सातिशय अप्रमत्त: Difference between revisions
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देखें [[ संयत#1.4 | संयत - 1.4]]। | <span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/45/97/8 </span><span class="SanskritText">स्वस्थानाप्रमत्त: सातिशयप्रमत्तश्चेति द्वौ भेदौ। तत्र स्वस्थानाप्रमत्तसंयतस्वरूपं निरूपयति।</span> =<span class="HindiText">अप्रमत्त संयत के स्वस्थान अप्रमत्त और '''सातिशय अप्रमत्त''' ऐसे दो भेद हैं। तहाँ स्वस्थान अप्रमत्तसंयत का स्वरूप कहते हैं। [मूल व उत्तर गुणों से मंडित, व्यक्त व अव्यक्त प्रमाद से रहित, कषायों का अनुपशामक व अक्षपक होते हुए भी ध्यान में लीन अप्रमत्तसंयत स्वस्थान अप्रमत्त कहलाता है ।</span> | ||
<span class="GRef"> लब्धिसार/ जीव तत्त्व प्रदीपिका/220/273/7 </span><span class="SanskritText">चारित्रमोहोपशमने कर्त्तव्ये अध:प्रवृत्तकरणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरण ...चेत्यष्टाधिकारा भवंति। तेष्वध:प्रवृत्तकरणं सातिशयाप्रमत्तसंयत:...यथा प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखसातिशयमिथ्यादृष्टेर्भणितानि...।</span> =<span class="HindiText">उपशमचारित्र के सम्मुख वेदक सम्यग्दृष्टि जीव (अप्रमत्त गुणस्थान में) अनंतानुबंधी का विसंयोजन करके अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत अध:प्रवृत्त अप्रमत्त कहलाता है।205। चारित्र मोह के उपशमन में अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण आदि आठ अधिकार होते हैं। उनमें से जो अध:प्रवृत्तकरण, अप्रमत्तसंयत है वह '''सातिशय अप्रमत्त''' कहलाता है, जिस प्रकार कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व के सम्मुख जीव सातिशय मिथ्यादृष्टि होता है।</span><br> | |||
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गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/45/97/8 स्वस्थानाप्रमत्त: सातिशयप्रमत्तश्चेति द्वौ भेदौ। तत्र स्वस्थानाप्रमत्तसंयतस्वरूपं निरूपयति। =अप्रमत्त संयत के स्वस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त ऐसे दो भेद हैं। तहाँ स्वस्थान अप्रमत्तसंयत का स्वरूप कहते हैं। [मूल व उत्तर गुणों से मंडित, व्यक्त व अव्यक्त प्रमाद से रहित, कषायों का अनुपशामक व अक्षपक होते हुए भी ध्यान में लीन अप्रमत्तसंयत स्वस्थान अप्रमत्त कहलाता है ।
लब्धिसार/ जीव तत्त्व प्रदीपिका/220/273/7 चारित्रमोहोपशमने कर्त्तव्ये अध:प्रवृत्तकरणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरण ...चेत्यष्टाधिकारा भवंति। तेष्वध:प्रवृत्तकरणं सातिशयाप्रमत्तसंयत:...यथा प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखसातिशयमिथ्यादृष्टेर्भणितानि...। =उपशमचारित्र के सम्मुख वेदक सम्यग्दृष्टि जीव (अप्रमत्त गुणस्थान में) अनंतानुबंधी का विसंयोजन करके अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत अध:प्रवृत्त अप्रमत्त कहलाता है।205। चारित्र मोह के उपशमन में अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण आदि आठ अधिकार होते हैं। उनमें से जो अध:प्रवृत्तकरण, अप्रमत्तसंयत है वह सातिशय अप्रमत्त कहलाता है, जिस प्रकार कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व के सम्मुख जीव सातिशय मिथ्यादृष्टि होता है।
अधिक जानकारी के लिये देखें संयत - 1.4।