नारद: Difference between revisions
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<p>ये नारायणों के समय में होते हैं । ये अतिरुद्र होते हैं और दूसरों को रुलाया करते हैं । ये कलह और युद्ध के प्रेमी होते हैं । ये एक स्थान का | <p>ये नारायणों के समय में होते हैं । ये अतिरुद्र होते हैं और दूसरों को रुलाया करते हैं । ये कलह और युद्ध के प्रेमी होते हैं । ये एक स्थान का संदेश दूसरे स्थान तक पहुँचाने मे सिद्धहस्त होते हैं । ये जटा मुकुट, कमंडलु, यज्ञोपवीत, काषायवस्त्र और छत्र धारण करते हैं । ये ब्रह्मचारी होते हैं । ये धर्म में रत होते हुए भी हिंसादोष के कारण नरकगामी होते हैं । पर जिनेंद्र भक्त और भव्य होने के कारण इन्हें परंपरा से मुक्ति मिलती है । वर्तमान काल के नौ नारद ये हैं—भीम, महाभीम, रुद्र, महारुद्र, काल, महाकाल, चतुर्मुख, नरवक्त्र और उन्मुख । पुराणों में नारद नाम के कुछ व्यक्तियों की सूचनाएँ निम्न प्रकार हैं― </p> | ||
<p id="1">(1) वसुदेव और रानी सोमश्री का ज्येष्ठ पुत्र, मरुदेव का सहोदर । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 48. 57 </span></p> | <p id="1">(1) वसुदेव और रानी सोमश्री का ज्येष्ठ पुत्र, मरुदेव का सहोदर । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 48. 57 </span></p> | ||
<p id="2">(2) आगामी बाईसवें तीर्थंकर का जीव । <span class="GRef"> महापुराण 76-474 </span></p> | <p id="2">(2) आगामी बाईसवें तीर्थंकर का जीव । <span class="GRef"> महापुराण 76-474 </span></p> | ||
<p id="3">(3) गानविद्या का एक आचार्य । <span class="GRef"> पद्मपुराण 3.179, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 19.140 </span></p> | <p id="3">(3) गानविद्या का एक आचार्य । <span class="GRef"> पद्मपुराण 3.179, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 19.140 </span></p> | ||
<p id="4">(4) भरतक्षेत्र में धवलदेश की स्वस्तिकावती नगरी के निवासी | <p id="4">(4) भरतक्षेत्र में धवलदेश की स्वस्तिकावती नगरी के निवासी क्षीरकदंबक नामक विद्वान् ब्राह्मण अध्यापक का शिष्य यह इसी नगरी के राजा विश्वावसु के पुत्र वसु और गुरु-पुत्र पर्वत का सहपाठी था । ‘‘अजैर्होतव्यम्’’ का अर्थ निरूपण करने में हम का पर्वत के साथ विवाद हो गया था । इसका कथन था कि जिसमें अंकुर उत्पन्न करने की शक्ति नष्ट हो गयी है ऐसा तीन वर्ष पुराना ‘‘जौ’’ अज है जबकि पर्वत ‘‘अज’’ का अर्थ ‘‘पशु’’ बताता था । पर्वत के विवाद और शर्त जानकर पर्वत की माँ राजा वसु के पास गयी तथा उसके उसने पर्वत की विजय के लिए उसे सहमत कर लिया । राजा वसु ने पर्वत को जैसे ही विजयी घोषित किया कि उसका सिंहासन महागर्त में निमग्न हो गया । इससे प्रभावित होकर प्रजा ने नारद को ‘गिरितट’ नाम का नगर प्रदान किया । अंत में यह देह त्याग कर सर्वार्थसिद्धि गया । <span class="GRef"> महापुराण 67.256-259, 329-332,414-417, 426, 433, 444,473, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 11.13-74, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 17.37-163 </span></p> | ||
<p id="5">(5) कृष्ण के समय का नारद । यह उंछवृत्ति से रहने वाले सुमित्र और सोमयशा का पुत्र था । इसके माता-पिता उंछवृत्ति से भोजनसामग्री एकत्र करने के लिए चले गये और इसे एक वृक्ष के नीचे छोड़ गये । यहाँ से | <p id="5">(5) कृष्ण के समय का नारद । यह उंछवृत्ति से रहने वाले सुमित्र और सोमयशा का पुत्र था । इसके माता-पिता उंछवृत्ति से भोजनसामग्री एकत्र करने के लिए चले गये और इसे एक वृक्ष के नीचे छोड़ गये । यहाँ से जृंभक नामक देव इसे सादर पर्वत पर ले गया और मणिकांचन गुहा में दिव्य आहार से उसने इसका लालन-पालन किया । आठ वर्ष की अवस्था में इसे देवों ने आकाशगामिनी विद्या दी । इसने संयमासंयम धारण किया । काम-विजेता होकर भी यह काम के समान भ्रमणशील था । यह निर्लोभी, निष्कषायी और चरम-शरीरी था । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 42.16-24 </span>यह अपराजित की सभा में आया था । वह नर्तकियों के नृत्य में लीन था, इसलिए इसे नहीं देख सका । क्रुद्ध होकर यह राजा दमितारि के पास आया । उसे उन नर्तकियों को लाने के लिए प्रेरित किया । अपराजित अधिक शक्तिशाली था इसलिए उसने दमितारि के सारे प्रयत्न विफल कर दिये अंत में दमितारि के द्वारा छोड़े हुए चक्र से अपराजित ने दमितारि को मार दिया । <span class="GRef"> पांडवपुराण 4.255-275 </span>इसी ने पद्नाभ के द्वारा द्रौपदी का हरण कराया था । इसमें भी पद्नाभ सफल नहीं हो सका था । <span class="GRef"> पांडवपुराण 21. 10 </span></p> | ||
<p id="6">(6) एक देव । यह कृष्ण की पटरानी लक्ष्मणा का पूर्वभव का जीव था । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 7.77-81 </span></p> | <p id="6">(6) एक देव । यह कृष्ण की पटरानी लक्ष्मणा का पूर्वभव का जीव था । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 7.77-81 </span></p> | ||
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Revision as of 16:26, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- प्रत्येक कल्पकाल के नौ नारदों का निर्देश व नारद की उत्पत्ति स्वभाव आदि–(देखें शलाकापुरुष - 7)।
- भावी कालीन 21वें ‘जय’ तथा 22वें ‘विमल’ नामक तीर्थंकरों के पूर्व भवों के नाम–देखें तीर्थंकर - 5।
पुराणकोष से
ये नारायणों के समय में होते हैं । ये अतिरुद्र होते हैं और दूसरों को रुलाया करते हैं । ये कलह और युद्ध के प्रेमी होते हैं । ये एक स्थान का संदेश दूसरे स्थान तक पहुँचाने मे सिद्धहस्त होते हैं । ये जटा मुकुट, कमंडलु, यज्ञोपवीत, काषायवस्त्र और छत्र धारण करते हैं । ये ब्रह्मचारी होते हैं । ये धर्म में रत होते हुए भी हिंसादोष के कारण नरकगामी होते हैं । पर जिनेंद्र भक्त और भव्य होने के कारण इन्हें परंपरा से मुक्ति मिलती है । वर्तमान काल के नौ नारद ये हैं—भीम, महाभीम, रुद्र, महारुद्र, काल, महाकाल, चतुर्मुख, नरवक्त्र और उन्मुख । पुराणों में नारद नाम के कुछ व्यक्तियों की सूचनाएँ निम्न प्रकार हैं―
(1) वसुदेव और रानी सोमश्री का ज्येष्ठ पुत्र, मरुदेव का सहोदर । हरिवंशपुराण 48. 57
(2) आगामी बाईसवें तीर्थंकर का जीव । महापुराण 76-474
(3) गानविद्या का एक आचार्य । पद्मपुराण 3.179, हरिवंशपुराण 19.140
(4) भरतक्षेत्र में धवलदेश की स्वस्तिकावती नगरी के निवासी क्षीरकदंबक नामक विद्वान् ब्राह्मण अध्यापक का शिष्य यह इसी नगरी के राजा विश्वावसु के पुत्र वसु और गुरु-पुत्र पर्वत का सहपाठी था । ‘‘अजैर्होतव्यम्’’ का अर्थ निरूपण करने में हम का पर्वत के साथ विवाद हो गया था । इसका कथन था कि जिसमें अंकुर उत्पन्न करने की शक्ति नष्ट हो गयी है ऐसा तीन वर्ष पुराना ‘‘जौ’’ अज है जबकि पर्वत ‘‘अज’’ का अर्थ ‘‘पशु’’ बताता था । पर्वत के विवाद और शर्त जानकर पर्वत की माँ राजा वसु के पास गयी तथा उसके उसने पर्वत की विजय के लिए उसे सहमत कर लिया । राजा वसु ने पर्वत को जैसे ही विजयी घोषित किया कि उसका सिंहासन महागर्त में निमग्न हो गया । इससे प्रभावित होकर प्रजा ने नारद को ‘गिरितट’ नाम का नगर प्रदान किया । अंत में यह देह त्याग कर सर्वार्थसिद्धि गया । महापुराण 67.256-259, 329-332,414-417, 426, 433, 444,473, पद्मपुराण 11.13-74, हरिवंशपुराण 17.37-163
(5) कृष्ण के समय का नारद । यह उंछवृत्ति से रहने वाले सुमित्र और सोमयशा का पुत्र था । इसके माता-पिता उंछवृत्ति से भोजनसामग्री एकत्र करने के लिए चले गये और इसे एक वृक्ष के नीचे छोड़ गये । यहाँ से जृंभक नामक देव इसे सादर पर्वत पर ले गया और मणिकांचन गुहा में दिव्य आहार से उसने इसका लालन-पालन किया । आठ वर्ष की अवस्था में इसे देवों ने आकाशगामिनी विद्या दी । इसने संयमासंयम धारण किया । काम-विजेता होकर भी यह काम के समान भ्रमणशील था । यह निर्लोभी, निष्कषायी और चरम-शरीरी था । हरिवंशपुराण 42.16-24 यह अपराजित की सभा में आया था । वह नर्तकियों के नृत्य में लीन था, इसलिए इसे नहीं देख सका । क्रुद्ध होकर यह राजा दमितारि के पास आया । उसे उन नर्तकियों को लाने के लिए प्रेरित किया । अपराजित अधिक शक्तिशाली था इसलिए उसने दमितारि के सारे प्रयत्न विफल कर दिये अंत में दमितारि के द्वारा छोड़े हुए चक्र से अपराजित ने दमितारि को मार दिया । पांडवपुराण 4.255-275 इसी ने पद्नाभ के द्वारा द्रौपदी का हरण कराया था । इसमें भी पद्नाभ सफल नहीं हो सका था । पांडवपुराण 21. 10
(6) एक देव । यह कृष्ण की पटरानी लक्ष्मणा का पूर्वभव का जीव था । हरिवंशपुराण 7.77-81