आर्त्तध्यान: Difference between revisions
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वैसे तो ध्यान शब्द पारमार्थिक योग व समाधिके अर्थमें प्रयुक्त होता है, परन्तु वास्तवमें किन्हीं भी शुभ वा अशुभ परिणामोंकी एकाग्रताका हो जाना ही ध्यान है। संसारी जीवको चौवीस घण्टे ही कलुषित परिणाम वर्तते हैं। कुछ इष्ट वियोग जनित होते हैं, कुछ अनिष्ट संयोग जनित, कुछ वेदना जनित और कुछ आगामी भोगोंकी तृष्णा जनित; इत्यादि सभी प्रकारके परिणाम आर्त्तध्यान कहलाते हैं। जो जीवको पारमार्थिक अधःपतनके कारण हैं और व्यवहारसे अधोगतिके कारण हैं। यद्यपि मोक्षमार्गके साधकोंको भी पूर्व अभ्यासके कारण वे कदाचित् होते हैं, परन्तु ज्यों-ज्यों वह ऊपर चढ़ता है त्यों-त्यों ये दबते चले जाते हैं। | वैसे तो ध्यान शब्द पारमार्थिक योग व समाधिके अर्थमें प्रयुक्त होता है, परन्तु वास्तवमें किन्हीं भी शुभ वा अशुभ परिणामोंकी एकाग्रताका हो जाना ही ध्यान है। संसारी जीवको चौवीस घण्टे ही कलुषित परिणाम वर्तते हैं। कुछ इष्ट वियोग जनित होते हैं, कुछ अनिष्ट संयोग जनित, कुछ वेदना जनित और कुछ आगामी भोगोंकी तृष्णा जनित; इत्यादि सभी प्रकारके परिणाम आर्त्तध्यान कहलाते हैं। जो जीवको पारमार्थिक अधःपतनके कारण हैं और व्यवहारसे अधोगतिके कारण हैं। यद्यपि मोक्षमार्गके साधकोंको भी पूर्व अभ्यासके कारण वे कदाचित् होते हैं, परन्तु ज्यों-ज्यों वह ऊपर चढ़ता है त्यों-त्यों ये दबते चले जाते हैं। | ||
१. भेद व लक्षण | |||
१. आर्त्तध्यानका सामान्य लक्षण | |||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ९/२८/४४५/१० ऋतं, दुःखं, अर्द नमर्तिर्वा, तत्र भवमार्तम्। | |||
= आर्त्त शब्द `ऋत' अथवा `अर्ति' इनमें-से किसी एकसे बना है। इनमें-से `ऋत'का अर्थ दुःख है और `अर्ति'का `अर्दनं अर्तिः' ऐसी निरूक्ति होकर उसका अर्थ पीड़ा पहुँचाना है। इसमें (ऋतमें या अर्तिमें) जो होता है वह आर्त (वा आर्तध्यान) है। | |||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/२८/१/६२७/२६), ([[भावपाहुड़]] / मूल या टीका गाथा संख्या ७८/२२६) | |||
[[महापुराण]] सर्ग संख्या २१/४०-४१ मूर्च्छाकौशील्यकेनाश्यकौसीद्यान्यतिगृघ्नुताः। भयोद्वेगानुशोकाच्च लिङ्गान्यार्ते स्मृतानि वै ।।४०।। बाह्यं च लिङ्गमार्तस्य गात्रग्लानिर्विवर्णता। हस्तान्यस्तकपोलत्वं साश्रुतान्यच्च तादृशम् ।।४१।। | |||
= परिग्रहमें अत्यन्त आसक्त होना, कुशील रूप प्रवृत्ति करना, कृपणता करना, ब्याज लेकर आजीविका करना, अत्यन्त लोभ करना, भय करना, उद्वेग करना और अतिशय शोक करना ये आर्त्त ध्यानके बाह्य चिह्न हैं ।।४०।। इसी प्रकार शरीरका क्षीण हो जाना, शरीरकी कान्ति नष्ट हो जाना, हाथोंपर कपोल रखकर पश्चात्ताप करना, आँसू डालना, तथा इसी प्रकार और भी अनेक कार्य आर्तध्यानके बाह्य चिह्न कहलाते हैं। | |||
([[चारित्रसार]] पृष्ठ संख्या १६७/४) | |||
[[ज्ञानार्णव]] अधिकार संख्या २५/२३/२५७ ऋते भवमथार्त्तं स्यादसद्ध्यानं शरीरिणाम्। दिग्मोहान्मत्ततातुल्यमविद्यावासनावशात् ।।२३।। | |||
= ऋत कहिये पीड़ा-दुःख उपजै सो आर्त्तध्यान है। सो वह ध्यान अप्रशस्त है। जैसे किसी प्राणीके दिशाओंके भूल जानेसे उन्मत्तता होती है उसके समान है। यह ध्यान अविद्या अर्थात् मिथ्याज्ञानकी वासनाके वशसे उत्पन्न होती है। | |||
२. आर्त्तध्यानका आध्यात्मिक लक्षण | |||
[[चारित्रसार]] पृष्ठ संख्या १६७/५ स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकार्त्तध्यानं। | |||
= (अन्य लोग जिसका अनुमान कर सकें वह बाह्य आर्त्तध्यान है) जिसे केवल अपना ही आत्मा जान सके उसे आध्यात्मिक आर्त्तध्यान कहते हैं। | |||
३. आर्त्तध्यानके भेद | |||
[[ज्ञानार्णव]] अधिकार संख्या २५/२४ अनिष्टयोगजन्याद्यं तथेष्टार्थात्ययात्प्यरम्। रुक्प्रकोपात्तृतीयं स्यान्निदानातुर्यमङ्गिनाम् ।।२४।। | |||
= पहिला आर्त्तध्यान तो जीवोंके अनिष्ट पदार्थोंके संयोगसे होता है। दूसरा आर्त्तध्यान इष्ट पदार्थके वियोगसे होता है। तीसरा आर्त्तध्यान रोगके प्रकोपकी पीड़ासे होता है और चौथा आर्त्तध्यान निदान कहिये आगामी कालमें भोगोंकी वांछाके होनेसे होता है। इस प्रकार चार भेद आर्त्तध्यानके हैं। | |||
([[महापुराण]] सर्ग संख्या २१/३१-३६), ([[चारित्रसार]] पृष्ठ संख्या १६७/४) | |||
[[चारित्रसार]] पृष्ठ संख्या १६७/४ तत्रात्तं बाह्याध्यात्मिकभेदाद् द्विविकल्पं। | |||
= बाह्य और अध्यात्मके भेदसे आर्त्तध्यान दो प्रकारका है।....और वह आध्यात्मिक ध्यान चार प्रकारका होता है। | |||
[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४८/२०१ इष्टवियोगानिष्टसंयोगव्याधिप्रतिकारभोगनिदानेषु वाञ्छारूपं चतुर्विधमार्तध्यानम्। | |||
= इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग और रोग इन तीनोंको दूर करनेमें तथा भोगों वा भोगोंके कारणोंमें वांछा रूप चार प्रकारका आर्त्तध्यान होता है। | |||
([[चारित्रसार]] पृष्ठ संख्या १६७/४) | |||
आर्त्तध्यान | |||
मनोज्ञ अमनोज्ञ | |||
अनुत्पत्ति संप्रयोग सकल्प अनुत्पत्ति विप्रयोग संकल्प | |||
बाह्य आध्यात्मिक बाह्य आध्यात्मिक | |||
चेनत कृत अचेनत कृत शारीरिक मानसिक शारीरिक मानसिक | |||
चेतनकृत अचेतनकृत | |||
४. अनिष्ट योगज आर्त्तध्यानका लक्षण | |||
[[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ९/३० आर्त्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहार ।।३०।। | |||
= अमनोज्ञ पदार्थके प्राप्त होने पर उसके वियोगके लिए चिन्ता सातत्यका होना प्रथम आर्त्तध्यान है। | |||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ९/३०/९ अमनोज्ञमप्रियं विषकण्टकशत्रुशस्त्रादि, तद्बाधाकारणत्वाद् `अमनोज्ञम्' इत्युच्यते। तस्य संप्रयोगे, स कथं नाम न मे स्यादिति संकल्पश्चिन्ता प्रबन्धः स्मृतिसमन्वाहारः प्रथममार्त्त मित्थाख्यायते। | |||
= विष, कण्टक, शत्रु और शस्त्र आदि जो अप्रिय पदार्थ हैं वे बाधाके कारण होनेसे अमनोज्ञ कहे जाते हैं। उनका संयोग होने पर वे मेरे कैसे न हों इस प्रकारका संकल्प चिन्ता प्रबन्ध अर्थात् स्मृति समन्वाहार यह प्रथम आर्त्तध्यान कहलाता है। | |||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/३०१-२/६२८), ([[महापुराण]] सर्ग संख्या २१/३२,३५)। | |||
[[नियमसार]] / [[नियमसार तात्त्पर्यवृत्ति | तात्त्पर्यवृत्ति ]] गाथा संख्या ८९ अनिष्टसंयोगाद्वा समुपजातमार्त्तध्यानम्। | |||
= अनिष्टके संयोगसे उत्पन्न होने वाला जो आर्त्तध्यान....। | |||
[[चारित्रसार]] पृष्ठ संख्या १६८/५ एतद्दुःखसाधनसद्भावे तस्य विनाशकाङ्क्षोत्पन्नविनाशसंकल्पाध्यवसानं द्वितीयार्तं। | |||
= (शारीरिक, व मानसिक) दुःखोंके कारण उत्पन्न होनेपर उसके विनाशकी इच्छा उत्पन्न होनेसे उनके विनाशके संकल्पका बार-बार चिन्तवन करना दूसरा आर्त्तध्यान है। | |||
[[कार्तिकेयानुप्रेक्षा]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४७३ दुक्खयर-विसय-जोए-केम इमं चयदि इदि विचितंतो। चेट्ठदि जो विक्खित्तो अट्ठ-ज्झाणं हवे तस्स ।।४७३।। | |||
= दुखकारी विषयोंका संयोग होने पर `यह कैसे दूर हो' इस प्रकार विचारता हुआ जो विक्षिप्त चित्त हो चेष्टा करता है उसके आर्त्त ध्यान होता है। | |||
[[ज्ञानार्णव]] अधिकार संख्या २५/२५-२८ ज्वलनजलविषास्त्रव्यालशार्दू लदैत्यैः स्थलजलविलसत्त्वै र्दूर्जनारातिभूपैः। स्वजनधनशरीरध्वंसिभिस्तैरनिष्टैर्भवति यदिह योगादाद्यसात्त तदेवत् ।।२५।। तथा चरत्थिरैर्भावैरनेकैः समुपस्थितैः। अनिष्टैर्यन्मनः क्लिष्टं स्यादार्त्तं तत्प्रकीर्तितम् ।।२६।। श्रुतैर्दृष्टैः स्मृतैर्ज्ञातेः प्रत्यासत्तिं च संसृतैः। योऽनिष्ठार्थैर्मनःक्लेशः पूर्वमार्त्तं तदिष्यते ।।२७।। अशेषानिष्टसंयोगे तद्वियोगानुचिन्तनम्। यत्स्यात्तदपि तत्त्वज्ञैः पूर्वमार्त्तं प्रकीर्तितम् ।।२८।। | |||
= इस जगत्में अपना स्वजन धन शरीर इनके नाश करनेवाले अग्नि, जल, विष, सर्प, शस्त्र, सिंह, दैत्य तथा स्थलके जीव, जलके जीव, बिलके जीव तथा दुष्ट जन, वैरी राजा इत्यादि अनिष्ट पदार्थोंके संयोगसे जो हो सो पहिला आर्त्तध्यान है ।।२५।। तथा चर और स्थिर अनेक अनिष्ट पदार्थोंके संयोग होने पर जो मन क्लेश रूप हो उसको भी आर्त्तध्यान कहा है ।।२६।। जो सुने, देखे, स्मरणमें आये, जाने हुए तथा निकट प्राप्त हुए अनिष्ट पदार्थोंसे मनको क्लेश होता है उसे पहिला आर्त्तध्यान कहते हैं ।।२७।। जो समस्त प्रकारके संयोग होने पर उनके वियोग होनेका बार-बार चिन्तन हो उसे भी तत्त्वके जानके वालोंने पहिला अनिष्ट संयोगज नामा आर्त्तध्यान कहा है ।।२८।। | |||
५. इष्ट वियोगज आर्त्तध्यानका लक्षण | |||
[[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ९/३१ विपरीतं मनोज्ञस्य ।।३१।। | |||
= मनोज्ञ वस्तुके वियोग होनेपर उसकी प्राप्तिकी सतत चिन्ता करना दूसरा आर्त्तध्यान है। | |||
([[भगवती आराधना]] / मुल या टीका गाथा संख्या १७०२) | |||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ९/३१/४४७/१ मनोज्ञस्येष्टस्य स्वपुत्रदारधनादेर्विप्रयोगे तत्संप्रयोगाय संकल्पश्चिन्ताप्रबन्धो द्वितीयमार्त्तमवगन्तव्यम्। | |||
= मनोज्ञ अर्थात् अपने इष्ट पुत्र स्त्री और धनादिक्के वियोग होनेपर उसकी प्राप्तिके लिए संकल्प अर्थात् निरन्तर चिन्ता करना दूसरा आर्त्तध्यान जानना जाहिए। | |||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/३१/१/६२८) ([[महापुराण]] सर्ग संख्या २१/३२,३४) | |||
[[चारित्रसार]] पृष्ठ संख्या १६९/१ मनोज्ञं नाम धनधान्यहिरण्यसुवर्णवस्तुवाहनशयनासनस्रक्चन्दनवनितादिसुखसाधनं मे स्यादिति गर्द्धनं। मनोज्ञस्य विप्रयोगस्य उत्पत्तिसंकल्पाध्यावसानं तृतीयात्तं।। | |||
= धन, धान्य, चाँदी, सुवर्ण, सवारी, शय्या, आसन, माला, चन्दन और स्त्री आदि सुखोंके साधनको मनोज्ञ कहते हैं। ये मनोज्ञ पदार्थ मेरे हों इस प्रकार चिन्तवन करना, मनोज्ञ पदार्थके वियोग होनेपर उनके उत्पन्न होनेका बार-बार चिन्तन करना आर्त्तध्यान है। | |||
[[कार्तिकेयानुप्रेक्षा]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४७४ मणहर-विसय-विओगे-कहतं वामेमि इदि वियप्पो जो। संतावेण पयट्टो सोच्चिय अट्टं हवे झाणं ।।४७४।। | |||
= मनोहर विषयका वियोग होनेपर `कैसे इसे प्राप्त करूं' इस प्रकार विचारता हुआ जो दुःखसे प्रवृत्ति करता है यह भी आर्त्तध्यान है। | |||
[[ज्ञानार्णव]] अधिकार संख्या २५/२९-३१ राज्यैश्वर्यकलत्रबान्धवसुहृत्सौभाग्यभोगात्ययचित्तप्रीतिकरप्रसन्नविषयप्रध्वंसभावेऽथवा। संत्रासभ्रमशोकमोहविवशैर्यत्खिद्यतेऽहर्निशं तत्स्यादिष्टवियोगजं तनुमतां ध्यानं कलङ्गास्पदम् ।।२१।। दृष्टश्रुतानुभूतैस्तैः पदार्थैश्चित्तरञ्जकैः। वियोगे यन्मनः खिन्नं स्यादार्त्तं तद्द्वितीयकम् ।।३०।। मनोज्ञवस्तुविधवसे मनस्तत्संगमार्थिभिः। क्लिश्यते यत्तदेवत्स्याद्द्वितीयार्त्तस्य लक्षणम् ।।३१।। | |||
= जो राज्य ऐश्वर्य स्त्री, कुटुम्ब, मित्र, सौभाग्य भोगादिके नाश होनेपर तथा चित्तको प्रीति उत्पन्न करनेवाले सुन्दर स्त्रियोंके विशयोंका प्रध्वंस होते हुए, सन्त्रास, पीड़ा, भ्रम, शोक, मोहके कारण निरन्तर खेद रूप होना सो जीवोंके इष्ट वियोग जनित आर्त्तध्यान है, और यह ध्यान पापका स्थान है ।।२९।। देखे, सुने, अनुभव किये, मनको रंजायमान करनेवाले पूर्वोक्त पदार्थोंका वियोग होनेसे जो मनको खेद हो वह भी दूसरा आर्त्तध्यान है ।।३०।। अपने मनकी प्यारी वस्तुके विध्वंस होनेपर पुनः उसकी प्राप्ति के लिए जो क्लेश रूप होना सो दूसरे आर्त्तध्यान का लक्षण है। | |||
[[नियमसार]] / [[नियमसार तात्त्पर्यवृत्ति | तात्त्पर्यवृत्ति ]] गाथा संख्या ८९ स्वदेशत्यागाद् द्रव्यनाशाद् मित्रजनविदेशगमनात् कमनीयकामिनीवियोगात्-समुपजातमार्तध्यान्। | |||
= स्वदेशकेत्याग से, द्रव्यके नाशसे, मित्रजनके विदेश गमनसे, कमनीय कामिनीके वियोगसे उत्पन्न होनेवाला आर्त्तध्यान है। | |||
६. वेदना सम्बन्धी आर्त्तध्यानका लक्षण | |||
[[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ९/३२ वेदनायाश्च ।।३२।। | |||
= वेदनाके होनेपर (अर्थात् वातादि विकार जनित शारीरिक वेदनाके होनेपर उसे दूर करनेकी सतत चिन्ता करना तीसरा आर्त्तध्यान है। | |||
[[ज्ञानार्णव]] अधिकार संख्या २५/३२-३३ कासश्वासभगन्दरजलोदरजराकुष्ठातिसारज्वरैः, पित्तश्लेष्ममरुत्प्रकोपजनितैः रोगैः शरीरान्तकैः। स्यात्सत्त्वप्रबलैः प्रतिक्षणभवैर्यद्याकुलत्वं नृणाम्, तद्रोगार्त्तमनिन्दितैः प्रकटितं दुर्वार-दुःखाकरम् ।।३२।। स्वल्पानामपि रोगाणां माभृत्स्वप्नेऽपि संभवः। ममेतया नृणां चिन्ता स्यादार्त्तं तत्ततीयवम् ।।३३।। | |||
= वात पित्त कफके प्रकोपसे उत्पन्न हुए शरीको नाश करनेवाला वीर्यसे प्रबल और क्षण-क्षणमें उत्पन्न होनेवाले कास, श्वास, भगन्दर, जलोदर, जरा, कोढ़, अतिसार, ज्वरादिक रोगोंसे मनुष्योंके जो व्याकुलता होती है, उसे अनिन्दित पुरुषोंने रोग पीड़ाचिन्तवन नामा आर्त्तध्यान कहा है, यह ध्यान दुर्निवार और दुखोंका आकार है जो कि आगामी कालमें पाप बन्धका कारण है ।।३२।। जीवोंके ऐसी चिन्ता हो कि मेरे किंचित् रोगकी उत्पत्ति स्वप्नमें भी न हो सो ऐसा चिन्तवन तीसरा आर्त्तध्यान है ।।३३।। | |||
• निदान व अपध्यानके लक्षण - दे. वह वह नाम। | |||
२. आर्त्तध्यान निर्देश | |||
१. आर्त्तध्यानमें सम्भव भाव व लेश्या | |||
[[महापुराण]] सर्ग संख्या २१/३८ अप्रशस्ततमं लेश्यात्रयमाश्रित्य जृम्भितम्। अन्तर्मुहूर्तकालं तद् अप्रशप्तावलम्बनम् ।।३८।। | |||
= यह चारों प्रकारका आर्त्तध्यान अत्यन्त अशुभ कृष्ण नील और कापोत लेश्याका आश्रय कर उत्पन्न होता है, इसका काल अन्तर्मुहूर्त है और आलम्बन अशुभ है। | |||
([[ज्ञानार्णव]] अधिकार संख्या २५/४०) ([[चारित्रसार]] पृष्ठ संख्या १६९/३) | |||
२. आर्त्तध्यानका फल | |||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ९/२९ यह संसार का कारण है। | |||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/३३/१/६२९ तिर्यग्भवगमनपर्यवसानम्। | |||
= इस आर्त्तध्यानका फल तिर्यञ्च गति है। | |||
([[हरिवंश पुराण]] सर्ग ५६/१८), ([[चारित्रसार]] पृष्ठ संख्या १६९/४) | |||
[[ज्ञानार्णव]] अधिकार संख्या २५/४२ अनन्तदुःखसकीर्णस्य तिर्यग्गतैः, फलं...।।४२।। | |||
= आर्त्तध्यानका फल अनन्त दुखोंसे व्याप्त तिर्यञ्च गति है। | |||
३. मनोज्ञ व निदान आर्त्तध्यानमें अन्तर | |||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/३३/१/३३ विपरीतं मनोज्ञस्येत्यनेवैव निदानं संगृहीतमिति; तन्न; किं कारणम्। अप्राप्तपूर्वविषयत्वान्निदानस्य। सुखमात्रया प्रलम्भितस्याप्राप्तपूर्वप्रार्थनाभिमुख्यादनागतार्थप्राप्तिनिबन्धनं निदानमित्यस्ति विशेषः। | |||
= प्रश्न - `विपरीतं मनोज्ञस्य' इस सूत्रसे निदान का संग्रह हो जाता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि निदान अप्राप्तकी प्राप्ति के लिए होता है, इसमें पारलौकिक विषय-सुखकी गृद्धिसे अनागत अर्थकी प्राप्तिके लिए सतत चिन्ता रहती है। इस प्रकार इन दोनों में अन्तर है। | |||
३. आर्त्तध्यानका स्वामित्व | |||
१. १-६ गुणस्थान तक होता है | |||
[[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ९/३४ तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ।।३४।। | |||
= यह आर्त्तध्यान अविरत, देशविरत, और प्रमत्त संयत जीवोंके होता है। | |||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ९/३४/४४७/१४ अविरताः सम्यग्दृष्ट्यन्ताः देशविरताः संयतासंयताः प्रमत्तसंयताः...तत्र विरतदेशविरतानां चतुर्विधमप्यार्त्तं भवति,...प्रमत्तसंयतानां तु निदानवर्ज्यमन्यदार्त्तत्रयं प्रमादोदयोद्रेकात्कदाचित्स्यात्। | |||
= असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तकके जीव अविरत कहलाते हैं, संयतासंयत जीव देशविरत कहलाते हैं, प्रमाद से युक्त क्रिया करनेवाले प्रमत्त संयत कहलाते हैं। इनमें से अविरत और देशविरत जीवोंके चारों ही प्रकारका आर्त्तध्यान होता है। प्रमत्त संयतोंके तो निदानके सिवा बाकीके तीन प्रमादकी तीव्रता वश कदाचित् होते हैं। | |||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/३४/१/६२९) ([[हरिवंश पुराण]] सर्ग ५६/१८) ([[महापुराण]] सर्ग संख्या २१/३७) ([[चारित्रसार]] पृष्ठ संख्या १६९/३) ([[ज्ञानार्णव]] अधिकार संख्या २५/३८-३९) ([[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४८,४८/२०१) | |||
• साधु योग्य आर्तध्यानकी सीमा - दे. संयत/३ | |||
२. आर्त्तध्यानके बाह्य चिह्न | |||
[[ज्ञानार्णव]] अधिकार संख्या २५/४३ शङ्काशोकभयप्रमादकलहश्चित्तभ्रमोद्भ्रान्तयः। उन्मादो विषयोत्सुकत्वसमकृन्निद्राङ्गजाड्यश्रमाः। मूर्छादीनि शरीरिणामविरतं लिङ्गानि बाह्यान्यलमार्त्ता-धिष्ठितचेतसां श्रुतधरैर्व्यावर्णितानि स्फूटम् ।।४३।। | |||
= इस आर्त्तध्यानके आश्रितचित्तवाले पुरुषोंके बाह्य चिह्न शास्त्रोंके पारगामी विद्वानोंने इस प्रकार कहे हैं कि-प्रथम तो शंका, होती है, अर्थात् हर बातमें सन्देह होता है, फिर शोक होता है, भय होता है, प्रमाद होता है-सावधानी नहीं होती, कलह करता है, चित्तभ्रम हो जाता है, उद्भ्रान्ति होती है, चित्त एक जगह नहीं ठहरता, विषय सेवनमें उत्कष्ठा होती है, निरन्तर निद्रा गमन होता है, अंगमें जड़ता होती है, खेद होता है, मूर्च्छा होती है, इत्यादि चिन्ह आर्तध्याननीके प्रगट होते हैं। |
Revision as of 08:30, 8 May 2009
वैसे तो ध्यान शब्द पारमार्थिक योग व समाधिके अर्थमें प्रयुक्त होता है, परन्तु वास्तवमें किन्हीं भी शुभ वा अशुभ परिणामोंकी एकाग्रताका हो जाना ही ध्यान है। संसारी जीवको चौवीस घण्टे ही कलुषित परिणाम वर्तते हैं। कुछ इष्ट वियोग जनित होते हैं, कुछ अनिष्ट संयोग जनित, कुछ वेदना जनित और कुछ आगामी भोगोंकी तृष्णा जनित; इत्यादि सभी प्रकारके परिणाम आर्त्तध्यान कहलाते हैं। जो जीवको पारमार्थिक अधःपतनके कारण हैं और व्यवहारसे अधोगतिके कारण हैं। यद्यपि मोक्षमार्गके साधकोंको भी पूर्व अभ्यासके कारण वे कदाचित् होते हैं, परन्तु ज्यों-ज्यों वह ऊपर चढ़ता है त्यों-त्यों ये दबते चले जाते हैं। १. भेद व लक्षण १. आर्त्तध्यानका सामान्य लक्षण सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ९/२८/४४५/१० ऋतं, दुःखं, अर्द नमर्तिर्वा, तत्र भवमार्तम्। = आर्त्त शब्द `ऋत' अथवा `अर्ति' इनमें-से किसी एकसे बना है। इनमें-से `ऋत'का अर्थ दुःख है और `अर्ति'का `अर्दनं अर्तिः' ऐसी निरूक्ति होकर उसका अर्थ पीड़ा पहुँचाना है। इसमें (ऋतमें या अर्तिमें) जो होता है वह आर्त (वा आर्तध्यान) है। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/२८/१/६२७/२६), (भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा संख्या ७८/२२६) महापुराण सर्ग संख्या २१/४०-४१ मूर्च्छाकौशील्यकेनाश्यकौसीद्यान्यतिगृघ्नुताः। भयोद्वेगानुशोकाच्च लिङ्गान्यार्ते स्मृतानि वै ।।४०।। बाह्यं च लिङ्गमार्तस्य गात्रग्लानिर्विवर्णता। हस्तान्यस्तकपोलत्वं साश्रुतान्यच्च तादृशम् ।।४१।। = परिग्रहमें अत्यन्त आसक्त होना, कुशील रूप प्रवृत्ति करना, कृपणता करना, ब्याज लेकर आजीविका करना, अत्यन्त लोभ करना, भय करना, उद्वेग करना और अतिशय शोक करना ये आर्त्त ध्यानके बाह्य चिह्न हैं ।।४०।। इसी प्रकार शरीरका क्षीण हो जाना, शरीरकी कान्ति नष्ट हो जाना, हाथोंपर कपोल रखकर पश्चात्ताप करना, आँसू डालना, तथा इसी प्रकार और भी अनेक कार्य आर्तध्यानके बाह्य चिह्न कहलाते हैं। (चारित्रसार पृष्ठ संख्या १६७/४) ज्ञानार्णव अधिकार संख्या २५/२३/२५७ ऋते भवमथार्त्तं स्यादसद्ध्यानं शरीरिणाम्। दिग्मोहान्मत्ततातुल्यमविद्यावासनावशात् ।।२३।। = ऋत कहिये पीड़ा-दुःख उपजै सो आर्त्तध्यान है। सो वह ध्यान अप्रशस्त है। जैसे किसी प्राणीके दिशाओंके भूल जानेसे उन्मत्तता होती है उसके समान है। यह ध्यान अविद्या अर्थात् मिथ्याज्ञानकी वासनाके वशसे उत्पन्न होती है। २. आर्त्तध्यानका आध्यात्मिक लक्षण चारित्रसार पृष्ठ संख्या १६७/५ स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकार्त्तध्यानं। = (अन्य लोग जिसका अनुमान कर सकें वह बाह्य आर्त्तध्यान है) जिसे केवल अपना ही आत्मा जान सके उसे आध्यात्मिक आर्त्तध्यान कहते हैं। ३. आर्त्तध्यानके भेद ज्ञानार्णव अधिकार संख्या २५/२४ अनिष्टयोगजन्याद्यं तथेष्टार्थात्ययात्प्यरम्। रुक्प्रकोपात्तृतीयं स्यान्निदानातुर्यमङ्गिनाम् ।।२४।। = पहिला आर्त्तध्यान तो जीवोंके अनिष्ट पदार्थोंके संयोगसे होता है। दूसरा आर्त्तध्यान इष्ट पदार्थके वियोगसे होता है। तीसरा आर्त्तध्यान रोगके प्रकोपकी पीड़ासे होता है और चौथा आर्त्तध्यान निदान कहिये आगामी कालमें भोगोंकी वांछाके होनेसे होता है। इस प्रकार चार भेद आर्त्तध्यानके हैं। (महापुराण सर्ग संख्या २१/३१-३६), (चारित्रसार पृष्ठ संख्या १६७/४) चारित्रसार पृष्ठ संख्या १६७/४ तत्रात्तं बाह्याध्यात्मिकभेदाद् द्विविकल्पं। = बाह्य और अध्यात्मके भेदसे आर्त्तध्यान दो प्रकारका है।....और वह आध्यात्मिक ध्यान चार प्रकारका होता है। द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या ४८/२०१ इष्टवियोगानिष्टसंयोगव्याधिप्रतिकारभोगनिदानेषु वाञ्छारूपं चतुर्विधमार्तध्यानम्। = इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग और रोग इन तीनोंको दूर करनेमें तथा भोगों वा भोगोंके कारणोंमें वांछा रूप चार प्रकारका आर्त्तध्यान होता है। (चारित्रसार पृष्ठ संख्या १६७/४)
आर्त्तध्यान मनोज्ञ अमनोज्ञ अनुत्पत्ति संप्रयोग सकल्प अनुत्पत्ति विप्रयोग संकल्प बाह्य आध्यात्मिक बाह्य आध्यात्मिक चेनत कृत अचेनत कृत शारीरिक मानसिक शारीरिक मानसिक चेतनकृत अचेतनकृत
४. अनिष्ट योगज आर्त्तध्यानका लक्षण तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ९/३० आर्त्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहार ।।३०।। = अमनोज्ञ पदार्थके प्राप्त होने पर उसके वियोगके लिए चिन्ता सातत्यका होना प्रथम आर्त्तध्यान है। सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ९/३०/९ अमनोज्ञमप्रियं विषकण्टकशत्रुशस्त्रादि, तद्बाधाकारणत्वाद् `अमनोज्ञम्' इत्युच्यते। तस्य संप्रयोगे, स कथं नाम न मे स्यादिति संकल्पश्चिन्ता प्रबन्धः स्मृतिसमन्वाहारः प्रथममार्त्त मित्थाख्यायते। = विष, कण्टक, शत्रु और शस्त्र आदि जो अप्रिय पदार्थ हैं वे बाधाके कारण होनेसे अमनोज्ञ कहे जाते हैं। उनका संयोग होने पर वे मेरे कैसे न हों इस प्रकारका संकल्प चिन्ता प्रबन्ध अर्थात् स्मृति समन्वाहार यह प्रथम आर्त्तध्यान कहलाता है। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/३०१-२/६२८), (महापुराण सर्ग संख्या २१/३२,३५)। नियमसार / तात्त्पर्यवृत्ति गाथा संख्या ८९ अनिष्टसंयोगाद्वा समुपजातमार्त्तध्यानम्। = अनिष्टके संयोगसे उत्पन्न होने वाला जो आर्त्तध्यान....। चारित्रसार पृष्ठ संख्या १६८/५ एतद्दुःखसाधनसद्भावे तस्य विनाशकाङ्क्षोत्पन्नविनाशसंकल्पाध्यवसानं द्वितीयार्तं। = (शारीरिक, व मानसिक) दुःखोंके कारण उत्पन्न होनेपर उसके विनाशकी इच्छा उत्पन्न होनेसे उनके विनाशके संकल्पका बार-बार चिन्तवन करना दूसरा आर्त्तध्यान है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा संख्या ४७३ दुक्खयर-विसय-जोए-केम इमं चयदि इदि विचितंतो। चेट्ठदि जो विक्खित्तो अट्ठ-ज्झाणं हवे तस्स ।।४७३।। = दुखकारी विषयोंका संयोग होने पर `यह कैसे दूर हो' इस प्रकार विचारता हुआ जो विक्षिप्त चित्त हो चेष्टा करता है उसके आर्त्त ध्यान होता है। ज्ञानार्णव अधिकार संख्या २५/२५-२८ ज्वलनजलविषास्त्रव्यालशार्दू लदैत्यैः स्थलजलविलसत्त्वै र्दूर्जनारातिभूपैः। स्वजनधनशरीरध्वंसिभिस्तैरनिष्टैर्भवति यदिह योगादाद्यसात्त तदेवत् ।।२५।। तथा चरत्थिरैर्भावैरनेकैः समुपस्थितैः। अनिष्टैर्यन्मनः क्लिष्टं स्यादार्त्तं तत्प्रकीर्तितम् ।।२६।। श्रुतैर्दृष्टैः स्मृतैर्ज्ञातेः प्रत्यासत्तिं च संसृतैः। योऽनिष्ठार्थैर्मनःक्लेशः पूर्वमार्त्तं तदिष्यते ।।२७।। अशेषानिष्टसंयोगे तद्वियोगानुचिन्तनम्। यत्स्यात्तदपि तत्त्वज्ञैः पूर्वमार्त्तं प्रकीर्तितम् ।।२८।। = इस जगत्में अपना स्वजन धन शरीर इनके नाश करनेवाले अग्नि, जल, विष, सर्प, शस्त्र, सिंह, दैत्य तथा स्थलके जीव, जलके जीव, बिलके जीव तथा दुष्ट जन, वैरी राजा इत्यादि अनिष्ट पदार्थोंके संयोगसे जो हो सो पहिला आर्त्तध्यान है ।।२५।। तथा चर और स्थिर अनेक अनिष्ट पदार्थोंके संयोग होने पर जो मन क्लेश रूप हो उसको भी आर्त्तध्यान कहा है ।।२६।। जो सुने, देखे, स्मरणमें आये, जाने हुए तथा निकट प्राप्त हुए अनिष्ट पदार्थोंसे मनको क्लेश होता है उसे पहिला आर्त्तध्यान कहते हैं ।।२७।। जो समस्त प्रकारके संयोग होने पर उनके वियोग होनेका बार-बार चिन्तन हो उसे भी तत्त्वके जानके वालोंने पहिला अनिष्ट संयोगज नामा आर्त्तध्यान कहा है ।।२८।। ५. इष्ट वियोगज आर्त्तध्यानका लक्षण तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ९/३१ विपरीतं मनोज्ञस्य ।।३१।। = मनोज्ञ वस्तुके वियोग होनेपर उसकी प्राप्तिकी सतत चिन्ता करना दूसरा आर्त्तध्यान है। (भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा संख्या १७०२) सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ९/३१/४४७/१ मनोज्ञस्येष्टस्य स्वपुत्रदारधनादेर्विप्रयोगे तत्संप्रयोगाय संकल्पश्चिन्ताप्रबन्धो द्वितीयमार्त्तमवगन्तव्यम्। = मनोज्ञ अर्थात् अपने इष्ट पुत्र स्त्री और धनादिक्के वियोग होनेपर उसकी प्राप्तिके लिए संकल्प अर्थात् निरन्तर चिन्ता करना दूसरा आर्त्तध्यान जानना जाहिए। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/३१/१/६२८) (महापुराण सर्ग संख्या २१/३२,३४) चारित्रसार पृष्ठ संख्या १६९/१ मनोज्ञं नाम धनधान्यहिरण्यसुवर्णवस्तुवाहनशयनासनस्रक्चन्दनवनितादिसुखसाधनं मे स्यादिति गर्द्धनं। मनोज्ञस्य विप्रयोगस्य उत्पत्तिसंकल्पाध्यावसानं तृतीयात्तं।। = धन, धान्य, चाँदी, सुवर्ण, सवारी, शय्या, आसन, माला, चन्दन और स्त्री आदि सुखोंके साधनको मनोज्ञ कहते हैं। ये मनोज्ञ पदार्थ मेरे हों इस प्रकार चिन्तवन करना, मनोज्ञ पदार्थके वियोग होनेपर उनके उत्पन्न होनेका बार-बार चिन्तन करना आर्त्तध्यान है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा संख्या ४७४ मणहर-विसय-विओगे-कहतं वामेमि इदि वियप्पो जो। संतावेण पयट्टो सोच्चिय अट्टं हवे झाणं ।।४७४।। = मनोहर विषयका वियोग होनेपर `कैसे इसे प्राप्त करूं' इस प्रकार विचारता हुआ जो दुःखसे प्रवृत्ति करता है यह भी आर्त्तध्यान है। ज्ञानार्णव अधिकार संख्या २५/२९-३१ राज्यैश्वर्यकलत्रबान्धवसुहृत्सौभाग्यभोगात्ययचित्तप्रीतिकरप्रसन्नविषयप्रध्वंसभावेऽथवा। संत्रासभ्रमशोकमोहविवशैर्यत्खिद्यतेऽहर्निशं तत्स्यादिष्टवियोगजं तनुमतां ध्यानं कलङ्गास्पदम् ।।२१।। दृष्टश्रुतानुभूतैस्तैः पदार्थैश्चित्तरञ्जकैः। वियोगे यन्मनः खिन्नं स्यादार्त्तं तद्द्वितीयकम् ।।३०।। मनोज्ञवस्तुविधवसे मनस्तत्संगमार्थिभिः। क्लिश्यते यत्तदेवत्स्याद्द्वितीयार्त्तस्य लक्षणम् ।।३१।। = जो राज्य ऐश्वर्य स्त्री, कुटुम्ब, मित्र, सौभाग्य भोगादिके नाश होनेपर तथा चित्तको प्रीति उत्पन्न करनेवाले सुन्दर स्त्रियोंके विशयोंका प्रध्वंस होते हुए, सन्त्रास, पीड़ा, भ्रम, शोक, मोहके कारण निरन्तर खेद रूप होना सो जीवोंके इष्ट वियोग जनित आर्त्तध्यान है, और यह ध्यान पापका स्थान है ।।२९।। देखे, सुने, अनुभव किये, मनको रंजायमान करनेवाले पूर्वोक्त पदार्थोंका वियोग होनेसे जो मनको खेद हो वह भी दूसरा आर्त्तध्यान है ।।३०।। अपने मनकी प्यारी वस्तुके विध्वंस होनेपर पुनः उसकी प्राप्ति के लिए जो क्लेश रूप होना सो दूसरे आर्त्तध्यान का लक्षण है। नियमसार / तात्त्पर्यवृत्ति गाथा संख्या ८९ स्वदेशत्यागाद् द्रव्यनाशाद् मित्रजनविदेशगमनात् कमनीयकामिनीवियोगात्-समुपजातमार्तध्यान्। = स्वदेशकेत्याग से, द्रव्यके नाशसे, मित्रजनके विदेश गमनसे, कमनीय कामिनीके वियोगसे उत्पन्न होनेवाला आर्त्तध्यान है। ६. वेदना सम्बन्धी आर्त्तध्यानका लक्षण तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ९/३२ वेदनायाश्च ।।३२।। = वेदनाके होनेपर (अर्थात् वातादि विकार जनित शारीरिक वेदनाके होनेपर उसे दूर करनेकी सतत चिन्ता करना तीसरा आर्त्तध्यान है। ज्ञानार्णव अधिकार संख्या २५/३२-३३ कासश्वासभगन्दरजलोदरजराकुष्ठातिसारज्वरैः, पित्तश्लेष्ममरुत्प्रकोपजनितैः रोगैः शरीरान्तकैः। स्यात्सत्त्वप्रबलैः प्रतिक्षणभवैर्यद्याकुलत्वं नृणाम्, तद्रोगार्त्तमनिन्दितैः प्रकटितं दुर्वार-दुःखाकरम् ।।३२।। स्वल्पानामपि रोगाणां माभृत्स्वप्नेऽपि संभवः। ममेतया नृणां चिन्ता स्यादार्त्तं तत्ततीयवम् ।।३३।। = वात पित्त कफके प्रकोपसे उत्पन्न हुए शरीको नाश करनेवाला वीर्यसे प्रबल और क्षण-क्षणमें उत्पन्न होनेवाले कास, श्वास, भगन्दर, जलोदर, जरा, कोढ़, अतिसार, ज्वरादिक रोगोंसे मनुष्योंके जो व्याकुलता होती है, उसे अनिन्दित पुरुषोंने रोग पीड़ाचिन्तवन नामा आर्त्तध्यान कहा है, यह ध्यान दुर्निवार और दुखोंका आकार है जो कि आगामी कालमें पाप बन्धका कारण है ।।३२।। जीवोंके ऐसी चिन्ता हो कि मेरे किंचित् रोगकी उत्पत्ति स्वप्नमें भी न हो सो ऐसा चिन्तवन तीसरा आर्त्तध्यान है ।।३३।। • निदान व अपध्यानके लक्षण - दे. वह वह नाम। २. आर्त्तध्यान निर्देश १. आर्त्तध्यानमें सम्भव भाव व लेश्या महापुराण सर्ग संख्या २१/३८ अप्रशस्ततमं लेश्यात्रयमाश्रित्य जृम्भितम्। अन्तर्मुहूर्तकालं तद् अप्रशप्तावलम्बनम् ।।३८।। = यह चारों प्रकारका आर्त्तध्यान अत्यन्त अशुभ कृष्ण नील और कापोत लेश्याका आश्रय कर उत्पन्न होता है, इसका काल अन्तर्मुहूर्त है और आलम्बन अशुभ है। (ज्ञानार्णव अधिकार संख्या २५/४०) (चारित्रसार पृष्ठ संख्या १६९/३) २. आर्त्तध्यानका फल सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ९/२९ यह संसार का कारण है। राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/३३/१/६२९ तिर्यग्भवगमनपर्यवसानम्। = इस आर्त्तध्यानका फल तिर्यञ्च गति है। (हरिवंश पुराण सर्ग ५६/१८), (चारित्रसार पृष्ठ संख्या १६९/४) ज्ञानार्णव अधिकार संख्या २५/४२ अनन्तदुःखसकीर्णस्य तिर्यग्गतैः, फलं...।।४२।। = आर्त्तध्यानका फल अनन्त दुखोंसे व्याप्त तिर्यञ्च गति है। ३. मनोज्ञ व निदान आर्त्तध्यानमें अन्तर राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/३३/१/३३ विपरीतं मनोज्ञस्येत्यनेवैव निदानं संगृहीतमिति; तन्न; किं कारणम्। अप्राप्तपूर्वविषयत्वान्निदानस्य। सुखमात्रया प्रलम्भितस्याप्राप्तपूर्वप्रार्थनाभिमुख्यादनागतार्थप्राप्तिनिबन्धनं निदानमित्यस्ति विशेषः। = प्रश्न - `विपरीतं मनोज्ञस्य' इस सूत्रसे निदान का संग्रह हो जाता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि निदान अप्राप्तकी प्राप्ति के लिए होता है, इसमें पारलौकिक विषय-सुखकी गृद्धिसे अनागत अर्थकी प्राप्तिके लिए सतत चिन्ता रहती है। इस प्रकार इन दोनों में अन्तर है। ३. आर्त्तध्यानका स्वामित्व १. १-६ गुणस्थान तक होता है तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ९/३४ तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ।।३४।। = यह आर्त्तध्यान अविरत, देशविरत, और प्रमत्त संयत जीवोंके होता है। सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ९/३४/४४७/१४ अविरताः सम्यग्दृष्ट्यन्ताः देशविरताः संयतासंयताः प्रमत्तसंयताः...तत्र विरतदेशविरतानां चतुर्विधमप्यार्त्तं भवति,...प्रमत्तसंयतानां तु निदानवर्ज्यमन्यदार्त्तत्रयं प्रमादोदयोद्रेकात्कदाचित्स्यात्। = असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तकके जीव अविरत कहलाते हैं, संयतासंयत जीव देशविरत कहलाते हैं, प्रमाद से युक्त क्रिया करनेवाले प्रमत्त संयत कहलाते हैं। इनमें से अविरत और देशविरत जीवोंके चारों ही प्रकारका आर्त्तध्यान होता है। प्रमत्त संयतोंके तो निदानके सिवा बाकीके तीन प्रमादकी तीव्रता वश कदाचित् होते हैं। ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/३४/१/६२९) (हरिवंश पुराण सर्ग ५६/१८) (महापुराण सर्ग संख्या २१/३७) (चारित्रसार पृष्ठ संख्या १६९/३) (ज्ञानार्णव अधिकार संख्या २५/३८-३९) (द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या ४८,४८/२०१) • साधु योग्य आर्तध्यानकी सीमा - दे. संयत/३ २. आर्त्तध्यानके बाह्य चिह्न ज्ञानार्णव अधिकार संख्या २५/४३ शङ्काशोकभयप्रमादकलहश्चित्तभ्रमोद्भ्रान्तयः। उन्मादो विषयोत्सुकत्वसमकृन्निद्राङ्गजाड्यश्रमाः। मूर्छादीनि शरीरिणामविरतं लिङ्गानि बाह्यान्यलमार्त्ता-धिष्ठितचेतसां श्रुतधरैर्व्यावर्णितानि स्फूटम् ।।४३।। = इस आर्त्तध्यानके आश्रितचित्तवाले पुरुषोंके बाह्य चिह्न शास्त्रोंके पारगामी विद्वानोंने इस प्रकार कहे हैं कि-प्रथम तो शंका, होती है, अर्थात् हर बातमें सन्देह होता है, फिर शोक होता है, भय होता है, प्रमाद होता है-सावधानी नहीं होती, कलह करता है, चित्तभ्रम हो जाता है, उद्भ्रान्ति होती है, चित्त एक जगह नहीं ठहरता, विषय सेवनमें उत्कष्ठा होती है, निरन्तर निद्रा गमन होता है, अंगमें जड़ता होती है, खेद होता है, मूर्च्छा होती है, इत्यादि चिन्ह आर्तध्याननीके प्रगट होते हैं।