उत्तरप्रतिपत्ति: Difference between revisions
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<p> धवला पुस्तक 5/1,6,37/32/9 उत्तरमणुज्जुवं आइरियपरंपराएणागदमिदि एयट्ठो।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 5/1,6,37/32/9 उत्तरमणुज्जुवं आइरियपरंपराएणागदमिदि एयट्ठो।</p> | ||
<p>= उत्तर, अनृजु और आचार्य परम्परासे अनागत ये तीनों एकार्थवाची हैं।</p> | <p class="HindiText">= उत्तर, अनृजु और आचार्य परम्परासे अनागत ये तीनों एकार्थवाची हैं।</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 1/प्र. 57 (H.L.Jain) आगममें आचार्य परम्परागत उपदेशोंसे बाहरकी जिन श्रुतियोंका उल्लेख मिलता है वह अनृजु होनेके कारणसे उत्तर प्रतिपत्ति कही गयी है। धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी इसको प्रधानता नहीं देते थे।</p> | <p> धवला पुस्तक 1/प्र. 57 (H.L.Jain) आगममें आचार्य परम्परागत उपदेशोंसे बाहरकी जिन श्रुतियोंका उल्लेख मिलता है वह अनृजु होनेके कारणसे उत्तर प्रतिपत्ति कही गयी है। धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी इसको प्रधानता नहीं देते थे।</p> | ||
<p>( धवला पुस्तक 3 प्र. 15 H. L. Jain)</p> | <p>( धवला पुस्तक 3 प्र. 15 H. L. Jain)</p> | ||
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Revision as of 13:48, 10 July 2020
धवला पुस्तक 5/1,6,37/32/9 उत्तरमणुज्जुवं आइरियपरंपराएणागदमिदि एयट्ठो।
= उत्तर, अनृजु और आचार्य परम्परासे अनागत ये तीनों एकार्थवाची हैं।
धवला पुस्तक 1/प्र. 57 (H.L.Jain) आगममें आचार्य परम्परागत उपदेशोंसे बाहरकी जिन श्रुतियोंका उल्लेख मिलता है वह अनृजु होनेके कारणसे उत्तर प्रतिपत्ति कही गयी है। धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी इसको प्रधानता नहीं देते थे।
( धवला पुस्तक 3 प्र. 15 H. L. Jain)