वैजयंत: Difference between revisions
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<p id="1"> (1) जंबूद्वीप का एक द्वार । यह आठ योजन ऊँचा, चार योजन चौड़ा, नाना रत्नों की किरणों से अनुरंजित और वज्रमय दैदीप्यमान किवाड़ों से युक्त है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.390-391 </span></p> | |||
<p id="2">(2) विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी का छठा नगर । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 22.86 </span></p> | |||
<p id="3">(3) विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी का दसवाँ नगर । <span class="GRef"> महापुराण 19.50 53, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 22.94 </span></p> | |||
<p id="4">(4) दक्षिण-समुद्र का तटवर्ती एक महाद्वार । भरतेश ने इस द्वार के निकट अपनी सेना ठहराई थी । इस क्षेत्र का स्वामी वरतनु देव था । <span class="GRef"> महापुराण 29.103, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 11.13 </span></p> | |||
<p id="5">(5) चक्रवर्ती भरतेश के एक महल का नाम । <span class="GRef"> महापुराण 37.147 </span></p> | |||
<p id="6">(6) पाँच अनुत्तर विमानों में एक विमान । <span class="GRef"> महापुराण 51.15 </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 105. 170-171, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 6.65 </span></p> | |||
<p id="7">(7) समुद्र का एक गोपुर लक्ष्मण ने यहाँ वरतनु देव को पराजित करके उससे कटक, केयूर, चुड़ामणिहार और कटिसूत्र भेट में प्रांत किये थे । <span class="GRef"> महापुराण 68.651-652 </span></p> | |||
<p id="8">(8) भरतक्षेत्र का एक नगर । रामपुरी से चलकर राम इसी नगर के समीप ठहरे थे । <span class="GRef"> पद्मपुराण 36. 9-11 </span></p> | |||
<p id="9">(9) जंबूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में गंधमालिनी देश के वीतशोक नगर का राजा । इसकी रानी सर्वश्री तथा संजयंत और जयंत पुत्र थे । भोगों से विरक्त होने पर इतने संजयंत के पुत्र वैजयंत को राज्य देकर पिता के साथ स्वयंभू मुनि से संयम धारण कर लिया था । यह कषायों का क्षय करके अंत में केवली हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 59.109-113, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 27.5-8 </span></p> | |||
<p id="10">(10) जंबूद्वीप-विदेहक्षेत्र के गंधमालिनी देश में वीतशोकपुर के स्वामी का प्रपौत्र और संजयंत का पुत्र । <span class="GRef"> महापुराण 59.109-112 </span></p> | |||
<p id="11">(11) जंबूद्वीप के पूर्वविदेहक्षेत्र में स्थित पुष्पकलावती देश की पुंडरीकिणी नगरी के राजा वज्रसेन और रानी श्रीकांता का पुत्र । <span class="GRef"> महापुराण 11.8-10 </span></p> | |||
<p id="12">(12) समवसरण-भूमि के तीसरे कोट के दक्षिण द्वार का प्रथम नाम । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 57. 58 </span></p> | |||
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Revision as of 16:36, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- विजयार्ध की दक्षिण व उत्तर श्रेणी के दो नगर।–देखें विद्याधर ।
- एक ग्रह–देखें ग्रह ।
- एक यक्ष–देखें यक्ष ।
- स्वर्ग के पंच अनुत्तर विमानों में से एक।–देखें स्वर्ग - 3, 5।
- जंबूद्वीप की वेदिका का दक्षिण द्वार–देखें लोक - 3.1।
पुराणकोष से
(1) जंबूद्वीप का एक द्वार । यह आठ योजन ऊँचा, चार योजन चौड़ा, नाना रत्नों की किरणों से अनुरंजित और वज्रमय दैदीप्यमान किवाड़ों से युक्त है । हरिवंशपुराण 5.390-391
(2) विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी का छठा नगर । हरिवंशपुराण 22.86
(3) विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी का दसवाँ नगर । महापुराण 19.50 53, हरिवंशपुराण 22.94
(4) दक्षिण-समुद्र का तटवर्ती एक महाद्वार । भरतेश ने इस द्वार के निकट अपनी सेना ठहराई थी । इस क्षेत्र का स्वामी वरतनु देव था । महापुराण 29.103, हरिवंशपुराण 11.13
(5) चक्रवर्ती भरतेश के एक महल का नाम । महापुराण 37.147
(6) पाँच अनुत्तर विमानों में एक विमान । महापुराण 51.15 पद्मपुराण 105. 170-171, हरिवंशपुराण 6.65
(7) समुद्र का एक गोपुर लक्ष्मण ने यहाँ वरतनु देव को पराजित करके उससे कटक, केयूर, चुड़ामणिहार और कटिसूत्र भेट में प्रांत किये थे । महापुराण 68.651-652
(8) भरतक्षेत्र का एक नगर । रामपुरी से चलकर राम इसी नगर के समीप ठहरे थे । पद्मपुराण 36. 9-11
(9) जंबूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में गंधमालिनी देश के वीतशोक नगर का राजा । इसकी रानी सर्वश्री तथा संजयंत और जयंत पुत्र थे । भोगों से विरक्त होने पर इतने संजयंत के पुत्र वैजयंत को राज्य देकर पिता के साथ स्वयंभू मुनि से संयम धारण कर लिया था । यह कषायों का क्षय करके अंत में केवली हुआ । महापुराण 59.109-113, हरिवंशपुराण 27.5-8
(10) जंबूद्वीप-विदेहक्षेत्र के गंधमालिनी देश में वीतशोकपुर के स्वामी का प्रपौत्र और संजयंत का पुत्र । महापुराण 59.109-112
(11) जंबूद्वीप के पूर्वविदेहक्षेत्र में स्थित पुष्पकलावती देश की पुंडरीकिणी नगरी के राजा वज्रसेन और रानी श्रीकांता का पुत्र । महापुराण 11.8-10
(12) समवसरण-भूमि के तीसरे कोट के दक्षिण द्वार का प्रथम नाम । हरिवंशपुराण 57. 58