पर्याय सामान्य निर्देश: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">गुण से पृथक् पर्याय निर्देश का कारण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">गुण से पृथक् पर्याय निर्देश का कारण</strong> </span><br /> | ||
न्यायदीपिका/3/ §78/121/4 <span class="SanskritText">यद्यपि सामान्यविशेषौ पर्यायौ तथापि सङ्केतग्रहणनिबन्धनत्वाच्छब्दव्यवहारविषयत्वाच्चागम-प्रस्तावेतयोः पृथग्निर्देशः।</span> = <span class="HindiText">यद्यपि सामान्य और विशेष भी पर्याय हैं, और पर्यायों के कथन से उनका भी कथन हो जाता है - उनका पृथक् निर्देश (कथन) करने की आवश्यकता नहीं है तथापि संकेताज्ञान में कारण होने से और जुदा-जुदा शब्द व्यवहार होने से इस आगम प्रस्ताव में (आगम प्रमाण के निरूपण में) सामान्य विशेष का पर्यायों से पृथक् निरूपण किया है। <br /> | |||
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सर्वार्थसिद्धि/5/35/309/5 <span class="SanskritText"> व्यतिरेकिणः पर्यायाः। </span>= <span class="HindiText">पर्याय व्यतिरेकी होती है (न.च.श्रुत./पृ.57); ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/5 ); ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/93/121/15 ); ( परमात्मप्रकाश टीका/1/57 ); ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध 165 )। </span><br /> | |||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/80, 95 <span class="SanskritText"> अन्वयव्यतिरेकाः पर्यायाः। 80। पर्याया आयत-विशेषाः। 95। </span>= <span class="HindiText">अन्वय व्यतिरेक वे पर्याय हैं। 80। पर्याय आयत विशेष है। 95। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/93 )। </span><br /> | |||
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/5 <span class="SanskritText">पदार्थास्तेषामवयवा अपि प्रदेशाख्याः परस्परव्यतिरेकित्वात्पर्याया उच्यन्ते। </span>= <span class="HindiText">पदार्थों के जो अवयव हैं वे भी परस्पर व्यतिरेकवाले होने से पर्यायें कहलाती हैं। </span><br /> | |||
अध्यात्मकमल मार्तण्ड। वीरसेवा मन्दिर/2/9 <span class="SanskritGatha">व्यतिरेकिणो ह्यनि-त्यास्तत्काले द्रव्यतन्मयाश्चापि। ते पर्याय द्विविधा द्रव्यावस्थाविशेषधर्मांशा। 9। </span>= <span class="HindiText">जो व्यतिरकी हैं और अनित्य हैं तथा अपने काल में द्रव्य के साथ तन्मय रहती हैं ऐसी द्रव्य की अवस्था विशेष, या धर्म, या अंश पर्याय कहलाती है। 9। <br /> | अध्यात्मकमल मार्तण्ड। वीरसेवा मन्दिर/2/9 <span class="SanskritGatha">व्यतिरेकिणो ह्यनि-त्यास्तत्काले द्रव्यतन्मयाश्चापि। ते पर्याय द्विविधा द्रव्यावस्थाविशेषधर्मांशा। 9। </span>= <span class="HindiText">जो व्यतिरकी हैं और अनित्य हैं तथा अपने काल में द्रव्य के साथ तन्मय रहती हैं ऐसी द्रव्य की अवस्था विशेष, या धर्म, या अंश पर्याय कहलाती है। 9। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">पर्याय द्रव्य के क्रमभावी अंश हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">पर्याय द्रव्य के क्रमभावी अंश हैं</strong> </span><br /> | ||
आलापपद्धति/6 <span class="SanskritText"> क्रमवर्तिनः पर्यायाः। </span>= <span class="HindiText">पर्याय एक के पश्चात् दूसरी, इस प्रकार क्रमपूर्वक होती है। इसलिए पर्याय क्रमवर्ती कही जाती है। ( स्याद्वादमञ्जरी/22/267/22 )। </span><br /> | |||
परमात्मप्रकाश/ मू./57 <span class="PrakritText">कम-भुव पज्जउ वुत्तु। 57। </span>=<span class="HindiText"> द्रव्य को अनेक रूप परिणति क्रम से हो अर्थात् अनित्यरूप समय-समय उपजे, विनशे, वह पर्याय कही जाती है। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/10 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/107 ); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14/9 )। </span><br /> | |||
परीक्षामुख/4/8 <span class="SanskritText">एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्याया आत्मनि हर्षविषादादिवत्। </span>=<span class="HindiText"> एक ही द्रव्य में क्रम से होनेवाले परिणामों को पर्याय कहते हैं। जैसे एक ही आत्मा में हर्ष और विषाद। <br /> | |||
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पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/89, 117 <span class="SanskritText">वस्त्वस्ति स्वतः सिद्धं यथा तथा तत्स्वतश्च परिणामि। 89। अपि नित्याः प्रतिसमयं विनापि यत्नं हि परिणमन्ति गुणाः। 117। </span>= <span class="HindiText">जैसे वस्तु स्वतःसिद्ध है वैसे ही वह स्वतः परिणमनशील भी है। 89। गुण नित्य हैं तो भी वे निश्चय करके स्वभाव से ही प्रतिसमय परिणमन करते रहते हैं। 117। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">पर्याय व क्रिया में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">पर्याय व क्रिया में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/5/22/21/4/81/19 <span class="SanskritText"> भावो द्विविधः - परिस्पन्दात्मकः अपरिस्पन्दात्मकश्च। तत्र परिस्पन्दात्मकः क्रियेत्याख्यायते, इतरः परिणामः। </span>=<span class="HindiText"> भाव दो प्रकार के होते हैं - परिस्पन्दात्मक व अपरिस्पन्दात्मक। परिस्पन्द क्रिया है तथा अन्य अर्थात् अपरिस्पन्द परिणाम अर्थात् पर्याय है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6">पर्याय निर्देश का प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6">पर्याय निर्देश का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/19/4/5 <span class="SanskritText">अत्र पर्यायरूपेणानित्यत्वेऽपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयेनाविनश्वरमनन्तज्ञानादिरूपशुद्ध-जीवास्तिकायाभिधानं रागादिपरिहारेणोपादेयरूपेण भावनीयमिति भावार्थः।</span> = <span class="HindiText">पर्यायरूप से अनित्य होने पर भी शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से अविनश्वर अनन्त ज्ञानादि रूप शुद्ध जीवास्तिकाय नाम का शुद्धात्म द्रव्य है उसको रागादि के परिहार के द्वारा उपादेय रूप से भाना चाहिए, ऐसा भावार्थ है। </span></li> | |||
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Revision as of 19:12, 17 July 2020
- पर्याय सामान्य निर्देश
- गुण से पृथक् पर्याय निर्देश का कारण
न्यायदीपिका/3/ §78/121/4 यद्यपि सामान्यविशेषौ पर्यायौ तथापि सङ्केतग्रहणनिबन्धनत्वाच्छब्दव्यवहारविषयत्वाच्चागम-प्रस्तावेतयोः पृथग्निर्देशः। = यद्यपि सामान्य और विशेष भी पर्याय हैं, और पर्यायों के कथन से उनका भी कथन हो जाता है - उनका पृथक् निर्देश (कथन) करने की आवश्यकता नहीं है तथापि संकेताज्ञान में कारण होने से और जुदा-जुदा शब्द व्यवहार होने से इस आगम प्रस्ताव में (आगम प्रमाण के निरूपण में) सामान्य विशेष का पर्यायों से पृथक् निरूपण किया है।
- पर्याय द्रव्य के व्यतिरेकी अंश हैं
सर्वार्थसिद्धि/5/35/309/5 व्यतिरेकिणः पर्यायाः। = पर्याय व्यतिरेकी होती है (न.च.श्रुत./पृ.57); ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/5 ); ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/93/121/15 ); ( परमात्मप्रकाश टीका/1/57 ); ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध 165 )।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/80, 95 अन्वयव्यतिरेकाः पर्यायाः। 80। पर्याया आयत-विशेषाः। 95। = अन्वय व्यतिरेक वे पर्याय हैं। 80। पर्याय आयत विशेष है। 95। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/93 )।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/5 पदार्थास्तेषामवयवा अपि प्रदेशाख्याः परस्परव्यतिरेकित्वात्पर्याया उच्यन्ते। = पदार्थों के जो अवयव हैं वे भी परस्पर व्यतिरेकवाले होने से पर्यायें कहलाती हैं।
अध्यात्मकमल मार्तण्ड। वीरसेवा मन्दिर/2/9 व्यतिरेकिणो ह्यनि-त्यास्तत्काले द्रव्यतन्मयाश्चापि। ते पर्याय द्विविधा द्रव्यावस्थाविशेषधर्मांशा। 9। = जो व्यतिरकी हैं और अनित्य हैं तथा अपने काल में द्रव्य के साथ तन्मय रहती हैं ऐसी द्रव्य की अवस्था विशेष, या धर्म, या अंश पर्याय कहलाती है। 9।
- पर्याय द्रव्य के क्रमभावी अंश हैं
आलापपद्धति/6 क्रमवर्तिनः पर्यायाः। = पर्याय एक के पश्चात् दूसरी, इस प्रकार क्रमपूर्वक होती है। इसलिए पर्याय क्रमवर्ती कही जाती है। ( स्याद्वादमञ्जरी/22/267/22 )।
परमात्मप्रकाश/ मू./57 कम-भुव पज्जउ वुत्तु। 57। = द्रव्य को अनेक रूप परिणति क्रम से हो अर्थात् अनित्यरूप समय-समय उपजे, विनशे, वह पर्याय कही जाती है। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/10 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/107 ); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14/9 )।
परीक्षामुख/4/8 एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्याया आत्मनि हर्षविषादादिवत्। = एक ही द्रव्य में क्रम से होनेवाले परिणामों को पर्याय कहते हैं। जैसे एक ही आत्मा में हर्ष और विषाद।
- पर्याय स्वतन्त्र हैं
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/89, 117 वस्त्वस्ति स्वतः सिद्धं यथा तथा तत्स्वतश्च परिणामि। 89। अपि नित्याः प्रतिसमयं विनापि यत्नं हि परिणमन्ति गुणाः। 117। = जैसे वस्तु स्वतःसिद्ध है वैसे ही वह स्वतः परिणमनशील भी है। 89। गुण नित्य हैं तो भी वे निश्चय करके स्वभाव से ही प्रतिसमय परिणमन करते रहते हैं। 117।
- पर्याय व क्रिया में अन्तर
राजवार्तिक/5/22/21/4/81/19 भावो द्विविधः - परिस्पन्दात्मकः अपरिस्पन्दात्मकश्च। तत्र परिस्पन्दात्मकः क्रियेत्याख्यायते, इतरः परिणामः। = भाव दो प्रकार के होते हैं - परिस्पन्दात्मक व अपरिस्पन्दात्मक। परिस्पन्द क्रिया है तथा अन्य अर्थात् अपरिस्पन्द परिणाम अर्थात् पर्याय है।
- पर्याय निर्देश का प्रयोजन
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/19/4/5 अत्र पर्यायरूपेणानित्यत्वेऽपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयेनाविनश्वरमनन्तज्ञानादिरूपशुद्ध-जीवास्तिकायाभिधानं रागादिपरिहारेणोपादेयरूपेण भावनीयमिति भावार्थः। = पर्यायरूप से अनित्य होने पर भी शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से अविनश्वर अनन्त ज्ञानादि रूप शुद्ध जीवास्तिकाय नाम का शुद्धात्म द्रव्य है उसको रागादि के परिहार के द्वारा उपादेय रूप से भाना चाहिए, ऐसा भावार्थ है।
- गुण से पृथक् पर्याय निर्देश का कारण