वैयावृत्त्य: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">व्यवहार लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">व्यवहार लक्षण</strong> </span><br /> | ||
रत्नकरंड श्रावकाचार/112 <span class="SanskritGatha">व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात्। वैयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनां।112। </span>= <span class="HindiText">गुणों में अनुरागपूर्वक संयमी पुरुषों के खेद का दूर करना, पाँव दबाना तथा और भी जितना कुछ उपकार करना है, सो वैयावृत्त्य कहा जाता है। </span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/6/24/339/3 <span class="SanskritText">गुणवद्दुःखोपनिपाते निरवद्येन विधिना तदपहरणं वैयावृत्त्यम्। </span><br /> | सर्वार्थसिद्धि/6/24/339/3 <span class="SanskritText">गुणवद्दुःखोपनिपाते निरवद्येन विधिना तदपहरणं वैयावृत्त्यम्। </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/9/20/439/7 <span class="SanskritText">कायचेष्टया | सर्वार्थसिद्धि/9/20/439/7 <span class="SanskritText">कायचेष्टया द्रव्यांतरेण चोपासनं वैयावृत्त्यम्। </span>= | ||
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<li class="HindiText"> गुणी पुरुषों के दुःख में आ पड़ने पर निर्दोष विधि से उसका दुःख दूर करना वैयावृत्त्य भावना है। ( राजवार्तिक/6/24/9/530/4 ); ( चारित्रसार/55/1 ); ( तत्त्वसार/7/28 ); ( भावपाहुड़ टीका/77/221/9 )। </li> | <li class="HindiText"> गुणी पुरुषों के दुःख में आ पड़ने पर निर्दोष विधि से उसका दुःख दूर करना वैयावृत्त्य भावना है। ( राजवार्तिक/6/24/9/530/4 ); ( चारित्रसार/55/1 ); ( तत्त्वसार/7/28 ); ( भावपाहुड़ टीका/77/221/9 )। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> शरीर की चेष्टा या दूसरे द्रव्य द्वारा उपासना करना वैयावृत्त्य तप है। ( राजवार्तिक/9/24/2/623/9 )। </span><br /> | <li><span class="HindiText"> शरीर की चेष्टा या दूसरे द्रव्य द्वारा उपासना करना वैयावृत्त्य तप है। ( राजवार्तिक/9/24/2/623/9 )। </span><br /> | ||
राजवार्तिक/9/24/15-16/623/31 <span class="SanskritText">तेषामाचार्यादीनां व्याधिपरीषहमिथ्यात्वाद्युपनिपाते प्रासुकौषधिभक्तपानप्रतिश्रय-पीठफलकसंस्तरणादिभिर्धर्मोपकरणैस्तत्प्रतीकारः सम्यक्त्वप्रत्यवस्थापनमित्येवमादिवैयावृत्त्यम्।15। बाह्यस्यौषधभक्त-पानादेरसंभवेऽपि स्वकायेन | राजवार्तिक/9/24/15-16/623/31 <span class="SanskritText">तेषामाचार्यादीनां व्याधिपरीषहमिथ्यात्वाद्युपनिपाते प्रासुकौषधिभक्तपानप्रतिश्रय-पीठफलकसंस्तरणादिभिर्धर्मोपकरणैस्तत्प्रतीकारः सम्यक्त्वप्रत्यवस्थापनमित्येवमादिवैयावृत्त्यम्।15। बाह्यस्यौषधभक्त-पानादेरसंभवेऽपि स्वकायेन श्लेष्मसिंघाणकाद्यंतर्मलापकर्षणादि तदानुकूल्यानुष्ठानं च वैयावृत्यमिति कथ्यते।16। </span>= <span class="HindiText">उन आचार्य आदि पर व्याधि परीषह मिथ्यात्व आदि का उपद्रव होने पर उसका प्रासुक औषधि, आहारपान, आश्रम, चौकी, तख्ता और सांथरा आदि धर्मोपकरणों से प्रतीकार करना तथा सम्यक्त्व मार्ग में दृढ़ करना वैयावृत्त्य है।15। औषधि आदि के अभाव में अपने हाथ से खकार, नाक आदि भीतरी मल को साफ करना और उनके अनुकूल वातावरण को बना देना आदि भी वैयावृत्त्य है।16। ( चारित्रसार/152/1 )। </span><br /> | ||
धवला 8/3, 41/88/8 <span class="SanskritText">व्यापृते यत्क्रियते तद्वैयावृत्त्यम्। </span>= <span class="HindiText">व्यापृत अर्थात् रोगादि से व्याकुल साधु के विषय में जो कुछ किया जाता है उसका नाम वैयावृत्त्य है। </span><br /> | धवला 8/3, 41/88/8 <span class="SanskritText">व्यापृते यत्क्रियते तद्वैयावृत्त्यम्। </span>= <span class="HindiText">व्यापृत अर्थात् रोगादि से व्याकुल साधु के विषय में जो कुछ किया जाता है उसका नाम वैयावृत्त्य है। </span><br /> | ||
धवला 13/5, 4, 26/63/6 <span class="SanskritText">व्यापदि यत्क्रियते तद्वैयावृत्त्यम्। </span>= <span class="HindiText">आपत्ति के समय उसके निवारणार्थ जो किया जाता है वह वैयावृत्त्य नाम का तप है। </span><br /> | धवला 13/5, 4, 26/63/6 <span class="SanskritText">व्यापदि यत्क्रियते तद्वैयावृत्त्यम्। </span>= <span class="HindiText">आपत्ति के समय उसके निवारणार्थ जो किया जाता है वह वैयावृत्त्य नाम का तप है। </span><br /> | ||
चारित्रसार/150/3 <span class="SanskritText">कायपीडादुष्परिणामव्युदासार्थं कायचेष्टया | चारित्रसार/150/3 <span class="SanskritText">कायपीडादुष्परिणामव्युदासार्थं कायचेष्टया द्रव्यांतरेणोपदेशेन च व्यावृत्तस्य यत्कर्म तद्वैसावृत्त्यं। </span>= <span class="HindiText">शरीर की पीड़ा अथवा दुष्ट परिणामों को दूर करने के लिए शरीर की चेष्टा से, किसी औषध आदि अन्य द्रव्य से, अथवा उपदेश देकर प्रवृत्त होना अथवा कोई भी क्रिया करना वैयावृत्त्य है। ( अनगारधर्मामृत/7/78/711 )। </span><br /> | ||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/459 <span class="PrakritGatha">जो उवयरदि जदीणं उवसग्ग जराइ खीणकायाणं। पूयादिसु णिरवेक्खं वेज्जावच्चं तवो तस्स।459।</span> = <span class="HindiText">जो मुनि उपसर्ग से पीड़ितं हो औरु बुढ़ापे आदि के कारण जिनकी काय क्षीण हो गयी हो। जो अपनी पूजा प्रतिष्ठा की अपेक्षा न करके उन मुनियों का उपकार करता है, उसके वैयावृत्त्य तप होता है। <br /> | कार्तिकेयानुप्रेक्षा/459 <span class="PrakritGatha">जो उवयरदि जदीणं उवसग्ग जराइ खीणकायाणं। पूयादिसु णिरवेक्खं वेज्जावच्चं तवो तस्स।459।</span> = <span class="HindiText">जो मुनि उपसर्ग से पीड़ितं हो औरु बुढ़ापे आदि के कारण जिनकी काय क्षीण हो गयी हो। जो अपनी पूजा प्रतिष्ठा की अपेक्षा न करके उन मुनियों का उपकार करता है, उसके वैयावृत्त्य तप होता है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> वैयावृत्त्य योग्य कुछ कार्य</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> वैयावृत्त्य योग्य कुछ कार्य</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/305-306/519 <span class="PrakritGatha">सेज्जागासणिसेज्जा उवघीपडिलेहणाउवग्गहिदे। आहारो सहवायणविकिंचणुव्वत्तणा-दीसु।305। अद्धाण तेण सावयरायणदीराघेगासिवे ऊमे। वेज्जावच्चं उत्तं संगहणारक्खणोवेदं।306। </span>= <span class="HindiText">शयनस्थान–बैठने का स्थान, उपकरण इनका शोधन करना, निर्दोष आहार-औषध देकर उपकार करना, स्वाध्याय अर्थात् व्याख्यान करना, अशक्त मुनि का मैला उठाना, उसे करवट दिलाना बैठाना वगैरह कार्य करना।305। थके हुए साधु के पाँव, हाथ व अंग दबाना, नदी से रुके हुए अथवा रोग पीड़ित का उपद्रव विद्या आदि से दूर करना, दुर्भिक्ष पीड़ित को सुभिक्ष देश में लाना ये सब कार्य वैयावृत्त्य कहलाते हैं। (मू.आ./391-392); ( | भगवती आराधना/305-306/519 <span class="PrakritGatha">सेज्जागासणिसेज्जा उवघीपडिलेहणाउवग्गहिदे। आहारो सहवायणविकिंचणुव्वत्तणा-दीसु।305। अद्धाण तेण सावयरायणदीराघेगासिवे ऊमे। वेज्जावच्चं उत्तं संगहणारक्खणोवेदं।306। </span>= <span class="HindiText">शयनस्थान–बैठने का स्थान, उपकरण इनका शोधन करना, निर्दोष आहार-औषध देकर उपकार करना, स्वाध्याय अर्थात् व्याख्यान करना, अशक्त मुनि का मैला उठाना, उसे करवट दिलाना बैठाना वगैरह कार्य करना।305। थके हुए साधु के पाँव, हाथ व अंग दबाना, नदी से रुके हुए अथवा रोग पीड़ित का उपद्रव विद्या आदि से दूर करना, दुर्भिक्ष पीड़ित को सुभिक्ष देश में लाना ये सब कार्य वैयावृत्त्य कहलाते हैं। (मू.आ./391-392); ( वसुनंदी श्रावकाचार/337-340 ); (और भी देखें [[ वैयावृत्त्य#1 | वैयावृत्त्य - 1]]); (और भी देखें [[ संलेखना#5 | संलेखना - 5]])। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> वैयावृत्त्य का प्रयोजन व फल</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> वैयावृत्त्य का प्रयोजन व फल</strong> </span><br /> | ||
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भगवती आराधना/1496/1393 <span class="PrakritGatha"> वेज्ज वच्चस्स गुणा जे पुव्वं विच्छरेण अक्खादा। तेसिं फडिओ सो होइ जो उवेक्खेज्ज तं खवयं।1496।</span> = <span class="HindiText">वैयावृत्त्य के गुणों का पहले (शीर्षक नं. 4 में) विस्तार से वर्णन किया है। जो क्षपक की उपेक्षा करता है वह उन गुणों से भ्रष्ट होता है।1496। <br /> | भगवती आराधना/1496/1393 <span class="PrakritGatha"> वेज्ज वच्चस्स गुणा जे पुव्वं विच्छरेण अक्खादा। तेसिं फडिओ सो होइ जो उवेक्खेज्ज तं खवयं।1496।</span> = <span class="HindiText">वैयावृत्त्य के गुणों का पहले (शीर्षक नं. 4 में) विस्तार से वर्णन किया है। जो क्षपक की उपेक्षा करता है वह उन गुणों से भ्रष्ट होता है।1496। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> वैयावृत्त्य की | <li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> वैयावृत्त्य की अत्यंत प्रधानता</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना व वि./329/541 <span class="PrakritText">एदे गुणा महल्ला वेज्जावच्चुज्जदस्स बहुया य। अप्पट्ठिदो हु जायदि सज्झायं चेव कुव्वंतो।329। आत्मप्रयोजन पर एव जायते स्वाध्यायमेव कुर्वन्। वैयावृत्त्यकरस्तु स्वं परं चोद्धरतीति मन्यते।</span> =<span class="HindiText"> वैयावृत्त्य करने वाले को उपरोक्त (देखें [[ शीर्षक#4 | शीर्षक - 4]]) बहुत से गुणों की प्राप्ति होती है। केवल स्वाध्याय करने वाला स्वतः की ही आत्मोन्नति कर सकता है, जब कि वैयावृत्त्य करने वाला स्वयं को व अन्य को दोनों को उन्नत बनाता है।–(और भी देखें [[ सल्लेखना#5 | सल्लेखना - 5]])। </span><br /> | भगवती आराधना व वि./329/541 <span class="PrakritText">एदे गुणा महल्ला वेज्जावच्चुज्जदस्स बहुया य। अप्पट्ठिदो हु जायदि सज्झायं चेव कुव्वंतो।329। आत्मप्रयोजन पर एव जायते स्वाध्यायमेव कुर्वन्। वैयावृत्त्यकरस्तु स्वं परं चोद्धरतीति मन्यते।</span> =<span class="HindiText"> वैयावृत्त्य करने वाले को उपरोक्त (देखें [[ शीर्षक#4 | शीर्षक - 4]]) बहुत से गुणों की प्राप्ति होती है। केवल स्वाध्याय करने वाला स्वतः की ही आत्मोन्नति कर सकता है, जब कि वैयावृत्त्य करने वाला स्वयं को व अन्य को दोनों को उन्नत बनाता है।–(और भी देखें [[ सल्लेखना#5 | सल्लेखना - 5]])। </span><br /> | ||
भगवती आराधना/ मूलारा, टीका/329/542/7<span class="SanskritText"> स्वाध्यायकारिणोऽपि विपदुपनिपाते तन्मुखप्रेक्षित्वात्। </span>= <span class="HindiText">स्वाध्याय करने वाले पर यदि विपत्ति आयेगी तो उसको वैयावृत्त्य वाले के मुख की तरफ ही देखना पड़ेगा। <br /> | भगवती आराधना/ मूलारा, टीका/329/542/7<span class="SanskritText"> स्वाध्यायकारिणोऽपि विपदुपनिपाते तन्मुखप्रेक्षित्वात्। </span>= <span class="HindiText">स्वाध्याय करने वाले पर यदि विपत्ति आयेगी तो उसको वैयावृत्त्य वाले के मुख की तरफ ही देखना पड़ेगा। <br /> | ||
देखें [[ संयत#3.2 | संयत - 3.2]]–[वैयावृत्त करने की प्रेरणा दी गयी है] । <br /> | देखें [[ संयत#3.2 | संयत - 3.2]]–[वैयावृत्त करने की प्रेरणा दी गयी है] । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="7" id="7"> वैयावृत्त्य में शेष 15 भावनाओं का | <li><span class="HindiText"><strong name="7" id="7"> वैयावृत्त्य में शेष 15 भावनाओं का अंतर्भाव</strong> </span><br /> | ||
धवला 8/3, 41/88/8 <span class="PrakritText">जेण सम्मत्त-णाण-अरहंत-बहुसुदभत्ति-पवयणवच्छल्लादिणा जीवो जुज्जइ वेज्जावच्चे सो वेज्जावच्चजोगो देसणविसुज्झदादि, तेण जुत्तदा वेज्जावच्चजोगजुत्तदा। ताए एवंविहाएएक्काए वि तित्थयरणामकम्मं बंधइ। एत्थ सेसकारणाणं जहासंभवेण अंतब्भावो वत्तव्वो।</span> = <span class="HindiText">जिस सम्यक्त्व, ज्ञान, | धवला 8/3, 41/88/8 <span class="PrakritText">जेण सम्मत्त-णाण-अरहंत-बहुसुदभत्ति-पवयणवच्छल्लादिणा जीवो जुज्जइ वेज्जावच्चे सो वेज्जावच्चजोगो देसणविसुज्झदादि, तेण जुत्तदा वेज्जावच्चजोगजुत्तदा। ताए एवंविहाएएक्काए वि तित्थयरणामकम्मं बंधइ। एत्थ सेसकारणाणं जहासंभवेण अंतब्भावो वत्तव्वो।</span> = <span class="HindiText">जिस सम्यक्त्व, ज्ञान, अरहंतभक्ति, बहुश्रुतभक्ति एवं प्रवचनवत्सलत्वादि से जीव वैयावृत्त्य में लगता है वह वैयावृत्त्ययोग अर्थात् दर्शन विशुद्धतादि गुण हैं, उनसे संयुक्त होने का नाम वैयावृत्त्ययोगयुक्तता है। इस प्रकार की उस एक ही वैयावृत्त्ययोगयुक्तता से तीर्थंकर नामकर्म बँधता है। यहाँ शेष कारणों का यथासंभव अंतर्भाव कहना चाहिए। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="8" id="8"> वैयावृत्त्य गृहस्थों को मुख्य और साधु को गौण है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="8" id="8"> वैयावृत्त्य गृहस्थों को मुख्य और साधु को गौण है</strong> </span><br /> | ||
प्रवचनसार/253-254 <span class="PrakritGatha">वेज्जावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड्ढसमणाणं । लोगिगजणसंभासा ण णिंदिदा वा सुहोव-जुदा ।253। एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । चरिया परेत्ति भणिदा ताएव परं लहदि सोक्खं ।254। </span><br /> | प्रवचनसार/253-254 <span class="PrakritGatha">वेज्जावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड्ढसमणाणं । लोगिगजणसंभासा ण णिंदिदा वा सुहोव-जुदा ।253। एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । चरिया परेत्ति भणिदा ताएव परं लहदि सोक्खं ।254। </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/254 <span class="SanskritText"> एवमेष प्रशस्तचर्या.....रागसंगत्वाद्गौणः श्रमणानां, गृहिणां तु...क्रमतः परमनिर्वाणसौख्य-कारणत्वाच्च मुख्यः । </span>=<span class="HindiText"> रोगी, गुरु, बाल तथा वृद्ध श्रमणों की वैयावृत्त्य के निमित्त शुभोपयोगयुक्त लौकिकजनों के साथ की बातचीत | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/254 <span class="SanskritText"> एवमेष प्रशस्तचर्या.....रागसंगत्वाद्गौणः श्रमणानां, गृहिणां तु...क्रमतः परमनिर्वाणसौख्य-कारणत्वाच्च मुख्यः । </span>=<span class="HindiText"> रोगी, गुरु, बाल तथा वृद्ध श्रमणों की वैयावृत्त्य के निमित्त शुभोपयोगयुक्त लौकिकजनों के साथ की बातचीत निंदित नहीं है ।253। यह प्रशस्तभूत चर्या रागसहित होने के कारण श्रमणों को गौण होती है और गृहस्थों को क्रमशः परमनिर्वाण सौख्य का कारण होने से मुख्य है । ऐसा शास्त्रों में कहा है । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> एक वैयावृत्त्य से ही तीर्थंकरत्व का | <li><span class="HindiText"> एक वैयावृत्त्य से ही तीर्थंकरत्व का बंध संभव है ।–देखें [[ भावना#2 | भावना - 2 ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> सल्लेखनागत क्षपक के योग्य वैयावृत्त्य की विशेषताएँ ।–देखें [[ सल्लेखना#5 | सल्लेखना - 5]] । <br /> | <li><span class="HindiText"> सल्लेखनागत क्षपक के योग्य वैयावृत्त्य की विशेषताएँ ।–देखें [[ सल्लेखना#5 | सल्लेखना - 5]] । <br /> |
Revision as of 16:37, 19 August 2020
- वैयावृत्त्य
- व्यवहार लक्षण
रत्नकरंड श्रावकाचार/112 व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात्। वैयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनां।112। = गुणों में अनुरागपूर्वक संयमी पुरुषों के खेद का दूर करना, पाँव दबाना तथा और भी जितना कुछ उपकार करना है, सो वैयावृत्त्य कहा जाता है।
सर्वार्थसिद्धि/6/24/339/3 गुणवद्दुःखोपनिपाते निरवद्येन विधिना तदपहरणं वैयावृत्त्यम्।
सर्वार्थसिद्धि/9/20/439/7 कायचेष्टया द्रव्यांतरेण चोपासनं वैयावृत्त्यम्। =- गुणी पुरुषों के दुःख में आ पड़ने पर निर्दोष विधि से उसका दुःख दूर करना वैयावृत्त्य भावना है। ( राजवार्तिक/6/24/9/530/4 ); ( चारित्रसार/55/1 ); ( तत्त्वसार/7/28 ); ( भावपाहुड़ टीका/77/221/9 )।
- शरीर की चेष्टा या दूसरे द्रव्य द्वारा उपासना करना वैयावृत्त्य तप है। ( राजवार्तिक/9/24/2/623/9 )।
राजवार्तिक/9/24/15-16/623/31 तेषामाचार्यादीनां व्याधिपरीषहमिथ्यात्वाद्युपनिपाते प्रासुकौषधिभक्तपानप्रतिश्रय-पीठफलकसंस्तरणादिभिर्धर्मोपकरणैस्तत्प्रतीकारः सम्यक्त्वप्रत्यवस्थापनमित्येवमादिवैयावृत्त्यम्।15। बाह्यस्यौषधभक्त-पानादेरसंभवेऽपि स्वकायेन श्लेष्मसिंघाणकाद्यंतर्मलापकर्षणादि तदानुकूल्यानुष्ठानं च वैयावृत्यमिति कथ्यते।16। = उन आचार्य आदि पर व्याधि परीषह मिथ्यात्व आदि का उपद्रव होने पर उसका प्रासुक औषधि, आहारपान, आश्रम, चौकी, तख्ता और सांथरा आदि धर्मोपकरणों से प्रतीकार करना तथा सम्यक्त्व मार्ग में दृढ़ करना वैयावृत्त्य है।15। औषधि आदि के अभाव में अपने हाथ से खकार, नाक आदि भीतरी मल को साफ करना और उनके अनुकूल वातावरण को बना देना आदि भी वैयावृत्त्य है।16। ( चारित्रसार/152/1 )।
धवला 8/3, 41/88/8 व्यापृते यत्क्रियते तद्वैयावृत्त्यम्। = व्यापृत अर्थात् रोगादि से व्याकुल साधु के विषय में जो कुछ किया जाता है उसका नाम वैयावृत्त्य है।
धवला 13/5, 4, 26/63/6 व्यापदि यत्क्रियते तद्वैयावृत्त्यम्। = आपत्ति के समय उसके निवारणार्थ जो किया जाता है वह वैयावृत्त्य नाम का तप है।
चारित्रसार/150/3 कायपीडादुष्परिणामव्युदासार्थं कायचेष्टया द्रव्यांतरेणोपदेशेन च व्यावृत्तस्य यत्कर्म तद्वैसावृत्त्यं। = शरीर की पीड़ा अथवा दुष्ट परिणामों को दूर करने के लिए शरीर की चेष्टा से, किसी औषध आदि अन्य द्रव्य से, अथवा उपदेश देकर प्रवृत्त होना अथवा कोई भी क्रिया करना वैयावृत्त्य है। ( अनगारधर्मामृत/7/78/711 )।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/459 जो उवयरदि जदीणं उवसग्ग जराइ खीणकायाणं। पूयादिसु णिरवेक्खं वेज्जावच्चं तवो तस्स।459। = जो मुनि उपसर्ग से पीड़ितं हो औरु बुढ़ापे आदि के कारण जिनकी काय क्षीण हो गयी हो। जो अपनी पूजा प्रतिष्ठा की अपेक्षा न करके उन मुनियों का उपकार करता है, उसके वैयावृत्त्य तप होता है।
- निश्चय लक्षण
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/460 जो वावरइ सरूवे समदमभावम्मि सुद्ध उवजुत्तो। लोयववहारविरदो वेयावच्चं परं तस्स। = विशुद्ध उपयोग से युक्त हुआ जो मुनि शमदम भाव रूप अपने आत्मस्वरूप में प्रवृत्ति करता है और लेाक व्यवहार से विरक्त रहता है, उसके उत्कृष्ट वैयावृत्त्य तप होता है।
- व्यवहार लक्षण
- वैयावृत्त्य के पात्रों की अपेक्षा 10 भेद
मू.आ./390 गुणधीए उवज्झाए तवस्सि सिस्से य दुब्बले। साहुगणे कुले संघे समणुण्णे य चापदि।390। = गुणाधिक में, उपाध्यायों में तपस्वियों में, शिष्यों में, दुर्बलों में, साधुओं में, गण में, साधुओं के कुल में, चतुर्विध संघ में, मनोज्ञ में, इन दस में उपद्रव आने पर वैयावृत्त्यकरना कर्त्तव्य है।
तत्त्वार्थसूत्र/9/24 आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानाम्।24। = आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष (शिष्य), ग्लान (रोगी), गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इनकी वैयावृत्त्य के भेद से वैयावृत्त्य दस प्रकार है।24। ( धवला 13/5, 4, 26/63/6 ); ( चारित्रसार/150/3 ); ( भावपाहुड़ टीका/78/224/19 )।
- वैयावृत्त्य योग्य कुछ कार्य
भगवती आराधना/305-306/519 सेज्जागासणिसेज्जा उवघीपडिलेहणाउवग्गहिदे। आहारो सहवायणविकिंचणुव्वत्तणा-दीसु।305। अद्धाण तेण सावयरायणदीराघेगासिवे ऊमे। वेज्जावच्चं उत्तं संगहणारक्खणोवेदं।306। = शयनस्थान–बैठने का स्थान, उपकरण इनका शोधन करना, निर्दोष आहार-औषध देकर उपकार करना, स्वाध्याय अर्थात् व्याख्यान करना, अशक्त मुनि का मैला उठाना, उसे करवट दिलाना बैठाना वगैरह कार्य करना।305। थके हुए साधु के पाँव, हाथ व अंग दबाना, नदी से रुके हुए अथवा रोग पीड़ित का उपद्रव विद्या आदि से दूर करना, दुर्भिक्ष पीड़ित को सुभिक्ष देश में लाना ये सब कार्य वैयावृत्त्य कहलाते हैं। (मू.आ./391-392); ( वसुनंदी श्रावकाचार/337-340 ); (और भी देखें वैयावृत्त्य - 1); (और भी देखें संलेखना - 5)।
- वैयावृत्त्य का प्रयोजन व फल
भगवती आराधना/309-310/523 गुणपरिणामो सड्ढा बच्छल्लं भत्तिपत्तलंभो य। संघाणं तवपूया अव्वोच्छित्ती समाधी य।309। आणा संजमसाखिल्लदा य दाण च अविदिगिंछा य। वेज्जावच्चस्स गुणा पभावणा कज्जपुण्णाणि।310। = गुणग्रहण के परिणाम श्रद्धा, भक्ति, वात्सलय, पात्र की प्राप्ति, विच्छिन्न सम्यक्त्व आदि का पुनः संधान, तप, पूजा, तीर्थ, अव्युच्छित्ति, समाधि।309। जिनाज्ञा, संयम, सहाय, दान, निर्विचिकित्सा, प्रभावना, कार्य निर्वाहण ये वैयावृत्त्य के 18 गुण हैं। ( भगवती आराधना 324-328 )।
सर्वार्थसिद्धि/9/24/442/11 समाध्याधानविचिकित्साभावप्रवचनवात्सल्याद्यभिब्यक्त्यर्थम्। = यह समाधि की प्राप्ति, विचिकित्सा का अभाव और प्रवचन वात्सल्य की अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है। ( राजवार्तिक/9/24/17/ 624/1 ); ( चारित्रसार/152/4 )।
देखें धर्म - 7.9 (सम्यग्दृष्टि को वैयावृत्त्य निर्जरा की निमित्त है)।
- वैयावृत्त्य न करने में दोष
भगवती आराधना/307-308/521 अणिगूहिदबलविरिओ वेज्जावच्चं जिणोवदेसेण। जदि ण करेदि समत्थो संतो सो होदि णिद्धम्मो।307। तित्थयराणाकोधो सुदधम्मविराधणा अणायारो। अप्पापरोपवयणं च तेण णिज्जूहिदं होदि।308। = समर्थ होते हुए तथा अपने बल को न छिपाते हुए भी जिनोपदिष्ट वैयावृत्त्य जो नहीं करता है, वह धर्मभ्रष्ट है।307। जिनाज्ञा का भंग, शास्त्र कथित धर्म का नाश, अपना साधुवर्ग का व आगम का त्याग, ऐसे महादोष वैयावृत्त्य न करने से उत्पन्न होते हैं।308।–(और भी देखें सावद्य - 8)।
भगवती आराधना/1496/1393 वेज्ज वच्चस्स गुणा जे पुव्वं विच्छरेण अक्खादा। तेसिं फडिओ सो होइ जो उवेक्खेज्ज तं खवयं।1496। = वैयावृत्त्य के गुणों का पहले (शीर्षक नं. 4 में) विस्तार से वर्णन किया है। जो क्षपक की उपेक्षा करता है वह उन गुणों से भ्रष्ट होता है।1496।
- वैयावृत्त्य की अत्यंत प्रधानता
भगवती आराधना व वि./329/541 एदे गुणा महल्ला वेज्जावच्चुज्जदस्स बहुया य। अप्पट्ठिदो हु जायदि सज्झायं चेव कुव्वंतो।329। आत्मप्रयोजन पर एव जायते स्वाध्यायमेव कुर्वन्। वैयावृत्त्यकरस्तु स्वं परं चोद्धरतीति मन्यते। = वैयावृत्त्य करने वाले को उपरोक्त (देखें शीर्षक - 4) बहुत से गुणों की प्राप्ति होती है। केवल स्वाध्याय करने वाला स्वतः की ही आत्मोन्नति कर सकता है, जब कि वैयावृत्त्य करने वाला स्वयं को व अन्य को दोनों को उन्नत बनाता है।–(और भी देखें सल्लेखना - 5)।
भगवती आराधना/ मूलारा, टीका/329/542/7 स्वाध्यायकारिणोऽपि विपदुपनिपाते तन्मुखप्रेक्षित्वात्। = स्वाध्याय करने वाले पर यदि विपत्ति आयेगी तो उसको वैयावृत्त्य वाले के मुख की तरफ ही देखना पड़ेगा।
देखें संयत - 3.2–[वैयावृत्त करने की प्रेरणा दी गयी है] ।
- वैयावृत्त्य में शेष 15 भावनाओं का अंतर्भाव
धवला 8/3, 41/88/8 जेण सम्मत्त-णाण-अरहंत-बहुसुदभत्ति-पवयणवच्छल्लादिणा जीवो जुज्जइ वेज्जावच्चे सो वेज्जावच्चजोगो देसणविसुज्झदादि, तेण जुत्तदा वेज्जावच्चजोगजुत्तदा। ताए एवंविहाएएक्काए वि तित्थयरणामकम्मं बंधइ। एत्थ सेसकारणाणं जहासंभवेण अंतब्भावो वत्तव्वो। = जिस सम्यक्त्व, ज्ञान, अरहंतभक्ति, बहुश्रुतभक्ति एवं प्रवचनवत्सलत्वादि से जीव वैयावृत्त्य में लगता है वह वैयावृत्त्ययोग अर्थात् दर्शन विशुद्धतादि गुण हैं, उनसे संयुक्त होने का नाम वैयावृत्त्ययोगयुक्तता है। इस प्रकार की उस एक ही वैयावृत्त्ययोगयुक्तता से तीर्थंकर नामकर्म बँधता है। यहाँ शेष कारणों का यथासंभव अंतर्भाव कहना चाहिए।
- वैयावृत्त्य गृहस्थों को मुख्य और साधु को गौण है
प्रवचनसार/253-254 वेज्जावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड्ढसमणाणं । लोगिगजणसंभासा ण णिंदिदा वा सुहोव-जुदा ।253। एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । चरिया परेत्ति भणिदा ताएव परं लहदि सोक्खं ।254।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/254 एवमेष प्रशस्तचर्या.....रागसंगत्वाद्गौणः श्रमणानां, गृहिणां तु...क्रमतः परमनिर्वाणसौख्य-कारणत्वाच्च मुख्यः । = रोगी, गुरु, बाल तथा वृद्ध श्रमणों की वैयावृत्त्य के निमित्त शुभोपयोगयुक्त लौकिकजनों के साथ की बातचीत निंदित नहीं है ।253। यह प्रशस्तभूत चर्या रागसहित होने के कारण श्रमणों को गौण होती है और गृहस्थों को क्रमशः परमनिर्वाण सौख्य का कारण होने से मुख्य है । ऐसा शास्त्रों में कहा है ।
- अन्य संबंधित विषय
- एक वैयावृत्त्य से ही तीर्थंकरत्व का बंध संभव है ।–देखें भावना - 2 ।
- सल्लेखनागत क्षपक के योग्य वैयावृत्त्य की विशेषताएँ ।–देखें सल्लेखना - 5 ।
- वैयावृत्त्य का अर्थ सावद्य कर्मयोग्य नहीं।–देखें सावद्य - 8 ।
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