केशलोंच: Difference between revisions
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Revision as of 14:18, 20 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
साधु के 28 मूलगुणों में से एक गुण केशलौंच भी है। जघन्य 4 महीने, मध्यम तीन महीने, और उत्कृष्ट दो महीने के पश्चात् वह अपने बालों को अपने हाथ से उखाड़कर फेंक देते हैं। इस पर से उसके आध्यात्मिक बल की तथा शरीर पर से उपेक्षा भाव की परीक्षा होती है।
- केशलोंच विधि
मू.आ./29.../सपडिक्कमणे दिवसे उववासेणेव कायव्वो।29।=प्रतिक्रमण सहित दिन में उपवास किया हो जो अपने हाथ से मस्तक दाढी व मूँछ के केशों का उपाडना वह लोंच नाम मूल गुण है। ( अनगारधर्मामृत/9/86 ); ( क्रियाकलाप/4/26/1 )।
परमात्मप्रकाश/ मू./2/90 केण वि अप्पउ वंचिउ सिरूलुंचिवि छारेण...।90।=जिस किसी ने जिनवर का वेश धारण करके भस्म से शिर के केश लौंच किये।...।90। [यहाँ भस्म के प्रयोग का निर्देश किया गया है।]
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/89/224/21 प्रादक्षिणावर्त: केशश्मश्रुविषय: हस्ताङ्गुलोभिरेव संपाद्य...।=मस्तक, दाढी और मूँछ के केशों का लौंच हाथों की अंगुलियों से करते हैं। दाहिने बाजू से आरम्भकर बायें तरफ आवर्त रूप करते हैं।
- केश लौंच के योग्य उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य अन्तर काल
मू.आ./29विय-तिय-चउक्कमासे लोचो उक्कस्समज्झिमजहण्णो।=केशों का उत्पाटन तीन प्रकार से होता है—उत्तम, मध्यम व जघन्य। दो महीने के अन्तर से उत्कृष्ट, तीन महीने अन्तर से मध्यम, तथा जो चार महीने के अन्तर से किया जाता है वह जघन्य समझना चाहिए। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/89/224/20 ); ( अनगारधर्मामृत/9/86 ); ( क्रियाकलाप/4/26/1 )।
- केशलोंच की आवश्यकता क्यों?
भ./आ./88-89 केसा संसज्जंति हु णिप्पडिकारस्स दुपरिहारा य। सयणादिसु ते जीवा दिट्ठा अगंतुया य तहा।88। जूगाहिं य लिक्खाहिं य बाधिज्जंतस्स संकिलेसो य। संघट्टिज्जंति य ते कंडुयणे तेण सो लोचो।89।=तेल लगाना, अभ्यंग स्नान करना, सुगन्धित पदार्थ से केशों का संस्कार करना, जल से धोना इत्यादि क्रियाएँ न करने से केशों में यूका और लिंखा ये जन्तु उत्पन्न होते हैं, जब इनकी उत्पत्ति केशों में होती हैं, तब इनको वहाँ से निकालना बड़ा कठिन काम है।88। जूं और लिंखाओं से पीड़ित होने पर मन में नवीन पापकर्म का आगमन कराने वाला अशुभ परिणाम—संक्लेश परिणाम हो जाता है। जीवों के द्वारा भक्षण किया जाने पर शरीर में असह्य वेदना होती है, तब मनुष्य मस्तक खुजलाता है। मस्तक खुजलाने से जूं लिंखादिक का परस्पर मर्दन होने से नाश होता है। ऐसे दोषों से बचने के लिए मुनि आगमानुसार केशलौंच करते हैं। पं.वि./1/42 काकिण्या अपि संग्रहो न विहित: क्षौरं यया कार्यते चित्तक्षेपकृदस्त्रमात्रमपि वा तत्सिद्धये नाश्रितम् । हिंसाहेतुरहो जटाद्यपि तथा यूकाभिरप्रार्थनै: वैराग्यादिविवर्धनाय यतिभि: केशेषु लोच: कृत:।42।=मुनिजन कौड़ी मात्र भी धन का संग्रह नहीं करते जिससे कि मुण्डनकार्य कराया जा सके; अथवा उक्त मुण्डन कार्य को सिद्ध करने के लिए वे उस्तरा या कैंची आदि औजार का भी आश्रय नहीं लेते, क्योंकि उनसे चित्त में क्षोभ उत्पन्न होता है। इससे वे जटाओं को धारण कर लेते हों सो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसी अवस्था में उनके उत्पन्न होने वाले जूं आदि जन्तुओं की हिंसा नहीं टाली जा सकती है। इसलिए अयाचन वृत्ति को धारण करने वाले साधुजन वैराग्यादि गुणों को बढ़ाने के लिए बालों का लोच किया करते हैं। - केशलोंच सर्वदा आवश्यक ही नहीं
तिलोयपण्णत्ति/4/23 आदिजिणप्पडिमाओ ताओ जडमउडसेहरिल्लाओ। पडिमोवरिम्मि गंगा अभिसित्तुमणा व सा पउदि।230।=वे आदि जिनेन्द्र की प्रतिमाएँ जटामुकुट रूप शेखर से सहित हैं। इन प्रतिमाओं के ऊपर वह गंगा नदी मानो मन में अभिषेक की भावना को रखकर ही गिरती है।
पद्मपुराण/3/287-288 ततो वर्षार्द्धमात्रं स कायोत्सर्गेण निश्चल:। धराधरेन्द्रवत्तत्स्थौ कृतेन्द्रियसमस्थिति:।287। वातोद्धूता जटास्तस्य रेजुराकुलमूर्तय:। धूमाल्य इव सद्ध्यानवह्लिसक्तस्य कर्मण:।288।=तदनन्तर इन्द्रियों की समान अवस्था धारण करने वाले भगवान् ऋषभदेव छह मास तक कायोत्सर्ग से सुमेरु पर्वत के समान निश्चल खड़े रहे।287। हवा से उड़ी हुई उनकी अस्त-व्यस्त जटाएँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो समीचीन ध्यान रूपी अग्नि से जलते हुए कर्म के धूम की पंक्तियाँ ही हों।288। ( महापुराण/1/9 ); ( महापुराण/18/75-76 ); (पं.वि./13/18)। पद्मपुराण/4/5 मेरुकूटसमाकारभसुरांस: समाहित:। स रेजे भगवान् दीर्घजटाजालहृतांशुमान् ।=उनके कन्धे मेरुपर्वत के शिखर के समान ऊँचे तथा देदीप्यमान थे, उन पर बड़ी-बड़ी जटाएँ किरणों की भाँति सुशोभित हो रही थीं और भगवान् स्वयं बड़ी सावधानी से ईर्यासमिति से नीचे देखते हुए विहार करते थे।5।
महापुराण/36/109 दधान: स्कन्धपर्यन्तलम्बिनी: केशवल्लरी:। सोऽन्वगादूढकृष्णाहिमण्डलं हरिचन्दनम् ।109।=कन्धों पर्यन्त लटकती हुई केशरूपी लताओं को धारण करने वाले वे बाहुबली मुनिराज अनेक काले सर्पों के समूह को धारण करने वाले हरिचन्दन वृक्ष का अनुकरण कर रहे थे।
- भगवान् को जटाएँ नहीं होतीं—दे./चेत्य/1/12।
- भगवान् आदिनाथ ने भी प्रथम बार केशलोंच किया था
महापुराण/20/96 क्षुरक्रियायां तद्योग्यसाधनार्जनरक्षणे। तदपाये च चिन्ता स्यात् केशोत्पाटमितीच्छते।96।=यदि छुरा आदि से बाल बनावाये जायेंगे तो उसके साधन छुरा आदि लेने पड़ेंगे, उनकी रक्षा करनी पड़ेगी, और उनके खो जाने पर चिन्ता होगी ऐसा विचार कर जो भगवान् हाथ से ही केशलोंच करते थे। - रत्नत्रय ही चाहिए केशलोंच से क्या प्रयोजन
भगवती आराधना/90-92 लोचकदे मुंडत्तं मुंडत्ते होइ णिव्वियारत्तं। तो णिव्वियारकरणो पग्गहिददरं परक्कमदि।90। अप्पा दमिदो लोएण होइ ण सुहे य संगमुवयादि। साधीणदा य णिद्दोसदा ये देहे य णिम्ममदा।91। आणक्खिदा य लोचेण अप्पणो होदि धम्मसड्ढा च। उग्गो तवो य लोचो तहेव दुक्खस्स सहणं च।92।=शिरोमुंडन होने पर निर्विकार प्रवृत्ति होती है। उससे वह मुक्ति के उपायभूत रत्नत्रय में खूब उद्यमशील बनता है, अत: लौंच परम्परा रत्नत्रय का कारण है। केशलौंच करने से और दुःख सहन करने की भावना से, मुनिजन आत्मा को स्ववश करते हैं, सुखों में वे आसक्ति नहीं रखते हैं। लौंच करने से स्वाधीनता तथा निर्दोषता गुण मिलता है तथा देहममता नष्ट होती है।90-91। इससे धर्म के चारित्र के ऊपर बड़ी भारी श्रद्धा व्यक्त होती है। लौंच करने वाले मुनि उग्रतप अर्थात् कायक्लेश नाम का तप करके होने वाला दुःख सहते हैं। जो लौंच करते हैं उनको दुःख सहने का अभ्यास हो जाता है।92।
- शरीर को पीड़ा का कारण होने से इससे पापास्रव होना चाहिए—देखें तप - 5।
- केशलोच परीषह नहीं है—देखें परीषह - 3।
पुराणकोष से
साधु के अट्ठाईस मूलगुणों में एक मूलगुण― अपने हाथ से सिर के बालों का लोंच करना । यह सर्वदा आवश्यक नहीं रहा है― वृषभदेव छ: मास कायोत्सर्ग से निश्चल खड़े रहे थे, केश राशि इतनी बढ़ गई थी कि वह हवा में उड़ने लगी थी । बाहुबलि की भी केशराशि कन्धों पर लटकने लगी थी । महापुराण 1.9,18.71-76, 36. 109, 133, पद्मपुराण 3. 289-288, 4.5 इसकी अनुपालना छुरा आदि साधनों से की जा सकती थी किन्तु उनके अर्जन, संग्रह और रक्षण तथा उनकी अप्राप्ति पर उत्पन्न चिन्ता से मुक्त रहना संभव नहीं है ऐसा विचार कर यह क्रिया ही श्रेयस्कर मानी गयी है । पहले यह क्रिया केवल पंचमुष्टि से सम्पन्न होती थी । महापुराण 17.200-201, 20.96