केवलज्ञान विषयक शंका−समाधान: Difference between revisions
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Revision as of 14:18, 20 July 2020
- केवलज्ञान विषयक शंका−समाधान
- केवलज्ञान असहाय कैसे है ?
कषायपाहुड़ 1/1,1/15/21/1 केवलमसहायं इन्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्षत्वात् । आत्मसहायमिति न तत्केवलमिति चेत्; न; ज्ञानव्यतिरिक्तात्मनोऽसत्त्वात् । अर्थसहायत्वान्न केवलमिति चेत्; न; विनष्टानुत्पन्नातीतानागतेऽर्थेष्वपि तत्प्रवृत्त्युपलम्भात् ।=असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनोव्यापार की अपेक्षा से रहित है। प्रश्न—केवलज्ञान आत्मा की सहायता से उत्पन्न होता है, इसलिए इसे केवल नहीं रह सकते? उत्तर—नहीं, क्योंकि ज्ञान से भिन्न आत्मा नहीं पाया जाता है, इसलिए इसे असहाय कहने में आपत्ति नहीं है। प्रश्न—केवलज्ञान अर्थ की सहायता लेकर प्रवृत्त होता है, इसलिए इसे केवल (असहाय) नहीं कह सकते ? उत्तर—नहीं, क्योंकि नष्ट हुए अतीत पदार्थों में और उत्पन्न न हुए अनागत पदार्थों में भी केवलज्ञान की प्रवृत्ति पायी जाती है, इसलिए यह अर्थ की सहायता से होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/51/173/15 प्रत्यक्षस्यावध्यादे: आत्मकारणत्वादसहायतास्तीति केवलत्वप्रसंग: स्यादिति चेन्न रूढेर्निराकृताशेषज्ञानावरणस्योपजायमानस्यैव बोधस्य केवलशब्दप्रवृत्ते:।=प्रश्न−प्रत्यक्ष अवधि व मन:पर्यय ज्ञान भी इन्द्रियादि की अपेक्षा न करके केवल आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनको भी केवलज्ञान क्यों नहीं कहते हो? उत्तर−जिसने सर्व ज्ञानावरणकर्म का नाश किया है, ऐसे केवलज्ञान को ही ‘केवलज्ञान’ कहना रूढ है, अन्य ज्ञानों में ‘केवल’ शब्द की रूढि नहीं है।
धवला/1/1,1,22/199/1 प्रमेयमपि मैवमैक्षिष्टासहायत्वादिति चेन्न, तस्य तत्स्वभावत्वात् । न हि स्वभावा: परपर्यनुयोगार्हा: अव्यवस्थापत्तेरिति।=प्रश्न−यदि केवलज्ञान असहाय है, तो वह प्रमेय को भी मत जानो ? उत्तर−ऐसा नहीं है, क्योंकि पदार्थों का जानना उसका स्वभाव है। और वस्तु के स्वभाव दूसरों के प्रश्नों के योग्य नहीं हुआ करते हैं। यदि स्वभाव में भी प्रश्न होने लगें तो फिर वस्तुओं की व्यवस्था ही नहीं बन सकती।
- विनष्ट व अनुत्पन्न पदार्थों का ज्ञान कैसे सम्भव है
कषायपाहुड़ 1/1,1/15/22/2 असति प्रवृत्तौ खरविषाणेऽपि प्रवृत्तिरस्त्विति चेत्; न; तस्य भूतभविष्यच्छत्तिरूपतयाऽप्यसत्त्वात् । वर्तमानपर्याणामेव किमित्यर्थत्वमिष्यत इति चेत्; न; ‘अर्यते परिच्छिद्यते’ इति न्यायतस्तत्रार्थत्वोपलम्भात् । तदनागतातीतपर्यायेष्वपि समानमिति चेत्; न; तद्ग्रहणस्य वर्तमानार्थ ग्रहणपूर्वकत्वात् ।=प्रश्न−यदि विनष्ट और अनुत्पन्नरूप से असत् पदार्थों में केवलज्ञान की प्रवृत्ति होती है, तो खरविषाण में भी उसकी प्रवृत्ति होओ? उत्तर−नहीं, क्योंकि खरविषाण का जिस प्रकार वर्तमान में सत्त्व नहीं पाया जाता है, उसी प्रकार उसका भूतशक्ति और भविष्यत् शक्तिरूप से भी सत्त्व नहीं पाया जाता है। प्रश्न−यदि अर्थ में भूत और भविष्यत् पर्यायें शक्तिरूप से विद्यमान रहती हैं तो केवल वर्तमान पर्याय को ही अर्थ क्यों कहा जाता है? उत्तर−नहीं, क्योंकि, ‘जो जाना जाता है उसे अर्थ कहते हैं’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार वर्तमान पर्यायों में ही अर्थपना पाया जाता है। प्रश्न−यह व्युत्पत्ति अर्थ अनागत और अतीत पर्यायों में भी समान है? उत्तर−नहीं, क्योंकि उनका ग्रहण वर्तमान अर्थ के ग्रहण पूर्वक होता है।
धवला 6/1,9-1,14/29/6 णट्ठाणुप्पण्णअत्थाणं कधं तदो परिच्छेदो। ण, केवलत्तादो वज्झत्थावेक्खाए विणा तदुप्पत्तीए विरोहाभावा। ण तस्स विपज्जयणाणत्तं पसज्जदे, जहारूवेण परिच्छित्तीदो। ण गद्दहसिंगेण विउचारो तस्स अच्चंताभावरूवत्तादो।=प्रश्न−जो पदार्थ नष्ट हो चुके हैं और जो पदार्थ अभी उत्पन्न नहीं हुए हैं, उनका केवलज्ञान से कैसे ज्ञान हो सकता है? उत्तर−नहीं, क्योंकि केवलज्ञान के सहाय निरपेक्ष होने से बाह्य पदार्थों की अपेक्षा के बिना उनके, (विनष्ट और अनुत्पन्न के) ज्ञान की उत्पत्ति में कोई विरोध नहीं है। और केवलज्ञान के विपर्ययज्ञानपने का भी प्रसंग नहीं आता है, क्योंकि वह यथार्थ स्वरूप को पदार्थों से जानता है। और न गधे के सींग के साथ व्यभिचार दोष आता है, क्योंकि वह अत्यन्ताभाव रूप है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/37 न खल्वेतदयुक्तं—दृष्टाविरोधात् । दृश्यते हि छद्मस्थस्यापि वर्तमानमिव व्यतीतमनागतं वा वस्तु चिन्तयत: संविदालम्बितस्तदाकार:। किंच चित्रपटीयस्थानत्वात् संविद:। यथा हि चित्रपट्यामतिवाहितानामनुपस्थितानां वर्तमानानां च वस्तूनामालेख्याकारा: साक्षादेकक्षण एवावभासन्ते, तथा संविद्भित्तावपि। किंच सर्वज्ञेयाकाराणां तदात्विकत्वाविरोधात् । यथा हि प्रध्वस्तानामनुदितानां च वस्तूनामालेख्याकारा वर्तमाना एव तथातीतानामनागतानां च पर्यायाणां ज्ञेयाकारा वर्तमाना एव भवन्ति।=यह (तीनों कालों की पर्यायों का वर्तमान पर्यायों वत् ज्ञान में ज्ञात होना) अयुक्त नहीं है, क्योंकि 1. उसका दृष्ट के साथ अविरोध है। (जगत् में) दिखाई देता है कि छद्मस्थ के भी, जैसे वर्तमान वस्तु का चिन्तवन करते हुए ज्ञान उसके आकार का अवलम्बन करता है, उसी प्रकार भूत और भविष्यत् वस्तु का चिन्तवन करते हुए (भी) ज्ञान उसके आकार का अवलम्बन करता है। 2. ज्ञान चित्रपट के समान है। जैसे चित्रपट में अतीत अनागत पर्यायों के ज्ञेयाकार साक्षात् एक क्षण में ही भासित होते हैं। 3. और सर्व ज्ञेयाकारों को तात्कालिकता अविरुद्ध है। जैसे चित्रपट में नष्ट व अनुत्पन्न (बाहूबली, राम, रावण आदि) वस्तुओं के आलेख्याकार वर्तमान ही हैं, इसी प्रकार अतीत और अनागत पर्यायों के ज्ञेयाकार वर्तमान ही हैं।
- अपरिणामी केवलज्ञान परिणामी पदार्थों को कैसे जाने
धवला 1/1,1,22/198/5 प्रतिक्षणं विवर्तमानानर्थानपरिणामि केवलं कथं परिच्छिनत्तीदि चेन्न, ज्ञेयसमविपरिवर्तिन: केवलस्य तदविरोधात् ।ज्ञेयपरतन्त्रतया परिवर्तमानस्य केवलस्य कथं पुनर्नैवोतपत्तिरिति चेन्न, केवलोपयोगसामान्यापेक्षया तस्योत्पत्तेरभावात् । विशेषापेक्षया च नेन्द्रियालोकमनोभ्यस्तदुत्पत्तिर्विगतावरणस्य तद्विरोधात् । केवलमसहायत्वान्न तत्सहायमपेक्षते स्वरूपहानिप्रसंगात् ।=प्रश्न—अपरिवर्तनशील केवलज्ञान प्रत्येक समय में परिवर्तनशील पदार्थों को कैसे जानता है? उत्तर—ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, ज्ञेय पदार्थों को जानने के लिए तदनुकूल परिवर्तन करने वाले केवलज्ञान के ऐसे परिवर्तन के मान लेने में कोई विरोध नहीं आता। प्रश्न—ज्ञेय की परतंत्रता से परिवर्तन करने वाले केवलज्ञान की फिर से उत्पत्ति क्यों नहीं मानी जाये? उत्तर−नहीं, क्योंकि, केवलज्ञानरूप उपयोग−सामान्य की अपेक्षा केवलज्ञान की पुन: उत्पत्ति नहीं होती है। विशेष की अपेक्षा उसकी उत्पत्ति होते हुए भी वह (उपयोग) इन्द्रिय, मन और आलोक से उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि, जिसके ज्ञानावरणादि कर्म नष्ट हो गये हैं, ऐसे केवलज्ञान में इन्द्रियादि की सहायता मानने में विरोध आता है। दूसरी बात यह है कि केवलज्ञान स्वयं असहाय है, इसलिए वह इन्द्रियादिकों की सहायता की अपेक्षा नहीं करता है, अन्यथा ज्ञान के स्वरूप की हानि का प्रसंग आ जायेगा।
- केवलज्ञानी को प्रश्न पूछने या सुनने की आवश्यकता क्यों
महापुराण/1/182 प्रश्नाद्विनैव तद्भावं जानन्नपि स सर्ववित् । तत्प्रश्नान्तमुदैक्षिष्ट प्रतिपत्रनिरोधत:।182।=संसार के सब पदार्थों को एक साथ जानने वाले भगवान् वृषभनाथ यद्यपि प्रश्न के बिना ही भरत महाराज के अभिप्राय को जान गये थे तथापि वे श्रोताओं के अनुरोध से प्रश्न के पूर्ण होने की प्रतीक्षा करते रहे।
- सर्वज्ञत्व के साथ वक्तृत्व का विरोध नहीं है
आप्तपरीक्षा/ मू./99-100 नार्हन्नि:शेषतत्त्वज्ञो वक्तृत्व-पुरुषत्वत:। ब्रह्मादिवदिति प्रोक्तमनुमानं न बाधकम् ।99। हेतोरस्य विपक्षेण विरोधाभावनिश्चयात् । वक्तृत्वादे: प्रकर्षेऽपि ज्ञानानिर्ह्नासिद्धित:।100।=प्रश्न—अर्हन्त अशेष तत्त्वों का ज्ञाता नहीं है क्योंकि वह वक्ता है और पुरुष है। जो वक्ता और पुरुष है, वह अशेष तत्त्वों का ज्ञाता नहीं है, जैसे ब्रह्मा वगैरह ? उत्तर—यह आपके द्वारा कहा गया अनुमान सर्वज्ञ का बाधक नहीं है, क्योंकि, वक्तापना और पुरुषपन हेतुओं का, विपक्ष के (सर्वज्ञता के) साथ विरोध का अभाव निश्चित है, अर्थात् उक्त हेतु सापेक्ष व विपक्ष दोनों में रहता होने से अनैकान्तिक है। कारण वक्तापना आदि का प्रकर्ष होने पर भी ज्ञान की हानि नहीं होती। (और भी देखें व्यभिचार - 4)।
- अर्हन्तों को ही केवलज्ञान क्यों; अन्य को क्यों नहीं
आप्तमीमांसा/ मू./6,7 स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते।6। त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टादृष्टेन बाध्यते।7।=हे अर्हन् ! वह सर्वज्ञ आप ही हैं, क्योंकि आप निर्दोष हैं। निर्दोष इसलिए हैं कि युक्ति और आगम से आपके वचन अविरूद्ध हैं–और वचनों में विरोध इस कारण नहीं है कि आपका इष्ट (मुक्ति आदि तत्त्व) प्रमाण से बाधित नहीं है। किन्तु तुम्हारे अनेकान्त मतरूप अमृत का ज्ञान नहीं करने वाले तथा सर्वथा एकान्त तत्त्व का कथन करने वाले और अपने को आप्त समझने के अभिमान से दग्ध हुए एकान्तवादियों का इष्ट (अभिमत तत्त्व) प्रत्यक्ष से बाधित है। (अष्टसहस्री) (निर्णय सागर बम्बई/पृ. 66-67) (न्याय.दी./2/24-26/44-46)।
- सर्वज्ञत्व जानने का प्रयोजन
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/29/67/10 अन्यत्र सर्वज्ञसिद्धौ भणितामास्ते अत्र पुनरध्यात्मग्रन्थत्वान्नोच्यते। इदमेव वीतरागसर्वज्ञस्वरूपं समस्तरागादिविभावत्यागेन निरन्तरमुपादेयत्वेन भावनीयमिति भावार्थ:।=सर्वज्ञ की सिद्धि न्यायविषयक अन्य ग्रन्थों में अच्छी तरह की गयी है। यहाँ अध्यात्मग्रन्थ होने के कारण विशेष नहीं कहा गया है। ऐसा वीतराग सर्वज्ञ का स्वरूप ही समस्त रागादि विभावों के त्याग द्वारा निरन्तर उपादेयरूप से भाना योग्य है, ऐसा भावार्थ है।
- केवलज्ञान असहाय कैसे है ?