पर्यायार्थिक नय निर्देश: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 6: | Line 6: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.1.1" id="IV.3.1.1"> पर्याय ही है प्रयोजन जिसका</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.1.1" id="IV.3.1.1"> पर्याय ही है प्रयोजन जिसका</span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/6/21/1 <span class="SanskritText">पर्यायोऽर्थ: प्रयोजनमस्येत्यसौ पर्यायार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">पर्याय ही है अर्थ या प्रयोजन जिसका सो पर्यायार्थिक नय। ( राजवार्तिक/1/33/1/95/9 ); ( धवला 1/1,1,1/84/1 ); ( धवला 9/4,1,45/170/3 ); ( कषायपाहुड़/1/13-14/181/217/1 ) ( आलापपद्धति/9 ) ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/19 ); ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/519 )।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.1.2" id="IV.3.1.2"> द्रव्य को गौण करके पर्याय का ग्रहण</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.1.2" id="IV.3.1.2"> द्रव्य को गौण करके पर्याय का ग्रहण</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/190 <span class="PrakritText">पज्जय गउणं किज्जा दव्वं पि य जो हु गिहणए लोए। सो दव्वत्थिय भणिओ विवरीओ पज्जयत्थिओ। </span>=<span class="HindiText">पर्याय को गौण करके जो द्रव्य को ग्रहण करता है, वह द्रव्यार्थिकनय है। और उससे विपरीत पर्यायार्थिक नय है। अर्थात् द्रव्य को गौण करके जो पर्याय को ग्रहण करता है सो पर्यायार्थिकनय है।</span><br /> | |||
समयसार / आत्मख्याति/13 <span class="SanskritText"> द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि...पर्यायं मुख्यतयानुभवतीति पर्यायार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु में पर्याय को ही मुख्यरूप से जो अनुभव करता है, सो पर्यायार्थिक नय है।</span><br /> | |||
न्यायदीपिका/3/82/126 <span class="SanskritText">द्रव्यार्थिकनयमुपसर्जनीकृत्य प्रवर्तमानपर्यायार्थिकनयमवलम्ब्य कुण्डलमानयेत्युक्ते न कटकादौ प्रवर्त्तते, कटकादिपर्यायात् कुण्डलपर्यायस्य भिन्नत्वात् । </span>=<span class="HindiText">जब पर्यायार्थिक नय की विवक्षा होती है तब द्रव्यार्थिकनय को गौण करके प्रवृत्त होने वाले पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से ‘कुण्डल लाओ’ यह कहने पर लाने वाला कड़ा आदि के लाने में प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि कड़ा आदि पर्याय से कुण्डलपर्याय भिन्न है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.2" id="IV.3.2"> पर्यायार्थिक नय वस्तु के विशेष अंश को एकत्व रूप से विषय करता है</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.2" id="IV.3.2"> पर्यायार्थिक नय वस्तु के विशेष अंश को एकत्व रूप से विषय करता है</span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/1 <span class="SanskritText"> पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थ:। तद्विषय: पर्यायार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">पर्याय का अर्थ विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति (भेद) है, और इसको विषय करने वाला नय पर्यायार्थिकनय है ( तत्त्वसार/1/40 )।</span><br /> | |||
श्लोकवार्तिक 4/1/33/3/215/10 <span class="SanskritText">पर्यायविषय: पर्यायार्थ:।</span> =<span class="HindiText">पर्याय को विषय करने वाला पर्यायार्थ नय है। ( नयचक्र बृहद्/189 )</span><br /> | |||
हरिवंशपुराण/58/42 <span class="SanskritText">स्यु: पर्यायार्थिकस्यान्मे विशेषविषया: नया:।42।</span><span class="HindiText"> =ऋजुसूत्रादि चार नय पर्यायार्थिक नय के भेद हैं। वे सब वस्तु के विशेष अंश को विषय करते हैं।</span><br /> | |||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/114 <span class="SanskritText">द्रव्यार्थिकमेकान्तनिमीलितं केवलोन्मीलितेन पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा जीवद्रव्ये व्यवस्थितान्नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकान् विशेषाननेकानवलोकयतामनलोकितसामान्यानामन्यत्प्रतिभाति। द्रव्यस्य तत्तद्विशेषकाले तत्तद्विशेषभ्यस्तन्मयत्वेनानन्यत्वात् गणतृणपर्णदारुमयहव्यवाहवत् ।</span>=<span class="HindiText">जब द्रव्यार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके मात्र खुली हुईं पर्यायार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब जीवद्रव्य में रहने वाले नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्याय स्वरूप अनेक विशेषों को देखने वाले और सामान्य को न देखने वाले जीवों को (वह जीवद्रव्य) अन्य–अन्य भासित होता है क्योंकि द्रव्य उन-उन विशेषों के समय तन्मय होने से उन-उन विशेषों से अनन्य है–कण्डे, घास, पत्ते और काष्ठमय अग्नि की भांति।</span><br /> | |||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/270 <span class="PrakritText">जो साहेदि विसेसे बहुविहसामण्णसंजुदे सव्वे। साहणलिंग-वसादो पज्जयविसओ णओ होदि।</span>=<span class="HindiText">जो अनेक प्रकार के सामान्य सहित सब विशेषों को साधक लिंग के बल से साधता है, वह पर्यायार्थिक नय है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.3" id="IV.3.3"> द्रव्य की अपेक्षा विषय की एकत्वता<br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.3" id="IV.3.3"> द्रव्य की अपेक्षा विषय की एकत्वता<br /> | ||
Line 26: | Line 26: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.3.1" id="IV.3.3.1"> पर्याय से पृथक् द्रव्य कुछ नहीं है</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.3.1" id="IV.3.3.1"> पर्याय से पृथक् द्रव्य कुछ नहीं है</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/1/95/3 <span class="SanskritText"> पर्याय एवार्थोऽस्य रूपाद्युत्क्षेपणादिलक्षणो, न ततोऽन्यद् द्रव्यमिति पर्यायार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">रूपादि गुण तथा उत्क्षेपण अवक्षेपण आदि कर्म या क्रिया लक्षणवाली ही पर्याय होती है। ये पर्याय ही जिसका अर्थ हैं, उससे अतिरिक्त द्रव्य कुछ नहीं है, ऐसा पर्यायार्थिक नय है। ( धवला 12/4,2,8,15/292/12 )।</span><br /> | |||
श्लोकवार्तिक/2/2/2/4/15/6 <span class="SanskritText">अभिधेयस्य शब्दनयोपकल्पितत्वाद्विशेषस्य ऋजुसूत्रोपकल्पितत्वादभावस्य। </span>=<span class="HindiText">शब्द का वाच्यभूत अभिधेय तो शब्दनय के द्वारा और सामान्य द्रव्य से रहित माना गया कोरा विशेष ऋजुसूत्रनय से कल्पित कर लिया जाता है। </span><br /> | |||
कषायपाहुड़/1/13-14/278/314/4 <span class="PrakritText">ण च सामण्णमत्थि; विसेसेसु अणुगमअतुट्टसरूवसामण्णाणुवलम्भादो।</span> =<span class="HindiText">इस (ऋजुसूत्र) नय की दृष्टि में सामान्य है भी नहीं, क्योंकि विशेषों में अनुगत और जिसकी सन्तान नहीं टूटी है, ऐसा सामान्य नहीं पाया जाता। ( धवला 13/5,5,7/199/6 )</span><br /> | |||
कषायपाहुड़/1/13-14/279/316/6 <span class="PrakritText">तस्स विसए दव्वाभावादो।</span> =<span class="HindiText">शब्दनय के विषय में द्रव्य नहीं पाया जाता। ( कषायपाहुड़/1/13-14/285/320/4 )</span><br /> | |||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परि./नय नं.2 <span class="SanskritText">तत् तु...पर्यायनयेन तन्तुमात्रवद्दर्शनज्ञानादिमात्रम् ।</span>=<span class="HindiText">इस आत्मा को यदि पर्यायार्थिक नय से देखें तो तन्तुमात्र की भांति ज्ञान दर्शन मात्र है। अर्थात् जैसे तन्तुओं से भिन्न वस्त्र नाम की कोई वस्तु नहीं हैं, वैसे ही ज्ञानदर्शन से पृथक् आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.3.2" id="IV.3.3.2"> गुण गुणी में सामानाधिकरण्य नहीं है</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.3.2" id="IV.3.3.2"> गुण गुणी में सामानाधिकरण्य नहीं है</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/7/97/20 <span class="SanskritText">न सामानाधिकरण्यम् – एकस्य पर्यायेभ्योऽनन्यत्वात् पर्याया एव विविक्तशक्तयो द्रव्य नाम न किंचिदस्तीति। </span>=<span class="HindiText">(ऋजुसूत्र नय में गुण व गुणी में) सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता क्योंकि भिन्न शक्तिवाली पर्यायें ही यहां अपना अस्तित्व रखती हैं, द्रव्य नाम की कोई वस्तु नहीं है। ( धवला 9/4,1,45/174/7 ); ( कषायपाहुड़/1/13-14/89/226/5 )<br /> | |||
देखें [[ आगे शीर्षक नं#8 | आगे शीर्षक नं - 8 ]]ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में विशेष्य-विशेषण, ज्ञेय-ज्ञायक; वाच्य-वाचक, बन्ध्य-बन्धक आदि किसी प्रकार का भी सम्बन्ध सम्भव नहीं है।<br /> | देखें [[ आगे शीर्षक नं#8 | आगे शीर्षक नं - 8 ]]ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में विशेष्य-विशेषण, ज्ञेय-ज्ञायक; वाच्य-वाचक, बन्ध्य-बन्धक आदि किसी प्रकार का भी सम्बन्ध सम्भव नहीं है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.3.3" id="IV.3.3.3"> काक कृष्ण नहीं हो सकता</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.3.3" id="IV.3.3.3"> काक कृष्ण नहीं हो सकता</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/7/97/17 <span class="SanskritText">न कृष्ण: काक: उभयोरपि स्वात्मकत्वात् – कृष्ण: कृष्णात्मको न काकात्मक:। यदि काकात्मक: स्यात्; भ्रमरादीनामपि काकत्वप्रसङ्ग:। काकश्च काकात्मको न कृष्णात्मक:; यदि कृष्णात्मक:, शुक्लकाकाभाव: स्यात् । पञ्चवर्णत्वाच्च, पित्तास्थिरुधिरादीनां पीतशुक्लादिवर्णत्वात्, तद्व्यतिरेकेण काकाभावाच्च। </span>=<span class="HindiText">इसकी दृष्टि में काक कृष्ण नहीं होता, दोनों अपने-अपने स्वभावरूप हैं। जो कृष्ण है वह कृष्णात्मक ही है काकात्मक नहीं; क्योंकि, ऐसा मानने पर भ्रमर आदिकों के भी काक होने का प्रसंग आता है। इसी प्रकार काक भी काकात्मक ही है कृष्णात्मक नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर सफेद काक के अभाव का प्रसंग आता है। तथा उसके पित्त अस्थि व रुधिर आदि को भी कृष्णता का प्रसंग आता है, परन्तु वे तो पीत शुक्ल व रक्त वर्ण वाले हैं और उनसे अतिरिक्त काक नहीं। ( धवला 9/4,1,45/174/3 ); ( कषायपाहुड़/1/13-14/188/226/2 )<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.3.4" id="IV.3.3.4"> सभी पदार्थ एक संख्या से युक्त हैं </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.3.4" id="IV.3.3.4"> सभी पदार्थ एक संख्या से युक्त हैं </span><br /> | ||
ष.ख.12/4,2,9/सू. 14/300 <span class="PrakritText">सद्दुजुसुदाणं णाणावरणीयवेयणा जीवस्स।14।</span><br /> | ष.ख.12/4,2,9/सू. 14/300 <span class="PrakritText">सद्दुजुसुदाणं णाणावरणीयवेयणा जीवस्स।14।</span><br /> | ||
धवला 12/4,2,9,14/300/10 <span class="PrakritText"> किमट्ठं जीव-वेयणाणं सद्दुजुसुदा वहुवयणं णेच्छंति। ण एस दोसो, बहुत्ताभावादो। तं जहासव्वं पि वत्थु एगसंखाविसिट्ठं, अण्णहा तस्साभावप्पसंगादो। ण च एगत्तपडिग्गहिए वत्थुम्हि दुब्भावादीणं संभवो अत्थि, सीदुण्हाणं व तेसु सहाणवट्ठाणलक्खणविरोहदंसणादो। </span>=<span class="HindiText">शब्द और ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना जीव के होती है।14। प्रश्न–ये नय बहुवचन को क्यों नहीं स्वीकार करते ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं; क्योंकि, यहां बहुत्व की सम्भावना नहीं है। वह इस प्रकार कि–सभी वस्तु एक संख्या से संयुक्त हैं; क्योंकि, इसके बिना उसके अभाव का प्रसंग आता है। एकत्व को स्वीकार करने वाली वस्तु में द्वित्वादि की सम्भावना भी नहीं है, क्योंकि उनमें शीत व उष्ण के समान सहानवस्थानरूप विरोध देखा जाता है। (और भी देखो आगे शीर्षक नं.4/2 तथा 6)।</span><br /> | |||
धवला 9/4,1,59/266/1 <span class="PrakritText">उजुसुदेकिमिदि अणेयसंखा णत्थि। एयसद्दस्स एयपमाणस्य य एगत्थं मोत्तूण अणेगत्थेसु एक्ककाले पवुत्तिविरोहादो। ण च सद्द-पमाणाणि बहुसत्तिजुत्ताणि अत्थि, एक्कम्हि विरुद्धाणेयसत्तीणं संभवविरोहादो एयसंखं मोत्तूण अणेयसंखाभावादो वा। </span>=<span class="HindiText">प्रश्न–ऋजुसूत्रनय में अनेक संख्या क्यों संभव नहीं ? उत्तर–चूंकि इस नय की अपेक्षा एक शब्द और एक प्रमाणकी एक अर्थ को छोड़कर अनेक अर्थों में एक काल में प्रवृत्ति का विरोध है, अत: उसमें एक संख्या संभव नहीं है। और शब्द व प्रमाण बहुत शक्तियों से युक्त हैं नहीं; क्योंकि, एक में विरुद्ध अनेक शक्तियों के होने का विरोध है। अथवा एक संख्या को छोड़कर अनेक संख्याओं का वहां (इन नयों में) अभाव है। ( कषायपाहुड़/1/13-14/277/313/5;315/1 )।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 50: | Line 50: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li> <span class="HindiText" name="IV.3.4.1" id="IV.3.4.1">प्रत्येक पदार्थ का अवस्थान अपने में ही है</span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.3.4.1" id="IV.3.4.1">प्रत्येक पदार्थ का अवस्थान अपने में ही है</span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/9 <span class="SanskritText">अथवा यो यत्राभिरूढ़: स तत्र समेत्याभिमुख्येनारोहणात्समभिरूढ:। यथा क्व भवानास्ते। आत्मनीति। कुत:। वस्त्वन्तरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्र वृत्ति: स्यात्, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्ति: स्यात् । </span>=<span class="HindiText">अथवा जो जहां अभिरूढ है वह वहां सम् अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखता से रूढ़ होने के कारण समभिरूढनय कहलाता है ? यथा–आप कहां रहते हैं ? अपने में, क्योंकि अन्य वस्तु की अन्य वस्तु में वृत्ति नहीं हो सकती। यदि अन्य की अन्य में वृत्ति मानी जाये तो ज्ञानादि व रूपादि की भी आकाश में वृत्ति होने लगे। ( राजवार्तिक/1/33/10/99/2 )।</span><br /> | |||
राजवार्तिक/1/33/7/97/16 <span class="SanskritText">यमेवाकाशदेशमवगाढुं समर्थ आत्मपरिणामं वा तत्रैवास्य वसति:। </span>=<span class="HindiText">जितने आकाश प्रदेशों में कोई ठहरा है, उतने ही प्रदेशों में उसका निवास है अथवा स्वात्मा में; अत: ग्रामनिवास गृहनिवास आदि व्यवहार नहीं हो सकते। ( धवला 9/4,1,45/174/2 ); ( कषायपाहुड़/1/13-14/187/226/1 )।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li> <span class="HindiText" name="IV.3.4.2" id="IV.3.4.2">वस्तु अखण्ड व निरवयव होती है</span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.3.4.2" id="IV.3.4.2">वस्तु अखण्ड व निरवयव होती है</span><br /> | ||
धवला 12/4,2,9,15/301/1 <span class="PrakritText">ण च एगत्तविसिट्ठ वत्थु अत्थि जेण अणेगत्तस्स तदाहारो होज्ज। एक्कम्मि खंभम्मि मूलग्गमज्झभेएण अणेयत्तं दिस्सदि त्ति भणिदे ण तत्थ एयत्तं मोत्तूण अणेयत्तस्स अणुवलंभादो। ण ताव थंभगयमणेयत्तं, तत्थ एयत्तुवलंभादो। ण मूलगयमग्गगयं मज्झगयं वा, तत्थ वि एयत्तं मोत्तूण अणेयत्ताणुवलंभादो। ण तिण्णिमेगेगवत्थूणं समूहो अणेयत्तस्स आहारो, तव्वदिरेगेण तस्समूहाणूवलंभादो। तम्हा णत्थि बहुत्तं।</span> =<span class="HindiText">एकत्व से अतिरिक्त वस्तु है भी नहीं, जिससे कि वह अनेकत्व का आधार हो सके। प्रश्न–एक खम्भे में मूल अग्र व मध्य के भेद से अनेकता देखी जाती है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, उसमें एकत्व को छोड़कर अनेकत्व पाया नहीं जाता। कारण कि स्तम्भ में तो अनेकत्व की सम्भावना है नहीं, क्योंकि उसमें एकता पायी जाती है। मूलगत, अग्रगत अथवा मध्यगत अनेकता भी सम्भव नहीं है, क्योंकि उनमें भी एकत्व को छोड़कर अनेकता नहीं पायी जाती। यदि कहा जाय कि तीन एक-एक वस्तुओं का समूह अनेकता का आधार है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उससे भिन्न उनका समूह पाया नहीं जाता। इस कारण इन नयों की अपेक्षा बहुत्व सम्भव नहीं है। (स्तम्भादि स्कन्धों का ज्ञान भ्रान्त है। वास्तव में शुद्ध परमाणु ही सत् है (देखें [[ आगे शीर्षक नं#8.2 | आगे शीर्षक नं - 8.2]])।</span><br /> | |||
कषायपाहुड़/1/13-14/193/230/4 <span class="SanskritText">ते च परमाणवो निरवयवा: ऊर्ध्वाधोमध्यभागाद्यवयवेषु सत्सु अनवस्थापत्ते:, परमाणोर्वापरमाणुत्वप्रसङ्गाच्च। </span>=<span class="HindiText">(इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में सजातीय और विजातीय उपाधियों से रहित) वे परमाणु निरवयव हैं, क्योंकि उनके ऊर्ध्वभाग, अधोभाग और मध्यभाग आदि अवयवों के मानने पर अनवस्था दोष की आपत्ति प्राप्त होती है, और परमाणु को अपरमाणुपने का प्रसंग प्राप्त होता है। (और भी देखें [[ नय#IV.3.7 | नय - IV.3.7 ]]में स.म.)।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.4.3" id="IV.3.4.3"> पलालदाह सम्भव नहीं</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.4.3" id="IV.3.4.3"> पलालदाह सम्भव नहीं</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/7/97/26 <span class="SanskritText">न पलालादिदाहाभाव:...यत्पलालं तद्दहतीति चेत्; न; सावशेषात् । ...अवयवानेकत्वे यद्यवयवदाहात् सर्वत्र दाहोऽवयवान्तरादाहात् ननु सर्वदाहाभाव:। अथ दाह: सर्वत्र कस्मान्नादाह:। अतो न दाह:। एवं पानभोजनादिव्यवहाराभाव:।</span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में पलाल का दाह नहीं हो सकता। जो पलाल है वह जलता है यह भी नहीं कह सकते; क्योंकि, बहुत पलाल बिना जला भी शेष है। यदि अनेक अवयव होने से कुछ अवयवों में दाह की अपेक्षा लेकर सर्वत्र दाह माना जाता है, तो कुछ अवयवों में अदाह की अपेक्षा लेकर सर्वत्र अदाह क्यों नहीं माना जायेगा ? अत: पान-भोजनादि व्यवहार का अभाव है।</span><br /> | |||
धवला 9/4,1,45/175/9 <span class="SanskritText">न पलालावयवी दह्यते, तस्यासत्त्वात् । नावयवा दह्यन्ते, निरवयवत्वतस्तेषामप्यसत्त्वात् ।</span> =<span class="HindiText">पलाल अवयवी का दाह नहीं होता, क्योंकि, अवयवी की (इस नय में) सत्ता ही नहीं है। न अवयव जलते हैं, क्योंकि स्वयं निरवयव होने से उनका भी असत्त्व है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li> <span class="HindiText" name="IV.3.4.4" id="IV.3.4.4">कुम्भकार संज्ञा नहीं हो सकती</span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.3.4.4" id="IV.3.4.4">कुम्भकार संज्ञा नहीं हो सकती</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/186/225/1 <span class="SanskritText">न कुम्भकारोऽस्ति। तद्यथा–न शिवकादिकरणेन तस्य स व्यपदेश:, शिवकादिषु कुम्भभावानुपलम्भात् । न कुम्भं करोति; स्वावयवेभ्य एव तन्निष्पत्त्युपलम्भात् । न बहुभ्य एक: घट: उत्पद्यते; तत्र यौगपद्येन भूयो धर्माणां सत्त्वविरोधात् । अविरोधे वा न तदेकं कार्यम्; विरुद्धधर्माध्यासत: प्राप्तानेकरूपत्वात् । न चैकेन कृतकार्य एव शेषसहकारिकारणानि व्याप्रियन्ते; तद्व्यापारवैफल्यप्रसङ्गात् । न चान्यत्र व्याप्रियन्ते; कार्यंबहुत्वप्रसङ्गात् । न चैतदपि एकस्य घटस्य बहुत्वाभावात् । </span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में कुम्भकार संज्ञा भी नहीं बन सकती है। वह इस प्रकार कि–शिवकादि पर्यायों को करने से उसे कुम्भकार कह नहीं सकते, क्योंकि शिवकादि में कुम्भपना पाया नहीं जाता और कुम्भ को वह बनाता नहीं है; क्योंकि, अपने शिवकादि अवयवों से ही उसकी उत्पत्ति होती है। अनेक कारणों से उसकी उत्पत्ति माननी भी ठीक नहीं है; क्योंकि घट में युगपत् अनेक धर्मों का अस्तित्व मानने में विरोध आता है। उसमें अनेक धर्मों का यदि अविरोध माना जायेगा तो वह घट एक कार्य नहीं रह जायेगा, बल्कि विरुद्ध अनेक धर्मों का आधार होने से अनेक रूप हो जायेगा। यदि कहा जाय कि एक उपादान कारण से उत्पन्न होने वाले उस घट में अन्य अनेकों सहकारी कारण भी सहायता करते हैं, तो उनके व्यापार की विफलता प्राप्त होती है। यदि कहा जाये कि उसी घट में वे सहकारीकारण उपादान के कार्य से भिन्न ही किसी अन्य कार्य को करते हैं, तो एक घट में कार्य बहुत्व का प्रसंग आता है, और ऐसा माना नहीं जा सकता, क्योंकि एक घट अनेक कार्यरूप नहीं हो सकता। ( राजवार्तिक/1/33/7/97/12 ); ( धवला 9/4,1,45/173/7 )।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 70: | Line 70: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li> <span class="HindiText" name="IV.3.5.1" id="IV.3.5.1">केवल वर्तमान क्षणमात्र ही वस्तु है </span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.3.5.1" id="IV.3.5.1">केवल वर्तमान क्षणमात्र ही वस्तु है </span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/181/217/1 <span class="SanskritText">परि भेदं ऋजुसूत्रवचनविच्छेदं एति गच्छतीति पर्याय:, स पर्याय: अर्थ: प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिक:। सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च द्रव्यार्थिकाशेषविषयं ऋजुसूत्रवचनविच्छेदेन पाटयन् पर्यायार्थिक इत्यवगन्तव्य:। अत्रोपयोगिन्यौ गाथे–‘मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उजुसुद्दवयणिविच्छेदो। तस्स उ सद्दादीया साहपसाहा सुहुमभेया।88।</span>=<span class="HindiText">’परि’ का अर्थ भेद है। ऋजुसूत्र के वचन के विच्छेदरूप वर्तमान समयमात्र (देखें [[ नय#III.1.2 | नय - III.1.2]]) काल को जो प्राप्त होती है, वह पर्याय है। वह पर्याय ही जिस नय का प्रयोजन है सो पर्यायार्थिकनय है। सादृश्यलक्षण सामान्य से भिन्न और अभिन्न जो द्रव्यार्थिकनय का समस्त विषय है (देखें [[ नय#IV.1.2 | नय - IV.1.2]]) ऋजुसूत्रवचन के विच्छेदरूप काल के द्वारा उसका विभाग करने वाला पर्यायार्थिकनय है, ऐसा उक्त कथन का तात्पर्य है। इस विषय में यह उपयोगी गाथा है–ऋजुसूत्र वचन अर्थात् वचन का विच्छेद जिस काल में होता है वह काल पर्यायार्थिकनय का मूल आधार है, और उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेदरूप शब्दादि नय उसी ऋजुसूत्र की शाखा उपशाखा है।88।<br /> | |||
देखें [[ नय#III.5.1.2 | नय - III.5.1.2 ]](अतीत व अनागत काल को छोड़कर जो केवल वर्तमान को ग्रहण करे सो ऋजुसूत्र अर्थात् पर्यायार्थिक नय है।)<br /> | देखें [[ नय#III.5.1.2 | नय - III.5.1.2 ]](अतीत व अनागत काल को छोड़कर जो केवल वर्तमान को ग्रहण करे सो ऋजुसूत्र अर्थात् पर्यायार्थिक नय है।)<br /> | ||
देखें [[ नय#III.5.7 | नय - III.5.7 ]](सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा वह काल भी दो प्रकार का है। सूक्ष्म एक समय मात्र है और स्थूल अन्तर्मुहूर्त या संख्यात वर्ष।)</span><br /> | देखें [[ नय#III.5.7 | नय - III.5.7 ]](सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा वह काल भी दो प्रकार का है। सूक्ष्म एक समय मात्र है और स्थूल अन्तर्मुहूर्त या संख्यात वर्ष।)</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/1/95/6 <span class="SanskritText"> पर्याय एवार्थं: कार्यमस्य न द्रव्यम् अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् ।...पर्यायोऽर्थ: प्रयोजनमस्य वाग्विज्ञानव्यावृत्तिनिबन्धनव्यवहारप्रसिद्धेरिति।</span>=<span class="HindiText">वर्तमान पर्याय ही अर्थ या कार्य है, द्रव्य नहीं, क्योंकि अतीत विनष्ट हो जाने के कारण और अनागत अभी उत्पन्न न होने के कारण (खरविषाण की तरह (स.म.) उनमें किसी प्रकार का भी व्यवहार सम्भव नहीं। [तथा अर्थ क्रियाशून्य होने के कारण वे अवस्तुरूप हैं (स.म.)] वचन व ज्ञान के व्यवहार की प्रसिद्धि के अर्थ वह पर्याय ही नय का प्रयोजन है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.5.2" id="IV.3.5.2"> क्षणस्थायी अर्थ ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.5.2" id="IV.3.5.2"> क्षणस्थायी अर्थ ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है</span><br /> | ||
धवला 1/1,1,1/ गा.8/13 <span class="PrakritText">उप्पज्जंति वियेति य भावा णियतेण पज्जवणयस्स।8। </span>=<span class="HindiText">पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं और नाश को प्राप्त होते हैं। धवला 4/1,5,4/ गा.29/337), ( धवला 9/4,1,49/ गा.94/244), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/ गा.95/204/248), ( पंचास्तिकाय/11 ), ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/247 )।<br /> | |||
देखें [[ आगे नय#IV.3.7 | आगे नय - IV.3.7]]–(पदार्थ का जन्म ही उसके नाश में हेतु है।)</span><br /> | देखें [[ आगे नय#IV.3.7 | आगे नय - IV.3.7]]–(पदार्थ का जन्म ही उसके नाश में हेतु है।)</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/190/ गा.91/228<span class="PrakritGatha"> प्रत्येकं जायते चित्तं जातं जातं प्रणश्यति। नष्टं नावर्तते भूयो जायते च नवं नवम् ।91। </span>=<span class="HindiText">प्रत्येक चित्त (ज्ञान) उत्पन्न होता है और उत्पन्न होकर नाश को प्राप्त हो जाता है। तथा जो नष्ट हो जाता है, वह पुन: उत्पन्न नहीं होता, किन्तु प्रति समय नया नया चित्त ही उत्पन्न होता है। ( धवला 6/1,9-9,5/420/5 )।</span><br /> | |||
राजवार्तिक/1/33/1/95/1 <span class="SanskritText">पर्याय एवास्ति इति मतिरस्य जन्मादिभावविकारमात्रमेव भवनं, न ततोऽन्यद् द्रव्यमस्ति तद्वयतिरेकेणानुपलब्धिरिति पर्यायास्तिक:। </span>=<span class="HindiText">जन्म आदि भावविकार मात्र का होना ही पर्याय है। उस पर्याय का ही अस्तित्व है, उससे अतिरिक्त द्रव्य कुछ नहीं है, क्योंकि उस पर्याय से पृथक् उसकी उपलब्धि नहीं होती है। ऐसी जिनकी मान्यता है, सो पर्यायास्तिक नय है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li> <span class="HindiText" name="IV.3.6" id="IV.3.6">काल एकत्व विषयक उदाहरण</span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.3.6" id="IV.3.6">काल एकत्व विषयक उदाहरण</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/7/ पंक्ति–<span class="SanskritText">कषायो भैषज्यम् इत्यत्र च संजातरस: कषायो भैषज्यं न प्राथमिककषायोऽल्पोऽनभिव्यक्तरसत्वादस्य विषय:। (1)। ‘‘....’’ तथा प्रतिष्ठन्तेऽस्मिन्निति प्रस्थ:, यदैव मिमीते, अतीतानागतधान्यमानासंभवात् । (11) ‘‘....’’ स्थितप्रश्ने च ‘कुतोऽद्यागच्छसि इति। ‘न कुतश्चित्’ इत्यर्थं मन्यते, तत्कालक्रियापरिणामाभावात् ।(14)।</span>= | |||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> ‘कषायो भैषज्यम्’ में वर्तमानकालीन वह कषाय भैषज हो सकती है जिसमें रस का परिपाक हुआ है, न कि प्राथमिक अल्प रस वाला कच्चा कषाय। </li> | <li class="HindiText"> ‘कषायो भैषज्यम्’ में वर्तमानकालीन वह कषाय भैषज हो सकती है जिसमें रस का परिपाक हुआ है, न कि प्राथमिक अल्प रस वाला कच्चा कषाय। </li> | ||
<li class="HindiText"> जिस समय प्रस्थ से धान्य आदि मापा जाता है उसी समय उसे प्रस्थ कह सकते हैं, क्योंकि वर्तमान में अतीत और अनागत वाले धान्य का माप नहीं होता है। ( | <li class="HindiText"> जिस समय प्रस्थ से धान्य आदि मापा जाता है उसी समय उसे प्रस्थ कह सकते हैं, क्योंकि वर्तमान में अतीत और अनागत वाले धान्य का माप नहीं होता है। ( धवला 9/4,1,45/173/5 ); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/186/224/8 ) </li> | ||
<li><span class="HindiText"> जिस समय जो बैठा है उससे यदि पूछा जाय कि आप अब कहां से आ रहे हैं, तो वह यही कहेगा कि ‘कहीं से भी नहीं आ रहा हूं’ क्योंकि, उस समय आगमन क्रिया नहीं हो रही है। ( | <li><span class="HindiText"> जिस समय जो बैठा है उससे यदि पूछा जाय कि आप अब कहां से आ रहे हैं, तो वह यही कहेगा कि ‘कहीं से भी नहीं आ रहा हूं’ क्योंकि, उस समय आगमन क्रिया नहीं हो रही है। ( धवला 9/4,1,45/174/1 ), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/187/225/7 )</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/7/98/7 <span class="SanskritText">न शुक्ल: कृष्णीभवति; उभयोर्भिन्नकालावस्थत्वात्, प्रत्युत्पन्नविषये निवृत्तपर्यायानभिसंबन्धात् ।</span>=</li> | |||
<li> <span class="HindiText">ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से सफेद चीज काली नहीं बन सकती, क्योंकि दोनों का समय भिन्न-भिन्न है। वर्तमान के साथ अतीत का कोई सम्बन्ध नहीं है। ( | <li> <span class="HindiText">ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से सफेद चीज काली नहीं बन सकती, क्योंकि दोनों का समय भिन्न-भिन्न है। वर्तमान के साथ अतीत का कोई सम्बन्ध नहीं है। ( धवला 9/4,1,45/176/3 ), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/194/230/6 )</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/279/316/5 <span class="PrakritText">सद्दणयस्स कोहोदओ कोहकसाओ, तस्स विसए दव्वाभावादो। </span>=</li> | |||
<li class="HindiText"> शब्दनय की अपेक्षा क्रोध का उदय ही क्रोध कषाय है; क्योंकि, इस नय के विषय में द्रव्य नहीं पाया जाता।<br /> | <li class="HindiText"> शब्दनय की अपेक्षा क्रोध का उदय ही क्रोध कषाय है; क्योंकि, इस नय के विषय में द्रव्य नहीं पाया जाता।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"> पलाल दाह सम्भव नहीं</span><br /> | <li><span class="HindiText"> पलाल दाह सम्भव नहीं</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/7/97/26 <span class="SanskritText">अत: पलालादिदाहाभाव: प्रतिविशिष्टकालपरिग्रहात् । अस्य हि नयस्याविभागो वर्तमानसमयो विषय:। अग्निसंबन्धनदीपनज्वलनदहनानि असंख्येयसमयान्तरालानि यतोऽस्य दहनाभाव:। किंच यस्मिन्समये दाह: न तस्मिन्पलालम्, भस्मताभिनिवृत्ते: यस्मिंश्च पलालं न तस्मिन् दाह इति। एवं क्रियमाणकृत-भुज्यमानभुक्त-बध्यमानबद्ध-सिध्यत्सिद्धादयो योज्या:। </span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में पलाल का दाह नहीं हो सकता; क्योंकि इस नय का विषय अविभागी वर्तमान समयमात्र है। अग्नि सुलगाना धौंकना और जलाना आदि असंख्य समय की क्रियाएं वर्तमान क्षण में नहीं हो सकतीं। तथा जिस समय दाह है, उस समय पलाल नहीं है, और जिस समय पलाल है उस समय दाह नहीं है, फिर पलाल दाह कैसा? इसी प्रकार क्रियमाण-कृत, भुज्यमान-भुक्त, बध्यमान-बद्ध, सिद्धयत्-सिद्ध आदि विषयों में लागू करना चाहिए। ( धवला 9/4,1,45/175/8 )<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> पच्यमान ही पक्व है</span><br /> | <li><span class="HindiText"> पच्यमान ही पक्व है</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/7/97/3 <span class="SanskritText">पच्यमान: पक्व:। पक्वस्तु स्यात्पच्यमान: स्यादुपरतपाक इति। असदेतत्; विरोधात् । ‘पच्यमान:’ इति वर्तमान: ‘पक्व:’ इत्यतीत: तयोरेकस्मिन्नवरोधो विरोधीति; नैष दोष:; पचनस्यादावविभागसमये कश्चिदंशो निर्वृत्तो वा, न वा। यदि न निर्वृत्त:; तद्द्वितीयादिष्वप्यनिर्वृत्त: पाकाभाव: स्यात् । ततोऽभिनिर्वृत्त: तदपेक्षया ‘पच्यमान: पक्व:’ इतरथा हि समयस्य त्रैविध्यप्रसङ्ग:। स एवौदन: पच्यमान: पक्व:, स्यात्पच्यमान इत्युच्यते, पक्तुरभिप्रायस्यानिर्वृत्ते:, पक्तुर्हि सुविशदसुस्विन्नौदने पक्वाभिप्राय:, स्यादुपरतपाक इति चोच्यते कस्यचित् पक्तुस्तावतैव कृतार्थत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय का विषय पच्यमान पक्व है और ‘कथंचित् पकने वाला’ और ‘कथंचित् पका हुआ’ हुआ। प्रश्न–पच्यमान (पक रहा) वर्तमानकाल को, और पक्व (पक चुका) भूतकाल को सूचित करता है, अत: दोनों का एक में रहना विरुद्ध है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है। पाचन क्रिया के प्रारम्भ होने के प्रथम समय में कुछ अंश पका या नहीं? यदि नहीं तो द्वितीयादि समयों में भी इसी प्रकार न पका। इस प्रकार पाक के अभाव का प्रसंग आता है। यदि कुछ अंश पक गया है तो उस अंश की अपेक्षा तो वह पच्यमान भी ओदन पक्व क्यों न कहलायेगा। अन्यथा समय के तीन खण्ड होने का प्रसंग प्राप्त होगा। (और पुन: उस समय खण्ड में भी उपरोक्त ही शंका समाधान होने से अनवस्था आयेगी) वही पका हुआ ओदन कथंचित् ‘पच्यमान’ ऐसा कहा जाता है; क्योंकि, विशदरूप से पूर्णतया पके हुए ओदन में पाचक का पक्व से अभिप्राय है। कुछ अंशों में पचनक्रिया के फल की उत्पत्ति के विराम होने की अपेक्षा वही ओदन ‘उपरत पाक’ अर्थात् कथंचित् पका हुआ कहा जाता है। इसी प्रकार क्रियमाण-कृत; भुज्यमान-भुक्त; बध्यमान-बद्ध; और सिद्धयत्-सिद्ध इत्यादि ऋजुसूत्र नय के विषय जानने चाहिए। ( धवला 9/4,1,45/172 .3), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/185/223/3 )<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.7" id="IV.3.7"> भाव की अपेक्षा विषय की एकत्वता </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.7" id="IV.3.7"> भाव की अपेक्षा विषय की एकत्वता </span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/1/95/7 <span class="SanskritText">स एव एक: कार्यकारणव्यपदेशभागिति पर्यायार्थिक:। </span>= <span class="HindiText">वह पर्याय ही अकेली कार्य व कारण दोनों नामों को प्राप्त होती हैं, ऐसा पर्यायार्थिक नय है।</span><br /> | |||
कषायपाहुड़ 1/13-14/190/ गा.90/227 <span class="SanskritText">जातिरेव हि भावानां निरोधे हेतुरिष्यते।</span> =<span class="HindiText">जन्म ही पदार्थ के विनाश में हेतु है।</span><br /> | |||
धवला 9/4,1,45/176/2 <span class="SanskritText"> य: पलालो न स दह्यते, तत्राग्निसंबन्धजनितातिशयान्तराभावात्, भावो वा न स पलालप्राप्तोऽन्यस्वरूपत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">अग्नि जनित अतिशयान्तर का अभाव होने से पलाल नहीं जलता। उस स्वरूप न होने से वह अतिशयान्तर पलाल को प्राप्त नहीं है।</span><br /> | |||
कषायपाहुड़ 1/13-14/278/315/1 <span class="SanskritGatha"> उजुसुदेसु बहुअग्गहो णत्थि त्ति एयसत्तिसहियएयमणब्भुवगमादो। </span>=<span class="HindiText">एक क्षण में एक शक्ति से युक्त एक ही मन पाया जाता है, इसलिए ऋजुसूत्रनय में बहुअवग्रह नहीं होता।</span><br /> | |||
स्याद्वादमञ्जरी/28/313/1 <span class="SanskritText">तदपि च निरंशमभ्युपगन्तव्यम् । अंशव्याप्तेर्युक्तिरिक्तत्वात् । एकस्य अनेकस्वभावतामन्तरेण अनेकस्यावयवव्यापनायोगात् । अनेकस्वभावता एवास्तु इति चेत् । न, विरोधव्याघ्रातत्वात् । तथाहि–यदि एकस्वभाव: कथमनेक: अनेकश्चेत्कथमेक:। अनेकानेकयो: परस्परपरिहारेणावस्थानात् । तस्मात् स्वरूपनिमग्ना: परमाणव एव परस्परापसर्णद्वारेण न स्थूलतां धारयत् पारमार्थिकमिति। </span>=<span class="HindiText">वस्तु का स्वरूप निरंश मानना चाहिए, क्योंकि वस्तु को अंश सहित मानना युक्ति से सिद्ध नहीं होता। प्रश्न–एक वस्तु के अनेकस्वभाव माने बिना वह अनेक अवयवों में नहीं रह सकती, इसलिए वस्तु में अनेकस्वभाव मानना चाहिए? उत्तर–यह ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध होने से एक स्वभाव वाली वस्तु में अनेक स्वभाव और अनेक स्वभाव वाली वस्तु में एकस्वभाव नहीं बन सकते। अतएव अपने स्वरूप में स्थित परमाणु ही परस्पर के संयोग से कथंचित् समूह रूप होकर सम्पूर्ण कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा स्थूलरूप को न धारण करने वाले स्वरूप में स्थित परमाणु ही यथार्थ में सत् कहे जा सकते हैं।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.8" id="IV.3.8"> किसी भी प्रकार का सम्बन्ध सम्भव नहीं<br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.8" id="IV.3.8"> किसी भी प्रकार का सम्बन्ध सम्भव नहीं<br /> | ||
Line 113: | Line 113: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.8.1" id="IV.3.8.1"> विशेष्य विशेषण भाव सम्भव नहीं</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.8.1" id="IV.3.8.1"> विशेष्य विशेषण भाव सम्भव नहीं</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/193/229/6 <span class="SanskritText">नास्य विशेषणविशेष्यभावोऽपि। तद्यथा–न तावद्भिन्नयो:; अव्यवस्थापत्ते:। नाभिन्नयो: एकस्मिंस्तद्विरोधात् । </span>=<span class="HindiText">इस (ऋजुसूत्र) नय की दृष्टि से विशेष्य विशेषण भाव भी नहीं बनता। वह ऐसे कि–दो भिन्न पदार्थों में तो वह बन नहीं सकता; क्योंकि, ऐसा मानने से अव्यवस्था की आपत्ति आती है। और अभिन्न दो पदार्थों में अर्थात् गुण गुणी में भी वह बन नहीं सकता क्योंकि जो एक है उसमें इस प्रकार का द्वैत करने से विरोध आता है। ( कषायपाहुड़ 1/13-14/200/240/6 ), ( धवला 9/4,1,45/174/7, तथा पृ.179/6)।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.8.2" id="IV.3.8.2"> संयोग व समवाय सम्बन्ध सम्भव नहीं</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.8.2" id="IV.3.8.2"> संयोग व समवाय सम्बन्ध सम्भव नहीं</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/193/229/7 <span class="SanskritText">न भिन्नाभिन्नयोरस्य नयस्य संयोग: समवायो वास्ति; सर्वथैकत्वमापन्नयो: परित्यक्तस्वरूपयोस्तद्विरोधात् । नैकत्वमापन्नयोस्तौ; अव्यवस्थापत्ते:। तत: सजातीयविजातीयविनिर्मुक्ता: केवला: परमाणव एव सन्तीति भ्रान्त: स्तम्भादिस्कन्धप्रत्यय:। </span>=<span class="HindiText">इस (ऋजुसूत्र) नय की दृष्टि से सर्वथा अभिन्न दो पदार्थों में संयोग व समवाय सम्बन्ध नहीं बन सकता; क्योंकि, सर्वथा एकत्व को प्राप्त हो गये हैं और जिन्होंने अपने स्वरूप को छोड़ दिया है ऐसे दो पदार्थों में संबंध मानने में विरोध आता है। इसी प्रकार सर्वथा भिन्न दो पदार्थों में भी संयोग या समवाय सम्बन्ध मानने में विरोध आता है, तथा अव्यवस्था की आपत्ति भी आती है अर्थात् किसी का भी किसी के साथ सम्बन्ध हो जायेगा। इसलिए सजातीय और विजातीय दोनों प्रकार की उपाधियों से रहित शुद्ध परमाणु ही सत् है। अत: जो स्तम्भादिरूप स्कन्धों का प्रत्यय होता है, वह ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में भ्रान्त है। (और भी देखें [[ पीछे शीर्षक नं#4.2 | पीछे शीर्षक नं - 4.2]]), ( स्याद्वादमञ्जरी/28/313/5 )।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.8.3" id="IV.3.8.3"> कोई किसी के समान नहीं है </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.8.3" id="IV.3.8.3"> कोई किसी के समान नहीं है </span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/193/230/3 <span class="SanskritText">नास्य नयस्य समानमस्ति; सर्वथा द्वयो: समानत्वे एकत्वापत्ते:। न कथंचित्समानतापि; विरोधात् । </span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में कोई किसी के समान नहीं है, क्योंकि दो को सर्वथा समान मान लेने पर, उन दोनों में एकत्व की आपत्ति प्राप्त होती है। कथंचित् समानता भी नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li> <span class="HindiText" name="IV.3.8.4" id="IV.3.8.4">ग्राह्यग्राहकभाव सम्भव नहीं </span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.3.8.4" id="IV.3.8.4">ग्राह्यग्राहकभाव सम्भव नहीं </span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/195/230/8 <span class="SanskritText">नास्य नयस्य ग्राह्यग्राहकभावोऽप्यस्ति। तद्यथा–नासंबद्धोऽर्थो गृह्यते; अव्यवस्थापत्ते:। न संबद्ध:; तस्यातीतत्वात्, चक्षुषा व्यभिचाराच्च। न समानो गृह्यते; तस्यासत्त्वात् मनस्कारेण व्यभिचारात् । </span>=<span class="HindiText">इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में ग्राह्यग्राहक भाव भी नहीं बनता। वह ऐसे कि–असम्बद्ध अर्थ के ग्रहण मानने में अव्यवस्था की आपत्ति और सम्बद्ध का ग्रहण मानने में विरोध आता है, क्योंकि वह पदार्थ ग्रहणकाल में रहता ही नहीं है, तथा चक्षु इन्द्रिय के साथ व्यभिचार भी आता है, क्योंकि चक्षु इन्द्रिय अपने को नहीं जान सकती। समान अर्थ का भी ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि एक तो समान पदार्थ है ही नहीं (देखें [[ ऊपर ]]) और दूसरे ऐसा मानने से मनस्कार के साथ व्यभिचार आता है अर्थात् समान होते हुए भी पूर्वज्ञान उत्तर ज्ञान के द्वारा गृहीत नहीं होता है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.8.5" id="IV.3.8.5"> वाच्यवाचकभाव सम्भव नहीं </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.8.5" id="IV.3.8.5"> वाच्यवाचकभाव सम्भव नहीं </span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/196/231/3 <span class="SanskritText">नास्य शुद्धस्य (नयस्य) वाच्यवाचकभावोऽस्ति। तद्यथा–न संबद्धार्थ: शब्दवाच्य:; तस्यातीतत्वात् । नासंबद्ध: अव्यवस्थापत्ते:। नार्थेन शब्द उत्पाद्यते; ताल्वादिभ्यस्तदुत्पत्त्युपलम्भात् । न शब्दादर्थ उत्पद्यते, शब्दोत्पत्ते: प्रागपि अर्थसत्त्वोपलम्भात् । न शब्दार्थयोस्तादात्म्यलक्षण: प्रतिबन्ध: करणाधिकरणभेदेन प्रतिपन्नभेदयोरेकत्वविरोधात्, क्षुरमोदकशब्दोच्चारणे मुखस्य पाटनपूरणप्रसङ्गात् । ततो न वाच्यवाचकभाव इति। </span>= | |||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में वाच्यवाचक भाव भी नहीं होता। वह ऐसे कि–शब्दप्रयोग काल में उसके वाच्यभूत अर्थ का अभाव हो जाने से सम्बद्ध अर्थ उसका वाच्य नहीं हो सकता। असम्बद्ध अर्थ भी वाच्य नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने से अव्यवस्थादोष की आपत्ति आती है। </li> | <li class="HindiText"> इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में वाच्यवाचक भाव भी नहीं होता। वह ऐसे कि–शब्दप्रयोग काल में उसके वाच्यभूत अर्थ का अभाव हो जाने से सम्बद्ध अर्थ उसका वाच्य नहीं हो सकता। असम्बद्ध अर्थ भी वाच्य नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने से अव्यवस्थादोष की आपत्ति आती है। </li> | ||
Line 138: | Line 138: | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.8.6" id="IV.3.8.6"> बन्ध्यबन्धक आदि अन्य भी कोई सम्बन्ध सम्भव नहीं</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.8.6" id="IV.3.8.6"> बन्ध्यबन्धक आदि अन्य भी कोई सम्बन्ध सम्भव नहीं</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/191/228/3 <span class="SanskritText">ततोऽस्य नयस्य न बन्ध्यबन्धक-बध्यघातक-दाह्यदाहक-संसारादय: सन्ति।</span> =<span class="HindiText">इसलिए इस ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में बन्ध्यबन्धकभाव, बध्यघातकभाव, दाह्यदाहकभाव और संसारादि कुछ भी नहीं बन सकते हैं। </span></li> | |||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
Line 145: | Line 145: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.9.1" id="IV.3.9.1"> कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.9.1" id="IV.3.9.1"> कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है </span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/1/24/8/32 <span class="SanskritText">नेमौ ज्ञानदर्शनशब्दौ करणसाधनौ। किं तर्हि। कर्तृसाधनौ। तथा चारित्रशब्दोऽपि न कर्मसाधन:। किं तर्हि। कर्तृसाधन:। कथम् । एवंभूतनयवशात् । </span>=<span class="HindiText">एवंभूतनय की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन व चारित्र ये तीनों (तथा उपलक्षण से अन्य सभी) शब्द कर्म साधन नहीं होते, कर्तासाधन ही होते हैं। </span> कषायपाहुड़ 1/13-14/284/319/3 <span class="SanskritText">कर्तृसाधन: कषाय:। एदं णेगमसंगहववहारउजुसुदाणं; तत्थ कज्जकरणभावसंभवादो। तिण्हं सद्दणयाणं ण केण वि कसाओ; तत्थ कारणेण बिणा कज्जुप्पत्तीदो।</span> =<span class="HindiText">’कषाय शब्द कर्तृसाधन है’, ऐसी बात नैगम (अशुद्ध) संग्रह, व्यवहार व (स्थूल) ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा समझनी चाहिए; क्योंकि, इन नयों में कार्य कारणभाव सम्भव है। परन्तु (सूक्ष्म ऋजुसूत्र) शब्द, समभिरूढ व एवंभूत इन तीनों शब्द नयों की अपेक्षा कषाय किसी भी साधन से उत्पन्न नहीं होती है; क्योंकि इन नयों की दृष्टि में कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है। </span><br /> | |||
धवला 12/4,2,8,15/292/9 <span class="PrakritText">तिण्णं संद्दणयाणं णाणावरणीयपोग्गलक्खंदोदयजणिदण्णाणं वेयणा। ण सा जोगकसाएहिंतो उप्पज्जदे णिस्सत्तीदो सत्तिविसेसस्स उप्पत्तिविरोहादो। णोदयगदकम्मदव्वक्खंधादो, पज्जयवदिरित्तदव्वाभावादो। </span>=<span class="HindiText">तीनों शब्दनयों की अपेक्षा ज्ञानावरणीय सम्बन्धी पौद्गलिक स्कन्धों के उदय से उत्पन्न अज्ञान को ज्ञानावरणीय वेदना कहा जाता है। परन्तु वह (ज्ञानावरणीय वेदना) योग व कषाय से उत्पन्न नहीं हो सकती, क्योंकि जिसमें जो शक्ति नहीं है, उससे उस शक्ति विशेष की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। तथा वह उदयगत कर्मस्कन्ध से भी उत्पन्न नहीं हो सकती; क्योंकि, (इन नयों में) पर्यायों से भिन्न द्रव्य का अभाव है। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.9.2" id="IV.3.9.2"> विनाश निर्हेतुक होता है </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.9.2" id="IV.3.9.2"> विनाश निर्हेतुक होता है </span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/190/226/8 <span class="SanskritText">अस्य नयस्य निर्हेतुको विनाश:। तद्यथा–न तावत्प्रसज्यरूप: परत उत्पद्यते; कारकप्रतिषेधे व्यापृतात्परस्माद् घटाभावविरोधात् । न पर्युदासो व्यतिरिक्त उत्पद्यते; ततो व्यतिरिक्तघटोत्पत्तावर्पितघटस्य विनाशविरोधात् । नाव्यतिरिक्त:; उत्पन्नस्योत्पत्तिविरोधात् । ततो निर्हेतुको विनाश इति सिद्धम् ।</span> = <span class="HindiText">इस ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में विनाश निर्हेतुक है। वह इस प्रकार कि–प्रसज्यरूप अभाव तो पर से उत्पन्न हो नहीं सकता; क्योंकि, तहां क्रिया के साथ निषेध वाचक ‘नञ्’ का सम्बन्ध होता है। अत: क्रिया का निषेध करने वाले उसके द्वारा घट का अभाव मानने में विरोध आता है। अर्थात् जब वह क्रिया का ही निषेध करता रहेगा तो विनाशरूप अभाव का भी कर्ता न हो सकेगा। पर्युदासरूप अभाव भी पर से उत्पन्न नहीं होता है। पर्युदास से व्यतिरिक्त घट की उत्पत्ति मानने पर विवक्षित घट के विनाश के साथ विरोध आता है। घट से अभिन्न पर्युदास की उत्पत्ति मानने पर दोनों की उत्पत्ति एकरूप हो जाती है, तब उसकी घट से उत्पत्ति हुई नहीं कही जा सकती। और घट तो उस अभाव से पहिले ही उत्पन्न हो चुका है, अत: उत्पन्न की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। इसलिए विनाश निर्हेतुक है यह सिद्ध होता है। ( धवला 9/4,1,45/175/2 )। </span></li> | |||
<li> <span class="HindiText" name="IV.3.9.3" id="IV.3.9.3">उत्पाद भी निर्हेतुक है</span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.3.9.3" id="IV.3.9.3">उत्पाद भी निर्हेतुक है</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/192/228/5 <span class="SanskritText">उत्पादोऽपि निर्हेतुक:। तद्यथा–नोत्पद्यमान उत्पादयति; द्वितीयक्षणे त्रिभुवनाभावप्रसङ्गात् । नोत्पन्न उत्पादयति; क्षणिकपक्षक्षते:। न विनष्ट उत्पादयति; अभावाद्भावोत्पत्तिविरोधात् । न पूर्वविनाशोत्तरोत्पादयो: समानकालतापि कार्यकारणभावसमर्थिका। तद्यथा–नातीतार्थाभावत उत्पद्यते; भावाभावयो: कार्यकारणभावविरोधात् । न तद्भावात्; स्वकाल एव तस्योत्पत्तिप्रसङ्गात् । किंच, पूर्वक्षणसत्ता यत: समानसंतानोत्तरार्थक्षणसत्त्वविरोधिनी ततो न सा तदुत्पादिका; विरुद्धयोस्सत्तयोरुत्पाद्योत्पादकभावविरोधात् । ततो निर्हेतुक उत्पाद इति सिद्धम् ।</span> <span class="HindiText">=इस ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में उत्पाद भी निर्हेतुक होता है। वह इस प्रकार कि–जो अभी स्वयं उत्पन्न हो रहा, उससे उत्पत्ति मानने में दूसरे ही क्षण तीन लोकों के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। जो उत्पन्न हो चुका है, उससे उत्पत्ति मानने में क्षणिक पक्ष का विनाश प्राप्त होता है। जो नष्ट हो चुका है, उससे उत्पत्ति मानें तो अभाव से भाव की उत्पत्ति होने रूप विरोध प्राप्त होता है।<br /> | |||
पूर्वक्षण का विनाश और उत्तरक्षण का उत्पाद इन दोनों में परस्पर कार्यकारण भाव की समर्थन करने वाली समानकालता भी नहीं पायी जाती है। वह इस प्रकार कि–अतीत पदार्थ के अभाव से नवीन पदार्थ की उत्पत्ति मानें तो भाव और अभाव में कार्यकारण भाव माननेरूप विरोध प्राप्त होता है। अतीत अर्थ के सद्भाव से नवीन पदार्थ का उत्पाद मानें तो अतीत के सद्भाव में ही नवीन पदार्थ की उत्पत्ति का प्रसंग आता है। दूसरे, चूंकि पूर्व क्षण की सत्ता अपनी सन्तान में होने वाले उत्तर अर्थक्षण की सत्ता की विरोधिनी है, इसलिए पूर्व क्षण की सत्ता उत्तर क्षण की उत्पादक नहीं हो सकती है; क्योंकि विरुद्ध दो सत्ताओं में परस्पर उत्पाद्य-उत्पादकभाव के मानने में विरोध आता है। अतएव ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से उत्पाद भी निर्हेतुक होता है, यह सिद्ध होता है।<br /> | पूर्वक्षण का विनाश और उत्तरक्षण का उत्पाद इन दोनों में परस्पर कार्यकारण भाव की समर्थन करने वाली समानकालता भी नहीं पायी जाती है। वह इस प्रकार कि–अतीत पदार्थ के अभाव से नवीन पदार्थ की उत्पत्ति मानें तो भाव और अभाव में कार्यकारण भाव माननेरूप विरोध प्राप्त होता है। अतीत अर्थ के सद्भाव से नवीन पदार्थ का उत्पाद मानें तो अतीत के सद्भाव में ही नवीन पदार्थ की उत्पत्ति का प्रसंग आता है। दूसरे, चूंकि पूर्व क्षण की सत्ता अपनी सन्तान में होने वाले उत्तर अर्थक्षण की सत्ता की विरोधिनी है, इसलिए पूर्व क्षण की सत्ता उत्तर क्षण की उत्पादक नहीं हो सकती है; क्योंकि विरुद्ध दो सत्ताओं में परस्पर उत्पाद्य-उत्पादकभाव के मानने में विरोध आता है। अतएव ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से उत्पाद भी निर्हेतुक होता है, यह सिद्ध होता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
Line 156: | Line 156: | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.3.10" id="IV.3.10"> सकल व्यवहार का उच्छेद करता है</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.3.10" id="IV.3.10"> सकल व्यवहार का उच्छेद करता है</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/7/98/8 <span class="SanskritText">सर्वव्यवहारलोप इति चेत्; न; विषयमात्रप्रदर्शनात्, पूर्वनयवक्तव्यात् संव्यवहारसिद्धिरिति।</span>=<span class="HindiText">शंका–इस प्रकार इस नय को मानने से तो सर्व व्यवहार का लोप हो जायेगा? उत्तर–नहीं; क्योंकि यहां केवल उस नय का विषय दर्शाया गया है। व्यवहार की सिद्धि इससे पहले कहे गये व्यवहारनय के द्वारा हो जाती है (देखें [[ नय#V.4 | नय - V.4]])। ( कषायपाहुड़/1/13-14/196/232/2 ), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/228/278/4 )।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 164: | Line 164: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText" name="IV.4.1" id="IV.4.1"> शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिकनय के लक्षण</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.4.1" id="IV.4.1"> शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिकनय के लक्षण</span><br /> | ||
आलापपद्धति/9 <span class="SanskritText">शुद्धपर्याय एवार्थ: प्रयोजनमस्येति शुद्धपर्यायार्थिक:। अशुद्धपर्याय एवार्थ: प्रयोजनमस्येत्यशुद्धपर्यायार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध पर्याय अर्थात् समयमात्र स्थायी, षड्गुण हानिवृद्धि द्वारा उत्पन्न, सूक्ष्म अर्थपर्याय ही है प्रयोजन जिसका वह शुद्ध पर्यायार्थिक नय है। और अशुद्ध पर्याय अर्थात् चिरकाल स्थायी, संयोगी व स्थूल व्यंजन पर्याय ही है प्रयोजन जिसका वह अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।</span><br /> | |||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.44 <span class="SanskritText">शुद्धपर्यायार्थेन चरतीति शुद्धपर्यायार्थिक:। अशुद्धपर्यायार्थेन चरतीति अशुद्धपर्यायार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध पर्याय के अर्थ रूप से आचरण करने वाला शुद्धपर्यायार्थिक नय है, और अशुद्ध पर्याय के अर्थरूप आचरण करने वाला अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।<br /> | |||
नोट–[सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय शुद्धपर्यायार्थिक नय है और स्थूल ऋजुसूत्र अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है। (देखें [[ नय#III.5.3 | नय - III.5.3]],4,7) तथा व्यवहार नय भी कथंचित् अशुद्ध पर्यायार्थिकनय माना गया है–(देखें [[ नय#V.4.7 | नय - V.4.7]])]</span></li> | नोट–[सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय शुद्धपर्यायार्थिक नय है और स्थूल ऋजुसूत्र अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है। (देखें [[ नय#III.5.3 | नय - III.5.3]],4,7) तथा व्यवहार नय भी कथंचित् अशुद्ध पर्यायार्थिकनय माना गया है–(देखें [[ नय#V.4.7 | नय - V.4.7]])]</span></li> | ||
<li> <span class="HindiText" name="IV.4.2" id="IV.4.2">पर्यायार्थिक नय के छ: भेदों का निर्देश </span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.4.2" id="IV.4.2">पर्यायार्थिक नय के छ: भेदों का निर्देश </span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">पर्यायार्थिकस्य षड्भेदा उच्यन्ते—अनादिनित्यपर्यायार्थिको, सादिनित्यपर्यायार्थिको, .... स्वभावो नित्याशुद्धपर्यायार्थिको, ...भावोऽनित्याशुद्धपर्यायार्थिको, ...कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभावोऽनित्यशुद्धपर्यायार्थिको, ...कर्मोपाधिसापेक्षस्वभावोऽनित्याशुद्धपर्यायार्थिको।</span> = <span class="HindiText">पर्यायार्थिक नय के छ: भेद कहते हैं–1. अनादि नित्य पर्यायार्थिकनय; 2. सादिनित्य पर्यायार्थिकनय; 3. स्वभाव नित्य अशुद्धपर्यायार्थिकनय; 4. स्वभाव अनित्य अशुद्धपर्यायार्थिकनय; 5. कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभाव अनित्य शुद्धपर्यायार्थिक नय; 6. कर्मोपाधि सापेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्धपर्यायार्थिकनय। </span></li> | |||
<li> <span class="HindiText" name="IV.4.3" id="IV.4.3">पर्यायार्थिक नयषट्क के लक्षण </span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.4.3" id="IV.4.3">पर्यायार्थिक नयषट्क के लक्षण </span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.6 <span class="SanskritText">भरतादिक्षेत्राणि हिमवदादिपर्वता: पद्मादिसरोवराणि, सुदर्शनादिमेरुनगा: लवणकालोदकादिसमुद्रा: एतानि मध्यस्थितानि कृत्वा परिणतसंख्यातद्वीपसमुद्रा: श्वभ्रपटलानि भवनवासिबाणव्यन्तरविमानानि चन्द्रार्कमण्डलादिज्योतिर्विमानानि सौधर्मकल्पादिस्वर्गपटलानि यथायोग्यस्थाने परिणताकृत्रिमचैत्यचैत्यालया: मोक्षशिलाश्च बृहद्वातवलयाश्च इत्येवमाद्यनेकाश्चर्यरूपेण परिणतपुद्गलपर्यायाद्यनेकद्रव्यपर्यायै: सह परिणतलोकमहास्कन्धपर्याया: त्रिकालस्थिता: सन्तोऽनादिनिधना इति अनादिनित्यपर्यायार्थिकनय:।1। शुद्धनिश्चयनयविवक्षामकृत्वा सकलकर्मक्षयोद्भूतचरमशरीराकारपर्यायपरिणतिरूपशुद्धसिद्धपर्याय: सादिनित्यपर्यायार्थिकनय:।2। अगुरुलघुकादिगुणा: स्वभावेन षट्हानिषड्वृद्धिरूपक्षणभङ्गपर्यायपरिणतोऽपरिणतसद्द्रव्यानन्तगुणपर्यायासंक्रमणदोषपरिहारेण द्रव्यं नित्यस्वरूपेऽवतिष्ठमानमिति सत्तासापेक्षस्वभाव-नित्यशुद्ध-पर्यायार्थिकनय:।3। सद्गुणविवक्षाभावेन ध्रौव्योत्पत्तिव्ययाधीनतया द्रव्यं विनाशोत्पत्तिस्वरूपमिति सत्तानिरपेक्षोत्पादव्ययग्राहकस्वभावानित्याशुद्धपर्यायार्थिकनय:।4। चराचरपर्यायपरिणतसमस्तसंसारिजीवनिकायेषु शुद्धसिद्धपर्यायविवक्षाभावेन कर्मोपाधिनिरपेक्ष विभावनित्यशुद्धपर्यायार्थिकनय:।5। शुद्धपर्यायविवक्षाभावेन कर्मोपाधिसंजनितनारकादिविभावपर्याया: जीवस्वरूपमिति कर्मोपाधिसापेक्ष–विभावानित्याशुद्धपर्यायार्थिकनय:।6। =</span> | |||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> भरत आदि क्षेत्र, हिमवान आदि पर्वत, पद्म आदि सरोवर, सुदर्शन आदि मेरु, लवण व कालोद आदि समुद्र, इनको मध्यरूप या केन्द्ररूप करके स्थित असंख्यात द्वीप समुद्र, नरक पटल, भवनवासी व व्यन्तर देवों के विमान, चन्द्र व सूर्य मण्डल आदि ज्योतिषी देवों के विमान, सौधर्मकल्प आदि स्वर्गों के पटल, यथायोग्य स्थानों में परिणत अकृत्रिम चैत्यचैत्यालय, मोक्षशिला, बृहद् वातवलय तथा इन सबको आदि लेकर अन्य भी आश्चर्यरूप परिणत जो पुद्गल पर्याय तथा उनके साथ परिणत लोकरूप महास्कन्ध पर्याय जो कि त्रिकाल स्थित रहते हुए अनादिनिधन हैं, इनको विषय करने वाला अर्थात् इनकी सत्ता को स्वीकार करने वाला अनादिनित्य पर्यायार्थिक नय है।</li> | <li class="HindiText"> भरत आदि क्षेत्र, हिमवान आदि पर्वत, पद्म आदि सरोवर, सुदर्शन आदि मेरु, लवण व कालोद आदि समुद्र, इनको मध्यरूप या केन्द्ररूप करके स्थित असंख्यात द्वीप समुद्र, नरक पटल, भवनवासी व व्यन्तर देवों के विमान, चन्द्र व सूर्य मण्डल आदि ज्योतिषी देवों के विमान, सौधर्मकल्प आदि स्वर्गों के पटल, यथायोग्य स्थानों में परिणत अकृत्रिम चैत्यचैत्यालय, मोक्षशिला, बृहद् वातवलय तथा इन सबको आदि लेकर अन्य भी आश्चर्यरूप परिणत जो पुद्गल पर्याय तथा उनके साथ परिणत लोकरूप महास्कन्ध पर्याय जो कि त्रिकाल स्थित रहते हुए अनादिनिधन हैं, इनको विषय करने वाला अर्थात् इनकी सत्ता को स्वीकार करने वाला अनादिनित्य पर्यायार्थिक नय है।</li> | ||
Line 176: | Line 176: | ||
<li class="HindiText"> (व्याख्या की अपेक्षा यह नं.4 है) पदार्थ में विद्यमान गुणों की अपेक्षा को मुख्य न करके उत्पाद व्यय ध्रौव्य के आधीनपने रूप से द्रव्य को विनाश व उत्पत्ति स्वरूप मानने वाला सत्तानिरपेक्ष या सत्तागौण उत्पादव्ययग्राहक स्वभाव अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है।</li> | <li class="HindiText"> (व्याख्या की अपेक्षा यह नं.4 है) पदार्थ में विद्यमान गुणों की अपेक्षा को मुख्य न करके उत्पाद व्यय ध्रौव्य के आधीनपने रूप से द्रव्य को विनाश व उत्पत्ति स्वरूप मानने वाला सत्तानिरपेक्ष या सत्तागौण उत्पादव्ययग्राहक स्वभाव अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है।</li> | ||
<li class="HindiText"> (व्याख्या की अपेक्षा यह नं.3)–अगुरुलघु आदि गुण स्वभाव से ही षट्गुण हानि वृद्धिरूप क्षणभंग अर्थात् एकसमयवर्ती पर्याय से परिणत हो रहे हैं। तो भी सत् द्रव्य के अनन्तों गुण और पर्यायें परस्पर संक्रमण न करके अपरिणत अर्थात् अपने-अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं। द्रव्य को इस प्रकार का ग्रहण करने वाला नय सत्तासापेक्ष स्वभावनित्य शुद्धपर्यायार्थिकनय है। </li> | <li class="HindiText"> (व्याख्या की अपेक्षा यह नं.3)–अगुरुलघु आदि गुण स्वभाव से ही षट्गुण हानि वृद्धिरूप क्षणभंग अर्थात् एकसमयवर्ती पर्याय से परिणत हो रहे हैं। तो भी सत् द्रव्य के अनन्तों गुण और पर्यायें परस्पर संक्रमण न करके अपरिणत अर्थात् अपने-अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं। द्रव्य को इस प्रकार का ग्रहण करने वाला नय सत्तासापेक्ष स्वभावनित्य शुद्धपर्यायार्थिकनय है। </li> | ||
<li class="HindiText"> चराचर पर्याय परिणत संसारी जीवधारियों के समूह में शुद्ध सिद्धपर्याय की विवक्षा से कर्मोपाधि से निरपेक्ष विभावनित्य शुद्धपर्यायार्थिक नय है। (यहां पर संसाररूप विभाव में यह नय नित्य शुद्ध सिद्धपर्याय को जानने की विवक्षा रखते हुए संसारी जीवों को भी सिद्ध सदृश बताता है। इसी को | <li class="HindiText"> चराचर पर्याय परिणत संसारी जीवधारियों के समूह में शुद्ध सिद्धपर्याय की विवक्षा से कर्मोपाधि से निरपेक्ष विभावनित्य शुद्धपर्यायार्थिक नय है। (यहां पर संसाररूप विभाव में यह नय नित्य शुद्ध सिद्धपर्याय को जानने की विवक्षा रखते हुए संसारी जीवों को भी सिद्ध सदृश बताता है। इसी को आलापपद्धति में कर्मोपाधि निरपेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय कहा गया है। </li> | ||
<li class="HindiText"> जो शुद्ध पर्याय की विवक्षा न करके कर्मोपाधि से उत्पन्न हुई नारकादि विभावपर्यायों को जीवस्वरूप बताता है वह कर्मोपाधिसापेक्ष विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है। (इसी को | <li class="HindiText"> जो शुद्ध पर्याय की विवक्षा न करके कर्मोपाधि से उत्पन्न हुई नारकादि विभावपर्यायों को जीवस्वरूप बताता है वह कर्मोपाधिसापेक्ष विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है। (इसी को आलापपद्धति में कर्मोपाधिसापेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय कहा गया है।) ( आलापपद्धति/5 ); ( नयचक्र बृहद्/200-205 ) ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.9 पर उद्धृत श्लोक नं.1-6 तथा पृ.41/श्लोक 7-12)।</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> |
Revision as of 19:12, 17 July 2020
- पर्यायार्थिक नय का लक्षण
- पर्याय ही है प्रयोजन जिसका
सर्वार्थसिद्धि/1/6/21/1 पर्यायोऽर्थ: प्रयोजनमस्येत्यसौ पर्यायार्थिक:। =पर्याय ही है अर्थ या प्रयोजन जिसका सो पर्यायार्थिक नय। ( राजवार्तिक/1/33/1/95/9 ); ( धवला 1/1,1,1/84/1 ); ( धवला 9/4,1,45/170/3 ); ( कषायपाहुड़/1/13-14/181/217/1 ) ( आलापपद्धति/9 ) ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/19 ); ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/519 )।
- द्रव्य को गौण करके पर्याय का ग्रहण
नयचक्र बृहद्/190 पज्जय गउणं किज्जा दव्वं पि य जो हु गिहणए लोए। सो दव्वत्थिय भणिओ विवरीओ पज्जयत्थिओ। =पर्याय को गौण करके जो द्रव्य को ग्रहण करता है, वह द्रव्यार्थिकनय है। और उससे विपरीत पर्यायार्थिक नय है। अर्थात् द्रव्य को गौण करके जो पर्याय को ग्रहण करता है सो पर्यायार्थिकनय है।
समयसार / आत्मख्याति/13 द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि...पर्यायं मुख्यतयानुभवतीति पर्यायार्थिक:। =द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु में पर्याय को ही मुख्यरूप से जो अनुभव करता है, सो पर्यायार्थिक नय है।
न्यायदीपिका/3/82/126 द्रव्यार्थिकनयमुपसर्जनीकृत्य प्रवर्तमानपर्यायार्थिकनयमवलम्ब्य कुण्डलमानयेत्युक्ते न कटकादौ प्रवर्त्तते, कटकादिपर्यायात् कुण्डलपर्यायस्य भिन्नत्वात् । =जब पर्यायार्थिक नय की विवक्षा होती है तब द्रव्यार्थिकनय को गौण करके प्रवृत्त होने वाले पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से ‘कुण्डल लाओ’ यह कहने पर लाने वाला कड़ा आदि के लाने में प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि कड़ा आदि पर्याय से कुण्डलपर्याय भिन्न है।
- पर्याय ही है प्रयोजन जिसका
- पर्यायार्थिक नय वस्तु के विशेष अंश को एकत्व रूप से विषय करता है
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/1 पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थ:। तद्विषय: पर्यायार्थिक:। =पर्याय का अर्थ विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति (भेद) है, और इसको विषय करने वाला नय पर्यायार्थिकनय है ( तत्त्वसार/1/40 )।
श्लोकवार्तिक 4/1/33/3/215/10 पर्यायविषय: पर्यायार्थ:। =पर्याय को विषय करने वाला पर्यायार्थ नय है। ( नयचक्र बृहद्/189 )
हरिवंशपुराण/58/42 स्यु: पर्यायार्थिकस्यान्मे विशेषविषया: नया:।42। =ऋजुसूत्रादि चार नय पर्यायार्थिक नय के भेद हैं। वे सब वस्तु के विशेष अंश को विषय करते हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/114 द्रव्यार्थिकमेकान्तनिमीलितं केवलोन्मीलितेन पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा जीवद्रव्ये व्यवस्थितान्नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकान् विशेषाननेकानवलोकयतामनलोकितसामान्यानामन्यत्प्रतिभाति। द्रव्यस्य तत्तद्विशेषकाले तत्तद्विशेषभ्यस्तन्मयत्वेनानन्यत्वात् गणतृणपर्णदारुमयहव्यवाहवत् ।=जब द्रव्यार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके मात्र खुली हुईं पर्यायार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब जीवद्रव्य में रहने वाले नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्याय स्वरूप अनेक विशेषों को देखने वाले और सामान्य को न देखने वाले जीवों को (वह जीवद्रव्य) अन्य–अन्य भासित होता है क्योंकि द्रव्य उन-उन विशेषों के समय तन्मय होने से उन-उन विशेषों से अनन्य है–कण्डे, घास, पत्ते और काष्ठमय अग्नि की भांति।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/270 जो साहेदि विसेसे बहुविहसामण्णसंजुदे सव्वे। साहणलिंग-वसादो पज्जयविसओ णओ होदि।=जो अनेक प्रकार के सामान्य सहित सब विशेषों को साधक लिंग के बल से साधता है, वह पर्यायार्थिक नय है।
- द्रव्य की अपेक्षा विषय की एकत्वता
- पर्याय से पृथक् द्रव्य कुछ नहीं है
राजवार्तिक/1/33/1/95/3 पर्याय एवार्थोऽस्य रूपाद्युत्क्षेपणादिलक्षणो, न ततोऽन्यद् द्रव्यमिति पर्यायार्थिक:। =रूपादि गुण तथा उत्क्षेपण अवक्षेपण आदि कर्म या क्रिया लक्षणवाली ही पर्याय होती है। ये पर्याय ही जिसका अर्थ हैं, उससे अतिरिक्त द्रव्य कुछ नहीं है, ऐसा पर्यायार्थिक नय है। ( धवला 12/4,2,8,15/292/12 )।
श्लोकवार्तिक/2/2/2/4/15/6 अभिधेयस्य शब्दनयोपकल्पितत्वाद्विशेषस्य ऋजुसूत्रोपकल्पितत्वादभावस्य। =शब्द का वाच्यभूत अभिधेय तो शब्दनय के द्वारा और सामान्य द्रव्य से रहित माना गया कोरा विशेष ऋजुसूत्रनय से कल्पित कर लिया जाता है।
कषायपाहुड़/1/13-14/278/314/4 ण च सामण्णमत्थि; विसेसेसु अणुगमअतुट्टसरूवसामण्णाणुवलम्भादो। =इस (ऋजुसूत्र) नय की दृष्टि में सामान्य है भी नहीं, क्योंकि विशेषों में अनुगत और जिसकी सन्तान नहीं टूटी है, ऐसा सामान्य नहीं पाया जाता। ( धवला 13/5,5,7/199/6 )
कषायपाहुड़/1/13-14/279/316/6 तस्स विसए दव्वाभावादो। =शब्दनय के विषय में द्रव्य नहीं पाया जाता। ( कषायपाहुड़/1/13-14/285/320/4 )
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परि./नय नं.2 तत् तु...पर्यायनयेन तन्तुमात्रवद्दर्शनज्ञानादिमात्रम् ।=इस आत्मा को यदि पर्यायार्थिक नय से देखें तो तन्तुमात्र की भांति ज्ञान दर्शन मात्र है। अर्थात् जैसे तन्तुओं से भिन्न वस्त्र नाम की कोई वस्तु नहीं हैं, वैसे ही ज्ञानदर्शन से पृथक् आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है।
- गुण गुणी में सामानाधिकरण्य नहीं है
राजवार्तिक/1/33/7/97/20 न सामानाधिकरण्यम् – एकस्य पर्यायेभ्योऽनन्यत्वात् पर्याया एव विविक्तशक्तयो द्रव्य नाम न किंचिदस्तीति। =(ऋजुसूत्र नय में गुण व गुणी में) सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता क्योंकि भिन्न शक्तिवाली पर्यायें ही यहां अपना अस्तित्व रखती हैं, द्रव्य नाम की कोई वस्तु नहीं है। ( धवला 9/4,1,45/174/7 ); ( कषायपाहुड़/1/13-14/89/226/5 )
देखें आगे शीर्षक नं - 8 ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में विशेष्य-विशेषण, ज्ञेय-ज्ञायक; वाच्य-वाचक, बन्ध्य-बन्धक आदि किसी प्रकार का भी सम्बन्ध सम्भव नहीं है।
- काक कृष्ण नहीं हो सकता
राजवार्तिक/1/33/7/97/17 न कृष्ण: काक: उभयोरपि स्वात्मकत्वात् – कृष्ण: कृष्णात्मको न काकात्मक:। यदि काकात्मक: स्यात्; भ्रमरादीनामपि काकत्वप्रसङ्ग:। काकश्च काकात्मको न कृष्णात्मक:; यदि कृष्णात्मक:, शुक्लकाकाभाव: स्यात् । पञ्चवर्णत्वाच्च, पित्तास्थिरुधिरादीनां पीतशुक्लादिवर्णत्वात्, तद्व्यतिरेकेण काकाभावाच्च। =इसकी दृष्टि में काक कृष्ण नहीं होता, दोनों अपने-अपने स्वभावरूप हैं। जो कृष्ण है वह कृष्णात्मक ही है काकात्मक नहीं; क्योंकि, ऐसा मानने पर भ्रमर आदिकों के भी काक होने का प्रसंग आता है। इसी प्रकार काक भी काकात्मक ही है कृष्णात्मक नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर सफेद काक के अभाव का प्रसंग आता है। तथा उसके पित्त अस्थि व रुधिर आदि को भी कृष्णता का प्रसंग आता है, परन्तु वे तो पीत शुक्ल व रक्त वर्ण वाले हैं और उनसे अतिरिक्त काक नहीं। ( धवला 9/4,1,45/174/3 ); ( कषायपाहुड़/1/13-14/188/226/2 )
- सभी पदार्थ एक संख्या से युक्त हैं
ष.ख.12/4,2,9/सू. 14/300 सद्दुजुसुदाणं णाणावरणीयवेयणा जीवस्स।14।
धवला 12/4,2,9,14/300/10 किमट्ठं जीव-वेयणाणं सद्दुजुसुदा वहुवयणं णेच्छंति। ण एस दोसो, बहुत्ताभावादो। तं जहासव्वं पि वत्थु एगसंखाविसिट्ठं, अण्णहा तस्साभावप्पसंगादो। ण च एगत्तपडिग्गहिए वत्थुम्हि दुब्भावादीणं संभवो अत्थि, सीदुण्हाणं व तेसु सहाणवट्ठाणलक्खणविरोहदंसणादो। =शब्द और ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना जीव के होती है।14। प्रश्न–ये नय बहुवचन को क्यों नहीं स्वीकार करते ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं; क्योंकि, यहां बहुत्व की सम्भावना नहीं है। वह इस प्रकार कि–सभी वस्तु एक संख्या से संयुक्त हैं; क्योंकि, इसके बिना उसके अभाव का प्रसंग आता है। एकत्व को स्वीकार करने वाली वस्तु में द्वित्वादि की सम्भावना भी नहीं है, क्योंकि उनमें शीत व उष्ण के समान सहानवस्थानरूप विरोध देखा जाता है। (और भी देखो आगे शीर्षक नं.4/2 तथा 6)।
धवला 9/4,1,59/266/1 उजुसुदेकिमिदि अणेयसंखा णत्थि। एयसद्दस्स एयपमाणस्य य एगत्थं मोत्तूण अणेगत्थेसु एक्ककाले पवुत्तिविरोहादो। ण च सद्द-पमाणाणि बहुसत्तिजुत्ताणि अत्थि, एक्कम्हि विरुद्धाणेयसत्तीणं संभवविरोहादो एयसंखं मोत्तूण अणेयसंखाभावादो वा। =प्रश्न–ऋजुसूत्रनय में अनेक संख्या क्यों संभव नहीं ? उत्तर–चूंकि इस नय की अपेक्षा एक शब्द और एक प्रमाणकी एक अर्थ को छोड़कर अनेक अर्थों में एक काल में प्रवृत्ति का विरोध है, अत: उसमें एक संख्या संभव नहीं है। और शब्द व प्रमाण बहुत शक्तियों से युक्त हैं नहीं; क्योंकि, एक में विरुद्ध अनेक शक्तियों के होने का विरोध है। अथवा एक संख्या को छोड़कर अनेक संख्याओं का वहां (इन नयों में) अभाव है। ( कषायपाहुड़/1/13-14/277/313/5;315/1 )।
- पर्याय से पृथक् द्रव्य कुछ नहीं है
- क्षेत्र की अपेक्षा विषय की एकत्वता
- प्रत्येक पदार्थ का अवस्थान अपने में ही है
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/9 अथवा यो यत्राभिरूढ़: स तत्र समेत्याभिमुख्येनारोहणात्समभिरूढ:। यथा क्व भवानास्ते। आत्मनीति। कुत:। वस्त्वन्तरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्र वृत्ति: स्यात्, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्ति: स्यात् । =अथवा जो जहां अभिरूढ है वह वहां सम् अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखता से रूढ़ होने के कारण समभिरूढनय कहलाता है ? यथा–आप कहां रहते हैं ? अपने में, क्योंकि अन्य वस्तु की अन्य वस्तु में वृत्ति नहीं हो सकती। यदि अन्य की अन्य में वृत्ति मानी जाये तो ज्ञानादि व रूपादि की भी आकाश में वृत्ति होने लगे। ( राजवार्तिक/1/33/10/99/2 )।
राजवार्तिक/1/33/7/97/16 यमेवाकाशदेशमवगाढुं समर्थ आत्मपरिणामं वा तत्रैवास्य वसति:। =जितने आकाश प्रदेशों में कोई ठहरा है, उतने ही प्रदेशों में उसका निवास है अथवा स्वात्मा में; अत: ग्रामनिवास गृहनिवास आदि व्यवहार नहीं हो सकते। ( धवला 9/4,1,45/174/2 ); ( कषायपाहुड़/1/13-14/187/226/1 )।
- वस्तु अखण्ड व निरवयव होती है
धवला 12/4,2,9,15/301/1 ण च एगत्तविसिट्ठ वत्थु अत्थि जेण अणेगत्तस्स तदाहारो होज्ज। एक्कम्मि खंभम्मि मूलग्गमज्झभेएण अणेयत्तं दिस्सदि त्ति भणिदे ण तत्थ एयत्तं मोत्तूण अणेयत्तस्स अणुवलंभादो। ण ताव थंभगयमणेयत्तं, तत्थ एयत्तुवलंभादो। ण मूलगयमग्गगयं मज्झगयं वा, तत्थ वि एयत्तं मोत्तूण अणेयत्ताणुवलंभादो। ण तिण्णिमेगेगवत्थूणं समूहो अणेयत्तस्स आहारो, तव्वदिरेगेण तस्समूहाणूवलंभादो। तम्हा णत्थि बहुत्तं। =एकत्व से अतिरिक्त वस्तु है भी नहीं, जिससे कि वह अनेकत्व का आधार हो सके। प्रश्न–एक खम्भे में मूल अग्र व मध्य के भेद से अनेकता देखी जाती है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, उसमें एकत्व को छोड़कर अनेकत्व पाया नहीं जाता। कारण कि स्तम्भ में तो अनेकत्व की सम्भावना है नहीं, क्योंकि उसमें एकता पायी जाती है। मूलगत, अग्रगत अथवा मध्यगत अनेकता भी सम्भव नहीं है, क्योंकि उनमें भी एकत्व को छोड़कर अनेकता नहीं पायी जाती। यदि कहा जाय कि तीन एक-एक वस्तुओं का समूह अनेकता का आधार है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उससे भिन्न उनका समूह पाया नहीं जाता। इस कारण इन नयों की अपेक्षा बहुत्व सम्भव नहीं है। (स्तम्भादि स्कन्धों का ज्ञान भ्रान्त है। वास्तव में शुद्ध परमाणु ही सत् है (देखें आगे शीर्षक नं - 8.2)।
कषायपाहुड़/1/13-14/193/230/4 ते च परमाणवो निरवयवा: ऊर्ध्वाधोमध्यभागाद्यवयवेषु सत्सु अनवस्थापत्ते:, परमाणोर्वापरमाणुत्वप्रसङ्गाच्च। =(इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में सजातीय और विजातीय उपाधियों से रहित) वे परमाणु निरवयव हैं, क्योंकि उनके ऊर्ध्वभाग, अधोभाग और मध्यभाग आदि अवयवों के मानने पर अनवस्था दोष की आपत्ति प्राप्त होती है, और परमाणु को अपरमाणुपने का प्रसंग प्राप्त होता है। (और भी देखें नय - IV.3.7 में स.म.)।
- पलालदाह सम्भव नहीं
राजवार्तिक/1/33/7/97/26 न पलालादिदाहाभाव:...यत्पलालं तद्दहतीति चेत्; न; सावशेषात् । ...अवयवानेकत्वे यद्यवयवदाहात् सर्वत्र दाहोऽवयवान्तरादाहात् ननु सर्वदाहाभाव:। अथ दाह: सर्वत्र कस्मान्नादाह:। अतो न दाह:। एवं पानभोजनादिव्यवहाराभाव:।=इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में पलाल का दाह नहीं हो सकता। जो पलाल है वह जलता है यह भी नहीं कह सकते; क्योंकि, बहुत पलाल बिना जला भी शेष है। यदि अनेक अवयव होने से कुछ अवयवों में दाह की अपेक्षा लेकर सर्वत्र दाह माना जाता है, तो कुछ अवयवों में अदाह की अपेक्षा लेकर सर्वत्र अदाह क्यों नहीं माना जायेगा ? अत: पान-भोजनादि व्यवहार का अभाव है।
धवला 9/4,1,45/175/9 न पलालावयवी दह्यते, तस्यासत्त्वात् । नावयवा दह्यन्ते, निरवयवत्वतस्तेषामप्यसत्त्वात् । =पलाल अवयवी का दाह नहीं होता, क्योंकि, अवयवी की (इस नय में) सत्ता ही नहीं है। न अवयव जलते हैं, क्योंकि स्वयं निरवयव होने से उनका भी असत्त्व है।
- कुम्भकार संज्ञा नहीं हो सकती
कषायपाहुड़ 1/13-14/186/225/1 न कुम्भकारोऽस्ति। तद्यथा–न शिवकादिकरणेन तस्य स व्यपदेश:, शिवकादिषु कुम्भभावानुपलम्भात् । न कुम्भं करोति; स्वावयवेभ्य एव तन्निष्पत्त्युपलम्भात् । न बहुभ्य एक: घट: उत्पद्यते; तत्र यौगपद्येन भूयो धर्माणां सत्त्वविरोधात् । अविरोधे वा न तदेकं कार्यम्; विरुद्धधर्माध्यासत: प्राप्तानेकरूपत्वात् । न चैकेन कृतकार्य एव शेषसहकारिकारणानि व्याप्रियन्ते; तद्व्यापारवैफल्यप्रसङ्गात् । न चान्यत्र व्याप्रियन्ते; कार्यंबहुत्वप्रसङ्गात् । न चैतदपि एकस्य घटस्य बहुत्वाभावात् । =इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में कुम्भकार संज्ञा भी नहीं बन सकती है। वह इस प्रकार कि–शिवकादि पर्यायों को करने से उसे कुम्भकार कह नहीं सकते, क्योंकि शिवकादि में कुम्भपना पाया नहीं जाता और कुम्भ को वह बनाता नहीं है; क्योंकि, अपने शिवकादि अवयवों से ही उसकी उत्पत्ति होती है। अनेक कारणों से उसकी उत्पत्ति माननी भी ठीक नहीं है; क्योंकि घट में युगपत् अनेक धर्मों का अस्तित्व मानने में विरोध आता है। उसमें अनेक धर्मों का यदि अविरोध माना जायेगा तो वह घट एक कार्य नहीं रह जायेगा, बल्कि विरुद्ध अनेक धर्मों का आधार होने से अनेक रूप हो जायेगा। यदि कहा जाय कि एक उपादान कारण से उत्पन्न होने वाले उस घट में अन्य अनेकों सहकारी कारण भी सहायता करते हैं, तो उनके व्यापार की विफलता प्राप्त होती है। यदि कहा जाये कि उसी घट में वे सहकारीकारण उपादान के कार्य से भिन्न ही किसी अन्य कार्य को करते हैं, तो एक घट में कार्य बहुत्व का प्रसंग आता है, और ऐसा माना नहीं जा सकता, क्योंकि एक घट अनेक कार्यरूप नहीं हो सकता। ( राजवार्तिक/1/33/7/97/12 ); ( धवला 9/4,1,45/173/7 )।
- प्रत्येक पदार्थ का अवस्थान अपने में ही है
- काल की अपेक्षा विषय की एकत्वता
- केवल वर्तमान क्षणमात्र ही वस्तु है
कषायपाहुड़ 1/13-14/181/217/1 परि भेदं ऋजुसूत्रवचनविच्छेदं एति गच्छतीति पर्याय:, स पर्याय: अर्थ: प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिक:। सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च द्रव्यार्थिकाशेषविषयं ऋजुसूत्रवचनविच्छेदेन पाटयन् पर्यायार्थिक इत्यवगन्तव्य:। अत्रोपयोगिन्यौ गाथे–‘मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उजुसुद्दवयणिविच्छेदो। तस्स उ सद्दादीया साहपसाहा सुहुमभेया।88।=’परि’ का अर्थ भेद है। ऋजुसूत्र के वचन के विच्छेदरूप वर्तमान समयमात्र (देखें नय - III.1.2) काल को जो प्राप्त होती है, वह पर्याय है। वह पर्याय ही जिस नय का प्रयोजन है सो पर्यायार्थिकनय है। सादृश्यलक्षण सामान्य से भिन्न और अभिन्न जो द्रव्यार्थिकनय का समस्त विषय है (देखें नय - IV.1.2) ऋजुसूत्रवचन के विच्छेदरूप काल के द्वारा उसका विभाग करने वाला पर्यायार्थिकनय है, ऐसा उक्त कथन का तात्पर्य है। इस विषय में यह उपयोगी गाथा है–ऋजुसूत्र वचन अर्थात् वचन का विच्छेद जिस काल में होता है वह काल पर्यायार्थिकनय का मूल आधार है, और उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेदरूप शब्दादि नय उसी ऋजुसूत्र की शाखा उपशाखा है।88।
देखें नय - III.5.1.2 (अतीत व अनागत काल को छोड़कर जो केवल वर्तमान को ग्रहण करे सो ऋजुसूत्र अर्थात् पर्यायार्थिक नय है।)
देखें नय - III.5.7 (सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा वह काल भी दो प्रकार का है। सूक्ष्म एक समय मात्र है और स्थूल अन्तर्मुहूर्त या संख्यात वर्ष।)
राजवार्तिक/1/33/1/95/6 पर्याय एवार्थं: कार्यमस्य न द्रव्यम् अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् ।...पर्यायोऽर्थ: प्रयोजनमस्य वाग्विज्ञानव्यावृत्तिनिबन्धनव्यवहारप्रसिद्धेरिति।=वर्तमान पर्याय ही अर्थ या कार्य है, द्रव्य नहीं, क्योंकि अतीत विनष्ट हो जाने के कारण और अनागत अभी उत्पन्न न होने के कारण (खरविषाण की तरह (स.म.) उनमें किसी प्रकार का भी व्यवहार सम्भव नहीं। [तथा अर्थ क्रियाशून्य होने के कारण वे अवस्तुरूप हैं (स.म.)] वचन व ज्ञान के व्यवहार की प्रसिद्धि के अर्थ वह पर्याय ही नय का प्रयोजन है।
- क्षणस्थायी अर्थ ही उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है
धवला 1/1,1,1/ गा.8/13 उप्पज्जंति वियेति य भावा णियतेण पज्जवणयस्स।8। =पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं और नाश को प्राप्त होते हैं। धवला 4/1,5,4/ गा.29/337), ( धवला 9/4,1,49/ गा.94/244), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/ गा.95/204/248), ( पंचास्तिकाय/11 ), ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/247 )।
देखें आगे नय - IV.3.7–(पदार्थ का जन्म ही उसके नाश में हेतु है।)
कषायपाहुड़ 1/13-14/190/ गा.91/228 प्रत्येकं जायते चित्तं जातं जातं प्रणश्यति। नष्टं नावर्तते भूयो जायते च नवं नवम् ।91। =प्रत्येक चित्त (ज्ञान) उत्पन्न होता है और उत्पन्न होकर नाश को प्राप्त हो जाता है। तथा जो नष्ट हो जाता है, वह पुन: उत्पन्न नहीं होता, किन्तु प्रति समय नया नया चित्त ही उत्पन्न होता है। ( धवला 6/1,9-9,5/420/5 )।
राजवार्तिक/1/33/1/95/1 पर्याय एवास्ति इति मतिरस्य जन्मादिभावविकारमात्रमेव भवनं, न ततोऽन्यद् द्रव्यमस्ति तद्वयतिरेकेणानुपलब्धिरिति पर्यायास्तिक:। =जन्म आदि भावविकार मात्र का होना ही पर्याय है। उस पर्याय का ही अस्तित्व है, उससे अतिरिक्त द्रव्य कुछ नहीं है, क्योंकि उस पर्याय से पृथक् उसकी उपलब्धि नहीं होती है। ऐसी जिनकी मान्यता है, सो पर्यायास्तिक नय है।
- केवल वर्तमान क्षणमात्र ही वस्तु है
- काल एकत्व विषयक उदाहरण
राजवार्तिक/1/33/7/ पंक्ति–कषायो भैषज्यम् इत्यत्र च संजातरस: कषायो भैषज्यं न प्राथमिककषायोऽल्पोऽनभिव्यक्तरसत्वादस्य विषय:। (1)। ‘‘....’’ तथा प्रतिष्ठन्तेऽस्मिन्निति प्रस्थ:, यदैव मिमीते, अतीतानागतधान्यमानासंभवात् । (11) ‘‘....’’ स्थितप्रश्ने च ‘कुतोऽद्यागच्छसि इति। ‘न कुतश्चित्’ इत्यर्थं मन्यते, तत्कालक्रियापरिणामाभावात् ।(14)।=- ‘कषायो भैषज्यम्’ में वर्तमानकालीन वह कषाय भैषज हो सकती है जिसमें रस का परिपाक हुआ है, न कि प्राथमिक अल्प रस वाला कच्चा कषाय।
- जिस समय प्रस्थ से धान्य आदि मापा जाता है उसी समय उसे प्रस्थ कह सकते हैं, क्योंकि वर्तमान में अतीत और अनागत वाले धान्य का माप नहीं होता है। ( धवला 9/4,1,45/173/5 ); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/186/224/8 )
- जिस समय जो बैठा है उससे यदि पूछा जाय कि आप अब कहां से आ रहे हैं, तो वह यही कहेगा कि ‘कहीं से भी नहीं आ रहा हूं’ क्योंकि, उस समय आगमन क्रिया नहीं हो रही है। ( धवला 9/4,1,45/174/1 ), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/187/225/7 )
राजवार्तिक/1/33/7/98/7 न शुक्ल: कृष्णीभवति; उभयोर्भिन्नकालावस्थत्वात्, प्रत्युत्पन्नविषये निवृत्तपर्यायानभिसंबन्धात् ।= - ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से सफेद चीज काली नहीं बन सकती, क्योंकि दोनों का समय भिन्न-भिन्न है। वर्तमान के साथ अतीत का कोई सम्बन्ध नहीं है। ( धवला 9/4,1,45/176/3 ), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/194/230/6 )
कषायपाहुड़ 1/13-14/279/316/5 सद्दणयस्स कोहोदओ कोहकसाओ, तस्स विसए दव्वाभावादो। = - शब्दनय की अपेक्षा क्रोध का उदय ही क्रोध कषाय है; क्योंकि, इस नय के विषय में द्रव्य नहीं पाया जाता।
- पलाल दाह सम्भव नहीं
राजवार्तिक/1/33/7/97/26 अत: पलालादिदाहाभाव: प्रतिविशिष्टकालपरिग्रहात् । अस्य हि नयस्याविभागो वर्तमानसमयो विषय:। अग्निसंबन्धनदीपनज्वलनदहनानि असंख्येयसमयान्तरालानि यतोऽस्य दहनाभाव:। किंच यस्मिन्समये दाह: न तस्मिन्पलालम्, भस्मताभिनिवृत्ते: यस्मिंश्च पलालं न तस्मिन् दाह इति। एवं क्रियमाणकृत-भुज्यमानभुक्त-बध्यमानबद्ध-सिध्यत्सिद्धादयो योज्या:। =इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में पलाल का दाह नहीं हो सकता; क्योंकि इस नय का विषय अविभागी वर्तमान समयमात्र है। अग्नि सुलगाना धौंकना और जलाना आदि असंख्य समय की क्रियाएं वर्तमान क्षण में नहीं हो सकतीं। तथा जिस समय दाह है, उस समय पलाल नहीं है, और जिस समय पलाल है उस समय दाह नहीं है, फिर पलाल दाह कैसा? इसी प्रकार क्रियमाण-कृत, भुज्यमान-भुक्त, बध्यमान-बद्ध, सिद्धयत्-सिद्ध आदि विषयों में लागू करना चाहिए। ( धवला 9/4,1,45/175/8 )
- पच्यमान ही पक्व है
राजवार्तिक/1/33/7/97/3 पच्यमान: पक्व:। पक्वस्तु स्यात्पच्यमान: स्यादुपरतपाक इति। असदेतत्; विरोधात् । ‘पच्यमान:’ इति वर्तमान: ‘पक्व:’ इत्यतीत: तयोरेकस्मिन्नवरोधो विरोधीति; नैष दोष:; पचनस्यादावविभागसमये कश्चिदंशो निर्वृत्तो वा, न वा। यदि न निर्वृत्त:; तद्द्वितीयादिष्वप्यनिर्वृत्त: पाकाभाव: स्यात् । ततोऽभिनिर्वृत्त: तदपेक्षया ‘पच्यमान: पक्व:’ इतरथा हि समयस्य त्रैविध्यप्रसङ्ग:। स एवौदन: पच्यमान: पक्व:, स्यात्पच्यमान इत्युच्यते, पक्तुरभिप्रायस्यानिर्वृत्ते:, पक्तुर्हि सुविशदसुस्विन्नौदने पक्वाभिप्राय:, स्यादुपरतपाक इति चोच्यते कस्यचित् पक्तुस्तावतैव कृतार्थत्वात् ।=इस ऋजुसूत्र नय का विषय पच्यमान पक्व है और ‘कथंचित् पकने वाला’ और ‘कथंचित् पका हुआ’ हुआ। प्रश्न–पच्यमान (पक रहा) वर्तमानकाल को, और पक्व (पक चुका) भूतकाल को सूचित करता है, अत: दोनों का एक में रहना विरुद्ध है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है। पाचन क्रिया के प्रारम्भ होने के प्रथम समय में कुछ अंश पका या नहीं? यदि नहीं तो द्वितीयादि समयों में भी इसी प्रकार न पका। इस प्रकार पाक के अभाव का प्रसंग आता है। यदि कुछ अंश पक गया है तो उस अंश की अपेक्षा तो वह पच्यमान भी ओदन पक्व क्यों न कहलायेगा। अन्यथा समय के तीन खण्ड होने का प्रसंग प्राप्त होगा। (और पुन: उस समय खण्ड में भी उपरोक्त ही शंका समाधान होने से अनवस्था आयेगी) वही पका हुआ ओदन कथंचित् ‘पच्यमान’ ऐसा कहा जाता है; क्योंकि, विशदरूप से पूर्णतया पके हुए ओदन में पाचक का पक्व से अभिप्राय है। कुछ अंशों में पचनक्रिया के फल की उत्पत्ति के विराम होने की अपेक्षा वही ओदन ‘उपरत पाक’ अर्थात् कथंचित् पका हुआ कहा जाता है। इसी प्रकार क्रियमाण-कृत; भुज्यमान-भुक्त; बध्यमान-बद्ध; और सिद्धयत्-सिद्ध इत्यादि ऋजुसूत्र नय के विषय जानने चाहिए। ( धवला 9/4,1,45/172 .3), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/185/223/3 )
- भाव की अपेक्षा विषय की एकत्वता
राजवार्तिक/1/33/1/95/7 स एव एक: कार्यकारणव्यपदेशभागिति पर्यायार्थिक:। = वह पर्याय ही अकेली कार्य व कारण दोनों नामों को प्राप्त होती हैं, ऐसा पर्यायार्थिक नय है।
कषायपाहुड़ 1/13-14/190/ गा.90/227 जातिरेव हि भावानां निरोधे हेतुरिष्यते। =जन्म ही पदार्थ के विनाश में हेतु है।
धवला 9/4,1,45/176/2 य: पलालो न स दह्यते, तत्राग्निसंबन्धजनितातिशयान्तराभावात्, भावो वा न स पलालप्राप्तोऽन्यस्वरूपत्वात् ।=अग्नि जनित अतिशयान्तर का अभाव होने से पलाल नहीं जलता। उस स्वरूप न होने से वह अतिशयान्तर पलाल को प्राप्त नहीं है।
कषायपाहुड़ 1/13-14/278/315/1 उजुसुदेसु बहुअग्गहो णत्थि त्ति एयसत्तिसहियएयमणब्भुवगमादो। =एक क्षण में एक शक्ति से युक्त एक ही मन पाया जाता है, इसलिए ऋजुसूत्रनय में बहुअवग्रह नहीं होता।
स्याद्वादमञ्जरी/28/313/1 तदपि च निरंशमभ्युपगन्तव्यम् । अंशव्याप्तेर्युक्तिरिक्तत्वात् । एकस्य अनेकस्वभावतामन्तरेण अनेकस्यावयवव्यापनायोगात् । अनेकस्वभावता एवास्तु इति चेत् । न, विरोधव्याघ्रातत्वात् । तथाहि–यदि एकस्वभाव: कथमनेक: अनेकश्चेत्कथमेक:। अनेकानेकयो: परस्परपरिहारेणावस्थानात् । तस्मात् स्वरूपनिमग्ना: परमाणव एव परस्परापसर्णद्वारेण न स्थूलतां धारयत् पारमार्थिकमिति। =वस्तु का स्वरूप निरंश मानना चाहिए, क्योंकि वस्तु को अंश सहित मानना युक्ति से सिद्ध नहीं होता। प्रश्न–एक वस्तु के अनेकस्वभाव माने बिना वह अनेक अवयवों में नहीं रह सकती, इसलिए वस्तु में अनेकस्वभाव मानना चाहिए? उत्तर–यह ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध होने से एक स्वभाव वाली वस्तु में अनेक स्वभाव और अनेक स्वभाव वाली वस्तु में एकस्वभाव नहीं बन सकते। अतएव अपने स्वरूप में स्थित परमाणु ही परस्पर के संयोग से कथंचित् समूह रूप होकर सम्पूर्ण कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा स्थूलरूप को न धारण करने वाले स्वरूप में स्थित परमाणु ही यथार्थ में सत् कहे जा सकते हैं।
- किसी भी प्रकार का सम्बन्ध सम्भव नहीं
- विशेष्य विशेषण भाव सम्भव नहीं
कषायपाहुड़ 1/13-14/193/229/6 नास्य विशेषणविशेष्यभावोऽपि। तद्यथा–न तावद्भिन्नयो:; अव्यवस्थापत्ते:। नाभिन्नयो: एकस्मिंस्तद्विरोधात् । =इस (ऋजुसूत्र) नय की दृष्टि से विशेष्य विशेषण भाव भी नहीं बनता। वह ऐसे कि–दो भिन्न पदार्थों में तो वह बन नहीं सकता; क्योंकि, ऐसा मानने से अव्यवस्था की आपत्ति आती है। और अभिन्न दो पदार्थों में अर्थात् गुण गुणी में भी वह बन नहीं सकता क्योंकि जो एक है उसमें इस प्रकार का द्वैत करने से विरोध आता है। ( कषायपाहुड़ 1/13-14/200/240/6 ), ( धवला 9/4,1,45/174/7, तथा पृ.179/6)।
- संयोग व समवाय सम्बन्ध सम्भव नहीं
कषायपाहुड़ 1/13-14/193/229/7 न भिन्नाभिन्नयोरस्य नयस्य संयोग: समवायो वास्ति; सर्वथैकत्वमापन्नयो: परित्यक्तस्वरूपयोस्तद्विरोधात् । नैकत्वमापन्नयोस्तौ; अव्यवस्थापत्ते:। तत: सजातीयविजातीयविनिर्मुक्ता: केवला: परमाणव एव सन्तीति भ्रान्त: स्तम्भादिस्कन्धप्रत्यय:। =इस (ऋजुसूत्र) नय की दृष्टि से सर्वथा अभिन्न दो पदार्थों में संयोग व समवाय सम्बन्ध नहीं बन सकता; क्योंकि, सर्वथा एकत्व को प्राप्त हो गये हैं और जिन्होंने अपने स्वरूप को छोड़ दिया है ऐसे दो पदार्थों में संबंध मानने में विरोध आता है। इसी प्रकार सर्वथा भिन्न दो पदार्थों में भी संयोग या समवाय सम्बन्ध मानने में विरोध आता है, तथा अव्यवस्था की आपत्ति भी आती है अर्थात् किसी का भी किसी के साथ सम्बन्ध हो जायेगा। इसलिए सजातीय और विजातीय दोनों प्रकार की उपाधियों से रहित शुद्ध परमाणु ही सत् है। अत: जो स्तम्भादिरूप स्कन्धों का प्रत्यय होता है, वह ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में भ्रान्त है। (और भी देखें पीछे शीर्षक नं - 4.2), ( स्याद्वादमञ्जरी/28/313/5 )।
- कोई किसी के समान नहीं है
कषायपाहुड़ 1/13-14/193/230/3 नास्य नयस्य समानमस्ति; सर्वथा द्वयो: समानत्वे एकत्वापत्ते:। न कथंचित्समानतापि; विरोधात् । =इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में कोई किसी के समान नहीं है, क्योंकि दो को सर्वथा समान मान लेने पर, उन दोनों में एकत्व की आपत्ति प्राप्त होती है। कथंचित् समानता भी नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है।
- ग्राह्यग्राहकभाव सम्भव नहीं
कषायपाहुड़ 1/13-14/195/230/8 नास्य नयस्य ग्राह्यग्राहकभावोऽप्यस्ति। तद्यथा–नासंबद्धोऽर्थो गृह्यते; अव्यवस्थापत्ते:। न संबद्ध:; तस्यातीतत्वात्, चक्षुषा व्यभिचाराच्च। न समानो गृह्यते; तस्यासत्त्वात् मनस्कारेण व्यभिचारात् । =इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में ग्राह्यग्राहक भाव भी नहीं बनता। वह ऐसे कि–असम्बद्ध अर्थ के ग्रहण मानने में अव्यवस्था की आपत्ति और सम्बद्ध का ग्रहण मानने में विरोध आता है, क्योंकि वह पदार्थ ग्रहणकाल में रहता ही नहीं है, तथा चक्षु इन्द्रिय के साथ व्यभिचार भी आता है, क्योंकि चक्षु इन्द्रिय अपने को नहीं जान सकती। समान अर्थ का भी ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि एक तो समान पदार्थ है ही नहीं (देखें ऊपर ) और दूसरे ऐसा मानने से मनस्कार के साथ व्यभिचार आता है अर्थात् समान होते हुए भी पूर्वज्ञान उत्तर ज्ञान के द्वारा गृहीत नहीं होता है।
- वाच्यवाचकभाव सम्भव नहीं
कषायपाहुड़ 1/13-14/196/231/3 नास्य शुद्धस्य (नयस्य) वाच्यवाचकभावोऽस्ति। तद्यथा–न संबद्धार्थ: शब्दवाच्य:; तस्यातीतत्वात् । नासंबद्ध: अव्यवस्थापत्ते:। नार्थेन शब्द उत्पाद्यते; ताल्वादिभ्यस्तदुत्पत्त्युपलम्भात् । न शब्दादर्थ उत्पद्यते, शब्दोत्पत्ते: प्रागपि अर्थसत्त्वोपलम्भात् । न शब्दार्थयोस्तादात्म्यलक्षण: प्रतिबन्ध: करणाधिकरणभेदेन प्रतिपन्नभेदयोरेकत्वविरोधात्, क्षुरमोदकशब्दोच्चारणे मुखस्य पाटनपूरणप्रसङ्गात् । ततो न वाच्यवाचकभाव इति। =- इस ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में वाच्यवाचक भाव भी नहीं होता। वह ऐसे कि–शब्दप्रयोग काल में उसके वाच्यभूत अर्थ का अभाव हो जाने से सम्बद्ध अर्थ उसका वाच्य नहीं हो सकता। असम्बद्ध अर्थ भी वाच्य नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने से अव्यवस्थादोष की आपत्ति आती है।
- अर्थ से शब्द की उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि तालु आदि से उसकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती क्योंकि शब्दोत्पत्ति से पहिले भी अर्थ का सद्भाव पाया जाता है।
- शब्द व अर्थ में तादात्म्य लक्षण सम्बन्ध भी नहीं है, क्योंकि दोनों को ग्रहण करने वाली इन्द्रियां तथा दोनों का आधारभूत प्रदेश या क्षेत्र भिन्न-भिन्न हैं। अथवा ऐसा मानने पर ‘छुरा’ और ‘मोदक’ शब्दों को उच्चारण करने से मुख कटने का तथा पूर्ण होने का प्रसंग आता है।
- अर्थ की भांति विकल्प अर्थात् ज्ञान भी शब्द का वाच्य नहीं है, क्योंकि यहां भी ऊपर दिये गये सर्व दोषों का प्रसंग आता है। अत: वाच्यवाचक भाव नहीं है।
देखें नय - III.8.4-6 (वाक्य, पदसमास व वर्णसमास तक सम्भव नहीं)।
देखें नय - I.4.5 (वाच्यवाचक भाव का अभाव है तो यहां शब्दव्यवहार कैसे सम्भव है)।
आगम/4/4 उपरोक्त सभी तर्कों को पूर्व पक्ष की कोटि में रखकर उत्तर पक्ष में कथंचित् वाच्यवाचक भाव स्वीकार किया गया है।
- बन्ध्यबन्धक आदि अन्य भी कोई सम्बन्ध सम्भव नहीं
कषायपाहुड़ 1/13-14/191/228/3 ततोऽस्य नयस्य न बन्ध्यबन्धक-बध्यघातक-दाह्यदाहक-संसारादय: सन्ति। =इसलिए इस ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में बन्ध्यबन्धकभाव, बध्यघातकभाव, दाह्यदाहकभाव और संसारादि कुछ भी नहीं बन सकते हैं।
- विशेष्य विशेषण भाव सम्भव नहीं
- कारण कार्यभाव संभव नहीं
- कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है
राजवार्तिक/1/1/24/8/32 नेमौ ज्ञानदर्शनशब्दौ करणसाधनौ। किं तर्हि। कर्तृसाधनौ। तथा चारित्रशब्दोऽपि न कर्मसाधन:। किं तर्हि। कर्तृसाधन:। कथम् । एवंभूतनयवशात् । =एवंभूतनय की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन व चारित्र ये तीनों (तथा उपलक्षण से अन्य सभी) शब्द कर्म साधन नहीं होते, कर्तासाधन ही होते हैं। कषायपाहुड़ 1/13-14/284/319/3 कर्तृसाधन: कषाय:। एदं णेगमसंगहववहारउजुसुदाणं; तत्थ कज्जकरणभावसंभवादो। तिण्हं सद्दणयाणं ण केण वि कसाओ; तत्थ कारणेण बिणा कज्जुप्पत्तीदो। =’कषाय शब्द कर्तृसाधन है’, ऐसी बात नैगम (अशुद्ध) संग्रह, व्यवहार व (स्थूल) ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा समझनी चाहिए; क्योंकि, इन नयों में कार्य कारणभाव सम्भव है। परन्तु (सूक्ष्म ऋजुसूत्र) शब्द, समभिरूढ व एवंभूत इन तीनों शब्द नयों की अपेक्षा कषाय किसी भी साधन से उत्पन्न नहीं होती है; क्योंकि इन नयों की दृष्टि में कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है।
धवला 12/4,2,8,15/292/9 तिण्णं संद्दणयाणं णाणावरणीयपोग्गलक्खंदोदयजणिदण्णाणं वेयणा। ण सा जोगकसाएहिंतो उप्पज्जदे णिस्सत्तीदो सत्तिविसेसस्स उप्पत्तिविरोहादो। णोदयगदकम्मदव्वक्खंधादो, पज्जयवदिरित्तदव्वाभावादो। =तीनों शब्दनयों की अपेक्षा ज्ञानावरणीय सम्बन्धी पौद्गलिक स्कन्धों के उदय से उत्पन्न अज्ञान को ज्ञानावरणीय वेदना कहा जाता है। परन्तु वह (ज्ञानावरणीय वेदना) योग व कषाय से उत्पन्न नहीं हो सकती, क्योंकि जिसमें जो शक्ति नहीं है, उससे उस शक्ति विशेष की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। तथा वह उदयगत कर्मस्कन्ध से भी उत्पन्न नहीं हो सकती; क्योंकि, (इन नयों में) पर्यायों से भिन्न द्रव्य का अभाव है। - विनाश निर्हेतुक होता है
कषायपाहुड़ 1/13-14/190/226/8 अस्य नयस्य निर्हेतुको विनाश:। तद्यथा–न तावत्प्रसज्यरूप: परत उत्पद्यते; कारकप्रतिषेधे व्यापृतात्परस्माद् घटाभावविरोधात् । न पर्युदासो व्यतिरिक्त उत्पद्यते; ततो व्यतिरिक्तघटोत्पत्तावर्पितघटस्य विनाशविरोधात् । नाव्यतिरिक्त:; उत्पन्नस्योत्पत्तिविरोधात् । ततो निर्हेतुको विनाश इति सिद्धम् । = इस ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में विनाश निर्हेतुक है। वह इस प्रकार कि–प्रसज्यरूप अभाव तो पर से उत्पन्न हो नहीं सकता; क्योंकि, तहां क्रिया के साथ निषेध वाचक ‘नञ्’ का सम्बन्ध होता है। अत: क्रिया का निषेध करने वाले उसके द्वारा घट का अभाव मानने में विरोध आता है। अर्थात् जब वह क्रिया का ही निषेध करता रहेगा तो विनाशरूप अभाव का भी कर्ता न हो सकेगा। पर्युदासरूप अभाव भी पर से उत्पन्न नहीं होता है। पर्युदास से व्यतिरिक्त घट की उत्पत्ति मानने पर विवक्षित घट के विनाश के साथ विरोध आता है। घट से अभिन्न पर्युदास की उत्पत्ति मानने पर दोनों की उत्पत्ति एकरूप हो जाती है, तब उसकी घट से उत्पत्ति हुई नहीं कही जा सकती। और घट तो उस अभाव से पहिले ही उत्पन्न हो चुका है, अत: उत्पन्न की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। इसलिए विनाश निर्हेतुक है यह सिद्ध होता है। ( धवला 9/4,1,45/175/2 )। - उत्पाद भी निर्हेतुक है
कषायपाहुड़ 1/13-14/192/228/5 उत्पादोऽपि निर्हेतुक:। तद्यथा–नोत्पद्यमान उत्पादयति; द्वितीयक्षणे त्रिभुवनाभावप्रसङ्गात् । नोत्पन्न उत्पादयति; क्षणिकपक्षक्षते:। न विनष्ट उत्पादयति; अभावाद्भावोत्पत्तिविरोधात् । न पूर्वविनाशोत्तरोत्पादयो: समानकालतापि कार्यकारणभावसमर्थिका। तद्यथा–नातीतार्थाभावत उत्पद्यते; भावाभावयो: कार्यकारणभावविरोधात् । न तद्भावात्; स्वकाल एव तस्योत्पत्तिप्रसङ्गात् । किंच, पूर्वक्षणसत्ता यत: समानसंतानोत्तरार्थक्षणसत्त्वविरोधिनी ततो न सा तदुत्पादिका; विरुद्धयोस्सत्तयोरुत्पाद्योत्पादकभावविरोधात् । ततो निर्हेतुक उत्पाद इति सिद्धम् । =इस ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में उत्पाद भी निर्हेतुक होता है। वह इस प्रकार कि–जो अभी स्वयं उत्पन्न हो रहा, उससे उत्पत्ति मानने में दूसरे ही क्षण तीन लोकों के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। जो उत्पन्न हो चुका है, उससे उत्पत्ति मानने में क्षणिक पक्ष का विनाश प्राप्त होता है। जो नष्ट हो चुका है, उससे उत्पत्ति मानें तो अभाव से भाव की उत्पत्ति होने रूप विरोध प्राप्त होता है।
पूर्वक्षण का विनाश और उत्तरक्षण का उत्पाद इन दोनों में परस्पर कार्यकारण भाव की समर्थन करने वाली समानकालता भी नहीं पायी जाती है। वह इस प्रकार कि–अतीत पदार्थ के अभाव से नवीन पदार्थ की उत्पत्ति मानें तो भाव और अभाव में कार्यकारण भाव माननेरूप विरोध प्राप्त होता है। अतीत अर्थ के सद्भाव से नवीन पदार्थ का उत्पाद मानें तो अतीत के सद्भाव में ही नवीन पदार्थ की उत्पत्ति का प्रसंग आता है। दूसरे, चूंकि पूर्व क्षण की सत्ता अपनी सन्तान में होने वाले उत्तर अर्थक्षण की सत्ता की विरोधिनी है, इसलिए पूर्व क्षण की सत्ता उत्तर क्षण की उत्पादक नहीं हो सकती है; क्योंकि विरुद्ध दो सत्ताओं में परस्पर उत्पाद्य-उत्पादकभाव के मानने में विरोध आता है। अतएव ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से उत्पाद भी निर्हेतुक होता है, यह सिद्ध होता है।
- कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है
- सकल व्यवहार का उच्छेद करता है
राजवार्तिक/1/33/7/98/8 सर्वव्यवहारलोप इति चेत्; न; विषयमात्रप्रदर्शनात्, पूर्वनयवक्तव्यात् संव्यवहारसिद्धिरिति।=शंका–इस प्रकार इस नय को मानने से तो सर्व व्यवहार का लोप हो जायेगा? उत्तर–नहीं; क्योंकि यहां केवल उस नय का विषय दर्शाया गया है। व्यवहार की सिद्धि इससे पहले कहे गये व्यवहारनय के द्वारा हो जाती है (देखें नय - V.4)। ( कषायपाहुड़/1/13-14/196/232/2 ), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/228/278/4 )।
- शुद्ध व अशुद्ध पर्यायार्थिकनय के लक्षण
आलापपद्धति/9 शुद्धपर्याय एवार्थ: प्रयोजनमस्येति शुद्धपर्यायार्थिक:। अशुद्धपर्याय एवार्थ: प्रयोजनमस्येत्यशुद्धपर्यायार्थिक:। =शुद्ध पर्याय अर्थात् समयमात्र स्थायी, षड्गुण हानिवृद्धि द्वारा उत्पन्न, सूक्ष्म अर्थपर्याय ही है प्रयोजन जिसका वह शुद्ध पर्यायार्थिक नय है। और अशुद्ध पर्याय अर्थात् चिरकाल स्थायी, संयोगी व स्थूल व्यंजन पर्याय ही है प्रयोजन जिसका वह अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.44 शुद्धपर्यायार्थेन चरतीति शुद्धपर्यायार्थिक:। अशुद्धपर्यायार्थेन चरतीति अशुद्धपर्यायार्थिक:। =शुद्ध पर्याय के अर्थ रूप से आचरण करने वाला शुद्धपर्यायार्थिक नय है, और अशुद्ध पर्याय के अर्थरूप आचरण करने वाला अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।
नोट–[सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय शुद्धपर्यायार्थिक नय है और स्थूल ऋजुसूत्र अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है। (देखें नय - III.5.3,4,7) तथा व्यवहार नय भी कथंचित् अशुद्ध पर्यायार्थिकनय माना गया है–(देखें नय - V.4.7)] - पर्यायार्थिक नय के छ: भेदों का निर्देश
आलापपद्धति/5 पर्यायार्थिकस्य षड्भेदा उच्यन्ते—अनादिनित्यपर्यायार्थिको, सादिनित्यपर्यायार्थिको, .... स्वभावो नित्याशुद्धपर्यायार्थिको, ...भावोऽनित्याशुद्धपर्यायार्थिको, ...कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभावोऽनित्यशुद्धपर्यायार्थिको, ...कर्मोपाधिसापेक्षस्वभावोऽनित्याशुद्धपर्यायार्थिको। = पर्यायार्थिक नय के छ: भेद कहते हैं–1. अनादि नित्य पर्यायार्थिकनय; 2. सादिनित्य पर्यायार्थिकनय; 3. स्वभाव नित्य अशुद्धपर्यायार्थिकनय; 4. स्वभाव अनित्य अशुद्धपर्यायार्थिकनय; 5. कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभाव अनित्य शुद्धपर्यायार्थिक नय; 6. कर्मोपाधि सापेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्धपर्यायार्थिकनय। - पर्यायार्थिक नयषट्क के लक्षण
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.6 भरतादिक्षेत्राणि हिमवदादिपर्वता: पद्मादिसरोवराणि, सुदर्शनादिमेरुनगा: लवणकालोदकादिसमुद्रा: एतानि मध्यस्थितानि कृत्वा परिणतसंख्यातद्वीपसमुद्रा: श्वभ्रपटलानि भवनवासिबाणव्यन्तरविमानानि चन्द्रार्कमण्डलादिज्योतिर्विमानानि सौधर्मकल्पादिस्वर्गपटलानि यथायोग्यस्थाने परिणताकृत्रिमचैत्यचैत्यालया: मोक्षशिलाश्च बृहद्वातवलयाश्च इत्येवमाद्यनेकाश्चर्यरूपेण परिणतपुद्गलपर्यायाद्यनेकद्रव्यपर्यायै: सह परिणतलोकमहास्कन्धपर्याया: त्रिकालस्थिता: सन्तोऽनादिनिधना इति अनादिनित्यपर्यायार्थिकनय:।1। शुद्धनिश्चयनयविवक्षामकृत्वा सकलकर्मक्षयोद्भूतचरमशरीराकारपर्यायपरिणतिरूपशुद्धसिद्धपर्याय: सादिनित्यपर्यायार्थिकनय:।2। अगुरुलघुकादिगुणा: स्वभावेन षट्हानिषड्वृद्धिरूपक्षणभङ्गपर्यायपरिणतोऽपरिणतसद्द्रव्यानन्तगुणपर्यायासंक्रमणदोषपरिहारेण द्रव्यं नित्यस्वरूपेऽवतिष्ठमानमिति सत्तासापेक्षस्वभाव-नित्यशुद्ध-पर्यायार्थिकनय:।3। सद्गुणविवक्षाभावेन ध्रौव्योत्पत्तिव्ययाधीनतया द्रव्यं विनाशोत्पत्तिस्वरूपमिति सत्तानिरपेक्षोत्पादव्ययग्राहकस्वभावानित्याशुद्धपर्यायार्थिकनय:।4। चराचरपर्यायपरिणतसमस्तसंसारिजीवनिकायेषु शुद्धसिद्धपर्यायविवक्षाभावेन कर्मोपाधिनिरपेक्ष विभावनित्यशुद्धपर्यायार्थिकनय:।5। शुद्धपर्यायविवक्षाभावेन कर्मोपाधिसंजनितनारकादिविभावपर्याया: जीवस्वरूपमिति कर्मोपाधिसापेक्ष–विभावानित्याशुद्धपर्यायार्थिकनय:।6। =- भरत आदि क्षेत्र, हिमवान आदि पर्वत, पद्म आदि सरोवर, सुदर्शन आदि मेरु, लवण व कालोद आदि समुद्र, इनको मध्यरूप या केन्द्ररूप करके स्थित असंख्यात द्वीप समुद्र, नरक पटल, भवनवासी व व्यन्तर देवों के विमान, चन्द्र व सूर्य मण्डल आदि ज्योतिषी देवों के विमान, सौधर्मकल्प आदि स्वर्गों के पटल, यथायोग्य स्थानों में परिणत अकृत्रिम चैत्यचैत्यालय, मोक्षशिला, बृहद् वातवलय तथा इन सबको आदि लेकर अन्य भी आश्चर्यरूप परिणत जो पुद्गल पर्याय तथा उनके साथ परिणत लोकरूप महास्कन्ध पर्याय जो कि त्रिकाल स्थित रहते हुए अनादिनिधन हैं, इनको विषय करने वाला अर्थात् इनकी सत्ता को स्वीकार करने वाला अनादिनित्य पर्यायार्थिक नय है।
- (परमभाव ग्राहक) शुद्ध निश्चयनय को गौण करके, सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से उत्पन्न तथा चरमशरीर के आकाररूप पर्याय से परिणत जो शुद्ध सिद्धपर्याय है, उसको विषय करने वाला अर्थात् उसको सत् समझने वाला सादिनित्य पर्यायार्थिकनय है।
- (व्याख्या की अपेक्षा यह नं.4 है) पदार्थ में विद्यमान गुणों की अपेक्षा को मुख्य न करके उत्पाद व्यय ध्रौव्य के आधीनपने रूप से द्रव्य को विनाश व उत्पत्ति स्वरूप मानने वाला सत्तानिरपेक्ष या सत्तागौण उत्पादव्ययग्राहक स्वभाव अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है।
- (व्याख्या की अपेक्षा यह नं.3)–अगुरुलघु आदि गुण स्वभाव से ही षट्गुण हानि वृद्धिरूप क्षणभंग अर्थात् एकसमयवर्ती पर्याय से परिणत हो रहे हैं। तो भी सत् द्रव्य के अनन्तों गुण और पर्यायें परस्पर संक्रमण न करके अपरिणत अर्थात् अपने-अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं। द्रव्य को इस प्रकार का ग्रहण करने वाला नय सत्तासापेक्ष स्वभावनित्य शुद्धपर्यायार्थिकनय है।
- चराचर पर्याय परिणत संसारी जीवधारियों के समूह में शुद्ध सिद्धपर्याय की विवक्षा से कर्मोपाधि से निरपेक्ष विभावनित्य शुद्धपर्यायार्थिक नय है। (यहां पर संसाररूप विभाव में यह नय नित्य शुद्ध सिद्धपर्याय को जानने की विवक्षा रखते हुए संसारी जीवों को भी सिद्ध सदृश बताता है। इसी को आलापपद्धति में कर्मोपाधि निरपेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय कहा गया है।
- जो शुद्ध पर्याय की विवक्षा न करके कर्मोपाधि से उत्पन्न हुई नारकादि विभावपर्यायों को जीवस्वरूप बताता है वह कर्मोपाधिसापेक्ष विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है। (इसी को आलापपद्धति में कर्मोपाधिसापेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय कहा गया है।) ( आलापपद्धति/5 ); ( नयचक्र बृहद्/200-205 ) ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.9 पर उद्धृत श्लोक नं.1-6 तथा पृ.41/श्लोक 7-12)।