नागदत्त: Difference between revisions
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<p id="1"> (1) | <p id="1"> (1) धातकीखंड द्वीप के पूर्व मेरु से पश्चिम दिशा की ओर स्थित विदेह क्षेत्र में गंधिल देश के पाटली ग्राम का एक वैश्य । इसकी सुमति नाम की भार्या थी । इसमें इसके नंद, नंदिमित्र नंदिषेण, वरसेन और जयसेन पांच पुत्र तथा मदनकांता और श्रीकांता नाम की दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई थी । <span class="GRef"> महापुराण 6.126-130 </span></p> | ||
<p id="2">(2) आभियोग्य जाति के देवों में मुख्य देव । <span class="GRef"> महापुराण 22.17 </span></p> | <p id="2">(2) आभियोग्य जाति के देवों में मुख्य देव । <span class="GRef"> महापुराण 22.17 </span></p> | ||
<p id="3">(3) धान्यपुर नगर के कुबेर नामक वणिक् और उसकी पत्नी सुदत्ता का पुत्र । यह अप्रत्याख्यानावरण माया का धारक था । आर्तध्यान से मरकर तिर्यंच आयु का | <p id="3">(3) धान्यपुर नगर के कुबेर नामक वणिक् और उसकी पत्नी सुदत्ता का पुत्र । यह अप्रत्याख्यानावरण माया का धारक था । आर्तध्यान से मरकर तिर्यंच आयु का बंध कर लेने से यह वानर हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 8.230-233 </span></p> | ||
<p id="4">(4) भरतक्षेत्र के | <p id="4">(4) भरतक्षेत्र के अवंति देश में उज्जयिनी नगर के सेठ धनदेव और सेठानी धनमित्रा का पुत्र । यह महाबल का जीव था । इसकी अर्थस्वामिनी नाम की एक छोटी बहिन थी । इसकी माँ धनदेव के दूसरा विवाह कर लेने से उसके द्वारा त्यागे जाने पर इसे (नागदत्त को) लेकर मुनि शीलदत्त के पास चली गयी थी । वहाँ इसने शीलदत्त मुनि से विद्याभ्यास किया और वहाँ के शिष्ट पुरुषा से उपाध्याय पद भी प्राप्त हुआ । बहिन को अपनी मामी के पुत्र कुलवाणिज को देकर यह अपने पिता के पास आया । पिता के कहने पर अपने हिस्से का धन लेने के लिए यह अपने हिस्सेदार भाई नकुल और सहदेव के साथ पलाशद्वीप के मध्य स्थित पलाश-नगर गया । वहाँँ एक दुष्ट विद्याधर का वध करके इसने वहाँ के राजा महाबल और उनकी रानी कांचनलता की पुत्री पद्मलता के साथ बहुत धन प्राप्त किया । इसने पद्मलता और धन दोनों को रस्सी से नाव पर पहुँचा दिया । इधर पाप बुद्धि से नकुल और सहदेव दोनों इसे छोड़कर चले गये । यह किसी विद्याधर की सहायता प्राप्त कर घर आया । नागदत्त के न आने पर राजा नकुल का विवाह पद्मलता से करना चाहता था परंतु इसके पहुँचते ही तथा इससे यात्रा के समाचार ज्ञात करके राजा ने पद्मलता नकुल को न देकर इसे प्रदान की । इससे सेठ धनदेव भी बहुत लज्जित हुआ । आयु के अंत में यह सन्यासपूर्वक देह त्यागकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 75.95-162 </span></p> | ||
<p id="5">(5) मगध देश में सुप्रतिष्ठ नगर के निवासी सेठ सागरदत्त और उसकी स्त्री प्रभाकरी का ज्येष्ठ पुत्र, कुबेरदत्त का अग्रज । पिता के संन्यास धारण कर लेने पर इसने अपने भाई कुबेरदत्त से पिता के धन के | <p id="5">(5) मगध देश में सुप्रतिष्ठ नगर के निवासी सेठ सागरदत्त और उसकी स्त्री प्रभाकरी का ज्येष्ठ पुत्र, कुबेरदत्त का अग्रज । पिता के संन्यास धारण कर लेने पर इसने अपने भाई कुबेरदत्त से पिता के धन के संबंध में प्रश्न किया जिसके उत्तर में कुबेरदत्त ने इसे पिता के धन की संपूर्ण जानकारी दी । दोनों ने चतुर्विध दान दिये । इसने कुबेरदत्त के पुत्र को धोखा दिया था । प्रीतिकर को प्राप्त अलका नगरी के राग हरिबल के छोटे भाई महासेन की पुत्री वसुंधरा तथा धन को प्राप्त कर लेने पर इसने वसुंधरा के भूले हुए आभरणों को लाने के लिए उसे नगर में भेजा और जहाज से उतरने की रस्सी खींच ली । इस तरह प्रीतिंकर को छोड़कर यह वहाँ से चला आया था । नगरवासियों के पूछने पर इसने प्रीतिंकर के संबंध में अपनी अनभिज्ञता प्रकट की । प्रीतिंकर जैन मंदिर गया, वहाँ नंद और महानंद यक्षों ने प्रीतिंकर के कान में बँधे पत्र को पढ़कर उसे अपना साधर्मी भाई समझा । उन्होंने उसे धरणिभूषण पर्वत पर छोड़ दिया । प्रीतिंकर से गुप्त रहस्य ज्ञात कर राजा ने क्रोधित होते हुए इसका धन लुटवा दिया था और प्रीतिंकर को अपनी पृथिवीसुंदरी तथा अन्य बत्तीस कन्याएँ दी थी । <span class="GRef"> महापुराण 76.216-218, 232-237, 295-347 </span></p> | ||
Revision as of 16:26, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से == यह एक साधु थे, जिनको सर्प द्वारा डसा जाने के कारण वैराग्य आया था। (बृहत् कथा कोश/कथा नं.27)
पुराणकोष से
(1) धातकीखंड द्वीप के पूर्व मेरु से पश्चिम दिशा की ओर स्थित विदेह क्षेत्र में गंधिल देश के पाटली ग्राम का एक वैश्य । इसकी सुमति नाम की भार्या थी । इसमें इसके नंद, नंदिमित्र नंदिषेण, वरसेन और जयसेन पांच पुत्र तथा मदनकांता और श्रीकांता नाम की दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई थी । महापुराण 6.126-130
(2) आभियोग्य जाति के देवों में मुख्य देव । महापुराण 22.17
(3) धान्यपुर नगर के कुबेर नामक वणिक् और उसकी पत्नी सुदत्ता का पुत्र । यह अप्रत्याख्यानावरण माया का धारक था । आर्तध्यान से मरकर तिर्यंच आयु का बंध कर लेने से यह वानर हुआ । महापुराण 8.230-233
(4) भरतक्षेत्र के अवंति देश में उज्जयिनी नगर के सेठ धनदेव और सेठानी धनमित्रा का पुत्र । यह महाबल का जीव था । इसकी अर्थस्वामिनी नाम की एक छोटी बहिन थी । इसकी माँ धनदेव के दूसरा विवाह कर लेने से उसके द्वारा त्यागे जाने पर इसे (नागदत्त को) लेकर मुनि शीलदत्त के पास चली गयी थी । वहाँ इसने शीलदत्त मुनि से विद्याभ्यास किया और वहाँ के शिष्ट पुरुषा से उपाध्याय पद भी प्राप्त हुआ । बहिन को अपनी मामी के पुत्र कुलवाणिज को देकर यह अपने पिता के पास आया । पिता के कहने पर अपने हिस्से का धन लेने के लिए यह अपने हिस्सेदार भाई नकुल और सहदेव के साथ पलाशद्वीप के मध्य स्थित पलाश-नगर गया । वहाँँ एक दुष्ट विद्याधर का वध करके इसने वहाँ के राजा महाबल और उनकी रानी कांचनलता की पुत्री पद्मलता के साथ बहुत धन प्राप्त किया । इसने पद्मलता और धन दोनों को रस्सी से नाव पर पहुँचा दिया । इधर पाप बुद्धि से नकुल और सहदेव दोनों इसे छोड़कर चले गये । यह किसी विद्याधर की सहायता प्राप्त कर घर आया । नागदत्त के न आने पर राजा नकुल का विवाह पद्मलता से करना चाहता था परंतु इसके पहुँचते ही तथा इससे यात्रा के समाचार ज्ञात करके राजा ने पद्मलता नकुल को न देकर इसे प्रदान की । इससे सेठ धनदेव भी बहुत लज्जित हुआ । आयु के अंत में यह सन्यासपूर्वक देह त्यागकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ । महापुराण 75.95-162
(5) मगध देश में सुप्रतिष्ठ नगर के निवासी सेठ सागरदत्त और उसकी स्त्री प्रभाकरी का ज्येष्ठ पुत्र, कुबेरदत्त का अग्रज । पिता के संन्यास धारण कर लेने पर इसने अपने भाई कुबेरदत्त से पिता के धन के संबंध में प्रश्न किया जिसके उत्तर में कुबेरदत्त ने इसे पिता के धन की संपूर्ण जानकारी दी । दोनों ने चतुर्विध दान दिये । इसने कुबेरदत्त के पुत्र को धोखा दिया था । प्रीतिकर को प्राप्त अलका नगरी के राग हरिबल के छोटे भाई महासेन की पुत्री वसुंधरा तथा धन को प्राप्त कर लेने पर इसने वसुंधरा के भूले हुए आभरणों को लाने के लिए उसे नगर में भेजा और जहाज से उतरने की रस्सी खींच ली । इस तरह प्रीतिंकर को छोड़कर यह वहाँ से चला आया था । नगरवासियों के पूछने पर इसने प्रीतिंकर के संबंध में अपनी अनभिज्ञता प्रकट की । प्रीतिंकर जैन मंदिर गया, वहाँ नंद और महानंद यक्षों ने प्रीतिंकर के कान में बँधे पत्र को पढ़कर उसे अपना साधर्मी भाई समझा । उन्होंने उसे धरणिभूषण पर्वत पर छोड़ दिया । प्रीतिंकर से गुप्त रहस्य ज्ञात कर राजा ने क्रोधित होते हुए इसका धन लुटवा दिया था और प्रीतिंकर को अपनी पृथिवीसुंदरी तथा अन्य बत्तीस कन्याएँ दी थी । महापुराण 76.216-218, 232-237, 295-347