भिक्षा: Difference between revisions
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भगवती आराधना / विजयोदया टीका/150/344/21 <span class="SanskritText">अन्ये भिक्षाचरायत्र स्थित्वा लभन्ते भिक्षां, यत्र वा स्थितानां गृहिणः प्रयच्छन्ति तावन्मात्रमेव भूभागं यतिः प्रविशेन्न गृहाभ्यन्तरम्। ... तद्द्वारकाद्युल्लङ्घने कुप्यन्ति च गृहिणः।</span> = <span class="HindiText">इतर भिक्षा माँगने वाले साधु जहाँ खड़े होकर भिक्षा प्राप्त करते हैं, अथवा जिस स्थान में ठहरे हुए साधु को गृहस्थ दान देते हैं, उतने ही भूप्रदेशतक साधु प्रवेश करें, गृह के अभ्यन्तर भाग में प्रवेश न करें ... क्योंकि द्वारादिकों का उल्लंघन कर जाने से गृहस्थ कुपित होंगे। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/12 ); ( भगवती आराधना/ पं.सदासुख/250/131/9)।</span><br /> | भगवती आराधना / विजयोदया टीका/150/344/21 <span class="SanskritText">अन्ये भिक्षाचरायत्र स्थित्वा लभन्ते भिक्षां, यत्र वा स्थितानां गृहिणः प्रयच्छन्ति तावन्मात्रमेव भूभागं यतिः प्रविशेन्न गृहाभ्यन्तरम्। ... तद्द्वारकाद्युल्लङ्घने कुप्यन्ति च गृहिणः।</span> = <span class="HindiText">इतर भिक्षा माँगने वाले साधु जहाँ खड़े होकर भिक्षा प्राप्त करते हैं, अथवा जिस स्थान में ठहरे हुए साधु को गृहस्थ दान देते हैं, उतने ही भूप्रदेशतक साधु प्रवेश करें, गृह के अभ्यन्तर भाग में प्रवेश न करें ... क्योंकि द्वारादिकों का उल्लंघन कर जाने से गृहस्थ कुपित होंगे। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/12 ); ( भगवती आराधना/ पं.सदासुख/250/131/9)।</span><br /> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/ पंक्ति नं. <span class="SanskritText">द्वारमर्गलं कवाटं वा नोद्धाटयेत्।10। परोपरोधवर्जिते, अनिर्गमनप्रवेशमार्गे गृहिभिरनुज्ञातस्तिष्ठेत्।15।</span> = <span class="HindiText">यदि द्वार बन्द होगा, अर्गला से बन्द होगा तो उसको उघाड़ना नहीं चाहिए।10। परोपरोध रहित अर्थात् दूसरों का जहाँ प्रतिबन्ध नहींहै ऐसे घर में जाने-आने का मार्ग छोड़कर गृहस्थों के प्रार्थना करने पर खड़े होना चाहिए।15। (और भी देखो अगला शीर्षक)।</span></li> | भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/ पंक्ति नं. <span class="SanskritText">द्वारमर्गलं कवाटं वा नोद्धाटयेत्।10। परोपरोधवर्जिते, अनिर्गमनप्रवेशमार्गे गृहिभिरनुज्ञातस्तिष्ठेत्।15।</span> = <span class="HindiText">यदि द्वार बन्द होगा, अर्गला से बन्द होगा तो उसको उघाड़ना नहीं चाहिए।10। परोपरोध रहित अर्थात् दूसरों का जहाँ प्रतिबन्ध नहींहै ऐसे घर में जाने-आने का मार्ग छोड़कर गृहस्थों के प्रार्थना करने पर खड़े होना चाहिए।15। (और भी देखो अगला शीर्षक)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> वचन व काय चेष्टारहित केवल शरीर मात्र दिखाये</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">वचन व काय चेष्टारहित केवल शरीर मात्र दिखाये</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/13 <span class="SanskritText">याच्ञामव्यक्तस्वनं वा स्वागमनिवेदनार्थं न कुर्यात्। विद्युदिव स्वां तनुं च दर्शयेत्, कोऽमलभिक्षां दास्यतीति अभिसंधिं न कुर्यात्।</span> = <span class="HindiText">याचना करना अथवा अपना आगमन सूचित करने के लिए अस्पष्ट बोलना या खकारना आदि निषिद्ध है। बिजली के समान अपना शरीर दिखा देना पर्याप्त है। मेरे को कौन श्रावक निर्दोष भिक्षा देगा ऐसा संकल्प भी न करे।</span><br /> | भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/13 <span class="SanskritText">याच्ञामव्यक्तस्वनं वा स्वागमनिवेदनार्थं न कुर्यात्। विद्युदिव स्वां तनुं च दर्शयेत्, कोऽमलभिक्षां दास्यतीति अभिसंधिं न कुर्यात्।</span> = <span class="HindiText">याचना करना अथवा अपना आगमन सूचित करने के लिए अस्पष्ट बोलना या खकारना आदि निषिद्ध है। बिजली के समान अपना शरीर दिखा देना पर्याप्त है। मेरे को कौन श्रावक निर्दोष भिक्षा देगा ऐसा संकल्प भी न करे।</span><br /> | ||
आचारसार/5/108 <span class="SanskritText">क्रमेणायोग्यागारालिं पर्यटनां प्राङ्गणाभितं। विशेन्मौनी विकाराङ्गसंज्ञायां चोज्झितो यतिः।</span> =<span class="HindiText"> क्रम पूर्वक योग्य घरों के आगे से घूमते हुए मौन पूर्वक घर के प्रांगण तक प्रवेश करते हैं। तथा शरीर के अंगोपांग से किसी प्रकार का इशारा आदि नहीं करते हैं। <br /> | आचारसार/5/108 <span class="SanskritText">क्रमेणायोग्यागारालिं पर्यटनां प्राङ्गणाभितं। विशेन्मौनी विकाराङ्गसंज्ञायां चोज्झितो यतिः।</span> =<span class="HindiText"> क्रम पूर्वक योग्य घरों के आगे से घूमते हुए मौन पूर्वक घर के प्रांगण तक प्रवेश करते हैं। तथा शरीर के अंगोपांग से किसी प्रकार का इशारा आदि नहीं करते हैं। <br /> | ||
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सागार धर्मामृत/2/33/106 पर फुटनोट–<span class="SanskritText">यस्तेऽस्तु दुर्जनस्पर्शात्स्नानमन्यद्विगर्हितं। </span> =<span class="HindiText"> दुर्जन (अर्थात् अस्पर्श चाण्डाल आदि के साथ स्पर्श होने पर मुनि को स्नान करना चाहिए। </span><br /> | सागार धर्मामृत/2/33/106 पर फुटनोट–<span class="SanskritText">यस्तेऽस्तु दुर्जनस्पर्शात्स्नानमन्यद्विगर्हितं। </span> =<span class="HindiText"> दुर्जन (अर्थात् अस्पर्श चाण्डाल आदि के साथ स्पर्श होने पर मुनि को स्नान करना चाहिए। </span><br /> | ||
अनगारधर्मामृत/5/59 <span class="SanskritText">तद्वच्चाण्डालादिस्पर्शः ... च।9।</span> = <span class="HindiText">चाण्डालादिका स्पर्श हो जाने पर अन्तराय हो जाता है। </span></li> | अनगारधर्मामृत/5/59 <span class="SanskritText">तद्वच्चाण्डालादिस्पर्शः ... च।9।</span> = <span class="HindiText">चाण्डालादिका स्पर्श हो जाने पर अन्तराय हो जाता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">अति दरिद्री के घर आहार करने का निषेध</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/9/6/16/597/18 <span class="SanskritText">भिक्षाशुद्धिः ... दीनानाथं ... गेहादिपरिवर्जनोपलक्षिता।</span> = <span class="HindiText">दीन अनाथों के घर का त्याग करना भिक्षा शुद्धि है। </span><br /> | राजवार्तिक/9/6/16/597/18 <span class="SanskritText">भिक्षाशुद्धिः ... दीनानाथं ... गेहादिपरिवर्जनोपलक्षिता।</span> = <span class="HindiText">दीन अनाथों के घर का त्याग करना भिक्षा शुद्धि है। </span><br /> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/9 <span class="SanskritText">दरिद्रकुलानि उत्क्रमाढयकुलानि न प्रविशेत्।</span> =<span class="HindiText"> अतिशय दरिद्री लोगों के घर तथा आचार विरुद्ध श्रमन्तों के घर में भी प्रवेश न करे। </span><br /> | भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/9 <span class="SanskritText">दरिद्रकुलानि उत्क्रमाढयकुलानि न प्रविशेत्।</span> =<span class="HindiText"> अतिशय दरिद्री लोगों के घर तथा आचार विरुद्ध श्रमन्तों के घर में भी प्रवेश न करे। </span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7">कदाचित् राजपिंड का भी ग्रहण</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/421/614/8 <span class="SanskritText">इति दोषसंभवो यत्र तत्र राजपिण्डग्रहणप्रतिषेधो न सर्वत्र प्रकल्प्यते। ग्लानार्थे राजपिण्डोऽपि दुर्लभंद्रव्यं।आगाढकारणे वा श्रुतस्य व्यवच्छेदो माभूदिति। </span>= <span class="HindiText">(उपरोक्त शीर्षक में कथित) राजपिंड के दोषों का सम्भव जहाँ होगा ऐसे राजा के घर में आहार का त्याग करना चाहिए। परन्तु जहाँ ऐसे दोषों की सम्भावना नहीं है वहाँ मुनि को आहार लेने की मनाई नहीं है। गत्यन्तर न हो अथवा श्रुतज्ञान का नाश होने का प्रसंग हो तो उसका रक्षण करने के लिए राजगृह में आहार लेने का निषेध नहीं है। ग्लानमुनि अर्थात् बीमार मुनि के लिए राजपिंड यह दुर्लभ द्रव्य है। बीमारी, श्रुतज्ञान का रक्षण ऐसे प्रसंग में राजा के यहाँ आहार लेना निषिद्ध नहीं है।<br /> | भगवती आराधना / विजयोदया टीका/421/614/8 <span class="SanskritText">इति दोषसंभवो यत्र तत्र राजपिण्डग्रहणप्रतिषेधो न सर्वत्र प्रकल्प्यते। ग्लानार्थे राजपिण्डोऽपि दुर्लभंद्रव्यं।आगाढकारणे वा श्रुतस्य व्यवच्छेदो माभूदिति। </span>= <span class="HindiText">(उपरोक्त शीर्षक में कथित) राजपिंड के दोषों का सम्भव जहाँ होगा ऐसे राजा के घर में आहार का त्याग करना चाहिए। परन्तु जहाँ ऐसे दोषों की सम्भावना नहीं है वहाँ मुनि को आहार लेने की मनाई नहीं है। गत्यन्तर न हो अथवा श्रुतज्ञान का नाश होने का प्रसंग हो तो उसका रक्षण करने के लिए राजगृह में आहार लेने का निषेध नहीं है। ग्लानमुनि अर्थात् बीमार मुनि के लिए राजपिंड यह दुर्लभ द्रव्य है। बीमारी, श्रुतज्ञान का रक्षण ऐसे प्रसंग में राजा के यहाँ आहार लेना निषिद्ध नहीं है।<br /> | ||
महापुराण/20/66-81 का भावार्थ–श्रेयान्सकुमार ने भगवान् ऋषभदेव को आहारदान दिया था। </span></li> | महापुराण/20/66-81 का भावार्थ–श्रेयान्सकुमार ने भगवान् ऋषभदेव को आहारदान दिया था। </span></li> |
Revision as of 14:26, 20 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
साम्य रस में भीगे होने के कारण साधुजन लाभ-अलाभ में समता रखते हुए दिन में एक बार तथा दातारपर किसी प्रकार का भी भार न पड़े ऐसे गोचरी आदि वृत्ति से भिक्षा ग्रहण करते हैं, वह भी मौन सहित, रस व स्वाद से निरपेक्ष यथा लब्ध केवल उदर पूर्ति के लिए करते हैं। इतना होने पर भी उनमें याचना रूप दीन व हीन भाव जागृत नहीं होता। भक्ति पूर्वक किसी के प्रतिग्रह करने पर अथवा न करने पर श्रावक के घर में प्रवेश करते हैं, परन्तु विवाह व यज्ञशाला आदि में प्रवेश नहीं करते, नीच कुलीन, अति दरिद्री व अति धनाढ्य का आहार ग्रहण नहीं करते हैं।
- भिक्षा निर्देश व विधि
- साधु भिक्षा वृत्ति से आहार लेते हैं।
- यथा काल, वृत्ति परिसंख्यान सहित भिक्षार्थ चर्या करते हैं।
- भिक्षा योग्य काल।
- मौन सहित व याचना रहित चर्या करते हैं।
- * द्वारापेक्षण पूर्वक श्रावक के घर में प्रवेश करते हैं।–देखें आहार - II.1.4।
- * भिक्षावृत्ति सम्बन्धी नवधा भक्ति।–देखें भक्ति - 2।
- * दातार की अवस्था सम्बन्धी विशेष विचार।–देखें आहार - II.5।
- कदाचित् याचना की आशा।
- अपने स्थानपर भोजन लाने का निषेध।
- गोचरी आदि पाँच भिक्षा वृत्तियों का निर्देश।
- बर्तनों की शुद्धि आदि का विचार।
- साधु भिक्षा वृत्ति से आहार लेते हैं।
- चौके में चींटी आदि चलती हो तो साधु हाथ धोकर अन्यत्र चले जाते हैं।–देखें अन्तराय - 2।
- दातार के घर में प्रवेश करने सम्बन्धी नियम व विवेक
- अभिमत प्रदेश में आगमन करे अनभिमत में नहीं।
- वचन व काय चेष्टा रहित केवल शरीर मात्र दिखाये।
- छिद्र में झाँक कर देखने का निषेध।
- गृहस्थ के द्वार पर खड़े होने की विधि।
- चारों ओर देखकर सावधानी से वहाँ प्रवेश करे।
- सचित्त व गन्दे प्रदेश का निषेध।
- अभिमत प्रदेश में आगमन करे अनभिमत में नहीं।
- सूतक पातक सहित घर में प्रवेश नहीं करते।–देखें सूतक ।
- व्यस्त व शोक युक्त गृह का निषेध।
- पशुओं व अन्य साधु युक्त गृह निषेध।
- बहुजन संसक्त प्रदेश का निषेध।
- उद्यान गृह आदि का निषेध।
- योग्यायोग्य कुल व घर
- विधर्मों आदि के घर पर आहार न करे।
- नीच कुलीन के घर पर आहार न करे।
- शुद्र से छूने पर स्नान करने का विधान।
- अति दरिद्री के घर आहार करने का निषेध।
- कदाचित् नीच घर में भी आहार ले लेते हैं।
- राजा आदि के घर पर आहार का निषेध।
- कदाचित् राजपिंड का भी ग्रहण।
- मध्यम दर्जे के लोगों के घर आहार लेना चाहिए।
- विधर्मों आदि के घर पर आहार न करे।
- भिक्षा निर्देश व विधि
- साधु भिक्षा वृत्ति से आहार लेते हैं
मू.आ./819,937 पयणं व पायणं वा ण करेंति अ णेव ते कारवेंति। पयणारंभणियत्ता संतुट्ठाभिक्खमेत्तेण।819। जोगेसु मूल जोगं भिक्खाचरियं च वण्णियं सुत्ते। अण्णे य पुणो जोगा विण्णाणविहीण एहिं कया।937। = आप पकाना दूसरे से पकवाना न तो करते हैं न कराते हैं वे मुनि पकाने के आरम्भ से निवृत्त हुए एक भिक्षा मात्र से सन्तोष को प्राप्त होते हैं।819। आगम में सब मूल उत्तरगुणों के मध्य में भिक्षा चर्या ही प्रधान व्रत कहा है,और अन्य जो गुण हैं वे चारित्र हीन साधुओं कर किये जानने।937. ( प्रवचनसार/229 ), ( पद्मपुराण/4/97 )। - यथा काल, वृत्ति परिसंख्यान सहित भिथार्थ चर्या करते हैं
राजवार्तिक/9/6/597/16 भिक्षाशुद्धिः ... आचारसूत्रोक्तकालदेशप्रकृतिप्रतिपत्तिकुशला ... चन्द्रगतिरिव हीनाधिकगृहा, विशिष्टापस्थाना ...। = आचार सूत्रोक्त कालदेश प्रकृति की प्रतिपत्ति में कुशल है। चन्द्रगति के समान हीन या अधिक धरों की जिसमें मर्यादा हो, ... विशिष्ट विधानवाली हो ऐसी भिक्षा शुद्धि है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/150/345/10 भिक्षाकालं, बुभुक्षाकालं च ज्ञात्वा गृहीतावग्रहः, ग्रामनगरादिकं प्रविशेदीर्यासमितिसंपन्नः। = भिक्षा का समय, और क्षुधा का समय जानकर कुछ वृत्तिपरिसंख्यानादि नियम ग्रहण कर ग्राम या नगर में ईर्यासमिति से प्रवेश करे। - भिक्षा योग्य काल
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1203/22 भिक्षाकालः, बुक्षुक्षाकालोऽवग्रहकालश्चेति कालत्रयं ज्ञातव्यं। ग्रामनगरादिषु इयता कालेन आहारनिष्पत्तिर्भवति, अमीषु मासेषु, अस्य वा कुलस्य वाटस्य वायं भोजनकाल इच्छायाः प्रमाणादिना भिक्षाकालोऽवगन्तव्यः। मम तीव्रा मन्दा वेति स्वशरीरव्यवस्था च परीक्षणीया। अयमवग्रहः पूर्वं गृहीतः। एवंभूत आहारो मया न भोक्तव्यः इति अद्यायमवग्रहो ममेति मीमांसा कार्या। = भिक्षा काल, बुभुक्षा काल और अवग्रह काल ऐसे तीन काल हैं। गाँव, शहर वगैरह स्थानों में इतना काल व्यतीत होने पर आहार तैयार होता है। अमुक महीने में अमुक कुल का, अमुक गली का अमुक भोजन काल है यह भिक्षा या भोजन काल का वर्णन है।1। आज मेरे को तीव्र भूख लगी है या मन्द लगी है। मेरे शरीर की तबियत कैसी है, इसका विचार करना यह बुभुक्षा काल का स्वरूप है। अमुक नियम मैंने कल ग्रहण किया था। इस तरह का आहार मैंने भक्षण न करने का नियम लिया था।आज मेरा उस नियम का दिन है। इस प्रकार का विचार करना अवग्रह काल है।
आचारसार/5/98 जिस समय बच्चे अपनापेट भरकर खेल रहे हों।98। जिस समय श्रावक बलि कर्म कर रहे हों अर्थात् देवता को भातादि नैवेद्य चढ़ा रहे हों, वह भिक्षा काल है।
सागार धर्मामृत/6/24 में उद्धृत–प्रसृष्टे विण्मूत्रे हृदि सुविमले दोषे स्वपथगे विशुद्धे चोद्वारे क्षुदुपगमने वातेऽनुसरति। तथाऽग्नाबुद्रिक्ते विशदकरणे देहे च सुलघौ, प्रयुज्जीताहारं विधिनियमितं कालः स हि मतः। = मल मूत्र का त्याग हो जाने के पश्चात्, ह्रदय के प्रसन्न होने पर, वात पित्त और कफ जनित दोषों के अपने-अपने मार्गगामी होने पर, मलवाहक द्वारों के खुलने पर, भूख के लगने पर, वात या वायु के ठीक-ठीक अनुसरण होने पर, जठराग्नि के प्रदीप्त होने पर, इन्द्रियों के प्रसन्न होकर, देह के हलका होने पर, विधि पूर्वक तैयार किया हुआ, नियमित आहार का ग्रहण करे। यही भोजन का काल मान गया है। यहाँ ‘काले’ इस पद के द्वारा भोजन के काल का उपदेश दिया गया है। चर्चा समाधान /प्रश्न 53/ पृ. 54 यदि आवश्यकता पड़े तो मध्याह्न काल में भी चर्या करते हैं।
देखें अनुमति - 6=अनुमति त्याग प्रतिमाधारी दोपहर को आहार लेता है।देखें रात्रि भोजन - 1= प्रधानतः दिन का प्रथम पहर भोजन के योग्य है।देखें प्रोषधोपवास - 1.7 = दोपहर के समय भोजन करना साधु का एक भक्त नामक मूल गुण है। - मौन सहित व याचना रहित चर्या करते हैं
मू.आ./817-818 णवि ते अभित्थुणंति य पिंडत्थं णवि य किंचि जायंते। मोणव्वदेण मुणिणो चरंति भिक्खं अभासंता।817। देहीति दीणकलुसं भासं णेच्छंति एरिसं वत्तुं। अवि णीदि अलाभेण ण य मोणं भंजदे धीरा।818। = मुनिराज भोजन के लिए स्तुति नहीं करते और न कुछ माँगते हैं। वे मौन व्रतकर सहित नहीं कुछ कहते हुए भिक्षा के निमित्त विचरते हैं।817। तुम हमको ग्रास दो ऐसा करुणा रूप मलिन वचन कहने की इच्छा नहीं करते। और भिक्षा न मिलने पर लौट आते हैं, परन्तु वे धीर मुनि मौन को नहीं छोड़ते हैं।818।
कुरल काव्य का./107/1,6 अभिक्षुको वरीवर्ति भिक्षोः कोटिगुणोदयः।–याचनास्तु वदान्ये वा निजादधिगुणे च वै।1। एकोऽपि याचनाशब्दो जिह्वाया निर्वृतिः परा। वरमस्तु स शब्दोऽपि पानीयार्थं हि गोःकृते।6। = भीख न मांगने वाले से करोड़ गुणा वरिष्ट होने पर भी भिखारी निन्द्य है, भले ही वह किन्हीं उत्साही दातारों से ही क्यों न मांगे।1। गाय के लिये पानी मांगने के लिये भी अपमानजनक याचना तो करनी पड़ती ही है।6।
राजवार्तिक/9/6/16/597/18 भिक्षाशुद्धिः ... दीनवृत्तिविगमा प्रासुकाहारगवेषणप्रणिधाना। = दीन वृत्ति से रहित होकर प्रासुक आहार ढूँढ़ना भिक्षा शुद्धि है। ( चारित्रसार/78/1 )।
देखें भिक्षा - 2.2 याचना करना, अथवा अस्पष्ट शब्द बोलना आदि निषिद्ध है। केवल बिजली की चमक के समान शरीर दिखा देना पर्याप्त है।
आत्मानुशासन/151 ... प्राप्तागमार्थ तव सन्ति गुणाः कलत्रमप्रार्थ्यवृत्तिरसि याति वृथैव याच्ञाम्।151। = हे प्राप्तागमार्थ ! गुण ही तेरी स्त्रियाँ हैं। ऐसा तथा किसी से याचना करने रूप वृत्ति भी तुझमें पायीं नहीं जाती। अब तू वृथा ही याचना को प्राप्त हो है, सो तेरे लिए इस प्रकार दीन बनना योग्य नहीं। - कदाचित् याचना की आज्ञा
भगवती आराधना/1209/1209 ... उग्गहजायणमणुवीचिए तहा भावणा तइए।1209। = आगम से अविरुद्ध ज्ञान व संयमोपकरण की याचना करनी तृतीय अर्थात् अचौर्य महाव्रत की भावना है।
कुरल काव्य/106/2,8 अपमानं बिना भिक्षा प्राप्यते या सुदैवतः। प्राप्तिकाले तु संप्राप्ता सा भिक्षा हर्षदायिनी।2। याचका यदि नैव स्युर्दानधर्मप्रवर्तकाः। काष्ठपुत्तलनृत्यं स्यात् तदा संसारजालकम्।8। बिना तिरस्कार के पा सको तो मांगना आनन्ददायी है।2। धर्म प्रवर्तक याचकों के अभाव में संसार कठपुतली के नाच से अधिक न हो सकेगा।8।
देखें अपवाद - 3.3 (सल्लेखना गत क्षपक की वैयावृत्य के अर्थ कदाचित् निर्यापक साधु आहार माँगकर लाता है।)
देखें आलोचना - 2.2. आकंपित दीप (आचार्य की वैयावृत्य के लिए साधु आहार माँगकर लाता है।) - अपने स्थान पर भोजन लाने का निषेध
मू.आ./812... अभिहडं च। सुत्तप्पडिकुट्ठाणि य पडिसिद्ध तं विवज्जेंति।812। = ... अन्य स्थान से आया सूत्र के विरुद्ध और सूत्र से निषिद्ध ऐसे आहार को वे मुनि त्याग देते हैं।812।
राजवार्तिक/7/1/19/535/7 नेदं संयमसाधनम्–आनीय भोक्तव्यमिति। = लाकर भोजन करना यह संयम का साधन भी नहीं है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1185/1171/12 क्वचिद्भाजने दिवैव स्थापितं आत्मवासे भुञ्जानस्यापरिग्रहव्रतलोपः स्यात्। = पात्र में रखा आहार वसतिका में ले जाकर खाने से अपरिग्रह व्रत की रक्षा कैसे होगी। - गोचरी आदि पाँच भिक्षा वृत्तियों का निर्देश
रयणसार/ मू./116 उदरग्गिसमणक्खमक्खण गोयारसब्भपूरणभमरं। णाऊण तत्पयारे णिच्चेवं भंजए भिक्खु।116। = मुनियों की चर्या पाँच प्रकार की बतायी गयी है–उदराग्निप्रशमन, अक्षम्रक्षण, गोचरी, श्वभ्रपूरण और भ्रामरी।116। ( चारित्रसार/78/3 )।
मू.आ./815 अक्खोमक्खणमेत्तं भंजंति ...। = गाड़ी के धुरा चुपरने के समान आहार लेते हैं।
राजवार्तिक/9/6/16/597/20 सा लाभालाभयोः सुरसविरसयोश्च समसंतोषाद्भिक्षेति भाष्यते। यथा सलीलसालंकारवरयुवतिभिरुपनीयमानघासो गौर्नतदङ्गगतसौन्दर्यनिरीक्षणपरः तृणमेवात्ति, यथा तृणोलूपं नानादेशस्थं यथालाभमभ्यवहरति न योजनासंपदमवेक्षते तथा भिक्षुरपि भिक्षापरिवेषजनमृदुललितरूपवेषविलासावलोकननिरुत्सुकः शुष्कद्रवाहारयोजनाविशेषं चानवेक्षमाणः यथागतमश्नाति इति गौरिव चारो गोचार इति व्यपदिश्यते, तथा गवेषणेति च।यथा शकटं रत्नभारपरिपूर्णं येन केनचित् स्नेहेन अक्षलेपं च कृत्वा अभिलषितदेशान्तरं वणिगुपनयति ता मुनिरपि गुणरत्नभरितां तनुशकटीमनवद्यभिक्षायुरक्षम्रक्षणेन अभिप्रेतसमाधिपत्त नं प्रापयतीत्यक्षम्रक्षणमिति च नाम निरूढम्। यथा भाण्डागारे समुत्थितमनलमशुचिना शुचिना वा वारिणा शमयति गृही तथा यतिरपि उदराग्निं प्रशमयतीति उदराग्निप्रशमनमितिच निरुच्यते। दातृजनबाधया विना कुशलो मुनिर्भ्रमरवदाहरतीति भ्रमराहार इत्यपि परिभाष्यते। येन केनचित्प्रकारेण स्वभ्रपूरणवदुदरगर्तमनगारः पूरयति स्वादुनेतरेण वेति स्वभ्रपूरणमिति च निरुच्यते। = यह लाभ और अलाभ तथा सरस और विरस में समान सन्तोष होने से भिक्षा कही जाती है।- गोचरी–जैसे गाय गहनों से सजी हुई सुन्दर युवती के द्वारा लायी गयी घास को खाते समय घास को ही देखती है लानेवाली के अंगसौन्दर्य आदि को नहीं; अथवा अनेक जगह यथालाभ उपलब्ध होने वाले चारे के पूरे को ही खाती है उसकी सजावट आदि को नहीं देखती, उसी तरह भिक्षु भी परोसने वाले के मृदु ललित रूप वेष और उस स्थान की सजावट आदि को देखने की उत्सुकता नहीं रखता और न ‘आहार सूखा है या गीला या कैसे चाँदी आदि के बरतनों में रखा है या कैसी उसकी योजना की गयी है’, आदि की ओर ही उसकी दृष्टि रहती है। वह तो जैसा भी आहार प्राप्त होता है वैसा खाता है। अतः भिक्षा को गौ की तरह चार–गोचर या गवेषणा कहते हैं।
- अक्षम्रक्षण–जैसे वणिक् रत्न आदि से लदी हुई गाड़ी में किसी भी तेल का लेपन करके–(ओंगन देकर) उसे अपने इष्ट स्थान पर ले जाता है उसी तरह मुनि भी गुण रत्न से भरी हुई शरीररूपी गाड़ी को निर्दोष भिक्षा देकर उसे समाधि नगर तक पहुँचा देता है, अतः इसे अक्षम्रक्षण कहते हैं।
- उदराग्निप्रशमन–जैसे भण्डार में आग लग जाने पर शुचि या अशुचि कैसे भी पानी से उसे बुझा दिया जाता है, उसी तरह यति भी उदराग्नि का प्रशमन करता है, अतः इसे उदराग्निप्रशमन कहते हैं।
- भ्रमराहार–दाताओं को किसी भी प्रकारकी बाधा पहुँचाये बिना मुनि कुशलता से भ्रमर की तरह आहार ले लेते हैं। अतः इसे भ्रमराहार या भ्रामरीवृत्ति कहते हैं।
- गर्तपूरण–जिस किसी भी प्रकार से गड्ढा भरने की तरह मुनि स्वादु या अस्वादु अन्न के द्वारा पेट रूप गड्ढे को भर देता है अतः इसे स्वभ्रपूरण भी कहते हैं।
- बर्तनों की शुद्धि आदि का विचार
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/16 दातुरागमनमार्ग अवस्थानदेशं, कडुच्छकभाजनादिकं च शोधयेत्; ... खण्डेन भिन्नेन वा कडकच्छुकेन दीयमानं वा। = दाता का आने का रास्ता, उसका खड़े रहने का स्थान, पली और जिसमें अन्न रखा है ऐसे पात्र–इनकी शुद्धता की तरफ विशेष लक्ष्य देना चाहिए। ... टूटी हुई अथवा खण्डयुक्त हुई ऐसे पली के द्वारा दिया हुआ आहार नहीं लेना चाहिए।
- साधु भिक्षा वृत्ति से आहार लेते हैं
- दातार के घर में प्रवेश करने सम्बन्धी नियम व विवेक
- अभिमत प्रदेश में गमन करे अनभिमत में नहीं
भगवती आराधना/1209/1209 वज्जणमणण्णुणादगिहप्पवेसस्स गोयरादीसु। ...।1209। = गृह के स्वामी ने यदि घर में प्रवेश करने की मनाही की होगी तो उसके घर में प्रवेश करना यति को निषिद्ध है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/150/344/21 अन्ये भिक्षाचरायत्र स्थित्वा लभन्ते भिक्षां, यत्र वा स्थितानां गृहिणः प्रयच्छन्ति तावन्मात्रमेव भूभागं यतिः प्रविशेन्न गृहाभ्यन्तरम्। ... तद्द्वारकाद्युल्लङ्घने कुप्यन्ति च गृहिणः। = इतर भिक्षा माँगने वाले साधु जहाँ खड़े होकर भिक्षा प्राप्त करते हैं, अथवा जिस स्थान में ठहरे हुए साधु को गृहस्थ दान देते हैं, उतने ही भूप्रदेशतक साधु प्रवेश करें, गृह के अभ्यन्तर भाग में प्रवेश न करें ... क्योंकि द्वारादिकों का उल्लंघन कर जाने से गृहस्थ कुपित होंगे। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/12 ); ( भगवती आराधना/ पं.सदासुख/250/131/9)।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/ पंक्ति नं. द्वारमर्गलं कवाटं वा नोद्धाटयेत्।10। परोपरोधवर्जिते, अनिर्गमनप्रवेशमार्गे गृहिभिरनुज्ञातस्तिष्ठेत्।15। = यदि द्वार बन्द होगा, अर्गला से बन्द होगा तो उसको उघाड़ना नहीं चाहिए।10। परोपरोध रहित अर्थात् दूसरों का जहाँ प्रतिबन्ध नहींहै ऐसे घर में जाने-आने का मार्ग छोड़कर गृहस्थों के प्रार्थना करने पर खड़े होना चाहिए।15। (और भी देखो अगला शीर्षक)। - वचन व काय चेष्टारहित केवल शरीर मात्र दिखाये
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/13 याच्ञामव्यक्तस्वनं वा स्वागमनिवेदनार्थं न कुर्यात्। विद्युदिव स्वां तनुं च दर्शयेत्, कोऽमलभिक्षां दास्यतीति अभिसंधिं न कुर्यात्। = याचना करना अथवा अपना आगमन सूचित करने के लिए अस्पष्ट बोलना या खकारना आदि निषिद्ध है। बिजली के समान अपना शरीर दिखा देना पर्याप्त है। मेरे को कौन श्रावक निर्दोष भिक्षा देगा ऐसा संकल्प भी न करे।
आचारसार/5/108 क्रमेणायोग्यागारालिं पर्यटनां प्राङ्गणाभितं। विशेन्मौनी विकाराङ्गसंज्ञायां चोज्झितो यतिः। = क्रम पूर्वक योग्य घरों के आगे से घूमते हुए मौन पूर्वक घर के प्रांगण तक प्रवेश करते हैं। तथा शरीर के अंगोपांग से किसी प्रकार का इशारा आदि नहीं करते हैं।
चर्चा समाधान /प्रश्न 53/पृ. 54 = प्रश्न–व्रती तो द्वारापेक्षण करे पर अव्रती तो न करे।उत्तर– गृहस्थ के आँगन में चौथाई तथा तीसरे भाग जाइ चेष्टा विकार रहित देह मात्र दिखावे। फिर गृहस्थ प्रतिग्रह करे।
भगवती आराधना/ पं. सदासुखदास/250/131/8 बहुरि गृहनि में तहाँ तांई प्रवेश करे जहाँ तांई गृहस्थनिका कोऊ भेषी अन्य गृहस्थीनिकै आने की अटक नहीं होय। बहुरि अंगण में जाय खड़े नहीं रहे। आशीर्वादादिक मुखतैं नहीं कहैं। हाथ की समस्या नहीं करे। उदर की कृशता नहीं दिखावै। मुख की विवर्णता नहीं करै। हुंकारादिका सैन संज्ञा समस्या नहीं करै, पड़िगाहे तो खड़े रहे, नहीं पड़िगाहे तो निकसि अन्य गृहनि में प्रवेश करै। - छिद्र मेंसे झाँककर देखने का निषेध
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/16 छिद्रद्वारं कवाटं, प्राकारं वा न पश्येत् चौर इव। = चोर के समान, छिद्र, दरवाजा, किवाड़ तट वगैरह का अवलोकन न करे। - गृहस्थ के द्वार पर खड़े होने की विधि
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/15 अनिर्गमनप्रवेशमार्गे गृहिभिरनुज्ञातस्तिष्ठेत्। समे विच्छिद्रे, भूभागे चतुरङ्गुलपादान्तरो निश्चलः कुडयस्तम्भादिकमनवलम्ब्य तिष्ठेत। = घर में जाने-आने का मार्ग छोड़कर गृहस्थों के प्रार्थना करने पर खड़े होना चाहिए। समान छिद्र रहित ऐसी जमीन पर अपने दोनों पाँवों में चार अंगुल अन्तर रहेगा इस तरह निश्चल खड़े रहना चाहिए। भीत, खम्भ वगैरह का आश्रय न लेकर स्थित खड़े रहना चाहिए। - चारों ओर देखकर सावधानी से वहाँ प्रवेश करे
भगवती आराधना वि./150/345/3 द्वारमप्यायामविष्कम्भहीनं प्रविशतः गात्रपीडासंकुचिताङ्गस्य विवृताधोभागस्य वा प्रवेशं दृष्टवा कुप्यन्ति वा। आत्मविराधना मिथ्यात्वाराधना च।द्वारपार्श्वस्थजन्तुपीडा स्वगात्रमर्द्दने शिक्यावलम्बितभाजनानि वा अनिरुपितप्रवेशी वा अभिहन्ति। तस्मादूर्ध्वं तिर्यक् चावलोक्य प्रवेष्टव्यं। = दीर्घता व चौड़ाई से रहित द्वार में प्रवेश करने से शरीर को व्यथा होगी, अंगों को संकुचित करके जाना पड़ेगा। नीचे के अवयवों को पसार कर यदि साधु प्रवेश करेगा तो गृहस्थ कुपित होंगे अथवा हास्य करेंगे। इससे साधु को आत्म विराधान अथवा मिथ्यात्वाराधना होगी। संकुचित द्वार से गमन करते समय उसके समीप रहने वाले जीवों को पीड़ा होगी, अपने अवयवों का मर्दन होगा। यदि ऊपर साधु न देखे तो सीके में रखे हुए पात्रों को धक्का लेगा अतः साधु ऊपर और चारों तरफ देखकर प्रवेश करें। - सचित्त व गन्दे प्रदेश का निषेध
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/150/ पृ.नं./पं.नं. गृहिभिस्तिष्ठ प्रविशेत्यभिहितोऽपि नान्धकारं प्रविशेत्त्रसस्थावरपीडापरिहृतये।(344/22) तदानीमेव लिप्तां, जलसेकाद्रां, प्रकीर्णहरितकुसुमफलपलाशादिभिर्निरन्तरां, सचित्तमृत्तिकावर्ती, छिद्रबहुलां, विचरत्त्रसजीवानां (345/6) मूत्रासृक्पुरीषादिभिरुपहतां भूमिं न प्रविशेत् (345/8) = गृहस्थों के तिष्ठो, प्रवेश करो ऐसा कहने पर भी अन्धकार में साधु को प्रवेश करना युक्त नहीं। अन्यथा त्रस व स्थावर जीवों का विनाश होगा। (344/22) तत्काल लेपी गयी, पानी के छिड़काव से गीली की गयी, हरातृण, पुष्प, फल, पत्रादिक जिसके ऊपर फैले हुए हैं ऐसी, सचित्त मिट्टी से युक्त, बहुत छिद्रों से युक्त, जहाँ त्रस जीव फिर रहे हैं। ... जो मूत्र, रक्त, विष्टादि से अपवित्र बनी है, ऐसी भूमि मेंसाधु प्रवेश न करे। अन्यथा उसके संयम की विराधना होगी व मिथ्यात्व आराधना का दोष लगेगा।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/3,7,11 अकर्दमेनानुदकेन अत्रसहरितबहुलेन वर्त्मना।3। ...तुषगोमयभस्मबुसपलालनिचयं, दलोपलफलादिकं च परिहरेत्।7। पुष्पैः फलैर्बीजैर्वावकीर्णां भूमिं वर्जयेत्। तदानीमेव लिप्तां। = जिसमें कीचड़ नहीं है, पानी फैला हुआ नहीं है, जो त्रस व हरितकाय जन्तुओं से रहित है, ऐसे मार्ग से प्रयाण करना चाहिए। ... धान के छिलके, गोबर, भस्म का ढेर, भूसा, वृक्ष के पत्ते, पत्थर फलकादिकों का परिहार करके गमन करना चाहिए। ... जो जमीन, पुष्प, फल और बीजों से व्याप्त हुई है अथवा हाल में ही लीपी गयी है उस परसे जाना निषिद्ध है। - व्यस्त व शोक युक्त गृह का निषेध
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/12 तथा कुटुम्बिषु व्यग्रविषण्णदीनमुखेषु च सत्सु नो तिष्ठेत्। = जहाँ मनुष्य, किसी कार्य में तत्पर दीखते हों, खिन्न दीख रहे हों उनका मुख दीनता युक्त दीख रहा हो तो वहाँ ठहरना निषिद्ध है। - पशुओं व अन्य साधु युक्त प्रदेश का निषेध
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/150/344/15 तथा भिक्षानिमित्तं गृहं प्रवेष्टुकामः पूर्वं अवलोकयेत्किमत्र बलीवर्द्दा, महिष्यः, प्रसूता वा गावः, दुष्टा वा सारमेया, भिक्षाचराः श्रमणाः सन्ति न सन्तीति। सन्ति चेन्न प्रविशेत्। यदि न बिभ्यति ते यत्नेन प्रवेश कुर्यात्। ते हि भीता यतिं बाधन्ते स्वयं वा पलायमानाः त्रसस्थावरपीडां कुर्युः।क्लिश्यन्ति, महति वा गर्तादौ पतिता मृतिमुपेयुः। गृहीतभिक्षाणां वा तेषां निर्गमने गृहस्थैः प्रत्याख्यान वा दृष्ट्वा श्रुत्वा वा प्रवेष्टव्यं। अन्यथा बहव आयाता इति दातुमशक्ताः कस्मैचिदपि न दद्युः। तथा च भोगान्तरायः कृतः स्यात्। क्रद्धाः परे भिक्षाचराः निर्भर्त्सनादिकं कुर्युरस्माभिराशया प्रविष्टं गृहं किमर्थं प्रविशतीति। .... (एलकं वत्सं वा नातिक्रम्य प्रविशेत्। मीताः पलायनं कुर्युरात्मानं मा पातयेयुः)। = भिक्षा के लिए श्रावक घर में प्रवेश करते समय प्रथमतः इस घर में बैल, भैंस, प्रसूत गाय, दुष्ट कुत्ता, भिक्षा माँगने वाले साधु हैं या नहीं यह अवलोकन करे, यदि न होंगे तो प्रवेश करे अथवा उपर्युक्त प्राणी साधु के प्रवेश करने से भययुक्त न होवे तो यहाँ से सावधान रहकर प्रवेश करे।यदि वे प्राणी भययुक्त होंगे तो उनसे यति को बाधा होगी। इधर-उधर वे प्राणी दौड़ेंगे तो त्रसजीवों का, स्थावर जीवों का विनाश होगा अथवा साधु के प्रवेश से उनको क्लेश होगा। किंवा भागते समय गड्ढे में गिरकर मृत्यु वश होंगे। जिन्होंने भिक्षा ली है ऐसे अन्य साधु घर से बाहर निकलते हुए देखकर अथवा गृहस्थों के द्वारा उनका निराकरण किया हुआ देखकर वा सुनकर तदनन्तर प्रवेश करना चाहिए। यदि मुनिवर इसका विचार न कर श्रावक गृह में प्रवेश करें तो बहुत लोक आये हैं ऐसा समझकर दान देने में असमर्थ होकर किसी को भी दान न देंगे। अतः विचार बिना प्रवेश करना लाभांतराय का कारण होता है। दूसरे भिक्षा माँगने वाले पाखंडी साधु जैन साधु प्रवेश करने पर हमने कुछ मिलने की आशा से यहाँ प्रवेश किया है, यह मुनि क्यों यहाँ आया है ऐसा विचार मन में लाकर निर्भर्त्सना तिरस्कारादिक करेंगे। ... घर में बछड़ा अथवा गाय का बछड़ा हो तो उसको लांघकर प्रवेश न करे अन्यथा वे डरके मारे पलायन करेंगे वा साधु को गिरा देंगे।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/10 बालवत्सं, एलकं, शुनो वा नोल्लङ्घयेत्। ... भिक्षाचरेषु परेषु लाभार्थिषु स्थितेषु तद्गेहं न प्रविशेत्। =छोटा बछड़ा, बकरा और कुत्ता इनको लाँघ कर नहीं जाना चाहिए। .... जहाँ अन्य भिक्षु आहार लाभ के लिए खड़े हुए हैं, ऐसे घर में प्रवेश करना निषिद्ध है। - बहुजन संसक्त प्रदेश का निषेध
राजवार्तिक/9/6/16/597/16 भिक्षाशुद्धिः ...दीनानाथदानशाला विवाहयजनगेहादिपरिवर्जनोपलक्षिता ...। = दीन अनाथ दानशाला विवाह-यज्ञ भोजनादि का जिसमें परिहार होता है, ऐसी भिक्षा शुद्धि है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/150/345/7 गृहिणां भोजनार्थं कृतमण्डलपरिहारां, देवताध्युषितां निकटीभूतनानाजनामन्तिकस्थासनशयनामासीनशयितपुरुषां... भूमिं न प्रविशेत्। = जहाँ गृहस्थों के भोजन के लिए रंगावली रची गयी है, देवताओं की स्थापना से युक्त, अनेक लोग जहाँ बैठे हैं, जहाँ आसन और शय्या रखे हैं, जहाँ लोक बैठे हैं और सोये हैं ... ऐसी भूमि में साधु प्रवेश न करें।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/8 न गीतनृत्यबहुलं, उछ्रितपताकं वा गृहं प्रविशेत्।... यज्ञशालां, दानशालां, विवाहगृहं, वार्यमाणानि, रक्ष्यमाणानि, अन्यमुक्तानि च गृहाणि परिहरेत्। = जहाँ पताकाओं की पंक्ति सजायी जा रही है ऐसे घर में प्रवेश न करे। ... यज्ञशाला, दानशाला, विवाहगृह, जहाँ प्रवेश करने की मनाई है, जो पहरेदारों से युक्त है, जिसको अन्य भिक्षुकों ने छोड़ा ऐसे गृहों का त्याग करना चाहिए। - उद्यान गृह आदि का निषेध
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/14 रहस्यगृहं, वनगृहं कदलीलतागुल्मगृहं, नाट्यगान्धर्वशालाश्च अभिनन्द्यमानोऽपिन प्रविशेत्। = एकांतगृह, उद्यानगृह, कदलियों से बना हुआ गृह, लतागृह, छोटे-छोटे वृक्षों से आच्छादित गृह, नाट्यशाला, गन्धर्वशाला, इन स्थानों में प्रतिग्रह करने पर भी प्रवेश करना निषिद्ध है।
- अभिमत प्रदेश में गमन करे अनभिमत में नहीं
- योग्यायोग्य कुल व घर
- विधर्मी आदि के घर पर आहार न करे
देखें आहार - I.2.2 अनभिज्ञ साधर्मी और आचार क्रियाओं को जानने वाले भी विधर्मी द्वारा शोधा या पकाया गया, भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिए।
देखें भिक्षा - 3.2 नीच कुल अथवा कुलिंगियों के गृह में आहार नहीं लेना चाहिए।
क्रियाकोष/208-209 जैनधर्म जिनके घर नाहीं। आन-आन देव जिनके घर माँही।208। तिनिको छूआ अथवा करको। कबहू न खावे तिनके घर को।209। - नीच कुलीन के घर आहार करने का निषेध
मू.आ./498,500 अभोजगिहपवेसणं।498। कारणभूदा अभोयणस्सेह।500। = अभोज्य घर में प्रवेश करना भोजन त्याग का कारण है, अर्थात् 21 वाँ अन्तराय है।
लिं.पा./मू./21 पुंच्छलिधरि जो भुंजइ णिच्चं संथुणदि पोसए पिंडं। पावदि वालसहावं भावविणट्ठो ण सो सवणो।21। = जो लिंगधारी व्यभिचारिणी स्त्री के घर भोजन करते हैं, और ‘यह बड़ी धर्मात्मा है’ इस प्रकार उसकी सराहना करते हैं। सो ऐसा लिंगधारी बालस्वभाव को प्राप्त होता है, अज्ञानी है, भाव विनष्ट है, सो श्रमण नहीं है।21।
राजवार्तिक/9/6/16/597/17 भिक्षाशुद्धि ... लोकगर्हितकुलपरिवर्जनपरा...। = भिक्षा शुद्धि लोक गर्हित कुलों का परिवर्जन या त्याग कराने वाली है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/421/613/14 ऐतेषां पिण्डो नामाहारः उपकरणं वा प्रतिलेखनादिकं शय्याधरपिण्डस्तस्य परिहरणं तृतीयः स्थितिकल्पः। सति शय्याधरपिण्डग्रहणे प्रच्छन्नमयं योजयेदाहारादिकं। धर्मफललोभाद्यो वा आहारं दातुमक्षमो दरिद्रो लुब्धो वा न चासौ वसतिं प्रयच्छेत्। सति वसतौ आहारदाने वा लोको मां निन्दति-स्थिता वसतावस्य यतयो न चानेन मन्दभाग्येन तेषां आहारे दत्त इति। यतेः स्नेहश्च स्यादाहारं वसतिं च प्रयच्छति तस्मिन् बहूपकारितया। तत्पिण्डाग्रहणे तु नोक्तदोषसंस्पर्शः। =इनके (शय्याधरों के देखें शय्याधर ) आहार का और इनकी पिच्छिका आदि उपकरणों का त्याग करना यह तीसरा स्थितिकल्प है। यदि इन शय्याधरों के घर में मुनि आहार लेंगे तो धर्म फल के लोभ से ये शय्याधर मुनियों को आहार देते हैं ऐसी निन्दा होगी। जो आहार देने में असमर्थ हैं, जो दरिद्री है, लोभी कृपण है, वह मुनियों को वसतिका दान न देवें। उसने वसतिका दान किया तो भी इस मन्दभाग्यने मुनि को आश्रय दिया परन्तु आहार नहीं दिया ऐसी लोग निन्दा करते हैं। जो वसतिका और आहार दोनों देता है उसके ऊपर मुनिका स्नेह भी होना सम्भव है क्योंकि उसने मुनिपर बहुत उपकार किया है। अतः उनके यहाँ मुनि आहार ग्रहण नहीं करते।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/8 मत्तानां गृहं न प्रविशेत्। सुरापण्याङ्नालोकगर्हितकुलं वा। ..... उत्क्रमाढयकुलानि न प्रविशेत्। = मत्त पुरुषों के घर में प्रवेश न करें। मदिरा अर्थात् मदिरा पीनेवालों का स्थान, वेश्या का घर, तथा लोक निन्द्य कुलों का त्याग करना चाहिए।... आचार विरुद्ध चलनेवाले श्रीमन्त लोगों के घर का त्याग करना चाहिए।
आचारसार/5/101-107 कोतवाल, वेश्या, बन्दीजन, नीचकर्म करने वाले के घर में प्रवेश का निषेध है।
सागार धर्मामृत/3/10/189 पर फुटनोट–मद्यादिस्वादिगेहेषु पानमन्नं च नाचरेत्। तदामूत्रादिसंपर्क न कुर्वीत कदाचन। = मद्य पीनेवालों के घरों में अन्न पान नहीं करना चाहिए। तथा मल मूत्रादिका सम्पर्क भी उस समय नहीं करना चाहिए।
बोधपाहुड़/ टी/48/112/15 किं तदयोग्यं गृहं यत्र भिक्षा न गृह्यते इत्याह―गायकस्य तलारस्य, नीचकर्मोपजीविनः। मालिकस्य विलिङ्गस्य वेश्यायास्तैलिकस्य च।1। अस्यायमर्थः–गायकस्य गन्धर्वस्य गृहे न भुज्यते। तलारस्य कोटपालस्य, नीचकर्मोपजीविनः चर्मजलशकटा देर्वाहकादेः श्रावकस्यापि गृहे न भुज्यते। मालिकस्य पुष्पोपजीविनः, विलिङ्गस्य भरटस्य, वेश्याया गणिकायाः, तैलिकस्य घांचिकस्य। दीनस्य सूतिकायाश्च छिंपकस्य विशेषत:। मद्यविक्रयिणो मद्यपायिसंसर्गिणश्च न।2। दीनस्य श्रावकोऽपि सन् यो दीनं भाषते। सूतिकाया या बालकानां जननं कारयति। अन्यत्सुगम्। शालिको मालिकश्चैव कुम्भकारस्तिलंतुदः। नापितश्चेति विज्ञेया पञ्चैते पञ्चकारवः।3। रजकस्तक्षकश्चैव अयः सुवर्णकारकः। दृषत्कारादयश्चेति कारवो बहवः स्मृताः।4। क्रियते भोजनं गेहे यतिना मोक्तुमिच्छुना। एवमादिकमप्यन्यच्चिन्तनीयं स्वचेतसा।5। वरं स्वहस्तेन कृत: पाको नान्यत्र दुर्द्दशां। मन्दिरे भोजनं यस्मात्सर्वसावद्यसंगमः।6। = वे अयोग्य घर कौन से हैं जहाँ से साधु को भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए। सो बताते हैं–गायक अर्थात् गाने की आजीविका करने वाले गन्धर्व लोगों के घर में भोजन नहीं करना चाहिए। तलार अर्थात् कोतवाल के घर तथा चमड़े का तथा जल भरने का तथा रथ आदि हाँकने इत्यादि का नीचकर्म करनेवाले श्रावकों के घर में भी भोजन नहीं करना चाहिए। माली अर्थात् फूलों की आजीविका करने वाले के घर, तथा कुलिंगियों के घर तथा वेश्या अर्थात् गणिका के घर और तेली के घर भी भोजन नहीं करना चाहिए।1। इसके अतिरिक्त निम्न अनेक घरों में भोजन नहीं करनाचाहिए–श्रावक होते हुए भी जो दीन वचन कहे, सूतिका अर्थात् जिसने हाल ही में बच्चा जना हो, छिपी (कपड़ा रंगनेवाले), मद्य बेचने वाले, मद्य पीनेवाले, या उनके संसर्ग में रहनेवाले।2। जुलाहे, माली, कुम्हार, तिलतुंड अर्थात् तेली, नावि अर्थात् नाई इन पाँचों को पाँच कारव कहते हैं।3। रजक (धोबी), तक्षक (बढ़ई), लुहार, सुनार, दृषत्कार अर्थात् पत्थर घड़नेवाले इत्यादि अनेकों कारव हैं।4। ये तथा अन्य भी अपनी बुद्धि से विचार कर, मोक्षमार्गी यतियों को इनके घर भोजन नहीं करना चाहिए।5। अपने हाथ से पकाकर खा लेना अच्छा है परन्तु ऐसे कुदृष्टि व नीचकर्मोपजीवी लोगों के घर में भोजन करना योग्य नहीं है, क्योंकि इससे सर्व सावद्य का प्रसंग आता है। - शूद्र से छूने पर स्नान करने का विधान
आचारसार/2/70 स्पृष्टे कपालिचाण्डालपुष्पवत्यादिके सति। जपेदुपोषितो मन्त्रं प्रागुप्लुत्याशु दण्डवत्।70। = कपाली, चण्डाली और रजस्वला स्त्री से छूने पर सिर पर कमण्डल से पानी की धार डाले, जो पाँवों तक आ जाये। उपवास करे। महा मन्त्र का जाप करे।
सागार धर्मामृत/2/33/106 पर फुटनोट–यस्तेऽस्तु दुर्जनस्पर्शात्स्नानमन्यद्विगर्हितं। = दुर्जन (अर्थात् अस्पर्श चाण्डाल आदि के साथ स्पर्श होने पर मुनि को स्नान करना चाहिए।
अनगारधर्मामृत/5/59 तद्वच्चाण्डालादिस्पर्शः ... च।9। = चाण्डालादिका स्पर्श हो जाने पर अन्तराय हो जाता है। - अति दरिद्री के घर आहार करने का निषेध
राजवार्तिक/9/6/16/597/18 भिक्षाशुद्धिः ... दीनानाथं ... गेहादिपरिवर्जनोपलक्षिता। = दीन अनाथों के घर का त्याग करना भिक्षा शुद्धि है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/9 दरिद्रकुलानि उत्क्रमाढयकुलानि न प्रविशेत्। = अतिशय दरिद्री लोगों के घर तथा आचार विरुद्ध श्रमन्तों के घर में भी प्रवेश न करे।
बोधपाहुड़/ टी./48/112 पर उद्धृत-दीनस्य श्रावकोऽपि सन् यो दीनं भाषते। = श्रावक होते हुए भी जो दीन वचन कहे, उसके घर भोजन नहीं करना चाहिए। - कदाचित् नीच घर में भी आहार ले लेते हैं
मू.आ./813 अण्णादमणुण्णादं भिक्खं णिच्चुच्चमज्झिमकुलेसु। घरपंतिहिं हिंडंति य मोणेण मुणी समादिंति।813। नीच उच्च तथा मध्यम कुलो में गृह–पंक्ति के अनुसार वे मुनि भ्रमण करते हैं और फिर मौन पूर्वक अज्ञात अनुज्ञात भिक्षा को ग्रहण करते हैं।813। - राजा आदि के घर पर आहार का निषेध
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/421/613/18 राजपिण्डाग्रहणं चतुर्थः स्थितिकल्पः। राजशब्देन इक्ष्वाकुप्रभृतिकुले जाताः। राजते रञ्जयति इति वा राजा राजसदृशो महर्द्धिको भण्यते। तस्य पिण्डः। स त्रिविधो भवति। आहारः, अनाहारः उपधिरिति। तत्राहारश्चतुर्विधो भवति अशनादिभेदेन। तृणफलकपीठादिः अनाहारः उपधिर्नाम प्रतिलेखनं वस्त्रं पात्रं वा। एवंभूतस्य राजपिण्डस्य ग्रहणे को दोष: इति चेत् अत्रोच्यते–द्विविधा दोषा आत्मसमुत्था: परसमुत्थाः मनुजतिर्यक्कृतविकल्पेनेति। तिर्यक्कृता द्विविधा ग्रामारण्यपशुभेदात्। ते द्विप्रकारा अपि द्विभेदा दुष्टा भद्राश्चेति। हया, गजा, गावो, महिषा, मेण्ढ्रा, श्वानश्च ग्राम्याः दुष्टाः। दुष्टेभ्यः संयतोपघातः। भद्राः पलायमानाः स्वयं दुःखिताः पातेन अभिघातेन वा व्रतिनो मारयन्ति वा धावनोल्लंघनादिपराः। प्राणिन आरण्यकास्तुव्याघ्रक्रव्यादद्वीपिनो, वानरा वा राजगृहे बन्धनमुक्ता यदि क्षुद्रास्तत आत्मविपत्तिर्भद्राश्चेत्पलायने पूर्वदोषः। मानुषास्तु तलवरा म्लेञ्छभेदाः, प्रेष्या:, दासाः दास्य: इत्यादिकाः तैराकुलत्वात् दुःप्रवेशनं राजगृहं प्रविशन्तं मत्ताः, प्रमत्ताः, प्रमुदिताश्च दासादयः उपहसंति, आक्रोशयन्ति बारयन्ति वा। अवरुद्धायाः स्त्रिया मैथुनसंज्ञया बाध्यमानाः पुत्रार्थिन्यो वा बलात्स्वगृहं प्रवेशयन्तिभोगार्थं। विप्रकीर्णं रत्नसुवर्णादिकं परे गृहीत्वा अत्र संयता अयाता इति दोषमध्यारोपयन्ति। राजा विश्वस्त: श्रमणेषु इति श्रमणरूपं गृहीत्वागत्य दुष्टाः खलीकुर्वन्ति। ततो रुष्टा अविवेकिनः दूषयन्ति श्रमणान्मारयन्ति वध्नन्ति वा एते परसमुद्भवा दोषाः। आत्मसमुद्भवास्तूच्यन्ते। राजकुले आहारं न शोधयति अदृष्टमाहूतं च गृह्णाति। विकृतिसेवनादिंगालदोषः, मन्दभाग्यो वा दृष्टवानर्घ्यं रत्नादिकं गृह्णीयाद्वामलोचना बानुरूपाः समवलोक्यानुरक्तस्तासु भवेत्। तां विभूतिं, अन्तःपुराणि, पण्याङ्गना वा विलोक्य निदानं कुर्यात्। इति दोषसंभवो यत्र तत्र राजपिण्डग्रहणप्रतिषेधो। = राजा के यहाँ आहार नहीं लेना चाहिए यह चौथा स्थिति कल्प है।- राजा से तात्पर्य―इक्ष्वाकुवंश हरिवंश इत्यादि कुल में जो उत्पन्न हुआ है, जो प्रजा का पालन करना, तथा उनकी दुष्टों से रक्षा करना, इत्यादि उपायों से अनुरंजन करता है उसको राजा कहते हैं। राजा के समान जो महर्द्धि के धारक अन्य धनाढ्य व्यक्ति हैं, उसको भी राजा कहते हैं। ऐसों के यहाँ पिण्ड ग्रहण करना राजपिण्ड है।
- राजपिण्ड कातात्पर्य–उपरोक्त लोगों का आहार राजपिण्ड है। इसके तीन भेद हैं–आहार, अनाहार और उपधि। अन्न, पान और खाद्य, स्वाद्य के पदार्थों को आहार कहते हैं। तृण, फलक आसन वगैरह के पदार्थों को अनाहार कहते हैं। पिच्छी, वस्त्र, पात्र आदि को उपधि कहते हैं।
- राजपिंड ग्रहण में परकृतदोष―राजपिण्ड ग्रहण करने में क्या दोष है ? इस प्रश्न का उत्तर ऐसा है–आत्मसमुत्थ और परसमुत्थ–ऐसे दोषों के दो भेद हैं। ये दोष मनुष्य और तिर्यंचों के द्वारा होते हैं। तिर्यंचों के ग्राम्य और अरण्यवासी ऐसे दो भेद हैं। ये दोनों प्रकार के तिर्यंच दुष्ट और भद्र ऐसे दो प्रकार के हैं। घोड़ा, हाथी, भैंसा, मेढा, कुत्ता इनको ग्राम्य पशु कहते हैं। सिंह आदि पशु अरण्यवासी हैं। ये पशु राजा के घर में प्रायः होते हैं।
- तिर्यंचकृत उपद्रव–यदि ये उपरोक्त पशु दुष्ट स्वभाव के होंगे तो उनसे मुनियों को बाधा पहुँचती है।यदि वे भद्र हों तो वे स्वयं मुनि को देखकर भय से भागकर दुखित होते हैं। स्वयं गिर पड़ते हैं अथवा धक्का देकर मुनियों को मारते हैं।इधर उधर कूदते हैं। बाघ, सिंह आदि मांस भक्षी प्राणी, बानर वगैरह प्राणी राजा के घर मेंबन्धन से यदि मुक्त हो गये होंगे तो उनसे मुनि का घात होगा और यदि वे भद्र होंगे तो उनके इधर उधर भागने से भी मुनि को बाधा होने की सम्भावना है।
- मनुष्यकृत उपद्रव―मनुष्यों से भी राजा के घर में मुनियों को दुख भोगने पड़ते हैं। उनका वर्णन इस प्रकार है–राजा के घर में तलवर (कोतवाल) म्लेच्छ, दास, दासी वगैरह लोक रहते हैं। इन लोगों से राजगृह व्याप्त होने से वहाँ प्रवेश किया होने में कठिनता पड़ती है। यदि मुनिने राजा के घर में प्रवेश किया तो वहाँ उन्मत्त दास वगैरह उनका उपहास करते हैं, उनको निंद्य शब्द बोलते हैं, कोई उनको अन्दर प्रवेश करने में मनाई करते हैं, कोई उनको उल्लंघन करते हैं। वहाँ अन्तःपुरकी स्त्रियाँ यदि काम विकार से पीड़ित हो गयीं अथवा पुत्र की इच्छा उनको हो तो मुनि का जबरदस्ती से उपभोग के लिए अपने घर में प्रवेश करवाती हैं। कोई व्यक्ति राजा के घर के सुवर्ण रत्नादिक चुराकर ‘यहाँ मुनि आया था उसने चोरी की है’ ऐसा दोषारोपण करते हैं। यह राजा मुनियों का भक्त है, ऐसा समझकर दुष्ट लोक मुनि वेष धारण कर राजा के यहाँ प्रवेश करते हैं, और वहाँ अनर्थ करते हैं, जिससे असली मुनियों को बाधा पहुँचने की बहुत सम्भावना रहती है। अर्थात् राजा रुष्ट होकर अविवेकी बनकर मुनियों को दुख देता है। अथवा अविवेकी दुष्ट लोक मुनियों को दोष देते हैं, उनको मारते हैं। ऐसे इतर व्यक्तियों से उत्पन्न हुए अर्थात् परसमुत्थ दोषों का वर्णन किया।
- आत्म समुत्थ दोष–अब राजा के घर में प्रवेश करने से मुनि स्वयं कौन से दोष करते हैं, ऐसे आत्म-समुत्थ दोषों का वर्णन करते हैं–राजगृह में जाकर आहार शुद्ध है या नहीं इसका शोध नहीं करेगा, देख-भालकर न लाया हुआ आहार ही ग्रहण कर लेता है। विकार उत्पन्न करने वाले पदार्थ भक्षण करने में लम्पट हो जाता है। दुर्दैव से वहाँ के रत्नादिक अमूल्य वस्तु चुराने के भाव उत्पन्न होकर उसको उठा लेगा। अपने योग्य स्त्री को देखकर उसमें अनुरक्त होगा। राजा का वैभव उसका अन्तःपुर, वेश्या वगैरह को देखकर निदान करेगा। ऐसे दोषों का सम्भव होगा ऐसे राजा के घर में आहार का त्याग करना चाहिए।
देखें भिक्षा - 2.9 में भगवती आराधना पहरेदारों से युक्त गृह का त्याग करना चाहिए।
- कदाचित् राजपिंड का भी ग्रहण
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/421/614/8 इति दोषसंभवो यत्र तत्र राजपिण्डग्रहणप्रतिषेधो न सर्वत्र प्रकल्प्यते। ग्लानार्थे राजपिण्डोऽपि दुर्लभंद्रव्यं।आगाढकारणे वा श्रुतस्य व्यवच्छेदो माभूदिति। = (उपरोक्त शीर्षक में कथित) राजपिंड के दोषों का सम्भव जहाँ होगा ऐसे राजा के घर में आहार का त्याग करना चाहिए। परन्तु जहाँ ऐसे दोषों की सम्भावना नहीं है वहाँ मुनि को आहार लेने की मनाई नहीं है। गत्यन्तर न हो अथवा श्रुतज्ञान का नाश होने का प्रसंग हो तो उसका रक्षण करने के लिए राजगृह में आहार लेने का निषेध नहीं है। ग्लानमुनि अर्थात् बीमार मुनि के लिए राजपिंड यह दुर्लभ द्रव्य है। बीमारी, श्रुतज्ञान का रक्षण ऐसे प्रसंग में राजा के यहाँ आहार लेना निषिद्ध नहीं है।
महापुराण/20/66-81 का भावार्थ–श्रेयान्सकुमार ने भगवान् ऋषभदेव को आहारदान दिया था। - मध्यम दर्जे के लोगों के घर आहार लेना चाहिए
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/10 दरिद्रकुलानि उत्क्रमाढ्यकुलानि न प्रविशेत्। ज्येष्ठाल्पमध्यानि सममेवाटेत्। = अतिशय दरिद्री लोगों के घर तथा आचार विरुद्ध चलने वाले श्रमन्त लोगों के गृह का त्याग करके बड़े, छोटे व मध्यम ऐसे घरों में प्रवेश करना चाहिए।
देखें भिक्षा - 3.5 दरिद्र व धनवान रूप मध्यम दर्जे के घरों की पंक्ति में वे मुनि भ्रमण करते हैं।
- विधर्मी आदि के घर पर आहार न करे
पुराणकोष से
दिगम्बर मुनियों की निर्दोष आहारविधि । मुनि अपने उद्देश्य से तैयार किया गया आहार नहीं लेते । वे अनेक उपवास करने के बाद भी श्रावकों के घर ही आहार के लिए जाते हैं और वहाँ प्राप्त हुई निर्दोष भिक्षा को मौनपूर्वक खड़े होकर ग्रहण करते हैं । उनकी यह प्रवृत्ति रसास्वादन के लिए न होकर केवल धर्म के साधन-स्वरूप देह की रक्षा के लिए ही होती है । पद्मपुराण 4.95-97