तीर्थ: Difference between revisions
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<li><strong class="HindiText"> निश्चय तीर्थ का लक्षण</strong> <br> बोधपाहुड़/ मू./26-27 <span class="PrakritGatha">वयसंमत्तविसुद्धे पंचेंदियसंजदे णिरावेक्खो। ण्हाएउ मुणीं तित्थे दिक्खासिक्खा सुण्हाणेण।26। [शुद्धबुद्धैकस्वभावलक्षणे निजात्मस्वरूपे संसारसमुद्रतारणसमर्थे तीर्थे स्नातु विशुद्धो भवतु] जं णिम्मलं सुधम्मं सम्मत्तं संजमं णाणं। तं तित्थजिणमग्गे हवेइ जदि संतिभावेण।27।</span> =<span class="HindiText">सम्यक्त्व करि विशुद्ध, पाँच | <li><strong class="HindiText"> निश्चय तीर्थ का लक्षण</strong> <br> बोधपाहुड़/ मू./26-27 <span class="PrakritGatha">वयसंमत्तविसुद्धे पंचेंदियसंजदे णिरावेक्खो। ण्हाएउ मुणीं तित्थे दिक्खासिक्खा सुण्हाणेण।26। [शुद्धबुद्धैकस्वभावलक्षणे निजात्मस्वरूपे संसारसमुद्रतारणसमर्थे तीर्थे स्नातु विशुद्धो भवतु] जं णिम्मलं सुधम्मं सम्मत्तं संजमं णाणं। तं तित्थजिणमग्गे हवेइ जदि संतिभावेण।27।</span> =<span class="HindiText">सम्यक्त्व करि विशुद्ध, पाँच इंद्रियसंयत संवर सहित, निरपेक्ष ऐसा आत्मस्वरूप तीर्थ विषै दीक्षा शिक्षा रूप स्नान करि पवित्र होओ।26। [शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव है लक्षण जिसका ऐसे निजात्म स्वरूप रूप तीर्थ में जो कि संसार समुद्र से पार करने में समर्थ है। स्नान करके विशुद्ध होओ। ऐसा भाव है। ( बोधपाहुड़/ टी./26/92/21)] जिन मार्ग विषैं जो निर्मल उत्तम क्षमादि धर्म निर्दोष सम्यक्त्व, निर्मल संयम, बारह प्रकार निर्मल तप, और पदार्थनिका यथार्थ ज्ञान ये तीर्थ हैं। ये भी जो शांत भाव सहित होय कषाय भाव न होय तब निर्मल तीर्थ है। </span><br> | ||
मू.आ./557...।..<span class="PrakritText">सुदधम्मो एत्थ पुण तित्थं। </span>=<span class="HindiText">श्रुत धर्म तीर्थ कहा जाता है। </span> धवला 8/3,42/92/7 <span class="PrakritText"> धम्मो णाम सम्मद्दंसण-णाणचरित्ताणि। एदेहि संसारसायरं तरंति त्ति एदाणि तित्थं। </span>=<span class="HindiText">धर्म का अर्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है। चूंकि इनसे संसार सागर को तरते हैं इसलिए इन्हें तीर्थ कहा है। </span><br> | मू.आ./557...।..<span class="PrakritText">सुदधम्मो एत्थ पुण तित्थं। </span>=<span class="HindiText">श्रुत धर्म तीर्थ कहा जाता है। </span> धवला 8/3,42/92/7 <span class="PrakritText"> धम्मो णाम सम्मद्दंसण-णाणचरित्ताणि। एदेहि संसारसायरं तरंति त्ति एदाणि तित्थं। </span>=<span class="HindiText">धर्म का अर्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है। चूंकि इनसे संसार सागर को तरते हैं इसलिए इन्हें तीर्थ कहा है। </span><br> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका 302/516/6 <span class="SanskritText">तरंति संसारं येन भव्यास्तत्तीर्थं | भगवती आराधना / विजयोदया टीका 302/516/6 <span class="SanskritText">तरंति संसारं येन भव्यास्तत्तीर्थं कैंचन तरंति श्रुतेन गणधरैर्वालंबनर्भूतैरिति श्रुतं गणधरा वा तीर्थमित्युच्यते।</span> =<span class="HindiText">जिसका आश्रय लेकर भव्य जीव संसार से तिरकर मुक्ति को प्राप्त होते हैं उसको तीर्थ कहते हैं। कितने भव्य जीव श्रुत से अथवा गणधर की सहायता से संसार से उत्तीर्ण होते हैं, इसलिए श्रुत और गणधर को तीर्थ कहते हैं।</span> ( स्वयंभू स्तोत्र/ टी./109/229)। समाधिशतक/ टी./2/222/24 <span class="SanskritText">तीर्थकृत: संसारोत्तरणहेतुभूतत्वात्तीर्थमिव तीर्थमागम:। </span>=<span class="HindiText">संसार से पार उतरने के कारण को तीर्थ कहते हैं, उसके समान होने से आगम को तीर्थ कहते हैं। </span><br> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/1/3/23 <span class="SanskritText">दृष्टश्रुतानुभूतविषयसुखाभिलाषरूपनीरप्रवेशरहितेन परमसमाधिपोतेनोत्तीर्णसंसारसमुद्रत्वात्, अन्येषां तरणोपायभूतत्वाच्च तीर्थम् ।</span> =<span class="HindiText">दृष्ट, श्रुत और अनुभूत ऐसे विषय-सुख की अभिलाषा रूप जल के प्रवेश से जो रहित है ऐसी परम समाधि रूप नौका के द्वारा जो संसार समुद्र से पार हो जाने के कारण तथा दूसरों के लिए पार उतरने का उपाय अर्थात् कारण होने से (वर्द्धमान भगवान्) परमतीर्थ है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> व्यवहार तीर्थ का लक्षण</strong> | <li><span class="HindiText"><strong> व्यवहार तीर्थ का लक्षण</strong> | ||
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बोधपाहुड़/ टी./27/93/7<span class="SanskritText"> तज्जगत्प्रसिद्धं निश्चयतीर्थप्राप्तिकारणं मुक्तमुनिपादस्पृष्टं तीर्थ | बोधपाहुड़/ टी./27/93/7<span class="SanskritText"> तज्जगत्प्रसिद्धं निश्चयतीर्थप्राप्तिकारणं मुक्तमुनिपादस्पृष्टं तीर्थ ऊर्जयंतशत्रुंजयलाटदेशपावागिरि...तीर्थंकरपंचकल्याणस्थानानि चेत्यादिमार्गे यानि तीर्थानि वर्तंते तानि कर्मक्षयकारणानि वंदनीयानि।</span> =<span class="HindiText">निश्चय तीर्थ की प्राप्ति का जो कारण है ऐसे जगत् प्रसिद्ध तथा मुक्तजीवों के चरणकमलों से स्पृष्ट ऊर्जयंत, शत्रुंजय, लाटदेश, पावागिरि आदि तीर्थ हैं। वे तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों के स्थान हैं। ये जितने भी तीर्थ इस पृथिवी पर वर्त रहे हैं वे सब कर्मक्षय के कारण होने से वंदनीय हैं। ( बोधपाहुड़/ भाषा/43/139/10)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> तीर्थ के भेद व लक्षण</strong></span><br> | <li><span class="HindiText"><strong> तीर्थ के भेद व लक्षण</strong></span><br> | ||
मू.चा./558-560<span class="PrakritGatha"> दुविहं च होइ तित्थं णादव्वं दव्वभावसंजुत्तं। एदेसिं दोण्हंपि य पत्तेय परूवणा होदि।558। दाहोपसमणं तण्हा छेदो मलपंकपवहणं चेव। तिहिं कारणेहिं जुत्तो तम्हा तं दव्वदो तित्थं।559। दंसणणाणचरित्ते णिज्जुत्ता जिणवरा दु सव्वेपि। तिहि कारणेहिं जुत्ता तम्हा ते भावदो तित्थं।560। </span>=<span class="HindiText">तीर्थ के दो भेद हैं–द्रव्य और भाव। इन दोनों की प्ररूपणा भिन्न भिन्न है ऐसा जानना।558। संताप | मू.चा./558-560<span class="PrakritGatha"> दुविहं च होइ तित्थं णादव्वं दव्वभावसंजुत्तं। एदेसिं दोण्हंपि य पत्तेय परूवणा होदि।558। दाहोपसमणं तण्हा छेदो मलपंकपवहणं चेव। तिहिं कारणेहिं जुत्तो तम्हा तं दव्वदो तित्थं।559। दंसणणाणचरित्ते णिज्जुत्ता जिणवरा दु सव्वेपि। तिहि कारणेहिं जुत्ता तम्हा ते भावदो तित्थं।560। </span>=<span class="HindiText">तीर्थ के दो भेद हैं–द्रव्य और भाव। इन दोनों की प्ररूपणा भिन्न भिन्न है ऐसा जानना।558। संताप शांत होता है, तृष्णा का नाश होता है, मल पंक की शुद्धि होती है, ये तीन कार्य होते हैं इसलिए यह द्रव्य तीर्थ है।559। सभी जिनदेव दर्शन ज्ञान चारित्र कर संयुक्त हैं। इन तीन कारणों से युक्त हैं इसलिए वे जिनदेव भाव तीर्थ हैं।560। </span></li> | ||
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<p id="1"> (1) मोक्ष प्राप्ति का उपाय । संसार के आदि धर्म तीर्थ के प्रवर्तक वृषभदेव थे । <span class="GRef"> महापुराण 2. 39, 4.8 </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 1.4, 10.2 </span></p> | <p id="1"> (1) मोक्ष प्राप्ति का उपाय । संसार के आदि धर्म तीर्थ के प्रवर्तक वृषभदेव थे । <span class="GRef"> महापुराण 2. 39, 4.8 </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 1.4, 10.2 </span></p> | ||
<p id="2">(2) नदी या सरोवर का घाट । <span class="GRef"> महापुराण 45.142 </span></p> | <p id="2">(2) नदी या सरोवर का घाट । <span class="GRef"> महापुराण 45.142 </span></p> | ||
<p id="3">(3) तीर्थंकर की प्रथम देशना के | <p id="3">(3) तीर्थंकर की प्रथम देशना के आरंभ से आगामी तीर्थंकर की प्रथम देशना तक का समय । <span class="GRef"> महापुराण 54.142, 61. 56 </span></p> | ||
Revision as of 16:23, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- निश्चय तीर्थ का लक्षण
बोधपाहुड़/ मू./26-27 वयसंमत्तविसुद्धे पंचेंदियसंजदे णिरावेक्खो। ण्हाएउ मुणीं तित्थे दिक्खासिक्खा सुण्हाणेण।26। [शुद्धबुद्धैकस्वभावलक्षणे निजात्मस्वरूपे संसारसमुद्रतारणसमर्थे तीर्थे स्नातु विशुद्धो भवतु] जं णिम्मलं सुधम्मं सम्मत्तं संजमं णाणं। तं तित्थजिणमग्गे हवेइ जदि संतिभावेण।27। =सम्यक्त्व करि विशुद्ध, पाँच इंद्रियसंयत संवर सहित, निरपेक्ष ऐसा आत्मस्वरूप तीर्थ विषै दीक्षा शिक्षा रूप स्नान करि पवित्र होओ।26। [शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव है लक्षण जिसका ऐसे निजात्म स्वरूप रूप तीर्थ में जो कि संसार समुद्र से पार करने में समर्थ है। स्नान करके विशुद्ध होओ। ऐसा भाव है। ( बोधपाहुड़/ टी./26/92/21)] जिन मार्ग विषैं जो निर्मल उत्तम क्षमादि धर्म निर्दोष सम्यक्त्व, निर्मल संयम, बारह प्रकार निर्मल तप, और पदार्थनिका यथार्थ ज्ञान ये तीर्थ हैं। ये भी जो शांत भाव सहित होय कषाय भाव न होय तब निर्मल तीर्थ है।
मू.आ./557...।..सुदधम्मो एत्थ पुण तित्थं। =श्रुत धर्म तीर्थ कहा जाता है। धवला 8/3,42/92/7 धम्मो णाम सम्मद्दंसण-णाणचरित्ताणि। एदेहि संसारसायरं तरंति त्ति एदाणि तित्थं। =धर्म का अर्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है। चूंकि इनसे संसार सागर को तरते हैं इसलिए इन्हें तीर्थ कहा है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका 302/516/6 तरंति संसारं येन भव्यास्तत्तीर्थं कैंचन तरंति श्रुतेन गणधरैर्वालंबनर्भूतैरिति श्रुतं गणधरा वा तीर्थमित्युच्यते। =जिसका आश्रय लेकर भव्य जीव संसार से तिरकर मुक्ति को प्राप्त होते हैं उसको तीर्थ कहते हैं। कितने भव्य जीव श्रुत से अथवा गणधर की सहायता से संसार से उत्तीर्ण होते हैं, इसलिए श्रुत और गणधर को तीर्थ कहते हैं। ( स्वयंभू स्तोत्र/ टी./109/229)। समाधिशतक/ टी./2/222/24 तीर्थकृत: संसारोत्तरणहेतुभूतत्वात्तीर्थमिव तीर्थमागम:। =संसार से पार उतरने के कारण को तीर्थ कहते हैं, उसके समान होने से आगम को तीर्थ कहते हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/1/3/23 दृष्टश्रुतानुभूतविषयसुखाभिलाषरूपनीरप्रवेशरहितेन परमसमाधिपोतेनोत्तीर्णसंसारसमुद्रत्वात्, अन्येषां तरणोपायभूतत्वाच्च तीर्थम् । =दृष्ट, श्रुत और अनुभूत ऐसे विषय-सुख की अभिलाषा रूप जल के प्रवेश से जो रहित है ऐसी परम समाधि रूप नौका के द्वारा जो संसार समुद्र से पार हो जाने के कारण तथा दूसरों के लिए पार उतरने का उपाय अर्थात् कारण होने से (वर्द्धमान भगवान्) परमतीर्थ है। - व्यवहार तीर्थ का लक्षण
बोधपाहुड़/ टी./27/93/7 तज्जगत्प्रसिद्धं निश्चयतीर्थप्राप्तिकारणं मुक्तमुनिपादस्पृष्टं तीर्थ ऊर्जयंतशत्रुंजयलाटदेशपावागिरि...तीर्थंकरपंचकल्याणस्थानानि चेत्यादिमार्गे यानि तीर्थानि वर्तंते तानि कर्मक्षयकारणानि वंदनीयानि। =निश्चय तीर्थ की प्राप्ति का जो कारण है ऐसे जगत् प्रसिद्ध तथा मुक्तजीवों के चरणकमलों से स्पृष्ट ऊर्जयंत, शत्रुंजय, लाटदेश, पावागिरि आदि तीर्थ हैं। वे तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों के स्थान हैं। ये जितने भी तीर्थ इस पृथिवी पर वर्त रहे हैं वे सब कर्मक्षय के कारण होने से वंदनीय हैं। ( बोधपाहुड़/ भाषा/43/139/10)। - तीर्थ के भेद व लक्षण
मू.चा./558-560 दुविहं च होइ तित्थं णादव्वं दव्वभावसंजुत्तं। एदेसिं दोण्हंपि य पत्तेय परूवणा होदि।558। दाहोपसमणं तण्हा छेदो मलपंकपवहणं चेव। तिहिं कारणेहिं जुत्तो तम्हा तं दव्वदो तित्थं।559। दंसणणाणचरित्ते णिज्जुत्ता जिणवरा दु सव्वेपि। तिहि कारणेहिं जुत्ता तम्हा ते भावदो तित्थं।560। =तीर्थ के दो भेद हैं–द्रव्य और भाव। इन दोनों की प्ररूपणा भिन्न भिन्न है ऐसा जानना।558। संताप शांत होता है, तृष्णा का नाश होता है, मल पंक की शुद्धि होती है, ये तीन कार्य होते हैं इसलिए यह द्रव्य तीर्थ है।559। सभी जिनदेव दर्शन ज्ञान चारित्र कर संयुक्त हैं। इन तीन कारणों से युक्त हैं इसलिए वे जिनदेव भाव तीर्थ हैं।560।
- भगवान् वीर का धर्मतीर्थ–देखें महावीर - 2।
पुराणकोष से
(1) मोक्ष प्राप्ति का उपाय । संसार के आदि धर्म तीर्थ के प्रवर्तक वृषभदेव थे । महापुराण 2. 39, 4.8 हरिवंशपुराण 1.4, 10.2
(2) नदी या सरोवर का घाट । महापुराण 45.142
(3) तीर्थंकर की प्रथम देशना के आरंभ से आगामी तीर्थंकर की प्रथम देशना तक का समय । महापुराण 54.142, 61. 56