसार आदि प्राभृत ग्रन्थोंका ज्ञाता और महान् पराक्रमी था। मुनिराजोंने उसे अप्रासुक या सचित्त चने खानेसे रोका, परन्तु वह न माना और बिगड़ कर प्रायश्चितादि विषयक शास्त्रोंकी विपरीत रचनाकर डाली ।२४-२५। उसके विचारानुसार बीजोंमें जीव नहीं होते, जगतमें कोई भी वस्तु अप्रासुक नहीं है। वह नतो मुनियोंके लिये खड़े-खड़े भोजनकी विधिको अपनाता है, न कुछ सावद्य मानता है और न ही गृहकल्पित अर्थको कुछ गिनता है ।२६। कच्छार खेत वसतिका और वाणिज्य आदि कराके जीवन निर्वाह करते हुए उसने प्रचुर पापका संग्रह किया। अर्थात् उसने ऐसा उपदेश दिया कि मुनिजन यदि खेती करावें, वसतिका निर्माण करावें, वाणिज्य करावें और अप्रासुक जलमें स्नान करें तो कोई दोष नहीं है।
द.सा./टी. ११ द्राविड़ाः......सावद्यं प्रासुकं च न मन्यते, उद्भोजनं निराकुर्वन्ति। = द्रविड़ संघके मुनिजन सावद्य तथा प्रासुकको नहीं मानते और मुनियोंको खड़े होकर भोजन करनेका निषेध करते हैं।
द.सा./प्र. ५४ प्रेमी जी-"द्रविड़ संघके विषयमें दर्शनसारकी वचनिकाके कर्ता एक जगह जिन संहिताका प्रमाण देकर कहते हैं कि `सभूषणं सवस्त्रंस्यात् बिम्ब द्राविड़संघजम्' अर्थात् द्राविड़ संघकी प्रतिमायें वस्त्र और आभूषण सहित होती हैं। ....न मालूम यह जिनसंहिता किसकी लिखी हुई और कहाँ तक प्रामाणिक है। अभी तक हमें इस विषयमें बहुत संदेह है कि द्राविड़ संघ सग्रन्थ प्रतिमाओंका पूजक होगा।
6.3.1 प्रमाणिकता
यद्यपि देवसेनाचार्यने दर्शनसार की उपर्युक्त गाथाओंमें इसके प्रवर्तक वज्रनन्दिके प्रति दुष्ट आदि अपशब्दोंका प्रयोग किया है, परन्तु भोजन विषयक मान्यताओंके अतिरिक्त मूलसंघके साथ इसका इतना पार्थक्य नहीं है कि जैनाभासी कहकर इसको इस प्रकार निन्दा की जाये। (दे.सा./प्र.४५ प्रेमीजी)
इस बातकी पुष्टि निम्न उद्धरणपर से होती है -
ह.पु.१/३२ वज्रसूरेर्विचारण्यः सहेत्वोर्वन्धमोक्षयोः। प्रमाणं धर्मशास्त्राणां प्रवक्तृणामिवोक्तयः ।३२। = जो हेतु सहित विचार करती है, वज्रनन्दिकी उक्तियाँ धर्मशास्त्रोंका व्याख्यान करने वाले गणधरोंकी उक्तियोंके समान प्रमाण हैं।
द.सा./प्र. पृष्ठ संख्या (प्रेमी जी) - इस पर से यह अनुमान किया जा सकता है कि हरिवंश पुराणके कर्ता श्री जिनसेनाचार्य स्वयं द्राविड़ संघी हों, परन्तु वे अपने संघके आचार्य बताते हैं। यह भी सम्भव है कि द्राविड़ संघका ही अपर नाम पुन्नाट संघ हो क्योंकि `नाट' शब्द कर्णाटक देशके लिये प्रयुक्त होता है जो कि द्राविड़ देश माना गया है। द्रमिल संघ भी इसीका अपर नाम है ।४२। २. (कुछ भी हो, इसकी महिमासे इन्कार नहीं किया जा सकता, क्योंकि) त्रैविद्यविश्वेश्वर, श्रीपालदेव, वैयाकरण दयापाल, मतिसागर, स्याद्वाद् विद्यापति श्री वगदिराज सूरि जैसे बड़े-बड़े विद्वान इस संघमें हुए हैं।४२। ३. तीसरी बात यह भी है कि आ. देवसेनने जितनी बातें इस संघके लिये कहीं हैं, उनमें से बीजोंको प्रासुकमाननेके अतिरिक्त अन्य बातोंका अर्थ स्पष्ट नहीं है, क्योंकि सावद्य अर्थात् पापको न माननेवाला कोई भी जैन संघ नहीं है। सम्भवतः सावद्यका अर्थ भी (यहाँ) कुछ और ही हो ।४३। ४. तात्पर्य यह है कि यह संघ मूल दिगम्बर संघसे विपरीत नहीं है। जैनाभास कहना तो दूर यह आचार्योंको अत्यन्त प्रमाणिक रूपसे सम्मत है।
6.3.2 गच्छ तथा शाखायें
इस संघके अनेकों गच्छ हैं, यथा-१. नन्दि अन्वय, २. उरुकुल गण, ३. एरेगित्तर गण, ४. मूलितल गच्छ इत्यादि। (द.सा./प्र. ४२ प्रेमीजी)।
6.3.3 काल निर्णय
द.सा.मू.२८-पंचसए छब्बीसे विकमरायस्स मरणपत्तस्स। दक्खिणमहुरादो द्राविड़ संघो महामोहो ।२८। = विक्रमराजकी मृत्युके ५२६ वर्ष बीतनेपर दक्षिण मथुरा नगरमें (पूज्यपाद देवनन्दिके शिष्य श्री वज्रनन्दिके द्वारा) यह संघ उत्पन्न हुआ।
6.3.4 गुर्वावली
इस संघके नन्दिगण उरुङ्गलान्वय शाखाकी एक छोटी सी गुर्वावली उपलब्ध है। जिसमें अनन्तवीर्य, देवकीर्ति पण्डित तथा वादिराजका काल विद्वद सम्मत है। शेषके काल इन्हींके आधार पर कल्पित किये गए हैं। (सि. वि. /प्र. ७५ पं. महेन्द्र); (ती. ३/४०-४१, ८८-१२)।
6.4 काष्ठा संघ
जैनाभासी संघोंमें यह सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसका कुछ एक अन्तिम अवशेष अब भी गोपुच्छकी पीछीके रूपने किन्हीं एक भट्टारकोंमें पाया जाता है। गोपुच्छकी पीछीको अपना लेनेके कारण इस संघ का नाम गोपुच्छ संघ भी सुननेमें आता है। इसकी उत्पत्तिके विषय में दो धारणायें है। पहलीके अनुसार इसके प्रवर्तक नन्दिसंघ बलात्कार गणमें कथित उमास्वामीके शिष्य श्री लोहाचार्य तृ. हुए, और दूसरीके अनुसार पंचस्तूप संघमें प्राप्त कुमार सेन हुए। सल्लेखना व्रतका त्याग करके चरित्रसे भ्रष्ट हो जानेकी कथा दोनोंके विषयमें प्रसिद्ध है, तथापि विद्वानोंको कुमार सेनवाली द्वितीय मान्यता ही अधिक सम्मत है।
प्रथम दृष्टि
नन्दिसंघ बलात्कार गणकी पट्टावली। श्ल. ६-७ (ती. ४/३९३) पर उद्धृत)-"लोहाचार्यस्ततो जातो जात रूपधरोऽमरैः। ....ततः पट्टद्वयी जाता प्राच्युदीच्युपलक्षणात् ।६-७। = नन्दिसंघमें कुन्दकुन्द उमास्वामी (गृद्धपिच्छ) के पश्चात् लोहाचार्य तृतीय हुए। इनके कालसे संघमें दो भेद उत्पन्न हो गए। पूर्व शाखा (नन्दिसंघकी रही) और उत्तर शाखा (काष्ठा संघकी ओर चली गई)।
ती. ४/३५१ दिल्लीकी भट्टारक गद्दियोंसे प्राप्त लेखोंके अनुसार इस संघकी स्थापनाका संक्षिप्त इतिहास इस प्रकार है-दक्षिण देशस्थ भद्दलपुरमें विराजमान् श्री लोहाचार्य तृ. को असाध्य रोगसे आक्रान्त हो जानेके कारण, श्रावकोंने मूर्च्छावस्थामें यावुज्जीवन संन्यास मरणकी प्रतिज्ञा दिला दी। परन्तु पीछे रोग शान्त हो गया। तब आचार्यने भिक्षार्थ उठनेकी भावना व्यक्तकी जिसे श्रावकोंने स्वीकार नहीं किया। तब वे उस नगरको छोड़कर अग्रीहा चले गए और वहाँके लोगोंको जैन धर्ममें दीक्षित करके एक नये संघकी स्थापना कर दी।
द्वितीय दृष्टि
द.सा./मू.३३,३८,३९-आसी कुमारसेणो णंदियडे विणयसेणदिक्खियओ। सण्णासभंजणेण य अगहिय पुण दिक्खओ जादो ।३३। सत्तसए तेवण्णे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स। णंदियवरगामे कट्ठो संघो मुणेयव्वो ।।३८।। णंदियडे वरगामे कुमारसेणो य सत्थ विण्णाणी। कट्ठो दंसणभट्ठो जादो सल्लेहणाकाले ।३८। = आ. विनयसेनके द्वारा दीक्षित आ. कुमारसेन जिन्होंने संन्यास मरणकी प्रतिज्ञाको भंग करके पुनः गुरुसे दीक्षा नहीं ली, और सल्लेखनाके अवसरपर, विक्रम की मृत्युके ७५३ वर्ष पश्चात्, नन्दितट ग्राममें काष्ठा संघी हो गये।
द.सा./मू. ३७ सो समणसंघवज्जो कुमारसेणो हु समयमिच्छत्तो। चत्तो व समो रुद्दो कट्ठं संघं परूवेदी ।३७। = मुनिसंघसे वर्जित, समय मिथ्यादृष्टि, उपशम भावको छोड़ देने वाले और रौद्र परिणामी कुमार सेनने काष्ठा संघकी प्ररूपणा की।
स्वरूप
द.सा./मू.३४-३६ परिवज्जिऊण पिच्छं चमरं घित्तूण मोहकलिएण। उम्मग्गं संकलियं बागड़विसएसु सव्वेसु ।३४। इत्थीणं पूण दिक्खा खुल्लयलोयस्स वीर चरियत्तं। कक्कसकेसग्गहणं छट्ठं च गुणव्वदं णाम ।३५। आयमसत्थपुराणं पायच्छित्तं च अण्णहा किंपि। विरइत्ता मिच्छत्तं पवट्टियं मूढलोएसु ।३६। = मयूर पिच्छीको त्यागकर तथा चँवरी गायकी पूंछको ग्रहण करके उस अज्ञानीने सारे बागड़ प्रान्तमें उन्मार्गका प्रचार किया ।३४। उसने स्त्रियोंको दीक्षा देनेका, क्षुल्लकों को वीर्याचारका, मुनियोंको कड़े बालोंकी पिच्छी रखनेका और रात्रिभोजन नामक छठे गुणव्रत (अणुव्रत) का विधान किया ।३५। इसके सिवाय इसने अपने आगम शास्त्र पुराण और प्रायश्चित्त विषयक ग्रन्थोंको कुछ और ही प्रकार रचकर मूर्ख लोगोंमें मिथ्यात्वका प्रचार किया ।३६।
दे. ऊपर शीर्षक ६/१ में हरि भद्रसूरि कृत षट्दर्शन का उद्धरण-वन्दना करने वालेको धर्म वृद्धि कहता है। स्त्री मुक्ति, केवलि भुक्ति तथा सर्वस्त्र मुक्ति नहीं मानता।
निन्दनीय
द.स./मू. ३७ सो समणसंघवज्जो कुमारसेणो हु समयमिच्छत्तो। चत्तोवसमो रुद्दो कट्ठं संघं परूवेदि ।३७। = मुनिसंघसे बहिष्कृत, समयमिथ्यादृष्टि, उपशम भावको छोड़ देने वाले और रौद्र परिणामी कुमारसेनने काष्ठा संघकी प्ररूपणाकी।
सेनसंघ पट्टावली २६ (ती. ४/४२६ पर उद्धृत) - `दारुसंघ संशयतमो निमग्नाशाधर मूलसंघोपदेश। = काष्ठा संघके संशय रूपी अन्धकारमें डूबे हुओंको आशा प्रदान करने वाले मूलसंघके उपदेशसे।
दे.सा./प्र. ४५ प्रेमी जी-मूलसंघसे पार्थक्य होते हुए भी यह इतना निन्दनीय नहीं है कि इसे रौद्र परिणामी आदि कहा जा सके। पट्टावलीकारने इसका सम्बन्ध गौतमके साथ जोड़ा है। (दे. आगे शीर्षक ७)
विविध गच्छ
आ. सुरेन्द्रकीर्ति-काष्ठासंघो भुविख्यातो जानन्ति नृसुरासुराः। तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षितौ। श्रीनन्दितटसंज्ञाश्च माथुरो बागडाभिधः। लाड़बागड़ इत्येते विख्याता क्षितिमण्डले। = पृथिवी पर प्रसिद्ध काष्ठा संघको नर सुर तथा असुर सब जानते हैं। इसके चार गच्छपृथिवीपर शोभित सुने जाते हैं - नन्दितटगच्छ, माथुर गच्छ, बागड़ गच्छ, और लाड़बागड़गच्छ। (इनमेंसे नंदितट गच्छ तो स्वयं इस संघ का ही अवान्तर नाम है जो नन्दितट ग्राममें उत्पन्न होनेके कारण इसे प्राप्त हो गया है। माथुर गच्छ जैनाभासी माथुर संघके नामसे प्रसिद्ध है जिसका परिचय आगे दिया जानेवाला है। बागड़ देशमें उत्पन्न होनेवाली इसकी एक शाखाका नाम बागड़ गच्छ है और लाड़बागड़ देशमें प्रसिद्ध व प्रचारित होनेवाली शाखाका नाम लाड़बागड़ गच्छ है। इसकी एक छोटीसी गुर्वावली भी उपलब्ध है जो आगे शीर्षक ७ के अन्तर्गत दी जाने वाली है।
काल निर्णय
यद्यपि संघकी उत्पत्ति लोहाचार्य तृ. और कुमारसेन दोनोंसे बताई गई है और संन्यास मरणकी प्रतिज्ञा भंग करनेवाली कथा भी दोनों के साथ निबद्ध है, तथापि देवसेनाचार्य की कुमारसेन वाली द्वितीय मान्यता अधिक संगत है, क्योंकि लोहाचार्य के साथ इसका साक्षात् सम्बन्ध माननेपर इसके कालकी संगति बैठनी सम्भव नहीं है। इसलिये भले ही लोहाचार्यज के साथ इसका परम्परा सम्बन्ध रहा आवे परन्तु इसका साक्षात् सम्बन्ध कुमारसेनके साथ ही है।
इसकी उत्पत्तिके कालके विषयमें मतभेद है। आ. देवसेनके अनुसार वह वि. ७५३ है और प्रेमीजी के अनुसार वि. ९५५ (द.सा./प्र. ३९)। इसका समन्वय इस प्रकार किया जा सकता है कि इस संघ की जो पट्टावली आगे दी जाने वाली है उसमें कुमारसेन नामके दो आचार्योंका उल्लेख है। एकका नाम लोहाचार्यके पश्चात् २९वें नम्बर पर आता है और दूसरेका ४० वें नम्बर पर। बहुत सम्भव है कि पहले का समय वि. ७५३ हो और दूसरेका वि. ९५५। देवसेनाचार्यकी अपेक्षा इसकी उत्पत्ति कुमारसेन प्रथमके कालमें हुई जबकि प्रद्युम्न चारित्रके जिस प्रशस्ति पाठके आधार पर प्रेमीजी ने अपना सन्धान प्रारम्भ किया है उसमें कुमारसेन द्वितीयका उल्लेख किया गया है क्योंकि इस नामके पश्चात् हेमचन्द्र आदिके जो नाम प्रशस्तिमें लिये गए हैं वे सब ज्योंके त्यों इस पट्टावलीमें कुमारसेन द्वितीयके पश्चात् निबद्ध किये गये हैं।
अग्रोक्त माथुर संघ अनुसार भी इस संघका काल वि. ७५३ ही सिद्ध होता है, क्योंकि द. सा. ग्रन्थमें उसकी उत्पत्ति इसके २०० वर्ष पश्चात् बताई गई है। इसका काल ९५५ माननेपर वह वि. ११५५ प्राप्त होता है, जब कि उक्त ग्रन्थकी रचना ही वि. ९९० में होना सिद्ध है। उसमें ११५५ की घटनाका उल्लेख कैसे सम्भव हो सकता है।
6.5 माथुर संघ
जैसाकि पहले कहा गया है यह काष्ठा संघकी एक शाखा या गच्छ है जो उसके २०० वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुआ है। मथुरा नगरीमें उत्पन्न होनेके कारण ही इसका यह नाम पड़ गया है। पीछीका सर्वथा निषेध करनेके कारण यह निष्पिच्छक संघके नामसे प्रसिद्ध है।
द.पा./मू. ४०,४२ तत्तो दुसएतीदे मे राए माहुराण गुरुणाहो। णामेण रामसेणो णिप्पिच्छं वण्णियं तेण ।४०। सम्मतपयडिमिच्छंतं कहियं जं जिणिंदबिंबेसु। अप्पपरणिट्ठिएसु य ममत्तबुद्धीए परिवसणं ।४१। एसो मम होउ गुरू अवरो णत्थि त्ति चित्तपरियरणं। सगगुरुकुलाहिमाणो इयरेसु वि भंगकरणं च ।४२। = इस (काष्ठा संघ) के २०० वर्ष पश्चात् अर्थात् वि. ९५३ में मथुरा नगरीमें माथुरसंघका प्रधान गुरु रामसेन हुआ। उसने निःपिच्छक रहनेका उपदेश दिया, उसने पीछीका सर्वता निषेध कर दिया ।४२। उसने अपने और पराये प्रतिष्ठित किये हुये जिनबिम्बोंकी ममत्व बुद्धि द्वारा न्यूनाधिक भावसे पूजा वन्दना करने; मेरा यह गुरु है दूसरा नहीं इस प्रकारके भाव रखने, अपने गुरुकुल (संघ) का अभिमान करने और दूसरे गुरुकुलोंका मान भंग करने रूप सम्यक्त्व प्रकृति मिथ्यात्वका उपदेश दिया।
द.पा./टी.११/११/१८ निष्पिच्छिका मयूरपिच्छादिकं न मन्यन्ते। उक्तं च ढाढसीगाथासु-पिच्छे ण हु सम्मत्तं करगहिए मोरचमरडंबरए। अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा वि झायव्वो ।१। सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य तह य अण्णो य। समभावभावियप्पा लहेय मोक्खं ण संदेहो ।२। = निष्पिच्छिक मयूर आदिकी पिच्छीको नहीं मानते। ढाढसी गाथामें कहा भी है - मोर पंख या चमरगायके बालोंकी पिछी हाथमें लेनेसे सम्यक्त्व नहीं है। आत्माको आत्मा ही तारता है, इसलिए आत्मा ध्याने योग्य है ।१। श्वेत वस्त्र पहने हो या दिगम्बर हो, बुद्ध हो या कोई अन्य हो, समभावसे भायी गयी आत्मा ही मोक्ष प्राप्त करती है, इसमें सन्देह नहीं है ।२।
द.सा./प्र. /४४ प्रेमीजी "माथुरसंघे मूलतोऽपि पिच्छिंका नादृताः। = माथुरसंघमें पीछीका आदर सर्वथा नहीं किया जाता।
दे. शीर्षक/६/१ में हरिभद्र सूरिकृत षट्दर्शनका उद्धरण-वन्दना करने वालेको धर्मबुद्धि कहता है। स्त्री मुक्ति, केवलि भुक्ति सर्वस्त्र मुक्ति नहीं मानता।
काल निर्णय
जैसाकि ऊपर कहा गया है, द. सा./४० के अनुसार इसकी उत्पत्ति काष्ठासंघसे २०० वर्ष पश्चात् हुई थी तदनुसार इसका काल ७५३+२००= वि. ९५३ (वि. श. १०) प्राप्त होता है। परन्तु इसके प्रवर्तकका नाम वहां रामसेन बताया गया है जबकि काष्ठासंघकी गुर्वावलीमें वि. ९५३ के आसपास रामसेन नाम के कोई आचार्य प्राप्त नहीं होते हैं। अमित गति द्वि. (वि. १०५०-१०७३) कृत सुभाषित रत्नसन्दोहमें अवश्य इस नामका उल्लेख प्राप्त होता है। इसीको लेकर प्रेमीजी अमित गति द्वि. को इसका प्रवर्तक मानकर काष्ठासंघको वि. ९५३ में स्थापित करते हैं; जिसका निराकरण पहले किया जा चुका है।
6.6 भिल्लक संघ
द.सा./मू. ४५-४६ दक्खिदेसे बिंझे पुक्कलए वीरचंदमुणिणाहो। अट्ठारसएतीदे भिल्लयसंघं परूवेदि ।४५। सोणियगच्छं किच्चा पडिकमणं तह य भिण्णकिरियाओ। वण्णाचार विवाई जिणमग्गं सुट्ठु गिहणेदि ।४६। = दक्षिणदेशमें विन्ध्य पर्वतके समीप पुष्कर नामके ग्राममें वीरचन्द नामका मुनिपति विक्रम राज्यकी मृत्युके १८०० वर्ष बीतनेके पश्चात् भिल्लकसंघको चलायेगा ।४५। वह अपना एक अलग गच्छ बनाकर जुदा ही प्रतिक्रमण विधि बनायेगा। भिन्न क्रियाओंका उपदेश देगा और वर्णाचारका विवाद खड़ा करेगा। इस तरह वह सच्चे जैनधर्म का नाश करेगा।
द.सा./प्र. ४५ प्रेमीजी-उपर्युक्त गाथाओंमें ग्रन्थकर्ता (श्री देवसेनाचार्य) ने जो भविष्य वाणीकी है वह ठीक प्रतीत नहीं होती, क्योंकि वि. १८०० को आज २०० वर्ष बीत चुके हैं, परन्तु इस नामसे किसी संघ की उत्पत्ति सुननेमें नहीं आई है। अतः भिल्लक नामका कोई भी संघ आज तक नहीं हुआ है।
6.7 अन्य संघ तथा शाखायें
जैसा कि उस संघका परिचय देते हुए कहा गया है, प्रत्येक जैनाभासी संघकी अनेकानेक शाखायें या गच्छ हैं, जिसमें से कुछ ये हैं - १. गोप्य संघ यापनीय संघका अपर नाम है। द्राविड़संघके अन्तर्गत चार शाखायें प्रसिद्ध हैं, २. नन्दि अन्वय गच्छ, ३. उरुकुल गण, ४. एरिगित्तर गण, और ५. मूलितल गच्छ। इसी प्रकार काष्ठासंघमें भी गच्छ हैं, ६. नन्दितट गच्छ वास्तवमें काष्ठासंघ की कोई शाखा न होकर नन्दितट ग्राममें उत्पन्न होनेके कारण स्वयं इसका अपना ही अपर नाम है। मथुरामें उत्पन्न होनेवाली इस संघकी एक शाखा ७. माथुर गच्छ के नामसे प्रसिद्ध है, जिसका परिचय माथुर संघ के नामसे दिया जा चुका है। काष्ठासंघकी दो शाखायें ८. बागड़ गच्छ और ९. लाड़बागड़ गच्छ के नामसे प्रसिद्ध हैं जिनके ये नाम उस देश में उत्पन्न होने के कारण पड़ गए हैं।
7. पट्टावलियें तथा गुर्वावलियें
7.1 मूलसंघ विभाजन
मूल संघकी पट्टावली पहले दे दी गई (दे. शीर्षक ४/२) जिसमें वीर-निर्वाणके ६८३ वर्ष पश्चात् तक की श्रुतधर परम्पराका उल्लेख किया गया और यह भी बताया गया कि आ. अर्हद्बलीके द्वारा यह मूल संघ अनेक अवान्तर संघोंमें विभाजित हो गया था। आगे चलने पर ये अवान्तर संघ भी शाखाओं तथा उपशाखाओंमें विभक्त होते हुए विस्तारको प्राप्त हो गए। इसका यह विभक्तिकरण किस क्रमसे हुआ, यह बात नीचे चित्रित करनेका प्रयास किया गया है।
7.2 नन्दि संघ बलात्कारगण
प्रमाण-दृष्टि १= वि. रा. सं. = शक संवत्; दृष्टि नं. २ = वि. रा. सं. = वी. नि. ४८८। विधि = भद्रबाहुके कालमें १ वर्ष की वृद्धि करके उसके आगे अगले-अगलेका पट्टकाल जोड़ते जाना तथा साथ-साथ उस पट्टकालमें यथोक्त वृद्धि भी करते जाना - (विशेष दे. शीर्षक ५/२)
<thead> </thead> <tbody> </tbody>नाम | प्र. दृष्टि | द्वि. दृष्टि | |||
---|---|---|---|---|---|
- | वि.रा.सं. | वी.नि. | काल | वी.नि. | विशेषता |
१ भद्रबाहु २ | २६-Apr | ६०९-६३१ | २२ | ४९२-५१४ | - |
- | - | - | १ | ५१४-५१५ | मूलसंघके |
लोहाचार्य २ | - | - | ५० | ५१५-५६५ | तुल्य |
२ गुप्तिगुप्त | २६-३६ | ६३१-६४१ | १० | ५६५-५७५ | नन्दिसंघोत्पत्ति तक |
३ माघनन्दि - प्र. आचार्यत्व | ३६-४० | ६४१-६४५ | ४ | ५७५-५७९ | भ्रष्ट होनेसे पहले |
द्वि. आचार्यत्व | - | - | ३५ | ५७९-६१४ | पुनः दीक्षाके बाद |
४ जिनचन्द्र | ४०-४९ | ६४५-६५४ | ९ | ६१४-६२३ | |
- | ३१ | ६२३-६५४ | कालवृद्धि | ||
५ पद्मनन्दि | ४९-१०१ | ६५४-७०६ | ५२ | ६५४-७०६ | अपर नाम कुन्दकुन्द |
६ गृद्धपिच्छ | १०१-१४२ | ७०६-७४७ | ४१ | ७०६-७४७ | उमास्वामी का नाम |
- | - | - | २३ | ७४७-७७० | - |
नोट - इससे आगे शक संवत् घटित हो जानेसे द्वि. दृष्टिका प्रयोजन समाप्त हो जाता है। | |||||
7 लोहाचार्य ३ | १४२-१५३ | ७४७-७५८ | - | - |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
क्रम | नाम | शक सं. | ई.सं. | वर्ष | विशेष |
---|---|---|---|---|---|
७ | लोहाचार्य ३ | १४२-१५३ | २२०-२३१ | ११ | |
८ | यशकीर्ति १ | १५३-२११ | २३१-२८९ | ५८ | |
९ | यशोनन्दि १ | २११-२५८ | २८९-३३६ | ४७ | |
१० | देवनन्दि | २५८-३०८ | ३३६-३८६ | ५० | जिनेन्द्रबुद्धि पूज्यपाद |
११ | जयनन्दि | ३०८-३५८ | ३८६-४३६ | ५० | |
१२ | गुणनन्दि | ३५८-३६४ | ४३६-४४२ | ६ | |
१३ | वज्रनन्दि नं. १ | ३६४-३८६ | ४४२-४६४ | २२ | द्रविड़ संघके प्रवर्तक |
१४ | कुमारनन्दि | ३८६-४२७ | ४६४-५०५ | ४१ | |
१५ | लोकचन्द्र | ४२७-४५३ | ५०५-५३१ | २६ | |
१६ | प्रभाचन्द्र नं. १ | ४५३-४७८ | ५३१-५५६ | २५ | |
१७ | नेमीचन्द्र नं. १ | ४७८-४८७ | ५५६-५६५ | ९ | |
१८ | भानुनन्दि | ४८७-५०८ | ५६५-५८६ | ११ | |
१९ | सिंहनन्दि २ | ५०८-५२५ | ५८६-६०३ | १७ | |
२० | वसुनन्दि १ | ५२५-५३१ | ६०३-६०९ | ६ | |
२१ | वीरनन्दि १ | ५३१-५६१ | ६०९-६३९ | ३० | |
२२ | रत्ननन्दि | ५६१-५८५ | ६३९-६६३ | २४ | |
२३ | माणिक्यनन्दि १ | ५८५-६०१ | ६६३-६७९ | १६ | |
२४ | मेघचन्द्र नं. १ | ६०१-६२७ | ६७९-७०५ | २६ | |
२५ | शान्तिकीर्ति | ६२७-६४२ | ७०५-७२० | १५ | |
२६ | मेरुकीर्ति | ६४२-६८० | ७२०-७५८ | ३८ |
7.3 नन्दिसंघ बलात्कारगण की भट्टारक आम्नाय
नोट - इन्द्र नन्दिकृत श्रुतावतारकी उपर्युक्त पट्टावली इस संघकी भद्रपुर या भद्दिलपुर गद्दीसे सम्बन्ध रखती है। इण्डियन एण्टीक्वेरी के आधारपर डॉ. नेमिचन्दने इसकी अन्य गद्दियोंसे सम्बन्धित भी पट्टावलियें ती. ४/४४१ पर भदी हैं-
<thead> </thead> <tbody> </tbody>सं. व. नाम | वि. वर्ष | |
---|---|---|
२ उज्जयनी गद्दी | ||
२७ महाकीर्ति | ६८६ | १८ |
२८ विष्णुनन्दि (विश्वनन्दि) | ७०४ | २२ |
२९ श्री भूषण | ७२६ | ९ |
३० शीलचन्द | ७३५ | १४ |
३१ श्रीनन्दि | ७४९ | १६ |
३२ देशभूषण | ७६५ | १० |
३३ अनन्तकीर्ति | ७७५ | १० |
३४ धर्म्मनन्दि | ७८५ | २३ |
३५ विद्यानन्दि | ८०८ | ३२ |
३६ रामचन्द्र | ८४० | १७ |
३७ रामकीर्ति | ८५७ | २१ |
३८ अभय या निर्भयचन्द्र | ८७८ | १९ |
३९ नरचन्द्र | ८९७ | १९ |
४० नागचन्द्र | ९१६ | २३ |
४१ नयनन्दि | ९३९ | ९ |
४२ हरिनन्दि | ९४८ | २६ |
४३ महीचन्द्र | ९७४ | १६ |
४४ माघचन्द्र (माधवचन्द्र) | ९९० | ३३ |
३ चन्देरी गद्दी | ||
४५ लक्ष्मीचन्द | १०२३ | १४ |
४६ गुणनन्दि (गुणकीर्ति) | १०३७ | ११ |
४७ गुणचन्द्र | १०४८ | १८ |
४८ लोकचन्द्र | १०६६ | १३ |
४ भेलसा (भोपाल) गद्दी | ||
४९ श्रुतकीर्ति | १०७९ | १५ |
५० भावचन्द्र (भानुचन्द्र) | १०९४ | २१ |
५१ महीचंद्र | १११५ | २५ |
५ कुण्डलपुर (दमोह) गद्दी | ||
५२ मोघचन्द्र (मेघचन्द्र) | ११४० | ४ |
६ वारां की गद्दी | ||
५३ ब्रह्मनन्दि | ११४४ | ४ |
५४ शिवनन्दि | ११४८ | ७ |
५५ विश्वचन्द्र | ११५५ | १ |
५६ हृदिनन्दि | ११५६ | ४ |
५७ भावनन्दि | ११६० | ७ |
५८ सूर (स्वर) कीर्ति | ११६७ | ३ |
५९ विद्याचन्द्र | ११७० | ६ |
६० सूर (राम) चन्द्र | ११७६ | ८ |
६१ माघनन्दि | ११८४ | ४ |
६२ ज्ञाननन्दि | ११८८ | ११ |
६३ गंगकीर्ति | ११९९ | ७ |
६४ सिंहकीर्ति | १२०६ | ३ |
६५ हेमकीर्ति | १२०९ | ७ |
६६ चारु कीर्ति | १२१६ | ७ |
६७ नेमिनन्दि | १२२३ | ७ |
६८ नाभिकीर्ति | १२३० | २ |
६९ नरेन्द्रकीर्ति | १२३२ | ९ |
७० श्रीचन्द्र | १२४१ | ७ |
७१ पद्मकीर्ति | १२४८ | ५ |
७२ वर्द्धमानकीर्ति | १२५३ | ३ |
७३ अकलंकचन्द्र | १२५६ | १ |
७४ ललितकीर्ति | १२५७ | ४ |
७५ केशवचन्द्र | १२६१ | १ |
७६ चारुकीर्ति | १२६२ | २ |
७७ अभयकीर्ति | १२६४ | ० |
७८ वसन्तकीर्ति | १२६४ | २ |
८ अजमेर गद्दी | ||
७९ प्रख्यातकीर्ति | १२६६ | २ |
८० शुभकीर्ति | १२६८ | ३ |
८१ धर्म्मचन्द्र | १२७१ | २५ |
८२ रत्नकीर्ति | १२९६ | १४ |
८३ प्रभाचन्द्र | १३१० | ७५ |
९ दिल्ली गद्दी | ||
८४ पद्मनन्दि | १३८५ | ६५ |
८५ शुभचन्द्र | १४५० | ५७ |
८६ जिनचन्द्र | १५०७ | ७० |
१०.चित्तौड़ गद्दी | ||
८७ प्रभाचन्द्र | १५७१ | १० |
८८ धर्म्मचन्द्र | १५८१ | २२ |
८९ ललितकीर्ति | १६०३ | १९ |
९० चन्द्रकीर्ति | १६२२ | ४० |
९१ देवेन्द्रकीर्ति | १६६२ | २९ |
९२ नरेन्द्रकीर्ति | १६११ | ३१ |
९३ सुरेन्द्रकीर्ति | १७२२ | ११ |
९४ जगत्कीर्ति | १७३३ | ३७ |
९५ देवेन्द्रकीर्ति | १७७० | २२ |
९६ महेन्द्रकीर्ति | १७९२ | २३ |
९७ क्षेमेन्द्रकीर्ति | १८१५ | ७ |
९८ सुरेन्द्रकीर्ति | १८२२ | ३७ |
९९ खेन्द्रकीर्ति | १८५९ | २० |
१०० नयनकीर्ति | १८७९ | ४ |
१०१ देवेन्द्रकीर्ति | १८८३ | ५५ |
१०२ महेन्द्रकीर्ति | १९३८ | |
११ नागौर गद्दी | ||
१ रत्नकीर्ति | १५८१ | ५ |
२ भुवनकीर्ति | १५८६ | ४ |
३ धर्म्मकीर्ति | १५९० | ११ |
४ विशालकीर्ति | १६०१ | - |
५ लक्ष्मीचन्द्र | - | - |
६ सहस्रकीर्ति | - | - |
७ नेमिचन्द्र | - | - |
८ यशःकीर्ति | - | - |
९ वनकीर्ति | - | - |
१० श्रीभूषण | - | - |
११ धर्म्मचन्द्र | - | - |
१२ देवेन्द्रकीर्ति | - | - |
१३ अमरेन्द्रकीर्ति | - | - |
१४ रत्नकीर्ति | - | - |
१५ ज्ञानभूषण | -श. १८ | - |
१६. चन्द्रकीर्ति | - | - |
१७ पद्मनन्दी | - | - |
१८ सकलभूषण | - | - |
१९ सहस्रकीर्ति | - | - |
२० अनन्तकीर्ति | - | - |
२१ हर्षकीर्ति | - | - |
२२ विद्याभूषण | - | - |
२३ हेमकीर्ति* | १९१० | - |
हेमकीर्ति भट्टारक माघ शु. २ सं. १९१० को पट्टपर बैठे।
7.4 नन्दिसंघ बलात्कारगणकी शुभचन्द्र आम्नाय
(गुजरात वीरनगरके भट्टारकोंकी दो प्रसिद्ध गद्दियें)-
प्रमाण = जै. १/४५६-४५९; गै. २/३७७ ३७८; ती. ३/३६९।
देखो पीछे - ग्वालियर गद्दीके वसन्तकीर्ति (वि. १२६४) तत्पश्चात् अजमेर गद्दीके प्रख्यातकीर्ति (वि. १२६६), शुभकीर्ति (वि. १२६८), धर्मचन्द्र (वि. १२७१), रत्नकीर्ति (वि. १२९६), प्रभाचन्द्र नं. ७ (वि. १३१०-१३८५)
7.5 नन्दिसंघ देशीयगण
(तीन प्रसिद्ध शाखायें)
प्रमाण = १. ती. ४/३/९३ पर उद्धृत नयकीर्ति पट्टावली।
(ध. २/प्र. २/H. L. Jain); (त. वृ. /प्र. ९७)।
२. ध. २/प्र. ११/H. L. Jain/शिलालेख नं. ६४ में उद्धृत गुणनन्दि परम्परा। ३. ती. ४/३७३ पर उद्धृत मेघचन्द्र प्रशस्ति तथा ती. ४/३८७ पर उद्धृत देवकीर्ति प्रशस्ति।
टिप्पणी:-
१. माघनन्दि के सधर्मा=अबद्धिकरण पद्यनन्दि कौमारदेव, प्रभाचन्द्र, तथा नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती। श्ल. ३५-३९। तदनुसार इनका समय ई. श. १०-११ (दे. अगला पृ.)।
२. गुणचन्द्रके शिष्य माणिक्यनन्दि और नयकीर्ति योगिन्द्रदेव हैं। नयकीर्तिकी समाधि शक १०९९ (ई. ११७७) में हुई। तदनुसार इनका समय लगभग ई. ११५५।
३. मेघचन्द्रके सधर्मा= मल्लधारी देव, श्रीधर, दामनन्दि त्रैविद्य, भानुकीर्ति और बालचन्द्र (श्ल. २४-३४)। तदनुसार इनका समय वि. श. ११। (ई. १०१८-१०४८)।
५. क्रमशः-नन्दीसंख देशीयगण गोलाचार्य शाखा
प्रमाण :- १. ती.४/३७३ पर उद्धृत मेघचन्द्रकी प्रशस्ति विषयक शिलालेख नं. ४७/ती. ४/१८६ पर उद्धृत देवकीर्तिकी प्रशस्ति विषयक शिलालेख नं. ४०। २. ती. ३/२२४ पर उद्धृत वसुनन्दि श्रावकाचारकी अन्तिम प्रशस्ति। ३. (ध. २/प्र. ४/H. L. Jain); (पं. विं./प्र. २८/H. L. Jain)
7.6 सेन या वृषभ संघकी पट्टावली
पद्मपुराणके कर्ता आ. रविषेण को इस संघका आचार्य माना गया है। अपने पद्मपुराणमें उन्होंने अपनी गुरुपरम्परामें चार नामोंका उल्लेख किया है। (प. पु. १२३/१६७)। इसके अतिरिक्त इस संघके भट्टारकोंकी भी एक पट्टावली प्रसिद्ध है --
सेनसंघ पट्टावली/श्ल. नं. (ति. ४/४२६ पर उद्धृत)-`श्रीमूलसंघवृषभसेनान्वयपुष्करगच्छविरुदावलिविराजमान श्रीमद्गुणभद्रभट्टारकाणाम् ।३८।
दारुसंघसंशयतमोनिमग्नाशाधर श्रीमूलसंघोपदेशपितृवनस्वर्यांतककमलभद्रभट्टारक....।२६। = श्रीमूलसंघमें वृषभसेन अन्वय के पुष्करगच्छकी विरुदावलीमें बिराजमान श्रीमद् गुणभद्र भट्टारक हुए ।३८। काष्ठासंघके संशयरूपी अन्धकारमें डुबे हुओंको आशा प्रदान करनेवाले श्रीमूल संघके उपदेशसे पितृलोकके वनरूपी स्वर्गसे उत्पन्न कमल भट्टारक हुए ।२६।
<thead> </thead> <tbody> </tbody>सं. | नाम | वि.सं. | विशेषतचा |
---|---|---|---|
१. आचार्य गुर्वावली- (प.पु.१२३/१६७); (ती.२/२७६) | |||
१ | इन्द्रसेन | ६२०-६६० | सं. १ से ४ तक का काल रविषेणके आधारपर कल्पित किया गया है। |
२ | दिवाकरसेन | ६४०-६८० | |
३ | अर्हत्सेन | ६६०-७०० | |
४ | लक्ष्मणसेन | ६८०-७२० | |
५ | रविषेण | ७००-७४० | वि. ७३४ में पद्मचरित पूरा किया। |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
सं. | नाम | वि.श. | विशेष |
---|---|---|---|
१ | नेमिसेन | ||
२ | छत्रसेन | ||
३ | आर्यसेन | ||
४ | लोहाचार्य | ||
५ | ब्रह्मसेन | ||
६ | सुरसेन | ||
७ | कमलभद्र | ||
८ | देवेन्द्रमुनि | ||
९ | कुमारसेन | ||
१० | दुर्लभसेन | ||
११ | श्रीषेण | ||
१२ | लक्ष्मीसेन | ||
१३ | सोमसेन | ||
१४ | श्रुतवीर | ||
१५ | धरसेन | ||
१६ | देवसेन | ||
१७ | सोमसेन | ||
१८ | गुणभद्व | ||
१९ | वीरसेन | ||
२० | माणिकसेन | १७ का मध्य | नीचेवालोंके आधार पर |
*नमिषेण | १७ का मध्य | शक १५१५ के प्रतिमालेखमें माणिकसेन के शिष्य रूपसे नामोल्लेख (जै.४/५९) | |
२१ | गुणसेन | १७ का मध्य | दे. नीचे गुणभद्र (सं.२३)। |
२२ | लक्ष्मीसेन | ||
*सोमसेन | पूर्वोक्त हेतुसे पट्टपरम्परासे बाहर हैं। | ||
*माणिक्यसेन | केवल प्रशस्ति के अर्थ स्मरण किये गये प्रतीत होते हैं। | ||
२३ | गुणभद्र | १७ का मध्य | सोमसेन तथा नेमिषेणके आधारपर |
२४ | सोमसेन | १७ का उत्तर पाद | वि. १६५६, १६६६, १६६७ में रामपुराण आदिकी रचना |
२५ | जिनसेन | श. १८ | शक १५७७ तथा वि. १७८० में मूर्ति स्थापना |
२६ | समन्तभद्र | श. १८ | ऊपर नीचेवालोंके आधारपर |
२७ | छत्रसेन | १८ का मध्य | श्ल. ५० में इन्हें सेनगणके अग्रगण्य कहा गया है। वि. १७५४ में मूर्ति स्थापना |
*नरेन्द्रसेन | १८ का अन्त | शक १६५२ में प्रतिमा स्थापन |
नोट - सं. १६ तकके सर्व नाम केवल प्रशस्तिके लिये दिये गये प्रतीत होते हैं। इनमें कोई पौर्वापर्य है या नहीं यह बात सन्दिग्ध है, क्योंकि इनसे आगे वाले नामोंमें जिस प्रकार अपने अपनेसे पूर्ववर्तीके पट्टपर आसीन होने का उल्लेख है उस प्रकार इनमें नहीं है।
7.7 पंचस्तूपसंघ
यह संघ हमारे प्रसिद्ध धवलाकार श्री वीरसेन स्वामीका था। इसकी यथालब्ध गुर्वावली निम्न प्रकार है- (मु.पु./प्र.३१/पं. पन्नालाल)
नोट - उपरोक्त आचार्योंमें केवल वीरसेन, गुणभद्र और कुमारसेनके काल निर्धारित हैं। शेषके समयोंका उनके आधारपर अनुमान किया गया है। गलती हो तो विद्वद्जन सुधार लें।
7.8 पुन्नाटसंघ
ह.पु.६६/२५-३२ के अनुसार यह संघ साक्षात् अर्हद्बलि आचार्य द्वारा स्थापित किया गया प्रतीत होता है, क्योंकि गुर्वावलिमें इसका सम्बन्ध लोहाचार्य व अर्हद्बलिसे मिलाया गया है। लोहाचार्य व अर्हद्बलिके समयका निर्णय मूलसंघमें हो चुका है। उसके आधार पर इनके निकटवर्ती ६ आचार्योंके समयका अनुमान किया गया है। इसी प्रकार अन्तमें जयसेन व जयसेनाचार्यका समय निर्धारित है, उनके आधार पर उनके निकटवर्ती ४ आचार्योंके समयोंका भी अनुमान किया गया है। गलती हो तो विद्वद्जन सुधार लें। (ह.पु.६०/२५-६२), (म.पु./प्र.४८ पं. पन्नालाल) (ती.२/४५१)
<thead> </thead> <tbody> </tbody>नं. | नाम | वी. नि. | ई.सं. |
---|---|---|---|
१ | लोहाचार्य २ | ५१५-५६५ | |
२ | विनयंधर | ५३० | |
३ | गुप्तिश्रुति | ५४० | |
४ | गुप्तऋद्धि | ५५० | |
५ | शिवगुप्त | ५६० | |
६ | अर्बद्बलि | ५६५-५९३ | |
७ | मन्दरार्य | ५८० | |
८ | मित्रवीर | ५९० | |
९ | बलदेव | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
१० | मित्रक | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
११ | सिंहबल | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
१२ | वीरवित | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
१३ | पद्मसेन | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
१४ | व्याघ्रहस्त | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
१५ | नागहस्ती | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
१६ | जितदन्ड | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
१७ | नन्दिषेण | इसके समय को भी अनुमानसे लगा लेना चाहिए | |
१८ | दीपसेन | ||
१९ | धरसेन नं.२ | ई. श. ५ | |
२० | सुधर्मसेन | ||
२१ | सिंहसेन | ||
२२ | सुनन्दिसेन १ | ||
२३ | ईश्वरसेन | ||
२४ | सुनन्दिषेण २ | ||
२५ | अभयसेन | ||
२६ | सिद्धसेन | ||
२७ | अभयसेन | ||
२८ | भीभसेन | ||
२९ | जिनसेन १ | ई. श. ७ अन्त | |
३० | शान्तिसेन | वि. श. ७-८ | ई. श. ८ पूर्व |
३१ | जयसेन २ | ७८०-८३० | ७२३-७७३ |
३२ | अमितसेन | ८००-८५० | ७४३-७९३ |
३३ | कीर्तिषेण | ८२०-८७० | ७६१-८१३ |
३४ | $जिनसेन २ | ८३५-८८५ | ७७८-८२८ |
$श.सं.७०५ में हरिवंश पुराणकी रचना ह.पु.६६/५२
7.9 काष्ठासंघकी पट्टावली
गौतमसे लोहाचार्य तकके नामोंका उल्लेख करके पट्टालीकारने इस संघका साक्षात् सम्बन्ध मूलसंघके साथ स्थापित किया है, परन्तु आचार्योंका काल निर्देश नहीं किया है। कुमारसेन प्र. तथा द्वि. का काल पहले निर्धारित किया जा चुका है (दे. शीर्षक ६/४)। उन्हींके आधार पर अन्य कुछ आचार्योंका काल यहाँ अनुमानसे लिखा गया है जिस असंदिग्ध नहीं कहा जा सकता। (ती.४/३६०-३६६ पर उद्धृत)-
<thead> </thead> <tbody> </tbody>सं. | नाम |
---|---|
• | गौतमसे लेकर लोहाचार्य द्वि. तकके सर्व नाम |
१ | जयसेन |
२ | वीरसेन |
३ | ब्रह्मसेन |
४ | रुद्रसेन |
५ | भद्रसेन |
६ | कीर्तिसेन |
७ | जयकीर्ति |
८ | विश्वकीर्ति |
९ | अभयसेन |
१० | भूतसेन |
११ | भावकीर्ति |
१२ | विश्वचन्द्र |
१३ | अभयचन्द्र |
१४ | माघचन्द्र |
१५ | नेमिचन्द्र |
१६ | विनयचन्द्र |
१७ | बालचन्द्र |
१८ | त्रिभुवनचन्द्र १ |
१९ | रामचन्द्र |
२० | विजयचन्द्र |
२१ | यशःकीर्ति १ |
२२ | अभयकीर्ति |
२३ | महासेन |
२४ | कुन्दकीर्ति |
२५ | त्रिभुवचन्द्र २ |
२६ | रामसेन |
२७ | हर्षसेन |
२८ | गुणसेन |
२९ | कुमारसेन १ (वि. ७५३) |
३० | प्रतापसेन |
३१ | महावसेन |
३२ | विजयसेन |
३ | नयसेन |
३४ | श्रेयांससेन |
३५ | अनन्तकीर्ति |
३६ | कमलकीर्ति १ |
३७ | क्षेमकीर्ति १ |
३८ | हेमकीर्ति |
३९ | कमलकीर्ति २ |
४० | कुमारसेन २ (वि. ९५५) |
४१ | हेमचन्द्र |
४२ | पद्मनन्दि |
४३ | यशकीर्ति २ |
४४ | क्षेमकीर्ति २ |
४५ | त्रिभुवकीर्ति |
४६ | सहस्रकीर्ति |
४७ | महीचन्द्र |
४८ | देवेन्द्रकीर्ति |
४९ | जगतकीर्ति |
५० | ललितकीर्ति |
५१ | राजेन्द्रकीर्ति |
५२ | शुभकीर्ति |
५३ | रामसेन (वि. १४३१) |
५४ | रत्नकीर्ति |
५५ | लक्षमणसेन |
५६ | भीमसेन |
५७ | सोमकीर्ति |
प्रद्युम्न चारित्रको अन्तिम प्रशस्ति के आधारपर प्रेमीजी कुमारसेन २ को इस संघका संस्थापक मानते हैं, और इनका सम्बन्ध पंचस्तूप संघ के साथ घटित करके इन्हें वि. ९५५ में स्थापित करते हैं। साथ ही `रामसेन' जिनका नाम ऊपर ५३ वें नम्बर पर आया है उन्हें वि. १४३१ में स्थापित करके माथुर संघका संस्थापक सिद्ध करनेका प्रयत्न करते हैं (परन्तु इसका निराकरण शीर्षक ६/४ में किया जा चुका है)। तथापि उनके द्वारा निर्धारित इन दोनों आचार्योंके काल को प्रमाण मानकर अन्य आचार्योंके कालका अनुमान करते हुए प्रद्युम्न चारित्रकी उक्त प्रशस्तिमें निर्दिष्ट गुर्वावली नीचे दी जाती है।
(प्रद्युम्न चारित्रकी अन्तिम प्रशस्ति); (प्रद्युम्न चारित्रकी प्रस्तावना/प्रेमीजी); (द.सा./प्र.३९/प्रेमीजी); (ला.स.१/६४-७०)।
सं. | नाम | वि.सं. | ई. सन् |
---|---|---|---|
४० | कुमारसेन २ | ९५५ | ८९८ |
४१ | हेमचन्द्र १ | ९८० | ९२३ |
४२ | पद्मनन्दि २ | १००५ | ९४८ |
४३ | यशःकीर्ति २ | १०३० | ९७३ |
४४ | क्षेमकीर्ति १ | १०५५ | ९९८ |
५३ | रामसेन | १४३१ | १३७४ |
५४ | रत्नकीर्ति | १४५६ | १३९९ |
५५ | लक्ष्मणसेन | १४८१ | १४२४ |
५६ | भीमसेन | १५०६ | १४४९ |
५७ | सोमकीर्ति | १५३१ | १४९४ |
नोट - प्रशस्तिमें ४५ से ५२ तकके ८ नाम छोड़कर सं. ५३ पर कथित रामसेनसे पुनः प्रारम्भ करके सोमकीर्ति तकके पाँचों नाम दे दिये गये हैं।
7.10 लाड़बागड़ गच्छ की गुर्वावली
यह काष्ठा संघका ही एक अवान्तर गच्छ है। इसकी एक छोटी सी गुर्वावली उपलब्ध है जो नीचे दी जाती है। इसमें केवल आ. नरेन्द्र सेनका काल निर्धारित है। अन्यका उल्लेख यहाँ उसीके आधार पर अनुमान करके लिख दिया गया है। (आ. जयसेन कृत धर्म रत्नाकर रत्नक्रण्ड श्रावकाचारकी अन्तिम प्रशस्ति); (सिद्धान्तसार संग्रह १२/८८-९५ प्रशस्ति); (सिद्धान्तसार संग्रह प्र.८/A.N. Up)।
<thead> </thead> <tbody> </tbody>वि. सं. ई. सन् | |||
---|---|---|---|
१ | धर्मसेन | ९५५ | ८९८ |
२ | शान्तिसेन | ९८० | ९२३ |
३ | गोपसेन | १००५ | ९४८ |
४ | भावसेन | १०३० | ९७३ |
५ | जयसेन ४ | १०५५ | ९९८ |
६ | ब्रह्मसेन | १०८० | १०१३ |
७ | वीरसेन ३ | ११०५ | १०४८ |
८ | गुणसेन १ | ११३१ | १०७३ |
7.11 माथुर गच्छ या संघकी गुर्वावली
(सुभाषित रत्नसन्दोह तथा अमितगति श्रावकाचारकी अन्तिम प्रशस्ति); (द.सा./प्र.४०/प्रेमीजी)।
<thead> </thead> <tbody> </tbody>सं. | नाम | वि.सं. |
---|---|---|
१ | रामसेन१ | ८८०-९२० |
२ | वीरसेन१ २ | ९४०-९८० |
३ | देवसेन २ | ९६०-१००० |
४ | अमितगति १ | ९८०-१०२० |
५ | नेमिषेण | १०००-१०४० |
६ | माधवसेन | १०२०-१०६० |
७ | अमितगति २ | १०४०-१०८०* |
१ = प्रेमीजी के अनुसार इन दोनोंके मध्य तीन पीढ़ियोंका अन्तर है।१ = प्रेमीजी के अनुसार इन दोनोंके मध्य तीन पीढ़ियोंका अन्तर है।• = वि. १०५० में सुभाषित रत्नसन्दोह पूरा किया।
8. आचार्य समयानुक्रमणिका
नोट - प्रमाणके लिए दे, वह वह नाम
<thead> </thead> <tbody> </tbody>क्रमांक | समय (ई.पू.) | नाम | गुरु | विशेष |
---|---|---|---|---|
१. ईसवी पूर्व :- | ||||
१ | १५०० | अर्जुन अश्वमेघ | - | कवि |
२ | ५२७-५१५ | गौतम (गणधर) | भगवान् महावीर | केवली |
३ | ५१५-५०३ | सुधर्माचार्य (लोहार्य १) | भगवान् महावीर | केवली |
४ | ५०३-४६५ | जम्बूस्वामी | भगवान् महावीर | केवली |
५ | ४६५-४५१ | विष्णु | जम्बूस्वामी | द्वादशांग धारी |
६ | ४५१-४३५ | नन्दिमित्र | विष्णु | द्वादशांग धारी |
७ | ४३५-४१३ | अपराजित | नन्दिमित्र | द्वादशांग धारी |
८ | ४१३-३९४ | गोवर्धन | अपराजित | द्वादशांग धारी |
९ | ३९४-३६५ | भद्रबाहु १ | गोवर्धन | द्वादशांग धारी |
१० | ३९४-३६० | स्थूलभद्र स्थूलाचार्यरामल्य | भद्रबाहु १ | श्वेताम्बर संघ प्रवर्तक |
११ | ३६५-३५५ | विशाखाचार्य | भद्रबाहु १ | ११ अंग १० पूर्वधर |
१२ | ३५५-३३६ | प्रोष्ठिल | विशाखाच्रय | ११ अंग १० पूर्वधर |
१३ | ३३६-३१९ | क्षत्रिय | प्रोष्ठिल | ११ अंग १० पूर्वधर |
१४ | ३१९-२९८ | जयसेन १ | क्षत्रिय | ११ अंग १० पूर्वधर |
१५ | २९८-२८० | नागसेन | जयसेन १ | ११ अंग १० पूर्वधर |
१६ | २८०-२६३ | सिद्धार्थ | नागसेन | ११ अंग १० पूर्वधर |
१७ | २६३-२४५ | धृतिषेण | सिद्धार्थ | ११ अंग १० पूर्वधर |
१८ | २४५-२३२ | विजय | धृतिषेण | ११ अंग १० पूर्वधर |
१९ | २३२-२१२ | बुद्धिलिंग | विजय | ११ अंग १० पूर्वधर |
२० | २१२-१९८ | गंगदेव | बुद्धिलिंग | ११ अंग १० पूर्वधर |
२१ | १९८-१८२ | धर्मसेन १ | गंगदेव | ११ अंग १० पूर्वधर |
२२ | १८२-१६४ | नक्षत्र | धर्मसेन | ११ अंगधारी |
२३ | १६४-१४४ | जयपाल | नक्षत्र | ११ अंगधारी |
२४ | १४४-१०५ | पाण्डु | जयपाल | ११ अंगधारी |
२५ | १०५-९१ | ध्रुवसेन | पाण्डु | ११ अंगधारी |
२६ | ९१-५९ | कंस | ध्रुवसेन | ११ अंगधारी |
२७ | ५९-५३ | सुभद्राचार्य | कंस | १० अंगधारी |
२८ | ५३-३५ | यशोभद्र १ | सुभद्राचार्य | ९ अंगधारी |
२९ | ३५-१२ | भद्रबाहु २ | यशोभद्र | ८ अंगधारी |
३० | ई.पू. १२ | लोहाचार्य २ | भद्रबाहु २ | ८ अंगधारी |
क्रमांक | समय ई. सन् | नाम | गुरु या विशेषता | प्रधानकृति |
२. ईसवी शताब्दी १ :- | ||||
३१ | पूर्वपाद | गणधर | लोहाचार्य | कषायपाहुड़ |
३२ | पूर्वपाद | चन्द्रनन्दि १ | - | - |
३३ | पूर्वपाद | बलदेव १ | चन्द्रनन्दि | - |
३४ | पूर्वपाद | जिननन्दि | बलदेव १ | - |
३५ | पूर्वपाद | आर्य सर्व गुप्त | जिननन्दि | - |
३६ | पूर्वपाद | मित्रनन्दि | सर्वगुप्त | - |
३७ | पूर्वपाद | शिवकोटि | मित्रनन्दि | भगवती आरा. |
३८ | ३०-Mar | विनयधर | पुन्नाट संघी | - |
३९ | १५-४५ | गुप्ति श्रुति | पुन्नाट विनयधर | - |
४० | २०-५० | गुप्ति ऋद्धि | पुन्नाट गुप्तिश्रुति | - |
४१ | ३५-६० | शिव गुप्त | पुन्नाट गुप्ति ऋद्धि | - |
४२ | मध्यपाद | रत्न नन्दि | शुभनंदिकेसधर्मा | - |
४३ | मध्यपाद | शुभनन्दि | बप्पदेवके गुरु | - |
४४ | मध्यपाद | बप्पदेव | शुभनन्दि | व्याख्याप्रज्ञप्ति |
४५ | मध्यपाद | कुमार नन्दि | - | सरस्वतीआन्दोशिल्पड्डिकारं |
४६ | मध्यपाद | इलंगोवडिगल | - | - |
४७ | मध्यपाद | शिवस्कन्द | - | - |
४८ | ३८-४८ | गुप्तिगुप्त | - | - |
४९ | ३८-६६ | (अर्हद्बलि) | - | अंगांशधारी |
५० | ३८-५५ | अर्हदत्त | लोहाचार्य | अंगांशधारी |
५१ | ३८-५५ | शिवदत्त | लोहाचार्य | अंगांशधारी |
५२ | ३८-५५ | विनयदत्त | लोहाचार्य | अंगांशधारी |
५३ | ३८-५५ | श्रीदत्त | लोहाचार्य | अंगांशधारी |
५४ | ३८-६६ | अर्हद्बलि | लोहाचार्य | अंगांशधारी |
५५ | ३८-४८ | (गुप्तिगुप्त) | - | - |
५६ | ४८-८७ | माघनन्दि | अर्हद्बलि | अंगांशधारी |
५७ | ३८-१०६ | धरसेन १ | क्रमबाह्य | षट्खण्डागम |
५८ | ६६-१०६ | पुष्पदन्त | धरसेन | षट्खण्डागम |
५९ | ६६-१५६ | भूतबली | धरसेन | षट्खण्डागम |
६० | ५३-६३ | मन्दार्य (पुन्नाट संघी) | अर्हद्बलि | - |
६१ | ६३ | मित्रवीर | मन्दार्य | - |
६२ | ६३-१३३ | इन्द्रसेन | - | |
६३ | ८०-१५० | दिवाकरसेन | इन्द्रसेन | - |
६४ | ६८-८८ | यशोबाहु (भद्रबाहु द्वि.) | यशोभद्रके शिष्य लोहाचार्य २ के गुरु | - |
६५ | ७३-१२३ | आर्यमंक्षु | - | कषायपाहुड़ |
६६ | ९०-९३ | वज्रयश (श्वेताम्बर) | - | - |
६७ | ९३-१६२ | नागहस्ति | - | कषायपाहुड़ |
६८ | १४३-१७३ | यतिवृषभ | नागहस्ति | कषायपाहुड़ |
३. ईसवी शताब्दी २ :- | ||||
६९ | ८७-१२७ | जिनचन्द्र | कुन्दकुन्दके गुरु | - |
७० | १२७-१७९ | कुन्दकुन्द (पद्मनन्दि) | जिनचन्द्र | समयसार |
७१ | १२७-१७९ | वट्टकेर | - | मूलाचार |
७२ | १७९-२४३ | उमास्वामी (गृद्धपिच्छ) | कुन्दकुन्द | - |
७३ | पूर्वपाद | देवऋद्धिगणी | श्वे. के. अनुसार | श्वे. आगम |
७४ | १२०-१८५ | समन्तभद्र | - | आप्तमीमांसा |
७५ | १२३-१६३ | अर्हत्सेन | दिवाकरसेन | - |
७६ | मध्य पाद | सिंहनन्दि १ (योगीन्द्र) | भानुनन्दि | - |
७७ | मध्य पाद | कुमार स्वामी | - | कार्तिकेयानुप्रेक्षा |
४. ईसवी शताब्दी ३ :- | ||||
७८ | २२०-२३१ | बलाक पिच्छ | गृद्धपिच्छ | - |
७९ | २२०-२३१ | लोहाचार्य ३ | - | - |
८० | २३१-२८९ | यशःकीर्ति | लोहाचार्य ३ | - |
८१ | २८९-३३६ | यशोनन्दि | यशःकीर्ति | - |
८२ | उत्तरार्ध | शामकुण्ड | - | पद्धति टीका |
५. ईसवी शताब्दी ४ :- | ||||
८३ | पूर्व पाद | विमलसूरि | - | पउमचरिउ |
८४ | ३३६-३८६ | देवनन्दि | यशोनन्दि | - |
८५ | मध्यपाद | श्री दत्त | - | जल्प निर्णय |
८६ | ३५७ | मल्लवादी | - | द्वादशारनयचक्र |
८७ | ३८६-४३६ | जयनन्दि | देवनन्दि | - |
६. ईसवी शताब्दी ५ :- | ||||
८८ | मध्यपाद | धरसेन २ | दीपसेन | - |
८९ | मध्यपाद | पूज्यपाददेवनन्दि | - | सर्वार्थसिद्धि |
९० | ४३६-४४२ | गुणनन्दि | जयनन्दि | - |
९१ | ४३७ | अपराजित | सुमति आचार्य | - |
९२ | ४४२-४६४ | वज्रनन्दि | गुणनन्दि | - |
९३ | ४४३ | शिवशर्म सूरि (श्वेताम्बर) | - | कर्म प्रकृति |
९४ | ४५३ | देवार्द्धिगणी | दि.के. अनुसार | श्वे. आगम |
९५ | ४५८ | सर्वनन्दि | - | सं. लोक विभाग |
९६ | ४६४-५१५ | कुमारनन्दि | वज्रनन्दि | - |
९७ | ४८०-५२८ | हरिभद्र सूरि | (श्वेताम्बर) | षट्दर्शन समु. |
७. ईसवी शताब्दी ६ :- | ||||
९८ | पूर्वपाद | वज्रनन्दि | पूज्यपाद | प्रमाण ग्रन्थ |
९९ | ५०५-५३१ | लोकचन्द्र | कुमारनन्दि | - |
१०० | ५३१-५५६ | प्रभाचन्द्र १ | लोकचन्द्र | - |
१०१ | उत्तरार्ध | योगेन्दु | - | परमात्मप्रकाश |
१०२ | ५६-५६५ | नेमिचन्द्र १ | प्रभाचन्द्र | - |
१०३ | ५६५-५८६ | भानुनन्दि | नेमि चन्द्र १ | - |
१०४ | ५६८ | सिद्धसेन दिवा. (दिगम्बर) | सन्मतितर्क | - |
१०५ | ५८३-६२३ | दिवाकरसेन | इन्द्रसेन | - |
१०६ | ५८६-६१३ | सिंहनन्दि २ | भानुनन्दि | - |
१०७ | ५९३ | जिनभद्रगणी (श्वेताम्बराचार्य) | - | विशेषावश्यक भाष्य |
१०८ | ई.श.७ से पूर्व | तोलामुलितेवर | - | चूलामणि |
१०९ | अन्तिम पाद | सिंह सूरि (श्वे.) | - | नयचक्र वृत्ति |
११० | अन्तिम पाद | शान्तिषेण | जिनसेन प्र. | - |
१११ | श. ६-७ | पात्रकेसरी | समन्तभद्र | पात्रकेसरी स्तोत्र |
११२ | श. ६-७ | ऋषि पुत्र | - | निमित्त शास्त्र |
८. ईसवी शताब्दी ७ :- | ||||
११३ | पूर्व पाद | सिंहसूरि (श्वे.) | सिद्धसेन गणी के दादा गुरु | द्वादशार नयचक्र की वृत्ति |
११४ | ६०३-६१९ | वसुनन्दि १ | सिंहनन्दि | - |
११५ | ६०३-६४३ | अर्हत्सेन | दिवाकरसेन | - |
११६ | ६०९-६३९ | वीरनन्दि १ | वसुनन्दि | - |
११७ | ६१८ | मानतुङ्ग | - | भक्तामर स्तोत्र |
११८ | ६२०-६८० | अकलङ्क भट्ट | - | राजवार्तिक |
११९ | ६२३-६६३ | लक्ष्मणसेन | अर्हत्सेन | - |
१२० | ६२५ | कनकसेन | बलदेवके गुरु | - |
१२१ | ६२५-६५० | धर्मकीर्ति (बौद्ध) | - | - |
१२२ | ६३९-६६३ | रत्ननंदि | वीरनन्दि | - |
१२३ | मध्य पाद | तिरुतक्कतेवर | - | जीवनचिन्तामणि |
१२४ | उत्तरार्ध | प्रभाचन्द्र २ | - | तत्त्वार्थसूत्र द्वि. |
१२५ | ६५० | बलदेव | कनकसेन | - |
१२६ | ६६३-६७९ | माणिक्यनन्दि १ | रत्ननन्दि | - |
१२७ | ६७५ | धर्मसेन | - | - |
१२८ | ६७७ | रविषेण | लक्ष्मणसेन | पद्मपुराण |
१२९ | ६७९-७०५ | मेघचन्द्र | माणिक्यनन्दि १ | - |
१३० | ६९६ | कुमासेन | प्रभाचन्द्र ४ के गुरु | आत्ममीमांसा विवृत्ति |
१३१ | अन्तिम पाद | सिद्धसेन गणी | श्वेताम्बराचार्य | न्यायावतार |
१३२ | ७०० | बालचन्द्र | धर्मसेन | - |
१३३ | ई. श. ७-८ | अर्चट (बौद्ध) | - | हेतु बिन्दु टीका |
१३४ | ई. श. ७-८ | सुमतिदेव | - | सन्मतितर्कटीका |
१३५ | ई. श. ७-८ | जटासिंह नन्दि | - | वराङ्गचरित |
१३६ | ई. श. ७-८ | चतुर्मुखदेव | अपभ्रंशकवि | - |
८. ईसवी शताब्दी ८ :- | ||||
१३७ | ७०५-७२१ | शान्तिकीर्ति | मेधचन्द्र | - |
१३८ | ७१६ | चन्द्रनन्दि २ | - | - |
१३९ | ७२०-७५८ | मेरुकीर्ति | शान्तिकीर्ति | - |
१४० | ७२०-७८० | पुष्पसेन | अकलङ्कके सधर्मा | - |
१४१ | ७२३-७७३ | जयसेन २ | शान्तिसेन | - |
१४२ | ७२५-८२५ | जयराशि (अजैन नैयायिक) | - | तत्त्वोपप्लवसिंह |
१४३ | मध्य पाद | बुद्ध स्वामी | - | बृ. कथा श्लोक संग्रह |
१४४ | मध्य पाद | हरिभद्र २ (याकिनीसूनु) | - | तत्त्वार्थाधिगम भाष्य की टीका |
१४५ | मध्य पाद | श्रीदत्त द्वि. | - | जल्प निर्णय |
१४६ | मध्य पाद | काणभिक्षु | - | चरित्रग्रंथ |
१४७ | ७३६ | अपराजित | विजय | विजयोदया (भग.आ.टीका) |
१४८ | ७३८-८४० | स्वयम्भू | - | पउमचरिउ |
१४९ | ७४२-७७३ | चन्द्रसेन | पंचस्तूपसंघी | - |
१५० | ७४३-७९३ | अमितसेन | पुन्नाटसंघी | - |
१५१ | ७४८-८१८ | जिनसेन १ | - | हरिवंश पुराण |
१५२ | ७५७-८१५ | चारित्रभूषण | विद्यानन्दिके गुरु | - |
१५३ | उत्तरार्ध | अनन्तकीर्ति | - | प्रामाण्य भंग |
१५४ | ७६२ | आविद्धकरण (नैयायिक) | - | - |
१५५ | ७६३-८१३ | कीर्तिषेण | जयसेन २ | - |
१५६ | ७६७-७९८ | आर्यनन्दि | पंचस्तूपसंघी | - |
१५७ | ७७०-८२७ | जयसेन ३ | आर्यनन्दि | - |
१५८ | ७७०-८६० | वादीभसिंह | पुष्पसेन | क्षत्रचूड़ामणि |
१५९ | ७७५-८४० | विद्यानन्दि १ | - | आप्त परीक्षा |
१६० | ७८३ | उद्योतन सूरि | - | कुवलय माला |
१६१ | ७९७ | प्रभाचन्द्र ३ | तोरणाचार्य | - |
१६२ | ७७० | एलाचार्य | - | - |
१६३ | ७७०-८२७ | वीरसेन स्वामी | एलाचार्य | धवला |
१६४ | ई.श. ८-९ | धनञ्जय | दशरथ | विषापहार |
१६५ | ई.श. ८-९ | कुमारनन्दि | चन्द्रनन्दि | वादन्याय |
१६६ | ई. श. ८-९ | महासेन | - | सुलोचना कथा |
१६७ | ई. श. ८-९ | श्रीपाल | वीरसेन स्वामी | - |
१६८ | ई. श. ८-९ | श्रीधर १ | - | गणितसार संग्रह |
१०. ईसवी शताब्दी ९ :- | ||||
१६९ | पूर्वपाद | परमेष्ठी | अपभ्रंश कवि | वागर्थ संग्रह |
१७० | ८००-८३० | महावीराचार्य | - | गणितसार संग्रह |
१७१ | ८१४ | शाकटायन-पाल्यकीर्ति | यापनीयसंघी | शाकटायन-शब्दानुशासन |
१७२ | ८१४ | नृपतुंग | कन्नड़ कवि | कविराज मार्ग |
१७३ | ८१८-८७८ | जिनसेन ३ | वीरसेन स्वामी | आदिपुराण |
१७४ | ८२०-८७० | दशरथ | वीरसेन स्वामी | - |
१७५ | ८२०-८७० | पद्मसेन | वीरसेन स्वामी | - |
१७६ | ८२०-८७० | देवसेन १ | वीरसेन स्वामी | - |
१७७ | ८२८ | उग्रादित्य | श्रीनन्दि | कल्याणकारक |
१७८ | मध्य पाद | गर्गर्षि (श्वे.) | - | कर्मविपाक |
१७९ | ८४३-८७३ | गुणनन्दि | बलाकपिच्छ | - |
१८० | उत्तरार्ध | अनन्तकीर्ति | - | - |
१८१ | उत्तरार्ध | त्रिभुवन स्वयंभू | कवि स्वयंभूका पुत्र | बृहत्सर्वज्ञसिद्धि |
१८२ | ८५८-८९८ | देवेन्द्र सैद्धान्तिक | गुणनन्दि | - |
१८३ | ८८३-९२३ | वीरसेन २ | रामसेन | - |
१८४ | ८९३-९२३ | कलधौतनन्दि | देवेन्द्रसैद्धान्तिक | - |
१८५ | ८९३-९२३ | वसुनन्दि २ | देवेन्द्र सैद्धान्तिक | - |
१८६ | ८९८ | कुमारसेन | काष्ठा संघ संस्थापक | - |
१८७ | ८९८ | धर्मसेन २ | लाड़बागड़गच्छ | - |
१८८ | ८९८ | गुणभद्र १ | जिनसेन ३ | उत्तरपुराण |
१८९ | अन्तिम पाद | धनपाल | - | भवियसत्त कहा |
१९० | ई. श. ९-१० | चन्द्रर्षि महत्तर | - | पंचसंग्रह (श्वे.) |
११. ईसवी शताब्दी १० :- | ||||
१९१ | ९००-९२० | गोलाचार्य | कलधौतनन्दि | उत्तरपुराण (शेष) |
१९२ | ९०-९४० | लोकसेन | गुणभद्र १ | - |
१९३ | ९०३-९४३ | देवसेन १ | वीरसेन २ | - |
१९४ | ९०५ | सिद्धर्षि | दुर्गा स्वामी | उपमिति भवप्रपञ्च कथा |
१९५ | ९०५-९५५ | अमृतचन्द्र | - | आत्मख्याति |
१९६ | ९०९ | विमलदेव | देवसेनके गुरु | - |
१९७ | पूर्वार्ध | कनकसेन | - | कोई काव्यग्रन्थ |
१९८ | ९१८-९४३ | नेमिदेव | वाद विजेता | - |
१९९ | ९१८-९४८ | सर्वचन्द्र | वसुनन्दि | - |
२०० | ९२०-९३० | त्रैकाल्ययोगी | गोलाचार्य | - |
२०१ | ९२३ | शान्तिसेन | धर्मसेन | - |
२०२ | ९२३ | हेमचन्द्र | कुमारसेन | - |
२०३ | मध्य पाद | विजयसेन | नागसेनके गुरु | - |
२०४ | मध्य पाद (अभयदेव (श्वे.) | - | वाद महार्णव | - |
२०५ | मध्य पाद | हरिचन्द | एक कवि | धर्मशर्माभ्युदय |
२०६ | मध्य पाद | माधवचन्द (त्रैविद्य) | नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती | त्रिलोकसार टीका |
२०७ | ९२३-९६३ | अमितगति १ | देवसेन सूरि | योगसार प्राभृत |
२०८ | ९३०-९५० | अभयनन्दि | वीरनन्दिके गुरु | जैनेन्द्रमहावृत्ति |
२०९ | ९३०-१०२३ | पद्यनन्दि (आविद्धकरण) | त्रैकाल्ययोगी | - |
२१० | ९३१ | हरिषेण | भरतसेन | बृहत्कथाकोश |
२११ | ९३३-९५५ | देवसेन २ | विमलदेव | दर्शनसार |
२१२ | ९३५-९९९ | मेघचन्द्र त्रिविद्य | त्रैकाल्ययोगी | ज्वालामालिनी |
२१३ | ९९७ | कुलभद्र | - | सारसमुच्चय |
२१४ | ९३९ | इन्द्रनन्दि | बप्पनन्दि | श्रुतावतार |
२१५ | ९३९ | कनकनन्दि | - | सत्त्वत्रिभंगी |
२१६ | ९४०-१००० | सिद्धान्तसेन | गोणसेनके गुरु | - |
२१७ | ९४३-९६८ | सोमदेव १ | नेमिदेव | नीतिवाक्यामृत |
२१८ | ९४३-९७३ | दामनन्दि | सर्वचन्द्र | - |
२१९ | ९४३-९८३ | नेमिषेण | अमितगति | - |
२२० | ९४ | गोपसेन | शान्तिसेन | - |
२२१ | ९४ | पद्यनन्दि | हेमचन्द्र | - |
२२२ | ९० | पोन्न | (कन्नड़कवि) | शान्तिपुराण |
२२३ | ९६०-९९३ | रन्न | (कन्नड़कवि) | अजितनाथपुराण |
२२४ | उत्तरार्ध | पुष्पदन्त | अपभ्रंश कवि | जसहर चरिउ |
२२५ | उत्तरार्ध | भट्टवोसरि | दामननन्दि | आय ज्ञान |
२२६ | ९५०-९९० | रविभद्र | - | आराधनासार |
- | वीरनन्दि २ | अभयनन्दि | आचारसार | |
२२७ | ९५०-१०२० | सकलचन्द्र | अभयनन्दि | - |
२२८ | ९५०-१०२० | प्रभाचन्द्र ४ | पद्मनन्दि सै. | प्रमेयकमल मा. |
२२९ | ९५३-९७३ | सिंहनन्दि ४ | अजितसेनके गुरु | - |
२३० | ९६०-१००० | गोणसेन पं. | सिद्धान्तसेन | - |
२३१ | ९६३-१००३ | अजितसेन | सिंहनन्दि | - |
२३२ | ९६३-१००७ | माधवसेन | नेमिषेण | करकंडु चरिऊ |
२३३ | ६५-१०५१ | कनकामर | बुधमंगलदेव | - |
२३४ | ९६८-९९८ | वीरनन्दि | दामनन्दि | - |
२३५ | ९७२ | यशोभद्र (श्वे.) | साडेरक गच्छ | - |
२३६ | ९७३ | यशःकीर्ति २ | पद्मनन्दि | - |
२३७ | ९७३ | भावसेन | गोपसेन | - |
२३८ | ९७४ | महासेन | गुणकरसेन | प्रद्युम्न चरित्र सिद्धि विनि. वृ. |
२३९ | ९७५-१०२५ | अनन्तवीर्य १ | द्रविड़ संघी | जम्बूदीव पण्णति |
२४० | ९७७-१०४३ | पद्मनन्दि ४ | बालनन्दि | कुंदकुंदत्रयी टी. |
२४१ | ९८०-१०६५ | प्रभाचन्द्र ५ | - | चारित्रसार |
२४२ | ९७८ | चामुण्डराय | अजितसेन | गोमट्टसार |
२४३ | ९८१ | नेमिचन्द्र | इन्द्रनन्दि | - |
- | - | सिद्धान्तचक्रवर्ती | - | - |
२४४ | ९८३ | बालचन्द्र | अनन्तवीर्य | - |
२४५ | ९८३-१०२३ | अमितगति २ | माधवसेन | श्रावकाचार |
२४६ | ९८७ | हरिषेण | अपभ्रंश कवि | धम्मपरिक्खा |
२४७ | ९८८ | असग | नागनन्दि | वर्द्धमान चरित्र |
२४८ | ९९० | नागवर्म १ | कन्नड़कवि | छन्दोम्बुधि |
२४९ | ९९०-१००० | गुणकीर्ति | अनन्तवीर्य | - |
२५० | ९९०-१०४० | देवकीर्ति २ | अनन्तवीर्य | - |
२५१ | ९८४ | उदयनाचार्य | (नैयायिक) | किरणावली |
२५२ | ९९१ | श्रीधर २ | (नैयायिक) | न्यायकन्दली |
२५३ | लगभग ९९३ | देवदत्त रत्न | अपभ्रंश कवि | वरांग चरिउ अजित |
२५४ | ९९३-१०२३ | श्रीधर ३ | वीरनन्दि | - |
२५५ | ९९३-१०५० | नयनन्दि | माणिक्यनन्दि | सुंदसण चरिऊ |
२५६ | ९९३-१११८ | शान्त्याचार्य | - | जैनतर्क वार्तिकवृत्ति |
२५७ | ९९८ | क्षेमकीर्ति १ | यशःकीर्ति | - |
२५८ | ९९८ | जयसेन ४ | भावसेन | - |
२५९ | ९९८-१०२३ | बालनन्दि | वीरनन्दि | - |
२६० | ९९९-१०२३ | श्रीनन्दि | सकलचन्द्र | - |
२६१ | अन्तिमपाद | ढड्ढा | श्रीपालके पुत्र | पंचसंग्रह अनुवाद |
२६२ | १००० | क्षेमन्धर | - | बृ. कथामञ्जरी |
२६३ | ई. श. १०-११ | इन्द्रनन्दि २ | - | छेदपिण्ड |
१२. ईसवी शताब्दी ११ :- | ||||
२६४ | १००३-१०२८ | माणिक्यनन्दि | रामनन्दि | परीक्षामुख |
२६५ | १००३-१०६८ | शुभचन्द्र | - | ज्ञानार्णव |
२६६ | पूर्वार्ध | विजयनन्दि | बालनन्दि | - |
२६७ | १०१०-१०६५ | वादिराज २ | मति सागर | एकीभाव स्तोत्र |
२६८ | १०१५-१०४५ | सिद्धान्तिक देव | शुभचन्द्र २ | - |
२६९ | १०१९ | वीर कवि | - | जंबूसामि चरिउ |
२७० | १०२०-१११० | मेघचन्द्र त्रैविद्य | सकलचन्द्र | - |
२७१ | १०२३ | ब्रह्मसेन | जयसेन | - |
२७२ | १०२३-१०६६ | उदयसेन | गुणसेन | - |
२७३ | १०२३-१०७८ | कुल भूषण | पद्मनन्दि आविद्ध | - |
२७४ | १०२९ | पद्मसिंह | - | ज्ञानसार |
२७५ | १०३०-१०८० | श्रुतकीर्ति | पद्मनन्दि आविद्ध | - |
२७६ | मध्य पाद | यशःकीर्ति | अपभ्रंश कवि | चंदप्पह चरिउ |
२७७ | १०३१-१०७८ | अभयदेव (श्वे.) | - | नवांग वृत्ति |
२७८ | १०३२ | दुर्गदेव | संयमदेव | रिष्ट समुच्चय |
२७९ | १०४३-१०७३ | चन्द्कीर्ति | मल्लधारी देव १ | - |
२८० | १०४३ | नयनन्दि | नेमिचन्द्र के गुरु | - |
२८१ | १०४६ | कीर्ति वर्मा | आयुर्वेद विद्वान | जाततिलक |
२८२ | १०४७ | महेन्द्र देव | नागसेनके गुरु | - |
२८३ | १०४७ | मलल्लिषेण | जिनसेन | महापुराण |
२८४ | १०४७ | नागसेन | महेन्द्रदेव | - |
२८५ | १०४८ | वीरसेन ३ | ब्रह्मसेन | - |
२८६ | उत्तरार्ध | रामसेन | नागसेन | - |
२८७ | उत्तरार्ध | धवलाचार्य | - | हरिवंश |
२८८ | उत्तरार्ध | मलयगिरि (श्वे.) | श्वे. टीकाकार | - |
२८९ | उत्तरार्ध | पद्मनन्दि ५ | वीरनन्दि | पंचविंशतिका |
२९० | १०६२-१०८१ | सोमदेव २ | - | कथा सरित सागर |
२९१ | १०६६ | श्रीचन्द | वीरचन्द | पुराणसार संग्रह |
२९२ | १०६८ | नेमिचन्द ३ सैद्धान्तिक देव | नयनन्दि | द्रव्यसंग्रह |
२९३ | १०६८-१०९८ | दिवाकरनन्दि | चन्द्रकीर्ति | - |
२९४ | १०६८-१११८ | वसुनन्दि तृ. | - | प्रतिष्ठापाठ |
२९५ | १०७२-१०९३ | नेमिचन्द (श्वे.) | आम्रदेव | प्रवचनसारोद्धार |
२९६ | १०७४ | गुणसेन १ | वीरसेन ३ | - |
२९७ | १०७५-१११० | जिनवल्लभ गणी | जिनेश्वर सूरि | षडशीति |
२९८ | १०७५-११२५ | वाग्भट्ट १ | - | नेमिनिर्वाणकाव्य |
२९९ | १०७५-११३५ | देवसेन ३ | विमलसेन गणधर | सुलोयणा चरिउ |
३०० | १०७७ | पद्मकीर्ति (भ.) | जिनसेन | पासणाह चरिउ |
३०१ | १०७८-११७३ | हेमचन्द्र (श्वे.) | - | शब्दानुशासन |
३०२ | १०८९ | श्रुतकीर्ति | अग्गल के गुरु | पंचवस्तु (टीका) |
३०३ | १०८९ | अग्गल कवि | श्रुतकीर्ति | चन्द्रप्रभ चरित |
३०४ | अन्तिम पाद | वृत्ति विलास | कन्नड़ कवि | धर्मपरीक्षा |
३०५ | अन्तिम पाद | देवचन्द्र १ | वासवचन्द्र | पासणाह चरिउ |
३०६ | अन्तिम पाद | ब्रह्मदेव | - | द्रव्य संग्रह टीका |
३०७ | अन्तिम पाद | नरेन्द्रसेन १ | गुणसेन | सिद्धांतसार संग्रह |
३०८ | १०९३-११२३ | शुभचन्द्र २ | दिवाकरनन्दि | - |
३०९ | १०९३-११२५ | बूचिराज | शुभचन्द्र | - |
३१० | ११०० | नागचन्द्र (पम्प) | कन्नड़ कवि | मल्लिनाथ पुराण |
३११ | ई. श. ११-१२ | सुभद्राचार्य | अपभ्रंश कवि | वैराग्गसार |
३१२ | ई.श. ११-१२ | जयसेन ५ | सोमसेन | कुन्दकुन्दत्रयी टीका |
३१३ | ई. श. ११-१२ | जिनचन्द्र ३ | - | सिद्धान्तसार |
३१४ | ई. श. ११-१२ | वसुनन्दि ३ | नेमिचन्द्र | श्रावकाचार |
१३. ईसवी शताब्दी १२ :- | ||||
३१५ | पूर्व पाद | बालचन्द्र २ | नयकीर्ति | कुन्दकुन्दत्रयी टीका |
३१६ | पूर्व पाद | वक्रग्रीवाचार्य | द्रविड़ संघी | - |
३१७ | पूर्व पाद | विमलकीर्ति | रामकीर्ति | सौखबड़ विहाण |
३१८ | ११०२ | चन्द्रप्रभ | - | प्रमेय रत्नकोश |
३१९ | ११०३ | वादीभसिंह | वादिराज द्वि. | स्याद्वाद्सिद्धि |
३२० | ११०८-११३६ | माघनंदि (कोल्हा) | कुलचन्द्र | - |
३२१ | १११५ | हरिभद्र सूरि | जिनदेव उपा. | - |
३२२ | १११५-१२३१ | गोविन्दाचार्य | - | कर्मस्तव वृत्ति |
३२३ | १११९ | प्रभाचन्द्र ६ | मेघचन्द्र त्रैविद्य | - |
३२४ | ११२०-११४७ | शुभचन्द्र ३ | मेघचन्द्र त्रैविद्य | - |
३२५ | ११२० | राजादित्य | कन्नड़ गणितज्ञ | व्यवहार गणित |
३२६ | ११२३ | जयसेन ६ | नरेन्द्रसेन | - |
३२७ | ११२३ | गुणसेन २ | नरेन्द्रसेन | - |
३२८ | ११२५ | नयसेन | नरेन्द्रसेन | धर्मामृत |
३२९ | मध्यपाद | योगचन्द्र | - | दोहासार |
३३० | मध्यपाद | अनन्तवीर्य लघु | - | प्रमेयरत्नमाला |
३३१ | मध्य पाद | वीरनन्दि ४ | - | आचारसार |
३३२ | मध्य पाद | श्रीधर ४ | - | पासगाह चरिउ |
३३३ | मध्य पाद | पद्मप्रभ मल्लधारी देव | वीरनान्द तथा श्रीधर १ | नियमसार टीका |
३३४ | मध्य पाद | सिंह | भ.अमृतचन्द्र | प्रद्युम्नचरित |
३३५ | ११२८ | मल्लिषेण (मल्लधारी देव) | - | सज्जनचित्त |
३३६ | ११३२ | गुणधरकीर्ति | कुवलयचन्द्र | अध्यात्म त. टीका |
३३७ | ११३३-११६३ | देवचन्द्र | माघनंदि (कोल्हा) | - |
३३८ | ११३३-११६३ | कनक नन्दि | माघनंदि (कोल्हा) | - |
३३९ | ११३३-११६३ | गण्ड विमुक्त देव १ | माघनंदि (कोल्हा) | - |
३४० | ११३३-११६३ | देवकीर्ति ३ | माघनंदि (कोल्हा) | - |
३४१ | ११३३-११६३ | माघनंदि त्रैविद्य ३ | माघनंदि (कोल्हा) | - |
३४२ | ११३३-११६३ | श्रुतकीर्ति | माघनंदि (कोल्हा) | - |
३४३ | ११४० | कर्ण पार्य | कन्नड़ कवि | नेमिनाथ पुराण |
३४४ | ११४२-११७३ | परमानन्द सूरि | - | - |
३४५ | ११४३ | श्रीधर (विबुध) ५ | अपभ्रंश कवि | भविसयत्त चरिउ |
३४६ | ११४५ | नागवर्म २ | कन्नड़ कवि | काव्यालोचन |
३४७ | ११५० | उदयादित्य | कन्नड़ कवि | उदयदित्यालंकार |
३४८ | ११५० | सोमनाथ | वैद्यक विद्वान् | कल्याण कारक |
३४९ | ११५० | केशवराज | कन्नड़ कवि | शब्दमणिदर्पण |
३५० | ११५०-११९६ | उदयचन्द्र | अपभ्रंश कवि | सुअंधदहमीकहा |
३५१ | ११५०-११९६ | बालचन्द्र | उदय चन्द्र | णिद्दुक्खसत्तमी |
३५२ | ११५१ | श्रीधर ६ | अपभ्रंश कवि | सुकुमाल चरिउ |
३५३ | उतरार्ध | विनयचन्द | अपभ्रंश कवि | कल्याणक रास |
३५४ | ११५५-११६३ | देवकीर्ति ४ | गण्डविमुक्तदेव १ | - |
३५५ | ११५८-११८२ | गण्डविमुक्त देव २ | गण्डविमुक्त देव १ | - |
३५६ | ११५८-११८२ | अकलंक २ | गण्डविमुक्तदेव १ | - |
३५७ | ११५८-११८२ | भानुकीर्ति | गण्डविमुक्तदेव १ | - |
३५८ | ११५८-११८२ | रामचन्द्र त्रैविद्य | गण्डविमुक्त देव १ | - |
३५९ | ११६१-११८१ | हस्तिमल | सेनसंघी | विक्रान्त कौरव |
३६० | ११६३ | शुभचन्द्र ४ | देवेन्द्रकीर्ति | - |
३६१ | ११७० | ओडय्य | कन्नड़ कवि | कव्वगर काव्य |
३६२ | ११७०-११२५ | जत्र | कन्नड़ कवि | यशोधर चरित्र |
३६३ | ११७३-१२४३ | पं. आशाधर | पं. महावीर | अनगारधर्मामृत |
३६४ | ११८५-१२४३ | प्रभाचन्द्र ६ | बालचंद भट्टारक | क्रियाकलाप |
३६५ | ११८७-११९० | अमरकीर्ति गणी | चन्द्रकीर्ति | णेमिणाहचरिउ |
३६६ | ११८९ | अग्गल | कन्नड़ कवि | चन्द्रप्रभु पुराण |
३६७ | ११९३ | माघनन्दि ४ | - | - |
- | ११९३-१२६० | माघनन्दि ४ | कुमुदचंद्रके गुरु | शास्त्रसार समुच्चय |
३६८ | - | (योगीन्द्र) | - | - |
३६९ | अन्तिम पाद | नेमिचंद सैद्धा.४ | - | कर्म प्रकृति |
३७० | अन्तिम पाद | आच्चण कन्नड़ कवि | वर्द्धमान पुराण | - |
३७१ | अन्तिम पाद | प्रभाचन्द्र ७ | कन्नड़ कवि | सिद्धांतसार टीका |
३७२ | अन्तिम पाद | लक्खण | अपभ्रंश कवि | अणुवयरयण पईव |
३७३ | अन्तिम पाद | पार्श्वदेव | यशुदेवाचार्य | संगीतसमयसार |
३७४ | १२०० | देवेन्द्र मुनि | आयुर्वैदि विद्वान् | बालग्रह चिकित्सा |
३७५ | १२०० | बन्धु वर्मा | कन्नड़ कवि | हरवंश पुराण |
३७६ | १२०० | शुभचन्द्र ५ | - | नरपिंगल |
३७७ | ई. श. १२-१३ | रविचन्द्र | - | आराधनासार समुच्चय |
३७८ | ई. श. १२-१३ | वामन मुनि | तमिल कवि | मेमन्दर पुराण |
१४. ईसवी शताब्दी १३ :- | ||||
३७९ | पूर्वपाद | गुणभद्र २ | नेमिसेन | धन्यकुमारचरित |
३८० | १२०५ | पार्श्व पण्डित | कन्नड़ कवि | पार्श्वनाथ पुराण |
३८१ | १२१३ | माधवचन्द्र त्रैविद्य | - | क्षपणसार |
३८२ | १२१३-१२५६ | लाखू | अपभ्रंश कवि | जिणयत्तकहा |
३८३ | १२२५ | गुणवर्ण | कन्नड़ कवि | पुष्पदन्त पुराण |
३८५ | १२२८ | जगच्चन्द्रसूरि (श्वे.) | देलवाड़ा मन्दिर के निर्माता | - |
३८५ | १२३० | दामोदर | अपभ्रंश कवि | णेमिणाह चरिउ |
३८६ | मध्य पाद | अभयचन्द्र १ | - | स्याद्वाद् भूषण |
३८७ | मध्य पाद | विनयचन्द्र | अपभ्रंश कवि | उवएसमाला |
३८८ | मध्य पाद | यशःकीर्ति ३ | - | जगत्सुन्दरी |
३८९ | १२३४ | ललितकीर्ति | यशःकीर्ति ३ | - |
३९० | १२३९ | यशःकीर्ति ४ | ललितकीर्ति | धर्मशर्माभ्युदय |
३९१ | मध्य पाद | नेमिचन्द्र ५ | कन्नड़ कवि | अर्धनेमिपुराण |
३९२ | मध्य पाद | भावसेन त्रैविद्य | प्रमाप्रमेय | - |
३९३ | मध्य पाद | रामचन्द्रमुमुक्षु केशवनन्दि | पुण्यास्रवकथा | - |
३९४ | १२३०-१२५८ | शुभचन्द्र ६ | गण्डविमुक्तदेव | - |
३९५ | १२३५ | कमलभव | कन्नड़ कवि | शान्तीश्वर पु. |
३९६ | १२४५-१२७० | देवेन्द्रसूरि (श्वे.) | जगच्चन्द्रसूरि | कर्मस्तव |
३९७ | १२४९-१२७९ | अभयचन्द्र २ | श्रुतमुनिके गुरु | गो.सा./नन्दप्रबोधिनी टीका |
३९८ | १२५०-१२६० | अजितसेन | - | शृङ्गार मञ्जरी |
३९९ | उत्तरार्द्ध | विजय वर्णी | विजयकीर्ति | श्रंगारार्णव |
४०० | ई.श. १३ | धरसेन | मुनिसेन | विश्वलोचन |
४०१ | उत्तरार्ध | अर्हद्दास | पं. आशाधर | पुरुदेव चम्पू |
४०२ | १२५३-१३२८ | प्रभाचन्द्र ८ | रत्नकीर्तिके गुरु | - |
४०३ | १२५९ | प्रभाचन्द्र ९ | श्रुतमुनिके गुरु | - |
४०४ | १२६० | माघनन्दि ५ | कुमुदचन्द्र | शास्त्रसार समु. |
४०५ | १२७५ | कुमुदेन्दु | कन्नड़ कवि | रामायण |
४०६ | १२९२ | मल्लिशेण (श्वे.) | - | स्याद्वादमंजरी |
४०७ | १२९६ | जिनचन्द्र ५ | भास्कर के गुरु | तत्त्वार्थ सूत्रवृत्ति |
४०८ | १२९६ | भास्करनन्दि | जिनचन्द्र ५ | ध्यानस्तव |
४०९ | १२९८-१३२३ | धर्मभूषण १ | शुभकीर्ति | - |
४१० | अन्तिमपाद | इन्द्रनन्दि | - | नन्दि संहिता |
४११ | अन्तिम पाद | नरसेन | अपभ्रंश कवि | सिद्धचक्क कहा |
४१२ | अन्तिम पाद | नागदेव | - | मदन पराजय |
४१३ | अन्तिम पाद | लक्ष्मण देव | अपभ्रंश कवि | णेमिणाह चरिउ |
४१४ | अन्तिम पाद | वाग्भट्ट द्वि. | - | छन्दानुशासन |
४१५ | अन्तिम पाद | श्रुतमुनि | अभयचन्द्र सं. | परमागमसार |
४१६ | ई.श. १३-१४ | वामदेव पंडित | विनयचन्द्र | भावसंग्रह |
१५ ईसवी शदाब्दी १४ :- | ||||
४१७ | १३०५ | पद्मनन्दि लघु ८ | - | यत्याचार |
४१८ | ३११ | बालचन्द्र सै. | अभयचन्द्र | द्रव्यसंग्रहटीका |
४१९ | पूर्वार्ध | हरिदेव | अपभ्रंश कवि | मयणपराजय |
४२० | १३२८-१३९३ | पद्मनन्दि ९ | प्रभाचन्द्र | भावनापद्धति |
४२१ | मध्यपाद | श्रीधर ७ | - | श्रुतावतार |
४२२ | मध्यपाद | जयतिलकसूरि | - | चार कर्म ग्रन्थ |
४२३ | १३४८-१३७३ | धर्मभूषण २ | अमरकीर्ति | - |
४२४ | १३५०-१३९० | मुनिभद्र | - | - |
४२५ | उत्तरार्ध | वर्द्धमान भट्टा. | - | वरांगचरितकाव्य |
४२६ | १३५८-१४१८ | धर्मभूषण ३ | वर्द्धमान मुनि | - |
४२७ | १३५९ | केशव वर्णी | अभयचंद्र सै. | गो.सा. कर्णाटक |
४२८ | १३८४ | श्रुतकीर्ति | प्रभाचन्द्र | वृत्ति |
४२९ | १३८५ | मधुर | कन्नड़ कवि | धर्मनाथ पुराण |
४३० | १३९०-१३९२ | विनोदी लाल | भाषा कवि | भक्तामर कथा |
४३१ | १३९३-१४४२ | देवेन्द्रकीर्ति भ. | - | - |
४३२ | १३९३-१४६८ | जिनदास १ | सकलकीर्ति | जम्बूस्वामीचरित |
४३३ | १३९७ | धनपाल २ | अपभ्रंश कवि | बाहूबलि चरिउ |
४३४ | १३९९ | रत्नकीर्ति २ | रामसेन | - |
४३५ | अन्तिम पाद | हरिचन्द २ | अपभ्रंश कवि | अणत्थिमियकहा |
४३६ | अन्तिम पाद | जल्हिमले | अपभ्रंश कवि | अनुपेहारास |
४३७ | अन्तिम पाद | देवनन्दि | अपभ्रंश कवि | रोहिणी विहाण |
४३८ | ई. श. १४-१५ | नेमिचन्द्र ६ | अपभ्रंश कवि | रविवय कहा |
४३९ | १४००-१४७९ | रइधु | अपभ्रंश कवि | महेसरचरिउ |
१६. ईसवी शताब्दी १५ :- | ||||
४४० | पूर्वपाद | जयमित्रहल | अपभ्रंश कवि | मल्लिणाह कव्व |
४४१ | १४०५-१४२५ | पद्मनाभ | गुणकीर्ति भट्टा. | यशोधर चरित्र, |
४४२ | १४०६-१४४२ | सकलकीर्ति | - | मूलाचार प्रदीप |
४४३ | पूर्वपाद | ब्रह्म साधारण | नरेन्द्र कीर्ति | अणुपेहा |
४४४ | १४२२ | असवाल | अपभ्रंश कवि | पासणाह चरिउ |
४४५ | १४२४ | लक्ष्मणसेन २ | रत्नकीर्ति | - |
४४६ | १४२४ | भास्कर | कन्नड़ कवि | जीवन्धररचित |
४४७ | १४२५ | लक्ष्मीचन्द | अपभ्रंश कवि | सावयधम्म दोहा |
४४८ | १४२९-१४४० | यशःकीर्ति ६ | गुणकीर्ति | जिणरत्ति कहा |
४४९ | मध्यपाद | सिंहसूरि (श्वे.) | - | लोक विभाग |
४५० | मध्य पाद | गुणभद्र ३ | अपभ्रंश कवि | पक्खइवयकहा |
४५१ | मध्यपाद | सोमदेव २ | प्रतिष्ठाचार्य | आस्रवत्रिभंगीकी लाटी भाषाटीका |
४५२ | मध्यपाद | विमलदास | अनन्तदेव | - |
४५३ | मध्यपाद | पं. योगदेव | अपभ्रंश कवि | बारस अणुवेक्खा |
४५४ | १४३२ | प्रभाचन्द्र १० | धर्मचन्द्र | तत्त्वार्थ रत्न? |
४५५ | १४३६ | मलयकीर्ति | धर्मकीर्ति | मूलाचारप्रशस्ति |
४५६ | १४३७ | शुभकीर्ति | देवकीर्ति | संतिणाहचरिउ |
४५७ | १४३९ | कल्याणकीर्ति | कन्नड़ कवि | ज्ञानचन्द्राभ्युदय |
४५८ | १४४२-१४८१ | विद्यानन्दि २ | देवेन्द्रकीर्ति | सुदर्शनचरित |
४५९ | १४४२-१४८३ | भानुकीर्ति भट्ट | सकलकीर्ति | जीवन्धर रास |
४६० | १४४३-१४५८ | तेजपाल | अपभ्रंश कवि | वरंगचरिउ |
४६१ | १४४८ | विजयसिंह | - | अजितपुराण |
४६२ | १४४८-१५१५ | तारण स्वामी | - | उपदेशशुद्धसार |
४६३ | १४४९ | भीमसेन | लक्ष्मणसेन | - |
४६४ | १४५०-१५१४ | जिनचन्द्र भट्टा. | शुभचन्द्र | सिद्धान्तसार |
४६५ | १४५०-१५१४ | ब्रह्म दामोदर | जिनचन्द्रभट्टा. | सिरिपालचरिउ |
४६६ | १४५४ | धर्मधर | - | नागकुमारचरित |
४६७ | १४६१-१४८३ | सोमकीर्ति भट्टा. | भीमसेन | सप्तव्यसन कथा |
४६८ | १४६२-१४८४ | मेधावी | जिनचन्द्र भट्टा. | धर्मसंग्रहश्रावका |
४६९ | १४६८-१४९८ | ज्ञानभूषण १ | भुवनकीर्ति | तत्त्वज्ञानतरंगिनी |
४७० | १४८१-१४९९ | मल्लिभूषण | विद्यानन्दि २ | - |
४७१ | १४८१-१४९९ | श्रुतसागर | विद्यानन्दि २ | तत्त्वार्थवृत्ति |
४७२ | १४८५ | वोम्मरस | कन्नड़ कवि | सनत्कुमार चरित |
४७३ | १४९५-१५१३ | विजयकीर्ति | ज्ञानभूषण १ | - |
४७४ | १४९९-१५१८ | सिंहनन्दि | मल्लिभूषण | - |
४७५ | १४९९-१५१८ | लक्ष्मीचन्द | मल्लिभूषण | - |
४७६ | १४९९-१५२८ | वीरचन्द | लक्ष्मीचन्द्र | जंबूसामि बेलि |
४७७ | १४९९-१५१८ | श्रीचन्द | श्रुतसागर | - |
४७८ | अन्तिम पाद | महनन्दि | वीरचन्द्र | पाहुड़ दोहा |
४७९ | अन्तिम पाद | श्रुतकीर्ति | भुवनकीर्ति | हरिवंश पुराण |
४८० | अन्तिम पाद | दीडुय्य | पण्डित मुनि | भुजबलि चरितम् |
४८१ | अन्तिम पाद | जीवन्धर | यशःकीर्ति | गुणस्थान बेलि |
४८२ | १५०० | श्रीधर | कन्नड़ विद्वान् | वैद्यामृत |
४८३ | १५०० | कोटेश्वर | कन्नड़ कवि | जीवन्धरषडपादि |
१७. ईसवी शताब्दी १६ :- | ||||
४८४ | पूर्वपाद | अल्हू | अपभ्रंश कवि | अणुवेक्खा |
४८५ | पूर्वपाद | सिंहनन्दि | - | नमस्कार मन्त्र माहात्म्य |
४८६ | १५००-१५४१ | विद्यानन्दि ३ | विशालकीर्ति | - |
४८७ | १५०१ | जिनसेन भट्टा, ४ | यशःकीर्ति | नेमिनाथ रास |
४८८ | पूर्वार्ध | नेमिचन्द्र ७ | ज्ञानभूषण | गो.सा. टीका |
४८९ | १५०८ | मङ्गरस | कन्नड़ कवि | सम्यक्त्व कौ. |
४९० | १५१३-१५२८ | जिनसेन भट्टा.५ | सोमसेन | - |
४९१ | १५१४-२९ | प्रभाचन्द्र ११ | जिनचन्द्र भट्टा. | - |
४९२ | १५१५ | रत्नकीर्ति ३ | ललितकीर्ति | भद्रबाहु चरित |
४९३ | १५१६-५६ | शुभचन्द्र ५ | विजयकीर्ति | करकण्डु चरित |
४९४ | १५१८-२८ | नेमिदत्त | मल्लिभूषण | नेमिनाथ पुराण |
४९५ | १५१९ | शान्तिकीर्ति | कन्नड़ कवि | शान्तिनाथ पुराण |
- | माणिक्यराज | अपभ्रंश कवि | नागकुमार चरिउ | |
४९६ | १५२५-५९ | ज्ञानभूषण २ | वीरचन्द | कर्मप्रकृति टीका |
४९७ | १५३० | महीन्दु | अपभ्रंश कवि | संतिणाह चरिउ |
४९८ | १५३५ | बूचिराज | अपभ्रंश कवि | म. जुज्झ |
४९९ | १५३८ | सालिवाहन | हिन्दी कवि | हरिवंशका अनुवाद |
५०० | १५४२ | वर्द्धमान द्वि. | देवेन्द्र कीर्ति | दशभक्त्यादि |
५०१ | १५४३-९३ | पं. जिनराज | आयुर्वेद विद्वान् | होली रेणुका |
५०२ | १५४४ | चारुकीर्ति पं. | - | प्रमेयरत्नालंकार |
५०३ | १५५० | दौड्डैय्य | कन्नड कवि | - |
५०४ | १५५० | मंगराज | कन्न? कवि | खगेन्द्रमणि |
५०५ | १५५० | साल्व | कन्नड़ कवि | रसरत्नाकर |
५०६ | १५५० | योगदेव | कन्नड़ कपवि | तत्त्वार्थ सूत्र टी. |
५०७ | १५५१ | त्नाकरवर्णी | कन्नड़ कवि | भरतैश वैभव |
५०८ | १५५६-७३ | सकल भूषण | शुभचन्द्र भट्टा. | उपदेश रत्नमाला |
५०९ | १५५६-७३ | सुमतिकीर्ति | - | कर्मकाण्ड |
५१० | १५५६-९६ | गुणचन्द्र | यशःकीर्ति | मौनव्रत कथा |
५११ | १५५६-१६०१ | क्षेमचन्द्र | - | कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका |
५१२ | १५५७ | पं. पद्मसुन्दर | पं. पद्ममेरु | भविष्यदत्तचरित |
५१३ | १५५९ | यशःकीर्ति ७ | क्षेमकीर्ति | - |
५१४ | १५५९-१६०६ | रायमल | अनन्तकीर्ति | भविष्यदत्त च. |
५१५ | १५५९-१६८० | प्रभाचंद्र १२ | ज्ञानभूषण | - |
५१६ | १५६० | बाहुबलि | कन्नड़ कवि | नागकुमार च. |
५१७ | १५७३-९३ | गुणकीर्ति | सुमतिकीर्ति | - |
५१८ | १५७५ | शिरोमणि दास | पं. गंगदास | धर्मसार |
५१९ | १५७५-९३ | पं. राजमल | हेमचन्द्र भट्टा. | - |
५२० | १५७९-१६१९ | श्रीभूषण | विद्याभूषण | द्वादशांग पूजा |
५२१ | १५८० | माणिक चन्द | अपभ्रंश कवि | सत्तवसणकहा |
५२२ | १५८० | पद्मनाभ | यशःकीर्ति | रामपुराण |
५२३ | १५८४ | क्षेमकीर्ति | यशःकीर्ति | - |
५२४ | १५८०-१६०७ | वादिचन्द | प्रभाचन्द | पवनदूत |
५२५ | १५८३-१६०५ | देवेन्द्र कीर्ति | - | कथाकोश |
५२६ | १५८८-१६२५ | धर्मकीर्ति | ललितकीर्ति | - |
५२७ | १५९०-१६४० | विद्यानन्दि ४ | देवकीर्ति | पद्मपुराण |
५२८ | १५९३ | शाहठाकुर | विशालकीर्ति | संतिणाह चरिउ |
५२९ | १५९३-१६७५ | वादिभूषण | गुणकीर्ति | - |
५३० | १५९६-१६८९ | सुन्ददास | - | - |
५३१ | १५९७-१६२४ | चन्द्रकीर्ति | श्रीभूषण | पार्श्वनाथ पुराण |
५३२ | १५९९-१६१० | सोमसेन | गुणभद्र | शब्दरत्न प्रदीप |
१८. ईसवी शताब्दी १७ :- | ||||
५३३ | १६०४ | अकलंक | कन्नड़ कवि | शब्दानुशासन |
५३४ | १६०५ | चन्द्रभ | कन्नड़ कवि | गोमटेश्वरचरित |
५३५ | १६०२ | ज्ञानकीर्ति | वादि भूषण | यशोधरचरित सं. |
५३६ | १६०७-१६६५ | महीचन्द्र | प्रभाचन्द्र | - |
५३७ | पूर्वपाद | ज्ञानसागर | श्री भूषण | अक्षर बावनी |
५३८ | पूर्वार्ध | कुँवरपाल | हिन्दी कवि | - |
५३९ | पूर्वार्ध | रूपचन्द पाण्डेय | हिन्दी कवि | गीत परमार्थी |
५४० | १६१० | रायम | सकलचन्द्र | भक्तामर कथा |
५४१ | १६१६ | अभयकीर्ति | अजितकीर्ति | अनन्तव्रत कथा |
५४२ | १६१७ | जयसागर १ | रत्नभूषण | तीर्थ जयमाला |
५४३ | १६१७ | कृष्णदास | रत्नकीर्ति | मुनिसुव्रत पुराण |
५४४ | १६२३-१६४३ | पं. बनारसीदास | हिन्दी कवि | समयसार नाटक |
५४५ | १६२३-१६४३ | भगवतीदास | मही चन्द्र | दंडाणारास |
५४६ | १६२८ | चुर्भुज | जयपुरसे लाहौर | - |
५४७ | १६३१ | केशवसेन | - | कर्णामृत पुराण |
५४८ | मध्यपाद | पासकीर्ति | भट्टा. धर्मचन्द २ | सुदर्शन चरित |
५४९ | मध्यपाद | जगजीवनदास | हिन्दी कवि | बनारसी विलास का सम्पादन |
५५० | मध्यपाद | जयसागर २ | मही चन्द्र | सीता हरण |
५५१ | मध्यपाद | हेमराज पाण्डेय | पं. रूपचन्द पाण्डे | प्रवचनसार वच. |
५५२ | मध्यपाद | पं. हीराचन्द | - | पञ्चास्तिकाय टी. |
५५३ | १६३८-१६८८ | यशोविजय (श्वे.) | लाभ विजय | अध्यात्मसार |
५५४ | १६४२-१६४६ | पं. जगन्नाथ | नरेन्द्र कीर्ति | सुखनिधान |
५५५ | १६४३-१७०३ | जोधराज गोदिका | हिन्दी कवि | प्रीतंकर चारित्र |
५५६ | १६५६ | खड्गसेन | हिन्दी कवि | त्ररिलोक दर्पण |
५५७ | १६५९ | अरुणमणि | बुधराघव | अजित पुराण |
५५८ | १६६५ | सावाजी | मराठी कवि | सुगन्ध दशमी |
५५९ | १६६५-१६७५ | मेरुचन्द्र | महीचन्द्र | - |
५६० | १६७६-१७२३ | द्यानत राय | हिन्दी कवि | रूपक काव्य |
५६१ | १६८७-१७१६ | सुरेन्द्र कीर्ति | इन्द्रभूषण | पद्मावती पूजा |
५६२ | १६९०-१६९३ | गंगा दास | धर्मचन्द्र भट्टा. | श्रुतस्कन्ध पूजा |
५६३ | १६९६ | महीचन्द्र | मराठी कवि | आदि पुराण |
५६४ | १६९७ | बुलाकी दास | हिन्दी कवि | पाण्डव पुराण |
५६५ | अन्त पाद | छत्रसेन | समन्तभद्र २ | द्रौपदी हरण |
५६६ | अन्त पाद | भैया भगवतीदास | हिन्दी कवि | ब्रह्म विलास |
५६७ | ई. श. १७-१८ | सन्तलाल | हिन्दी कवि | सिद्धचक्र विधान |
५६८ | ई. श. १७-१८ | महेन्द्र सेन | विजयकीर्ति | - |
१९. ईसवी शताब्दी १८ :- | ||||
५६९ | १७०३-१७३४ | सुरेन्द्र भूषण | देवेन्द् भूषण | ऋषिपंचमी कथा |
५७० | १७०५ | गोवर्द्धन दास | पानीपतवासी पं. | शकुन विचार |
५७१ | पूर्वार्ध | खुशालचन्द | भट्टा. लक्ष्मीचन्द्र | व्रत कथाकोष |
- | - | - | काला | हिन्दी कवि |
५७२ | १७१६-१७२८ | किशनसिंह | हिन्दी कवि | क्रियाकोश |
५७३ | १७१७ | सहवा | मराठी कवि | नेमिनाथ पुराण |
५७४ | १७१८ | ज्ञानचन्द | - | पञ्चास्ति टी. |
५७५ | १७१८ | मनोहरलाल | हिन्दी कवि | धर्मपरीक्षा |
५७६ | १७२०-७२ | पं. दौलतराम | हिन्दी कवि | क्रियाकोश |
५७७ | १७२१-२९ | देवेन्द्रकीर्ति | धर्मचन्द्र | विषापहार पूजा |
५७८ | १७२१-४० | जिनदास | भुवनकीर्ति | हरिवंश पुराण |
५७९ | १७२२ | दीपचन्द शाह | आध्यात्मिक | चिद्विलास |
५८० | १७२४-४४ | जिनसागर | देवेन्द्रकीर्ति | जिनकथा |
५८१ | १७२४-३२ | भूधरदास | हिन्दी कवि | जिन शतक |
५८२ | १७२८ | लक्ष्मीचन्द्र | मराठी कवि | मेघमाला |
५८३ | १७३०-३३ | नरेन्द्रसेन २ | छत्रसेन | प्रमाणप्रमेय |
५८४ | १७४०-६७ | पं. टोडरमल्ल | प्रकाण्ड विद्वान | गोमट्टसार टीका |
५८५ | १७४१ | रूपचन्द पाण्डेय | - | समयसार नाटक टीका |
५८६ | १७५४ | रायमल ३ | टोडरमल | - |
५८७ | १७६१ | शिवलाल विद्वान् | चर्चासंग्रह | - |
५८८ | १७६७-७८ | नथमल विलाल | हिन्दी कवि | जिनगुणविलास |
५८९ | १७६८ | जनार्दन | मराठी कवि | श्रेणिकचारित्र |
५९० | १७७०-१८४० | पन्नालाल | पं. सदासुखके गुरु | राजवार्तिक वच. |
५९१ | १७७३-१८३३ | मुन्ना लाल | पं. सदासुखके गुरु | - |
५९२ | १७८० | गुमानीराम | टोडरमलके पुत्र | - |
५९३ | १७८८ | रघु | मराठी कवि | सोठ माहात्म्या |
५९४ | १७९५-१८६७ | सदासुखदास | पन्नालाल | रत्नक्रण्ड वचनि. |
५९५ | १७९८-१८६६ | दौलतराम २ | हिन्दी कवि | छहढाला |
५९६ | अन्तिम पाद | नयनसुख | हिन्दी कवि | - |
५९७ | १८००-३२ | मनरंग लाल | हिन्दी कवि | सप्तर्षि पूजा |
५९८ | १८००-४८ | वृन्दावन | हिन्दी कवि | चौबीसी पूजा |
२०. ईसवी शताब्दी १९ :- | ||||
५९९ | १८०१-३२ | महितसागर | मराठी कवि | रत्नत्रयपूजा |
६०० | १८०४-३० | जयचन्द छाबड़ा | हिन्दी भाष्यकार | समयसार वच. |
६०१ | १८०८ | पं. जगमोहन | हिन्दी कवि | धर्मरत्नोद्योत |
६०२ | १८१२ | रत्नकीर्ति | मराठी कवि | उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला |
६०३ | १८१३ | दयासागर | मराठी कवि | हनुमान पुराण |
६०४ | १८१४-३५ | बुधजन | हिन्दी कवि | तत्त्वार्थबोध |
६०५ | १८१७ | विशालकीर्ति | मराठी कवि | धर्मपरीक्षा |
६०६ | मध्यपाद | परमेष्ठी सहाय | हिन्दी कवि | अर्थ प्रकाशिका |
६०७ | १८२१ | जिनसेन ६ | मराठी कवि | जंबूस्वामीपुराण |
६०८ | १८२८ | ललितकीर्ति | जगत्कीर्ति | अनेकों कथायें |
६०९ | १८५० | ठकाप्पा | मराठी कवि | पाण्डव पुराण |
६१० | १८५६ | पं. भागचन्द | हिन्दी कवि | प्रमाण परीक्षा वचनिका |
६११ | १८५९ | छत्रपति | - | द्वादशानुप्रेक्षा |
६१२ | १८६७ | मा. बिहारीलाल | विद्वान् | बृहत्जैन शब्दार्णव |
६१२ | १८७८-१९४८ | ब्र. शीतल प्रशाद | आध्यात्मिक विद्वान् | समयसार की भाषा टीका |
२१. ईसवी शताब्दी २० :- | ||||
६१४ | १९१९-१९५५ | आ. शान्ति सागर | वर्तमान संघाधिपति | - |
६१५ | १९२४-१९५७ | वीर सागर | शान्तिसागर | पंचविंशिका |
६१६ | १९३३ | गजाधर लाल | - | - |
६१७ | १९४९-६५ | शिवसागर | वीरसागर | - |
६१८ | १९६५-८२ | धर्मसागर | शिवसागर | - |
9. पौराणिक राज्यवंश
9.1 सामान्य वंश
म.प्र.१६/२५८-२९४ भ. ऋषभदेवने हरि, अकम्पन, कश्यप और सोमप्रभ नामक महाक्षत्रियोंको बुलाकर उनको महामण्डलेश्वर बनाया। तदनन्तर सोमप्रभ राजा भगवान्से कुरुराज नाम पाकर कुरुवंशका शिरोमणि हुआ, हरि भगवान्से हरिकान्त नाम पाकर हरिवंशको अलंकृत करने लगा, क्योंकि वह हरि पराक्रममें इन्द्र अथवा सिंहके समान पराक्रमी था। अकम्पन भी भगवान्से श्रीधर नाम प्राप्तकर नाथवंशका नायक हुआ। कश्यप भगवान्से मधवा नाम प्राप्त कर उग्रवंशका मुख्य हुआ। उस समय भगवान्नने मनुष्योंको इक्षुका रससंग्रह करनेका उपदेश दिया था, इसलिए जगत्के लोग उन्हें इक्ष्वाकु कहने लगे।
9.2 इक्ष्वाकुवंश
सर्वप्रथम भगवान् आदिनाथसे यह वंश प्रारम्भ हुआ। पीछे इसकी दो शाखाएँ हो गयीं एक सूर्यवंश दूसरी चन्द्रवंश। (ह.पु.१३/३३) सूर्यवंशकी शाखा भरतचक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीर्तिसे प्रारम्भ हुई, क्योंकि अर्क नाम सूर्यका है। (प.पु.५/४) इस सूर्यवंशका नाम ही सर्वत्र इक्ष्वाकु वंश प्रसिद्ध है। (प.प्र.५/२६१) चन्द्रवंशकी शाखा बाहुबलीके पुत्र सोमयशसे प्रारम्भ हुई (ह.पु.१३/१६)। इसीका नाम सोमवंश भी है, क्योंकि सोम और चन्द्र एकार्थवाची हैं (प.पु.५/१२) और भी देखें सामान्य राज्य वंश। इसकी वंशावली निम्नप्रकार है - (ह.पु.१३/१-१५) (प.पु.५/४-९)
स्मितयश, बल, सुबल, महाबल, अतिबल, अमृतबल, सुभद्रसागर, भद्र, रवितेज, शशि, प्रभूततेज, तेजस्वी, तपन्, प्रतापवान, अतिवीर्य, सुवीर्य, उदितपराक्रम, महेन्द्र विक्रम, सूर्य, इन्द्रद्युम्न, महेन्द्रजित, प्रभु, विभु, अविध्वंस-वीतभी, वृषभध्वज, गुरूडाङ्क, मृगाङ्क आदि अनेक राजा अपने-अपने पुत्रोंको राज्य देकर मुक्ति गये। इस प्रकार (१४०००००) चौदह लाख राजा बराबर इस वंशसे मोक्ष गये, तत्पश्चात् एक अहमिन्द्र पदको प्राप्त हुआ, फिर अस्सी राजा मोक्षको गये, परन्तु इनके बीचमें एक-एक राजा इन्द्र पदको प्राप्त होता रहा।
पु.५ श्लोक नं. भगवान् आदिनाथका युगसमाप्त होनेपर जब धार्मिक क्रियाओंमें शिथिलता आने लगी, तब अनेकों राजाओंके व्यतीत होनेपर अयोध्या नगरीमें एक धरणीधर नामक राजा हुआ (५७-५९)
प.पु./सर्ग/श्लोक मुनिसुव्रतनाथ भगवान्का अन्तराल शुरू होनेपर अयोध्या नामक विशाल नगरीमें विजय नामक बड़ा राजा हुआ। (२१/७३-७४) इसके भी महागुणवान् `सुरेन्द्रमन्यु' नामक पुत्र हुआ। (२१-७५)
सौदास, सिंहरथ, ब्रह्मरथ, तुर्मुख, हेमरथ, शतरथ, मान्धाता, (२२/१३१) (२२/१४५) वीरसेन, प्रतिमन्यु, दीप्ति, कमलबन्धु, प्रताप, रविमन्यु, वसन्ततिलक, कुबेरदत्त, कीर्तिमान्, कुन्थुभक्ति, शरभरथ, द्विरदरथ, सिंहदमन, हिरण्यकशिपु, पुंजस्थल, ककुत्थ, रघु। (अनुमानतः ये ही रघुवंशके प्रवर्तक हों अतः दे. - रघुवंश। २२/१५३-१५८)।
9.3 उग्रवंश
ह.पु.१३/३३ सर्वप्रथम इक्ष्वाकुवंश उत्पन्न हुआ। उससे सूर्यवंश व चन्द्रवंशकी तथा उसी समय कुरुवंश और उग्रवंशकी उत्पत्ति हुई।
ह.पु.२२/५१-५३ जिस समय भगवान् आदिनाथ भरतको राज्य देकर दीक्षित हुए, उसी समय चार हजार भोजवंशीय तथा उग्रवंशीय आदि राजा भी तपमें स्थित हुए। पीछे चलकर तप भ्रष्ट हो गये। उन भ्रष्ट राजाओंमेंसे नमि विनमि हैं। दे.-`सामान्य राज्यवंश'।
नोट - इस प्रकार इस वंशका केवल नामोल्लेख मात्र मिलता है।
9.4 ऋषिवंश
प.पु.५/२ "चन्द्रवंश (सोमवंश) को ही ऋषिवंश हा है। विशेष दे. -`सोमवंश'
9.5 कुरुवंश
म.पु.२०/१११ "ऋषभ भगवान्को हस्तिनापुरमें सर्वप्रथम आहारदान करके दान तीर्थकी प्रवृत्ति करने वाला राजा श्रेयान् कुरुवंशी थे। अतः उनकी सर्व सन्तति भी कुरुवंशीय है। और भी दे. - `सामान्य राज्यवंश'
नोट - हरिवंश पुराण व महापुराण दोनोंमें इसकी वंशवाली दी गयी है। पर दोनोंमें अन्तर है। इसलिए दोनोंकी वंशावली दी जाती है।
प्रथम वंशावली -(ह.पु.४५/६-३८)
श्रेयान् व सोमप्रभ, जयकुतमार, कुरु, कुरुचन्द्र, शुभकर, धृतिकर, करोड़ों राजाओं पश्चात्...तथा अनेक सागर काल व्यतीत होनेपर, धृतिदेव, धृतिकर, गङ्गदेव, धृतिमित्र, धृतिक्षेम, सुव्रत, ब्रात, मन्दर, श्रीचन्द्र, सुप्रतिष्ठ आदि करोड़ों राजा....धृतपद्म, धृतेन्द्र, धृतवीर्य, प्रतिष्ठित आदि सैकड़ों राजा...धृतिदृष्टि, धृतिकर, प्रीतिकर, आदि हुए... भ्रमरघोष, हरिघोष, हरिध्वज, सूर्यघोष, सुतेजस, पृथु, इभवाहन आदि राजा हुए.. विजय महाराज, जयराज... इनके पश्चात् इसी वंशमें चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार, सुकुमार, वरकुमार, विश्व, वैश्वानर, विश्वकेतु, बृहध्वज...तदनन्तर विश्वसेन, १६ वें तीर्थंकर शान्तिनाथ, इनके पश्चात् नारायण, नरहरि, प्रशान्ति, शान्तिवर्धन, शान्तिचन्द्र, शशाङ्काङ्क, कुरु...इसी वंशमें सूर्य भगवान्कुन्थुनाथ (ये तीर्थंकर व चक्रवर्ती थे)...तदनन्तर अनेक राजाओं के पश्चात् सुदर्शन, अरहनाथ (सप्तम चक्रवर्ती व १८ वें तीर्थंकर) सुचारु, चारु, चारूरूप, चारुपद्म,.....अनेक राजाओंके पश्चात् पद्ममाल, सुभौम, पद्मरथ, महापद्म (चक्रवर्ती), विष्णु व पद्म, सुपद्म, पद्मदेव, कुलकीर्ति, कीर्ति, सुकीर्ति, कीर्ति, वसुकीर्ति, वासुकि, वासव, वसु, सुवसु, श्रीवसु, वसुन्धर, वसुरथ, इन्द्रवीर्य, चित्रविचित्र, वीर्य, विचित्र, विचित्रवीर्य, चित्ररथ, महारथ, धूतरथ, वृषानन्त, वृषध्वज, श्रीव्रत, व्रतधर्मा, धृत, धारण, महासर, प्रतिसर, शर, पराशर, शरद्वीप, द्वीप, द्वीपायन, सुशान्ति, शान्तिप्रभ, शान्तिषेण, शान्तनु, धृतव्यास, धृतधर्मा, धृतोदय, धृततेज, धृतयश, धृतमान, धृत
द्वितीय वंशावली
(पा.पु./सर्ग/श्लोक) जयकुमार-अनन्तवीर्य, कुरु, कुरुचन्द, शुभङ्कर, धृतिङ्कर,.....धृतिदेव, गङ्गदेव, धृतिदेव, धृत्रिमित्र,......धृतिक्षेम, अक्षयी, सुव्रत, व्रातमन्दर, श्रीचन्द्र, कुलचन्द्र, सुप्रतिष्ठ,......भ्रमघोष, हरिघोष, हरिध्वज, रविघोष, महावीर्य, पृथ्वीनाथ, पृथु गजवाहन,...विजय, सनत्कुमार (चक्रवर्ती), सुकुमार, वरकुमार, विश्व, वैश्वानर, विश्वध्वज, बृहत्केतु.....विश्वसेन, शान्तिनाथ (तीर्थंकर), (पा.पु.४/२-९)। शान्तिवर्धन, शान्तिचन्द्र, चन्द्रचिह्न, कुरु....सूरसेन, कुन्थुनाथ भगवान् (६/२-३, २७)....अनेकों राजा हो चुकनेपर सुदर्शन (७/७), अरहनाथ, भगवान् अरविन्द, सुचार, शूर, पद्मरथ, मेघरथ, विष्णु व पद्मरथ (७/३६-३७) (इन्हीं विष्णुकुमारने अकम्पनाचार्य आदि ७०० मुनियोंका उपसर्ग दूर किया था) पद्मनाभ, महापद्म, सुपद्म, कीर्ति, सुकीर्ति वसुकीर्ति, वासुकि,.....अनेकों राजाओंके पश्चात् शान्तनु (शक्ति) राजा हुआ।
9.6 चन्द्रवंश
प.पु.५/१२ "सोम नाम चन्द्रमाका है सो सोमवंशको ही चन्द्रवंश कहते हैं। (ह.पु.१३/१६) विशेष दे. - `सोमवंश'
9.7 नाथवंश
पा.पु.२/१६३-१६५ "इसका केवल नाम निर्देश मात्र ही उपलब्ध है। दे. - `सामान्य राज्यवंश'
9.8 भोजवंश
ह.पु.२२/५१-५३ जब आदिनाथ भगवान् भरतेश्वरको राज्य देकर दीक्षित हुए थे, तब उनके साथ उग्रवंशीय, भोजवंशीय आदि चार हजार राजा भी तपमें स्थित हुए थे। परन्तु पीछे तप भ्रष्ट हो गये। उसमेंसे नमी व विनमि दो भाई भी थे। ह.पु.५५/७२,१११ "कृष्णने नेमिनाथके लिए जिस कुमारी राजीमतीकी याचनाकी थी वह भोजवंशियों की थी। नोट - इस वंशका विस्तार उपलब्ध नहीं है।
9.9 मातङ्गवंश
ह.पु.२२/११०-११३ "राजा विनमिके पुत्रोंमें जो मातङ्ग नामका पुत्र था, उसीसे मातङ्गवंशकी उत्पत्ति हुई। सर्व प्रथम राजा विनमिका पुत्र मातङ्ग हुआ। उसके बहुत पुत्र-पौत्र थे, जो अपनी-अपनी क्रियाओंके अनुसार स्वर्ग व मोक्षको प्राप्त हुए। इसके बहुत दिन पश्चात् इसी वंशमें एक प्रहसित राजा हुआ, उसका पुत्र सिंहदृष्ट था। नोट - इस वंशका अधिक विस्तार उपलब्ध नहीं है।
१. मातङ्ग विद्याधरोंके चिन्ह -
ह.पु.२६/१५-२२ मातङ्ग जाति विद्याधरोंके भी सात उत्तर भेद हैं, जिनके चिन्ह व नाम निम्न हैं - मातङ्ग = नीले वस्त्र व नीली मालाओं सहित। श्मशान निलय = धूलि धूसरति तथा श्मशानकी हड्डियोंसे निर्मित आभूषणोंसे युक्त। पाण्डुक = नील वैडूर्य मणिके सदृश नीले वस्त्रोंसे युक्त। कालश्वपाकी = काले मृग चर्म व चमड़ेसे निर्मित वस्त्र व मालाओंसे युक्त। पार्वतये = हरे रंगके वस्त्रोंसे पत्रोंकी मालाओंसे युक्त। वार्क्षमूलिक = सर्प चिन्हके आभूषणसे युक्त।
9.10 यादव वंश
ह.पु. १८/५-६ हरिवंशमें उत्पन्न यदु राजासे यादववंशकी उत्पत्ति हुई। देखो ‘हरिवंश’।
9.11 रघुवंश
इक्ष्वाकु वंशमें उत्पन्न रघु राजासे ही सम्भवतः इस वंशकी उत्पत्ति है - दे. इक्ष्वाकुवंश - प.पु./सर्ग/श्लोक २२/१६०-१६२
9.12 राक्षसवंश
प.पु./सर्ग/श्लोक मेघवाहन नामक विद्याधरको राक्षसोंके इन्द्र भीम व सुभीमने भगवान् अजितनाथके समवशरणमें प्रसन्न होकर रक्षार्थ राक्षस द्वीपमें लंकाका राज्य दिया था। (५/१५९-१६०) तथा पाताल लंका व राक्षसी विद्या भी प्रदान की थी। (५/१६१-१६७) इसी मेघवाहनकी सन्तान परम्परामें एक राक्षस नामा राजा हुआ है, उसी के नामपर इस वंशका नाम `राक्षसवंश' प्रसिद्ध हुआ। (५/३७८) इसकी वंशावली निम्न प्रकार है-
इस प्रकार मेघवाहनकी सन्तान परम्परा क्रमपूर्वक चलती रही (५/३७७) उसी सन्तान परम्परामें एक मनोवेग राजा हुआ (५/३७८)
भीमप्रभ, पूर्जाह आदि १०८ पुत्र, जिनभास्कर, संपरिकीर्ति, सुग्रीव, हरिग्रीव, श्रीग्रीव, सुमुख, सुव्यक्त, अमृतवेग, भानुगति, चिन्तागति, इन्द्र, इन्द्रप्रभ, मेघ, मृगारिदमन, पवन, इन्द्रजित्, भानुवर्मा, भानु, भानुप्रभ, सुरारि, त्रिजट, भीम, मोहन, उद्धारक, रवि, चकार, वज्रमध्य, प्रमोद, सिंहविक्रम, चामुण्ड, मारण, भीष्म द्वीपवाह, अरिमर्दन, निर्वाणभक्ति, उग्रश्री, अर्हद्भक्ति, अनुत्तर, गतभ्रम, अनिल, चण्ड लंकाशोक, मयूरवान, महाबाहु, मनोरम्य, भास्कराभ, बृहद्गति, बृहत्कान्त, अरिसन्त्रास, चन्द्रावर्त, महारव, मेघध्वान, गृहक्षोभ, नक्षत्रदम आदि करोड़ों विद्याधर इस वंशमें हुए...धनप्रभ, कीर्तिधवल। (५/३८२-३८८)
भगवान् मुनिसुव्रतके तीर्थमें विद्युत्केश नामक राजा हुआ। (६/२२२-२२३) इसका पुत्र सुकेश हुआ। (६/३४१)
9.13 वानरवंश
प.पु./सर्ग/श्लोक नं. राक्षस वंशीय राजा कीर्तिध्वजने राजा श्रीकण्ठको (जब वह पद्मोत्तर विद्याधरसे हार गया) सुरक्षित रूपसे रहनेके लिए वानर द्वीप प्रदान किया था (६/८३-८४)। वहाँ पर उसने किष्कु पर्वतपर किष्कुपुर नगरीकी रचना की। वहाँ पर वानर अधिक रहते थे जिनसे राजा श्रीकण्ठको बहुत अधिक प्रेम हो गया था। (६/१०७-१२२)। तदनन्तर इसी श्रीकण्ठकी पुत्र परम्परामें अमरप्रभ नामक राजा हुआ। उसके विवाहके समय मण्डपमें वानरोंकी पंक्तियाँ चिह्नित की गयी थीं, तब अमरप्रभने वृद्ध मन्त्रियोंसे यह जाना कि "हमारे पूर्वजनों वानरोंसे प्रेम किया था तथा इन्हें मंगल रूप मानकर इनका पोषण किया था।" यह जानकर राजाने अपने मुकुटोंमें वानरोंके चिह्न कराये। उसी समयसे इस वंशका नाम वानरवंश पड़ गया। (६/१७५-२१७) (इसकी वंशावली निम्न प्रकार है) :-
प.पु.६/श्लोक विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका राजा अतीन्द्र (३) था। तदनन्तर श्रीकण्ठ (५), वज्रकण्ठ (१५२), वज्रप्रभ (१६०), इन्द्रमत (१६१) मेरु (१६१), मन्दर (१६१), समीरणगति (१६१), रविप्रभ (१६१), अमरप्रभ (१६२), कपिकेतु (१९८), प्रतिबल (२००), गगनानन्द (२०५), खेचरानन्द (२०५), गिरिनन्दन (२०५), इस प्रकार सैकड़ों राजा इस वंशमें हुए, उनमें से कितनोंने स्वर्ग व कितनोंने मोक्ष प्राप्त किया। (२०६)। जिस समय भगवान् मुनिसुव्रतका तीर्थ चल रहा था (२२२) तब इसी वंशमें एक महोदधि राजा हुआ (२१८)। उसका भी पुत्र प्रतिचन्द्र हुआ (३४९)।
9.14 विद्याधर वंश
जिस समय भगवान् ऋषभदेव भरतेश्वरको राज्य देकर दीक्षित हुए, उस समय उनके साथ चार हजार भोजवंशीय व उग्रवंशीय आदि राजा भी तपमें स्थित हुए थे। पीछे चलकर वे सब भ्रष्ट हो गये। उनमें-से नमि और विनमि आकर भगवान्के चरणोंमें राज्यकी इच्छासे बैठ गये। उसी समय रक्षामें निपुण धरणेन्द्रने अनेकों देवों तथा अपनी दीति और अदीति नामक देवियोंके साथ आकर इन दोनोंको अनेकों विद्याएँ तथा औषधियाँ दीं। (ह.पु.२२/५१-५३) इन दोनोंके वंशमें उत्पन्न हुए पुरुष विद्याएँ धारण करनेके कारण विद्याधर कहलाये।
(प.पु.६/१०)
१. विद्याधर जातियाँ
ह.पु.२२/७६-८३ नमि तथा विनमिने सब लोगोंको अनेक औषधियाँ तथा विद्याएँ दीं। इसलिए वे वे विद्याधर उस उस विद्यानिकायके नामसे प्रसिद्ध हो गये। जैसे.....गौरी विद्यासे गौरिक, कौशिकीसे कौशिक, भूमितुण्डसे भूमितुण्ड, मूलवीर्यसे मूलवीर्यक, शंकुकसे शंकुक, पाण्डुकीसे पाण्डुकेय, कालकसे काल, श्वपाकसे श्वपाकज, मातंगीसे मातंग, पर्वतसे पार्वतेय, वंशालयसे वंशालयगण, पांशुमूलिकसे पांशुमूलिक, वृक्षमूलसे वार्क्षमूल, इस प्रकार विद्यानिकायोंसे सिद्ध होनेवाले विद्याधरोंका वर्णन हुआ।
नोट - कथनपरसे अनुमान होता है कि विद्याधर जातियाँ दों भागोंमें विभक्त हो गयीं-आर्य व मातंग।
२. आर्य विद्याधरोंके चिह्न
ह.पु./२६/६-१४ आर्य विद्याधरोंकी आठ उत्तर जातियाँ हैं, जिनके चिन्ह व नाम निम्न हैं-गौरिक-हाथमें कमल तथा कमलोंकी माला सहित। गान्धार-लाल मालाएँ तथा लाल कम्बलके वस्त्रोंसे युक्त। मानवपुत्रक-नाना वर्णोंसे युक्त पीले वस्त्रोंसहित। मनुपुत्रक-कुछ-कुछ लाल वस्त्रोंसे युक्त एवं मणियोंके आभूषणोंसे सहित। मूलवीर्य-हाथमें औषधि तथा शरीरपर नाना प्रकारके आभूषणों और मालाओं सहित। भूमितुण्ड-सर्व ऋतुओंकी सुगन्धिसे युक्त स्वर्णमय आभरण व मालाओं सहित। शंकुक-चित्रविचित्र कुण्डल तथा सर्पाकार बाजूबन्दसे युक्त। कौशिक-मुकुटोंपर सेहरे व मणि मय कुण्डलों से युक्त।
३. मातंग विद्याधरोंके चिन्ह
- दे. मातंगवंश सं.९।
४. विद्याधरकी वंशावली
१. विनमिके पुत्र-ह.पु./२२/१०३-१०६ "राजा विनमिके संजय, अरिंजय, शत्रुंजय, धनंजय, मणिधूल, हरिश्मश्रु, मेघानीक, प्रभंजन, चूडामणि, शतानीक, सहस्रानीक, सर्वंजय, वज्रबाहु, और अरिंदम आदि अनेक पुत्र हुए। ...पुत्रोंके सिवाय भद्रा और सुभद्रा नामकी दो कन्याएँ हुईं। इनमें-से सुभद्रा भरत चक्रवर्तीके चौदह रत्नोंमें-से एक स्त्री-रत्न थी।
२. नमिके पुत्र-ह.पु./२२/१०७/१०८ नमिके भी रवि, सोम, पुरहूत, अंशुमान, हरिजय, पुलस्त्य, विजय, मातंग, वासव, रत्नमाली (ह.पु./१३/२०) आदि अत्यधिक कान्तिके धारक अनेक पुत्र हुए और कनकपुंजश्री तथा कनकमंजरी नामकी दो कन्याएँ भी हुई।
ह.पु./१३/२०-२५ नमिके पुत्र रत्नमालीके आगे उत्तरोत्तर रत्नवज्र, रत्नरथ, रत्नचित्र, चन्द्ररथ, वज्रजंघ, वज्रसेन, वज्रदंष्ट्र, वज्रध्वज, वज्रायुध, वज्र, सुवज्र, वज्रभृत्, वज्राभ, वज्रबाहु, वज्रसंज्ञ, वज्रास्य, वज्रपाणि, वज्रजानु, वज्रवान, विद्युन्मुख, सुवक्त्र, विद्युदंष्ट्र, विद्युत्वान्, विद्युदाभ, विद्युद्वेग, वैद्युत, इस प्रकार अनेक राजा हुए। (प.पु.५/१६-२१)
प.पु.५/२५-२६......तदन्तर इसी वंशमें विद्युद्दृढ राजा हुआ (इसने संजयन्त मुनिपर उपसर्ग किया था)। तदनन्तर प.पु.५/४८-५४ दृढरथ, अश्वधर्मा, अश्वायु, अश्वध्वज, पद्मनिभ, पद्ममाली, पद्मरथ, सिंहयान, मृगोद्धर्मा, सिंहसप्रभु, सिंहकेतु, शशांकमुख, चन्द्र, चन्द्रशेखर, इन्द्र, चन्द्ररथ, चक्रधर्मा, चक्रायुध, चक्रध्वज, मणिग्रीव, मण्यंक, मणिभासुर, मणिस्यन्दन, मण्यास्य, विम्बोष्ठ, लम्बिताधर, रक्तोष्ठ, हरिचन्द्र, पुण्यचन्द्र, पूर्णचन्द्र बालेन्दु, चन्द्रचूड़, व्योमेन्दु, उडुपालन, एकचूड़, द्विचूड़, त्रिचूड़, वज्रचूड़, भरिचूड़, अर्कचूड़, वह्निजरी, वह्नितेज, इस प्रकार बहुत राजा हुए। अजितनाथ भगवान्के समयमें इस वंशमें एक पूर्णधन नामक राजा हुआ (प.पु.५/७८) जिसके मेघवाहनने धरणेन्द्रसे लंकाका राज्य प्राप्त किया (प.पु.५/१४९-१६०)। उससे राक्षसवंशकी उत्पत्ति हुई। - दे. राक्षस वंश
9.15 श्री वंश
ह.पु.१३/३३ भगवान् ऋषभदेवसे दीक्षा लेकर अनेक ऋषि उत्पन्न हुए उनका उत्कृष्ट वंश श्री वंश प्रचलित हुआ। नोट-इस वंशका नामोल्लेखके अतिरिक्त अधिक विस्तार उपलब्ध नहीं।
9.16 सूर्यवंश
ह.पु.१३/३३ ऋषभनाथ भगवान्के पश्चात् इक्ष्वाकु वंशकी दो शाखाएँ हों गयीं-एक सूर्यवंश व दूसरी चन्द्रवंश।
प.पु.५/४ सूर्यवंशकी शाखा भरतके पुत्र अर्ककीर्तिसे प्रारम्भ हुई क्योंकि अर्क नाम सूर्यका है।
प.पु.५/५६१ इस सूर्यवंशका नाम ही सर्वत्र इक्ष्वाकुवंश प्रसिद्ध है। - दे. इक्ष्वाकुवंश
9.17 सोमवंश
ह.पु.१३/१६ भगवान् ऋषभदेवकी दूसरी रानीसे बाहुबली नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, उसके भी सोमयश नामका सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। `सोम' नाम चन्द्रमाका है सो उसी सोमयशसे सोमवंश अथवा चन्द्रवंशकी परम्परा चली। (प.पु.१०/१३) प.पु.५/२ चन्द्रवंशका दूसरा नाम ऋषिवंश भी है। ह.पु.१३/१६-१७; प.पु.५/११-१४।
9.18 हरिवंश
ह.पु.१५/५७-५८ हरि राजाके नामपर इस वंशकी उत्पत्ति हुई। (और भी दे. सामान्य राज्य वंश सं.१) इस वंशकी वंशावली आगममें तीन प्रकारसे वर्णनकी गयी। जिसमें कुछ भेद हैं। तीनों ही नीचे दी जाती हैं।
१. हरिवंश पुराणकी अपेक्षा
ह.पु./सर्ग/श्लोक सर्व प्रथम आर्य नामक राजाका पुत्र हरि हुआ। इसीसे इस वंशकी उत्पत्ति हुई। उसके पश्चात् उत्तरोत्तर क्रमसे महागिरी, गिरि, आदि सैंकड़ों राजा इस वंशमें हुए (१५/५७-६१)। फिर भगवान् मुनिसुव्रत (१६/१२), सुव्रत (१६/५५) दक्ष, ऐलेय (१७/२,३), कुणिम (१७/२२) पुलोम, (१७/२४)
मूल, शाल, सूर्य, अमर, देवदत्त, हरिषेण, नभसेन, शंख, भद्र, अभिचन्द्र, वसु (असत्यसे नरक गया) (१७/३१-३७)।
तदनन्तर बृहद्रथ, दृढरथ, सुखरथ, दीपन, सागरसेन, सुमित्र, प्रथु, वप्रथु, बिन्दुसार, देवगर्भ, शतधनु,....लाखों राजाओंके पश्चात् निहतशत्रु सतपति, बृहद्रथ, जरासन्ध व अपराजित, तथा जरासन्ध के कालयवनादि सैकड़ों पुत्र हुए थे। (१८/१७-२५) बृहद्वसुका पुत्र सुबाहु, तदनन्तर, दीर्घबाहु, वज्रबाहु, लब्धाभिमान, भानु, यवु, सुभानु, कुभानु, भीम आदि सैकड़ों राजा हुए। (१८/१-५) भगवान् नमिनाथके तीर्थमें राजा यदु (१८/५) हुआ जिससे यादववंशकी उत्पत्ति हुई। - दे. यादववंश।
२. पद्यपुराणकी अपेक्षा
प.पु.२१/श्लोक सं. हरि, महागिरि, वसुगिरि, इन्द्रगिरि, रत्नमाला, सम्भूत, भूतदेव, आदि सैकड़ों राजा हुए (८-९)। तदनन्तर इसी वंशमें सुमित्र (१०), मुनिसुव्रतनाथ (२२), सुव्रत, दक्ष, इलावर्धन, श्रीवर्धन, श्रीवृक्ष, संजयन्त, कुणिम, महारथ, पुलोमादि हजारों राजा बीतनेपर वासवकेतु राजा जनक मिथिलाका राजा हुआ। (४९-५५)
३. महापुराण व पाण्डवपुराण की अपेक्षा
म.पु.७०/९०-१०१ मार्कण्डेय, हरिगिरि, हिमगिरि, वसुगिरि आदि सैंकड़ों राजा हुए। तदनन्तर इसी वंशमें
10. आगम समयानुक्रमणिका
नोट-प्रमाणके लिए दे. उस उसके रचयिताका नाम।
संकेत सं. = संस्कृत; प्रा. = प्राकृत; अप. = अपभ्रंश; टी. = टीका; वृ. = वृत्ति; व. = वचनिका; प्र. = प्रथम; सि. = सिद्धान्त; श्वे. = श्वेताम्बर; क. = कन्नड; भ. = भट्टारक, भा. = भाषा; त. = तमिल; मरा. = मराठी; हिं. = हिन्दी; श्रा. = श्रावकाचार।
<thead> </thead> <tbody> </tbody>क्रमांक | ग्रन्थ | समय ई. सन् | रचयिता | विषय | भाषा |
---|---|---|---|---|---|
१. ईसवी शताब्दी १ :- | |||||
१ | लोकविनिश्चय | अज्ञात | अज्ञात | यथानाम (गद्य) | प्रा. |
२ | भगवती आरा | पूर्व पाद | शिवकोटि | यत्याचार | प्रा. |
३ | कषाय पाहुड़ | पूर्व पाद | गुणधर | मूल १८० गाथा | प्रा. |
४ | शिल्पड्डिकार | मध्य पाद | इलंगोवडि | जीवनवृत्त (काव्य) | त. |
५ | जोणि पाहुड़ | ४३ | धरसेन | मन्त्र तन्त्र | प्रा. |
६ | षट्खण्डागम | ६६-१५६ | भूतबलि | कर्मसिद्धान्त मूलसूत्र | प्रा. |
७ | व्याख्या प्र. | मध्यपाद | बप्पदेव | आद्य ५ खण्डोंकी टीका | प्रा. |
२. ईसवी शताब्दी २ :- | |||||
८ | आप्तमीमांसा | १२०-१८५ | समन्तभद्र | न्याय | सं. |
९ | स्तुति विद्या (जिनशतक) | - | - | भक्ति | सं. |
१० | स्वयंभूस्तोत्र | - | - | न्याययुक्त भक्ति | सं. |
११ | जीव सिद्धि | - | - | न्याय | सं. |
१२ | तत्त्वानुशासन | - | - | न्याय | सं. |
१३ | युक्त्यनुशासन | - | - | न्याय | सं. |
१४ | कर्मप्राभृत टी. | - | - | कर्मसिद्धान्त | सं. |
१५ | षटखण्ड टी. | - | - | आद्य ५ खण्डों पर | सं. |
१६ | गन्धहस्ती-महाभाष्य | - | - | तत्त्वार्थसूत्र टी. | सं. |
१७ | रत्नकरण्ड श्रा. | १२७-१७९ | शामकुण्ड | श्रावकाचार | सं. |
१८ | पद्धति टी. | - | (कुन्दकुन्द) | कषाय पा. तथा षट्खण्डागमकी टीका | सं. |
१९ | परिकर्म | १२७-१७९ | कुन्दकुन्द | षट्खण्डके आद्य ५ खण्डोंकी टीका | प्रा. |
२० | समयसार | - | - | अध्यात्म | प्रा. |
२१ | प्रवचनसार | - | - | अध्यात्म | प्रा. |
२२ | नियमसार | - | - | अध्यात्म | प्रा. |
२३ | रयणसार | - | - | अध्यात्म | प्रा. |
२४ | अष्ट पाहुड़ | - | - | अध्यात्म | प्रा. |
२५ | पञ्चास्तिकाय | - | - | तत्त्वार्थ | प्रा. |
२६ | वारस अणुवेक्खा | - | - | वैराग्य | प्रा. |
२७ | मूलाचार | - | - | यत्याचार | प्रा. |
२८ | दश भक्ति | - | - | भक्ति | प्रा. |
२९ | कार्तिकेयानुप्रे. | मध्य पाद | कुमार स्वामी | वैराग्य | प्रा. |
३० | कषाय पाहुड़ | १४३-१७३ | यतिवृषभ | मूल १८० गाथाओं पर चूर्णिसूत्र | प्रा. |
३१ | तिल्लोयपण्णत्ति | - | - | लोक विभाग | प्रा. |
३२ | जम्बूद्वीप समास | १७९-२४३ | उमास्वामी | लोकविभाग | सं. |
३३ | तत्त्वार्थसूत्र | - | - | - | सं. |
३. ईसवी शताब्दी ३ :- | |||||
३४ | तत्त्वार्थाधिगम भाष्य | - | उमास्वाति संदिग्ध हैं। | तत्त्वार्थसूत्र टीका | सं. |
४. ईसवी शताब्दी ४ :- | |||||
३५ | पउम चरिउ | पूर्वपाद | विमलसूरि | प्रथमानुयोग | अप. |
३६ | द्वादशा चक्र | ३५७ | मल्लवादी | न्याय (नयवाद) | सं. |
५. ईसवी शताब्दी ५ :- | |||||
३७ | जैनेन्द्र व्याकरण | मध्यपाद | पूज्यपाद | संस्कृत व्याकरण | सं. |
३८ | मुग्धबोध | - | - | संस्कृत व्याकरण | सं. |
३९ | शब्दावतार | - | - | संस्कृत शब्दकोश | सं. |
४० | छन्द शास्त्र | - | - | संस्कृत छन्द शास्त्र | सं. |
४१ | वैद्यसार | - | - | आयुर्वेद | सं. |
४२ | सिद्धि प्रिय स्तोत्र | - | - | चतुर्विंशतिस्तव | सं. |
४३ | दशभक्ति | - | - | भक्ति | सं. |
४४ | शान्त्यष्टक | - | - | भक्ति | सं. |
४५ | सार संग्रह | - | - | भक्ति | सं. |
४६ | सर्वार्थ सिद्धि | - | - | तत्त्वार्थसूत्र टीका | सं. |
४७ | आत्मानुशासन | - | - | त्रिविध आत्मा | सं. |
४८ | समाधि तन्त्र | - | - | अध्यात्म | सं. |
४९ | इष्टोपदेश | - | - | प्रेरणापरक उपदेश | सं. |
५० | कर्म प्रकृति संग्रहिणी | ४४३ | शिवशर्म सूरि (श्वे.) | कर्मसिद्धान्त | प्रा. |
५१ | शतक | - | - | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
५२ | शतक चूर्णि | - | - | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
५३ | लोक विभाग | ४५८ | सर्वनन्दि | यथा नाम | प्रा. |
५४ | बन्ध स्वामित्व | ४८०-५२८ | हरिभद्रसूरि (श्वे.) | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
५५ | जंबूदीव संघायणी | - | - | लोक विभाग | प्रा. |
५६ | षट्दर्शन समु. | - | - | यथा नाम | सं. |
५७ | कर्मप्रकृति चूर्णि | ४९३-६९३ | अज्ञात | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
६. ईसवी शताब्दी ६ :- | |||||
५८ | परमात्मप्रकाश | उत्तरार्ध | योगेन्दुदेव | अध्यात्म | अप. |
५९ | योगसार | - | - | अध्यात्म | अप. |
६० | दोहापाहुड़ | - | - | अध्यात्म | अप. |
६१ | अध्यात्म सन्दोह | - | - | अध्यात्म | अप. |
६२ | सुभाषित तन्त्र | - | - | अध्यात्म | अप. |
६३ | तत्त्वप्रकाशिका | श.६ उत्तरार्ध | - | तत्त्वार्थसूत्र टी. | प्रा. |
६४ | अमृताशीति | - | - | अध्यात्म | अप. |
६५ | निजाष्टक | - | - | अध्यात्म | अप |
६६ | नवकार श्रा. | - | - | श्रावकाचार | अप. |
६७ | पंचसंग्रह | श.५-८ | अज्ञात | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
६८ | चन्द्रप्रज्ञप्ति | लगभग ५६० | अज्ञात (श्वे.) | ज्योतिष लोक | प्रा. |
६९ | सूर्यप्रज्ञप्ति | - | - | ज्योतिष लोक | प्रा. |
७० | ज्योतिष्करण्ड | - | - | ज्योतिष लोक | प्रा. |
७१ | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति | - | - | लोक विभाग | प्रा. |
७२ | कल्याण मन्दिर | ५६८ | सिद्धसेन | भक्ति (स्तोत्र) | सं. |
७३ | सन्मति सूत्र | - | दिवाकर | तत्त्वार्थ, नयवाद | प्रा. |
७४ | द्वात्रिंशिका | - | - | भक्ति | सं. |
७५ | एकविंशतिगुणस्थान प्रकरण | - | - | जीव काण्ड | सं. |
७६ | शाश्वत जिनस्तुति | - | भक्ति | सं. | |
७७ | रामकथा | ६०० | कीर्तिधर | इसीके आधार पर पद्मपुराण रचा गया | सं. |
७८ | विशेषावश्यक भाष्य | ५९३ | जिनभद्रगणी (श्वे.) | जैन दर्शन | प्रा. |
७९ | त्रिलक्षण कदर्थन | ई. श. ६-७ | पात्रकेसरी | न्याय | सं. |
८० | जिनगुण स्तुति (पात्रकेसरी स्त.) | - | - | भक्ति | सं. |
७. ईसवी शताब्दी ७ :- | - | - | |||
८१ | सप्ततिका (सत्तरि) | पूर्वपद | अज्ञात | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
८२ | बृ. क्षेत्र समास | ६०९ | जिनभद्र गणी | अढाई द्वीप | प्रा. |
८३ | बृ. संघायणी सुत्त | - | - | आयु अवगाहना आदि | प्रा. |
८४ | भक्तामर स्तोत्र | ६१८ | मानतुंग | भक्ति | सं. |
८५ | राजवार्तिक | ६२०-६८० | अकलंक भट्ट | तत्त्वार्थसूत्र टी. | सं. |
८६ | अष्टशती | - | - | आप्त मी. टीका | सं. |
८७ | लघीयस्त्रय | - | - | न्याय | सं. |
८८ | बृहद् त्रयम् | - | - | न्याय | सं. |
८९ | न्यायविनिश्चय | - | - | न्याय | सं. |
९० | सिद्धि विनिश्चय | - | - | न्याय | सं. |
९१ | प्रमाण संग्रह | - | - | न्याय | सं. |
९२ | न्याय चूलिका | - | - | न्याय | सं. |
९३ | स्वरूप सम्बो. | - | - | अध्यात्म | सं. |
९४ | अकलंक स्तोत्र | - | - | भक्ति | सं. |
९५ | जीवक चिन्तामणि | मध्यपाद | तिरुतक्कतेवर | तमिल काव्य | त. |
९६ | पद्मपुराण | ६७७ | रविषेण | जैन रामायण | सं. |
९७ | लघु तत्त्वार्थ सूत्र | ७०० | प्रभाचन्द्रबृ. | तत्त्वार्थ | सं. |
९८ | कर्म स्तव | ई.श. ७-८ | अज्ञात | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
८. ईसवी शताब्दी ८ :- | |||||
९९ | तत्त्वार्थाधिगम भाष्य लघु वृत्ति | मध्यपाद | हरिभद्र (याकिनी सूनु) | तत्त्वार्थ | सं. |
१०० | पउमचरिउ | ७३४-८४० | कविस्वयंभू | जैन रामायण | अप. |
१०१ | रिट्ठणेमि चरिउ | - | - | नेमिनाथ चारित्र | अप. |
१०२ | स्वयम्भू छन्द | - | - | छन्द शास्त्र | अप. |
१०३ | विजयोदया | ७३६ | अपराजित सूरि | भगवती आराधना टीका | सं. |
१०४ | प्रामाण्य भंग | मध्यपाद | अनन्तकीर्ति | न्याय | सं. |
१०५ | सत्कर्म | ७७०-८२७ | वीरसेन | षट्खण्डागमका अतिरिक्त अधि. | प्रा. |
१०६ | धवला | - | - | षट्खण्डागम टी. | प्रा. |
१०७ | जय धवला | - | - | कषाय पाहुड़ टी. | प्रा. |
१०८ | शतकचूर्णि बृहत् | ७७०-८६० | अज्ञात (श्वे.) | कर्म सिद्धान्त | सं. |
१०९ | गद्य चिन्तामणि | - | वादीभसिंह | जीवन्धर चरित्र | सं. |
११० | छत्र चूड़ामणि | - | - | जीवन्धर चरित्र | सं. |
१११ | अष्ट सहस्री | - | विद्यानन्दि | अष्टशतीकी टी. | सं. |
११२ | आप्त परीक्षा | - | - | न्याय | सं. |
११३ | पत्र परीक्षा | - | - | न्याय | सं. |
११४ | प्रमाण परीक्षा | - | - | न्याय | सं. |
११५ | प्रमाण मीमांसा | - | - | न्याय | सं. |
११६ | जल्प निर्णय | - | - | न्याय | सं. |
११७ | नय विवरण | - | - | न्याय | सं. |
११८ | युक्त्यनुशासन | - | - | न्याय | सं. |
११९ | सत्य शासन परीक्षा | - | - | न्याय | सं. |
१२० | श्लोकवार्तिक | - | - | तत्त्वार्थसूत्र टी. | सं. |
१२१ | विद्यानन्द महोदय | - | - | सर्वप्रथम रचना न्याय | सं. |
१२२ | बुद्धेशभवन व्याख्यान | - | - | न्याय | सं. |
१२३ | श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र | - | - | अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ स्तोत्र | सं. |
१२४ | वाद न्याय | ७७६ | कुमार नन्दि | न्याय | सं. |
१२५ | हरिवंश पुराण | ७८३ | जिनसेन १ | प्रथमानुयोग | सं. |
१२६ | चन्द्रोदय | ७९७ से पहले | प्रभाचन्द्र ३ | - | सं. |
१२७ | ज्योतिर्ज्ञानविधि | ७९९ | श्रीधर | ज्योतिष शास्त्र | सं. |
१२८ | द्विसन्धान महाकाव्य | अन्तपाद | धनञ्जय | पाण्डव चरित्र | सं. |
१२९ | विषापहार | - | - | स्तोत्र | सं. |
१३० | धनञ्जय निघण्टु | - | - | संस्कृत शब्दकोश | सं. |
१३१ | तत्त्वार्थाधिगम भाष्यवृत्ति | ई.श. ८-९ | सिद्धसेनगणी | तत्त्वार्थ भाष्यकी टीका | सं. |
१३२ | जातक तिलक | - | श्रीधर | ज्योतिष | सं. |
१३३ | ज्योतिर्ज्ञानविधि | - | - | ज्योतिष | सं. |
१३४ | गणितसार संग्रह | ८००-८३० | महावीराचा. | ज्योतिष | सं. |
९ ईसवी शताब्दी ९ :- | |||||
१३५ | केवलिभुक्ति प्रकरण | ८१४ | शाकटायन पाल्यकीर्ति | यथा नाम | सं. |
१३६ | स्त्रीमुक्ति प्रकरण | - | - | यथा नाम | सं. |
१३७ | शब्दानुशासन | - | - | सं. व्याकरण | सं. |
१३८ | आदिपुराण | ८१८-८७८ | जिनसेन २ | ऋषभदेव चरित | सं. |
१३९ | पार्श्वाभ्युदय | - | - | कमठ उपसर्ग | सं. |
१४० | कर्मविपाक | मध्यपाद | गर्गर्षि श्वे. | कर्मसिद्धान्त | प्रा. |
१४१ | कल्याणकारक | ८२८ | उग्रादित्य | आयुर्वेद | सं. |
१४२ | वागर्थ संग्रह | ८३७ | कविपरमेष्ठी | ६३ शलाका पु. | सं. |
१४३ | सत्कर्म पंजिका | ८२७ के पश्चात् | अज्ञात | - | सं. |
१४४ | लीलाविस्तार टीका | ८४०-८५२ | हेमचन्द्र सूरि (श्वे.) | - | सं. |
१४५ | लघुसर्वज्ञ सिद्धि | उत्तरार्ध | अनन्तकीर्ति | न्याय | सं. |
१४६ | बृ. सर्वज्ञ सिद्धि | - | - | न्याय | सं. |
१४७ | जिनदत्त चरित | ८७०-९०० | गुणभद्र | यथा नाम | सं. |
१४८ | उत्तरपुराण | ८९८ | - | २३ तीर्थंकरोंका जीवन वृत्त | सं. |
१४९ | आत्मानुशासन | - | - | त्रिविध आत्मा | सं. |
१५० | भविसयत्त कहा | अन्तपाद | धनपाल कवि | यथा नाम | अप. |
१०. ईसवी शताब्दी १० :- | |||||
१५१ | उपमिति भव प्रपञ्च कथा | ९०५ | सिद्धर्थि (श्वे.) | अध्यात्म | सं. |
१५२ | आत्मख्याति | ९०५-९५५ | अमृतचन्द्र | समयसार टीका | सं. |
१५३ | समयसार कलश | - | - | - | सं. |
१५४ | तत्त्वप्रदीपिका | - | - | प्रवचनसार टीका | सं. |
१५५ | तत्त्वप्रदीपिका | - | - | पञ्चास्तिकाय टीका | सं. |
१५६ | तत्त्वार्थसार | - | - | अध्यात्म | सं. |
१५७ | पुरुषार्थ सिद्धि उपाय | - | - | श्रावकाचार | सं. |
१५८ | जीवन्धर चम्पू | मध्यपाद | हरिचन्द्र | जीवन्धर चरित्र | सं. |
१५९ | त्रिलोकसार टी. | मध्यपाद | माधवचन्द्र त्रैविद्य | लोक विभाग | सं. |
१६० | नीतिसार | मध्यपाद | इन्द्रनन्दि | यथानाम | सं. |
१६१ | वाद महार्णव | मध्यपाद | अभयदेव (श्वे.) | न्याय | सं. |
१६२ | सप्ततिका चूर्णि | मध्यपाद | अज्ञात (श्वे.) | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
१६३ | बृ. कथा कोष | ९३१ | हरिषेण | यथानाम | सं. |
१६४ | भावसंग्रह | ९४८ | देवसेन | अन्य मत निन्दा | प्रा. |
१६५ | दर्शन | ९३३ | - | अन्य मत निन्दा | प्रा. |
१६६ | तत्त्वसार | ९३३-९५५ | - | अध्यात्म | प्रा. |
१६७ | ज्ञानसार | - | - | अध्यात्म | प्रा. |
१६८ | आराधनासार | - | - | चतुर्विध आराधना | प्रा. |
१६९ | आलाप पद्धति | - | - | नयवाद | प्रा. |
१७० | नय चक्र | - | - | नयवाद | प्रा. |
१७१ | सार समुच्चय | ९३७ | कुलभद्र | तत्त्वार्थ | सं. |
१७२ | ज्वालामालिनी कल्प | ९३९ | इन्द्रनन्दि | मन्त्र तन्त्र | सं. |
१७३ | सत्त्व त्रिभंगी | ९३९ | कनकन्न्दि | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
१७४ | पार्श्वपुराण | ९४२ | पद्मकीर्ति | यथा नाम | सं. |
१७५ | तात्पर्यवृत्ति | ९४३ | समन्तभद्र २ | अष्टसहस्री टीका | सं. |
१७६ | योगसार | ९४३ | अमितगति १ | अध्यात्म | सं. |
१७७ | पुराण संग्रह | ९४३-९७३ | दामनन्दि | यथा नाम | सं. |
१७८ | महावृत्ति | ९४३-९९३ | अभयनन्दि | जैन व्याकरण टी. | सं. |
१७९ | कर्मप्रकृति रहस्य | - | - | कर्म सिद्धान्त | सं. |
१८० | तत्त्वार्थ वृत्ति | - | - | तत्त्वार्थ सूत्र टीका | सं. |
१८१ | आयज्ञान | उत्तरार्ध | भट्टवोसरि | ज्योतिष | प्रा. |
१८२ | जयसहर चरिउ | उत्तरार्ध | पुष्पदन्तकवि | यशोधर चरित्र | अप. |
१८३ | णायकुमार चरिउ | - | - | नागकुमार चरित्र | अप. |
१८४ | नीतिवाक्यामृत | ९४३-९६८ | सोमदेव | राज्यनीति | सं. |
१८५ | यशस्तिलक | - | - | यशोधर चरित्र | सं. |
१८६ | अध्यात्मतरंगिनी | - | - | अध्यात्म | सं. |
१८७ | स्याद्वादो नषद् | - | - | न्याय | सं. |
१८८ | षण्णवति करण | - | - | न्याय | सं. |
१८९ | त्रिवर्ण महेन्द्र | - | - | न्याय | सं. |
१९० | मातलि जल्प | - | - | न्याय | सं. |
१९१ | युक्तिचिन्तामणि | - | - | न्याय | सं. |
१९२ | योग मार्ग | - | - | अध्यात्म | सं. |
१९३ | चन्द्रप्रभ चरित्र | ९५०-९९९ | वीरनन्दि | यथानाम काव्य | सं. |
१९४ | शिल्पि संहिता | - | - | - | सं. |
१९५ | अर्हत्प्रवचन | ९५०-१०२० | प्रभाचन्द्र ५ | तत्त्वार्थ | सं. |
१९६ | प्रवचन सारोद्धार | - | - | प्रवचनसार टीका | सं. |
१९७ | पञ्चास्ति प्रदीप | - | - | पञ्चास्तिकाय टी. | सं. |
१९८ | गद्यकथा कोष | - | - | यथा नाम | सं. |
१९९ | तत्त्वार्थवृत्तिपद | - | - | सर्वार्थसिद्धि टीका | सं. |
२०० | समाधितन्त्रटी. | - | - | यथा नाम | सं. |
२०१ | महापुराणतिसट्टिमहापुरिस | ९६५ | पुष्पदन्तकवि | आदिपुराण व उत्तरपुराण | अप. |
२०२ | करकंड चरिउ | ९६५-१०५१ | कनकामर | महाराजा करकंडु | अप. |
२०३ | प्रद्युम्न चरित | ९७४ | महासेन | यथा नाम | सं. |
२०४ | सिद्धिविनिश्चय टीका | ९७५-१०२२ | अनन्तवीर्य | यथा नाम न्याय | सं. |
२०५ | प्रमाणसंग्रहालंकार | - | प्रमाण संग्रह टीका | सं. | |
२०६ | जम्बूदीव पण्णत्ति | ९७७-१०४३ | पद्मनन्दि | लोक विभाग | प्रा. |
२०७ | पंचसंग्रह वृत्ति | - | - | जीवकाण्ड | प्रा. |
२०८ | धम्मसायण | - | - | वैराग्य | प्रा. |
२०९ | गोमट्टसार | ९८१ के | नेमिचन्द्र | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
२१० | त्रिलोकसार | आसपास | (सिद्धान्त चक्रवर्ती) | लोक विभाग | प्रा. |
२११ | लब्धिसार | - | - | उपशम विधान | प्रा. |
२१२ | क्षपणसार | - | - | क्षपणा विधान | प्रा. |
२१३ | वीर मातण्डी | ९८१ के | चामुण्डराय | गो.सा. वृत्ति | क. |
२१४ | चारित्रसार | आस-पास | - | यत्याचार | सं. |
२१५ | चामुण्डराय पुराण | - | - | शलाका पुरुष | सं. |
२१६ | धम्म परिक्खा | ९८७ | हरिषेण | वैदिकका उपहास | अप. |
२१७ | धर्मशर्माभ्युदय | ९८८ | असग कवि | धर्मनाथ चरित | सं. |
२१८ | वर्द्धमान चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
२१९ | शान्तिनाथ चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
२२० | छन्दोबिन्दु | ९९० | नागवर्म | छन्दशास्त्र | सं. |
२२१ | महापुराण | ९९० | मल्लिषेण | शलाका पुरुष | सं. |
२२२ | पंचसंग्रह | अन्तपाद | ढड्ढा | मूलका रूपान्तर | सं. |
२२३ | धर्म रत्नाकर | ९९८ | जयसेन १ | श्रावकाचार | सं. |
२२४ | दोहा पाहुड | १००० | अनुमानतः देवसेन | - | प्रा. |
२२५ | जैनतर्क वार्तिक | ९९३-१११८ | शान्त्याचार्य | - | सं. |
२२६ | पंचसंग्रह | ९९३-१०२३ | अमितगति १ | मूलके आधार पर | सं. |
२२७ | सार्धद्वय प्रज्ञप्ति | - | - | अढाई द्वीप | सं. |
२२८ | जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति | - | - | जम्बूद्वीप | सं. |
२२९ | चन्द्र प्रज्ञप्ति | - | - | ज्योतिष लोक | सं. |
२३० | व्याख्या प्रज्ञप्ति | - | - | कर्म सिद्धान्त | सं. |
२३१ | आराधना प्रज्ञप्ति | - | - | भगवती आरा. के मूलार्थक श्ल. | सं. |
२३२ | श्रावकाचार | - | - | यथानाम | सं. |
२३३ | द्वात्रिंशतिका (सामायिक पाठ) | - | - | वैराग्य | सं. |
२३४ | सुभाषित रत्न सन्दोह | - | - | अध्यात्माचार | सं. |
२३५ | छेद पिण्ड | श. १०-११ | इन्द्रनन्दि | यत्याचार | सं. |
११. ईसवी शताब्दी ११ :- | |||||
२३६ | परीक्षामुख | १००३ | माणिक्यनंदि | न्याय सूत्र | सं. |
२३७ | प्रमेयकमल मार्तण्ड | १००३-१०६५ (९८०-१०६५) | प्रभाचन्द्र ५ | परीक्षामुख टी. न्याय | सं. |
२३८ | न्यायकुमुदचन्द्र (लघीस्त्रयालंकार) | - | - | लघीस्त्रय टीका न्याय | सं. |
२३९ | शाकटायन न्यास | - | - | व्याकरण | सं. |
२४० | शब्दाम्भोज भास्कर | - | - | शब्दकोश | सं. |
२४१ | महापुराण टिप्पणी | - | - | प्रथमानुयोग | सं. |
२४२ | क्रियाकलाप टी. | - | - | सं. | |
२४३ | समयसार टी. | - | - | अध्यात्म | सं. |
२४४ | ज्ञानार्णव | १००३-१०६८ | शुभचन्द्र | अध्यात्माचार | सं. |
२४५ | पुराणसार संग्रह | १००९ | श्री चन्द्र | यथा नाम | सं. |
२४६ | एकीभाव स्तोत्र | १०१०-१०६५ | वादिराज | भक्ति | सं. |
२४७ | न्यायविनिश्चय विवरण | - | - | न्याय वि टीका न्याय | सं. |
२४८ | प्रमाण निर्णय | - | - | न्याय | सं. |
२४९ | यशोधर चारित्र | - | - | यथा नाम | सं. |
२५० | धर्म परीक्षा | १०१३ | अमितगति १ | अन्यमत उपहास | सं. |
२५१ | पंचसंग्रह | - | - | कर्म सिद्धान्त (मूलके आधारपर) | सं. |
२५२ | द्रव्य संग्रह लघु | १०१८-१०६८ | नेमिचन्द्र २ | तत्त्वार्थ | प्रा. |
२५३ | द्रव्य संग्रह बृ. | - | सिद्धा. देव | - | |
२५४ | द्रव्य संग्रह वृत्ति | ९८०-१०६५ | प्रभाचन्द्र ५ | लघु द्रव्यसंग्रह टी. | सं. |
२५५ | जंबूसामि चरिउ | १०१९ | कवि वीर | यथा नाम | अप. |
२५६ | कथाकोष | मध्यपाद | ब्रह्मदेव | यथा नाम | सं. |
२५७ | बृ. द्रव्य संग्रहटी. | - | - | तत्त्वार्थ | सं. |
२५८ | तत्त्वदीपिका | - | - | तत्त्वार्थ | सं. |
२५९ | प्रतिष्ठा तिलक | - | - | पूजापाठ | सं. |
२६० | चंदप्पह चरिउ | मध्यपाद | यशःकीर्ति | यथानाम | अप. |
२६१ | पार्श्वनाथ चरित्र | १०२५ | वादिराज २ | यथा नाम | सं. |
२६२ | ज्ञानसार | १०२९ | कर्महेतुक भ्रमण | सं. | |
२६३ | अर्धकाण्ड | १०३२ | दुर्ग देव | मन्त्र तन्त्र | सं. |
२६४ | मन्त्र महोदधि | - | - | मन्त्र तन्त्र | सं. |
२६५ | मरण काण्डिका | - | - | मन्त्र तन्त्र | सं. |
२६६ | रिष्ट समुच्चय | - | - | मन्त्र तन्त्र | सं. |
२६७ | सयलविहिविहाण | १०४३ | नय नन्दि | श्रावकाचार | अप. |
२६८ | सुदंसण चरिउ | - | - | यथानाम | अप. |
२६९ | काम चाण्डाली कल्प | १०४७ | मल्लिषेण | मन्त्र तन्त्र | सं. |
२७० | ज्वालिनी कल्प | - | - | मन्त्र तन्त्र | सं. |
२७१ | भैरव पद्मावती | - | - | मन्त्र तन्त्र | सं. |
२७२ | सरस्वती मन्त्र | - | - | मन्त्र तन्त्र | सं. |
२७३ | वज्रपंजर विधान | - | - | मन्त्र तन्त्र | सं. |
२७४ | नागकुमार काव्य | - | - | यथा नाम | सं. |
२७५ | सज्जन चित्त | - | - | अध्यात्मोपदेश | सं. |
२७६ | कर्म प्रकृति | उत्तरार्ध | नेमिचन्द्र ३ | कर्म सिद्धान्त | सं. |
२७७ | तत्त्वानुशासन | उत्तरार्ध | रामसेन | ध्यान | सं. |
२७८ | पंचविंशतिका | उत्तरार्ध | पद्मनन्दि | अध्यात्माचार | सं. |
२७९ | चरणसार | - | - | अध्यात्माचार | सं. |
२८० | एकत्व सप्ततिका | - | - | शुद्धात्मस्वरूप | सं. |
२८१ | निश्चय पंचाशत | - | - | शुद्धात्मस्वरूप | सं. |
२८२ | हरिवंश पुराण | उत्तरार्ध | कवि धवल | यथानाम | अप. |
२८३ | कथाकोष | १०६६ | श्रीचन्द | यथानाम | अप. |
२८४ | दंसणकह रयणकरंडु | - | - | कथाओंके द्वारा धर्मोपदेश | अप. |
२८५ | प्रवचन सारोद्धार (श्वे.) | १०६२-१०९३ (१०८०) | नेमिचन्द्र ४ (श्वे.) | गति अगति आयु आदि | अप. |
२८६ | सुख बोधिनी बृ. | १०७२ | नेमिचन्द्र ४ (श्वे.) | उत्तराध्ययन सूत्र | सं. |
२८७ | श्रावकाचार | १०६८-१११८ | वसुनन्दि | यथा नाम | सं. |
२८८ | प्रतिष्ठासार संग्रह | - | - | यथा नाम | सं. |
२८९ | सार्ध शतक | १०७५-१११० | जिनवल्लभ | यथा नाम | प्रा. |
२९० | नेमिनिर्वाणकाव्य | १०७५-११२५ | वाग्भट्ट | सं. | |
२९१ | सुलोयणा चरिउ | १०७५ | देवसेन मुनि | यथा नाम | अप. |
२९२ | पारसणाह चरिउ | १०७७ | पद्मकीर्ति | यथा नाम | अप. |
२९३ | पारसणाह चरिउ | अन्त पाद | कवि देवचन्द्र | यथा नाम | अप. |
२९४ | सिद्धान्तसार संग्रह | अन्तपाद | नरेन्द्र सेन | तत्त्वार्थसूत्रका सार | सं. |
२९५ | प्रमाण मीमांसा | १०८८-११७ | हेमचन्द्रसूरि | न्याय | सं. |
२९६ | शब्दानुशासन | - | - | संस्कृत शब्दकोश | सं. |
२९७ | अभिधान-चिन्तामणि | - | - | संस्कृत शब्दकोश | सं. |
२९८ | देशीनाममाला | - | - | संस्कृत शब्द कोश | सं. |
२९९ | काव्यानुशासन | - | - | काव्य शिक्षा | सं. |
३०० | द्वयाश्रयमहाकाव्य | - | - | सं. | |
३०१ | योगशास्त्र | - | - | ध्यान समाधि | सं. |
३०२ | द्वात्रिंशिका | - | - | सं. | |
३०३ | चन्द्रप्रभचारित्र | १०८९ | कवि अग्गल | यथानाम | कन्न. |
३०४ | तात्पर्य वृत्ति | श. ११-१२ | जयसेन | समयसार टीका | सं. |
- | - | - | - | प्रवचनसार टीका | सं. |
- | - | - | - | पंचास्तिकाय टीका | सं. |
३०५ | वैराग्गसार | श. ११-१२ | सुभद्राचार्य | यथानाम | अप. |
१२ ईसवी शताब्दी १२ :- | |||||
३०६ | प्रमेयरत्नकोष | ११०२ | चन्द्रप्रभसूरि (श्वे.) | न्याय | सं. |
३०७ | स्याद्वाद् सिद्धि | ११०३ | वादीभ सिंह | न्याय | सं. |
३०८ | तत्त्वार्थसूत्र वृत्ति | पूर्व पाद | बालचन्द्र मुनि | यथानाम | सं. |
३०९ | धर्म परीक्षा | पूर्वार्ध | वृत्ति विलास | वैदिकोंका उपहास | कन्नड़ |
३१० | प्रमाणनय तत्त्वालङ्कार (स्याद्वाद रत्नाकर) | १११७-६९ | वादिदेव सूरि (श्वे.) | न्याय | सं. |
३११ | आचार सार | मध्यपाद | वीर नन्दि | यत्याचार | सं. |
३१२ | पार्श्वनाथ स्तोत्र | मध्यपाद | पद्मप्रभ | यथा नाम | सं. |
३१३ | नियमसार टीका | - | मल्लधारी देव | अध्यात्म | सं. |
३१४ | कन्नड़ व्याकरण | ११२५ | नयसेन | यथा नाम | कन्नड़. |
३१५ | धर्मामृत | - | - | कथा संग्रह | कन्नड़ |
३१६ | ब्रह्म विद्या | ११२८ | मल्लिषेण | अध्यात्म | सं. |
३१७ | पासणाह चरिउ | ११३२ | कवि श्रीधर २ | पार्श्वनाथ चरित्र | अप. |
३१८ | वड्ढमाण चरिउ | - | - | वर्द्धमान चरित्र | अप. |
३१९ | संतिणाह चरिउ | - | - | शान्तिनाथ चरित्र | अप. |
३२० | भविसयत्त चरिउ | ११४३ | - | भविष्यदत्त चरित्र | अप. |
३२१ | सितपट चौरासी | ११४३-११६७ | पं. हेमचन्द | यशोविजयके दिग्पट चौरासीका उत्तर | हिं. |
३२२ | सुअंध दहमी कहा | ११५०-९६ | उदय चन्द | सुगन्धदशमी कथा | अप. |
३२३ | सुकुमाल चरिउ | ११५१ | श्रीधर ३ | सुकुमालचरित्र | अप. |
३२४ | अञ्जनापवनंजय | ११६१-११८१ | हस्तिमल | यथा नाम नाटक | सं. |
३२५ | मैथिली कल्याणम् | - | - | सीता-राम प्रेम नाटक | सं. |
३२६ | विक्रान्त कौरव | - | - | सुलोचना नाटक | सं. |
३२७ | सुभद्रानाटिका | - | - | भरत-सुभद्रा प्रेम | सं. |
३२८ | अनगार धर्मा | ११७३-१२४३ | पं. आशाधर | यत्याचार | सं. |
३२९ | मूलाराधना दर्पण | - | - | यत्याचार | सं. |
३३० | सागार धर्मामृत | - | - | श्रावकाचार | सं. |
३३१ | क्रिया कलाप | - | - | व्याकरण | सं. |
३३२ | अध्यात्म रहस्य | - | - | अध्यात्म | सं. |
३३३ | इष्टोपदेश टीका | - | - | अध्यात्मोपदेश | सं. |
३३४ | ज्ञानदीपिका | - | - | अध्यात्म | सं. |
३३५ | प्रमेय रत्नाकर | - | - | न्याय | सं. |
३३६ | वाग्भट्टसंहिता | - | - | न्याय | सं. |
३३७ | काव्यालङ्कार टी. | - | - | काव्य शिक्षा | सं. |
३३८ | अमरकोष टीका | - | - | संस्कृत शब्दकोष | सं. |
३३९ | भव्यकुमुद चन्द्रिका | - | - | - | सं. |
३४० | अष्टाङ्ग हृदयोद्योत | - | - | - | सं. |
३४१ | भरतेश्वराभ्युदय काव्य | - | - | भरत चक्री चरित्र | सं. |
३४२ | त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र | - | - | शलाका पुरुष | सं. |
३४३ | राजमतिविप्रलम्भ सटीक | - | - | नेमिराजुल संवाद | सं. |
३४४ | भूपाल चतुर्विंशतिका टीका | - | - | - | सं. |
३४५ | नित्य महोद्योत | - | - | पूजा पाठ | सं. |
३४६ | जिनयज्ञ कल्प | - | - | पूजा पाठ | सं. |
३४७ | प्रतिष्ठा पाठ | - | - | पूजा पाठ | सं. |
३४८ | सहस्रनाम स्तव | - | - | पूजा पाठ | सं. |
३४९ | रत्नत्य विधान टीका | - | - | पूजा पाठ | सं. |
३५० | धन्यकुमार चा. | ११८२ | गुणभद्र २ | यथानाम काव्य | सं. |
३५१ | णेमिगाह चरिउ | ११८७ | अमरकीर्ति | यथानाम काव्य | अप. |
३५२ | छक्कम्मुवएस | - | - | गृहस्थ षट्कर्म | अप. |
३५३ | पज्जुण्ण चरिउ | अन्तपाद | कवि सिंह | प्रद्युम्न चरित्र | अप. |
३५४ | शास्त्रसार समुच्चय | अन्तपाद | माघनन्दि योगिन्द्र | शलाका पुरुष, तत्त्व तथा आचार | सं. |
३५५ | सङ्गीत समयसार | अन्तपाद | पार्श्व देव | सङ्गीत शास्त्र | सं. |
३५६ | आराधनासार समुच्चय | श. १२-१३ | रविचन्द्र | चतुर्विध आराधना | सं. |
३५७ | मेमन्दर पुराण | - | वामन मुनि | विमलनाथके दो गणधर | त. |
३५८ | उदय त्रिभंगी | ११८० | नेमिचन्द्र ४ | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
३५९ | सत्त्व त्रिभंगी | - | (सैद्धान्तिक) | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
१३. ईसवी शताब्दी १३ :- | |||||
३६० | बन्ध त्रिभंगी | १२०३ | माधवचन्द्र | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
३६१ | क्षपणासार टी. | - | - | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
३६२ | चंदप्पहचरिउ | पूर्व पाद | ब्रह्मदामोदर | यथानाम | प्रा. |
३६३ | चंदणछट्ठीकहा | - | पं. लाखू | चन्दनषष्टी व्रत | प्रा. |
३६४ | जिणयत्तकहा | - | - | यथानाम | प्रा. |
३६५ | कथा विचार | मध्य पाद | भावसेन त्रैविद्य | न्यायाजल्प वितण्डा निराकरण | सं. |
३६६ | कातन्त्र रूपमाला | - | - | शब्द रूप | सं. |
३६७ | न्याय दीपिका | - | - | न्याय | सं. |
३६८ | न्याय सूर्यावली | - | - | न्याय | सं. |
३६९ | प्रमाप्रमेय | - | - | न्याय | सं. |
३७० | भुक्तिमुक्तिविचार | - | - | श्वे. निराकरण | सं. |
३७१ | विश्व तत्त्वप्रकाश | - | - | अन्यदर्शन निराकरण | सं. |
३७२ | शाकटायन व्याकरण टी. | - | - | यथानाम | सं. |
३७३ | सप्तपदार्थी टीका | - | - | - | सं. |
३७४ | सिद्धान्तसार | - | - | - | सं. |
३७५ | पुण्यास्रव कथा कोष | मध्यपाद | रामचन्द्र मुमुक्षु | यथानाम | सं. |
३७६ | जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला | मध्यपाद | यशःकीर्ति | - | सं. |
३७७ | स्याद्वाद भूषण | मध्यपाद | अभयचन्द्र | न्याय | सं. |
३७८ | णेमिणाह चरिउ | १२३० | ब्रह्मदामोदर | यथानाम | अप. |
३७९ | पुष्पदन्त पुराण | १२३० | गुण वर्म | यथानाम | सं. |
३८० | सागार धर्मामृत | १२३९ | पं. आशाधार | श्रावकाचार | सं. |
३८१ | त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र | १२३४ | पं. आशाधर | शलाका पुरुष | सं. |
३८२ | कर्म विपाक | १२४०-६७ | देवेन्द्रसूरि | कर्मसिद्धान्त | प्रा. |
३८३ | कर्म स्तव | - | (श्वे.) | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
३८४ | बन्ध स्वामित्व | - | - | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
३८५ | षडषीति (सूक्ष्मार्थ विचार) | - | - | - | प्रा. |
३८६ | कर्म प्रकृति | उत्तरार्ध | अभयचन्द | कर्म सिद्धान्त | सं. |
३८७ | मन्दप्रबोधिनी | - | सिद्धान्त चक्र. | गो.सा.टी. | सं. |
३८८ | पुरुदेव चम्पू. | उत्तरार्ध | अर्हद्दास | ऋषभ चरित्र | सं. |
३८९ | भव्यजन कण्ठाभरण | - | - | - | सं. |
३९० | मुनिसुव्रत काव्य | - | - | यथानाम | सं. |
३९१ | विश्वलोचन कोष | उत्तरार्ध | धरसेन | नानार्थक कोष | सं. |
३९२ | शृंगारार्णव चन्द्रिका | - | विजयवर्णी | काव्य शिक्षा (छन्द अलंकार) | सं. |
३९३ | अलंकार चिन्तामणि | १२५०-६० | अजितसेन | काव्य शिक्षा (छन्द अलंकार) | सं. |
३९४ | शृंगार मञ्जरी | - | - | काव्य शिक्षा (छन्द अलंकार) | सं. |
३९५ | अणुवयय्यण पईव | १२५६ | पं. लाखू | अणुव्रत रत्न प्रदीप | अप. |
३९६ | त्रिभंगीसार टीका | अन्त पाद | श्रुत मुनि | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
३९७ | आस्रव त्रिभंगी | - | - | कर्म सिद्धान्त | प्रा. |
३९८ | भाव त्रिभंगी | - | - | औपशमिकादि | प्रा. |
३९९ | काव्यानुशासन | अन्त पाद | वाग्भट्ट | काव्य शिक्षा | सं. |
४०० | छन्दानुशासन | - | - | छन्द शिक्षा | सं. |
४०१ | जिणत्तिविहाण (वड्ढमाणकहा) | अन्त पाद | नरसेन | यथानाम | अप. |
४०२ | मयणपराजय | - | - | उपमिति कथा | अप. |
४०३ | सिद्धचक्ककहा | - | - | श्रीपाल मैना | अप. |
४०४ | स्याद्वाद्मंजरी | १२९२ | मल्लिषेण | न्याय | सं. |
४०५ | महापुराण कालिका | १२९३ | शाह ठाकुर | शलाका पुरुष | अप. |
४०६ | संतिणाह चरिउ | १२९५ | - | यथानाम | अप. |
४०७ | तत्त्वार्थसूत्र वृत्ति | १२९६ | भास्कर नन्दि | यथानाम | सं. |
४०८ | ध्यान स्तव | - | - | ध्यान | सं. |
४०९ | सुखबोध वृत्ति | - | - | तत्त्वार्थसूत्र टीका | सं. |
४१० | सुदर्शन चरित | १२९८ | विद्यानन्दि २ | यथानाम | सं. |
४११ | त्रैलोक्य दीपक | श. १३-१४ | वामदेव | लोक विभाग | सं. |
४१२ | भावसंग्रह | - | - | देवसेन कृतका सं. रूपान्तर | सं. |
१४ ईसवी शताब्दी १४ :- | |||||
४१३ | णेमिणाह चरिउ | पूर्वपाद | लक्ष्मणदेव | यथानाम | अप. |
४१४ | मयणपराजय चरिउ | पूर्वपाद | हरिदेव | उपमिति कथा (खण्ड काव्य) | अप. |
४१५ | भविष्यदत्त कथा | मध्यपाद | श्रीधर ४ | यथानाम | सं. |
४१६ | अनन्तव्रत कथा | १३२८-९३ | पद्मनन्दि | यथानाम | सं. |
४१७ | जीरापल्लीपार्श्वनाथ स्तोत्र | - | भट्टारक | यथानाम | सं. |
४१८ | भावना पद्धति | - | - | भक्तिपूर्ण स्तव | सं. |
४१९ | वर्द्धमान चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
४२० | श्रावकाचार सारोद्धार | - | - | सं. | |
४२१ | परमागमसार | १३४१ | श्रुत मुनि | आगमका स्वरूप | प्रा. |
४२२ | वरांग चरित्र | उत्तरार्ध | वर्द्धमानभट्टा. | यथानाम | सं. |
४२३ | गोमट्टसार टी. | १३५९ | केशववर्णी | यथानाम | क. |
४२४ | न्यायदीपिका | १३९०-१४१८ | धर्मभूषण | न्याय | सं. |
४२५ | जम्बूस्वामीचरित्र | १३९३-१४६८ | ब्रह्म जिनदास | यथानाम | सं. |
४२६ | राम चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
४२७ | हरिवंश पुराण | - | - | यथानाम | सं. |
४२८ | बाहूबलि चरिउ | १३९७ | कवि धनपाल | यथानाम | अप. |
४२९ | अणत्थमिय कहा | - | कवि हरिचन्द | रात्रिभुक्ति हानि | अप. |
१५. ईसवी शताब्दी १५ :- | |||||
४३० | अणत्थमिउ कहा | १४००-७९ | कवि रइधु | रात्रिभुक्ति त्याग | अप. |
४३१ | धण्णकुमार चरिउ | - | - | यथानाम | अप. |
४३२ | पउम चरिउ | - | - | जैन रामायण | अप. |
४३३ | बलहद्द चरिउ | - | - | बलभद्र चरित्र | अप. |
४३४ | मेहेसर चरिउ | - | - | सुलोचना चरित्र | अप. |
४३५ | वित्तसार | - | - | श्रावक मुनि धर्म | अप. |
४३६ | सम्मइजिणचरिउ | - | - | भगवान् महावीर | अप. |
४३७ | सिद्धान्तसार | - | - | श्रावक मुनि धर्म | अप. |
४३८ | सिरिपाल चरिउ | - | - | श्रीपाल चरित्र | अप. |
४३९ | हरिवंश पुराण | - | - | यथा नाम | अप. |
४४० | जसहर चरिउ | - | - | यशोधर चरित्र | अप. |
४४१ | वड्ढमाण चरिउ (सेणिय चरिउ) | पूर्वपाद | जयमित्रहल | यथा नाम | अप. |
४४२ | मल्लिणाहकव्व | - | - | यथा नाम | अप. |
४४३ | यशोधर चरित्र | - | पद्मनाथ | यथा नाम | सं. |
४४४ | कर्म विपाक | १४०६-१४४२ | सकलकीर्ति | कर्मसिद्धान्त | सं. |
४४५ | प्रश्नोत्तर श्राव. | - | - | श्रावकाचार | सं. |
४४६ | तत्त्वार्थसारदीपक | - | - | तत्त्वार्थ | सं. |
४४७ | सद्भाषितावली | - | - | अध्यात्मोप. | सं. |
४४८ | परमात्मराजस्तोत्र | - | - | भक्ति | सं. |
४४९ | आदि पुराण | - | - | ऋषभ चरित्र | सं. |
४५० | उत्तर पुराण | - | - | २३ तीर्थंकर | सं. |
४५१ | पुराणसार संग्रह | - | - | ६ तीर्थंकर | सं. |
४५२ | शान्तिनाथचरित | - | - | यथा नाम | सं. |
४५३ | मल्लिनाथ चरित | - | - | यथा नाम | सं. |
४५४ | पार्श्वनाथ पुराण | - | - | यथा नाम | सं. |
४५५ | महावीर पुराण | - | - | यथा नाम | सं. |
४५६ | वर्द्धमान चरित्र | - | - | यथा नाम | सं. |
४५७ | श्रीपाल चरित्र | - | - | यथा नाम | सं. |
४५८ | यशोधर चरित्र | - | - | यथा नाम | सं. |
४५९ | धन्यकुमार चरित्र | - | - | यथा नाम | सं. |
४६० | सुकुमाल चरित्र | - | - | यथा नाम | सं. |
४६१ | सुदर्शन चरित्र | - | - | यथा नाम | सं. |
४६२ | व्रत कथाकोष | - | - | सं. | |
४६३ | मूलाचार प्रदीप | १४२४ | - | यत्याचार | सं. |
४६४ | सिद्धान्तसार दीपक | - | - | यत्याचार | सं. |
४६५ | लोक विभाग | मध्यपाद | सिंहसूरि (श्वे.) | प्राचीन कृतिका सं. रूपान्तर | सं. |
४६६ | पासणाह चरिउ | १४२२ | कवि असवाल | यथानाम | अप. |
४६७ | धर्मदत्त चरित्र | १४२९ | दयासागर सूरि | यथानाम | सं. |
४६८ | हरिवंश पुराण | १४२९-४० | यशःकीर्ति | यथानाम | अप. |
४६९ | जिणरत्ति कहा | - | - | रात्रि भुक्ति | अप. |
४७० | रविवय कहा | - | - | यथानाम | अप. |
४७१ | ततक्त्वार्थ रत्न प्रभाकर | १४३२ | प्रभाचन्द्र ८ | तत्त्वार्थ सूत्र टीका | सं. |
४७२ | संतिणाह चरिउ | १४३७ | शुभकीर्ति | यथानाम | अप. |
४७३ | पासणाह चरिउ | १४३९ | - | - | अप. |
४७४ | सक्कोसल चरिउ | - | - | - | अप. |
४७५ | सम्मत्तगुण विहाण कव्व | १४४२ | - | यथानाम लोकप्रिय | अप. |
४७६ | सुदर्शन चरित्र | १४४२-८२ | विद्यानन्दि ३ भट्टारक | यथानाम | सं. |
४७७ | संभव चरिउ | १४४३ | कवि तेजपाल | यथानाम | अप. |
४७८ | आत्म सम्बोधन | १४४३-१५०५ | ज्ञानभूषण | अध्यात्म | सं. |
४७९ | अजित पुराण | १४४८ | कवि विजय | यथानाम | अप. |
४८० | जिनचतुर्विंशति | १४५०-१५१४ | जिनचंद्रभट्टा | स्तोत्र | सं. |
४८१ | सिद्धान्तसार | - | - | जीवकाण्ड | सं. |
४८२ | सिरिपाल चरिउ | १४५०-१५१४ | ब्रह्म दामोदर | यथानाम | अप. |
४८३ | वरंग चरिउ | १४५० | कवि तेजपाल | यथानाम | अप. |
४८४ | नागकुमार चरिउ | १४५४ | धर्मधर | यथानाम | अप. |
४८५ | पासपुराण | १४५८ | कवि तेजपाल | यथानाम | अप. |
४८६ | यशोधर चरित्र | १४६१ | सोमकीर्ति | यथानाम | सं. |
४८७ | सप्तव्यसन कथा | १४६१-१४८३ | - | यथानाम | सं. |
४८८ | चारुदत्त चरित्र | १४७४ | - | यथानाम | सं. |
४८९ | प्रद्युम्न चारित्र | - | - | यथानाम | सं. |
४९० | तत्त्वज्ञान तरंगिनी | ४७१ | ज्ञानभूषण | अध्यात्म | सं. |
४९१ | आत्म सम्बोधन आराधना | १४४३-१५०५, १४६९ | अज्ञात | अध्यात्म, पंचसंग्रह प्रा. की प्राकृत टीका | प्रा. |
४९२ | पाण्डव पुराण | १४७८-१५५६ | यशःकीर्ति | यथानाम | अप. |
४९३ | धर्मसंग्रहश्रावका | १४८४ | मेधावी | श्रावकाचार | सं. |
४९४ | औदार्य चिन्तामणि | १४८७-१४९९ | श्रुतसागर | प्राकृत व्याकरण | प्रा. |
४९५ | तत्त्वार्थ वृत्ति | - | - | तत्त्वार्थसूत्र टीका | सं. |
४९६ | षट्प्राभृत टीका | - | - | कुन्दकुन्दके प्राभृतों की टीका | सं. |
४९७ | तत्त्वत्रय प्रकाशिका | - | - | ज्ञानार्णव कथित गद्य भागकी टीका | सं. |
४९८ | यशस्तिलक चन्दिका | यशस्तिलक चम्पूकी टीका | - | - | सं. |
४९९ | यशोधर चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
५०० | श्रीपाल चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
५०१ | श्रुतस्कन्ध पूजा | - | - | यथानाम | सं. |
५०२ | योगसार | अन्तपाद | श्रुतकीर्ति | श्रावकमुनि आचार | अप. |
५०३ | धम्म परिक्खा | - | - | वैदिकोंका उपहास | अप. |
५०४ | परमेष्ठी प्रकाश सार | - | - | यथा नाम | अप. |
५०५ | हरिवंश पुराण | - | - | यथानाम | अप. |
५०६ | भुजबलि रितम् | अन्तपाद | दोड्डय्य | गोमटेश मूर्तिका इतिहास | सं. |
५०७ | पाहुड़ दोहा | - | महनन्दि | अध्यात्म | अप. |
५०८ | पुराणसार वैराग्य माला | १४९८-१५१८ | श्रीचन्द | यथानाम | सं. |
१६. ईसवी शताब्दी १६ :- | |||||
५०९ | सम्यक्त्व कौमुदी | १५०८ | जोधराज | तत्त्वार्थ | हिं. |
५१० | सम्यक्त्व कौमुदी | - | मंगरस | तत्त्वार्थ | कन्नड़ |
५११ | जीवतत्त्व प्रदीपिका | १५१५ | नेमिचन्द्र ५ | गो.सा. टीका | सं. |
५१२ | भद्रबाहु चरित्र | १५१५ | रत्नकीर्ति | यथानाम | सं. |
५१३ | अंग पण्णत्ति | १५१६-५६ | शुभचन्द्र | - | प्रा. |
५१४ | शब्द चिन्तामणि | - | भट्टारक | सं. शब्दकोष | सं. |
५१५ | स्याद्वाद्वहन विदारण | - | - | न्याय | सं. |
५१६ | सम्यक्त्व कौमुदी | - | - | तत्त्वार्थ | सं. |
५१८ | अध्यात्मपद टी. | - | - | अध्यात्म | सं. |
५१५ | परमाध्यात्म तरंगिनी | - | - | अध्यात्म | सं. |
५२० | सुभाषितार्णव | - | - | अध्यात्म | सं. |
५२१ | चन्द्रप्रभ चरित्र | - | - | अध्यात्म | सं. |
५२२ | पार्श्वनाथ काव्य पंजिका | - | - | यथानाम | सं. |
५२३ | महावीर पुराण | - | - | यथानाम | सं. |
५२४ | पद्मनाभ चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
५२५ | चन्दना चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
५२६ | चन्दन कथा | - | - | चन्दना चरित्र | सं. |
५२७ | अमसेन चरिउ | १५१९ | माणिक्यराज | मुनि अमसेनका जीवन वृत | अप. |
५२८ | नागकुमार चरिउ | १५२२ | - | यथानाम | अप. |
५२९ | आराधना कथाकोष | १५१८ | ब्र. नेमिदत्त | सं. | |
५३० | धर्मोपदेश पीयूष | १५१८-२८ | - | श्रावकाचार | सं. |
५३१ | रात्रि भोजनत्याग व्रतकथा | - | - | यथानाम | सं. |
५३२ | नेमिनाथ पुराण | १५२८ | - | यथानाम | सं. |
५३३ | श्रीपाल चरित्र | - | - | यथा नाम | सं. |
५३४ | सिद्धांतसारभाष्य | १५२८-५९ | ज्ञानभूषण | यथानाम | सं. |
५३५ | संतिणाह चरिउ | - | कवि महीन्दु | - | अप. |
५३६ | चेतनपुद्गलधमाल | १५३२ | बूचिराज | यथानाम रूपक | अप. |
५३७ | मयण जुज्झ | - | - | मदनयुद्ध रूपक | अप. |
५३८ | मोहविवेक युद्ध | - | - | यथानाम रूपक | अप. |
५३९ | संतोषतिल जयमाल | - | - | सन्तोष द्वारा लोभको जीतना (रूपक) | अप. |
५४० | टंडाणा गीत | - | - | संसार सुखदर्शन | अप. |
५४१ | भुवनकीर्ति गीत | - | - | भुवनकीर्तिकी प्रशस्ति | अप. |
५४२ | नेमिनाथ बारहमासा | - | - | राजमतिके उद्गार | अप. |
५४३ | नेमिनाथ वसंत | - | - | नेमिनाथ वैराग्य | अप. |
५४४ | कार्तिकेयानु प्रेक्षा टीका | १५४३ | शुभचन्द्र भट्टारक | यथानाम | सं. |
५४५ | जीवन्धर चरित्र | १५४६ | यथानाम | सं. | |
५४६ | प्रमेयरत्नालंकार | १५४४ | चारुकीर्ति | न्याय | सं. |
५४७ | गीत वीतराग | - | - | ऋषभदेवके १० जन्म | सं. |
५४८ | पाण्डवपुराण | १५५१ | शुभचन्द्र भट्टारक | यथानाम | सं. |
५४९ | भरतेशवैभव | १५५१ | रत्नाकर | यथानाम | सं. |
५५० | होलीरेणुकाचरित्र | पं. जिनदास | पंचनमस्कारमहात्म्य | हिं. | |
५५१ | करकण्डु चरित्र | १५५४ | शुभचन्द्र भ. | यथानाम | सं. |
५५२ | कर्म प्रकृति टी. | १५५६-७३ | ज्ञानभूषण | कर्म सिद्धान्त | सं. |
५५३ | भविष्यदत्तचरित्र | १५५८ | पं. सुन्दरदास | यथानाम | सं. |
५५४ | रायमल्लाभ्युदय | - | - | २४ तीर्थङ्करोंका जीवन वृत्त | सं. |
५५५ | कर्म प्रकृति टी. | १५६३-७३ | सुमतिकार्ति | कर्म सिद्धान्त | सं. |
५५६ | कर्मकाण्ड | - | - | कर्म सिद्धान्त | सं. |
५५७ | पंच संग्रह वृत्ति | - | - | कर्म सिद्धान्त | सं. |
५५८ | सुखबोध वृत्ति | लगभग १५७० | पं. योगदेव भट्टारक | तत्त्वार्थ सूत्र टी. | सं. |
५५९ | अनन्तनाथ पूजा | १५७३ | गुणचन्द्र | यथानाम | सं. |
५६० | अध्यात्मकमल मार्तण्ड | १५७५-१५९३ | पं. राजमल | अध्यात्म | सं. |
५६१ | पंचाध्यायी | १५९३ | - | पदार्थ विज्ञान | सं. |
५६२ | पिंगल शास्त्र | - | - | छन्द शास्त्र | सं. |
५६३ | लाटी संहिता | -१५८४ | - | श्रावकाचार | सं. |
५६४ | जम्बूस्वामीचरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
५६५ | हनुमन्त चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
५६६ | द्वादशांग पूजा | १५७९-१६१९ | श्रीभूषण | यथानाम | सं. |
५६७ | प्रतिबोध चिंतामणि | - | - | मूलसंघकी उत्पत्तिकी कथा | सं. |
५६८ | शान्तिनाथपुराण | - | - | यथानाम | सं. |
५६९ | सत्तवसनकहा | १५८० | मणिक्यराज | यथानाम | अप. |
५७० | ज्ञानसूर्योदय ना. | १५८०-१६०७ | वादिचन्द्र | रूपक काव्य | सं. |
५७१ | पवनदूत | - | - | मेघदूतकी नकल | सं. |
५७२ | पार्श्व पुराण | - | - | यथानाम | सं. |
५७३ | श्रीपाल आख्यान | - | - | यथानाम | सं. |
५७४ | सुभग सुलोचना चरित्र | - | - | यथानाम | सं. |
५७५ | कथाकोष | १५८३-१६०५ | देवेन्द्रकीर्ति | यथा नाम | सं. |
५७६ | श्रीपाल चरित्र | १५९४ | कवि परिमल्ल | यथा नाम | सं. |
५७७ | पार्श्वनाथ पुराण | १५९७-१६२४ | चन्द्रकीर्ति | यथानाम | सं. |
५७८ | शब्दत्न प्रदीप | १५९९-१६१० | सोमसेन | सं. शब्दकोष | सं. |
५७९ | धर्मरसिक (त्रिवर्णाचार) | - | - | पंचामृत अभषेक आदि | सं. |
५८० | रामपुराण | - | - | यथानाम | सं. |
१७. ईसवी शताब्दी १७ :- | |||||
५८१ | अध्यात्म सवैया | १६००-१६२५ | रूपचन्दपाण्डे | अध्यात्म | हिं. |
५८२ | खटोलनागीत | - | - | (रूपक) चार कषायरूप पायों का खटोलना | हिं. |
५८३ | परमार्थगीत | - | - | अध्यात्म | हिं. |
५८४ | परमार्थ दोहा शतक | - | - | अध्यात्म | हिं. |
५८५ | स्फुटपद | - | - | भक्ति | हिं. |
५८६ | यशोधर चरित्र | १६०२ | ज्ञानकीर्ति | यथानाम | सं. |
५८७ | शब्दानुशासन | १६०४ | भट्टाकलंक | सं. शब्द कोश | सं. |
५८८ | चूड़ामणि | १६०४ | तुम्बूलाचार्य | षट्खण्ड टीका | सं. |
५८९ | भक्तामर कथा | १६१० | रायमल | यथानाम | सं. |
५९० | विमल पुराण | १६१७ | ब्र. कृष्णदास | यथानाम | सं. |
५९१ | मुनिसुव्रत पुराण | १६२४ | - | यथानाम | सं. |
५९२ | ब्रह्म विलास | १६२४-१६४३ | भगवती दास | अध्यात्म | हिं. |
५९३ | नाममाला | -१६१३ | पं. बनारसी दास | एकार्थक शब्द | हिं. |
५९४ | समयसार नाटक | -१६३६ | - | - | हिं. |
५९५ | अर्धकथानक | -१६४४ | - | अपनी आत्मकथा | हिं. |
५९६ | बनारसी विलास | -१७०१ | - | - | हिं. |
५९७ | अध्यात्मोपनिषद | १६३८-१६८८ | यशोविजय | अध्यात्म | सं. |
५९८ | अध्यात्मसार | - | (श्वे.) | अध्यात्म | सं. |
५९९ | जय विलास | - | - | पदसंग्रह | सं. |
६०० | जैन तर्क | - | - | न्याय | सं. |
६०१ | स्याद्वाद मञ्जूषा | - | - | न्याय | सं. |
६०२ | शास्त्रवार्ता समुच्चय | - | - | न्याय | सं. |
६०३ | दिग्पद चौरासी | - | - | दिगम्बरका खंडन | हिं. |
६०४ | चतुर्विंशति सन्धानकाव्य | १६४२ | पं. जगन्नाथ | २४ अर्थों वाला एक पद्य | सं. |
६०५ | श्वे. पराजय | १६४६ | - | केवलि भक्ति निराकृति | सं. |
६०६ | सुखनिधान | १६४३ | - | श्रीपालकथा | सं. |
६०७ | शीलपताका | १६९६ | महीचन्द्र | सीताकी अग्नि परीक्षा | मरा. |
१८ . ईसवी शताब्दी १८ :- | |||||
६०८ | चिद्विलास | १७२२ | पं. दीपचन्द | अध्यात्म | हिं. |
६०९ | स्वरूपसम्बोधन | - | - | अध्यात्म | हिं. |
६१० | जीवन्धर पुराण | १७२४-४४ | जिनसागर | यथानाम | हिं. |
६११ | जैन शतक | १७२४ | पं. भूधरदास | पद संग्रह | हिं. |
६१२ | पद साहित्य | १७२४-३२ | अध्यात्मपद | हिं. | |
६१३ | पार्श्वपुराण | १७३२ | यथानाम | हिं. | |
६१४ | क्रिया कोष | १७२७ | पं. किशनचंद | गृहस्थोचित क्रियायें | हिं. |
६१५ | प्रमाणप्रमेय कालिका | १७३०-३३ | नरेन्द्रसेन | न्याय | सं. |
६१६ | क्रियाकोष | १७३८ | पं. दौलतराम १ | गृहस्थोचित क्रियायें | हिं. |
६१७ | श्रीपाल चारित्र | १७२०-७२ | यथा नाम | हिं. | |
३१८ | गोमट्टसार टीका | १७१६-४० | पं. टोडरमल | कर्म सिद्धान्त | हिं. |
६१९ | लब्धिसार टी. | - | - | कर्म सिद्धान्त | हिं. |
६२० | क्षपणसार टीका | - | - | कर्म सिद्धान्त | हिं. |
६२१ | गोमट्टसार पूजा | १७३६ | - | यथानाम | हिं. |
६२२ | अर्थसंदृष्टि | १७४०-६७ | - | गो.सा. गणित | हिं. |
६२३ | रहस्यपूर्ण चिट्ठी | १७५३ | - | अध्यात्म | हिं. |
६२४ | सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका | -१७६१ | - | अध्यात्म | हिं. |
६२५ | मोक्षमार्ग प्रका. | -१७६७ | - | अध्यात्म | हिं. |
६२६ | परमानन्दविलास | १७५५-६७ | पं. देवीदयाल | पदसंग्रह | हिं. |
६२७ | दर्शन कथा | १७५६ | भारामल | यथानाम | हिं. |
६२८ | दान कथा | - | - | यथानाम | हिं. |
६२९ | निशिकथा | - | - | यथानाम | हिं. |
६३० | शील कथा | - | - | यथानाम | हिं. |
६३१ | छह ढाला | १७९८-१८६६ | पं. दौलतराम २ | ततत्वार्थ | हिं. |
१९. ईसवी शताब्दी १९ :- | |||||
६३२ | वृन्दावन विलास | १८०३-१८०८ | वृन्दावन | पद संग्रह | हिं. |
६३३ | छन्द शतक | - | - | पद संग्रह | हिं. |
६३४ | अर्हत्पासा केवली | - | - | भाग्य निर्धारिणी | हिं. |
६३५ | चौबीसी पूजा | - | - | थानाम | हिं. |
६३६ | समयसार वच. | १८०७ | जयचन्द | - | हिं. |
६३७ | अष्टपाहुड़ा वच. | १८१० | छाबड़ा | - | हिं. |
६३८ | सर्वार्थ सिद्धि वच. | १८०४ | - | - | हिं. |
६३९ | कार्तिकेया वच. | १८०६ | - | - | हिं. |
६४० | द्रव्यसंग्रह वच. | १८०६ | - | - | हिं. |
६४१ | ज्ञानार्णव वच. | १८१२ | - | - | हिं. |
६४२ | आप्तमीमांसा | १८२९ | - | - | हिं. |
६४३ | भक्तामर कथा | १८१३ | - | - | हिं. |
६४४ | तत्त्वार्थ बोध | १८१४ | पं. बुधजन | तत्त्वार्थ | हिं. |
६४५ | सतसई | १८२२ | - | अध्यात्मपद | हिं. |
६४६ | बुधजन विलास | १८३५ | - | अध्यात्मपाद | हिं. |
६४७ | सप्तव्यसन चारित्र | १८५०-१८९० | मनरंगलाल | यथानाम | हिं. |
६४८ | सप्तर्षि पूजा | - | - | यथानाम | हिं. |
६४९ | सम्मेदाचल माहात्म्य | - | - | यथानाम | हिं. |
६५० | चौबीसी पूजा | - | - | यथानाम | हिं. |
६५१ | महावीराष्टक | - | पं. भागचन्द | स्तोत्र | हिं. |