अंतरात्मा: Difference between revisions
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बाह्य विषयों से जीव की दृष्टि हटकर जब अन्तर की ओर झुक जाती है तब अन्तरात्मा कहलाता है।<br> | बाह्य विषयों से जीव की दृष्टि हटकर जब अन्तर की ओर झुक जाती है तब अन्तरात्मा कहलाता है।<br> | ||
<OL start=1 class="HindiNumberList"> <LI> अन्तरात्मा सामान्य का लक्षण </LI> </OL> | <OL start=1 class="HindiNumberList"> <LI> अन्तरात्मा सामान्य का लक्षण </LI> </OL> | ||
[[मोक्षपाहुड़]] / मूल या टीका गाथा संख्या ५ अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो। < | <p class="SanskritPrakritSentence">[[मोक्षपाहुड़]] / मूल या टीका गाथा संख्या ५ अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो। </p> | ||
<p class="HindiSentence">= इन्द्रियनिकूं बाह्य आत्मा कहिए। उसमें आत्मत्व का संकल्प करे सो बहिरात्मा है। बहुरि अन्तरात्मा है सो अन्तरंग विषै आत्मा का प्रगट अनुभवगोचर संकल्प है। </p> | <p class="HindiSentence">= इन्द्रियनिकूं बाह्य आत्मा कहिए। उसमें आत्मत्व का संकल्प करे सो बहिरात्मा है। बहुरि अन्तरात्मा है सो अन्तरंग विषै आत्मा का प्रगट अनुभवगोचर संकल्प है। </p> | ||
([[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या १४/४६/८)<br> | ([[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या १४/४६/८)<br> | ||
[[नियमसार]] / मूल या टीका गाथा संख्या १४९-१५०/३०० आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अंतरंगप्पा।...।।१४९।। = जप्पेसु जो ण वट्टइसो उच्चइ अंतरंगप्पा ।।१५०।। < | <p class="SanskritPrakritSentence">[[नियमसार]] / मूल या टीका गाथा संख्या १४९-१५०/३०० आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अंतरंगप्पा।...।।१४९।। = जप्पेसु जो ण वट्टइसो उच्चइ अंतरंगप्पा ।।१५०।। </p> | ||
<p class="HindiSentence">= आवश्यक सहित श्रमण वह अन्तरात्मा है ।।१४९।। जो जल्पों में नहीं वर्तता, वह अन्तरात्मा कहलाता है ।।१५०।।</p> | <p class="HindiSentence">= आवश्यक सहित श्रमण वह अन्तरात्मा है ।।१४९।। जो जल्पों में नहीं वर्तता, वह अन्तरात्मा कहलाता है ।।१५०।।</p> | ||
[[रयणसार]] गाथा संख्या १४१ सिविणे वि ण भुंजइ विसयाइं देहाइभिण्णभावमई। भूंजइ णियप्परूवो सिवसुहरत्तो दु मज्झिमप्पो सो ।।१४१।। < | <p class="SanskritPrakritSentence">[[रयणसार]] गाथा संख्या १४१ सिविणे वि ण भुंजइ विसयाइं देहाइभिण्णभावमई। भूंजइ णियप्परूवो सिवसुहरत्तो दु मज्झिमप्पो सो ।।१४१।। </p> | ||
<p class="HindiSentence">= देहादिक से अपने को भिन्न समझनेवाला जो व्यक्ति स्वप्न में भी विषयों को नहीं भोगता परन्तु निजात्मा को ही भोगता है, तणा शिव सुख में रत रहता है वह अन्तरात्मा है।</p> | <p class="HindiSentence">= देहादिक से अपने को भिन्न समझनेवाला जो व्यक्ति स्वप्न में भी विषयों को नहीं भोगता परन्तु निजात्मा को ही भोगता है, तणा शिव सुख में रत रहता है वह अन्तरात्मा है।</p> | ||
[[परमात्मप्रकाश]] / मूल या टीका अधिकार संख्या १४/२१/१३ देह विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ। परम-समाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ।।१४।। < | <p class="SanskritPrakritSentence">[[परमात्मप्रकाश]] / मूल या टीका अधिकार संख्या १४/२१/१३ देह विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ। परम-समाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ।।१४।। </p> | ||
<p class="HindiSentence">= जो पुरुष परमात्मा को शरीर से जुदा केवलज्ञान कर पूर्ण जानता है, वही परम समाधि में निष्ठता हुआ अन्तरात्मा अर्थात् विवेकी है।</p> | <p class="HindiSentence">= जो पुरुष परमात्मा को शरीर से जुदा केवलज्ञान कर पूर्ण जानता है, वही परम समाधि में निष्ठता हुआ अन्तरात्मा अर्थात् विवेकी है।</p> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,२/१२०/५ अट्ठ-कम्मब्भंतरो त्ति अंतरप्पा। < | <p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,२/१२०/५ अट्ठ-कम्मब्भंतरो त्ति अंतरप्पा। </p> | ||
<p class="HindiSentence">= आठ कर्मों के भीतर रहता है इसलिए अन्तरात्मा है। </p> | <p class="HindiSentence">= आठ कर्मों के भीतर रहता है इसलिए अन्तरात्मा है। </p> | ||
([[महापुराण]] सर्ग संख्या २४/१०३,१०७) <br> | ([[महापुराण]] सर्ग संख्या २४/१०३,१०७) <br> | ||
[[ज्ञानसार]] श्लोक संख्या ३१ धर्मध्यानं ध्यायति दर्शनज्ञानयोः परिणतः नित्यम्। सः भण्यते अन्तरात्मा लक्ष्यते ज्ञानवद्भिः ।।३१।। < | <p class="SanskritPrakritSentence">[[ज्ञानसार]] श्लोक संख्या ३१ धर्मध्यानं ध्यायति दर्शनज्ञानयोः परिणतः नित्यम्। सः भण्यते अन्तरात्मा लक्ष्यते ज्ञानवद्भिः ।।३१।। </p> | ||
<p class="HindiSentence">= जो धर्मध्यान को ध्याता है, नित्य दर्शन व विज्ञान से परिणत रहता है, उसको अन्तरात्मा कहते हैं।</p> | <p class="HindiSentence">= जो धर्मध्यान को ध्याता है, नित्य दर्शन व विज्ञान से परिणत रहता है, उसको अन्तरात्मा कहते हैं।</p> | ||
[[कार्तिकेयानुप्रेक्षा]] / मूल या टीका गाथा संख्या १९४ जे जिण-वयणे कुसला भेयं जाणंति जीवदेहाणं। णिज्जिय-दुट्ठट्ठ-मया अंतरअप्पा य ते तिविहा ।।१९४।। < | <p class="SanskritPrakritSentence">[[कार्तिकेयानुप्रेक्षा]] / मूल या टीका गाथा संख्या १९४ जे जिण-वयणे कुसला भेयं जाणंति जीवदेहाणं। णिज्जिय-दुट्ठट्ठ-मया अंतरअप्पा य ते तिविहा ।।१९४।। </p> | ||
<p class="HindiSentence">= जो जिनवचनों में कुशल हैं, जीव और देह के भेद को जानते हैं, तथा जिन्होंने आठ दुष्ट मदों को जीत लिया है वे अन्तरात्मा हैं।</p> | <p class="HindiSentence">= जो जिनवचनों में कुशल हैं, जीव और देह के भेद को जानते हैं, तथा जिन्होंने आठ दुष्ट मदों को जीत लिया है वे अन्तरात्मा हैं।</p> | ||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> अन्तरात्मा के भेद </LI> </OL> | <OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> अन्तरात्मा के भेद </LI> </OL> | ||
[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या १४/४९ अविरतगुणस्थाने तद्योग्याशुभलेश्यापरिणतो जघन्यान्तरात्मा, क्षीणकषायगुणस्थाने पुनरुत्कृष्टः, अविरतक्षीणकषाययोर्मध्ये मध्यमः। < | <p class="SanskritPrakritSentence">[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या १४/४९ अविरतगुणस्थाने तद्योग्याशुभलेश्यापरिणतो जघन्यान्तरात्मा, क्षीणकषायगुणस्थाने पुनरुत्कृष्टः, अविरतक्षीणकषाययोर्मध्ये मध्यमः। </p> | ||
<p class="HindiSentence">= अविरत गुणस्थान में उसके योग्य अशुभ लेश्या से परिणत जघन्य अन्तरात्मा है, और क्षीणकषाय गुणस्थान में उत्कृष्ट अन्तरात्मा है। अविरत और क्षीणकषाय गुणस्थानों के बीच में जो सात गुणस्थान हैं सो उनमें मध्यम अन्तरात्मा है। </p> | <p class="HindiSentence">= अविरत गुणस्थान में उसके योग्य अशुभ लेश्या से परिणत जघन्य अन्तरात्मा है, और क्षीणकषाय गुणस्थान में उत्कृष्ट अन्तरात्मा है। अविरत और क्षीणकषाय गुणस्थानों के बीच में जो सात गुणस्थान हैं सो उनमें मध्यम अन्तरात्मा है। </p> | ||
([[नियमसार]] / [[नियमसार तात्त्पर्यवृत्ति | तात्त्पर्यवृत्ति ]] गाथा संख्या १४९ में `मार्ग प्रकाश' से उद्धृत)<br> | ([[नियमसार]] / [[नियमसार तात्त्पर्यवृत्ति | तात्त्पर्यवृत्ति ]] गाथा संख्या १४९ में `मार्ग प्रकाश' से उद्धृत)<br> | ||
स.श.भा.४ अन्तरात्मा के तीन भेद हैं - उत्तम अन्तरात्मा, मध्यम अन्तरात्मा, और जघन्य अन्तरात्मा। अन्तरंग - बहिरंग - परिग्रह का त्याग करनेवाले, विषय कषायों को जीतनेवाले और शुद्धोपयोग में लीन होनेवाले तत्त्वज्ञानी योगीश्वर `उत्तम अन्तरात्मा' कहलाते हैं, देशव्रत का पालन करनेवाले गृहस्थ तथा छट्ठे गुणस्थानवर्ती मुनि `मध्यम अन्तरात्मा' कहे जाते हैं और तत्त्व श्रद्धा के साथ व्रतों को न रखनेवाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीव `जघन्य अन्तरात्मा' रूप से निर्दिष्ट हैं।<br> | स.श.भा.४ अन्तरात्मा के तीन भेद हैं - उत्तम अन्तरात्मा, मध्यम अन्तरात्मा, और जघन्य अन्तरात्मा। अन्तरंग - बहिरंग - परिग्रह का त्याग करनेवाले, विषय कषायों को जीतनेवाले और शुद्धोपयोग में लीन होनेवाले तत्त्वज्ञानी योगीश्वर `उत्तम अन्तरात्मा' कहलाते हैं, देशव्रत का पालन करनेवाले गृहस्थ तथा छट्ठे गुणस्थानवर्ती मुनि `मध्यम अन्तरात्मा' कहे जाते हैं और तत्त्व श्रद्धा के साथ व्रतों को न रखनेवाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीव `जघन्य अन्तरात्मा' रूप से निर्दिष्ट हैं।<br> | ||
<OL start=3 class="HindiNumberList"> <LI> अन्तरात्मा के भेदों के लक्षण </LI> </OL> | <OL start=3 class="HindiNumberList"> <LI> अन्तरात्मा के भेदों के लक्षण </LI> </OL> | ||
[[कार्तिकेयानुप्रेक्षा]] / मूल या टीका गाथा संख्या १९५-१९७ पंच-महव्वय-जुत्ता धम्मे सुक्के वि संठिदा णिच्चं। णिज्जिय-सयल-पमाया, उक्किट्ठा अंतरा होंति।। सावयगुणेहिं जुत्तो पमत्त-विरदा य मज्झिमा होंति। जिणहवणे अणुरत्ता उवसमसीला महासत्ता ।।१९६।। अविरय-सम्मादिट्ठी होंति जहण्णा जिणिंदपयभत्ता। अप्पाणं णिंदंता गुणगहणे सुट्ठु अणुरत्ता ।।१९७।। < | <p class="SanskritPrakritSentence">[[कार्तिकेयानुप्रेक्षा]] / मूल या टीका गाथा संख्या १९५-१९७ पंच-महव्वय-जुत्ता धम्मे सुक्के वि संठिदा णिच्चं। णिज्जिय-सयल-पमाया, उक्किट्ठा अंतरा होंति।। सावयगुणेहिं जुत्तो पमत्त-विरदा य मज्झिमा होंति। जिणहवणे अणुरत्ता उवसमसीला महासत्ता ।।१९६।। अविरय-सम्मादिट्ठी होंति जहण्णा जिणिंदपयभत्ता। अप्पाणं णिंदंता गुणगहणे सुट्ठु अणुरत्ता ।।१९७।। </p> | ||
<p class="HindiSentence">= जो जीव पाँचों महाव्रतों से युक्त होते हैं, धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान में सदा स्थित रहते हैं, तथा जो समस्त प्रमादों को जीत लेते हैं वे उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं ।।१९५।। श्रावक के व्रतों को पालनेवाले गृहस्थ और प्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि `मध्यम अन्तरात्मा' होते हैं। ये जिनवचन में अनुरक्त रहते हैं, उपशमस्वभावी होते हैं और महापराक्रमी होते हैं ।।१९६।। जो जीव अविरत सम्यग्दृष्टि हैं वे जघन्य अन्तरात्मा हैं। वे जिन भगवान् के चरणों के भक्त होते हैं, अपनी निन्दा करते रहते हैं और गुणों को ग्रहण करने में बड़े अनुरागी होते हैं ।।१९७।।</p> | <p class="HindiSentence">= जो जीव पाँचों महाव्रतों से युक्त होते हैं, धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान में सदा स्थित रहते हैं, तथा जो समस्त प्रमादों को जीत लेते हैं वे उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं ।।१९५।। श्रावक के व्रतों को पालनेवाले गृहस्थ और प्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि `मध्यम अन्तरात्मा' होते हैं। ये जिनवचन में अनुरक्त रहते हैं, उपशमस्वभावी होते हैं और महापराक्रमी होते हैं ।।१९६।। जो जीव अविरत सम्यग्दृष्टि हैं वे जघन्य अन्तरात्मा हैं। वे जिन भगवान् के चरणों के भक्त होते हैं, अपनी निन्दा करते रहते हैं और गुणों को ग्रहण करने में बड़े अनुरागी होते हैं ।।१९७।।</p> | ||
नि.सा.टी.१४९ में `मार्ग प्रकाश' से उद्धृत - जघन्यमध्यम त्कृष्टभेदादविरतः सुदृक्। प्रथमः क्षीणमोहोन्त्यो मध्यमो मध्यमस्तयोः। < | <p class="SanskritPrakritSentence">नि.सा.टी.१४९ में `मार्ग प्रकाश' से उद्धृत - जघन्यमध्यम त्कृष्टभेदादविरतः सुदृक्। प्रथमः क्षीणमोहोन्त्यो मध्यमो मध्यमस्तयोः। </p> | ||
<p class="HindiSentence">= अन्तरात्मा के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे (तीन) भेद हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि वह प्रथम (जघन्य) अन्तरात्मा है। क्षीणमोह अन्तिम अर्थात् उत्कृष्ट अन्तरात्मा है और उन दो के मध्य में स्थित मध्यम अन्तरात्मा है।</p> | <p class="HindiSentence">= अन्तरात्मा के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे (तीन) भेद हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि वह प्रथम (जघन्य) अन्तरात्मा है। क्षीणमोह अन्तिम अर्थात् उत्कृष्ट अन्तरात्मा है और उन दो के मध्य में स्थित मध्यम अन्तरात्मा है।</p> | ||
[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या १४/४९/२ - <b>देखे </b>[[ऊपरवाला शीर्षक सं.]] २।<br> | [[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या १४/४९/२ - <b>देखे </b>[[ऊपरवाला शीर्षक सं.]] २।<br> |
Revision as of 11:45, 24 May 2009
बाह्य विषयों से जीव की दृष्टि हटकर जब अन्तर की ओर झुक जाती है तब अन्तरात्मा कहलाता है।
- अन्तरात्मा सामान्य का लक्षण
मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा संख्या ५ अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो।
= इन्द्रियनिकूं बाह्य आत्मा कहिए। उसमें आत्मत्व का संकल्प करे सो बहिरात्मा है। बहुरि अन्तरात्मा है सो अन्तरंग विषै आत्मा का प्रगट अनुभवगोचर संकल्प है।
(द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या १४/४६/८)
नियमसार / मूल या टीका गाथा संख्या १४९-१५०/३०० आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अंतरंगप्पा।...।।१४९।। = जप्पेसु जो ण वट्टइसो उच्चइ अंतरंगप्पा ।।१५०।।
= आवश्यक सहित श्रमण वह अन्तरात्मा है ।।१४९।। जो जल्पों में नहीं वर्तता, वह अन्तरात्मा कहलाता है ।।१५०।।
रयणसार गाथा संख्या १४१ सिविणे वि ण भुंजइ विसयाइं देहाइभिण्णभावमई। भूंजइ णियप्परूवो सिवसुहरत्तो दु मज्झिमप्पो सो ।।१४१।।
= देहादिक से अपने को भिन्न समझनेवाला जो व्यक्ति स्वप्न में भी विषयों को नहीं भोगता परन्तु निजात्मा को ही भोगता है, तणा शिव सुख में रत रहता है वह अन्तरात्मा है।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार संख्या १४/२१/१३ देह विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ। परम-समाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ।।१४।।
= जो पुरुष परमात्मा को शरीर से जुदा केवलज्ञान कर पूर्ण जानता है, वही परम समाधि में निष्ठता हुआ अन्तरात्मा अर्थात् विवेकी है।
धवला पुस्तक संख्या १/१,१,२/१२०/५ अट्ठ-कम्मब्भंतरो त्ति अंतरप्पा।
= आठ कर्मों के भीतर रहता है इसलिए अन्तरात्मा है।
(महापुराण सर्ग संख्या २४/१०३,१०७)
ज्ञानसार श्लोक संख्या ३१ धर्मध्यानं ध्यायति दर्शनज्ञानयोः परिणतः नित्यम्। सः भण्यते अन्तरात्मा लक्ष्यते ज्ञानवद्भिः ।।३१।।
= जो धर्मध्यान को ध्याता है, नित्य दर्शन व विज्ञान से परिणत रहता है, उसको अन्तरात्मा कहते हैं।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा संख्या १९४ जे जिण-वयणे कुसला भेयं जाणंति जीवदेहाणं। णिज्जिय-दुट्ठट्ठ-मया अंतरअप्पा य ते तिविहा ।।१९४।।
= जो जिनवचनों में कुशल हैं, जीव और देह के भेद को जानते हैं, तथा जिन्होंने आठ दुष्ट मदों को जीत लिया है वे अन्तरात्मा हैं।
- अन्तरात्मा के भेद
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या १४/४९ अविरतगुणस्थाने तद्योग्याशुभलेश्यापरिणतो जघन्यान्तरात्मा, क्षीणकषायगुणस्थाने पुनरुत्कृष्टः, अविरतक्षीणकषाययोर्मध्ये मध्यमः।
= अविरत गुणस्थान में उसके योग्य अशुभ लेश्या से परिणत जघन्य अन्तरात्मा है, और क्षीणकषाय गुणस्थान में उत्कृष्ट अन्तरात्मा है। अविरत और क्षीणकषाय गुणस्थानों के बीच में जो सात गुणस्थान हैं सो उनमें मध्यम अन्तरात्मा है।
(नियमसार / तात्त्पर्यवृत्ति गाथा संख्या १४९ में `मार्ग प्रकाश' से उद्धृत)
स.श.भा.४ अन्तरात्मा के तीन भेद हैं - उत्तम अन्तरात्मा, मध्यम अन्तरात्मा, और जघन्य अन्तरात्मा। अन्तरंग - बहिरंग - परिग्रह का त्याग करनेवाले, विषय कषायों को जीतनेवाले और शुद्धोपयोग में लीन होनेवाले तत्त्वज्ञानी योगीश्वर `उत्तम अन्तरात्मा' कहलाते हैं, देशव्रत का पालन करनेवाले गृहस्थ तथा छट्ठे गुणस्थानवर्ती मुनि `मध्यम अन्तरात्मा' कहे जाते हैं और तत्त्व श्रद्धा के साथ व्रतों को न रखनेवाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीव `जघन्य अन्तरात्मा' रूप से निर्दिष्ट हैं।
- अन्तरात्मा के भेदों के लक्षण
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा संख्या १९५-१९७ पंच-महव्वय-जुत्ता धम्मे सुक्के वि संठिदा णिच्चं। णिज्जिय-सयल-पमाया, उक्किट्ठा अंतरा होंति।। सावयगुणेहिं जुत्तो पमत्त-विरदा य मज्झिमा होंति। जिणहवणे अणुरत्ता उवसमसीला महासत्ता ।।१९६।। अविरय-सम्मादिट्ठी होंति जहण्णा जिणिंदपयभत्ता। अप्पाणं णिंदंता गुणगहणे सुट्ठु अणुरत्ता ।।१९७।।
= जो जीव पाँचों महाव्रतों से युक्त होते हैं, धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान में सदा स्थित रहते हैं, तथा जो समस्त प्रमादों को जीत लेते हैं वे उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं ।।१९५।। श्रावक के व्रतों को पालनेवाले गृहस्थ और प्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि `मध्यम अन्तरात्मा' होते हैं। ये जिनवचन में अनुरक्त रहते हैं, उपशमस्वभावी होते हैं और महापराक्रमी होते हैं ।।१९६।। जो जीव अविरत सम्यग्दृष्टि हैं वे जघन्य अन्तरात्मा हैं। वे जिन भगवान् के चरणों के भक्त होते हैं, अपनी निन्दा करते रहते हैं और गुणों को ग्रहण करने में बड़े अनुरागी होते हैं ।।१९७।।
नि.सा.टी.१४९ में `मार्ग प्रकाश' से उद्धृत - जघन्यमध्यम त्कृष्टभेदादविरतः सुदृक्। प्रथमः क्षीणमोहोन्त्यो मध्यमो मध्यमस्तयोः।
= अन्तरात्मा के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे (तीन) भेद हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि वह प्रथम (जघन्य) अन्तरात्मा है। क्षीणमोह अन्तिम अर्थात् उत्कृष्ट अन्तरात्मा है और उन दो के मध्य में स्थित मध्यम अन्तरात्मा है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या १४/४९/२ - देखे ऊपरवाला शीर्षक सं. २।
- जीवको अन्तरात्मा कहने की विवक्षा - देखे जीव १/३।