स्वभाववाद: Difference between revisions
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<span class="SanskritText">मो.क./मू./883 को करइ कंटयाणं तिक्खत्तं मियविहंगमादीणं। विविहत्तं तु सहाओ इदि सव्वंपि य सहाओत्ति।883।</span> = | <span class="SanskritText">मो.क./मू./883 को करइ कंटयाणं तिक्खत्तं मियविहंगमादीणं। विविहत्तं तु सहाओ इदि सव्वंपि य सहाओत्ति।883।</span> = | ||
<span class="HindiText">काँटे को आदि लेकर जो तीक्ष्ण वस्तु हैं उनके तीक्ष्णपना कौन करता है। तथा मृग और पक्षी आदिकों के अनेकपना कौन करता है। इस प्रश्न का उत्तर मिलता है कि सबमें स्वभाव ही है। ऐसे सबको कारण के बिना स्वभाव से ही मानना (मिथ्या) स्वभाववाद का अर्थ है।</span> | <span class="HindiText">काँटे को आदि लेकर जो तीक्ष्ण वस्तु हैं उनके तीक्ष्णपना कौन करता है। तथा मृग और पक्षी आदिकों के अनेकपना कौन करता है। इस प्रश्न का उत्तर मिलता है कि सबमें स्वभाव ही है। ऐसे सबको कारण के बिना स्वभाव से ही मानना (मिथ्या) स्वभाववाद का अर्थ है।</span> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/170 ज्ञानं तावज्जीवस्वरूपं भवति, ततो हेतोरखण्डाद्वैतस्वभावनिरतं निरतिशयपरमभावनासनाथं मुक्तिसुन्दरीनाथं बहिर्व्यावृतकौतूहलं निजपरमात्मानं जानाति कश्चिदात्मा भव्यजीव इति अयं खलु स्वभाववाद:।</span> = | ||
<span class="HindiText">ज्ञान वास्तव में जीव का स्वरूप है, उस हेतु से जो अखण्ड अद्वैत स्वभाव में लीन है, जो निरतिशय परम भावना सहित है, जो मुक्ति सुन्दरी का नाथ है और बाह्य में जिसने कौतूहल व्यावृत किया है ऐसे निज परमात्मा को कोई आत्मा-भव्य जीव जानता है। ऐसा वास्तव में (निश्चय) स्वभाववाद है।</span></p> | <span class="HindiText">ज्ञान वास्तव में जीव का स्वरूप है, उस हेतु से जो अखण्ड अद्वैत स्वभाव में लीन है, जो निरतिशय परम भावना सहित है, जो मुक्ति सुन्दरी का नाथ है और बाह्य में जिसने कौतूहल व्यावृत किया है ऐसे निज परमात्मा को कोई आत्मा-भव्य जीव जानता है। ऐसा वास्तव में (निश्चय) स्वभाववाद है।</span></p> | ||
Revision as of 19:17, 17 July 2020
मो.क./मू./883 को करइ कंटयाणं तिक्खत्तं मियविहंगमादीणं। विविहत्तं तु सहाओ इदि सव्वंपि य सहाओत्ति।883। = काँटे को आदि लेकर जो तीक्ष्ण वस्तु हैं उनके तीक्ष्णपना कौन करता है। तथा मृग और पक्षी आदिकों के अनेकपना कौन करता है। इस प्रश्न का उत्तर मिलता है कि सबमें स्वभाव ही है। ऐसे सबको कारण के बिना स्वभाव से ही मानना (मिथ्या) स्वभाववाद का अर्थ है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/170 ज्ञानं तावज्जीवस्वरूपं भवति, ततो हेतोरखण्डाद्वैतस्वभावनिरतं निरतिशयपरमभावनासनाथं मुक्तिसुन्दरीनाथं बहिर्व्यावृतकौतूहलं निजपरमात्मानं जानाति कश्चिदात्मा भव्यजीव इति अयं खलु स्वभाववाद:। = ज्ञान वास्तव में जीव का स्वरूप है, उस हेतु से जो अखण्ड अद्वैत स्वभाव में लीन है, जो निरतिशय परम भावना सहित है, जो मुक्ति सुन्दरी का नाथ है और बाह्य में जिसने कौतूहल व्यावृत किया है ऐसे निज परमात्मा को कोई आत्मा-भव्य जीव जानता है। ऐसा वास्तव में (निश्चय) स्वभाववाद है।