उपदेश: Difference between revisions
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<p>1. उपदेश सामान्य निर्देश</p> | <p>1. उपदेश सामान्य निर्देश</p> | ||
<p>1. धर्मोपदेशका लक्षण</p> | <p>1. धर्मोपदेशका लक्षण</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/25/443/5 धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेशम्।</p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/25/443/5 धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेशम्।</p> | ||
<p>= धर्मकथा आदिका अनुष्ठान करना धर्मोपदेश है।</p> | <p class="HindiText">= धर्मकथा आदिका अनुष्ठान करना धर्मोपदेश है।</p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 9/25/5/624/19); ( चारित्रसार पृष्ठ 153/5); ( तत्त्वार्थसार अधिकार 7/19); ( अनगार धर्मामृत अधिकार 7/87/716)</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 9/25/5/624/19); ( चारित्रसार पृष्ठ 153/5); ( तत्त्वार्थसार अधिकार 7/19); ( अनगार धर्मामृत अधिकार 7/87/716)</p> | ||
<p>2. मिथ्योपदेशका लक्षण</p> | <p>2. मिथ्योपदेशका लक्षण</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/26/366/7 अभ्युदयनिःश्रेयसार्थेषु क्रियाविशेषेषु अन्यस्य न्यथाप्रवर्त्तनमत्सिन्धापनं वा मिथ्योपदेशः।</p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/26/366/7 अभ्युदयनिःश्रेयसार्थेषु क्रियाविशेषेषु अन्यस्य न्यथाप्रवर्त्तनमत्सिन्धापनं वा मिथ्योपदेशः।</p> | ||
<p>= अभ्युदय और मोक्षकी कारण भूत क्रियाओंमें किसी दूसरेको विपरीत मार्गसे लगा देना, या मिथ्या वचनों-द्वारा दूसरोंको ठगना मिथ्योपदेश है।</p> | <p class="HindiText">= अभ्युदय और मोक्षकी कारण भूत क्रियाओंमें किसी दूसरेको विपरीत मार्गसे लगा देना, या मिथ्या वचनों-द्वारा दूसरोंको ठगना मिथ्योपदेश है।</p> | ||
<p>3. निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकारके उपदेशोंका निर्देश</p> | <p>3. निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकारके उपदेशोंका निर्देश</p> | ||
<p> मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 16,60 परदव्वादो दुग्गई सद्दव्वादो हु सुग्गई हवइ। इय णाऊणसदव्वे कुणहरई विरइ इयरम्मि ।16। धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं। णाऊण धुवं कुज्जा तवयरण णाणजुत्तो वि ।60।</p> | <p class="SanskritText">मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 16,60 परदव्वादो दुग्गई सद्दव्वादो हु सुग्गई हवइ। इय णाऊणसदव्वे कुणहरई विरइ इयरम्मि ।16। धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं। णाऊण धुवं कुज्जा तवयरण णाणजुत्तो वि ।60।</p> | ||
<p>= परद्रव्यसे दुर्गति होती है जैसे स्वद्रव्यसे सुगति होती है, ऐसा जानकर हे भव्यजीवो! तुम स्वद्रव्यमें रति करो और परद्रव्यसे विरक्त हो ।16। देखो जिसको नियमसे मोक्ष होना है और चार ज्ञानके जो धारी हैं ऐसे तीर्थंकर भी तपश्चरण करते हैं ऐसा निश्चय करके तप करना योग्य है ।60।</p> | <p class="HindiText">= परद्रव्यसे दुर्गति होती है जैसे स्वद्रव्यसे सुगति होती है, ऐसा जानकर हे भव्यजीवो! तुम स्वद्रव्यमें रति करो और परद्रव्यसे विरक्त हो ।16। देखो जिसको नियमसे मोक्ष होना है और चार ज्ञानके जो धारी हैं ऐसे तीर्थंकर भी तपश्चरण करते हैं ऐसा निश्चय करके तप करना योग्य है ।60।</p> | ||
<p> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 653 न निषिद्धः स आदेशो नोपदेशो निषेधितः। नूनं सत्पात्रदानेषु पूजायामर्हतामपि ।653।</p> | <p class="SanskritText">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 653 न निषिद्धः स आदेशो नोपदेशो निषेधितः। नूनं सत्पात्रदानेषु पूजायामर्हतामपि ।653।</p> | ||
<p>= निश्चय करके सत्पात्रोंको दान देनेके विषयमें और अर्हंतोंकी पूजाके विषयमें न तो वह आदेश निषिद्ध है तथा न वह उपदेश ही निषिद्ध है।</p> | <p class="HindiText">= निश्चय करके सत्पात्रोंको दान देनेके विषयमें और अर्हंतोंकी पूजाके विषयमें न तो वह आदेश निषिद्ध है तथा न वह उपदेश ही निषिद्ध है।</p> | ||
<p>2. योग्यायोग्य उपदेश निर्देश</p> | <p>2. योग्यायोग्य उपदेश निर्देश</p> | ||
<p>1. परमार्थ सत्यका उपदेश असम्भव है </p> | <p>1. परमार्थ सत्यका उपदेश असम्भव है </p> | ||
<p> समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 19,59 यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान् प्रतिपादये। उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ।19। यद्बोधयितुमिच्छामि तन्नाहं तदहं पुनः। ग्राह्य तदपि नान्यस्य तत्किमन्यस्य बोधये ।59।</p> | <p class="SanskritText">समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 19,59 यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान् प्रतिपादये। उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ।19। यद्बोधयितुमिच्छामि तन्नाहं तदहं पुनः। ग्राह्य तदपि नान्यस्य तत्किमन्यस्य बोधये ।59।</p> | ||
<p>= मैं उपध्यायों आदिकोंसे जो कुछ प्रतिपादित किया जाता हूँ तथा शिष्यादिकोंको कुछ जो प्रतिपादन करता हूँ वह सब मेरी पागलों जैसी चेष्टा है, क्योंकि, मैं वास्तवमें इन सभी वचनविकल्पोंसे अग्राह्य हूँ ।19। जिस विकल्पाधिरूढ़ आत्मस्वरूपको अथवा देहादिकको समझाने-बुझानेकी मैं इच्छा करता हूँ, वह मैं नहीं हूँ, और जो ज्ञानानन्दमय स्वयं अनुभवगम्य आत्मस्वरूप मैं हूँ, वह भी दूसरे जीवोंके उपदेश-द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है, क्योंकि केवल स्वसंवेदगम्य है। इसलिए दूसरे जीवोंको मैं क्या समझाऊँ ।59।</p> | <p class="HindiText">= मैं उपध्यायों आदिकोंसे जो कुछ प्रतिपादित किया जाता हूँ तथा शिष्यादिकोंको कुछ जो प्रतिपादन करता हूँ वह सब मेरी पागलों जैसी चेष्टा है, क्योंकि, मैं वास्तवमें इन सभी वचनविकल्पोंसे अग्राह्य हूँ ।19। जिस विकल्पाधिरूढ़ आत्मस्वरूपको अथवा देहादिकको समझाने-बुझानेकी मैं इच्छा करता हूँ, वह मैं नहीं हूँ, और जो ज्ञानानन्दमय स्वयं अनुभवगम्य आत्मस्वरूप मैं हूँ, वह भी दूसरे जीवोंके उपदेश-द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है, क्योंकि केवल स्वसंवेदगम्य है। इसलिए दूसरे जीवोंको मैं क्या समझाऊँ ।59।</p> | ||
<p>2. पहले मुनिधर्मका और पीछे गृहस्थधर्मका उपदेश दिया जाता है</p> | <p>2. पहले मुनिधर्मका और पीछे गृहस्थधर्मका उपदेश दिया जाता है</p> | ||
<p> पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 17-19 बहुशः समस्तविरतिं प्रदर्शितां यो न जातु गृह्णाति। तस्यैकदेशविरतिः कथनीयानेन बीजेन ।17। यो यतिधर्मकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः। तस्य भगवत्यप्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ।18। अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः। अपदेऽपि संप्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ।19।</p> | <p class="SanskritText">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 17-19 बहुशः समस्तविरतिं प्रदर्शितां यो न जातु गृह्णाति। तस्यैकदेशविरतिः कथनीयानेन बीजेन ।17। यो यतिधर्मकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः। तस्य भगवत्यप्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ।18। अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः। अपदेऽपि संप्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ।19।</p> | ||
<p>= जो जीव बारम्बार दिखलायी हुई समस्त पापरहित मुनिवृत्तिको कदाचित् ग्रहण न करे तो उसे एकदेश पाप क्रिया रहित गृहस्थाचार इस हेतुसे समझावे अर्थात् कथन करे ।17। जो तुच्छ बुद्धि उपदेशक, मुनिधर्मको नहीं कह करके श्रावक धर्मका उपदेश देता है उस उपदेशकको भगवत्के सिद्धान्तमें दण्ड देनेका स्थान प्रदर्शित किया है ।18। जिस कारणसे उस दुर्बुद्धिके क्रमभंग कथनरूप उपदेश करनेसे अत्यन्त दूर तक उत्साहमान हुआ भी शिष्य तुच्छस्थानमें सन्तुष्ट होकर ठगाया हुआ होता है ।19।</p> | <p class="HindiText">= जो जीव बारम्बार दिखलायी हुई समस्त पापरहित मुनिवृत्तिको कदाचित् ग्रहण न करे तो उसे एकदेश पाप क्रिया रहित गृहस्थाचार इस हेतुसे समझावे अर्थात् कथन करे ।17। जो तुच्छ बुद्धि उपदेशक, मुनिधर्मको नहीं कह करके श्रावक धर्मका उपदेश देता है उस उपदेशकको भगवत्के सिद्धान्तमें दण्ड देनेका स्थान प्रदर्शित किया है ।18। जिस कारणसे उस दुर्बुद्धिके क्रमभंग कथनरूप उपदेश करनेसे अत्यन्त दूर तक उत्साहमान हुआ भी शिष्य तुच्छस्थानमें सन्तुष्ट होकर ठगाया हुआ होता है ।19।</p> | ||
<p>3. अयोग्य उपदेशका निषेध</p> | <p>3. अयोग्य उपदेशका निषेध</p> | ||
<p> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 654 यद्वादेशपदेशौ स्तो तौ द्वौ निरवद्यकर्मणि। यत्र सावद्यलेशोऽस्ति तत्रादेशो न जातुचित् ।654।</p> | <p class="SanskritText">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 654 यद्वादेशपदेशौ स्तो तौ द्वौ निरवद्यकर्मणि। यत्र सावद्यलेशोऽस्ति तत्रादेशो न जातुचित् ।654।</p> | ||
<p>= वे आदेश और उपदेश दोनों ही निर्दोष क्रियाओंमें ही होते हैं, किन्तु जहाँपर पापकी थोड़ी-सी भी सम्भावना है वहाँपर कभी भी आदेशकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है।</p> | <p class="HindiText">= वे आदेश और उपदेश दोनों ही निर्दोष क्रियाओंमें ही होते हैं, किन्तु जहाँपर पापकी थोड़ी-सी भी सम्भावना है वहाँपर कभी भी आदेशकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है।</p> | ||
<p>4. ख्याति लाभ आदिकी भावनाओंसे निरपेक्ष ही उपदेश हितकारी होता है</p> | <p>4. ख्याति लाभ आदिकी भावनाओंसे निरपेक्ष ही उपदेश हितकारी होता है</p> | ||
<p>राजवार्तिक अध्याय 9/25/5/624/18 दृष्टप्रयोजनपरित्यागादुन्मार्ग निवर्तनार्थं संदेहव्यावर्त्तनापूर्वपदार्थं प्रकाशनार्थं धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेश इत्याख्ययते।</p> | <p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 9/25/5/624/18 दृष्टप्रयोजनपरित्यागादुन्मार्ग निवर्तनार्थं संदेहव्यावर्त्तनापूर्वपदार्थं प्रकाशनार्थं धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेश इत्याख्ययते।</p> | ||
<p>= लौकिक ख्याति लाभ आदि फलकी आकांक्षाके बिना, उन्मार्गकी निवृत्तिके लिए तथा सन्देहकी व्यावृत्ति और अपूर्व अर्थात् अपरिचित पदार्थके प्रकाशनके लिए धर्मकथा करना धर्मोपदेश है।</p> | <p class="HindiText">= लौकिक ख्याति लाभ आदि फलकी आकांक्षाके बिना, उन्मार्गकी निवृत्तिके लिए तथा सन्देहकी व्यावृत्ति और अपूर्व अर्थात् अपरिचित पदार्थके प्रकाशनके लिए धर्मकथा करना धर्मोपदेश है।</p> | ||
<p>( चारित्रसार पृष्ठ 153/4)</p> | <p>( चारित्रसार पृष्ठ 153/4)</p> | ||
<p>3. वक्ता व श्रोता विचार</p> | <p>3. वक्ता व श्रोता विचार</p> | ||
<p>1. श्रोताकी रुचिसे निरपेक्ष सत्यका उपदेश देना योग्य है</p> | <p>1. श्रोताकी रुचिसे निरपेक्ष सत्यका उपदेश देना योग्य है</p> | ||
<p> भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 483 आदट्ठमेव चिंतेदुमुट्ठिदा जे परट्ठमवि लोए। कडुय फरुसेहिं साहेंति ते हु अदिदुल्लहा लोए ।483। </p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 483 आदट्ठमेव चिंतेदुमुट्ठिदा जे परट्ठमवि लोए। कडुय फरुसेहिं साहेंति ते हु अदिदुल्लहा लोए ।483। </p> | ||
<p>= जो पुरुष आत्महित करनेके लिए कटिबद्ध होकर आत्महितके साथ कटु व कठोर वचन बोलकर परहित भी साधते हैं, वे जगत्में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= जो पुरुष आत्महित करनेके लिए कटिबद्ध होकर आत्महितके साथ कटु व कठोर वचन बोलकर परहित भी साधते हैं, वे जगत्में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/33/144 विरोध होता है तो होने दो। यहाँ तत्त्वकी मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ रोगीकी इच्छाका अनुकरण करनेवाली नहीं होती है।</p> | <p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/33/144 विरोध होता है तो होने दो। यहाँ तत्त्वकी मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ रोगीकी इच्छाका अनुकरण करनेवाली नहीं होती है।</p> | ||
<p>(देखें [[ आगम#3 | आगम - 3]]/4/3)</p> | <p>(देखें [[ आगम#3 | आगम - 3]]/4/3)</p> | ||
<p> पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 100 हेतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम्। हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ।100।</p> | <p class="SanskritText">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 100 हेतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम्। हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ।100।</p> | ||
<p>= समस्त ही अनृत वचनोंका प्रमादसहित योग हेतु निर्दिष्ट होनेसे हेय उपादेयादि अनुष्ठानोंका कहना झूठ नहीं होता।</p> | <p class="HindiText">= समस्त ही अनृत वचनोंका प्रमादसहित योग हेतु निर्दिष्ट होनेसे हेय उपादेयादि अनुष्ठानोंका कहना झूठ नहीं होता।</p> | ||
<p> स्याद्वादमंजरी श्लोक 3/15/19 ननु यदि च पारमेश्वरे वचसि तेषामविवेकातिरेकादरोचकता, तत्किमर्थं तान् प्रत्युपदेशक्लेश इति। नैवम्। परोपकारसारप्रवृत्तीनां महात्मनां प्रतिपाद्यगतां रुचिमरुचिं वानपेक्ष्य हितोपदेशप्रवृत्तिदर्शनात्; तेषां हि परार्थस्यैव स्वार्थत्वेनाभिमतत्वात्; न च हितोपदेशादपरः पारमार्थिकः परार्थः। तथा चार्षम्-"रूसउ वा परो मा वा, विंस वा परियत्तऊ। भासियव्वा हिया भासा सपक्खगुणकारिया॥"</p> | <p class="SanskritText">स्याद्वादमंजरी श्लोक 3/15/19 ननु यदि च पारमेश्वरे वचसि तेषामविवेकातिरेकादरोचकता, तत्किमर्थं तान् प्रत्युपदेशक्लेश इति। नैवम्। परोपकारसारप्रवृत्तीनां महात्मनां प्रतिपाद्यगतां रुचिमरुचिं वानपेक्ष्य हितोपदेशप्रवृत्तिदर्शनात्; तेषां हि परार्थस्यैव स्वार्थत्वेनाभिमतत्वात्; न च हितोपदेशादपरः पारमार्थिकः परार्थः। तथा चार्षम्-"रूसउ वा परो मा वा, विंस वा परियत्तऊ। भासियव्वा हिया भासा सपक्खगुणकारिया॥"</p> | ||
<p>= प्रश्न-यदि अविवेककी प्रचुरतासे किसीको जिनेन्द्र भगवान्के वचनोंमें रुचि नहीं होती, तो आप उसे क्यों उपदेश देनेका परिश्रम उठाते हैं? उत्तर-यह बात नहीं है, परोपकार स्वभाववाले महात्मा पुरुष किसी पुरुषकी रुचि और अरुचिको न देखकर हितका उपदेश करते हैं। क्योंकि महात्मा लोग दूसरेके उपकारको ही अपना उपकार समझते हैं। हितका उपदेश देनेके समान दूसरा कोई पारमार्थिक उपकार नहीं है। ऋषियोंने कहा है-"उपदेश दिया जानेवाला पुरुष चाहे रोष करे, चाहे वह उपदेशको विषरूप समझे, परन्तु हितरूप वचन अवश्य कहने चाहिए।"</p> | <p class="HindiText">= प्रश्न-यदि अविवेककी प्रचुरतासे किसीको जिनेन्द्र भगवान्के वचनोंमें रुचि नहीं होती, तो आप उसे क्यों उपदेश देनेका परिश्रम उठाते हैं? उत्तर-यह बात नहीं है, परोपकार स्वभाववाले महात्मा पुरुष किसी पुरुषकी रुचि और अरुचिको न देखकर हितका उपदेश करते हैं। क्योंकि महात्मा लोग दूसरेके उपकारको ही अपना उपकार समझते हैं। हितका उपदेश देनेके समान दूसरा कोई पारमार्थिक उपकार नहीं है। ऋषियोंने कहा है-"उपदेश दिया जानेवाला पुरुष चाहे रोष करे, चाहे वह उपदेशको विषरूप समझे, परन्तु हितरूप वचन अवश्य कहने चाहिए।"</p> | ||
<p>2. उपदेश श्रोताकी योग्यता व रुचिके अनुसार देना चाहिए</p> | <p>2. उपदेश श्रोताकी योग्यता व रुचिके अनुसार देना चाहिए</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 1/1,1,69/311/1 द्विरस्ति-शब्दोपादानमनर्थकमिति चेन्न, विस्तररुचिसत्त्वानुग्रहार्थत्वात्। संक्षेपरुचयो नानुग्रहीताश्चेन्न, विस्तररुचिसत्त्वानुग्रहस्य संक्षेपरुचिसत्त्वानुग्रहाविनाभावित्वात्।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,69/311/1 द्विरस्ति-शब्दोपादानमनर्थकमिति चेन्न, विस्तररुचिसत्त्वानुग्रहार्थत्वात्। संक्षेपरुचयो नानुग्रहीताश्चेन्न, विस्तररुचिसत्त्वानुग्रहस्य संक्षेपरुचिसत्त्वानुग्रहाविनाभावित्वात्।</p> | ||
<p>= प्रश्न सूत्रमें दो बार `अस्ति' शब्दका ग्रहण निरर्थक है? उत्तर-नहीं; क्योंकि विस्तारसे समझनेकी रुचिवाले शिष्योंके अनुग्रहके लिए सूत्रमें दो बार `अस्ति' पदका ग्रहण किया है। प्रश्न-तो इस सूत्रमें संक्षेपसे समझनेकी रुचि रखनेवाले शिष्य अनुगृहीत नहीं किये गये? उत्तर-नहीं, क्योंकि, संक्षेपसे समझनेकी रुचि रखनेवाले जीवोंका अनुग्रह विस्तारसे समझनेकी रुचि रखनेवाले जीवोंके अनुग्रहका अविनाभावी है। अर्थात् विस्तारसे कथन कर देनेपर संक्षेपरुचि शिष्योंका काम चल ही जाता है।</p> | <p class="HindiText">= प्रश्न सूत्रमें दो बार `अस्ति' शब्दका ग्रहण निरर्थक है? उत्तर-नहीं; क्योंकि विस्तारसे समझनेकी रुचिवाले शिष्योंके अनुग्रहके लिए सूत्रमें दो बार `अस्ति' पदका ग्रहण किया है। प्रश्न-तो इस सूत्रमें संक्षेपसे समझनेकी रुचि रखनेवाले शिष्य अनुगृहीत नहीं किये गये? उत्तर-नहीं, क्योंकि, संक्षेपसे समझनेकी रुचि रखनेवाले जीवोंका अनुग्रह विस्तारसे समझनेकी रुचि रखनेवाले जीवोंके अनुग्रहका अविनाभावी है। अर्थात् विस्तारसे कथन कर देनेपर संक्षेपरुचि शिष्योंका काम चल ही जाता है।</p> | ||
<p>( धवला पुस्तक 1/1,1,5/153/7 तथा अन्यत्र भी अनेकों स्थलों पर)</p> | <p>( धवला पुस्तक 1/1,1,5/153/7 तथा अन्यत्र भी अनेकों स्थलों पर)</p> | ||
<p | <p> महापुराण सर्ग संख्या 1/137 इति धर्मकथाङ्गत्वादर्थाक्षिप्तां चतुष्टयीम्। कथा यथार्हं श्रोतृभ्य; कथकः प्रतिपादयेत् ।137। इस प्रकार धर्मकथाके अङ्गभूत आक्षेपिणी विक्षेपिणी संवेदिनी और निर्वेदिनी रूप चार कथाओंको विचारकर श्रोताकी योग्यतानुसार वक्ताको कथन करना चाहिए।</p> | ||
<p> न्यायदीपिका अधिकार 3/$36 वीतरागकथायां तु प्रतिपाद्यानुशयारोधेन प्रतिज्ञाहेतू द्वाववयवौ; प्रतिज्ञाहेतूदाहरणानि त्रयः; प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयाश्चत्वारः; प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि वा पञ्चेति यथायोगप्रयोगपरिपाटी। तदुक्तं कुमारनन्दिभट्टारकैः-"प्रयोगपरिपाटी प्रतिपाद्यानुरोधतः।</p> | <p class="SanskritText">न्यायदीपिका अधिकार 3/$36 वीतरागकथायां तु प्रतिपाद्यानुशयारोधेन प्रतिज्ञाहेतू द्वाववयवौ; प्रतिज्ञाहेतूदाहरणानि त्रयः; प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयाश्चत्वारः; प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि वा पञ्चेति यथायोगप्रयोगपरिपाटी। तदुक्तं कुमारनन्दिभट्टारकैः-"प्रयोगपरिपाटी प्रतिपाद्यानुरोधतः।</p> | ||
<p>= वीतराग कथामें तो शिष्योंके आशयानुसार प्रतिज्ञा और हेतु ये दो भी अवयव होते हैं; प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण ये तीन भी होते हैं; प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण और उपनय ये चार भी होते हैं; प्रतिज्ञा हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पाँच भी होते हैं। इस तरह यथायोग्य रूपसे प्रयोगकी यह व्यवस्था है। इसी बातको श्री कुमारनन्दि भट्टारकने वादन्याय में कहा है:</p> | <p class="HindiText">= वीतराग कथामें तो शिष्योंके आशयानुसार प्रतिज्ञा और हेतु ये दो भी अवयव होते हैं; प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण ये तीन भी होते हैं; प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण और उपनय ये चार भी होते हैं; प्रतिज्ञा हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पाँच भी होते हैं। इस तरह यथायोग्य रूपसे प्रयोगकी यह व्यवस्था है। इसी बातको श्री कुमारनन्दि भट्टारकने वादन्याय में कहा है:</p> | ||
<p>प्रयोगोंके बोलनेकी यह व्यवस्था प्रतिपाद्यों (श्रोताओं) के अभिप्रायानुसार करनी चाहिए। जो जितने अवयवोंसे समझ सके उतने अवयवोंका प्रयोग करना चाहिए।</p> | <p>प्रयोगोंके बोलनेकी यह व्यवस्था प्रतिपाद्यों (श्रोताओं) के अभिप्रायानुसार करनी चाहिए। जो जितने अवयवोंसे समझ सके उतने अवयवोंका प्रयोग करना चाहिए।</p> | ||
<p>3. ज्ञान अपात्रको नहीं देना चाहिए</p> | <p>3. ज्ञान अपात्रको नहीं देना चाहिए</p> | ||
<p> कुरल काव्य परिच्छेद 72/4,9,10 ज्ञानचर्चा तु कर्त्तव्या विदुषामेव संसदि। मौर्ख्ये च दृष्टिमाधाय वक्तव्यं मूर्खमण्डले ।4। व्याख्यानेन यशोलिप्सो श्रुत्वेदं स्वावधार्यताम्। विस्मृत्याग्रे न वक्तव्यं व्याख्यानं हतचेतसाम् ।9। विरुद्धानां पुरस्तात्तु भाषणं विद्यते तथा। मालिन्यदूषिते देशे यथा पीयूषपातनम् ।10।</p> | <p class="SanskritText">कुरल काव्य परिच्छेद 72/4,9,10 ज्ञानचर्चा तु कर्त्तव्या विदुषामेव संसदि। मौर्ख्ये च दृष्टिमाधाय वक्तव्यं मूर्खमण्डले ।4। व्याख्यानेन यशोलिप्सो श्रुत्वेदं स्वावधार्यताम्। विस्मृत्याग्रे न वक्तव्यं व्याख्यानं हतचेतसाम् ।9। विरुद्धानां पुरस्तात्तु भाषणं विद्यते तथा। मालिन्यदूषिते देशे यथा पीयूषपातनम् ।10।</p> | ||
<p>= बुद्धिमान् और विद्वान् लोगोंकी सभामें ही ज्ञान और विद्वत्ताकी चर्चा करो, किन्तु मूर्खोंको उनकी मूर्खताका ध्यान रखकर ही उत्तर दो ।4। ऐ वक्तृता से विद्वानोंको प्रसन्न करनेकी इच्छावाले लोगो! देखो, कभी भूलकर भी मूर्खोंके सामने व्याख्यान न देना ।9। अपनेसे मतभेद रखनेवाले व्यक्तियोंके समक्ष भाषण करना ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार अमृतको मलिन स्थानपर डाल देना ।10।</p> | <p class="HindiText">= बुद्धिमान् और विद्वान् लोगोंकी सभामें ही ज्ञान और विद्वत्ताकी चर्चा करो, किन्तु मूर्खोंको उनकी मूर्खताका ध्यान रखकर ही उत्तर दो ।4। ऐ वक्तृता से विद्वानोंको प्रसन्न करनेकी इच्छावाले लोगो! देखो, कभी भूलकर भी मूर्खोंके सामने व्याख्यान न देना ।9। अपनेसे मतभेद रखनेवाले व्यक्तियोंके समक्ष भाषण करना ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार अमृतको मलिन स्थानपर डाल देना ।10।</p> | ||
<p> समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 58 अज्ञापितं न जानन्ति यथा मां ज्ञापितं तथा। मूढात्मानस्ततस्तेषां वृथा मे ज्ञापनश्रमः ।58।</p> | <p class="SanskritText">समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 58 अज्ञापितं न जानन्ति यथा मां ज्ञापितं तथा। मूढात्मानस्ततस्तेषां वृथा मे ज्ञापनश्रमः ।58।</p> | ||
<p>= स्वात्मानुभवमग्न अन्तरात्मा विचारता है, कि जैसे ये मूर्ख अज्ञानी जीव बिना बताये हुए मेरे आत्मस्वरूपको नहीं जानते हैं, वैसे ही बतलाये जानेपर भी नहीं जानते हैं। इस लिए उन मूढ़ पुरुषोंको मेरा बतलानेका परिश्रम व्यर्थ है-निष्फल है। प्रायो मूर्खस्य कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम्। निर्लूननासिकस्येव विशुद्धादर्शदर्शनम्।</p> | <p class="SanskritText"><p class="HindiText">= स्वात्मानुभवमग्न अन्तरात्मा विचारता है, कि जैसे ये मूर्ख अज्ञानी जीव बिना बताये हुए मेरे आत्मस्वरूपको नहीं जानते हैं, वैसे ही बतलाये जानेपर भी नहीं जानते हैं। इस लिए उन मूढ़ पुरुषोंको मेरा बतलानेका परिश्रम व्यर्थ है-निष्फल है। प्रायो मूर्खस्य कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम्। निर्लूननासिकस्येव विशुद्धादर्शदर्शनम्।</p> | ||
<p>= प्रायः करके सन्मार्गका उपदेश मूर्खजनोंके लिए कोपका कारण होता है। जिस प्रकार कि नकटे व्यक्तिको यदि दर्पण दिखाया जाये तो उसे क्रोध आता है।</p> | <p class="HindiText">= प्रायः करके सन्मार्गका उपदेश मूर्खजनोंके लिए कोपका कारण होता है। जिस प्रकार कि नकटे व्यक्तिको यदि दर्पण दिखाया जाये तो उसे क्रोध आता है।</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 1/1,1,1/62-63/68 सेलघण-भग्गघड-अहिचालणि-महिसाविजाहय-सुएहि। मट्टिय-मसय-समाणं वक्खाणइ जो सुदं मोहा ।62। धद-गारवपडिबद्धो विसयामिस-विस-वसेण-घुम्मंतो। सो भट्टबोहिलाहो भमइ चिरं भव वणे मूढो ।63।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,1/62-63/68 सेलघण-भग्गघड-अहिचालणि-महिसाविजाहय-सुएहि। मट्टिय-मसय-समाणं वक्खाणइ जो सुदं मोहा ।62। धद-गारवपडिबद्धो विसयामिस-विस-वसेण-घुम्मंतो। सो भट्टबोहिलाहो भमइ चिरं भव वणे मूढो ।63।</p> | ||
<p>= शैलघन, भग्नघट, सर्प, चालनी, महिष, मेढ़ा, जोंक, शुक, माटी और मशक (मच्छर) के समान श्रोताओंको (देखो `श्रोता') जो मोहसे श्रुतका व्याख्यान करता है, वह मूढ़ रसगारवके आधीन होकर विषयोंकी लोलुपतारूपी विषके वशसे मूर्च्छित हो, बोधि अर्थात् रत्नत्रयकी प्राप्तिसे भ्रष्ट होकर भव वनमें चिरकाल तक परिभ्रमण करता है ।62-63।</p> | <p class="HindiText">= शैलघन, भग्नघट, सर्प, चालनी, महिष, मेढ़ा, जोंक, शुक, माटी और मशक (मच्छर) के समान श्रोताओंको (देखो `श्रोता') जो मोहसे श्रुतका व्याख्यान करता है, वह मूढ़ रसगारवके आधीन होकर विषयोंकी लोलुपतारूपी विषके वशसे मूर्च्छित हो, बोधि अर्थात् रत्नत्रयकी प्राप्तिसे भ्रष्ट होकर भव वनमें चिरकाल तक परिभ्रमण करता है ।62-63।</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 12/4,2,13,96/4/414 बुद्धिविहीने श्रोतरि वक्तृत्वमनर्थकं भवति पुंसाम्। नेत्रविहीने भर्त्तरि विलासलावण्यवत्स्त्रीणाम् ।4।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 12/4,2,13,96/4/414 बुद्धिविहीने श्रोतरि वक्तृत्वमनर्थकं भवति पुंसाम्। नेत्रविहीने भर्त्तरि विलासलावण्यवत्स्त्रीणाम् ।4।</p> | ||
<p>= जिस प्रकार पतिके अन्धे होनेपर स्त्रियोंका विलास व सुन्दरता व्यर्थ (निष्फल) है, उसी प्रकार श्रोताके मूर्ख होनेपर पुरुषोंका वक्तापना भी व्यर्थ है ।4।</p> | <p class="HindiText">= जिस प्रकार पतिके अन्धे होनेपर स्त्रियोंका विलास व सुन्दरता व्यर्थ (निष्फल) है, उसी प्रकार श्रोताके मूर्ख होनेपर पुरुषोंका वक्तापना भी व्यर्थ है ।4।</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 1/1,1,1/70/1 इदि वयणादी जहाछंदाईणं विज्जादाणं संसार-भयबद्धणमिदि चिंतिऊण......धरसेणभयवदा पुणरवि ताणं परिक्खा काउमाढक्तां।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,1/70/1 इदि वयणादी जहाछंदाईणं विज्जादाणं संसार-भयबद्धणमिदि चिंतिऊण......धरसेणभयवदा पुणरवि ताणं परिक्खा काउमाढक्तां।</p> | ||
<p>= `यथाच्छन्द श्रोताओंको विद्या देना संसार और भयका ही बढ़ानेवाला है' ऐसा विचार कर ही धरसेन भट्टारकने उन आये हुए दो साधुओंकी फिरसे परीक्षा लेनेका निश्चय किया।</p> | <p class="HindiText">= `यथाच्छन्द श्रोताओंको विद्या देना संसार और भयका ही बढ़ानेवाला है' ऐसा विचार कर ही धरसेन भट्टारकने उन आये हुए दो साधुओंकी फिरसे परीक्षा लेनेका निश्चय किया।</p> | ||
<p> कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,11-12/$138/171/4 `सुण' यद (इदि) सिस्ससंभालणवयणं अपडिबद्धस्स सिस्सस्स वक्खाणं णिरत्थयमिदि जाणावणट्ठं भणिदं।</p> | <p class="SanskritText">कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,11-12/$138/171/4 `सुण' यद (इदि) सिस्ससंभालणवयणं अपडिबद्धस्स सिस्सस्स वक्खाणं णिरत्थयमिदि जाणावणट्ठं भणिदं।</p> | ||
<p>= `नासमझ शिष्योंको व्याख्यान करना निरर्थक है' यह बात बतलानेके लिए ही सूत्रमें `सुनो' इस पदका ग्रहण किया गया है।</p> | <p class="HindiText">= `नासमझ शिष्योंको व्याख्यान करना निरर्थक है' यह बात बतलानेके लिए ही सूत्रमें `सुनो' इस पदका ग्रहण किया गया है।</p> | ||
<p> अमितगति श्रावकाचार अधिकार 8/25 अयोग्यस्य वचो जैनं जायतेऽनर्थहेतवे। यतस्ततः प्रयत्नेन मृग्यो योग्यो मनीषिभिः ।25।</p> | <p class="SanskritText">अमितगति श्रावकाचार अधिकार 8/25 अयोग्यस्य वचो जैनं जायतेऽनर्थहेतवे। यतस्ततः प्रयत्नेन मृग्यो योग्यो मनीषिभिः ।25।</p> | ||
<p>= अयोग्य पुरुषके जिनेन्द्रका वचन अनर्थनिमित्त होता है, इसलिए पण्डितोंको योग्य पुरुषोंकी खोज करनी चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= अयोग्य पुरुषके जिनेन्द्रका वचन अनर्थनिमित्त होता है, इसलिए पण्डितोंको योग्य पुरुषोंकी खोज करनी चाहिए।</p> | ||
<p> अनगार धर्मामृत अधिकार 1/13,17,20 बहुशोऽप्युपदेशः स्यान्न मन्दस्यार्थसंविदे। भवति ह्यन्धपाषाणः केनोपायेन काञ्चनम् ।13। अव्युत्पन्नमनुप्रविश्य तदभिप्रायं प्रलोभ्याप्यलं, कारुण्यात्प्रतिपादयन्ति सुधियो सदा शर्मदम्। संदिग्धं पुनरन्तमेत्य विनयात्पृच्छन्तमिच्छावशान्न व्युत्पन्नविपर्ययाकुलमतो व्युत्पत्त्यनर्थित्वतः ।17। यो यद्विजानाति स तत्र शिष्यो यो वा तद्वेष्टि स तन्न लभ्यः। को दीपयेद्धामनिधिं हि दोपैः कः पूरयेद्वाम्बुनिधिं पयोभिः ।20।</p> | <p class="SanskritText">अनगार धर्मामृत अधिकार 1/13,17,20 बहुशोऽप्युपदेशः स्यान्न मन्दस्यार्थसंविदे। भवति ह्यन्धपाषाणः केनोपायेन काञ्चनम् ।13। अव्युत्पन्नमनुप्रविश्य तदभिप्रायं प्रलोभ्याप्यलं, कारुण्यात्प्रतिपादयन्ति सुधियो सदा शर्मदम्। संदिग्धं पुनरन्तमेत्य विनयात्पृच्छन्तमिच्छावशान्न व्युत्पन्नविपर्ययाकुलमतो व्युत्पत्त्यनर्थित्वतः ।17। यो यद्विजानाति स तत्र शिष्यो यो वा तद्वेष्टि स तन्न लभ्यः। को दीपयेद्धामनिधिं हि दोपैः कः पूरयेद्वाम्बुनिधिं पयोभिः ।20।</p> | ||
<p>= मिथ्यात्वसे ग्रस्त व्यक्तिको बार-बार भी उपदेश दिया जाये पर उसे तत्त्वका समीचीन ज्ञान नहीं होता। क्या अन्धपाषाण भी किसी उपायसे स्वर्ण हो सकता है ।13। अव्युत्पन्न श्रोताओंके अभिप्रायको जानकर आचार्य करुणा बुद्धिसे उन्हें धर्मके फलका लालच देकर भी कल्याणकारी धर्मका उपदेश दिया करते हैं। इसी प्रकार जो व्यक्ति संदिग्ध हैं वे यदि विनयपूर्वक आकर पूछें तो उन्हें भी धर्मका उपदेश विशेष रूपसे देते हैं। किन्तु जो व्यक्ति व्युत्पन्न हैं, परन्तु विपरीत व दुष्टबुद्धिके कारण विपरीत तत्त्वोंमें दुराग्रह करते हैं, उनको धर्मका उपदेश नहीं करते हैं ।17। जो जिस विषयको जानता है अथवा जो जिस वस्तुको नहीं चाहता है उसे उस विषय या वस्तुका प्रतिपादन नहीं करना चाहिए। क्योंकि कौन ऐसा है जो सूर्यको दीपकसे प्रकाशित करे अथवा समुद्रको जलसे भरे ।20।</p> | <p class="HindiText">= मिथ्यात्वसे ग्रस्त व्यक्तिको बार-बार भी उपदेश दिया जाये पर उसे तत्त्वका समीचीन ज्ञान नहीं होता। क्या अन्धपाषाण भी किसी उपायसे स्वर्ण हो सकता है ।13। अव्युत्पन्न श्रोताओंके अभिप्रायको जानकर आचार्य करुणा बुद्धिसे उन्हें धर्मके फलका लालच देकर भी कल्याणकारी धर्मका उपदेश दिया करते हैं। इसी प्रकार जो व्यक्ति संदिग्ध हैं वे यदि विनयपूर्वक आकर पूछें तो उन्हें भी धर्मका उपदेश विशेष रूपसे देते हैं। किन्तु जो व्यक्ति व्युत्पन्न हैं, परन्तु विपरीत व दुष्टबुद्धिके कारण विपरीत तत्त्वोंमें दुराग्रह करते हैं, उनको धर्मका उपदेश नहीं करते हैं ।17। जो जिस विषयको जानता है अथवा जो जिस वस्तुको नहीं चाहता है उसे उस विषय या वस्तुका प्रतिपादन नहीं करना चाहिए। क्योंकि कौन ऐसा है जो सूर्यको दीपकसे प्रकाशित करे अथवा समुद्रको जलसे भरे ।20।</p> | ||
<p>4. कैसे जीवको कैसा उपदेश देना चाहिए</p> | <p>4. कैसे जीवको कैसा उपदेश देना चाहिए</p> | ||
<p> भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 655,686 आक्खेवणी य संवेगणी य णिव्वेयणी य खवयस्स। पावोग्गा होंति कहा ण कहा विक्खेवणो जोग्गा ।655। भत्तादीणं भत्ती गोदत्थेहिं विण तत्थ कायव्वा।.... ।686।</p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 655,686 आक्खेवणी य संवेगणी य णिव्वेयणी य खवयस्स। पावोग्गा होंति कहा ण कहा विक्खेवणो जोग्गा ।655। भत्तादीणं भत्ती गोदत्थेहिं विण तत्थ कायव्वा।.... ।686।</p> | ||
<p>= आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी, ऐसे कथाके चार भेद हैं। इन कथाओंमें आक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी कथाएँ क्षपकको सुनाना योग्य हैं। उसे विक्षेपणी कथाका निरूपण करना हितकर न होगा ।655। आगमार्थको जाननेवाले मुनियोंको क्षपकके पास भोजन वगैरह कथाओंका वर्णन करना योग्य नहीं ।686।</p> | <p class="HindiText">= आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी, ऐसे कथाके चार भेद हैं। इन कथाओंमें आक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी कथाएँ क्षपकको सुनाना योग्य हैं। उसे विक्षेपणी कथाका निरूपण करना हितकर न होगा ।655। आगमार्थको जाननेवाले मुनियोंको क्षपकके पास भोजन वगैरह कथाओंका वर्णन करना योग्य नहीं ।686।</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 1/1,1,2/106/3 एत्थ विक्खेवणी णाम कहा जिणवयणमयाणंतस्स ण कहेयव्वा, अगाहिद ससमय-सब्भावो पर-समय संकहाहि वाउलिदचित्तो मा मिच्छत्तं गच्छेज्ज त्ति तेण तस्स विक्खेवणीं मोत्तूण सेसाओ तिण्णि वि कहाओ कहेयव्वाओ। तदो गहिदसमयस्स....जिणवयणणिव्विदिगिच्छस्स भोगरइविरदस्स तवसीलणियमजुत्तस्स पच्छा विक्खेवणी कहा कहेयव्वा। एसा अकहा वि पण्णवयंतस्स परुवयंतस्स तदा कहा होदि। तम्हा पुरिसंतरं पप्पसमणेण कहा कहेयव्वा।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,2/106/3 एत्थ विक्खेवणी णाम कहा जिणवयणमयाणंतस्स ण कहेयव्वा, अगाहिद ससमय-सब्भावो पर-समय संकहाहि वाउलिदचित्तो मा मिच्छत्तं गच्छेज्ज त्ति तेण तस्स विक्खेवणीं मोत्तूण सेसाओ तिण्णि वि कहाओ कहेयव्वाओ। तदो गहिदसमयस्स....जिणवयणणिव्विदिगिच्छस्स भोगरइविरदस्स तवसीलणियमजुत्तस्स पच्छा विक्खेवणी कहा कहेयव्वा। एसा अकहा वि पण्णवयंतस्स परुवयंतस्स तदा कहा होदि। तम्हा पुरिसंतरं पप्पसमणेण कहा कहेयव्वा।</p> | ||
<p>= इन कथाओंका प्रतिपादन करते समय जो जिन-वचनको नहीं जानता, ऐसे पुरुषको विक्षेपणी कथाका उपदेश नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिसने स्वसमयके रहस्यको नहीं जाना है, और परसमयकी प्रतिपादन करनेवाली कथाओंके सुननेसे व्याकुलित चित्त होकर वह मिथ्यात्वको स्वीकार न कर लेवे, इसलिए उसे विक्षेपणीको छोड़कर शेष तीन कथाओंका उपदेश देना चाहिए। उक्त तीन कथाओं द्वारा जिसने स्वसमयको भली-भाँति समझ लिया है, जो जिन-शासनमें अनुरक्त है, जिन-वचनमें जिसको किसी प्रकारकी विचिकित्सा नहीं रही है, जो भोग और रतिसे विरक्त है, और जो तप, शील और नियमसे युक्त है, ऐसे पुरुषको ही पश्चात् विक्षेपणी कथाका उपदेश देना चाहिए। प्ररूपण करके उत्तम रूपसे ज्ञान करानेवालेके लिए यह अकथा भी तब कथारूप हो जाती है। इसलिए योग्य पुरुषोंको प्राप्त करके ही साधुओंको उपदेश देना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= इन कथाओंका प्रतिपादन करते समय जो जिन-वचनको नहीं जानता, ऐसे पुरुषको विक्षेपणी कथाका उपदेश नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिसने स्वसमयके रहस्यको नहीं जाना है, और परसमयकी प्रतिपादन करनेवाली कथाओंके सुननेसे व्याकुलित चित्त होकर वह मिथ्यात्वको स्वीकार न कर लेवे, इसलिए उसे विक्षेपणीको छोड़कर शेष तीन कथाओंका उपदेश देना चाहिए। उक्त तीन कथाओं द्वारा जिसने स्वसमयको भली-भाँति समझ लिया है, जो जिन-शासनमें अनुरक्त है, जिन-वचनमें जिसको किसी प्रकारकी विचिकित्सा नहीं रही है, जो भोग और रतिसे विरक्त है, और जो तप, शील और नियमसे युक्त है, ऐसे पुरुषको ही पश्चात् विक्षेपणी कथाका उपदेश देना चाहिए। प्ररूपण करके उत्तम रूपसे ज्ञान करानेवालेके लिए यह अकथा भी तब कथारूप हो जाती है। इसलिए योग्य पुरुषोंको प्राप्त करके ही साधुओंको उपदेश देना चाहिए।</p> | ||
<p> मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार 8/439/16 "आपकै व्यवहारका आधिक्य होय तौ निश्चय पोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत्, प्रवर्त्तै, पर आपकै निश्चयका आधिक्य होय तौ व्यवहारपोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत् प्रवर्त्तै।"</p> | <p> मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार 8/439/16 "आपकै व्यवहारका आधिक्य होय तौ निश्चय पोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत्, प्रवर्त्तै, पर आपकै निश्चयका आधिक्य होय तौ व्यवहारपोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत् प्रवर्त्तै।"</p> | ||
<p>5. किस अवसरपर कैसा उपदेश करना चाहिए</p> | <p>5. किस अवसरपर कैसा उपदेश करना चाहिए</p> | ||
<p | <p class="SanskritText">महापुराण सर्ग संख्या 1/135-136 आक्षेपिणीं कथां कुर्यात्वप्राज्ञः स्वमतसंग्रहे। विक्षेपिणीं कथां तज्ज्ञः कुर्याद्दुर्मतनिग्रहे ।135। संवेदिनीं कथां पुण्यफलसंपत्प्रपञ्चने। निर्वेदिनीं कथां कुर्याद्वैराग्यजननं प्रति ।136।</p> | ||
<p>= बुद्धिमान वक्ताको चाहिए कि वह अपने मतकी स्थापना करते समय आक्षेपणी कथा कहे, मिथ्यात्वमतका खण्डन करते समय विक्षेपणी कथा कहे, पुण्यके फलस्वरूप विभूति आदिका वर्णन करते समय संवेदिनी कथा कहे तथा वैराग्य उत्पादनके समय निर्वेदिनी कथा कहे।</p> | <p class="HindiText">= बुद्धिमान वक्ताको चाहिए कि वह अपने मतकी स्थापना करते समय आक्षेपणी कथा कहे, मिथ्यात्वमतका खण्डन करते समय विक्षेपणी कथा कहे, पुण्यके फलस्वरूप विभूति आदिका वर्णन करते समय संवेदिनी कथा कहे तथा वैराग्य उत्पादनके समय निर्वेदिनी कथा कहे।</p> | ||
<p>4. उपदेश प्रवृत्तिका माहात्म्य</p> | <p>4. उपदेश प्रवृत्तिका माहात्म्य</p> | ||
<p>1. हितोपदेश सबसे बड़ा उपकार है</p> | <p>1. हितोपदेश सबसे बड़ा उपकार है</p> | ||
<p> स्याद्वादमंजरी श्लोक 3/15/22 न च हितोपदेशादपरः पारमार्थिकः परार्थः।</p> | <p class="SanskritText">स्याद्वादमंजरी श्लोक 3/15/22 न च हितोपदेशादपरः पारमार्थिकः परार्थः।</p> | ||
<p>= हितका उपदेश देनेके बराबर दूसरा कोई पारमार्थिक उपकार नहीं है।</p> | <p class="HindiText">= हितका उपदेश देनेके बराबर दूसरा कोई पारमार्थिक उपकार नहीं है।</p> | ||
<p>2. उपदेशसे श्रोताका हित हो न हो पर वक्ताका हित तो होता ही है</p> | <p>2. उपदेशसे श्रोताका हित हो न हो पर वक्ताका हित तो होता ही है</p> | ||
<p> स्याद्वादमंजरी श्लोक 3/15/25 में उद्धृत-"उवाच च वाचकमुख्यः"-"न भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात्। ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्ध्या वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति।"</p> | <p class="SanskritText">स्याद्वादमंजरी श्लोक 3/15/25 में उद्धृत-"उवाच च वाचकमुख्यः"-"न भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात्। ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्ध्या वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति।"</p> | ||
<p>= उमास्वामी वाचकमुख्यने भी कहा है-सभी उपदेश सुननेवालोंको पुण्य नहीं होता है परन्तु अनुग्रह बुद्धिसे हितका उपदेश करनेवालेको निश्चय ही पुण्य होता है।</p> | <p class="HindiText">= उमास्वामी वाचकमुख्यने भी कहा है-सभी उपदेश सुननेवालोंको पुण्य नहीं होता है परन्तु अनुग्रह बुद्धिसे हितका उपदेश करनेवालेको निश्चय ही पुण्य होता है।</p> | ||
<p>3. अतः परोपकारार्थ हितोपदेश करना इष्ट है </p> | <p>3. अतः परोपकारार्थ हितोपदेश करना इष्ट है </p> | ||
<p> भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा /111/258/9 श्रेयोर्थिना हि जिनशासनवत्सलेन कर्तव्य एव नियमेन हितोपदेशः, इत्याज्ञा सर्वविदां सा परिपालिता भवतीति शेषाः।</p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा /111/258/9 श्रेयोर्थिना हि जिनशासनवत्सलेन कर्तव्य एव नियमेन हितोपदेशः, इत्याज्ञा सर्वविदां सा परिपालिता भवतीति शेषाः।</p> | ||
<p>= जिनमतपर प्रीति रखनेवाले मोक्षेच्छु मुनियोंको नियमसे हितोपदेश करना चाहिए ऐसी श्री जिनेश्वरकी आज्ञा है। उसका पालन धर्मोपदेश देनेसे होता है। (और भी देखें [[ उपकार#9 | उपकार - 9]])</p> | <p class="HindiText">= जिनमतपर प्रीति रखनेवाले मोक्षेच्छु मुनियोंको नियमसे हितोपदेश करना चाहिए ऐसी श्री जिनेश्वरकी आज्ञा है। उसका पालन धर्मोपदेश देनेसे होता है। (और भी देखें [[ उपकार#9 | उपकार - 9]])</p> | ||
<p>4. उपदेशका फल</p> | <p>4. उपदेशका फल</p> | ||
<p> भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 111 आदपरसमुद्धारो आणा वच्छल्लदीवणा भत्ती। होदि परदेसगत्ते अव्वोच्छित्ति य तित्थस्स ।111।</p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 111 आदपरसमुद्धारो आणा वच्छल्लदीवणा भत्ती। होदि परदेसगत्ते अव्वोच्छित्ति य तित्थस्स ।111।</p> | ||
<p>= स्वाध्याय भावनामें आसक्त मुनि परोपदेश देकर आगे लिखे हुए गुणगणोंको प्राप्त कर लेते हैं। - आत्मपर समुद्धार, जिनेश्वरकी आज्ञाका पालन, वात्सल्य प्रभावना, जिन वचनमें भक्ति, तथा तीर्थकी अव्युच्छित्ति।</p> | <p class="HindiText">= स्वाध्याय भावनामें आसक्त मुनि परोपदेश देकर आगे लिखे हुए गुणगणोंको प्राप्त कर लेते हैं। - आत्मपर समुद्धार, जिनेश्वरकी आज्ञाका पालन, वात्सल्य प्रभावना, जिन वचनमें भक्ति, तथा तीर्थकी अव्युच्छित्ति।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/8/30/3 सर्वसत्त्वानुग्रहार्थो हि सतां प्रयासः।</p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/8/30/3 सर्वसत्त्वानुग्रहार्थो हि सतां प्रयासः।</p> | ||
<p>= सज्जनोंका प्रयास सब जीवोंका उपकार करनेका है।</p> | <p class="HindiText">= सज्जनोंका प्रयास सब जीवोंका उपकार करनेका है।</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 13/5,5,50/289/3 किमर्थं सर्वकालं व्याख्यायते। श्रोतुर्व्याख्यातुश्च असंख्यातगुणश्रेण्या कर्मनिर्जरणहेतुत्वात्।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 13/5,5,50/289/3 किमर्थं सर्वकालं व्याख्यायते। श्रोतुर्व्याख्यातुश्च असंख्यातगुणश्रेण्या कर्मनिर्जरणहेतुत्वात्।</p> | ||
<p>= प्रश्न-इसका (प्रवचनीयका) सर्व काल किस लिए व्याख्यान करते हैं? उत्तर-क्योंकि वह व्याख्याता और श्रोताके असंख्यातगुणश्रेणी रूपसे होनेवाली कर्मनिर्जराका कारण है।</p> | <p class="HindiText">= प्रश्न-इसका (प्रवचनीयका) सर्व काल किस लिए व्याख्यान करते हैं? उत्तर-क्योंकि वह व्याख्याता और श्रोताके असंख्यातगुणश्रेणी रूपसे होनेवाली कर्मनिर्जराका कारण है।</p> | ||
<p>5. उपदेशप्राप्तिका प्रयोजन</p> | <p>5. उपदेशप्राप्तिका प्रयोजन</p> | ||
<p> प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 88 जो मोह रागदोसे णिहणदि जोण्हमुवदेसं। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ।88।</p> | <p class="SanskritText">प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 88 जो मोह रागदोसे णिहणदि जोण्हमुवदेसं। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ।88।</p> | ||
<p>= जो जिनेन्द्रके उपदेशको प्राप्त करके मोह रागद्वेषको हनता है वह अल्पकालमें सर्व दुःखोंसे मुक्त हो जाता है।</p> | <p class="HindiText">= जो जिनेन्द्रके उपदेशको प्राप्त करके मोह रागद्वेषको हनता है वह अल्पकालमें सर्व दुःखोंसे मुक्त हो जाता है।</p> | ||
<p> भावपाहुड़ / पं. जयचन्द 165/पृ. 275/22 वीतराग उपदेशकी प्राप्ति होय, अर ताका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण करै, तब अपना अर परका भेदज्ञानकरि शुद्ध-अशुद्ध भावका स्वरूप जांणि अपना हित अहितका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण होय, तब शुद्ध दर्शन ज्ञानमयी शुद्ध चेतना परिणामकूं तौ हित जानै, ताका फल संसार निवृत्ति ताकूं जानै, अर अशुद्ध भावका फल संसार है, ताकूं जानै, तब शुद्ध भावका अङ्गीकार अर अशुद्ध भावके त्यागका उपाय करै।</p> | <p> भावपाहुड़ / पं. जयचन्द 165/पृ. 275/22 वीतराग उपदेशकी प्राप्ति होय, अर ताका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण करै, तब अपना अर परका भेदज्ञानकरि शुद्ध-अशुद्ध भावका स्वरूप जांणि अपना हित अहितका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण होय, तब शुद्ध दर्शन ज्ञानमयी शुद्ध चेतना परिणामकूं तौ हित जानै, ताका फल संसार निवृत्ति ताकूं जानै, अर अशुद्ध भावका फल संसार है, ताकूं जानै, तब शुद्ध भावका अङ्गीकार अर अशुद्ध भावके त्यागका उपाय करै।</p> | ||
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Revision as of 13:48, 10 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
मोक्षमार्गका उपदेश परमार्थसे सबसे बड़ा उपकार है, परन्तु इसका विषय अत्यन्त गुप्त होनेके कारण केवल पात्रको ही दिया जाना योग्य है, अपात्रको नहीं। उपदेशकी पात्रता निरभिमानता विनय व विचारशीलतामें निहित है। कठोरतापूर्वक भी दिया गया परमार्थोपदेश पात्रके हितके लिए ही होता है। अतः उपदेश करना कर्तव्य है, परन्तु अपनी साधनामें भंग न पड़े, इतनी सीमा तक ही। उपदेश भी पहिले मुनिधर्मका और पीछे श्रावक धर्मका दिया जाता है ऐसा क्रम है।
उपदेश सामान्य निर्देश
1. धर्मोपदेशका लक्षण
2. मिथ्योपदेशका लक्षण
3. निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकारके उपदेशोंका निर्देश
• सल्लेखनाके समय देने योग्य उपदेश - देखें सल्लेखना - 5.11
• आदेश व उपदेशमें अन्तर - देखें आदेशका लक्षण
• चारों अनुयोगोंके उपदेशोंकी पद्धतिमें अन्तर - देखें अनुयोग - 1
• आगम व अध्यात्म पद्धति परिचय - देखें पद्धति
• उपदेशका रहस्य समझनेका उपाय - देखें आगम - 3
2. योग्यायोग्य उपदेश निर्देश
1. परमार्थ सत्यका उपदेश असम्भव है
2. पहिले मुनिधर्मका और पीछे श्रावकधर्मका उपदेश दिया जाता है
3. अयोग्य उपदेश देनेका निषेध
4. ख्याति लाभ आदिकी भावनाओंसे निरपेक्ष ही उपदेश हितकारी होता है
3. वक्ता व श्रोता विचार
• वक्ता व श्रोताका स्वरूप - देखें वह वह नाम
• गुरु शिष्य सम्बन्ध - देखें गुरु - 2
• मिथ्यादृष्टिके लिए धर्मोपदेश देनेका अधिकार अनधिकार सम्बन्धी - देखें वक्ता
• सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टिके उपदेशका सम्यक्त्वोत्पत्तिमें स्थान - देखें लब्धि - 3
• वक्ताको आगमार्थके विषयमें अपनी ओरसे कुछ नहीं कहना चाहिए - देखें आगम - 5.9
• केवलज्ञानके बिना तीर्थंकर उपदेश नहीं देते - देखें वक्ता 3
1. श्रोता की रुचि-अरुचिसे निरपेक्ष सत्यका उपदेश देना कर्तव्य है
• हित-अहित व मिष्ट-कटु संभाषण - देखें सत्य - 2
2. उपदेश श्रोताकी योग्यता व रुचिके अनुसार देना चाहिए
• उपदेश ग्रहणमें विनयका महत्व - देखें विनय - 2
• ज्ञानके योग्य पात्र-अपात्र - देखें श्रोता
3. ज्ञान अपात्रको नहीं देना चाहिए
• कथंचित् अपात्रको भी उपदेश देनेकी आज्ञा - देखें उपदेश - 3.1 में ( स्याद्वादमंजरी श्लोक )
• अपात्रको उपदेशके निषेधका कारण - देखें उपदेश - 3.4
4. कैसे जीवको कैसा उपदेश देना चाहिए
5. किस अवसर पर कैसा उपदेश देना चाहिए
• वाद-विवाद करना योग्य नहीं पर धर्महानिके अवसर पर बिना बुलाये बोले - देखें वाद
• चारों अनुयोगोंके उपदेशका क्रम - देखें स्वाध्याय - 1
4. उपदेश प्रवृत्तिका माहात्म्य
1. हितोपदेश सबसे बड़ा उपकार है
2. उपदेशसे श्रोताका हित हो न हो पर वक्ताका हित तो होता ही है
3. अतः परोपकारार्थ हितोपदेश करना इष्ट है
4. उपदेशका फल
5. उपदेश प्राप्तिका प्रयोजन
1. उपदेश सामान्य निर्देश
1. धर्मोपदेशका लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/25/443/5 धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेशम्।
= धर्मकथा आदिका अनुष्ठान करना धर्मोपदेश है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/25/5/624/19); ( चारित्रसार पृष्ठ 153/5); ( तत्त्वार्थसार अधिकार 7/19); ( अनगार धर्मामृत अधिकार 7/87/716)
2. मिथ्योपदेशका लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/26/366/7 अभ्युदयनिःश्रेयसार्थेषु क्रियाविशेषेषु अन्यस्य न्यथाप्रवर्त्तनमत्सिन्धापनं वा मिथ्योपदेशः।
= अभ्युदय और मोक्षकी कारण भूत क्रियाओंमें किसी दूसरेको विपरीत मार्गसे लगा देना, या मिथ्या वचनों-द्वारा दूसरोंको ठगना मिथ्योपदेश है।
3. निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकारके उपदेशोंका निर्देश
मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 16,60 परदव्वादो दुग्गई सद्दव्वादो हु सुग्गई हवइ। इय णाऊणसदव्वे कुणहरई विरइ इयरम्मि ।16। धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं। णाऊण धुवं कुज्जा तवयरण णाणजुत्तो वि ।60।
= परद्रव्यसे दुर्गति होती है जैसे स्वद्रव्यसे सुगति होती है, ऐसा जानकर हे भव्यजीवो! तुम स्वद्रव्यमें रति करो और परद्रव्यसे विरक्त हो ।16। देखो जिसको नियमसे मोक्ष होना है और चार ज्ञानके जो धारी हैं ऐसे तीर्थंकर भी तपश्चरण करते हैं ऐसा निश्चय करके तप करना योग्य है ।60।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 653 न निषिद्धः स आदेशो नोपदेशो निषेधितः। नूनं सत्पात्रदानेषु पूजायामर्हतामपि ।653।
= निश्चय करके सत्पात्रोंको दान देनेके विषयमें और अर्हंतोंकी पूजाके विषयमें न तो वह आदेश निषिद्ध है तथा न वह उपदेश ही निषिद्ध है।
2. योग्यायोग्य उपदेश निर्देश
1. परमार्थ सत्यका उपदेश असम्भव है
समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 19,59 यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान् प्रतिपादये। उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ।19। यद्बोधयितुमिच्छामि तन्नाहं तदहं पुनः। ग्राह्य तदपि नान्यस्य तत्किमन्यस्य बोधये ।59।
= मैं उपध्यायों आदिकोंसे जो कुछ प्रतिपादित किया जाता हूँ तथा शिष्यादिकोंको कुछ जो प्रतिपादन करता हूँ वह सब मेरी पागलों जैसी चेष्टा है, क्योंकि, मैं वास्तवमें इन सभी वचनविकल्पोंसे अग्राह्य हूँ ।19। जिस विकल्पाधिरूढ़ आत्मस्वरूपको अथवा देहादिकको समझाने-बुझानेकी मैं इच्छा करता हूँ, वह मैं नहीं हूँ, और जो ज्ञानानन्दमय स्वयं अनुभवगम्य आत्मस्वरूप मैं हूँ, वह भी दूसरे जीवोंके उपदेश-द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है, क्योंकि केवल स्वसंवेदगम्य है। इसलिए दूसरे जीवोंको मैं क्या समझाऊँ ।59।
2. पहले मुनिधर्मका और पीछे गृहस्थधर्मका उपदेश दिया जाता है
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 17-19 बहुशः समस्तविरतिं प्रदर्शितां यो न जातु गृह्णाति। तस्यैकदेशविरतिः कथनीयानेन बीजेन ।17। यो यतिधर्मकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः। तस्य भगवत्यप्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ।18। अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः। अपदेऽपि संप्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ।19।
= जो जीव बारम्बार दिखलायी हुई समस्त पापरहित मुनिवृत्तिको कदाचित् ग्रहण न करे तो उसे एकदेश पाप क्रिया रहित गृहस्थाचार इस हेतुसे समझावे अर्थात् कथन करे ।17। जो तुच्छ बुद्धि उपदेशक, मुनिधर्मको नहीं कह करके श्रावक धर्मका उपदेश देता है उस उपदेशकको भगवत्के सिद्धान्तमें दण्ड देनेका स्थान प्रदर्शित किया है ।18। जिस कारणसे उस दुर्बुद्धिके क्रमभंग कथनरूप उपदेश करनेसे अत्यन्त दूर तक उत्साहमान हुआ भी शिष्य तुच्छस्थानमें सन्तुष्ट होकर ठगाया हुआ होता है ।19।
3. अयोग्य उपदेशका निषेध
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 654 यद्वादेशपदेशौ स्तो तौ द्वौ निरवद्यकर्मणि। यत्र सावद्यलेशोऽस्ति तत्रादेशो न जातुचित् ।654।
= वे आदेश और उपदेश दोनों ही निर्दोष क्रियाओंमें ही होते हैं, किन्तु जहाँपर पापकी थोड़ी-सी भी सम्भावना है वहाँपर कभी भी आदेशकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है।
4. ख्याति लाभ आदिकी भावनाओंसे निरपेक्ष ही उपदेश हितकारी होता है
राजवार्तिक अध्याय 9/25/5/624/18 दृष्टप्रयोजनपरित्यागादुन्मार्ग निवर्तनार्थं संदेहव्यावर्त्तनापूर्वपदार्थं प्रकाशनार्थं धर्मकथाद्यनुष्ठानं धर्मोपदेश इत्याख्ययते।
= लौकिक ख्याति लाभ आदि फलकी आकांक्षाके बिना, उन्मार्गकी निवृत्तिके लिए तथा सन्देहकी व्यावृत्ति और अपूर्व अर्थात् अपरिचित पदार्थके प्रकाशनके लिए धर्मकथा करना धर्मोपदेश है।
( चारित्रसार पृष्ठ 153/4)
3. वक्ता व श्रोता विचार
1. श्रोताकी रुचिसे निरपेक्ष सत्यका उपदेश देना योग्य है
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 483 आदट्ठमेव चिंतेदुमुट्ठिदा जे परट्ठमवि लोए। कडुय फरुसेहिं साहेंति ते हु अदिदुल्लहा लोए ।483।
= जो पुरुष आत्महित करनेके लिए कटिबद्ध होकर आत्महितके साथ कटु व कठोर वचन बोलकर परहित भी साधते हैं, वे जगत्में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/33/144 विरोध होता है तो होने दो। यहाँ तत्त्वकी मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ रोगीकी इच्छाका अनुकरण करनेवाली नहीं होती है।
(देखें आगम - 3/4/3)
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 100 हेतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम्। हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ।100।
= समस्त ही अनृत वचनोंका प्रमादसहित योग हेतु निर्दिष्ट होनेसे हेय उपादेयादि अनुष्ठानोंका कहना झूठ नहीं होता।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 3/15/19 ननु यदि च पारमेश्वरे वचसि तेषामविवेकातिरेकादरोचकता, तत्किमर्थं तान् प्रत्युपदेशक्लेश इति। नैवम्। परोपकारसारप्रवृत्तीनां महात्मनां प्रतिपाद्यगतां रुचिमरुचिं वानपेक्ष्य हितोपदेशप्रवृत्तिदर्शनात्; तेषां हि परार्थस्यैव स्वार्थत्वेनाभिमतत्वात्; न च हितोपदेशादपरः पारमार्थिकः परार्थः। तथा चार्षम्-"रूसउ वा परो मा वा, विंस वा परियत्तऊ। भासियव्वा हिया भासा सपक्खगुणकारिया॥"
= प्रश्न-यदि अविवेककी प्रचुरतासे किसीको जिनेन्द्र भगवान्के वचनोंमें रुचि नहीं होती, तो आप उसे क्यों उपदेश देनेका परिश्रम उठाते हैं? उत्तर-यह बात नहीं है, परोपकार स्वभाववाले महात्मा पुरुष किसी पुरुषकी रुचि और अरुचिको न देखकर हितका उपदेश करते हैं। क्योंकि महात्मा लोग दूसरेके उपकारको ही अपना उपकार समझते हैं। हितका उपदेश देनेके समान दूसरा कोई पारमार्थिक उपकार नहीं है। ऋषियोंने कहा है-"उपदेश दिया जानेवाला पुरुष चाहे रोष करे, चाहे वह उपदेशको विषरूप समझे, परन्तु हितरूप वचन अवश्य कहने चाहिए।"
2. उपदेश श्रोताकी योग्यता व रुचिके अनुसार देना चाहिए
धवला पुस्तक 1/1,1,69/311/1 द्विरस्ति-शब्दोपादानमनर्थकमिति चेन्न, विस्तररुचिसत्त्वानुग्रहार्थत्वात्। संक्षेपरुचयो नानुग्रहीताश्चेन्न, विस्तररुचिसत्त्वानुग्रहस्य संक्षेपरुचिसत्त्वानुग्रहाविनाभावित्वात्।
= प्रश्न सूत्रमें दो बार `अस्ति' शब्दका ग्रहण निरर्थक है? उत्तर-नहीं; क्योंकि विस्तारसे समझनेकी रुचिवाले शिष्योंके अनुग्रहके लिए सूत्रमें दो बार `अस्ति' पदका ग्रहण किया है। प्रश्न-तो इस सूत्रमें संक्षेपसे समझनेकी रुचि रखनेवाले शिष्य अनुगृहीत नहीं किये गये? उत्तर-नहीं, क्योंकि, संक्षेपसे समझनेकी रुचि रखनेवाले जीवोंका अनुग्रह विस्तारसे समझनेकी रुचि रखनेवाले जीवोंके अनुग्रहका अविनाभावी है। अर्थात् विस्तारसे कथन कर देनेपर संक्षेपरुचि शिष्योंका काम चल ही जाता है।
( धवला पुस्तक 1/1,1,5/153/7 तथा अन्यत्र भी अनेकों स्थलों पर)
महापुराण सर्ग संख्या 1/137 इति धर्मकथाङ्गत्वादर्थाक्षिप्तां चतुष्टयीम्। कथा यथार्हं श्रोतृभ्य; कथकः प्रतिपादयेत् ।137। इस प्रकार धर्मकथाके अङ्गभूत आक्षेपिणी विक्षेपिणी संवेदिनी और निर्वेदिनी रूप चार कथाओंको विचारकर श्रोताकी योग्यतानुसार वक्ताको कथन करना चाहिए।
न्यायदीपिका अधिकार 3/$36 वीतरागकथायां तु प्रतिपाद्यानुशयारोधेन प्रतिज्ञाहेतू द्वाववयवौ; प्रतिज्ञाहेतूदाहरणानि त्रयः; प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयाश्चत्वारः; प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि वा पञ्चेति यथायोगप्रयोगपरिपाटी। तदुक्तं कुमारनन्दिभट्टारकैः-"प्रयोगपरिपाटी प्रतिपाद्यानुरोधतः।
= वीतराग कथामें तो शिष्योंके आशयानुसार प्रतिज्ञा और हेतु ये दो भी अवयव होते हैं; प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण ये तीन भी होते हैं; प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण और उपनय ये चार भी होते हैं; प्रतिज्ञा हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पाँच भी होते हैं। इस तरह यथायोग्य रूपसे प्रयोगकी यह व्यवस्था है। इसी बातको श्री कुमारनन्दि भट्टारकने वादन्याय में कहा है:
प्रयोगोंके बोलनेकी यह व्यवस्था प्रतिपाद्यों (श्रोताओं) के अभिप्रायानुसार करनी चाहिए। जो जितने अवयवोंसे समझ सके उतने अवयवोंका प्रयोग करना चाहिए।
3. ज्ञान अपात्रको नहीं देना चाहिए
कुरल काव्य परिच्छेद 72/4,9,10 ज्ञानचर्चा तु कर्त्तव्या विदुषामेव संसदि। मौर्ख्ये च दृष्टिमाधाय वक्तव्यं मूर्खमण्डले ।4। व्याख्यानेन यशोलिप्सो श्रुत्वेदं स्वावधार्यताम्। विस्मृत्याग्रे न वक्तव्यं व्याख्यानं हतचेतसाम् ।9। विरुद्धानां पुरस्तात्तु भाषणं विद्यते तथा। मालिन्यदूषिते देशे यथा पीयूषपातनम् ।10।
= बुद्धिमान् और विद्वान् लोगोंकी सभामें ही ज्ञान और विद्वत्ताकी चर्चा करो, किन्तु मूर्खोंको उनकी मूर्खताका ध्यान रखकर ही उत्तर दो ।4। ऐ वक्तृता से विद्वानोंको प्रसन्न करनेकी इच्छावाले लोगो! देखो, कभी भूलकर भी मूर्खोंके सामने व्याख्यान न देना ।9। अपनेसे मतभेद रखनेवाले व्यक्तियोंके समक्ष भाषण करना ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार अमृतको मलिन स्थानपर डाल देना ।10।
समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 58 अज्ञापितं न जानन्ति यथा मां ज्ञापितं तथा। मूढात्मानस्ततस्तेषां वृथा मे ज्ञापनश्रमः ।58।
= स्वात्मानुभवमग्न अन्तरात्मा विचारता है, कि जैसे ये मूर्ख अज्ञानी जीव बिना बताये हुए मेरे आत्मस्वरूपको नहीं जानते हैं, वैसे ही बतलाये जानेपर भी नहीं जानते हैं। इस लिए उन मूढ़ पुरुषोंको मेरा बतलानेका परिश्रम व्यर्थ है-निष्फल है। प्रायो मूर्खस्य कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम्। निर्लूननासिकस्येव विशुद्धादर्शदर्शनम्।
= प्रायः करके सन्मार्गका उपदेश मूर्खजनोंके लिए कोपका कारण होता है। जिस प्रकार कि नकटे व्यक्तिको यदि दर्पण दिखाया जाये तो उसे क्रोध आता है।
धवला पुस्तक 1/1,1,1/62-63/68 सेलघण-भग्गघड-अहिचालणि-महिसाविजाहय-सुएहि। मट्टिय-मसय-समाणं वक्खाणइ जो सुदं मोहा ।62। धद-गारवपडिबद्धो विसयामिस-विस-वसेण-घुम्मंतो। सो भट्टबोहिलाहो भमइ चिरं भव वणे मूढो ।63।
= शैलघन, भग्नघट, सर्प, चालनी, महिष, मेढ़ा, जोंक, शुक, माटी और मशक (मच्छर) के समान श्रोताओंको (देखो `श्रोता') जो मोहसे श्रुतका व्याख्यान करता है, वह मूढ़ रसगारवके आधीन होकर विषयोंकी लोलुपतारूपी विषके वशसे मूर्च्छित हो, बोधि अर्थात् रत्नत्रयकी प्राप्तिसे भ्रष्ट होकर भव वनमें चिरकाल तक परिभ्रमण करता है ।62-63।
धवला पुस्तक 12/4,2,13,96/4/414 बुद्धिविहीने श्रोतरि वक्तृत्वमनर्थकं भवति पुंसाम्। नेत्रविहीने भर्त्तरि विलासलावण्यवत्स्त्रीणाम् ।4।
= जिस प्रकार पतिके अन्धे होनेपर स्त्रियोंका विलास व सुन्दरता व्यर्थ (निष्फल) है, उसी प्रकार श्रोताके मूर्ख होनेपर पुरुषोंका वक्तापना भी व्यर्थ है ।4।
धवला पुस्तक 1/1,1,1/70/1 इदि वयणादी जहाछंदाईणं विज्जादाणं संसार-भयबद्धणमिदि चिंतिऊण......धरसेणभयवदा पुणरवि ताणं परिक्खा काउमाढक्तां।
= `यथाच्छन्द श्रोताओंको विद्या देना संसार और भयका ही बढ़ानेवाला है' ऐसा विचार कर ही धरसेन भट्टारकने उन आये हुए दो साधुओंकी फिरसे परीक्षा लेनेका निश्चय किया।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,11-12/$138/171/4 `सुण' यद (इदि) सिस्ससंभालणवयणं अपडिबद्धस्स सिस्सस्स वक्खाणं णिरत्थयमिदि जाणावणट्ठं भणिदं।
= `नासमझ शिष्योंको व्याख्यान करना निरर्थक है' यह बात बतलानेके लिए ही सूत्रमें `सुनो' इस पदका ग्रहण किया गया है।
अमितगति श्रावकाचार अधिकार 8/25 अयोग्यस्य वचो जैनं जायतेऽनर्थहेतवे। यतस्ततः प्रयत्नेन मृग्यो योग्यो मनीषिभिः ।25।
= अयोग्य पुरुषके जिनेन्द्रका वचन अनर्थनिमित्त होता है, इसलिए पण्डितोंको योग्य पुरुषोंकी खोज करनी चाहिए।
अनगार धर्मामृत अधिकार 1/13,17,20 बहुशोऽप्युपदेशः स्यान्न मन्दस्यार्थसंविदे। भवति ह्यन्धपाषाणः केनोपायेन काञ्चनम् ।13। अव्युत्पन्नमनुप्रविश्य तदभिप्रायं प्रलोभ्याप्यलं, कारुण्यात्प्रतिपादयन्ति सुधियो सदा शर्मदम्। संदिग्धं पुनरन्तमेत्य विनयात्पृच्छन्तमिच्छावशान्न व्युत्पन्नविपर्ययाकुलमतो व्युत्पत्त्यनर्थित्वतः ।17। यो यद्विजानाति स तत्र शिष्यो यो वा तद्वेष्टि स तन्न लभ्यः। को दीपयेद्धामनिधिं हि दोपैः कः पूरयेद्वाम्बुनिधिं पयोभिः ।20।
= मिथ्यात्वसे ग्रस्त व्यक्तिको बार-बार भी उपदेश दिया जाये पर उसे तत्त्वका समीचीन ज्ञान नहीं होता। क्या अन्धपाषाण भी किसी उपायसे स्वर्ण हो सकता है ।13। अव्युत्पन्न श्रोताओंके अभिप्रायको जानकर आचार्य करुणा बुद्धिसे उन्हें धर्मके फलका लालच देकर भी कल्याणकारी धर्मका उपदेश दिया करते हैं। इसी प्रकार जो व्यक्ति संदिग्ध हैं वे यदि विनयपूर्वक आकर पूछें तो उन्हें भी धर्मका उपदेश विशेष रूपसे देते हैं। किन्तु जो व्यक्ति व्युत्पन्न हैं, परन्तु विपरीत व दुष्टबुद्धिके कारण विपरीत तत्त्वोंमें दुराग्रह करते हैं, उनको धर्मका उपदेश नहीं करते हैं ।17। जो जिस विषयको जानता है अथवा जो जिस वस्तुको नहीं चाहता है उसे उस विषय या वस्तुका प्रतिपादन नहीं करना चाहिए। क्योंकि कौन ऐसा है जो सूर्यको दीपकसे प्रकाशित करे अथवा समुद्रको जलसे भरे ।20।
4. कैसे जीवको कैसा उपदेश देना चाहिए
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 655,686 आक्खेवणी य संवेगणी य णिव्वेयणी य खवयस्स। पावोग्गा होंति कहा ण कहा विक्खेवणो जोग्गा ।655। भत्तादीणं भत्ती गोदत्थेहिं विण तत्थ कायव्वा।.... ।686।
= आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी, ऐसे कथाके चार भेद हैं। इन कथाओंमें आक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी कथाएँ क्षपकको सुनाना योग्य हैं। उसे विक्षेपणी कथाका निरूपण करना हितकर न होगा ।655। आगमार्थको जाननेवाले मुनियोंको क्षपकके पास भोजन वगैरह कथाओंका वर्णन करना योग्य नहीं ।686।
धवला पुस्तक 1/1,1,2/106/3 एत्थ विक्खेवणी णाम कहा जिणवयणमयाणंतस्स ण कहेयव्वा, अगाहिद ससमय-सब्भावो पर-समय संकहाहि वाउलिदचित्तो मा मिच्छत्तं गच्छेज्ज त्ति तेण तस्स विक्खेवणीं मोत्तूण सेसाओ तिण्णि वि कहाओ कहेयव्वाओ। तदो गहिदसमयस्स....जिणवयणणिव्विदिगिच्छस्स भोगरइविरदस्स तवसीलणियमजुत्तस्स पच्छा विक्खेवणी कहा कहेयव्वा। एसा अकहा वि पण्णवयंतस्स परुवयंतस्स तदा कहा होदि। तम्हा पुरिसंतरं पप्पसमणेण कहा कहेयव्वा।
= इन कथाओंका प्रतिपादन करते समय जो जिन-वचनको नहीं जानता, ऐसे पुरुषको विक्षेपणी कथाका उपदेश नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिसने स्वसमयके रहस्यको नहीं जाना है, और परसमयकी प्रतिपादन करनेवाली कथाओंके सुननेसे व्याकुलित चित्त होकर वह मिथ्यात्वको स्वीकार न कर लेवे, इसलिए उसे विक्षेपणीको छोड़कर शेष तीन कथाओंका उपदेश देना चाहिए। उक्त तीन कथाओं द्वारा जिसने स्वसमयको भली-भाँति समझ लिया है, जो जिन-शासनमें अनुरक्त है, जिन-वचनमें जिसको किसी प्रकारकी विचिकित्सा नहीं रही है, जो भोग और रतिसे विरक्त है, और जो तप, शील और नियमसे युक्त है, ऐसे पुरुषको ही पश्चात् विक्षेपणी कथाका उपदेश देना चाहिए। प्ररूपण करके उत्तम रूपसे ज्ञान करानेवालेके लिए यह अकथा भी तब कथारूप हो जाती है। इसलिए योग्य पुरुषोंको प्राप्त करके ही साधुओंको उपदेश देना चाहिए।
मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार 8/439/16 "आपकै व्यवहारका आधिक्य होय तौ निश्चय पोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत्, प्रवर्त्तै, पर आपकै निश्चयका आधिक्य होय तौ व्यवहारपोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत् प्रवर्त्तै।"
5. किस अवसरपर कैसा उपदेश करना चाहिए
महापुराण सर्ग संख्या 1/135-136 आक्षेपिणीं कथां कुर्यात्वप्राज्ञः स्वमतसंग्रहे। विक्षेपिणीं कथां तज्ज्ञः कुर्याद्दुर्मतनिग्रहे ।135। संवेदिनीं कथां पुण्यफलसंपत्प्रपञ्चने। निर्वेदिनीं कथां कुर्याद्वैराग्यजननं प्रति ।136।
= बुद्धिमान वक्ताको चाहिए कि वह अपने मतकी स्थापना करते समय आक्षेपणी कथा कहे, मिथ्यात्वमतका खण्डन करते समय विक्षेपणी कथा कहे, पुण्यके फलस्वरूप विभूति आदिका वर्णन करते समय संवेदिनी कथा कहे तथा वैराग्य उत्पादनके समय निर्वेदिनी कथा कहे।
4. उपदेश प्रवृत्तिका माहात्म्य
1. हितोपदेश सबसे बड़ा उपकार है
स्याद्वादमंजरी श्लोक 3/15/22 न च हितोपदेशादपरः पारमार्थिकः परार्थः।
= हितका उपदेश देनेके बराबर दूसरा कोई पारमार्थिक उपकार नहीं है।
2. उपदेशसे श्रोताका हित हो न हो पर वक्ताका हित तो होता ही है
स्याद्वादमंजरी श्लोक 3/15/25 में उद्धृत-"उवाच च वाचकमुख्यः"-"न भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात्। ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्ध्या वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति।"
= उमास्वामी वाचकमुख्यने भी कहा है-सभी उपदेश सुननेवालोंको पुण्य नहीं होता है परन्तु अनुग्रह बुद्धिसे हितका उपदेश करनेवालेको निश्चय ही पुण्य होता है।
3. अतः परोपकारार्थ हितोपदेश करना इष्ट है
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा /111/258/9 श्रेयोर्थिना हि जिनशासनवत्सलेन कर्तव्य एव नियमेन हितोपदेशः, इत्याज्ञा सर्वविदां सा परिपालिता भवतीति शेषाः।
= जिनमतपर प्रीति रखनेवाले मोक्षेच्छु मुनियोंको नियमसे हितोपदेश करना चाहिए ऐसी श्री जिनेश्वरकी आज्ञा है। उसका पालन धर्मोपदेश देनेसे होता है। (और भी देखें उपकार - 9)
4. उपदेशका फल
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 111 आदपरसमुद्धारो आणा वच्छल्लदीवणा भत्ती। होदि परदेसगत्ते अव्वोच्छित्ति य तित्थस्स ।111।
= स्वाध्याय भावनामें आसक्त मुनि परोपदेश देकर आगे लिखे हुए गुणगणोंको प्राप्त कर लेते हैं। - आत्मपर समुद्धार, जिनेश्वरकी आज्ञाका पालन, वात्सल्य प्रभावना, जिन वचनमें भक्ति, तथा तीर्थकी अव्युच्छित्ति।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/8/30/3 सर्वसत्त्वानुग्रहार्थो हि सतां प्रयासः।
= सज्जनोंका प्रयास सब जीवोंका उपकार करनेका है।
धवला पुस्तक 13/5,5,50/289/3 किमर्थं सर्वकालं व्याख्यायते। श्रोतुर्व्याख्यातुश्च असंख्यातगुणश्रेण्या कर्मनिर्जरणहेतुत्वात्।
= प्रश्न-इसका (प्रवचनीयका) सर्व काल किस लिए व्याख्यान करते हैं? उत्तर-क्योंकि वह व्याख्याता और श्रोताके असंख्यातगुणश्रेणी रूपसे होनेवाली कर्मनिर्जराका कारण है।
5. उपदेशप्राप्तिका प्रयोजन
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 88 जो मोह रागदोसे णिहणदि जोण्हमुवदेसं। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ।88।
= जो जिनेन्द्रके उपदेशको प्राप्त करके मोह रागद्वेषको हनता है वह अल्पकालमें सर्व दुःखोंसे मुक्त हो जाता है।
भावपाहुड़ / पं. जयचन्द 165/पृ. 275/22 वीतराग उपदेशकी प्राप्ति होय, अर ताका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण करै, तब अपना अर परका भेदज्ञानकरि शुद्ध-अशुद्ध भावका स्वरूप जांणि अपना हित अहितका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण होय, तब शुद्ध दर्शन ज्ञानमयी शुद्ध चेतना परिणामकूं तौ हित जानै, ताका फल संसार निवृत्ति ताकूं जानै, अर अशुद्ध भावका फल संसार है, ताकूं जानै, तब शुद्ध भावका अङ्गीकार अर अशुद्ध भावके त्यागका उपाय करै।
पुराणकोष से
स्वाध्याय तप का एक भेद । देखें स्वाध्याय