अक्षर: Difference between revisions
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<p> धवला पुस्तक 6/1,9-1,14/21/11 खरणभावा अक्खरं केवलणाणं। </p> | |||
- क्षरण अर्थात् विनाश का अभाव होने से केवलज्ञान अक्षर कहलाता है।< | <p>- क्षरण अर्थात् विनाश का अभाव होने से केवलज्ञान अक्षर कहलाता है।</p> | ||
<p> गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 333/728/8 न क्षरतीत्यक्षरं द्रव्यरूपतया विनाशाभावात्। </p> | |||
<p | <p>= द्रव्य रूप से जिसका विनाश नहीं होता वह अक्षर है।</p> | ||
< | <p>2. अक्षर के भेद</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 13/5,5,48/264/10 लद्धिअक्खरं णिव्वत्तिअक्खरं संठाणक्खरं चेदि तिविहमक्खरं। </p> | |||
<p | <p>= अक्षर के तीन भेद हैं - लब्ध्यक्षर, निर्वृत्त्यक्षर, व संस्थानाक्षर। </p> | ||
( | <p>( गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 333/728/7)</p> | ||
< | <p>3. लब्ध्यक्षर का लक्षण</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 13/5,5,48/264/11 सुहुमणिगोदअपज्जत्तप्पहुडि जाव सुदकेवलि त्ति ताव जे खंओवसमा तेसिं लद्धिअक्खरमिदि सण्णा। .....संपहि लद्धिअक्खरं जहण्णं सुहुमणिगोदलद्धिअपज्जत्तस्स होदि, उक्कस्सं चोद्दसपुव्विस्स। </p> | |||
<p | <p>= सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक से लेकर श्रुतकेवली तक जीवों के जितने क्षयोपशम होते हैं उन सबकी लब्ध्यक्षर संज्ञा है। जघन्य लब्ध्यक्षर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक के होता है और उत्कृष्ट चौदह पूर्वधारी के होता है।</p> | ||
<p> गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 322/682/4 लब्धिर्नामश्रुतज्ञानावरणक्षयोगशमः अर्थग्रहणशक्तिर्वा, लब्ध्या अक्षरं अविनश्वरं लब्ध्यक्षरं तावतः क्षयोपशमस्य सदा विद्यमानत्वात्। </p> | |||
<p | <p>= लब्धि कहिये श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम वा जानन शक्ति ताकरि अक्षरं कहिए अविनाशी सो ऐसा पर्याय ज्ञान ही है, जातै इतना क्षयोपशम सदा काल विद्यमान रहे हैं।</p> | ||
<p> गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 333/728/8 पर्यायज्ञानावरणप्रभृतिश्रुतकेवलज्ञानावरणपर्यन्तक्षयोगशमादुद्भूतात्मनोऽर्थ ग्रहणशक्तिर्लब्धिः भावेन्द्रियं, तद्रूपमक्षरंलैब्ध्यरं अक्षरज्ञानोत्पत्तिहेतुत्वात्। </p> | |||
<p | <p>= तहाँ पर्यायज्ञानावरण आदि श्रुतकेवलज्ञानावरण पर्यन्त के क्षयोपशमतैं उत्पन्न भई जो पदार्थ जानने की शक्ति सो लब्धि रूप भावेन्द्रिय तीहिं स्वरूप जो अक्षर कहिये अविनाश सो लब्धि अक्षर कहिये जातैं अक्षर ज्ञान उपजने कौं कारण है।</p> | ||
< | <p>4. निर्वृत्त्यक्षर सामान्य विशेषका लक्षण</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 13/5,5,48/265/1 जीवाणं मुहादो णिगमस्स सद्दस्स णिव्वत्ति अक्खरमिदि सण्णा। तं च णिव्वत्तिअक्खरं वत्तमव्वत्तं चेदि दुविहं। तत्थ वत्तं सण्णिपंचिंदियपज्जत्तएसु होदि। अव्वत्तं बेइंदियप्पहुडि जाव सण्णिपंचिंदियपज्जत्तएसु होदि।.....णिव्वत्ति अक्खरं जहण्णयं बेइंदियपज्जत्तादिसु, उक्कस्सयं चोद्दसपुव्विस्स। </p> | |||
<p | <p>= जीवों के मुख से निकले हुए शब्द की निर्वृत्त्यक्षर संज्ञा है। उस निर्वृत्त्यक्षर के व्यक्त और अव्यक्त ऐसे दो भेद हैं। उनमें से व्यक्त निर्वृत्त्यक्षर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों के होता है, और अव्यक्त निर्वृत्त्यक्षर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों के होता है, और अव्यक्त निर्वृत्त्यक्षर द्विइन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तक जीवों के होता है और उत्कृष्ट चौदह पूर्वधारी के होता है।</p> | ||
<p> गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 333/728/9 कण्ठोष्ठताल्वादिस्थानस्पृष्टतादिकरणप्रयत्ननिर्वर्त्यमानस्वरूपं अकारादिककारादिस्वरव्यञ्जनरूपं मूलवर्णतत्संयोगादिसंस्थानं निर्वृत्त्यक्षरम्। </p> | |||
<p | <p>= बहुरि कंठ, ओठ, तालु आदि अक्षर बुलावने के स्थान अर होठनिका परस्पर मिलना सो स्पृष्टताकौं आदि देकरि प्रयत्न तीहिं करि उत्पन्न भया शब्द रूप अकारादि स्वर अर ककारादि व्यञ्जन अर संयोगी अक्षर सो निर्वृत्त्यक्षर कहिए।</p> | ||
< | <p>4. स्थापना या संस्थानाक्षर का लक्षण</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 13/5,5,48/265/4 जं तं संठाणक्खरं णाम तं ट्ठवणक्खरमिदि घेत्तव्वं। का ट्ठवणा णाम। एदमिदमक्खर मिदि अभेदेण बुद्धीए जा ट्ठविया लीहादव्वं वा तं ट्ठवणक्खरं णाम। </p> | |||
<p | <p>= संस्थानाक्षर का दूसरा नाम स्थापना अक्षर है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। <b>प्रश्न</b> -स्थापना क्या है ? <b>उत्तर</b> - `यह वह अक्षर है' इस प्रकार अभेद रूप से बुद्धिमें जो स्थापना होती है या जो लिखा जाता है वह स्थापना अक्षर है।</p> | ||
<p> गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 333/728/1 पुस्तकेषु तद्देशानुरूपतयालिखितसंस्थानं स्थापनाक्षरम्। </p> | |||
<p | <p>= पुस्तकादि विषैं निजदेश की प्रवृत्ति के अनुसार अकारादिकनिका आकारकरि लिखिए सो स्थापना अक्षर कहिए।</p> | ||
< | <p>5. बीजाक्षर का लक्षण</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 9/4,1,44/127/1 संखित्तसद्दरयणमणं तत्थावगमहेदुभूदाणेगलिंगसगयं बीजपदं णाम। </p> | |||
<p | <p>= संक्षिप्त शब्द रचना से सहित व अनन्त अर्थों के ज्ञान के हेतुभूत अनेक चिह्नों से संयुक्त बीजपद कहलाता है।</p> | ||
< | <p>6. ह्रस्व, दीर्घ व प्लुत अक्षर का लक्षण</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 13/5,5,46/248/3 एकमात्रो ह्रस्वः, द्विमात्रो दीर्घः, त्रिमात्रः प्लुतः, मात्रार्द्धं व्यञ्जनम्। </p> | |||
<p | <p>= एक मात्रावाला वर्ण ह्रस्व होता है, दो मात्रावाला वर्ण दीर्घ होता है, तीन मात्रावाला वर्ण प्लुत होता है और अर्ध मात्रावाला वर्ण व्यञ्जन होता है।</p> | ||
< | <p>7. व्यंजन स्वरादि की अपेक्षा भेद व इनके संयोगी भंग</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 13/5,5,45/247/8 वग्गक्खरा पंचवीस, अंतत्था चत्तारि, चत्तारि उम्हाक्खरा, एवं तेत्तीसा होंति वंजणाणि 33। अ इ उ ऋ लृ ए ऐ ओ औ एवमेदे णव सरा हरस्स-दीह-पुदभेदेण पुध पुध भिण्णा सत्तावीस होंति। एचां ह्रस्वा न सन्तीति चेत्-न, प्राकृते तत्र तत्सत्त्वाविरोधात्। अजोगवाहा अं अः)(क)(प इति चत्तारि चेव होंति। एवं सव्वक्खराणि चउसट्ठी।</p> | |||
<p> धवला पुस्तक 13/5,5,46/249/9 एदेसिमक्खराणं संखं रासिं दुवे विरलिय दुगुणिदमण्णोण्णेण संगुणे अण्णोण्णसमब्भासो एत्तिओ होदि-18446744073709551616। एदम्मि संखाणे रूवूणे कदे संजोगक्खराणं गणिदं होदि त्ति णिद्दिसे।</p> | |||
वर्णाक्षर पच्चीस, अंतस्थ चार और ऊष्माक्षर चार इस प्रकार तेंतीस व्यञ्जन होते हैं। अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ इस प्रकार ये नौ स्वर अलग-अलग ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत के भेद से सत्ताईस होते हैं। शंका-एच् अर्थात् ए, ऐ, ओ, औ इनके ह्रस्व भेद नहीं होते ? | <p>वर्णाक्षर पच्चीस, अंतस्थ चार और ऊष्माक्षर चार इस प्रकार तेंतीस व्यञ्जन होते हैं। अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ इस प्रकार ये नौ स्वर अलग-अलग ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत के भेद से सत्ताईस होते हैं। शंका-एच् अर्थात् ए, ऐ, ओ, औ इनके ह्रस्व भेद नहीं होते ? <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि प्राकृत में उनमें इनका सद्भाव मानने में कोई विरोध नहीं आता। अयोगवाह अं अः)(क और )( प ये चार ही होते हैं। इस प्रकार सब अक्षर 64 होते हैं। .... इन अक्षरों की संख्या की राशि प्रमाण 2 का विरलन करके परस्पर गुणा करने से प्राप्त हुई राशि इतनी होती है - 18446744073709551616। इस संख्या में से एक कम करनेपर संयोगाक्षरों का प्रमाण होता है, ऐसा निर्देश निर्देश करना चाहिए। </p> | ||
<p>(विस्तार के लिए देखें [[ धवला पुस्तक संख्या#13.5 | धवला पुस्तक संख्या - 13.5]],5,46/249-260) ( गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 352-354/749-759)।</p> | |||
<p> धवला पुस्तक 13/5,5,47/260/1 जदि वि एगसंजोगक्खरमणेगेसु अत्थेसु अक्खरवच्चासावच्चासबलेण वट्टदे तो वि अक्खरमेक्कं चेव, अण्णोण्णमवेक्खिय णाणकज्जजणयाणं भेदाणुववत्तोदो। </p> | |||
<p | <p>= यद्यपि एक संयोगाक्षर अनेक अर्थों में अक्षरों के उलट-फेरके बल से रहता है तो भी अक्षर एक ही है, क्योंकि एक दूसरे को देखते हुए ज्ञान रूप कार्य को उत्पन्न करने की अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं पाया जाता।</p> | ||
< | <p>8. अन्य सम्बन्धित विषय</p> | ||
< | <p>• अक्षरात्मक शब्द - देखें [[ भाषा ]]।</p> | ||
< | <p>• अक्षरगता असत्यमृषा भाषा - देखें [[ भाषा ]]।</p> | ||
< | <p>• आगम के अपुनरुक्त अक्षर - देखें [[ आगम#1 | आगम - 1]]।</p> | ||
अक्षर संयोग तथा संयोगी अक्षरों की एकता-अनेकता सम्बन्धी शंकाएँ – | <p>अक्षर संयोग तथा संयोगी अक्षरों की एकता-अनेकता सम्बन्धी शंकाएँ – देखें [[ धवला पुस्तक संख्या#13.5 | धवला पुस्तक संख्या - 13.5]],5,46/249-250।</p> | ||
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Revision as of 16:52, 10 June 2020
धवला पुस्तक 6/1,9-1,14/21/11 खरणभावा अक्खरं केवलणाणं।
- क्षरण अर्थात् विनाश का अभाव होने से केवलज्ञान अक्षर कहलाता है।
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 333/728/8 न क्षरतीत्यक्षरं द्रव्यरूपतया विनाशाभावात्।
= द्रव्य रूप से जिसका विनाश नहीं होता वह अक्षर है।
2. अक्षर के भेद
धवला पुस्तक 13/5,5,48/264/10 लद्धिअक्खरं णिव्वत्तिअक्खरं संठाणक्खरं चेदि तिविहमक्खरं।
= अक्षर के तीन भेद हैं - लब्ध्यक्षर, निर्वृत्त्यक्षर, व संस्थानाक्षर।
( गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 333/728/7)
3. लब्ध्यक्षर का लक्षण
धवला पुस्तक 13/5,5,48/264/11 सुहुमणिगोदअपज्जत्तप्पहुडि जाव सुदकेवलि त्ति ताव जे खंओवसमा तेसिं लद्धिअक्खरमिदि सण्णा। .....संपहि लद्धिअक्खरं जहण्णं सुहुमणिगोदलद्धिअपज्जत्तस्स होदि, उक्कस्सं चोद्दसपुव्विस्स।
= सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक से लेकर श्रुतकेवली तक जीवों के जितने क्षयोपशम होते हैं उन सबकी लब्ध्यक्षर संज्ञा है। जघन्य लब्ध्यक्षर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक के होता है और उत्कृष्ट चौदह पूर्वधारी के होता है।
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 322/682/4 लब्धिर्नामश्रुतज्ञानावरणक्षयोगशमः अर्थग्रहणशक्तिर्वा, लब्ध्या अक्षरं अविनश्वरं लब्ध्यक्षरं तावतः क्षयोपशमस्य सदा विद्यमानत्वात्।
= लब्धि कहिये श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम वा जानन शक्ति ताकरि अक्षरं कहिए अविनाशी सो ऐसा पर्याय ज्ञान ही है, जातै इतना क्षयोपशम सदा काल विद्यमान रहे हैं।
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 333/728/8 पर्यायज्ञानावरणप्रभृतिश्रुतकेवलज्ञानावरणपर्यन्तक्षयोगशमादुद्भूतात्मनोऽर्थ ग्रहणशक्तिर्लब्धिः भावेन्द्रियं, तद्रूपमक्षरंलैब्ध्यरं अक्षरज्ञानोत्पत्तिहेतुत्वात्।
= तहाँ पर्यायज्ञानावरण आदि श्रुतकेवलज्ञानावरण पर्यन्त के क्षयोपशमतैं उत्पन्न भई जो पदार्थ जानने की शक्ति सो लब्धि रूप भावेन्द्रिय तीहिं स्वरूप जो अक्षर कहिये अविनाश सो लब्धि अक्षर कहिये जातैं अक्षर ज्ञान उपजने कौं कारण है।
4. निर्वृत्त्यक्षर सामान्य विशेषका लक्षण
धवला पुस्तक 13/5,5,48/265/1 जीवाणं मुहादो णिगमस्स सद्दस्स णिव्वत्ति अक्खरमिदि सण्णा। तं च णिव्वत्तिअक्खरं वत्तमव्वत्तं चेदि दुविहं। तत्थ वत्तं सण्णिपंचिंदियपज्जत्तएसु होदि। अव्वत्तं बेइंदियप्पहुडि जाव सण्णिपंचिंदियपज्जत्तएसु होदि।.....णिव्वत्ति अक्खरं जहण्णयं बेइंदियपज्जत्तादिसु, उक्कस्सयं चोद्दसपुव्विस्स।
= जीवों के मुख से निकले हुए शब्द की निर्वृत्त्यक्षर संज्ञा है। उस निर्वृत्त्यक्षर के व्यक्त और अव्यक्त ऐसे दो भेद हैं। उनमें से व्यक्त निर्वृत्त्यक्षर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों के होता है, और अव्यक्त निर्वृत्त्यक्षर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों के होता है, और अव्यक्त निर्वृत्त्यक्षर द्विइन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तक जीवों के होता है और उत्कृष्ट चौदह पूर्वधारी के होता है।
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 333/728/9 कण्ठोष्ठताल्वादिस्थानस्पृष्टतादिकरणप्रयत्ननिर्वर्त्यमानस्वरूपं अकारादिककारादिस्वरव्यञ्जनरूपं मूलवर्णतत्संयोगादिसंस्थानं निर्वृत्त्यक्षरम्।
= बहुरि कंठ, ओठ, तालु आदि अक्षर बुलावने के स्थान अर होठनिका परस्पर मिलना सो स्पृष्टताकौं आदि देकरि प्रयत्न तीहिं करि उत्पन्न भया शब्द रूप अकारादि स्वर अर ककारादि व्यञ्जन अर संयोगी अक्षर सो निर्वृत्त्यक्षर कहिए।
4. स्थापना या संस्थानाक्षर का लक्षण
धवला पुस्तक 13/5,5,48/265/4 जं तं संठाणक्खरं णाम तं ट्ठवणक्खरमिदि घेत्तव्वं। का ट्ठवणा णाम। एदमिदमक्खर मिदि अभेदेण बुद्धीए जा ट्ठविया लीहादव्वं वा तं ट्ठवणक्खरं णाम।
= संस्थानाक्षर का दूसरा नाम स्थापना अक्षर है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। प्रश्न -स्थापना क्या है ? उत्तर - `यह वह अक्षर है' इस प्रकार अभेद रूप से बुद्धिमें जो स्थापना होती है या जो लिखा जाता है वह स्थापना अक्षर है।
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 333/728/1 पुस्तकेषु तद्देशानुरूपतयालिखितसंस्थानं स्थापनाक्षरम्।
= पुस्तकादि विषैं निजदेश की प्रवृत्ति के अनुसार अकारादिकनिका आकारकरि लिखिए सो स्थापना अक्षर कहिए।
5. बीजाक्षर का लक्षण
धवला पुस्तक 9/4,1,44/127/1 संखित्तसद्दरयणमणं तत्थावगमहेदुभूदाणेगलिंगसगयं बीजपदं णाम।
= संक्षिप्त शब्द रचना से सहित व अनन्त अर्थों के ज्ञान के हेतुभूत अनेक चिह्नों से संयुक्त बीजपद कहलाता है।
6. ह्रस्व, दीर्घ व प्लुत अक्षर का लक्षण
धवला पुस्तक 13/5,5,46/248/3 एकमात्रो ह्रस्वः, द्विमात्रो दीर्घः, त्रिमात्रः प्लुतः, मात्रार्द्धं व्यञ्जनम्।
= एक मात्रावाला वर्ण ह्रस्व होता है, दो मात्रावाला वर्ण दीर्घ होता है, तीन मात्रावाला वर्ण प्लुत होता है और अर्ध मात्रावाला वर्ण व्यञ्जन होता है।
7. व्यंजन स्वरादि की अपेक्षा भेद व इनके संयोगी भंग
धवला पुस्तक 13/5,5,45/247/8 वग्गक्खरा पंचवीस, अंतत्था चत्तारि, चत्तारि उम्हाक्खरा, एवं तेत्तीसा होंति वंजणाणि 33। अ इ उ ऋ लृ ए ऐ ओ औ एवमेदे णव सरा हरस्स-दीह-पुदभेदेण पुध पुध भिण्णा सत्तावीस होंति। एचां ह्रस्वा न सन्तीति चेत्-न, प्राकृते तत्र तत्सत्त्वाविरोधात्। अजोगवाहा अं अः)(क)(प इति चत्तारि चेव होंति। एवं सव्वक्खराणि चउसट्ठी।
धवला पुस्तक 13/5,5,46/249/9 एदेसिमक्खराणं संखं रासिं दुवे विरलिय दुगुणिदमण्णोण्णेण संगुणे अण्णोण्णसमब्भासो एत्तिओ होदि-18446744073709551616। एदम्मि संखाणे रूवूणे कदे संजोगक्खराणं गणिदं होदि त्ति णिद्दिसे।
वर्णाक्षर पच्चीस, अंतस्थ चार और ऊष्माक्षर चार इस प्रकार तेंतीस व्यञ्जन होते हैं। अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ इस प्रकार ये नौ स्वर अलग-अलग ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत के भेद से सत्ताईस होते हैं। शंका-एच् अर्थात् ए, ऐ, ओ, औ इनके ह्रस्व भेद नहीं होते ? उत्तर - नहीं, क्योंकि प्राकृत में उनमें इनका सद्भाव मानने में कोई विरोध नहीं आता। अयोगवाह अं अः)(क और )( प ये चार ही होते हैं। इस प्रकार सब अक्षर 64 होते हैं। .... इन अक्षरों की संख्या की राशि प्रमाण 2 का विरलन करके परस्पर गुणा करने से प्राप्त हुई राशि इतनी होती है - 18446744073709551616। इस संख्या में से एक कम करनेपर संयोगाक्षरों का प्रमाण होता है, ऐसा निर्देश निर्देश करना चाहिए।
(विस्तार के लिए देखें धवला पुस्तक संख्या - 13.5,5,46/249-260) ( गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 352-354/749-759)।
धवला पुस्तक 13/5,5,47/260/1 जदि वि एगसंजोगक्खरमणेगेसु अत्थेसु अक्खरवच्चासावच्चासबलेण वट्टदे तो वि अक्खरमेक्कं चेव, अण्णोण्णमवेक्खिय णाणकज्जजणयाणं भेदाणुववत्तोदो।
= यद्यपि एक संयोगाक्षर अनेक अर्थों में अक्षरों के उलट-फेरके बल से रहता है तो भी अक्षर एक ही है, क्योंकि एक दूसरे को देखते हुए ज्ञान रूप कार्य को उत्पन्न करने की अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं पाया जाता।
8. अन्य सम्बन्धित विषय
• अक्षरात्मक शब्द - देखें भाषा ।
• अक्षरगता असत्यमृषा भाषा - देखें भाषा ।
• आगम के अपुनरुक्त अक्षर - देखें आगम - 1।
अक्षर संयोग तथा संयोगी अक्षरों की एकता-अनेकता सम्बन्धी शंकाएँ – देखें धवला पुस्तक संख्या - 13.5,5,46/249-250।