सुपार्श्व: Difference between revisions
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<p id="1"> (1) सातवें | <p id="1"> (1) सातवें तीर्थंकर । ये अवसर्पिणी काल के दु:षमा-सुषमा चौथे काल में उत्पन्न हुए थे । जंबूदीप के भरतक्षेत्र में काशी देश की वाराणसी नगरी के राजा सुप्रतिष्ठ की रानी पृथिवीषेणा के गर्भ में ये भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन विशाखा नक्षत्र में स्वर्ग से अवतरित हुए थे । इनका जन्म ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन अग्निमित्र नामक शुभ योग में हुआ था । इनका यह नाम जन्माभिषेक करने के पश्चात् इंद्र ने रखा था । इनके चरणों में स्वस्तिक चिह्न था । इनकी आयु बीस लाख पूर्व वर्ष की थी । शरीर दो मौ धनुष ऊँचा था । इन्होंने कुमारकाल के पांच लाख वर्ष बीत जाने पर धन का त्याग (दान) करने के लिए साम्राज्य स्वीकार किया था । इनके नि:स्वेदत्व आदि आठ अतिशय तथा <span class="GRef"> पद्मपुराण </span>और <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span>के अनुसार दश अतिशय प्रकट हुए थे । इनकी आयु अनपवर्त्य थी । वर्ण प्रियंगु पुष्प के समान था । बीस पूर्वांग कम एक लाख पूर्व की आयु शेष रहने पर इन्हें वैराग्य हुआ । ये मनोगति नामक शिविका पर आरूढ़ होकर सहेतुक वन गये तथा वहाँ इन्होंने ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन सायं बेला में एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण किया । संयमी होते ही इन्हें मन:पर्ययज्ञान हुआ । सोमखेट नगर के राजा महेंद्रदत्त ने इन्हें आहार दिया था । ये छद्मस्थ अवस्था में नौ वर्ष तक मौन रहे । सहेतुक वन में शिरीष वृक्ष के नीचे फाल्गुन कृष्ण षष्ठी के दिन सायंकाल के समय इन्हें केवलज्ञान हुआ था । इनके चतुर्विध संघ में पंचानवें गणधर, दो हजार तीस पूर्वधारी, दो लाख चवालीस हजार नौ सौ बीस शिक्षक, नौ हजार हजार अवधिज्ञानी, ग्यारह हजार केवलज्ञानी, पंद्रह हजार तीन सौ विक्रिया ऋद्धिधारी, नौ हजार एक सौ पचास मन:पर्ययज्ञानी, आठ हजार छ: सौ वादी, इस प्रकार कुल तीन लाख मुनि, तीन लाख तीस हजार आर्यिकाएं, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकाएँ, असंख्य न देव-देवियां और संख्यात तिर्यंच थे । विहार करते हुए आयु का एक मास शेष रहने पर ये सम्मेदशिखर आये । यहाँ एक हजार मुनियों के साथ इन्होंने प्रतिमायोग धारण कर फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन विशाखा नक्षत्र में सूर्योदय के समय मोक्ष प्राप्त किया था । दूसरे पूर्वभव में ये धातकीखंड के पूर्व विदेहक्षेत्र में सुकच्छ देश के क्षेमपुर नगर के नंदिषेण नामक नृप थे । प्रथम पूर्वभव में मध्यम ग्रैवेयक के सुभद्र नामक मध्यम विमान में अहमिंद्र रहे । <span class="GRef"> महापुराण 53.2-53, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण </span>2.89-90, <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span>1.9, 3.10-11, 13.32, <span class="GRef"> पांडवपुराण 12.1, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.27, 101-105 </span></p> | ||
<p id="2">(2) आगामी दूसरे तीर्थंकर सुरदेव के पूर्वभव का जीव । <span class="GRef"> महापुराण 76. 471, 477 </span></p> | <p id="2">(2) आगामी दूसरे तीर्थंकर सुरदेव के पूर्वभव का जीव । <span class="GRef"> महापुराण 76. 471, 477 </span></p> | ||
<p id="3">(3) आगामी तीसरे तीर्थंकर । <span class="GRef"> महापुराण 76. 477, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span>60.558 </p> | <p id="3">(3) आगामी तीसरे तीर्थंकर । <span class="GRef"> महापुराण 76. 477, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span>60.558 </p> |
Revision as of 16:39, 19 August 2020
(1) सातवें तीर्थंकर । ये अवसर्पिणी काल के दु:षमा-सुषमा चौथे काल में उत्पन्न हुए थे । जंबूदीप के भरतक्षेत्र में काशी देश की वाराणसी नगरी के राजा सुप्रतिष्ठ की रानी पृथिवीषेणा के गर्भ में ये भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन विशाखा नक्षत्र में स्वर्ग से अवतरित हुए थे । इनका जन्म ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन अग्निमित्र नामक शुभ योग में हुआ था । इनका यह नाम जन्माभिषेक करने के पश्चात् इंद्र ने रखा था । इनके चरणों में स्वस्तिक चिह्न था । इनकी आयु बीस लाख पूर्व वर्ष की थी । शरीर दो मौ धनुष ऊँचा था । इन्होंने कुमारकाल के पांच लाख वर्ष बीत जाने पर धन का त्याग (दान) करने के लिए साम्राज्य स्वीकार किया था । इनके नि:स्वेदत्व आदि आठ अतिशय तथा पद्मपुराण और हरिवंशपुराण के अनुसार दश अतिशय प्रकट हुए थे । इनकी आयु अनपवर्त्य थी । वर्ण प्रियंगु पुष्प के समान था । बीस पूर्वांग कम एक लाख पूर्व की आयु शेष रहने पर इन्हें वैराग्य हुआ । ये मनोगति नामक शिविका पर आरूढ़ होकर सहेतुक वन गये तथा वहाँ इन्होंने ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन सायं बेला में एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण किया । संयमी होते ही इन्हें मन:पर्ययज्ञान हुआ । सोमखेट नगर के राजा महेंद्रदत्त ने इन्हें आहार दिया था । ये छद्मस्थ अवस्था में नौ वर्ष तक मौन रहे । सहेतुक वन में शिरीष वृक्ष के नीचे फाल्गुन कृष्ण षष्ठी के दिन सायंकाल के समय इन्हें केवलज्ञान हुआ था । इनके चतुर्विध संघ में पंचानवें गणधर, दो हजार तीस पूर्वधारी, दो लाख चवालीस हजार नौ सौ बीस शिक्षक, नौ हजार हजार अवधिज्ञानी, ग्यारह हजार केवलज्ञानी, पंद्रह हजार तीन सौ विक्रिया ऋद्धिधारी, नौ हजार एक सौ पचास मन:पर्ययज्ञानी, आठ हजार छ: सौ वादी, इस प्रकार कुल तीन लाख मुनि, तीन लाख तीस हजार आर्यिकाएं, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकाएँ, असंख्य न देव-देवियां और संख्यात तिर्यंच थे । विहार करते हुए आयु का एक मास शेष रहने पर ये सम्मेदशिखर आये । यहाँ एक हजार मुनियों के साथ इन्होंने प्रतिमायोग धारण कर फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन विशाखा नक्षत्र में सूर्योदय के समय मोक्ष प्राप्त किया था । दूसरे पूर्वभव में ये धातकीखंड के पूर्व विदेहक्षेत्र में सुकच्छ देश के क्षेमपुर नगर के नंदिषेण नामक नृप थे । प्रथम पूर्वभव में मध्यम ग्रैवेयक के सुभद्र नामक मध्यम विमान में अहमिंद्र रहे । महापुराण 53.2-53, पद्मपुराण 2.89-90, हरिवंशपुराण 1.9, 3.10-11, 13.32, पांडवपुराण 12.1, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.27, 101-105
(2) आगामी दूसरे तीर्थंकर सुरदेव के पूर्वभव का जीव । महापुराण 76. 471, 477
(3) आगामी तीसरे तीर्थंकर । महापुराण 76. 477, हरिवंशपुराण 60.558