उद्योत: Difference between revisions
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<p class="SanskritPrakritSentence">[[भगवती आराधना]] / [[विजयोदयी टीका]]/ गाथा संख्या १/१४/९ उद्योतनं शङ्कादिनिरसनं सम्यक्त्वाराधना श्रुतनिरूपिते वस्तुनि.....संशयप्रतिसंज्ञिताया अपाकृतिः।....अनिश्चयो वैपरीत्यं वा ज्ञानस्य मलं, निश्चयेनानिश्चयव्युदासः। यथार्थतया वैपरीत्यस्य निरासो ज्ञानस्योद्योतनं भावनाविरहो मलं चारित्रस्य, तासु भावनासु वृत्तिरुद्योतनं चारित्रस्य। तपसोऽसंयमपरिणामः कलङ्कतया स्थितिस्तस्यापप्रकृतिः संयमभावनया तपस उद्योतनं।</p> | |||
<p class="HindiSentence">= शंका कांक्षा आदि दोषोंका दूर करना यह उद्योतन है। इसको सम्यक्त्वाराधना कहते हैं। जिसको संशय भी कहते हैं ऐसी शंकादिको अपने हृदयसे दूर करना (सम्यक्त्वका) उद्योतन है। निश्चय न होना अथवा उलटा निश्चय होना, यह ज्ञानका मल है। जब निश्चय होता है, तब अनिश्चय नहीं रहता। यथार्थ वस्तुज्ञान होनेसे विपरीतता चली जाती है। यह ज्ञानका उद्योतन है। भावनाओंका त्याग होना चारित्रका मल है अर्थात् भावनाओंमें तत्पर होना ही चारित्रका उद्योतन है। असंयम परिणाम होना, यह तपका कलंक है संयम-भावनामें तत्पर रहकर उस कलंकको हटाकर तपश्चरण निर्मल बनाना तपका उद्योतन है।</p> | |||
<p class="SanskritPrakritSentence">भौतिकलक्षण - ([[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ५/२४/२९६/१०) उद्योतश्चन्द्रमणिखद्योतादिप्रभवः प्रकाशः।</p> | |||
<p class="HindiSentence">= चन्द्र, मणि और जुगनु आदिके निमित्त जो प्रकाश पैदा होता है उसे उद्योत कहते हैं।</p> | |||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/२४/१९/४८९/२१). ([[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या ३/७१), ([[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या १६/५३)<br> | |||
<p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-१,२८/६०/९ उद्योतनमुद्योतः।</p> | |||
<p class="HindiSentence">= उद्योतन अर्थात् चमकने को उद्योत कहते हैं।</p> | |||
<p class="SanskritPrakritSentence">[[गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ३३/२६ अण्हूणपहाउज्जोओ।</p> | |||
<p class="HindiSentence">= उष्णता रहित प्रभाको उद्योत कहते हैं।</p> | |||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> उद्योत नाम कर्मका लक्षण </LI> </OL> | |||
<p class="SanskritPrakritSentence">[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ८/११/६९१/५ यन्निमित्तमुद्योतनं तदुद्योतनाम। तच्चन्द्रखद्योतादिषु वर्तते।</p> | |||
<p class="HindiSentence">= जिसके निमित्तसे शरीरमें उद्योत होता है वह उद्योत नाम-कर्म है। वह चन्द्रबिम्ब और जुगनु आदिमें होता है। </p> | |||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ८/११/१६/५७८/७); ([[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,१-१,२८/६०/९); ([[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,५,१०/३६५/१); ([[गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या ३३/२९/२१)<br> | |||
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Revision as of 07:50, 26 May 2009
- आध्यात्मिक लक्षण
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या १/१४/९ उद्योतनं शङ्कादिनिरसनं सम्यक्त्वाराधना श्रुतनिरूपिते वस्तुनि.....संशयप्रतिसंज्ञिताया अपाकृतिः।....अनिश्चयो वैपरीत्यं वा ज्ञानस्य मलं, निश्चयेनानिश्चयव्युदासः। यथार्थतया वैपरीत्यस्य निरासो ज्ञानस्योद्योतनं भावनाविरहो मलं चारित्रस्य, तासु भावनासु वृत्तिरुद्योतनं चारित्रस्य। तपसोऽसंयमपरिणामः कलङ्कतया स्थितिस्तस्यापप्रकृतिः संयमभावनया तपस उद्योतनं।
= शंका कांक्षा आदि दोषोंका दूर करना यह उद्योतन है। इसको सम्यक्त्वाराधना कहते हैं। जिसको संशय भी कहते हैं ऐसी शंकादिको अपने हृदयसे दूर करना (सम्यक्त्वका) उद्योतन है। निश्चय न होना अथवा उलटा निश्चय होना, यह ज्ञानका मल है। जब निश्चय होता है, तब अनिश्चय नहीं रहता। यथार्थ वस्तुज्ञान होनेसे विपरीतता चली जाती है। यह ज्ञानका उद्योतन है। भावनाओंका त्याग होना चारित्रका मल है अर्थात् भावनाओंमें तत्पर होना ही चारित्रका उद्योतन है। असंयम परिणाम होना, यह तपका कलंक है संयम-भावनामें तत्पर रहकर उस कलंकको हटाकर तपश्चरण निर्मल बनाना तपका उद्योतन है।
भौतिकलक्षण - (सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ५/२४/२९६/१०) उद्योतश्चन्द्रमणिखद्योतादिप्रभवः प्रकाशः।
= चन्द्र, मणि और जुगनु आदिके निमित्त जो प्रकाश पैदा होता है उसे उद्योत कहते हैं।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/२४/१९/४८९/२१). (तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या ३/७१), (द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या १६/५३)
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-१,२८/६०/९ उद्योतनमुद्योतः।
= उद्योतन अर्थात् चमकने को उद्योत कहते हैं।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या ३३/२६ अण्हूणपहाउज्जोओ।
= उष्णता रहित प्रभाको उद्योत कहते हैं।
- उद्योत नाम कर्मका लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ८/११/६९१/५ यन्निमित्तमुद्योतनं तदुद्योतनाम। तच्चन्द्रखद्योतादिषु वर्तते।
= जिसके निमित्तसे शरीरमें उद्योत होता है वह उद्योत नाम-कर्म है। वह चन्द्रबिम्ब और जुगनु आदिमें होता है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ८/११/१६/५७८/७); (धवला पुस्तक संख्या ६/१,१-१,२८/६०/९); (धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,१०/३६५/१); (गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ३३/२९/२१)