हनुमान्: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<p id="1"> (1) मानुषोत्तर पर्वत की ऐशान दिशा में स्थित वज्रक कूट का निवासी एक देव । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.606 </span></p> | <p id="1"> (1) मानुषोत्तर पर्वत की ऐशान दिशा में स्थित वज्रक कूट का निवासी एक देव । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.606 </span></p> | ||
<p id="2">(2) विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में स्थित आदित्यपुर नगर के राजा प्रह्लाद और रानी केतुमती का पौत्र तथा वायुगति अपर नाम पवनंजय तथा | <p id="2">(2) विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में स्थित आदित्यपुर नगर के राजा प्रह्लाद और रानी केतुमती का पौत्र तथा वायुगति अपर नाम पवनंजय तथा महेंद्र नगर के राजा महेंद्र का पुत्री अंजना का पुत्र । इसका जन्म चैत मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन रात्रि के अंतिम प्रहर में पर्यंक गुहा में हुआ था । हनुरुहद्वीप का निवासी प्रतिसर्य विद्याधर इसका नाना था । अपने नाना के घर जाते हुए यह विमान से नीचे गिर गया था । इसके गिरने से शिला चूर-चूर हो गयी थी किंतु इसे चोट नहीं आई थी । यह शिला पर हाथ-पैर हिलाते हुए मुंह में अँगूठा देकर खेलता रहा । श्रीशैल पर्वत पर जन्म होने तथा शिला के चूर-दूर हो जाने से माता ने इसे श्रीशैल तथा हनुरूह नगर में जन्म संस्कार होने से हनुमान् कहा था । यह रावण की सहायता के लिए लंका गया था वहाँ इसने वरुण राजा के सौ पुत्रों को बांध लिया था । चंद्रनखा की पुत्री अनंगपुष्पा, किष्कुपुर नगर के राजा नल की पुत्री हरिमालिनी और किन्नर जाति के विद्याधरों की अनेक कन्याओं को इसने विवाहा था । इसकी एक हजार से भी अधिक स्त्रियाँ थीं । सीता के पास राम का संदेश यह ही लंका ले गया था । राम की ओर से इसने युद्ध कर माली को मारा था । कुंभकर्ण द्वारा बाँध लिए जाने पर अवसर पाकर यह बंधनों से मुक्त हो गया था । रावण की विजय के पश्चात् अयोध्या आने पर राम ने इसे श्री पर्वत का राज्य दिया था । अंत में मेरु वंदना को जाते समय उल्कापात देखकर यह विरक्त हो गया था और चारण ऋद्धिधारी धर्मरत्न मुनि से इसने दीक्षा ले ली थी । पश्चात् यह मुक्त हुआ । छठे पूर्वभव में यह दमयंत राजपुत्र तथा पाँचवें पूर्वभव में देव हुआ था । चौथे में सिंहचंद और तीसरे में पुन: देव हुआ । दूसरे पूर्वभव में सिंहवाहन राजपुत्र तथा प्रथम पूर्वभव में लांतव स्वर्ग में देव था । इसका अपर नाम अणुमान् था । <span class="GRef"> पद्मपुराण 15.6-8, 13-16, 220, 16.219, 17.141-162, 213, 307, 345-346, 361-364, 382-393, 402-403, 19. 13-15, 59, 101-108, 53. 26, 50-55, 60.28, 116-118, 88.39, 112.24, 75-78, 113.24-29, 44-45 </span>देखें [[ अणुमान् ]]</p> | ||
Revision as of 16:41, 19 August 2020
(1) मानुषोत्तर पर्वत की ऐशान दिशा में स्थित वज्रक कूट का निवासी एक देव । हरिवंशपुराण 5.606
(2) विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में स्थित आदित्यपुर नगर के राजा प्रह्लाद और रानी केतुमती का पौत्र तथा वायुगति अपर नाम पवनंजय तथा महेंद्र नगर के राजा महेंद्र का पुत्री अंजना का पुत्र । इसका जन्म चैत मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन रात्रि के अंतिम प्रहर में पर्यंक गुहा में हुआ था । हनुरुहद्वीप का निवासी प्रतिसर्य विद्याधर इसका नाना था । अपने नाना के घर जाते हुए यह विमान से नीचे गिर गया था । इसके गिरने से शिला चूर-चूर हो गयी थी किंतु इसे चोट नहीं आई थी । यह शिला पर हाथ-पैर हिलाते हुए मुंह में अँगूठा देकर खेलता रहा । श्रीशैल पर्वत पर जन्म होने तथा शिला के चूर-दूर हो जाने से माता ने इसे श्रीशैल तथा हनुरूह नगर में जन्म संस्कार होने से हनुमान् कहा था । यह रावण की सहायता के लिए लंका गया था वहाँ इसने वरुण राजा के सौ पुत्रों को बांध लिया था । चंद्रनखा की पुत्री अनंगपुष्पा, किष्कुपुर नगर के राजा नल की पुत्री हरिमालिनी और किन्नर जाति के विद्याधरों की अनेक कन्याओं को इसने विवाहा था । इसकी एक हजार से भी अधिक स्त्रियाँ थीं । सीता के पास राम का संदेश यह ही लंका ले गया था । राम की ओर से इसने युद्ध कर माली को मारा था । कुंभकर्ण द्वारा बाँध लिए जाने पर अवसर पाकर यह बंधनों से मुक्त हो गया था । रावण की विजय के पश्चात् अयोध्या आने पर राम ने इसे श्री पर्वत का राज्य दिया था । अंत में मेरु वंदना को जाते समय उल्कापात देखकर यह विरक्त हो गया था और चारण ऋद्धिधारी धर्मरत्न मुनि से इसने दीक्षा ले ली थी । पश्चात् यह मुक्त हुआ । छठे पूर्वभव में यह दमयंत राजपुत्र तथा पाँचवें पूर्वभव में देव हुआ था । चौथे में सिंहचंद और तीसरे में पुन: देव हुआ । दूसरे पूर्वभव में सिंहवाहन राजपुत्र तथा प्रथम पूर्वभव में लांतव स्वर्ग में देव था । इसका अपर नाम अणुमान् था । पद्मपुराण 15.6-8, 13-16, 220, 16.219, 17.141-162, 213, 307, 345-346, 361-364, 382-393, 402-403, 19. 13-15, 59, 101-108, 53. 26, 50-55, 60.28, 116-118, 88.39, 112.24, 75-78, 113.24-29, 44-45 देखें अणुमान्