दिव्यध्वनि: Difference between revisions
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<p class="HindiText">केवलज्ञान होने के पश्चात् अर्हंत भगवान् के सर्वांग से एक विचित्र गर्जना रूप ॐकारध्वनि खिरती है जिसे दिव्यध्वनि कहते हैं। भगवान् की इच्छा न होते हुए भी भव्य जीवों के पुण्य से सहज खिरती है पर गणधर देव की अनुपस्थिति में नहीं खिरती। इसके सम्बन्ध में अनेकों मतभेद हैं जैसे कि-यह मुख से होती है, मुख से नहीं होती, भाषात्मक होती है, भाषात्मक नहीं होती इत्यादि। उन सबका समन्वय | <p class="HindiText">केवलज्ञान होने के पश्चात् अर्हंत भगवान् के सर्वांग से एक विचित्र गर्जना रूप ॐकारध्वनि खिरती है जिसे दिव्यध्वनि कहते हैं। भगवान् की इच्छा न होते हुए भी भव्य जीवों के पुण्य से सहज खिरती है पर गणधर देव की अनुपस्थिति में नहीं खिरती। इसके सम्बन्ध में अनेकों मतभेद हैं जैसे कि-यह मुख से होती है, मुख से नहीं होती, भाषात्मक होती है, भाषात्मक नहीं होती इत्यादि। उन सबका समन्वय यहाँ किया गया है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> दिव्यध्वनि सामान्य निर्देश</strong><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1">दिव्यध्वनि सामान्य निर्देश</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">दिव्यध्वनि देवकृत नहीं होती―<br> | ||
</strong> हरिवंशपुराण/3/16-38 केवल भावार्थ–वहाँ इसके दो भेद कर दिये गये हैं–एक दिव्यध्वनि दूसरी सर्वमागधी भाषा। उनमें से दिव्यध्वनि को प्रातिहार्यों में और सर्वमागधी भाषा को देवकृत अतिशयों में गिनाया है। और भी देखो दिव्यध्वनि/2/7। </span></li> | </strong> हरिवंशपुराण/3/16-38 केवल भावार्थ–वहाँ इसके दो भेद कर दिये गये हैं–एक दिव्यध्वनि दूसरी सर्वमागधी भाषा। उनमें से दिव्यध्वनि को प्रातिहार्यों में और सर्वमागधी भाषा को देवकृत अतिशयों में गिनाया है। और भी देखो दिव्यध्वनि/2/7। </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> दिव्यध्वनि इच्छापूर्वक नहीं होती</strong></span><br> प्रवचनसार/44 <span class="PrakritGatha">ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं। अरहंताणं काले मायाचारो व्व इत्थीणं।44।</span> =<span class="HindiText">उन अरहंत भगवन्तों के उस समय खड़े रहना, बैठना, विहार और धर्मोपदेश स्त्रियों के मायाचार की | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> दिव्यध्वनि इच्छापूर्वक नहीं होती</strong></span><br> प्रवचनसार/44 <span class="PrakritGatha">ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं। अरहंताणं काले मायाचारो व्व इत्थीणं।44।</span> =<span class="HindiText">उन अरहंत भगवन्तों के उस समय खड़े रहना, बैठना, विहार और धर्मोपदेश स्त्रियों के मायाचार की भाँति स्वाभाविक ही प्रयत्न के बिना ही होता है। ( स्वयम्भू स्तोत्र/ मू./74); ( समाधिशतक/ मू./2)।</span><br> | ||
महापुराण/24/84 <span class="SanskritText">विवक्षामन्तरेणास्य विविक्तासीत् सरस्वती। </span>=<span class="HindiText">भगवान् की वह वाणी बोलने की इच्छा के बिना ही प्रकट हो रही थी। ( महापुराण/1/186 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/174 )। </span></li> | महापुराण/24/84 <span class="SanskritText">विवक्षामन्तरेणास्य विविक्तासीत् सरस्वती। </span>=<span class="HindiText">भगवान् की वह वाणी बोलने की इच्छा के बिना ही प्रकट हो रही थी। ( महापुराण/1/186 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/174 )। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.3" id="1.3"><strong> इच्छा के अभाव में भी दिव्यध्वनि कैसे सम्भव ह</strong></span><strong>ै </strong><br>अष्टसहस्री/पृ.73<span class="SanskritText"> निर्णयसागर बम्बई [इच्छामन्तरेण वाक् प्रवृत्तिर्न संभवति ?] न च ‘इच्छामन्तरेण वाक्प्रवृत्तिर्न संभवति’ इति वाच्यं नियमाभावात् । नियमाभ्युपगमे सुषुप्त्यादावपि निरभिप्रायप्रवृत्तिर्न स्यात् । न हि सुषुप्तौ गोत्रस्खलनादौ वाग्व्यवहारादिहेतुरिच्छास्ति ...चैतन्यकरणपाटवयोरेव साधकतमत्वम् । ...(इच्छा वाग्प्रवृत्तिर्हेतुर्न) तत्प्रकर्षापकर्षानुविधानाभावात् बुद्धयादिवत् । न हि यथा बुद्धे: शक्तेश्चाप्रकर्षे वाण्या: प्रकर्षोऽपत्कर्ष: प्रतीयते तथा दोषजाते: (इच्छाया:) अपि, तत्प्रकर्षे वाचाऽपकर्षात् तदपकर्षे एव तत्प्रकर्षात् । यतो वक्तुर्दोषजाति: (इच्छा) अनुमीयते। ...विज्ञान गुणदोषाभ्यामेव वाग्वृत्ते र्गुणदोषवत्ता व्यवतिष्ठते न पुनर्विवक्षातो दोषजातेर्वा, तदुक्तम्–विज्ञानगुणदोषाभ्यां वाग्वृत्तेर्गुणदोषत:। वाञ्छन्तो न च वक्तार: शास्त्राणां मन्दबुद्धय:। न्यायविनिश्चय/354-355 विवक्षामन्तरेणापि वाग्वृत्तिर्जातु वीक्ष्यते। वाञ्छन्तो न वक्तार: शास्त्राणां मन्दबुद्धय:।354। प्रज्ञा येषु पटीयस्य: प्रायो वचनहेतव:। विवक्षानिरपेक्षास्ते पुरुषार्थं प्रचक्षते।355। </span>=<span class="HindiText">‘इच्छा के बिना वचन प्रवृत्ति नहीं होती’ ऐसा नहीं कहना चाहये क्योंकि इस प्रकार के नियम का अभाव है। यदि ऐसा नियम स्वीकार करते हैं तो सुषुप्ति आदि में बिना अभिप्राय के प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिये। सुषुप्ति में या गोत्र स्खलन आदि में वचन व्यवहार की हेतु इच्छा नहीं है। चैतन्य और इन्द्रियों की पटुता ही उसमें प्रमुख कारण है इच्छा वचन प्रवृत्ति का हेतु नहीं है। उसके प्रकर्ष और अपकर्ष के साथ वचन प्रवृत्ति का प्रकर्ष और अपकर्ष नहीं देखा जाता जैसा बुद्धि के साथ देखा जाता है। जैसे बुद्धि और शक्ति का प्रकर्ष होने पर वाणी का प्रकर्ष और अपकर्ष होने पर अपकर्ष देखा जाता है उस प्रकार दोष जाति का नहीं। दोष जाति का प्रकर्ष होने पर वचन का अपकर्ष देखा जाता है दोष जाति का अपकर्ष होने पर ही वचन प्रवृत्ति का प्रकर्ष देखा जाता है इसलिए वचन प्रवृत्ति से दोष जाति का अनुमान नहीं किया जा सकता। विज्ञान के गुण और दोषों से ही वचन प्रवृत्ति की गुण दोषता व्यवस्थित होती है, विवक्षा या दोष जाति से नहीं। कहा है–विज्ञान के गुण और दोष द्वारा वचन प्रवृत्ति में गुण और दोष होते हैं। इच्छा रखते हुए भी मन्दबुद्धि वाले शास्त्रों के वक्ता नहीं होते हैं। कभी विवक्षा (बोलने की इच्छा) के बिना भी वचन की प्रवृत्ति देखी जाती है। इच्छा रखते हुए भी मन्दबुद्धि वाले शास्त्रों के वक्ता नहीं होते हैं। जिनमें वचन की कारण कुशल प्रज्ञा होती है वे प्राय: विवक्षा रहित होकर भी पुरुषार्थ का उपदेश देते हैं।</span><br> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/44 <span class="SanskritText">अपि चाविरुद्धमेतदम्भोधरदृष्टान्तात् । यथा खल्वम्भोधराकारपरिणतानां पुद्गलानां गमनमवस्थानं गर्जनमम्बुवर्षं च पुरुषप्रयत्नमन्तरेणापि दृश्यन्ते तथा केवलिनां स्थानादयोऽबुद्धिपूर्वका एव दृश्यन्ते। </span>=<span class="HindiText">यह (प्रयत्न के बिना ही विहारादिका का होना) बादल के दृष्टान्त से अविरुद्ध है। जैसे बादल के आकार रूप परिणमित पुद्गलों का गमन, स्थिरता, गर्जन और जलवृष्टि पुरुष प्रयत्न के बिना भी देखी जाती है उसी प्रकार केवली भगवान् के खड़े रहना इत्यादि अबुद्धिपूर्वक ही (इच्छा के बिना ही) देखा जाता है। </span></li> | <li><span class="HindiText" name="1.3" id="1.3"><strong> इच्छा के अभाव में भी दिव्यध्वनि कैसे सम्भव ह</strong></span><strong>ै </strong><br>अष्टसहस्री/पृ.73<span class="SanskritText"> निर्णयसागर बम्बई [इच्छामन्तरेण वाक् प्रवृत्तिर्न संभवति ?] न च ‘इच्छामन्तरेण वाक्प्रवृत्तिर्न संभवति’ इति वाच्यं नियमाभावात् । नियमाभ्युपगमे सुषुप्त्यादावपि निरभिप्रायप्रवृत्तिर्न स्यात् । न हि सुषुप्तौ गोत्रस्खलनादौ वाग्व्यवहारादिहेतुरिच्छास्ति ...चैतन्यकरणपाटवयोरेव साधकतमत्वम् । ...(इच्छा वाग्प्रवृत्तिर्हेतुर्न) तत्प्रकर्षापकर्षानुविधानाभावात् बुद्धयादिवत् । न हि यथा बुद्धे: शक्तेश्चाप्रकर्षे वाण्या: प्रकर्षोऽपत्कर्ष: प्रतीयते तथा दोषजाते: (इच्छाया:) अपि, तत्प्रकर्षे वाचाऽपकर्षात् तदपकर्षे एव तत्प्रकर्षात् । यतो वक्तुर्दोषजाति: (इच्छा) अनुमीयते। ...विज्ञान गुणदोषाभ्यामेव वाग्वृत्ते र्गुणदोषवत्ता व्यवतिष्ठते न पुनर्विवक्षातो दोषजातेर्वा, तदुक्तम्–विज्ञानगुणदोषाभ्यां वाग्वृत्तेर्गुणदोषत:। वाञ्छन्तो न च वक्तार: शास्त्राणां मन्दबुद्धय:। न्यायविनिश्चय/354-355 विवक्षामन्तरेणापि वाग्वृत्तिर्जातु वीक्ष्यते। वाञ्छन्तो न वक्तार: शास्त्राणां मन्दबुद्धय:।354। प्रज्ञा येषु पटीयस्य: प्रायो वचनहेतव:। विवक्षानिरपेक्षास्ते पुरुषार्थं प्रचक्षते।355। </span>=<span class="HindiText">‘इच्छा के बिना वचन प्रवृत्ति नहीं होती’ ऐसा नहीं कहना चाहये क्योंकि इस प्रकार के नियम का अभाव है। यदि ऐसा नियम स्वीकार करते हैं तो सुषुप्ति आदि में बिना अभिप्राय के प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिये। सुषुप्ति में या गोत्र स्खलन आदि में वचन व्यवहार की हेतु इच्छा नहीं है। चैतन्य और इन्द्रियों की पटुता ही उसमें प्रमुख कारण है इच्छा वचन प्रवृत्ति का हेतु नहीं है। उसके प्रकर्ष और अपकर्ष के साथ वचन प्रवृत्ति का प्रकर्ष और अपकर्ष नहीं देखा जाता जैसा बुद्धि के साथ देखा जाता है। जैसे बुद्धि और शक्ति का प्रकर्ष होने पर वाणी का प्रकर्ष और अपकर्ष होने पर अपकर्ष देखा जाता है उस प्रकार दोष जाति का नहीं। दोष जाति का प्रकर्ष होने पर वचन का अपकर्ष देखा जाता है दोष जाति का अपकर्ष होने पर ही वचन प्रवृत्ति का प्रकर्ष देखा जाता है इसलिए वचन प्रवृत्ति से दोष जाति का अनुमान नहीं किया जा सकता। विज्ञान के गुण और दोषों से ही वचन प्रवृत्ति की गुण दोषता व्यवस्थित होती है, विवक्षा या दोष जाति से नहीं। कहा है–विज्ञान के गुण और दोष द्वारा वचन प्रवृत्ति में गुण और दोष होते हैं। इच्छा रखते हुए भी मन्दबुद्धि वाले शास्त्रों के वक्ता नहीं होते हैं। कभी विवक्षा (बोलने की इच्छा) के बिना भी वचन की प्रवृत्ति देखी जाती है। इच्छा रखते हुए भी मन्दबुद्धि वाले शास्त्रों के वक्ता नहीं होते हैं। जिनमें वचन की कारण कुशल प्रज्ञा होती है वे प्राय: विवक्षा रहित होकर भी पुरुषार्थ का उपदेश देते हैं।</span><br> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/44 <span class="SanskritText">अपि चाविरुद्धमेतदम्भोधरदृष्टान्तात् । यथा खल्वम्भोधराकारपरिणतानां पुद्गलानां गमनमवस्थानं गर्जनमम्बुवर्षं च पुरुषप्रयत्नमन्तरेणापि दृश्यन्ते तथा केवलिनां स्थानादयोऽबुद्धिपूर्वका एव दृश्यन्ते। </span>=<span class="HindiText">यह (प्रयत्न के बिना ही विहारादिका का होना) बादल के दृष्टान्त से अविरुद्ध है। जैसे बादल के आकार रूप परिणमित पुद्गलों का गमन, स्थिरता, गर्जन और जलवृष्टि पुरुष प्रयत्न के बिना भी देखी जाती है उसी प्रकार केवली भगवान् के खड़े रहना इत्यादि अबुद्धिपूर्वक ही (इच्छा के बिना ही) देखा जाता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.4" id="1.4"><strong> केवलज्ञानियों को ही होती है</strong> </span><br> तिलोयपण्णत्ति/1/74 <span class="PrakritGatha">जादे अणंतणाणे णट्ठे छदुमट्ठिदियम्मि णाणम्मि। णवविहपदत्थसारा दिव्वझुणी कहइ सुत्तत्थं।74।</span> =<span class="HindiText">अनन्तज्ञान अर्थात् केवलज्ञान की उत्पत्ति और छद्मस्थ अवस्था में रहने वाले मति, श्रुत, अवधि तथा मन:पर्यय रूप चार ज्ञानों का अभाव होने पर नौ प्रकार के पदार्थों के सार को विषय करने वाली दिव्यध्वनि सूत्रार्थ को कहती है।74। (ति.व./9/12); ( धवला/1/1,1,1/ गा.60/64)। </span></li> | <li><span class="HindiText" name="1.4" id="1.4"><strong> केवलज्ञानियों को ही होती है</strong> </span><br> तिलोयपण्णत्ति/1/74 <span class="PrakritGatha">जादे अणंतणाणे णट्ठे छदुमट्ठिदियम्मि णाणम्मि। णवविहपदत्थसारा दिव्वझुणी कहइ सुत्तत्थं।74।</span> =<span class="HindiText">अनन्तज्ञान अर्थात् केवलज्ञान की उत्पत्ति और छद्मस्थ अवस्था में रहने वाले मति, श्रुत, अवधि तथा मन:पर्यय रूप चार ज्ञानों का अभाव होने पर नौ प्रकार के पदार्थों के सार को विषय करने वाली दिव्यध्वनि सूत्रार्थ को कहती है।74। (ति.व./9/12); ( धवला/1/1,1,1/ गा.60/64)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="1.5" id="1.5">3<strong> सामान्य केवलियों के भी हानी सम्भव है</strong></span><br> म.प्र./36/203<span class="SanskritGatha"> इत्थं स विश्वविद्विश्वं प्रीणयन् स्ववचोऽमृतै:। कैलासमचलं प्रापत् पूतं संनिधिना गुरो:।203।</span> =<span class="HindiText">इस प्रकार समस्त पदार्थों को जानने वाले बाहुबली अपने वचनरूपी अमृत के द्वारा समस्त संसार को सन्तुष्ट करते हुए, पूज्य पिता भगवान् वृषभदेव के सामीप्य से पवित्र हुए कैलास पर्वत पर जा | <li><span class="HindiText" name="1.5" id="1.5">3<strong> सामान्य केवलियों के भी हानी सम्भव है</strong></span><br> म.प्र./36/203<span class="SanskritGatha"> इत्थं स विश्वविद्विश्वं प्रीणयन् स्ववचोऽमृतै:। कैलासमचलं प्रापत् पूतं संनिधिना गुरो:।203।</span> =<span class="HindiText">इस प्रकार समस्त पदार्थों को जानने वाले बाहुबली अपने वचनरूपी अमृत के द्वारा समस्त संसार को सन्तुष्ट करते हुए, पूज्य पिता भगवान् वृषभदेव के सामीप्य से पवित्र हुए कैलास पर्वत पर जा पहुँचे।203। म</span>.पु./47/398 वि<span class="SanskritText">हृत्य सुचिरं विनेयजनतोपकृत्स्वायुषो, मुहूर्तपरमास्थितौ विहितसत्क्रियौ विच्युतौ।398। </span>=<span class="HindiText">चिरकाल तक विहार कर जिन्होंने शिक्षा देने योग्य जनसमूह का भारी कल्याण किया है ऐसे भरत महाराज ने अपनी आयु की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति रहने पर योग निरोध किया।398।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText" name="2.11" id="2.11"><strong> दिव्यध्वनि अर्थ निरूपक है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.11" id="2.11"><strong> दिव्यध्वनि अर्थ निरूपक है</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/4/905 <span class="PrakritGatha">छद्दव्वणवपयत्थे पंचट्ठीकायसत्ततच्चाणि। णाणाविहहेदूहिं दिव्वझूणी भणइ भव्वाणं।905।</span> =<span class="HindiText">यह दिव्यध्वनि भव्य जीवों को छह द्रव्य, नौ पदार्थ, | तिलोयपण्णत्ति/4/905 <span class="PrakritGatha">छद्दव्वणवपयत्थे पंचट्ठीकायसत्ततच्चाणि। णाणाविहहेदूहिं दिव्वझूणी भणइ भव्वाणं।905।</span> =<span class="HindiText">यह दिव्यध्वनि भव्य जीवों को छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्वों का नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरूपण करती है।905। ( कषायपाहुड़/1/1,1/96/126/2 )</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/2/8/6 <span class="SanskritText">स्पष्टं तत्तदभीष्टवस्तुकथनम् । </span>=<span class="HindiText">जो दिव्यध्वनि उस उसकी अभीष्ट वस्तु का स्पष्ट कथन करने वाली है।<br /> | पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/2/8/6 <span class="SanskritText">स्पष्टं तत्तदभीष्टवस्तुकथनम् । </span>=<span class="HindiText">जो दिव्यध्वनि उस उसकी अभीष्ट वस्तु का स्पष्ट कथन करने वाली है।<br /> | ||
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Revision as of 14:23, 20 July 2020
केवलज्ञान होने के पश्चात् अर्हंत भगवान् के सर्वांग से एक विचित्र गर्जना रूप ॐकारध्वनि खिरती है जिसे दिव्यध्वनि कहते हैं। भगवान् की इच्छा न होते हुए भी भव्य जीवों के पुण्य से सहज खिरती है पर गणधर देव की अनुपस्थिति में नहीं खिरती। इसके सम्बन्ध में अनेकों मतभेद हैं जैसे कि-यह मुख से होती है, मुख से नहीं होती, भाषात्मक होती है, भाषात्मक नहीं होती इत्यादि। उन सबका समन्वय यहाँ किया गया है।
- दिव्यध्वनि सामान्य निर्देश
- दिव्यध्वनि देवकृत नहीं होती―
हरिवंशपुराण/3/16-38 केवल भावार्थ–वहाँ इसके दो भेद कर दिये गये हैं–एक दिव्यध्वनि दूसरी सर्वमागधी भाषा। उनमें से दिव्यध्वनि को प्रातिहार्यों में और सर्वमागधी भाषा को देवकृत अतिशयों में गिनाया है। और भी देखो दिव्यध्वनि/2/7।
- दिव्यध्वनि कथंचित् देवकृत है–देखें दिव्यध्वनि - 2.13
- दिव्यध्वनि इच्छापूर्वक नहीं होती
प्रवचनसार/44 ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं। अरहंताणं काले मायाचारो व्व इत्थीणं।44। =उन अरहंत भगवन्तों के उस समय खड़े रहना, बैठना, विहार और धर्मोपदेश स्त्रियों के मायाचार की भाँति स्वाभाविक ही प्रयत्न के बिना ही होता है। ( स्वयम्भू स्तोत्र/ मू./74); ( समाधिशतक/ मू./2)।
महापुराण/24/84 विवक्षामन्तरेणास्य विविक्तासीत् सरस्वती। =भगवान् की वह वाणी बोलने की इच्छा के बिना ही प्रकट हो रही थी। ( महापुराण/1/186 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/174 )। - इच्छा के अभाव में भी दिव्यध्वनि कैसे सम्भव है
अष्टसहस्री/पृ.73 निर्णयसागर बम्बई [इच्छामन्तरेण वाक् प्रवृत्तिर्न संभवति ?] न च ‘इच्छामन्तरेण वाक्प्रवृत्तिर्न संभवति’ इति वाच्यं नियमाभावात् । नियमाभ्युपगमे सुषुप्त्यादावपि निरभिप्रायप्रवृत्तिर्न स्यात् । न हि सुषुप्तौ गोत्रस्खलनादौ वाग्व्यवहारादिहेतुरिच्छास्ति ...चैतन्यकरणपाटवयोरेव साधकतमत्वम् । ...(इच्छा वाग्प्रवृत्तिर्हेतुर्न) तत्प्रकर्षापकर्षानुविधानाभावात् बुद्धयादिवत् । न हि यथा बुद्धे: शक्तेश्चाप्रकर्षे वाण्या: प्रकर्षोऽपत्कर्ष: प्रतीयते तथा दोषजाते: (इच्छाया:) अपि, तत्प्रकर्षे वाचाऽपकर्षात् तदपकर्षे एव तत्प्रकर्षात् । यतो वक्तुर्दोषजाति: (इच्छा) अनुमीयते। ...विज्ञान गुणदोषाभ्यामेव वाग्वृत्ते र्गुणदोषवत्ता व्यवतिष्ठते न पुनर्विवक्षातो दोषजातेर्वा, तदुक्तम्–विज्ञानगुणदोषाभ्यां वाग्वृत्तेर्गुणदोषत:। वाञ्छन्तो न च वक्तार: शास्त्राणां मन्दबुद्धय:। न्यायविनिश्चय/354-355 विवक्षामन्तरेणापि वाग्वृत्तिर्जातु वीक्ष्यते। वाञ्छन्तो न वक्तार: शास्त्राणां मन्दबुद्धय:।354। प्रज्ञा येषु पटीयस्य: प्रायो वचनहेतव:। विवक्षानिरपेक्षास्ते पुरुषार्थं प्रचक्षते।355। =‘इच्छा के बिना वचन प्रवृत्ति नहीं होती’ ऐसा नहीं कहना चाहये क्योंकि इस प्रकार के नियम का अभाव है। यदि ऐसा नियम स्वीकार करते हैं तो सुषुप्ति आदि में बिना अभिप्राय के प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिये। सुषुप्ति में या गोत्र स्खलन आदि में वचन व्यवहार की हेतु इच्छा नहीं है। चैतन्य और इन्द्रियों की पटुता ही उसमें प्रमुख कारण है इच्छा वचन प्रवृत्ति का हेतु नहीं है। उसके प्रकर्ष और अपकर्ष के साथ वचन प्रवृत्ति का प्रकर्ष और अपकर्ष नहीं देखा जाता जैसा बुद्धि के साथ देखा जाता है। जैसे बुद्धि और शक्ति का प्रकर्ष होने पर वाणी का प्रकर्ष और अपकर्ष होने पर अपकर्ष देखा जाता है उस प्रकार दोष जाति का नहीं। दोष जाति का प्रकर्ष होने पर वचन का अपकर्ष देखा जाता है दोष जाति का अपकर्ष होने पर ही वचन प्रवृत्ति का प्रकर्ष देखा जाता है इसलिए वचन प्रवृत्ति से दोष जाति का अनुमान नहीं किया जा सकता। विज्ञान के गुण और दोषों से ही वचन प्रवृत्ति की गुण दोषता व्यवस्थित होती है, विवक्षा या दोष जाति से नहीं। कहा है–विज्ञान के गुण और दोष द्वारा वचन प्रवृत्ति में गुण और दोष होते हैं। इच्छा रखते हुए भी मन्दबुद्धि वाले शास्त्रों के वक्ता नहीं होते हैं। कभी विवक्षा (बोलने की इच्छा) के बिना भी वचन की प्रवृत्ति देखी जाती है। इच्छा रखते हुए भी मन्दबुद्धि वाले शास्त्रों के वक्ता नहीं होते हैं। जिनमें वचन की कारण कुशल प्रज्ञा होती है वे प्राय: विवक्षा रहित होकर भी पुरुषार्थ का उपदेश देते हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/44 अपि चाविरुद्धमेतदम्भोधरदृष्टान्तात् । यथा खल्वम्भोधराकारपरिणतानां पुद्गलानां गमनमवस्थानं गर्जनमम्बुवर्षं च पुरुषप्रयत्नमन्तरेणापि दृश्यन्ते तथा केवलिनां स्थानादयोऽबुद्धिपूर्वका एव दृश्यन्ते। =यह (प्रयत्न के बिना ही विहारादिका का होना) बादल के दृष्टान्त से अविरुद्ध है। जैसे बादल के आकार रूप परिणमित पुद्गलों का गमन, स्थिरता, गर्जन और जलवृष्टि पुरुष प्रयत्न के बिना भी देखी जाती है उसी प्रकार केवली भगवान् के खड़े रहना इत्यादि अबुद्धिपूर्वक ही (इच्छा के बिना ही) देखा जाता है। - केवलज्ञानियों को ही होती है
तिलोयपण्णत्ति/1/74 जादे अणंतणाणे णट्ठे छदुमट्ठिदियम्मि णाणम्मि। णवविहपदत्थसारा दिव्वझुणी कहइ सुत्तत्थं।74। =अनन्तज्ञान अर्थात् केवलज्ञान की उत्पत्ति और छद्मस्थ अवस्था में रहने वाले मति, श्रुत, अवधि तथा मन:पर्यय रूप चार ज्ञानों का अभाव होने पर नौ प्रकार के पदार्थों के सार को विषय करने वाली दिव्यध्वनि सूत्रार्थ को कहती है।74। (ति.व./9/12); ( धवला/1/1,1,1/ गा.60/64)। - 3 सामान्य केवलियों के भी हानी सम्भव है
म.प्र./36/203 इत्थं स विश्वविद्विश्वं प्रीणयन् स्ववचोऽमृतै:। कैलासमचलं प्रापत् पूतं संनिधिना गुरो:।203। =इस प्रकार समस्त पदार्थों को जानने वाले बाहुबली अपने वचनरूपी अमृत के द्वारा समस्त संसार को सन्तुष्ट करते हुए, पूज्य पिता भगवान् वृषभदेव के सामीप्य से पवित्र हुए कैलास पर्वत पर जा पहुँचे।203। म.पु./47/398 विहृत्य सुचिरं विनेयजनतोपकृत्स्वायुषो, मुहूर्तपरमास्थितौ विहितसत्क्रियौ विच्युतौ।398। =चिरकाल तक विहार कर जिन्होंने शिक्षा देने योग्य जनसमूह का भारी कल्याण किया है ऐसे भरत महाराज ने अपनी आयु की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति रहने पर योग निरोध किया।398।
- अन्य केवलियों का उपदेश समवशरण से बाहर होता है।–देखें समवशरण ।
- मन के अभाव में वचन कैसे सम्भव है
धवला/1/1,1,50/285/2 असतो मनस: कथं वचनद्वितयसमुत्पत्तिरिति चेन्न, उपचारतस्तयोस्तत: समुत्पत्तिविधानात् । =प्रश्न–जबकि केवली के यथार्थ में अर्थात् क्षायोपशमिक मन नहीं पाया जाता है, तो उससे सत्य और अनुभय इन दो वचनों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, उपचार से मन के द्वारा इन दोनों प्रकार के वचनों की उत्पत्ति का विधान किया गया है।
धवला/1/1,1,122/368/3 तत्र मनसोऽभावे तत्कार्यस्य वचसोऽपि न सत्त्वमिति चेन्न, तस्य ज्ञानकार्यत्वात् ।=प्रश्न–अरहंत परमेष्ठी में मन का अभाव होने पर मन के कार्यरूप वचन का सद्भाव भी नहीं पाया जा सकता ? उत्तर–नहीं, क्योंकि वचनज्ञान के कार्य हैं, मन के नहीं। - अक्रम ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति कैसे सम्भव है
धवला/1/1,1,122/368/4 अक्रमज्ञानात्कथं क्रमवतां वचनानामुत्पत्तिरिति चेन्न, घटविषयक्रमज्ञानसमवेतकुम्भकाराद्धटस्य क्रमेणोत्पत्त्युपलम्भात् । =प्रश्न–अक्रम ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि घटविषयक अक्रम ज्ञान से युक्त कुम्भकार द्वारा क्रम से घट की उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिए अक्रमवर्ती ज्ञान से क्रमिक वचनों की उत्पत्ति मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है।
- सर्वज्ञत्व के साथ दिव्यध्वनि का विरोध नहीं है–देखें केवलज्ञान - 5.5।
- दिव्यध्वनि किस कारण से होती है
का./ता.वृ./1/6/15 वीतरागसर्वज्ञदिव्यध्वनिशास्त्रे प्रवृत्ते किं कारणम् । भव्यपुण्यप्रेरणात् । =प्रश्न–वीतराग सर्वज्ञ के दिव्यध्वनि रूप शास्त्र की प्रवृत्ति किस कारण से हुई ? उत्तर–भव्य जीवों के पुण्य की प्रेरणा से।
- गणधर के बिना दिव्यध्वनि नहीं खिरती
धवला 9/4,1,44/120/10 दिव्वज्झुणीए किमट्ठं तत्थापउत्ती। =गणधर का अभाव होने से...दिव्यध्वनि की प्रवृत्ति नहीं (होती है)। देखें नि:शंकित - 3 (गणधर के संशय को दूर करने के लिए होती है)।
- जिनपादमूल में दीक्षित मुनि की उपस्थिति में भी होती है
कषायपाहुड़ 1/1-1/76/3 सगपादमूलम्मि पडिवण्णमहव्वयं मोत्तूण अण्णमुद्दिस्सिय दिव्वज्झुणी किण्ण पयट्टदे। साहावियादो। =प्रश्न–जिसने अपने पादमूल में महाव्रत स्वीकार किया है, ऐसे पुरुष को छोड़कर अन्य के निमित्त से दिव्यध्वनि क्यों नहीं खिरती ? उत्तर–ऐसा ही स्वभाव है। ( धवला 9/4,1,44/121/2 )।
- दिव्यध्वनि का समय, अवस्थान अन्तर व निमित्तादि
तिलोयपण्णत्ति/4/903-904 पठादीए अक्खलिओ संझत्तिदय णवमुहुत्ताणि। णिस्सरदि णिरुवमाणो दिव्वझुणी जाव जोयणयं।903। सेसेसुं समएसुं गणहरदेविंदचक्कवट्टीणं। पण्हाणुरुवमत्थं दिव्वझुणी अ सत्तभंगीहिं।904। =भगवान् जिनेन्द्र की स्वभावत: अस्खलित और अनुपम दिव्यध्वनि तीनों संध्याकालों में नव मुहूर्त तक निकलती है और एक योजन पर्यन्त जाती है। इसके अतिरिक्त गणधर देव इन्द्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ वह दिव्यध्वनि शेष समयों में भी निकलती है।903-904। ( कषायपाहुड़ 1/1,1/96/126/2 )।
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/356/761/10 तीर्थङ्करस्य पूर्वाह्णमध्याह्नापराह्णार्धरात्रेषु षट्षट्घटिकाकालपर्यन्तं द्वादशगणसभामध्ये स्वभावतो दिव्यध्वनिरुद्गच्छति अन्यकालेऽपि गणधरशक्रचक्रधरप्रश्नानन्तरं यावद्भवति एवं समुद्भूतो दिव्यध्वनि:। =तीर्थंकरकै पूर्वाह्न, मध्याह्न, अपराह्ण अर्धरात्रि काल में छह-छह घड़ी पर्यन्त बारह सभा के मध्य सहज ही दिव्यध्वनि होय है। बहुरि गणधर इन्द्र चक्रवर्ती इनके प्रश्न करने तैं और काल विषैं भी दिव्यध्वनि होय है।
- दिव्यध्वनि देवकृत नहीं होती―
- भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि खिरने की तिथि–देखें महावीर ।
- दिव्यध्वनि का भाषात्मक व अभाषात्मकपना।
- दिव्यध्वनि मुख से नहीं होती है
तिलोयपण्णत्ति/1/62 एदासिं भासाणं तालुवदंतोट्ठकंठवावारं। परिहरियं एक्ककालं भव्यजणाणं दरभासो।62। =तालु, दन्त, ओष्ठ तथा कण्ठ के हलन-चलन रूप व्यापार से रहित होकर एक ही समय में भव्यजनों को आनन्द करने वाली भाषा (दिव्यध्वनि) के स्वामी है।62। ( समाधिशतक/ मू./2); ( तिलोयपण्णत्ति/4/902 ); ( हरिवंशपुराण/2/113 ); ( हरिवंशपुराण/9/224 ); ( हरिवंशपुराण/56/116 ); ( हरिवंशपुराण/9/223 ); ( महापुराण/1/184 ); ( महापुराण/24/82 ); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/4/9 पर उद्धृत); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/2/8/5 पर उद्धृत)।
कषायपाहुड़/1/1,1/97/129/14 विशेषार्थ–जिस समय दिव्यध्वनि खिरती है उस समय भगवान् का मुख बन्द रहता है।
- दिव्यध्वनि मुख से होती है
राजवार्तिक/2/19/10/132/7 सकलज्ञानावरणसंशयाविर्भूतातिन्द्रियकेवलज्ञान: रसनोपष्टम्भमात्रादेव वक्तृत्वेन परिणत:। सकलान् श्रुतविषयानर्थानुपदिशति। =सकल ज्ञानावरण के क्षय से उत्पन्न अतीन्द्रिय केवलज्ञान जिह्वा इन्द्रिय के आश्रय मात्र से वक्तृत्व रूप परिणत होकर सकलश्रुत विषयक अर्थों के उपदेश करता है।
हरिवंशपुराण/58/3 तत्प्रश्नान्तरं घातुश्चतुर्मुख विनिर्गता। चतुर्मुखफला सार्था चतुर्वर्णाश्रमाश्रया।3। =गणधर के प्रश्न के अनन्तर दिव्यध्वनि खिरने लगी। भगवान् की दिव्यध्वनि चारों दिशाओं में दिखने वाले चारमुखों से निकलती थी, चार पुरुषार्थ रूप चार फल को देने वाली थी, सार्थक थी।
महापुराण/23/69 दिव्यमहाध्वनिरस्य मुखाब्जान्मेघरवानुकृतिर्निरगच्छत् । भव्यमनोगतमोहतमोघ्नन् अद्युतदेष यथैव तमोरि:।69।
महापुराण/24/83 स्फुरद्गिरिगुहोद्भूतप्रतिश्रुद् ध्वनिसंनिभ:। प्रस्पष्टवर्णो निरगाद् ध्वनि: स्वायम्भुवान्मुखात् ।83। =भगवान् के मुखरूपी कमल से बादलों की गर्जना का अनुकरण करने वाली अतिशययुक्त महादिव्यध्वनि निकल रही थी और वह भव्य जीवों के मन में स्थित मोहरूपी अंधकार को नष्ट करती हुई सूर्य के समान सुशोभित हो रही थी।69। जिसमें सब अक्षर स्पष्ट हैं ऐसी वह दिव्यध्वनि भगवान् के मुख से इस प्रकार निकल रही थी जिस प्रकार पर्वत की गुफा के अग्रभाग से प्रतिध्वनि निकलती है।83।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/174 केवलिमुखारविन्दविर्निगतो दिव्यध्वनि:। =केवली के मुखारविन्द से निकलती हुई दिव्यध्वनि...।
स्याद्वादमञ्जरी/30/335/20 उत्पादव्ययध्रौव्यप्रपञ्च: समय:। तेषां च भगवता साक्षान्मातृकापदरूपतयाभिधानात् । =उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य के वर्णन को समय कहते हैं, उनके स्वरूप को साक्षात् भगवान् ने अपने मुख से अक्षररूप कहा।
- दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक होती है
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/4/9 पर उद्धृत–यत्सर्वात्महितं न वर्णसहितं। =जो सबका हित करने वाली तथा वर्ण विन्यास से रहित है (ऐसी दिव्यध्वनि...)।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/79/135/6 भाषात्मको द्विविधोऽक्षरात्मकोऽनक्षरात्मकश्चेति। अक्षरात्मक: संस्कृत..., अनक्षरात्मको द्वीन्द्रियादिशब्दरूपो दिव्यध्वनिरूपश्च। =भाषात्मक शब्द दो प्रकार के होते हैं। अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक। अक्षरात्मक शब्द संस्कृतादि भाषा के हेतु हैं। अनक्षरात्मक शब्द द्वीन्द्रियादि के शब्द रूप और दिव्यध्वनि रूप होते हैं।
- दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक नहीं होती
धवला 1/1,1,50/283/8 तीर्थङ्करवचनमनक्षरत्वाद् ध्वनिरूपं तत एव तदेकम् । एकत्वान्न तस्य द्वैविध्यं घटत इति चेन्न, तत्र स्यादित्यादि असत्यमोषवचनसत्त्वतस्तस्य ध्वनेरक्षनय्त्वासिद्धे:। =प्रश्न–तीर्थंकर के वचन अनक्षररूप होने के कारण ध्वनिरूप हैं, और इसलिए वे एक रूप हैं, और एक रूप होने के कारण वे सत्य और अनुभय इस प्रकार दो प्रकार के नहीं हो सकते ? उत्तर–नहीं, क्योंकि केवली के वचन में ‘स्यात्’ इत्यादि रूप से अनुभय रूप वचन का सद्भाव पाया जाता है, इसलिए केवली की ध्वनि अनक्षरात्मक है यह बात असिद्ध है।
महापुराण/23/73 ...साक्षर एव च वर्णसमूहान्नैव विनार्थगतिर्जगति स्यात् । =दिव्य ध्वनि अक्षररूप ही है, क्योंकि अक्षरों के समूह के बिना लोक में अर्थ का परिज्ञान नहीं हो सकता।73।
महापुराण/1/190 यत्पृष्टमादितस्तेन तत्सर्वमनुपूर्वश:। वाचस्पतिरनायासाद्भरतं प्रत्यबूबुधत् ।190। =भरत ने जो कुछ पूछा उसको भगवान् ऋषभदेव बिना किसी कष्ट के क्रमपूर्वक कहने लगे।190।
- दिव्यध्वनि सर्व भाषास्वभावी है
स्वयम्भू स्तोत्र/ मू./97 तव वागमृतं श्रीमत्सर्व-भाषा-स्वभावकम् । प्रीणयत्यमृतं यद्वत्प्राणिनो व्यापि संसदि।12। =सर्व भाषाओं में परिणत होने के स्वभाव को लिये हुए और समवशरण सभा में व्याप्त हुआ आपका श्री सम्पन्न वचनामृत प्राणियों को उसी प्रकार तृप्त करता है जिस प्रकार कि अमृत पान।12। ( कषायपाहुड़ 1/1,1/126/1 ) ( धवला 1/1,1,50/284/2 ) (चन्द्रप्रभ चरित/18/1); (अलंकार चिन्तामणि/1/99)
धवला 1/1,1/61/1 योजनान्तरदूरसमीपस्थाष्टादशभाषासप्तहतशतकुभाषायुत - तिर्यग्देवमनुष्यभाषाकारन्यूनाधिकभावातीतमधुरमनोहरगम्भीरविशदवागतिशयसंपन्न: ...महावीरोऽथंकर्ता। =एक योजन के भीतर दूर अथवा समीप बैठे हुए अठारह महाभाषा और सातसौ लघु भाषाओं से युक्त ऐसे तिर्यंच, मनुष्य, देव की भाषारूप में परिणत होने वाली तथा न्यूनता और अधिकता से रहित मधुर, मनोहर, गम्भीर और विशद ऐसी भाषा के अतिशय को प्राप्त...श्री महावीर तीर्थंकर अर्थकर्ता हैं। ( कषायपाहुड़ 1/1,1/54/72/3 ) ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/4/6 पर उद्धृत)
धवला 9/4,1,9/62/3 एदेहिंतो संखेज्जगुणभासासंभलिदतित्थयरवयणविणिग्गयज्झुणि...। =इनसे (चार अक्षौहिणी अक्षर-अनक्षर भाषाओं से) संख्यातगुणी भाषाओं से भरी हुई तीर्थंकर के मुख से निकली दिव्यध्वनि...। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/2/8/6 पर उद्धृत)
दर्शनपाहुड़/ टी./35/28/12 अद्र्धं च सर्वभाषात्मकम् । =दिव्यध्वनि आधी सर्वभाषा रूप् थी। ( क्रियाकलाप/3-16/248/2 )
- दिव्यध्वनि एक भाषा स्वभावी है
महापुराण/23/70 एकतयोऽपि च सर्वनृभाषा...। =यद्यपि वह दिव्यध्वनि एक प्रकार की (अर्थात् एक भाषारूप) थी तथापि भगवान् के माहात्म्य से सर्व मनुष्यों की भाषा रूप हो रही थी।
- दिव्यध्वनि आधी मागधी भाषा व आधी सर्वभाषा रूप है
दर्शनपाहुड़/ टी./35/28/12 अर्द्धं भगवद्भाषाया मगधदेशभाषात्मकं। अर्द्धं च सर्वभाषात्मकं। =तीर्थंकर की दिव्यध्वनि आधी मगध देश की भाषा रूप और आधी सर्व भाषा रूप होती है। (चन्द्रप्रभचरित/18/1) ( क्रियाकलाप/3-16/248/2 )
- दिव्यध्वनि बीजाक्षर रूप होती है
कषायपाहुड़ 1/1,1/96/126/2 अणंतत्थगब्भबीजपदघडियसरीरा...। =जो अनन्त पदार्थों का वर्णन करती है, जिसका शरीर बीजपदों से गढ़ा गया है।
धवला 9/4,1,44/127/1 संखित्तसद्दरयणमणंतत्थावगमहेदुभूदाणेगलिंगसंगयं बीजपदं णाम। तेसिमणेयाणं बीजपदाणं दुवालसंगप्पयाणमट्ठारससत्तसयभास-कुभाससरूवाणं परूवओ अत्थकत्तारो णाम। =संक्षिप्त शब्द रचना से सहित व अनन्त अर्थों के ज्ञान के हेतुभूत अनेक चिह्नों से सहित बीजपद कहलाता है। अठारह भाषा व सात सौ कुभाषा स्वरूप द्वादशांगात्मक उन अनेक बीजपदों का प्ररूपक अर्थकर्ता है। ( धवला 9/4,1,54/259/7 )
- दिव्यध्वनि मेघ गर्जना रूप होती है
महापुराण/23/69 दिव्यमहाध्वनिरस्य मुखाब्जान्मेघरवानुकृतिर्निरगच्छत् । =भगवान् के मुख रूपी कमल से बादलों की गर्जना का अनुकरण करने वाली अतिशय युक्त महादिव्यध्वनि निकल रही थी।
- दिव्यध्वनि अक्षर अनक्षर उभयस्वरूप थी
कषायपाहुड़/1/1,1/96/126/2 अक्खराणक्खरप्पिया। =(दिव्यध्वनि) अक्षर-अनक्षरात्मक है।
- दिव्यध्वनि अर्थ निरूपक है
तिलोयपण्णत्ति/4/905 छद्दव्वणवपयत्थे पंचट्ठीकायसत्ततच्चाणि। णाणाविहहेदूहिं दिव्वझूणी भणइ भव्वाणं।905। =यह दिव्यध्वनि भव्य जीवों को छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्वों का नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरूपण करती है।905। ( कषायपाहुड़/1/1,1/96/126/2 )
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/2/8/6 स्पष्टं तत्तदभीष्टवस्तुकथनम् । =जो दिव्यध्वनि उस उसकी अभीष्ट वस्तु का स्पष्ट कथन करने वाली है।
- श्रोताओं की भाषारूप परिणमन कर जाती है
हरिवंशपुराण/58/15 अनानात्मापि तद्वृत्तं नानापात्रगुणाश्रयम् । सभायां दृश्यते नानादिव्यमम्बु यथावनो।15। =जिस प्रकार आकाश से बरसा पानी एक रूप होता है, परन्तु पृथिवी पर पड़ते ही वह नाना रूप दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार भगवान् की वह वाणी यद्यपि एक रूप थी तथापि सभा में सब जीव अपनी अपनी भाषा में उसका भाव पूर्णत: समझते थे। ( महापुराण/1/187 )
महापुराण/23/70 एकतयोऽपि च सर्वनृभाषा: सोन्तरनेष्टबहुश्च कुभाषा:। अप्रतिपत्तिमपास्य च तत्त्वं बोधयन्ति स्म जिनस्य महिम्ना।70। =यद्यपि वह दिव्यध्वनि एक प्रकार की थी तथापि भगवान् के माहात्म्य से समस्त मनुष्यों की भाषाओं और अनेक कुभाषाओं को अपने अन्तर्भूत कर रही थी अर्थात् सर्व की अपनी-अपनी भाषारूप परिणमन कर रही थी, और लोगों का अज्ञान दूर कर उन्हें तत्त्वों का बोध करा रही थी।70। ( कषायपाहुड़/1/1,1/54/72/4 ) ( धवला/1/1,1,50/284/2 ) ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/4/6 )
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/227/488/15 अनक्षरात्मकत्वेन श्रोतृश्रोत्रप्रदेशप्राप्तिसमयपर्यंत...तदनन्तरं च श्रोतृजनाभिप्रेतार्थेषु संशयादिनिराकरणेन सम्यग्ज्ञानजनकं...। =केवली की दिव्यध्वनि सुनने वाले के कर्ण प्रदेशकौं यावत् प्राप्त न होइ तावत् काल पर्यन्त अनक्षर ही है...जब सुनने वाले के कर्ण विषैं प्राप्त हो है तब अक्षर रूप होइ यथार्थ वचन का अभिप्राय रूप संशयादिककौं दूर करै है।
- देव उसे सर्व भाषा रूप परिणमाते हैं
दर्शनपाहुड़/ टी./35/28/13 कथमेवं देवोपनीतत्वमिति चेत् । मागधदेवसंनिधाने तथा परिणामतया भाषया संस्कृतभाषाया प्रवर्तते। =प्रश्न–यह देवोपनीत कैसे है? उत्तर–यह देवोपनीत इसलिए है कि मागध देवों के निमित्त से संस्कृत रूप परिणत हो जाती है। ( क्रियाकलाप/ टी./3-16/248/3)
- यदि अक्षरात्मक है तो ध्वनि रूप क्यों कहते हैं
धवला/1/1,1,50/284/3 तथा च कथं तस्य ध्वनित्वमिति चेन्न, एतद्भाषारूपमेवेति निर्देष्टुमशक्यत्वत: तस्य ध्वनित्वसिद्धे:। =प्रश्न–जबकि वह अनेक भाषारूप है तो उसे ध्वनिरूप कैसे माना जा सकता है ? उत्तर–नहीं, केवली के वचन इसी भाषारूप ही हैं, ऐसा निर्देश नहीं किया जा सकता है, इसलिए उनके वचन ध्वनिरूप हैं, यह बात सिद्ध हो जाती है।
- अनक्षरात्मक है तो अर्थ प्ररूपक कैसे हो सकती है
धवला 9/4,1,44/126/8 वयणेण विणा अत्थपदुप्पायणं ण संभवइ, सुहुमअत्थाणं सण्णाए परूवणाणुववत्तीदो ण चाणक्खराए झुणीए अत्थपदुप्पायणं जुज्जदे, अणक्खरभासतिरिक्खे मोत्तूणण्णेसिं तत्तो अत्थावगमाभावादो। ण च दिव्वज्झुणी अणक्खरप्पिया चेव, अट्ठारससत्तसयभास-कुभासप्पियत्तादो। ...तेसिमणेयाणं बीजपदाणं दुवालसंगप्पयाणमट्ठारस-सत्तसयभास-कुभासरूवाणं परूवओ अत्थकत्तारणाम, बीजपदणिलीणत्थपरूवयाणं दुवाल-संगाणं कारओ, गणहरभडारओ गंथकत्तारओ त्ति अब्भुवगमादो। =प्रश्न–वचन के बिना अर्थ का व्याख्यान सम्भव नहीं, क्योंकि सूक्ष्म पदार्थों की संज्ञा अर्थात् संकेत द्वारा प्ररूपणा नहीं बन सकती। यदि कहा जाये कि अनक्षरात्मक ध्वनि द्वारा अर्थ की प्ररूपणा हो सकती है, सो भी योग्य नहीं है; क्योंकि, अनक्षर भाषायुक्त तिर्यंचों को छोड़कर अन्य जीवों को उससे अर्थ ज्ञान नहीं हो सकता है। और दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक ही हो सो भी बात नहीं है; क्योंकि वह अठारह भाषा व सात सौ कुभाषा स्वरूप है। उत्तर–अठारह भाषा व सात सौ कुभाषा स्वरूप द्वादशांगात्मक उन अनेक बीज पदों का प्ररूपक अर्थकर्ता है। तथा बीज पदों में लीन अर्थ के प्ररूपक बारह अंगों के कर्ता गणधर भट्टारक ग्रन्थकर्ता हैं, ऐसा स्वीकार किया गया है। अभिप्राय यह है कि बीजपदों का जो व्याख्याता है वह ग्रन्थकर्ता कहलाता है। (और भी देखें वक्ता - 3)
धवला 9/4,1,7/58/10 ण बीजबुद्धीये अभावो, ताए विणा अवगयतित्थयरबयणविणिग्गयअक्खराणक्खरप्पयबहुलिंगयबीजपदाणं गणहरदेवाणं दुवालसंगा भावप्पसंगादो। =बीजबुंद्धि का अभाव नहीं हो सकता क्योंकि उसके बिना गणधर देवों का तीर्थंकर के मुख से निकले हुए अक्षर और अनक्षर स्वरूप बीजपदों का ज्ञान न होने से द्वादाशांग के अभाव का प्रसंग आयेगा।
- एक ही भाषा सर्व श्रोताओं की भाषा कैसे बन सकती है
धवला 9/4,1,44/128/6 परोवदेसेण विणा अक्खरणक्खरसरूवासेसभासंतरकुसलो समवसरणजणमेत्तरूवधारित्तणेण अम्हम्हाणं भासाहि अम्हम्हाणं चेव कहदि त्ति सव्वेसिं पच्चउप्पायओ समवसरणजणसोदिंदिएसु सगमुहविणिग्गयाणेयभासाणं संकरेण पवेसस्स विणिवारओ, गणहरदेवो गंथकतारो। =प्रश्न–एक ही बीजपद रूप भाषा सर्व जीवों को उन उनकी भाषा रूप से ग्रहण होनी कैसे सम्भव है। उत्तर–परोपदेश के बिना अक्षर व अनक्षर रूप सब भाषाओं में कुशल समवसरण में स्थित जन मात्ररूप के धारी होने से ‘हमारी हमारी भाषा से हम-हमको ही कहते हैं’ इस प्रकार सबको विश्वास कराने वाले तथा समवशरणस्थ जनों के कर्ण इन्द्रियों में अपने मुँह से निकली हुई अनेक भाषाओं के सम्मिश्रित प्रवेश के निवारक ऐसे गणधर देव ग्रन्थकर्ता हैं। (वास्तव में गणधर देव ही जनता को उपदेश देते हैं।)
- गणधर द्विभाषिये के रूप में काम करते हैं–देखें दिव्यध्वनि - 2.15