आरंभ: Difference between revisions
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<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/8/325/4 प्रक्रम | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/15/333/9 | <p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/8/325/4 प्रक्रम आरंभः।</p> | ||
<p class="HindiText">= कार्य करने लगना सो | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/15/333/9 आरंभः प्राणिपीड़ाहेतुर्व्यापारः।</p> | ||
<p class="HindiText">= कार्य करने लगना सो आरंभ है।</p> | |||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 6/8/4/514); ( चारित्रसार पृष्ठ 87/5)</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 6/8/4/514); ( चारित्रसार पृष्ठ 87/5)</p> | ||
<p>प्राणियोंको दुःख पहुँचानेवाली प्रवृत्ति करना | <p>प्राणियोंको दुःख पहुँचानेवाली प्रवृत्ति करना आरंभ है।</p> | ||
<p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 6/15/2/525/25 हिंसनशीलाः हिंस्राः, तेषां हैंस्रम् | <p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 6/15/2/525/25 हिंसनशीलाः हिंस्राः, तेषां हैंस्रम् आरंभ इत्युच्यते।</p> | ||
<p class="HindiText">= हिंसनशील अर्थात् हिंसा करना है स्वभाव जिनका वे हिंस्र कहलाते हैं। उनके ही कार्य हैंस्र कहलाते हैं। उनको ही | <p class="HindiText">= हिंसनशील अर्थात् हिंसा करना है स्वभाव जिनका वे हिंस्र कहलाते हैं। उनके ही कार्य हैंस्र कहलाते हैं। उनको ही आरंभ कहते हैं।</p> | ||
<p class="SanskritText">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 221 उपधिसद्भावे हि ममत्वपरिणामलक्षयायाः मूर्च्छा | <p class="SanskritText">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 221 उपधिसद्भावे हि ममत्वपरिणामलक्षयायाः मूर्च्छा यास्तद्विषयकर्मप्रक्रमपरिणामलक्षणस्यारंभस्य...।</p> | ||
<p class="HindiText">= उपाधिके सद्भाव में ममत्व परिणाम जिसका लक्षण है ऐसी मूर्च्छा और उपाधि | <p class="HindiText">= उपाधिके सद्भाव में ममत्व परिणाम जिसका लक्षण है ऐसी मूर्च्छा और उपाधि संबंधी कर्म प्रक्रमके परिणाम जिसका लक्षण है ऐसा आरंभ...।</p> | ||
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<p id="1"> (1) आस्रव के तीन भेदों में तीसरा भेद । अपने या दूसरों के कार्यों मे रुचि रख कर करना । इसके छत्तीस भेद होते हैं । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 58.79, 85 </span></p> | |||
<p id="2">(2) परिग्रह― इसकी बहुलता नरक का कारण होती है । <span class="GRef"> महापुराण 10.21-23 </span></p> | |||
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Revision as of 16:19, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/8/325/4 प्रक्रम आरंभः।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/15/333/9 आरंभः प्राणिपीड़ाहेतुर्व्यापारः।
= कार्य करने लगना सो आरंभ है।
(राजवार्तिक अध्याय 6/8/4/514); ( चारित्रसार पृष्ठ 87/5)
प्राणियोंको दुःख पहुँचानेवाली प्रवृत्ति करना आरंभ है।
राजवार्तिक अध्याय 6/15/2/525/25 हिंसनशीलाः हिंस्राः, तेषां हैंस्रम् आरंभ इत्युच्यते।
= हिंसनशील अर्थात् हिंसा करना है स्वभाव जिनका वे हिंस्र कहलाते हैं। उनके ही कार्य हैंस्र कहलाते हैं। उनको ही आरंभ कहते हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 221 उपधिसद्भावे हि ममत्वपरिणामलक्षयायाः मूर्च्छा यास्तद्विषयकर्मप्रक्रमपरिणामलक्षणस्यारंभस्य...।
= उपाधिके सद्भाव में ममत्व परिणाम जिसका लक्षण है ऐसी मूर्च्छा और उपाधि संबंधी कर्म प्रक्रमके परिणाम जिसका लक्षण है ऐसा आरंभ...।
पुराणकोष से
(1) आस्रव के तीन भेदों में तीसरा भेद । अपने या दूसरों के कार्यों मे रुचि रख कर करना । इसके छत्तीस भेद होते हैं । हरिवंशपुराण 58.79, 85
(2) परिग्रह― इसकी बहुलता नरक का कारण होती है । महापुराण 10.21-23