जाति (नामकर्म): Difference between revisions
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षट्खण्डागम 6/1,9-1/ सूत्र 30/67 <span class="PrakritText">जं तं जादिणामकम्मं तं पंचविहं, एइंदियजादिणामकम्मं, वीइंदियजादिणामकम्मं, तीइंदियजादिणामकम्मं, चउरिंदियजादिणामकम्मं, पंचिंदियजादिणामकम्मं चेदि।</span> =<span class="HindiText">जो जाति नामकर्म है वह | षट्खण्डागम 6/1,9-1/ सूत्र 30/67 <span class="PrakritText">जं तं जादिणामकम्मं तं पंचविहं, एइंदियजादिणामकम्मं, वीइंदियजादिणामकम्मं, तीइंदियजादिणामकम्मं, चउरिंदियजादिणामकम्मं, पंचिंदियजादिणामकम्मं चेदि।</span> =<span class="HindiText">जो जाति नामकर्म है वह पाँच प्रकार का है–एकेन्द्रियजातिनामकर्म, द्वीन्द्रियजातिनामकर्म, त्रीन्द्रियजातिनामकर्म, चतुरिन्द्रियजातिनामकर्म और पंचेन्द्रियजातिनामकर्म ( षट्खण्डागम 13/5,5/ सू.103/367); (पं.सं./प्रा/2/4/46/27); ( सर्वार्थसिद्धि/8/11/389/4 ); ( राजवार्तिक/8/11/2/576/11 ); ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/28/16 )। और भी–देखें [[ नाम कर्म ]]–असंख्यात भेद हैं–<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> एकेन्द्रियादि जाति नामकर्मों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> एकेन्द्रियादि जाति नामकर्मों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
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पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/110/175/10 <span class="SanskritText">स्पर्शनेन्द्रियविषयलाम्पट्यपरिणतेन जीवेन यदुपार्जितं स्पर्शनेन्द्रियजनकमेकेन्द्रियजातिनामकर्म। </span>=<span class="HindiText">स्पर्शनेन्द्रिय के विषय की लम्पटतारूप से परिणत होने के द्वारा जीव स्पर्शनेन्द्रिय जनक एकेन्द्रिय जाति नामकर्म | पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/110/175/10 <span class="SanskritText">स्पर्शनेन्द्रियविषयलाम्पट्यपरिणतेन जीवेन यदुपार्जितं स्पर्शनेन्द्रियजनकमेकेन्द्रियजातिनामकर्म। </span>=<span class="HindiText">स्पर्शनेन्द्रिय के विषय की लम्पटतारूप से परिणत होने के द्वारा जीव स्पर्शनेन्द्रिय जनक एकेन्द्रिय जाति नामकर्म बाँधता है।<br /> | ||
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Revision as of 14:21, 20 July 2020
- लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/11/389/3 तासु नरकादिगतिष्वव्यभिचारिणा सादृश्येनैकीकृतोऽर्थात्मा जाति:। तन्निमित्तं जाति नाम। =उन नारकादि गतियों में जिस अव्यभिचारी सादृश्य से एकपने का बोध होता है, वह जाति है। और इसका निमित्त जाति नामकर्म है। ( राजवार्तिक/8/11/2/576/10 ); ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/28/16 )
धवला 6/1,9-1,28/51/3 तदो जत्तो कम्मक्खंधादो जीवाणं भूओ सरिसत्तमुप्पज्जदे सो कम्मक्खंधो कारणे कज्जुवयारादो जादि त्ति भण्णदे।=जिस कर्मस्कन्ध से जीवों के अत्यन्त सदृशता उत्पन्न होती है, वह कर्मस्कन्ध कारण में कार्य के उपचार से ‘जाति’ इस नामावाला कहलाता है।
धवला/13/5,5,101/363/9 एइंदिय-बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदियभावविणव्वत्तयं जं कम्मं तं जादि णामं। =जो कर्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय भाव का बनाने वाला है वह जाति नामकर्म है।
- नामकर्म के भेद
षट्खण्डागम 6/1,9-1/ सूत्र 30/67 जं तं जादिणामकम्मं तं पंचविहं, एइंदियजादिणामकम्मं, वीइंदियजादिणामकम्मं, तीइंदियजादिणामकम्मं, चउरिंदियजादिणामकम्मं, पंचिंदियजादिणामकम्मं चेदि। =जो जाति नामकर्म है वह पाँच प्रकार का है–एकेन्द्रियजातिनामकर्म, द्वीन्द्रियजातिनामकर्म, त्रीन्द्रियजातिनामकर्म, चतुरिन्द्रियजातिनामकर्म और पंचेन्द्रियजातिनामकर्म ( षट्खण्डागम 13/5,5/ सू.103/367); (पं.सं./प्रा/2/4/46/27); ( सर्वार्थसिद्धि/8/11/389/4 ); ( राजवार्तिक/8/11/2/576/11 ); ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/28/16 )। और भी–देखें नाम कर्म –असंख्यात भेद हैं–
- एकेन्द्रियादि जाति नामकर्मों के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/11/389/5 यदुदयात्मा एकेन्द्रिय इति शब्द्यते तदेकेन्द्रियजातिनाम। एवं शेषेष्वपि योज्यम् । =जिसके उदय से आत्मा एकेन्द्रिय कहा जाता है वह एकेन्द्रिय जाति नामकर्म है। इसी प्रकार शेष जातियों में भी लागू कर लेना चाहिए। ( राजवार्तिक/8/11/2/576/13 )।
- जाति नामकर्म के अस्तित्व की सिद्धि
धवला 6/1,9-1,28/51/4 जदि परिणामिओ सरिसपरिणामो णत्थि तो सरिसपरिणामकज्जण्णहाणुववत्तीदो तक्कारणकम्मस्स अत्थित्तं सिज्झेज्ज। किंतु गंगाबालुवादिसु परिणामिओ सरिसपरिणामो उवलब्भदे, तदो अणेयंतियादो सरिसपरिणामो अप्पणो कारणीभूदकम्मस्स अत्थित्तं ण साहेदि त्ति। ण एस दोसो गंगाबालुआणं पुढविकाइयणामकम्मोदएण सरिसपरिणामत्तब्भुवगमादो। ...किं च जदि जीवपडिग्गहिदपोग्गलक्खंदसरिसपरिणामो पारिणामिओ वि अत्थि, तो हेऊ अणेयंतिओ होज्ज। ण च एवं, तहाणुवलंभा। जदि जीवाणं सरिसपरिणामो कम्मायत्तो ण होज्ज, तो चउरिंदिया हय-हत्थि-वय-वग्घ-छवल्लादि-संठाणा होज्ज, पंचिदिया वि भमर-मक्कुण-सलहिंदगोव-खुल्लक्ख-रुक्खसंठाणा होज्ज। ण चेवमणुवलंभा पडिणियदसरिसपरिणामेसु अवट्ठिदरुक्खादीणमुवलंभा च। =प्रश्न–यदि पारिणामिक अर्थात् परिणमन कराने वाले कारण के सदृश परिणाम नहीं होता है, तो सदृश परिणामरूप कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता, इस अन्यथानुपपत्तिरूप हेतु से उसके कारणभूत कर्म का अस्तित्व भले ही सिद्ध होवे। किन्तु गंगा नदी की बालुका आदि में पारिणामिक (स्वाभाविक) सदृश परिणाम पाया जाता है, इसलिए हेतु के अनैकान्तिक होने से सदृश परिणाम अपने कारणीभूत कर्म के अस्तित्व को नहीं सिद्ध करता। उत्तर–यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, गंगानदी की बालुका के (भी) पृथिवीकायिक नामकर्म के उदय से सदृश परिणामता मानी गयी है।...दूसरी बात यह है, कि यदि जीव के द्वारा ग्रहण किये गये पुद्गल-स्कन्धों का सदृशपरिणाम पारिणामिक भी हो, तो हेतु अनैकान्तिक होवे। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि, उस प्रकार का अनुपलम्भ है। यदि जीवों का सदृश परिणाम कर्म के अधीन न होवे, तो चतुरिन्द्रिय जीव घोड़ा, हाथी, भेड़िया, बाघ और छवल्ल आदि के आकार वाले हो जायेंगे। तथा पंचेन्द्रिय जीव भी भ्रमर, मत्कुण, शलभ, इन्द्रगोप, क्षुल्लक, अक्ष और वृक्ष आदि के आकार वाले हो जायेंगे। किन्तु इस प्रकार है नहीं, क्योंकि, इस प्रकार के वे पाये नहीं जाते तथा प्रतिनियत सदृश परिणामों में अवस्थित वृक्ष आदि पाये जाते हैं।
धवला 13/5,5/101/363/10 जादी णाम सरिसप्पच्चयगेज्झा। ण च तणतरुवरेसु सरिसत्तमत्थि, दोवंचिलियासु (?) सरिसभावाणुवलंभादो ? ण जलाहारग्गहणेण दोण्णं पि समाणत्तदंसणादो।= प्रश्न–जाति तो सदृशप्रत्यय से ग्राह्य है, परन्तु तृण और वृक्षों में समानता है नहीं ? उत्तर–नहीं, क्योंकि जल व आहार ग्रहण करने की अपेक्षा दोनों में ही समानता देखी जाती है।
- एकेन्द्रिय जाति के बन्धयोग्य परिणाम
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/110/175/10 स्पर्शनेन्द्रियविषयलाम्पट्यपरिणतेन जीवेन यदुपार्जितं स्पर्शनेन्द्रियजनकमेकेन्द्रियजातिनामकर्म। =स्पर्शनेन्द्रिय के विषय की लम्पटतारूप से परिणत होने के द्वारा जीव स्पर्शनेन्द्रिय जनक एकेन्द्रिय जाति नामकर्म बाँधता है।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- जाति नामकर्म की बन्ध उदय सत्त्वरूप प्ररूपणाएँ–देखें वह वह नाम ।