केवलज्ञान की विचित्रता: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> सर्व को जानता हुआ भी व्याकुल नहीं होता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> सर्व को जानता हुआ भी व्याकुल नहीं होता</strong> </span><br /> | ||
धवला/13/5,4,26/86/5 <span class="PrakritText"> केवलिस्स विसईकयासेसदव्वपज्जायस्स सगसव्वद्धाए एगरूवस्स अणिंदियस्स।</span>=<span class="HindiText">केवली जिन अशेष द्रव्य पर्यायों को विषय करते हैं, अपने सब काल में एकरूप रहते हैं और | धवला/13/5,4,26/86/5 <span class="PrakritText"> केवलिस्स विसईकयासेसदव्वपज्जायस्स सगसव्वद्धाए एगरूवस्स अणिंदियस्स।</span>=<span class="HindiText">केवली जिन अशेष द्रव्य पर्यायों को विषय करते हैं, अपने सब काल में एकरूप रहते हैं और इंद्रियज्ञान से रहित हैं। </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/32 <span class="SanskritText">युगपदेव सर्वार्थसार्थसाक्षात्करणेन ज्ञप्तिपरिवर्तनाभावात् संभावितग्रहणमोक्षणक्रियाविराम: प्रथममेव समस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतत्वात् पुन: | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/32 <span class="SanskritText">युगपदेव सर्वार्थसार्थसाक्षात्करणेन ज्ञप्तिपरिवर्तनाभावात् संभावितग्रहणमोक्षणक्रियाविराम: प्रथममेव समस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतत्वात् पुन: परमाकारांतरमपरिणममान: समंततोऽपि विश्वमशेषं पश्यति जानाति च एवमस्यायंतविविक्तत्वमेव। </span>=<span class="HindiText">एक साथ ही सर्व पदार्थों के समूह का साक्षात्कार करने से, ज्ञप्ति परिवर्तन का अभाव होने से समस्त परिछेद्य आकारों रूप परिणत होने के कारण जिसके ग्रहण त्याग क्रिया का अभाव हो गया है, फिर पररूप से आकारांतरूप से नहीं परिणमित होता हुआ सर्व प्रकार से अशेष विश्व को (मात्र) देखता जानता है। इस प्रकार उस आत्मा का (ज्ञेय पदार्थों से) भिन्नत्व ही है।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/60 <span class="SanskritText">केवलस्यापि परिणामद्वारेण खेदस्य | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/60 <span class="SanskritText">केवलस्यापि परिणामद्वारेण खेदस्य संभवादैकांतिकसुखत्वं नास्तीति प्रत्याचष्टे। (उत्थानिका)। ....यतश्च त्रिसमयावच्छिन्नसकलपदार्थपरिच्छेद्याकारवैश्वरुप्यप्रकाशनास्पदीभूतं चित्रभित्तिस्थानीयमनंतस्वरूपं स्वमेव परिणमत्केवलमेव परिणाम:, ततो कुतोऽन्य: परिणामो यद्द्वारेण खेदस्यात्मलाभ:।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—केवलज्ञान को भी परिणाम (परिणमन) के द्वारा खेद का संभव है, इसलिए केवलज्ञान एकांतिक सुख नहीं है?<strong> उत्तर</strong>−तीन कालरूप तीन भेद जिसमें किये जाते हैं ऐसे समस्त पदार्थों की ज्ञेयाकाररूप विविधता को प्रकाशित करने का स्थानभूत केवलज्ञान चित्रित दीवार की भाँति स्वयं ही अनंतस्वरूप परिणमित होता है, इसलिए केवलज्ञान (स्वयं) ही परिणमन है। अन्य परिणमन कहाँ है कि जिससे खेद की उत्पत्ति हो।</span><br /> | ||
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/172 <span class="SanskritText"> | नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/172 <span class="SanskritText">विश्वमश्रांतं जानन्नपि पश्यन्नपि वा मन:प्रवृत्तेरभावादोहापूर्वकं वर्तनं न भवति तस्य केवलिन:।</span>=<span class="HindiText">विश्व को निरंतर जानते हुए और देखते हुए भी केवली को मन:प्रवृत्ति का अभाव होने से इच्छा पूर्वक वर्तन नहीं होता।</span><br /> | ||
<strong> | <strong> स्याद्वादमंजरी/6/48/2 </strong> <span class="SanskritText">अथ युष्मत्पक्षेऽपि यदा ज्ञानात्मा सर्वं जगत्त्रयं व्याप्नोतीत्युच्यते तदाशुचिरसास्वादादीनामप्युपालंभसंभावनात् नरकादिदु:खस्वरूपसंवेदनात्मकतया दुःखानुभवप्रसंगाच्च अनिष्टापत्तिस्तुल्यैवेति चेत्, तदेतदुपपत्तिभि: प्रतिकर्तुमशक्तस्य धूलिभिरिवावकरणम् । यतो ज्ञानमप्राप्यकारि स्वस्थानस्थमेव विषयं परिच्छिनत्ति, न पुनस्तत्रगत्वा, तत्कुतोभवदुपालंभ: समीचीन:।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—ज्ञान की अपेक्षा जिनभगवान् को जगत्त्रय में व्यापी मानने से आप जैन लोगों के भगवान् को भी (शरीरव्यापी भगवान्वत्) अशुचि पदार्थों के रसास्वादन का ज्ञान होता है तथा नरक आदि दुःखों के स्वरूप का ज्ञान होने से दुःख का भी अनुभव होता है, इसलिए अनिष्टापत्ति दोनों के समान है? <strong>उत्तर</strong>−यह कहना असमर्थ होकर धूल फेंकने के समान है। क्योंकि हम ज्ञान को अप्राप्यकारी मानते हैं, अर्थात् ज्ञान आत्मा में स्थिर होकर ही पदार्थों को जानता है, ज्ञेयपदार्थों के पास जाकर नहीं। इसलिए आपका दिया हुआ दूषण ठीक नहीं है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> केवलज्ञान सर्वांग से जानता है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> केवलज्ञान सर्वांग से जानता है</strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,1/27/48 <span class="PrakritText">सव्वावयवेहि दिट्ठसव्वट्ठा।</span>=<span class="HindiText">जिन्होंने सर्वांग सर्व पदार्थों को जान लिया है (वे सिद्ध हैं)।</span><br /> | धवला 1/1,1,1/27/48 <span class="PrakritText">सव्वावयवेहि दिट्ठसव्वट्ठा।</span>=<span class="HindiText">जिन्होंने सर्वांग सर्व पदार्थों को जान लिया है (वे सिद्ध हैं)।</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/1,1/46/65/2 <span class="PrakritText"> ण चेगावयवेणेव चेव गेण्हदि; सयलावयवगयआवरणस्स णिम्मूलविणासे संते एगावयवेणेव गहणविरोहादो। तदो पत्तमपत्तं च अक्कमेण सयलावयवेहि जाणदि त्ति सिद्धं।</span>=<span class="HindiText">यदि कहा जाय कि केवली आत्मा के एकदेश से पदार्थों का ग्रहण करता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा के सभी प्रदेशों में विद्यमान आवरणकर्म के निर्मूल विनाश हो जाने पर केवल उसके एक अवयव से पदार्थों का ग्रहण मानने में विरोध आता है। इसलिए प्राप्त और अप्राप्त सभी पदार्थों को युगपद् अपने सभी अवयवों से केवली जानता है, यह सिद्ध हो जाता है।</span><br /> | कषायपाहुड़ 1/1,1/46/65/2 <span class="PrakritText"> ण चेगावयवेणेव चेव गेण्हदि; सयलावयवगयआवरणस्स णिम्मूलविणासे संते एगावयवेणेव गहणविरोहादो। तदो पत्तमपत्तं च अक्कमेण सयलावयवेहि जाणदि त्ति सिद्धं।</span>=<span class="HindiText">यदि कहा जाय कि केवली आत्मा के एकदेश से पदार्थों का ग्रहण करता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा के सभी प्रदेशों में विद्यमान आवरणकर्म के निर्मूल विनाश हो जाने पर केवल उसके एक अवयव से पदार्थों का ग्रहण मानने में विरोध आता है। इसलिए प्राप्त और अप्राप्त सभी पदार्थों को युगपद् अपने सभी अवयवों से केवली जानता है, यह सिद्ध हो जाता है।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/47 <span class="SanskritText">सर्वतो विशुद्धस्य | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/47 <span class="SanskritText">सर्वतो विशुद्धस्य प्रतिनियतदेशविशुद्धेरंत: प्लवनात् समंततोऽपि प्रकाशते।</span>=<span class="HindiText">(क्षायिक ज्ञान) सर्वत: विशुद्ध होने के कारण प्रतिनियत प्रदेशों की विशुद्धि (सर्वत: विशुद्धि) के भीतर डूब जाने से वह सर्वत: (सर्वात्मप्रदेशों से भी) प्रकाशित करता है। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/22 )।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> केवलज्ञान | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> केवलज्ञान प्रतिबिंबवत् जानता है</strong></span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश/ मू./99<span class="PrakritGatha"> जोइय अप्पें जाणिएण जगु जाणिजउ हवेइ। अप्पहँ करेइ भावडइ बिंबिउ जेण वसेइ।99।</span>=<span class="HindiText">अपने आत्मा के जानने से यह तीन लोक जाना जाता है, क्योंकि आत्मा के भावरूप केवलज्ञान में यह लोक | परमात्मप्रकाश/ मू./99<span class="PrakritGatha"> जोइय अप्पें जाणिएण जगु जाणिजउ हवेइ। अप्पहँ करेइ भावडइ बिंबिउ जेण वसेइ।99।</span>=<span class="HindiText">अपने आत्मा के जानने से यह तीन लोक जाना जाता है, क्योंकि आत्मा के भावरूप केवलज्ञान में यह लोक प्रतिबिंबित हुआ बस रहा है।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/200 <span class="SanskritText">अथैकस्य ज्ञायकभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावत्वात् | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/200 <span class="SanskritText">अथैकस्य ज्ञायकभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावत्वात् …प्रतिबिंबवत्तत्र … समस्तमपि द्रव्यजातमेकक्षण एव प्रत्यक्ष्यंतं …।</span>=<span class="HindiText">एक ज्ञायकभाव का समस्त ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से, समस्त द्रव्यमात्र को, मानों वे द्रव्य प्रतिबिंबवत् हुए हों, इस प्रकार एक क्षण में ही जो प्रत्यक्ष करता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> केवलज्ञान टंकोत्कीर्णवत् जानता है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> केवलज्ञान टंकोत्कीर्णवत् जानता है</strong></span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/38 <span class="SanskritText">परिच्छेदं प्रति नियतत्वात् | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/38 <span class="SanskritText">परिच्छेदं प्रति नियतत्वात् ज्ञानप्रत्यक्षतामनुभवंत: शिलास्तंभोत्कीर्ण भूतभाविदेववद् प्रकंपार्पितस्वरूपा।</span>=<span class="HindiText">ज्ञान के प्रति नियत होने से (सर्व पर्यायें) ज्ञानप्रत्यक्ष वर्तती हुई पाषाणस्तंभ में उत्कीर्ण भूत और भावि देवों की भाँति अपने स्वरूप को अकंपतया अर्पित करती हैं।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/200 <span class="SanskritText">अथैकस्य ज्ञायकस्वभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावत्वात् प्रोत्कीर्णलिखितनिखातकीलितमज्जितसमावर्तित … समस्तमपि द्रव्यजातमेकक्षण एव | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/200 <span class="SanskritText">अथैकस्य ज्ञायकस्वभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावत्वात् प्रोत्कीर्णलिखितनिखातकीलितमज्जितसमावर्तित … समस्तमपि द्रव्यजातमेकक्षण एव प्रत्यक्ष्यंतं…।</span>=<span class="HindiText">एक ज्ञायकभाव का समस्त ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से, समस्त द्रव्यमात्र को, मानो वे द्रव्य ज्ञायक में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों, कीलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों, इस प्रकार एक क्षण में ही जो प्रत्यक्ष करता है।</span><br /> | ||
<strong> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/37 </strong> <span class="SanskritText">किंच चित्रपटस्थानीयत्वात् संविद:। यथा हि चित्रपट्यामतिवाहितानामनुपस्थितानां वर्तमानानां च वस्तूनामालेख्याकारा: साक्षादेकक्षण | <strong> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/37 </strong> <span class="SanskritText">किंच चित्रपटस्थानीयत्वात् संविद:। यथा हि चित्रपट्यामतिवाहितानामनुपस्थितानां वर्तमानानां च वस्तूनामालेख्याकारा: साक्षादेकक्षण एवावभासंते, तथा संविद्भित्तावपि।</span>=<span class="HindiText">ज्ञान चित्रपट के समान है। जैसे चित्रपट में अतीत अनागत और वर्तमान वस्तुओं के आलेख्याकार साक्षात् एक समय में भासित होते हैं। उसी प्रकार ज्ञानरूपी भित्ति में भी भासित होते हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> केवलज्ञान अक्रम रूप से जानता है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> केवलज्ञान अक्रम रूप से जानता है</strong></span><br /> | ||
षट्खंडागम 13/55/ सू. 82/346 …<span class="PrakritText">सव्वजीवे सव्वभावे सम्मं समं जाणदि पस्सदि विहरदि त्ति।82।</span>=<span class="HindiText">(केवलज्ञान) सब जीवों और सर्व भावों को सम्यक् प्रकार से युगपत् जानते हैं, देखते हैं और विहार करते हैं। ( प्रवचनसार/47 ); ( योगसार (अमितगति)/26 ); ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/52/ क 4); ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/32,39 ) ( धवला 9/4,1,45/50/142 )</span><br /> | |||
<strong> भगवती आराधना/2142 </strong> <span class="PrakritGatha">भावे सगविसयत्थे सूरो जुगवं जहा पयासेइ। सव्वं वि तहा जुगवं केवलणाणं पयासेदि।2142।</span>=<span class="HindiText">जैसे सूर्य अपने प्रकाश में जितने पदार्थ समाविष्ट होते हैं उन सबको युगपत् प्रकाशित करता है, वैसे सिद्ध परमेष्ठी का केवलज्ञान | <strong> भगवती आराधना/2142 </strong> <span class="PrakritGatha">भावे सगविसयत्थे सूरो जुगवं जहा पयासेइ। सव्वं वि तहा जुगवं केवलणाणं पयासेदि।2142।</span>=<span class="HindiText">जैसे सूर्य अपने प्रकाश में जितने पदार्थ समाविष्ट होते हैं उन सबको युगपत् प्रकाशित करता है, वैसे सिद्ध परमेष्ठी का केवलज्ञान संपूर्ण ज्ञेयों को युगपत् जानता है। ( परमात्मप्रकाश टीका/1/9/7/3 ); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/224/10 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/14/42/7 )।</span><br /> | ||
अष्टसहस्री/निर्णय सागर | अष्टसहस्री/निर्णय सागर बंबई/पृ.49 <span class="SanskritText">न खलु ज्ञस्वभावस्य कश्चिदगोचरोऽस्ति। यन्न क्रमेत् तत्स्वभावांतरप्रतिषेधात् ।</span>=<span class="HindiText">’ज्ञ’ स्वभाव को कुछ भी अगोचर नहीं है, क्योंकि वह क्रम से नहीं जानता, तथा इससे अन्य प्रकार के स्वभाव का उसमें निषेध है।</span><br /> | ||
<strong> प्रवचनसार व त.प्र./21</strong><span class="PrakritText"> सो णेव ते विजाणदि उग्गहपुव्वाहिं किरियाहिं।21।</span> <span class="SanskritText"> | <strong> प्रवचनसार व त.प्र./21</strong><span class="PrakritText"> सो णेव ते विजाणदि उग्गहपुव्वाहिं किरियाहिं।21।</span> <span class="SanskritText">ततोऽस्याक्रमसमाक्रांत … सर्वद्रव्यपर्याया: प्रत्यक्षा एव भवंति।</span><span class="HindiText">=वे उन्हें अवग्रहादि क्रियाओं से नहीं जानते।…अत: अक्रमिक ग्रहण होने से समक्ष संवेदन की आलंबनभूत समस्त द्रव्य पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं।</span><br /> | ||
<strong> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/37 </strong> <span class="SanskritText">यथा हि चित्रपट्याम् …वस्तूनामालेख्याकारा: साक्षादेकक्षण | <strong> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/37 </strong> <span class="SanskritText">यथा हि चित्रपट्याम् …वस्तूनामालेख्याकारा: साक्षादेकक्षण एवावभासंते तथा संविद्भित्तावपि।</span>=<span class="HindiText">जैसे चित्रपट में वस्तुओं के आलेख्याकार साक्षात् एक क्षण में ही भासित होते हैं, इसी प्रकार ज्ञानरूपी भित्ति में भी जानना। ( धवला 7/2,1,46/89/6 ), (द्र.स./टी./51/216/13), ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/43 )।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> केवलज्ञान तात्कालिकवत् जानता है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> केवलज्ञान तात्कालिकवत् जानता है</strong></span><br /> | ||
प्रवचनसार/37 <span class="PrakritGatha"> तक्कालिगेव सव्वं सदसब्भूदा हि पज्जया तासिं। | प्रवचनसार/37 <span class="PrakritGatha"> तक्कालिगेव सव्वं सदसब्भूदा हि पज्जया तासिं। वट्टंते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं।37।</span>=<span class="HindiText">उन द्रव्य जातियों की समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें तात्कालिक पर्यायों की भाँति विशिष्टता पूर्वक ज्ञान में वर्तती हैं। ( प्रवचनसार 47 )<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> केवलज्ञान सर्व ज्ञेयों को पृथक्-पृथक् जानता है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> केवलज्ञान सर्व ज्ञेयों को पृथक्-पृथक् जानता है</strong></span><br /> |
Revision as of 16:21, 19 August 2020
- केवलज्ञान की विचित्रता
- सर्व को जानता हुआ भी व्याकुल नहीं होता
धवला/13/5,4,26/86/5 केवलिस्स विसईकयासेसदव्वपज्जायस्स सगसव्वद्धाए एगरूवस्स अणिंदियस्स।=केवली जिन अशेष द्रव्य पर्यायों को विषय करते हैं, अपने सब काल में एकरूप रहते हैं और इंद्रियज्ञान से रहित हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/32 युगपदेव सर्वार्थसार्थसाक्षात्करणेन ज्ञप्तिपरिवर्तनाभावात् संभावितग्रहणमोक्षणक्रियाविराम: प्रथममेव समस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतत्वात् पुन: परमाकारांतरमपरिणममान: समंततोऽपि विश्वमशेषं पश्यति जानाति च एवमस्यायंतविविक्तत्वमेव। =एक साथ ही सर्व पदार्थों के समूह का साक्षात्कार करने से, ज्ञप्ति परिवर्तन का अभाव होने से समस्त परिछेद्य आकारों रूप परिणत होने के कारण जिसके ग्रहण त्याग क्रिया का अभाव हो गया है, फिर पररूप से आकारांतरूप से नहीं परिणमित होता हुआ सर्व प्रकार से अशेष विश्व को (मात्र) देखता जानता है। इस प्रकार उस आत्मा का (ज्ञेय पदार्थों से) भिन्नत्व ही है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/60 केवलस्यापि परिणामद्वारेण खेदस्य संभवादैकांतिकसुखत्वं नास्तीति प्रत्याचष्टे। (उत्थानिका)। ....यतश्च त्रिसमयावच्छिन्नसकलपदार्थपरिच्छेद्याकारवैश्वरुप्यप्रकाशनास्पदीभूतं चित्रभित्तिस्थानीयमनंतस्वरूपं स्वमेव परिणमत्केवलमेव परिणाम:, ततो कुतोऽन्य: परिणामो यद्द्वारेण खेदस्यात्मलाभ:।=प्रश्न—केवलज्ञान को भी परिणाम (परिणमन) के द्वारा खेद का संभव है, इसलिए केवलज्ञान एकांतिक सुख नहीं है? उत्तर−तीन कालरूप तीन भेद जिसमें किये जाते हैं ऐसे समस्त पदार्थों की ज्ञेयाकाररूप विविधता को प्रकाशित करने का स्थानभूत केवलज्ञान चित्रित दीवार की भाँति स्वयं ही अनंतस्वरूप परिणमित होता है, इसलिए केवलज्ञान (स्वयं) ही परिणमन है। अन्य परिणमन कहाँ है कि जिससे खेद की उत्पत्ति हो।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/172 विश्वमश्रांतं जानन्नपि पश्यन्नपि वा मन:प्रवृत्तेरभावादोहापूर्वकं वर्तनं न भवति तस्य केवलिन:।=विश्व को निरंतर जानते हुए और देखते हुए भी केवली को मन:प्रवृत्ति का अभाव होने से इच्छा पूर्वक वर्तन नहीं होता।
स्याद्वादमंजरी/6/48/2 अथ युष्मत्पक्षेऽपि यदा ज्ञानात्मा सर्वं जगत्त्रयं व्याप्नोतीत्युच्यते तदाशुचिरसास्वादादीनामप्युपालंभसंभावनात् नरकादिदु:खस्वरूपसंवेदनात्मकतया दुःखानुभवप्रसंगाच्च अनिष्टापत्तिस्तुल्यैवेति चेत्, तदेतदुपपत्तिभि: प्रतिकर्तुमशक्तस्य धूलिभिरिवावकरणम् । यतो ज्ञानमप्राप्यकारि स्वस्थानस्थमेव विषयं परिच्छिनत्ति, न पुनस्तत्रगत्वा, तत्कुतोभवदुपालंभ: समीचीन:।=प्रश्न—ज्ञान की अपेक्षा जिनभगवान् को जगत्त्रय में व्यापी मानने से आप जैन लोगों के भगवान् को भी (शरीरव्यापी भगवान्वत्) अशुचि पदार्थों के रसास्वादन का ज्ञान होता है तथा नरक आदि दुःखों के स्वरूप का ज्ञान होने से दुःख का भी अनुभव होता है, इसलिए अनिष्टापत्ति दोनों के समान है? उत्तर−यह कहना असमर्थ होकर धूल फेंकने के समान है। क्योंकि हम ज्ञान को अप्राप्यकारी मानते हैं, अर्थात् ज्ञान आत्मा में स्थिर होकर ही पदार्थों को जानता है, ज्ञेयपदार्थों के पास जाकर नहीं। इसलिए आपका दिया हुआ दूषण ठीक नहीं है।
- केवलज्ञान सर्वांग से जानता है
धवला 1/1,1,1/27/48 सव्वावयवेहि दिट्ठसव्वट्ठा।=जिन्होंने सर्वांग सर्व पदार्थों को जान लिया है (वे सिद्ध हैं)।
कषायपाहुड़ 1/1,1/46/65/2 ण चेगावयवेणेव चेव गेण्हदि; सयलावयवगयआवरणस्स णिम्मूलविणासे संते एगावयवेणेव गहणविरोहादो। तदो पत्तमपत्तं च अक्कमेण सयलावयवेहि जाणदि त्ति सिद्धं।=यदि कहा जाय कि केवली आत्मा के एकदेश से पदार्थों का ग्रहण करता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा के सभी प्रदेशों में विद्यमान आवरणकर्म के निर्मूल विनाश हो जाने पर केवल उसके एक अवयव से पदार्थों का ग्रहण मानने में विरोध आता है। इसलिए प्राप्त और अप्राप्त सभी पदार्थों को युगपद् अपने सभी अवयवों से केवली जानता है, यह सिद्ध हो जाता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/47 सर्वतो विशुद्धस्य प्रतिनियतदेशविशुद्धेरंत: प्लवनात् समंततोऽपि प्रकाशते।=(क्षायिक ज्ञान) सर्वत: विशुद्ध होने के कारण प्रतिनियत प्रदेशों की विशुद्धि (सर्वत: विशुद्धि) के भीतर डूब जाने से वह सर्वत: (सर्वात्मप्रदेशों से भी) प्रकाशित करता है। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/22 )।
- केवलज्ञान प्रतिबिंबवत् जानता है
परमात्मप्रकाश/ मू./99 जोइय अप्पें जाणिएण जगु जाणिजउ हवेइ। अप्पहँ करेइ भावडइ बिंबिउ जेण वसेइ।99।=अपने आत्मा के जानने से यह तीन लोक जाना जाता है, क्योंकि आत्मा के भावरूप केवलज्ञान में यह लोक प्रतिबिंबित हुआ बस रहा है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/200 अथैकस्य ज्ञायकभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावत्वात् …प्रतिबिंबवत्तत्र … समस्तमपि द्रव्यजातमेकक्षण एव प्रत्यक्ष्यंतं …।=एक ज्ञायकभाव का समस्त ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से, समस्त द्रव्यमात्र को, मानों वे द्रव्य प्रतिबिंबवत् हुए हों, इस प्रकार एक क्षण में ही जो प्रत्यक्ष करता है।
- केवलज्ञान टंकोत्कीर्णवत् जानता है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/38 परिच्छेदं प्रति नियतत्वात् ज्ञानप्रत्यक्षतामनुभवंत: शिलास्तंभोत्कीर्ण भूतभाविदेववद् प्रकंपार्पितस्वरूपा।=ज्ञान के प्रति नियत होने से (सर्व पर्यायें) ज्ञानप्रत्यक्ष वर्तती हुई पाषाणस्तंभ में उत्कीर्ण भूत और भावि देवों की भाँति अपने स्वरूप को अकंपतया अर्पित करती हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/200 अथैकस्य ज्ञायकस्वभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावत्वात् प्रोत्कीर्णलिखितनिखातकीलितमज्जितसमावर्तित … समस्तमपि द्रव्यजातमेकक्षण एव प्रत्यक्ष्यंतं…।=एक ज्ञायकभाव का समस्त ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से, समस्त द्रव्यमात्र को, मानो वे द्रव्य ज्ञायक में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों, कीलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों, इस प्रकार एक क्षण में ही जो प्रत्यक्ष करता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/37 किंच चित्रपटस्थानीयत्वात् संविद:। यथा हि चित्रपट्यामतिवाहितानामनुपस्थितानां वर्तमानानां च वस्तूनामालेख्याकारा: साक्षादेकक्षण एवावभासंते, तथा संविद्भित्तावपि।=ज्ञान चित्रपट के समान है। जैसे चित्रपट में अतीत अनागत और वर्तमान वस्तुओं के आलेख्याकार साक्षात् एक समय में भासित होते हैं। उसी प्रकार ज्ञानरूपी भित्ति में भी भासित होते हैं।
- केवलज्ञान अक्रम रूप से जानता है
षट्खंडागम 13/55/ सू. 82/346 …सव्वजीवे सव्वभावे सम्मं समं जाणदि पस्सदि विहरदि त्ति।82।=(केवलज्ञान) सब जीवों और सर्व भावों को सम्यक् प्रकार से युगपत् जानते हैं, देखते हैं और विहार करते हैं। ( प्रवचनसार/47 ); ( योगसार (अमितगति)/26 ); ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/52/ क 4); ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/32,39 ) ( धवला 9/4,1,45/50/142 )
भगवती आराधना/2142 भावे सगविसयत्थे सूरो जुगवं जहा पयासेइ। सव्वं वि तहा जुगवं केवलणाणं पयासेदि।2142।=जैसे सूर्य अपने प्रकाश में जितने पदार्थ समाविष्ट होते हैं उन सबको युगपत् प्रकाशित करता है, वैसे सिद्ध परमेष्ठी का केवलज्ञान संपूर्ण ज्ञेयों को युगपत् जानता है। ( परमात्मप्रकाश टीका/1/9/7/3 ); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/224/10 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/14/42/7 )।
अष्टसहस्री/निर्णय सागर बंबई/पृ.49 न खलु ज्ञस्वभावस्य कश्चिदगोचरोऽस्ति। यन्न क्रमेत् तत्स्वभावांतरप्रतिषेधात् ।=’ज्ञ’ स्वभाव को कुछ भी अगोचर नहीं है, क्योंकि वह क्रम से नहीं जानता, तथा इससे अन्य प्रकार के स्वभाव का उसमें निषेध है।
प्रवचनसार व त.प्र./21 सो णेव ते विजाणदि उग्गहपुव्वाहिं किरियाहिं।21। ततोऽस्याक्रमसमाक्रांत … सर्वद्रव्यपर्याया: प्रत्यक्षा एव भवंति।=वे उन्हें अवग्रहादि क्रियाओं से नहीं जानते।…अत: अक्रमिक ग्रहण होने से समक्ष संवेदन की आलंबनभूत समस्त द्रव्य पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/37 यथा हि चित्रपट्याम् …वस्तूनामालेख्याकारा: साक्षादेकक्षण एवावभासंते तथा संविद्भित्तावपि।=जैसे चित्रपट में वस्तुओं के आलेख्याकार साक्षात् एक क्षण में ही भासित होते हैं, इसी प्रकार ज्ञानरूपी भित्ति में भी जानना। ( धवला 7/2,1,46/89/6 ), (द्र.स./टी./51/216/13), ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/43 )।
- केवलज्ञान तात्कालिकवत् जानता है
प्रवचनसार/37 तक्कालिगेव सव्वं सदसब्भूदा हि पज्जया तासिं। वट्टंते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं।37।=उन द्रव्य जातियों की समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें तात्कालिक पर्यायों की भाँति विशिष्टता पूर्वक ज्ञान में वर्तती हैं। ( प्रवचनसार 47 )
- केवलज्ञान सर्व ज्ञेयों को पृथक्-पृथक् जानता है
प्रवचनसार/37 वट्टंते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं।37।=द्रव्य जातियों की सर्व पर्यायें ज्ञान में विशिष्टता पूर्वक वर्तती हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/52/ क4 ज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्ति:।4। =ज्ञेयाकारों को (मानो पी गया है इस प्रकार समस्त पदार्थों को) पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है।
- सर्व को जानता हुआ भी व्याकुल नहीं होता