भोगोपभोग: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText" name="1" id="1"><strong>भोगोपभोग परिमाण व्रत </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1" id="1"><strong>भोगोपभोग परिमाण व्रत </strong></span><br /> | ||
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/82,84 <span class="SanskritGatha">अक्षार्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिणामं। अर्थवतामप्यवधौ रागरतीनां तनूकृतये।82। </span>=<span class="HindiText">राग रति आदि भावों को घटाने के लिए परिग्रह परिमाण व्रतकी की हुई मर्यादा में भी प्रयोजनभूत इन्द्रिय के विषयों का प्रतिदिन परिमाण कर लेना सो भोगोपभोगपरिमाण नामा गुणव्रत कहा जाता है।82। ( सागार धर्मामृत/5/13 )।</span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/7/21/361/9 <span class="SanskritText">तयोः परिमाणमुपभोगपरिभोगपरिमाणम्। ... यानवाहनाभरणादिष्वेतावदेवेष्टमतोऽन्यदनिष्टमित्यनिष्टान्निवर्तनं कर्त्तव्यं कालनियमेन यावज्जीवं वा यथाशक्तिः </span>=<span class="HindiText"> इनका (भोग व उपभोग का) परिणाम करना उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत है।.. यान, वाहन और आभरण आदि में हमारे लिए इतना ही इष्ट है, शेष सब अनिष्ट है इस प्रकार का विचार करके कुछ काल के लिए या जीवनभर के लिए शक्त्यनुसार जो अपने लिये अनिष्ट हो उसका त्याग कर देना चाहिए। ( राजवार्तिक/7/21/10/548/14;27/550/6 ); ( चारित्रसार/24/1 ); ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/165 ); (और भी देखें [[ आगे राजवार्तिक ]])।</span><br /> | |||
राजवार्तिक/7/21/27/550/7 <span class="SanskritText">न हि असत्यभिसन्धिनियमे व्रतमिति। इष्टानामपि चित्रवत्रविकृतवेषाभरणादीनामनुपसेव्यानां परित्याग: कार्य: यावज्जीवम्। अथ न शक्तिरस्ति कालपरिच्छेदेन वस्तु परिमाणेन च शक्त्यनुरूपं निवर्तनं कार्यम्।</span> = <span class="HindiText">जो विचित्र प्रकार के वत्र, विकृतवेष, आभरण आदि शिष्टजनों के उपसेव्य–धारण करने लायक नहीं हैं वे अपने को अच्छे भी लगते हों तब भी उनका यावत् जीवन परित्याग कर देना चाहिए। यदि वैसी शक्ति नहीं है तो अमुक समय की मर्यादा से अमुक वस्तुओं का परिमाण करके निवृत्ति करनी चाहिए। ( चारित्रसार/24/1 )। </span><br /> | |||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/350 <span class="PrakritGatha"> जाणित्ता संपत्ती भोयण-तंबोल-वत्थमादीणं। जं परिमाणं कीरदि भोउवभोयं वयं तस्स।350।</span> =<span class="HindiText"> जो अपनी सामर्थ्य जानकर, ताम्बूल, वत्र आदि का परिमाण करता है, उसको भोगोपभोग परिमाण नाम का गुणव्रत होता है।30।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> भोगोपभोग व्रत के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> भोगोपभोग व्रत के भेद</strong> </span><br /> | ||
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/87 <span class="SanskritText"> नियमो यमश्च विहितौ द्वेधा भोगोपभोगसंहारनियम: परिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते।87। </span>=<span class="HindiText"> भोगोपभोग के त्याग में नियम और यम दो प्रकार का त्याग-विधान किया गया है। जिसमें काल की मर्यादा है वह तो नियम कहलाता है, जो जीवनपर्यन्त धारण किया जाता है, वह यम है। ( सागार धर्मामृत/5/14 )।</span><br /> | |||
राजवार्तिक/7/21/27/550/1 <span class="SanskritText">भोगपरिसंख्यानं पञ्चविधं त्रसघातप्रमादबहुविधानिष्टानुपसेव्यविषयभेदात्।</span> = <span class="HindiText">त्रसघात, बहुघात, प्रमाद, अनिष्ट और अनुपसेव्य रूप विषयों के भेद से भोगोपभोग परिमाण व्रत पाँच प्रकार का हो जाता है। ( चारित्रसार/23/3 ); ( सागार धर्मामृत/5/15 )।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> नियम धारण करने की विधि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> नियम धारण करने की विधि</strong> </span><br /> | ||
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/88-89 <span class="SanskritGatha">भोजनवाहनशयननानपवित्राङ्गरागकुसुमेषु। ताम्बूलवसनभूषणमन्मथसंगीतगीतेषु।88। अद्य दिवा रजनी वा पक्षो मासस्तथार्तुरयनं वा। इति कालपरिच्छित्त्या प्रत्याख्यानं भवेन्नियम:।89।</span> = <span class="HindiText">भोजन, सवारी, शयन, नान, कुंकुमादिलेपन, पुष्पमाला, ताम्बूल, वत्र, अलंकार, कामभोग, संगीत और गीत इन विषयों में आज एक दिन अथवा एक रात, एक पक्ष, एक मास तथा दो मास अथवा छह मास ऋतु, अयन इस प्रकार काल के विभाग से त्याग करना नियम है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/7/35 <span class="SanskritText">सचित्तसंबन्धसंमिश्राभिषवदुष्पक्वाहार:।35।</span> = <span class="HindiText">सचित्ताहार, सचित्तसम्बन्धाहार, सम्मिश्राहार, अभिषवाहार और दु:पक्वाहार ये उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत के पाँच अतिचार हैं।35। ( सागार धर्मामृत/5/20 ); ( चारित्रसार/25/1 )।</span><br /> | |||
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/90 <span class="SanskritGatha"> विषयविषतोऽनुपेक्षानुस्मृतिरतिलौल्यमतितृषानुभवौ। भोगोपभोगपरिमाणव्यतिक्रमा: पञ्च कथ्यन्ते।90। </span>= <span class="HindiText">विषयरूपी विष की उपेक्षा नहीं करना, पूर्वकाल में भोगे हुए विषयों का स्मरण रखना, वर्तमान के विषयों में अति लालसा रखना, भविष्य में विषय प्राप्ति की तृष्णा रखना, और विषय नहीं भोगते भी विषय भोगता हूँ ऐसा अनुभव करना ये पाँच भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार हैं।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> दुःपक्व आहार में क्या दोष है ?</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> दुःपक्व आहार में क्या दोष है ?</strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/7/35/6/558/16 <span class="SanskritText"> तस्याभ्यवहारे को दोष:। इन्द्रियमदवृद्धि: स्यात्, सचित्तप्रयोगो वा वातादिप्रकोपो वा, तत्प्रतीकारविधाने स्यात् पापलेप:, अतिथयश्चैनं परिहरेयुरिति।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–उस (दुष्पक्क व सचित्त पदार्थ का ) आहार करने में क्या दोष है ? <strong>उत्तर</strong>–इनके भोजन से इन्द्रियाँ मत्त हो जाती हैं। सचित्त प्रयोग से वायु आदि दोषों का प्रकोप हो सकता है, और उसका प्रतिकार करने में पाप लगता है, अतिथि उसे छोड़ भी देते हैं। ( चारित्रसार/25/4 )।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong> भोगोपभोग परिमाण व्रती को सचित्तादि ग्रहण कैसे हो सकता है </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong> भोगोपभोग परिमाण व्रती को सचित्तादि ग्रहण कैसे हो सकता है </strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/7/35/4/558/11 <span class="SanskritText">कथं पुनरस्य सचित्तादिषु वृत्तिः। प्रमादसंमोहाभ्यां सचित्तादिषु वृत्ति:। क्षुत्पिपासातुरत्वात् त्वरमाणस्य सचित्तादिषु अशनाय पापानायानुलेपनाय परिधानाय वा वृत्तिर्भवति।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–इस भोगोपभोग परिमाण व्रतधारी की सचित्तादि पदार्थों में वृत्ति कैसे हो सकती है?<strong>उत्तर</strong>–प्रमाद तथा मोह के कारण क्षुधा, तृषा आदि से पीड़ित व्यक्ति की जल्दी-जल्दी में सचित्त आदि भोजन, पान, अनुलेपन तथा परिधान आदि में प्रवृत्ति हो जाती है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="7" id="7"><strong> सचित्त-सम्बन्ध व सम्मिश्र में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="7" id="7"><strong> सचित्त-सम्बन्ध व सम्मिश्र में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/7/35/2-4/558/4 <span class="SanskritText">तेन चित्तवता द्रव्येणोपश्लिष्ट: संबन्ध इत्याख्यायते।3। तेन सचित्तेन द्रव्येण व्यतिकीर्ण: संमिश्र इति कथ्यते।4। त्यान्मतम्–संबन्धेनाविशिष्ट: संमिश्र इति। तन्न। किं कारणम्। तत्र संसर्गमात्रत्वात्। सचित्तसंबन्धे हि संसर्गमात्रं विवक्षितम्, इह तु सूक्ष्मजन्तुव्याकुलत्वे विभागीकरणस्याशक्यत्वात् नानाजातीयद्रव्यसमाहार: सूक्ष्मजन्तुप्रायआहार: संमिश्र इष्ट:।</span> = <span class="HindiText">सचित्त से उपश्लिष्ट या संसर्ग को प्राप्त सचित्त-सम्बन्ध कहलाता है।3। और उससे व्यतिकीर्ण संमिश्र कहलाता है।4। <strong>प्रश्न</strong>–सम्बन्ध से अवशिष्ट ही संमिश्र है। इन दोनों में अन्तर ही क्या है।<strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि, सम्बन्ध में केवल संसर्ग विवक्षित है तथा संमिश्र में सूक्ष्म जन्तुओं से आहार ऐसा मिला हुआ होता है जिसका विभाग न किया जा सके। नाना जातीय द्रव्यों से मिलकर बना हुआ आहार सूक्ष्म जन्तुओं का स्थान होता है, उसे सम्मिश्र कहते हैं। ( चारित्रसार/25/2 )।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="8" id="8"><strong> भोगोपभोग परिमाण व्रत का महत्त्व</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="8" id="8"><strong> भोगोपभोग परिमाण व्रत का महत्त्व</strong> </span><br /> | ||
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/158, 166 <span class="PrakritGatha">भोगोपभोगहेतो: स्थावरहिंसा भूवेत्किलामीषाम्। भोगोपभोगविरहाद्भवति न लेशोऽपि हिंसाया:।158। इति य: परिमितिभोगै: संतुष्टस्त्यजति बहुतरान् भोगान्। बहुतरहिंसाविरहात्तस्याहिंसाविशिष्टा स्यात्।166। </span>= <span class="HindiText">निश्चय करके इन देशव्रती श्रावकों के भोगोपभोग के हेतु से स्थावर जीवों की हिंसा होती है, किन्तु उपवासधारी पुरुष के भोग उपभोग के त्याग से लेशमात्र भी हिंसा नहीं होती है।158। जो गृहस्थ इस प्रकार मर्यादारूप भोगों से तृप्त होकर अधिकतर भोगों को छोड़ देता है, उसका बहुत हिंसा के त्याग से उत्तम अहिंसाव्रत होता है, अर्थात् अहिंसा व्रत का उत्कर्ष होता है।166।</span></li> | |||
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Revision as of 19:13, 17 July 2020
- भोगोपभोग परिमाण व्रत
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/82,84 अक्षार्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिणामं। अर्थवतामप्यवधौ रागरतीनां तनूकृतये।82। =राग रति आदि भावों को घटाने के लिए परिग्रह परिमाण व्रतकी की हुई मर्यादा में भी प्रयोजनभूत इन्द्रिय के विषयों का प्रतिदिन परिमाण कर लेना सो भोगोपभोगपरिमाण नामा गुणव्रत कहा जाता है।82। ( सागार धर्मामृत/5/13 )।
सर्वार्थसिद्धि/7/21/361/9 तयोः परिमाणमुपभोगपरिभोगपरिमाणम्। ... यानवाहनाभरणादिष्वेतावदेवेष्टमतोऽन्यदनिष्टमित्यनिष्टान्निवर्तनं कर्त्तव्यं कालनियमेन यावज्जीवं वा यथाशक्तिः = इनका (भोग व उपभोग का) परिणाम करना उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत है।.. यान, वाहन और आभरण आदि में हमारे लिए इतना ही इष्ट है, शेष सब अनिष्ट है इस प्रकार का विचार करके कुछ काल के लिए या जीवनभर के लिए शक्त्यनुसार जो अपने लिये अनिष्ट हो उसका त्याग कर देना चाहिए। ( राजवार्तिक/7/21/10/548/14;27/550/6 ); ( चारित्रसार/24/1 ); ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/165 ); (और भी देखें आगे राजवार्तिक )।
राजवार्तिक/7/21/27/550/7 न हि असत्यभिसन्धिनियमे व्रतमिति। इष्टानामपि चित्रवत्रविकृतवेषाभरणादीनामनुपसेव्यानां परित्याग: कार्य: यावज्जीवम्। अथ न शक्तिरस्ति कालपरिच्छेदेन वस्तु परिमाणेन च शक्त्यनुरूपं निवर्तनं कार्यम्। = जो विचित्र प्रकार के वत्र, विकृतवेष, आभरण आदि शिष्टजनों के उपसेव्य–धारण करने लायक नहीं हैं वे अपने को अच्छे भी लगते हों तब भी उनका यावत् जीवन परित्याग कर देना चाहिए। यदि वैसी शक्ति नहीं है तो अमुक समय की मर्यादा से अमुक वस्तुओं का परिमाण करके निवृत्ति करनी चाहिए। ( चारित्रसार/24/1 )।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/350 जाणित्ता संपत्ती भोयण-तंबोल-वत्थमादीणं। जं परिमाणं कीरदि भोउवभोयं वयं तस्स।350। = जो अपनी सामर्थ्य जानकर, ताम्बूल, वत्र आदि का परिमाण करता है, उसको भोगोपभोग परिमाण नाम का गुणव्रत होता है।30। - भोगोपभोग व्रत के भेद
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/87 नियमो यमश्च विहितौ द्वेधा भोगोपभोगसंहारनियम: परिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते।87। = भोगोपभोग के त्याग में नियम और यम दो प्रकार का त्याग-विधान किया गया है। जिसमें काल की मर्यादा है वह तो नियम कहलाता है, जो जीवनपर्यन्त धारण किया जाता है, वह यम है। ( सागार धर्मामृत/5/14 )।
राजवार्तिक/7/21/27/550/1 भोगपरिसंख्यानं पञ्चविधं त्रसघातप्रमादबहुविधानिष्टानुपसेव्यविषयभेदात्। = त्रसघात, बहुघात, प्रमाद, अनिष्ट और अनुपसेव्य रूप विषयों के भेद से भोगोपभोग परिमाण व्रत पाँच प्रकार का हो जाता है। ( चारित्रसार/23/3 ); ( सागार धर्मामृत/5/15 )। - नियम धारण करने की विधि
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/88-89 भोजनवाहनशयननानपवित्राङ्गरागकुसुमेषु। ताम्बूलवसनभूषणमन्मथसंगीतगीतेषु।88। अद्य दिवा रजनी वा पक्षो मासस्तथार्तुरयनं वा। इति कालपरिच्छित्त्या प्रत्याख्यानं भवेन्नियम:।89। = भोजन, सवारी, शयन, नान, कुंकुमादिलेपन, पुष्पमाला, ताम्बूल, वत्र, अलंकार, कामभोग, संगीत और गीत इन विषयों में आज एक दिन अथवा एक रात, एक पक्ष, एक मास तथा दो मास अथवा छह मास ऋतु, अयन इस प्रकार काल के विभाग से त्याग करना नियम है। - भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार
तत्त्वार्थसूत्र/7/35 सचित्तसंबन्धसंमिश्राभिषवदुष्पक्वाहार:।35। = सचित्ताहार, सचित्तसम्बन्धाहार, सम्मिश्राहार, अभिषवाहार और दु:पक्वाहार ये उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत के पाँच अतिचार हैं।35। ( सागार धर्मामृत/5/20 ); ( चारित्रसार/25/1 )।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/90 विषयविषतोऽनुपेक्षानुस्मृतिरतिलौल्यमतितृषानुभवौ। भोगोपभोगपरिमाणव्यतिक्रमा: पञ्च कथ्यन्ते।90। = विषयरूपी विष की उपेक्षा नहीं करना, पूर्वकाल में भोगे हुए विषयों का स्मरण रखना, वर्तमान के विषयों में अति लालसा रखना, भविष्य में विषय प्राप्ति की तृष्णा रखना, और विषय नहीं भोगते भी विषय भोगता हूँ ऐसा अनुभव करना ये पाँच भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार हैं। - दुःपक्व आहार में क्या दोष है ?
राजवार्तिक/7/35/6/558/16 तस्याभ्यवहारे को दोष:। इन्द्रियमदवृद्धि: स्यात्, सचित्तप्रयोगो वा वातादिप्रकोपो वा, तत्प्रतीकारविधाने स्यात् पापलेप:, अतिथयश्चैनं परिहरेयुरिति। = प्रश्न–उस (दुष्पक्क व सचित्त पदार्थ का ) आहार करने में क्या दोष है ? उत्तर–इनके भोजन से इन्द्रियाँ मत्त हो जाती हैं। सचित्त प्रयोग से वायु आदि दोषों का प्रकोप हो सकता है, और उसका प्रतिकार करने में पाप लगता है, अतिथि उसे छोड़ भी देते हैं। ( चारित्रसार/25/4 )। - भोगोपभोग परिमाण व्रती को सचित्तादि ग्रहण कैसे हो सकता है
राजवार्तिक/7/35/4/558/11 कथं पुनरस्य सचित्तादिषु वृत्तिः। प्रमादसंमोहाभ्यां सचित्तादिषु वृत्ति:। क्षुत्पिपासातुरत्वात् त्वरमाणस्य सचित्तादिषु अशनाय पापानायानुलेपनाय परिधानाय वा वृत्तिर्भवति। = प्रश्न–इस भोगोपभोग परिमाण व्रतधारी की सचित्तादि पदार्थों में वृत्ति कैसे हो सकती है?उत्तर–प्रमाद तथा मोह के कारण क्षुधा, तृषा आदि से पीड़ित व्यक्ति की जल्दी-जल्दी में सचित्त आदि भोजन, पान, अनुलेपन तथा परिधान आदि में प्रवृत्ति हो जाती है। - सचित्त-सम्बन्ध व सम्मिश्र में अन्तर
राजवार्तिक/7/35/2-4/558/4 तेन चित्तवता द्रव्येणोपश्लिष्ट: संबन्ध इत्याख्यायते।3। तेन सचित्तेन द्रव्येण व्यतिकीर्ण: संमिश्र इति कथ्यते।4। त्यान्मतम्–संबन्धेनाविशिष्ट: संमिश्र इति। तन्न। किं कारणम्। तत्र संसर्गमात्रत्वात्। सचित्तसंबन्धे हि संसर्गमात्रं विवक्षितम्, इह तु सूक्ष्मजन्तुव्याकुलत्वे विभागीकरणस्याशक्यत्वात् नानाजातीयद्रव्यसमाहार: सूक्ष्मजन्तुप्रायआहार: संमिश्र इष्ट:। = सचित्त से उपश्लिष्ट या संसर्ग को प्राप्त सचित्त-सम्बन्ध कहलाता है।3। और उससे व्यतिकीर्ण संमिश्र कहलाता है।4। प्रश्न–सम्बन्ध से अवशिष्ट ही संमिश्र है। इन दोनों में अन्तर ही क्या है।उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि, सम्बन्ध में केवल संसर्ग विवक्षित है तथा संमिश्र में सूक्ष्म जन्तुओं से आहार ऐसा मिला हुआ होता है जिसका विभाग न किया जा सके। नाना जातीय द्रव्यों से मिलकर बना हुआ आहार सूक्ष्म जन्तुओं का स्थान होता है, उसे सम्मिश्र कहते हैं। ( चारित्रसार/25/2 )। - भोगोपभोग परिमाण व्रत का महत्त्व
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/158, 166 भोगोपभोगहेतो: स्थावरहिंसा भूवेत्किलामीषाम्। भोगोपभोगविरहाद्भवति न लेशोऽपि हिंसाया:।158। इति य: परिमितिभोगै: संतुष्टस्त्यजति बहुतरान् भोगान्। बहुतरहिंसाविरहात्तस्याहिंसाविशिष्टा स्यात्।166। = निश्चय करके इन देशव्रती श्रावकों के भोगोपभोग के हेतु से स्थावर जीवों की हिंसा होती है, किन्तु उपवासधारी पुरुष के भोग उपभोग के त्याग से लेशमात्र भी हिंसा नहीं होती है।158। जो गृहस्थ इस प्रकार मर्यादारूप भोगों से तृप्त होकर अधिकतर भोगों को छोड़ देता है, उसका बहुत हिंसा के त्याग से उत्तम अहिंसाव्रत होता है, अर्थात् अहिंसा व्रत का उत्कर्ष होता है।166।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- इस व्रत में कन्द, मूल, पत्र, पुष्प आदि का त्याग।–देखें भक्ष्याभक्ष्य ।
- इस व्रत में मद्य, मांस, मधु का त्याग।–देखें वह वह नाम ।
- व्रत व भोगोपभोगानर्थक्य नामा अतिचार में अन्तर।–देखें अनर्थदण्ड ।
- भोगोपभोग परिमाण व्रत तथा सचित्त-त्याग प्रतिमा में अन्तर।–देखें सचित्त ।