देशव्रत: Difference between revisions
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<li><strong class="HindiText" name="1" id="1"> देशव्रत का लक्षण </strong><br /> | <li><strong class="HindiText" name="1" id="1"> देशव्रत का लक्षण </strong><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/7/21/359/12 <span class="SanskritText">ग्रामादीनामवधृतपरिमाण: प्रदेशो देश:। ततोबहिर्निवृत्तिर्देशविरतिव्रतम् ।</span>= <span class="HindiText">ग्रामादिक की निश्चित मर्यादारूप प्रदेश देश कहलाता है। उससे बाहर जाने का त्यागकर देना देशविरतिव्रत कहलाता है। ( राजवार्तिक/7/21/3/547/27 ), ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/139 )</span><br /> | सर्वार्थसिद्धि/7/21/359/12 <span class="SanskritText">ग्रामादीनामवधृतपरिमाण: प्रदेशो देश:। ततोबहिर्निवृत्तिर्देशविरतिव्रतम् ।</span>= <span class="HindiText">ग्रामादिक की निश्चित मर्यादारूप प्रदेश देश कहलाता है। उससे बाहर जाने का त्यागकर देना देशविरतिव्रत कहलाता है। ( राजवार्तिक/7/21/3/547/27 ), ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/139 )</span><br /> | ||
का.आ./मू./367-368 <span class="PrakritText">पुव्व-पमाण-कदाणं सव्वदिसीणं पुणो वि संवरणं। इंदियविसयाण तहा पुणो वि जो कुणदि संवरणं।367। वासादिकयपमाणं दिणे दिणे लोह-काम-समणट्ठं।368। </span>=<span class="HindiText">जो श्रावक लोभ और काम को घटाने के लिए तथा पाप को छोड़ने के लिए वर्ष आदि की अथवा प्रतिदिन की मर्यादा करके, पहले दिग्व्रत में किये हुए दिशाओं के प्रमाण को, भोगोपभोग परिमाणव्रत में किये हुए | का.आ./मू./367-368 <span class="PrakritText">पुव्व-पमाण-कदाणं सव्वदिसीणं पुणो वि संवरणं। इंदियविसयाण तहा पुणो वि जो कुणदि संवरणं।367। वासादिकयपमाणं दिणे दिणे लोह-काम-समणट्ठं।368। </span>=<span class="HindiText">जो श्रावक लोभ और काम को घटाने के लिए तथा पाप को छोड़ने के लिए वर्ष आदि की अथवा प्रतिदिन की मर्यादा करके, पहले दिग्व्रत में किये हुए दिशाओं के प्रमाण को, भोगोपभोग परिमाणव्रत में किये हुए इंद्रियों के विषयों के परिमाण को और भी कम करता है वह देशावकाशिक नाम का शिक्षाव्रत है।</span><br /> | ||
वसुनंदी श्रावकाचार/215 <span class="PrakritGatha">वयभंग-कारणं होइ जम्मि देसम्मि तत्थ णियमेण। कीरइ गमणणियत्ती तं जाणा गुणव्वयं विदियं।215। </span>=<span class="HindiText">जिस देश में रहते हुए व्रत भंग का कारण उपस्थित हो, उस देश में नियम से जो गमन निवृत्ति की जाती है, उसे दूसरा देशव्रत नाम का गुणव्रत जानना चाहिए।215। ( गुणभद्र श्रावकाचार/141 )।</span><br /> | |||
लाटी संहिता/6/123 <span class="SanskritGatha">तद्विषयो गतिस्त्यागस्तथा चाशनवर्जनम् । मैथुनस्य परित्यागो यद्वा मौनादिधारणम् ।123।</span> =<span class="HindiText">देशावकाशिक व्रत का विषय गमन करने का त्याग, भोजन करने का त्याग मैथुन करने का त्याग, अथवा मौन धारण करना आदि है।<br /> | लाटी संहिता/6/123 <span class="SanskritGatha">तद्विषयो गतिस्त्यागस्तथा चाशनवर्जनम् । मैथुनस्य परित्यागो यद्वा मौनादिधारणम् ।123।</span> =<span class="HindiText">देशावकाशिक व्रत का विषय गमन करने का त्याग, भोजन करने का त्याग मैथुन करने का त्याग, अथवा मौन धारण करना आदि है।<br /> | ||
जैनसिद्धांत प्रवेशिका/224 श्रावक के व्रतों को देशचारित्र कहते हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> देशव्रत के पाँच अतिचारों का निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> देशव्रत के पाँच अतिचारों का निर्देश</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/7/31 <span class="SanskritText">आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपा:।31। </span>=<span class="HindiText">आनयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गलक्षेप ये देशविरतिव्रत के पाँच अतिचार हैं।31। ( | तत्त्वार्थसूत्र/7/31 <span class="SanskritText">आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपा:।31। </span>=<span class="HindiText">आनयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गलक्षेप ये देशविरतिव्रत के पाँच अतिचार हैं।31। ( रत्नकरंड श्रावकाचार/ मू./96)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> दिग्व्रत व देशव्रत में | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> दिग्व्रत व देशव्रत में अंतर</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/7/21/20/3 <span class="SanskritText">अयमनयोर्विशेष:–दिग्विरति: सार्वकालिकी देशविरतिर्यथाशक्ति कालनियमेनेति। </span>=<span class="HindiText">दिग्विरति यावज्जीवन–सर्वकाल के लिए होती है जबकि देशव्रत शक्त्यानुसार नियतकाल के लिए होता है। ( चारित्रसार/16/1 ) </span></li> | राजवार्तिक/7/21/20/3 <span class="SanskritText">अयमनयोर्विशेष:–दिग्विरति: सार्वकालिकी देशविरतिर्यथाशक्ति कालनियमेनेति। </span>=<span class="HindiText">दिग्विरति यावज्जीवन–सर्वकाल के लिए होती है जबकि देशव्रत शक्त्यानुसार नियतकाल के लिए होता है। ( चारित्रसार/16/1 ) </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> देशव्रत का प्रयोजन व महत्त्व</strong></span><br> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> देशव्रत का प्रयोजन व महत्त्व</strong></span><br> | ||
सर्वार्थसिद्धि/7/21/359/13 <span class="SanskritText"> पूर्ववद्बहिर्महाव्रतत्वं व्यवस्थाय्यम् । </span>=<span class="HindiText">यहाँ भी पहले के (दिग्व्रत के) समान मर्यादा के बाहर महाव्रत होता है। ( राजवार्तिक/7/21/20/549/2 )</span><br> | सर्वार्थसिद्धि/7/21/359/13 <span class="SanskritText"> पूर्ववद्बहिर्महाव्रतत्वं व्यवस्थाय्यम् । </span>=<span class="HindiText">यहाँ भी पहले के (दिग्व्रत के) समान मर्यादा के बाहर महाव्रत होता है। ( राजवार्तिक/7/21/20/549/2 )</span><br> | ||
रत्नकरंड श्रावकाचार/95 <span class="SanskritGatha">सीमांतानां परत: स्थूलेतरपंचपापसंत्यागात् । देशावकाशिकेन च महाव्रतानि प्रसाध्यंते।95।</span> =<span class="HindiText">सीमाओं के परे स्थूल सूक्ष्मरूप पाँचों पापों का भले प्रकार त्याग हो जाने से देशावकाशिकव्रत के द्वारा भी महाव्रत साधे जाते हैं।95। ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/140 )</span></li> | |||
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<p> दूसरा गुणव्रत । इस व्रत में | <p> दूसरा गुणव्रत । इस व्रत में जीवनपर्यंत के लिए किये हुए बृहत् परिणाम में ग्राम-नगर आदि प्रदेश की अवधि निश्चित कर उसके बाहर जाने का निषेध होता है । इसके पाँच अतिचार हैं—प्रेष्य-प्रयोग-मर्यादा के बाहर सेवक को भेजना, आनयन-मर्यादा का अतिक्रमण कर बाहर से वस्तु मंगवाना, पुद्गल-क्षेपमर्यादा के बाहर कंकड़ पत्थर फेंककर संकेत करना, शब्दानुपात-मर्यादा के बाहर अपना शब्द भेजना और रूपानुपात-खांसी आदि के द्वारा अपना रूप दिखाकर मर्यादा के बाहर काम करने वालों को अपनी ओर आकृष्ट करना । थे पांच इसके अतिचार है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 58.145, 178 </span></p> | ||
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Revision as of 16:25, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- देशव्रत का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/7/21/359/12 ग्रामादीनामवधृतपरिमाण: प्रदेशो देश:। ततोबहिर्निवृत्तिर्देशविरतिव्रतम् ।= ग्रामादिक की निश्चित मर्यादारूप प्रदेश देश कहलाता है। उससे बाहर जाने का त्यागकर देना देशविरतिव्रत कहलाता है। ( राजवार्तिक/7/21/3/547/27 ), ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/139 )
का.आ./मू./367-368 पुव्व-पमाण-कदाणं सव्वदिसीणं पुणो वि संवरणं। इंदियविसयाण तहा पुणो वि जो कुणदि संवरणं।367। वासादिकयपमाणं दिणे दिणे लोह-काम-समणट्ठं।368। =जो श्रावक लोभ और काम को घटाने के लिए तथा पाप को छोड़ने के लिए वर्ष आदि की अथवा प्रतिदिन की मर्यादा करके, पहले दिग्व्रत में किये हुए दिशाओं के प्रमाण को, भोगोपभोग परिमाणव्रत में किये हुए इंद्रियों के विषयों के परिमाण को और भी कम करता है वह देशावकाशिक नाम का शिक्षाव्रत है।
वसुनंदी श्रावकाचार/215 वयभंग-कारणं होइ जम्मि देसम्मि तत्थ णियमेण। कीरइ गमणणियत्ती तं जाणा गुणव्वयं विदियं।215। =जिस देश में रहते हुए व्रत भंग का कारण उपस्थित हो, उस देश में नियम से जो गमन निवृत्ति की जाती है, उसे दूसरा देशव्रत नाम का गुणव्रत जानना चाहिए।215। ( गुणभद्र श्रावकाचार/141 )।
लाटी संहिता/6/123 तद्विषयो गतिस्त्यागस्तथा चाशनवर्जनम् । मैथुनस्य परित्यागो यद्वा मौनादिधारणम् ।123। =देशावकाशिक व्रत का विषय गमन करने का त्याग, भोजन करने का त्याग मैथुन करने का त्याग, अथवा मौन धारण करना आदि है।
जैनसिद्धांत प्रवेशिका/224 श्रावक के व्रतों को देशचारित्र कहते हैं।
- देशव्रत के पाँच अतिचारों का निर्देश
तत्त्वार्थसूत्र/7/31 आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपा:।31। =आनयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गलक्षेप ये देशविरतिव्रत के पाँच अतिचार हैं।31। ( रत्नकरंड श्रावकाचार/ मू./96)
- दिग्व्रत व देशव्रत में अंतर
राजवार्तिक/7/21/20/3 अयमनयोर्विशेष:–दिग्विरति: सार्वकालिकी देशविरतिर्यथाशक्ति कालनियमेनेति। =दिग्विरति यावज्जीवन–सर्वकाल के लिए होती है जबकि देशव्रत शक्त्यानुसार नियतकाल के लिए होता है। ( चारित्रसार/16/1 ) - देशव्रत का प्रयोजन व महत्त्व
सर्वार्थसिद्धि/7/21/359/13 पूर्ववद्बहिर्महाव्रतत्वं व्यवस्थाय्यम् । =यहाँ भी पहले के (दिग्व्रत के) समान मर्यादा के बाहर महाव्रत होता है। ( राजवार्तिक/7/21/20/549/2 )
रत्नकरंड श्रावकाचार/95 सीमांतानां परत: स्थूलेतरपंचपापसंत्यागात् । देशावकाशिकेन च महाव्रतानि प्रसाध्यंते।95। =सीमाओं के परे स्थूल सूक्ष्मरूप पाँचों पापों का भले प्रकार त्याग हो जाने से देशावकाशिकव्रत के द्वारा भी महाव्रत साधे जाते हैं।95। ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/140 )
पुराणकोष से
दूसरा गुणव्रत । इस व्रत में जीवनपर्यंत के लिए किये हुए बृहत् परिणाम में ग्राम-नगर आदि प्रदेश की अवधि निश्चित कर उसके बाहर जाने का निषेध होता है । इसके पाँच अतिचार हैं—प्रेष्य-प्रयोग-मर्यादा के बाहर सेवक को भेजना, आनयन-मर्यादा का अतिक्रमण कर बाहर से वस्तु मंगवाना, पुद्गल-क्षेपमर्यादा के बाहर कंकड़ पत्थर फेंककर संकेत करना, शब्दानुपात-मर्यादा के बाहर अपना शब्द भेजना और रूपानुपात-खांसी आदि के द्वारा अपना रूप दिखाकर मर्यादा के बाहर काम करने वालों को अपनी ओर आकृष्ट करना । थे पांच इसके अतिचार है । हरिवंशपुराण 58.145, 178