अपकर्षण: Difference between revisions
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<p>अपकर्षणका अर्थ घटना है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रके कारण स्वतः अथवा तपश्चरण आदिके द्वारा साधक पूर्वोपार्जित कर्मोंकी स्थति व अनुभाग बराबर घटता हुआ अथवा घातता हुआ आगे बढ़ता है। इसीका नाम मोक्षमार्गमें अपकर्षण इष्ट है। संसारी जीवों के भी प्रतिपल शुभ या अशुभ परिणामोंके कारण पुण्य या पाप प्रकृतियोंका अपकर्षण हुआ करता है। वह अपकर्षण दो प्रकारसे होता है-साधारण व गुणाकार रूपसे। इनमें पहिलेको अपकर्षण व अपसरण तथा दूसरेको | <p>अपकर्षणका अर्थ घटना है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रके कारण स्वतः अथवा तपश्चरण आदिके द्वारा साधक पूर्वोपार्जित कर्मोंकी स्थति व अनुभाग बराबर घटता हुआ अथवा घातता हुआ आगे बढ़ता है। इसीका नाम मोक्षमार्गमें अपकर्षण इष्ट है। संसारी जीवों के भी प्रतिपल शुभ या अशुभ परिणामोंके कारण पुण्य या पाप प्रकृतियोंका अपकर्षण हुआ करता है। वह अपकर्षण दो प्रकारसे होता है-साधारण व गुणाकार रूपसे। इनमें पहिलेको अपकर्षण व अपसरण तथा दूसरेको कांडकघात कहते हैं, क्योंकि इसमें कर्मोंके गट्ठे के गट्ठे एक-एक बारमें तोड़ दिये जाते हैं। यह कांडकघात ही मोक्षका साक्षात् कारण है और केवल ऊँचे दर्जेके ध्यानियोंको होता है। इसी विषयका परिचय इस अधिकारमें दिया गया है।</p> | ||
<p>1. भेद व लक्षण</p> | <p>1. भेद व लक्षण</p> | ||
<p>1. अपकर्षण सामान्यका लक्षण।</p> | <p>1. अपकर्षण सामान्यका लक्षण।</p> | ||
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<p>1. अव्याघात अपकर्षण विधान।</p> | <p>1. अव्याघात अपकर्षण विधान।</p> | ||
<p>2. अपकर्षण योग्य स्थान व प्रकृतियाँ।</p> | <p>2. अपकर्षण योग्य स्थान व प्रकृतियाँ।</p> | ||
<p>3. अपकृष्ट द्रव्यमें भी पुनः परिवर्तन होना | <p>3. अपकृष्ट द्रव्यमें भी पुनः परिवर्तन होना संभव है।</p> | ||
<p>4. उदयावलिसे बाहर स्थित निषेकोंका ही अपकर्षण होता है भीतरवालों का नहीं।</p> | <p>4. उदयावलिसे बाहर स्थित निषेकोंका ही अपकर्षण होता है भीतरवालों का नहीं।</p> | ||
<p>3. अपसरण निर्देश</p> | <p>3. अपसरण निर्देश</p> | ||
<p>1. चौंतीस | <p>1. चौंतीस स्थितिबंधापसरण निर्देश। </p> | ||
<p>(पृथक्-पृथक् चारों गतियोंके जीवोंकी अपेक्षा)</p> | <p>(पृथक्-पृथक् चारों गतियोंके जीवोंकी अपेक्षा)</p> | ||
<p>2. स्थिति सत्त्वापसरण निर्देश।</p> | <p>2. स्थिति सत्त्वापसरण निर्देश।</p> | ||
<p>3. 34 | <p>3. 34 बंधापसरणोंकी अभव्योंमें संभावना व असंभावना संबंधी दो मत।</p> | ||
<p>• स्थिति | <p>• स्थिति बंधापसरण कालका लक्षण-देखें [[ अपकर्षण#4.4 | अपकर्षण - 4.4]]</p> | ||
<p>4. व्याघात या | <p>4. व्याघात या कांडकघात निर्देश</p> | ||
<p>1. | <p>1. स्थितिकांडकघात विधान</p> | ||
<p>• चारित्रमोहोपशम विधानमें | <p>• चारित्रमोहोपशम विधानमें स्थितिकांडकघात। - देखें [[ लब्धिसार ]]मूल या टीका गाथा 77-78/112 * चारित्रमोहक्षपणा विधानमें स्थितिकांडकघात। - देखें [[ क्षपणासार#405 | क्षपणासार - 405]]-407/491 2. कांडकघातके बिना स्थितिघात संभव नहीं</p> | ||
<p>2. आयुका | <p>2. आयुका स्थितिकांडकघात नहीं होता।</p> | ||
<p>3. | <p>3. स्थितिकांडकघात व स्थितिबंधापसरण में अंतर।</p> | ||
<p>4. | <p>4. अनुभागकांडक विधान।</p> | ||
<p>5. | <p>5. अनुभागकांडकघात व अपवर्तनाघातमें अंतर।</p> | ||
<p>• | <p>• अनुभागकांडकघातमें अंतरंगकी प्रधानता। - देखें [[ कारण#II.2 | कारण - II.2]]</p> | ||
<p>6. शुभ प्रकृतियोंका अनुभागघात नहीं होता।</p> | <p>6. शुभ प्रकृतियोंका अनुभागघात नहीं होता।</p> | ||
<p>7. प्रदेशघातसे स्थिति घटती है, अनुभाग नहीं।</p> | <p>7. प्रदेशघातसे स्थिति घटती है, अनुभाग नहीं।</p> | ||
<p>8. स्थिति व अनुभागघातमें परस्पर | <p>8. स्थिति व अनुभागघातमें परस्पर संबंध।</p> | ||
<p>• आयुकर्मके स्थिति व अनुभागघात | <p>• आयुकर्मके स्थिति व अनुभागघात संबंधी। - देखें [[ आयु#5 | आयु - 5]]</p> | ||
<p>1. भेद व लक्षण</p> | <p>1. भेद व लक्षण</p> | ||
<p>1. अपकर्षण सामान्यका लक्षण</p> | <p>1. अपकर्षण सामान्यका लक्षण</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 10/4,2,4,21/53/2 पदेसाणं ठिदीणमोवट्टणा ओक्कड्डणा णाम।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 10/4,2,4,21/53/2 पदेसाणं ठिदीणमोवट्टणा ओक्कड्डणा णाम।</p> | ||
<p class="HindiText">= कर्मप्रदेशोंकी स्थितियों के अपवर्तन (घटने) का नाम अपकर्षण है।</p> | <p class="HindiText">= कर्मप्रदेशोंकी स्थितियों के अपवर्तन (घटने) का नाम अपकर्षण है।</p> | ||
<p class="SanskritText">गोम्मट्टसार | <p class="SanskritText">गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 438/591 स्थित्यनुभागयोर्हानिरपकर्षणं णाम।</p> | ||
<p class="HindiText">= स्थिति और अनुभागकी हानि अर्थात् पहिले | <p class="HindiText">= स्थिति और अनुभागकी हानि अर्थात् पहिले बांधी थी उससे कम करना अपकर्षण है।</p> | ||
<p> लब्धिसार / भाषा/55/87 स्थिति घटाय ऊपरिके निषेकनिका द्रव्य नीचले निषेकनि विषैं जहाँ दीजिये तहाँ अपकर्षण कहिये। (पीछे उदय आने योग्य द्रव्यको ऊपरका और पहिले उदयमें आने योग्यको नीचेका जानना चाहिए।</p> | <p> लब्धिसार / भाषा/55/87 स्थिति घटाय ऊपरिके निषेकनिका द्रव्य नीचले निषेकनि विषैं जहाँ दीजिये तहाँ अपकर्षण कहिये। (पीछे उदय आने योग्य द्रव्यको ऊपरका और पहिले उदयमें आने योग्यको नीचेका जानना चाहिए।</p> | ||
<p>( गोम्मटसार | <p>( गोम्मटसार जीवकांड/ भाषा/258/566/16)।</p> | ||
<p>2. अपकर्षणके भेद</p> | <p>2. अपकर्षणके भेद</p> | ||
<p>(अपकर्षण दो प्रकारका कहा गया है - अव्याघात अपकर्षण और व्याघात अपकर्षण। व्याघात अपकर्षणका ही दूसरा नाम | <p>(अपकर्षण दो प्रकारका कहा गया है - अव्याघात अपकर्षण और व्याघात अपकर्षण। व्याघात अपकर्षणका ही दूसरा नाम कांडकघात भी है, जैसा कि इस संज्ञासे ही विदित है)।</p> | ||
<p>3. अव्याघात अपकर्षणका लक्षण</p> | <p>3. अव्याघात अपकर्षणका लक्षण</p> | ||
<p> लब्धिसार / भाषा/56/88/1 जहाँ | <p> लब्धिसार / भाषा/56/88/1 जहाँ स्थितकांडकघात न पाइए सो अव्याघात कहिये।</p> | ||
<p>4. व्याघात अपकर्षणका लक्षण</p> | <p>4. व्याघात अपकर्षणका लक्षण</p> | ||
<p> लब्धिसार / भाषा/59/92/1 जहाँ | <p> लब्धिसार / भाषा/59/92/1 जहाँ स्थितिकांडकघात होई सोव्याघात कहिये।</p> | ||
<p>5. अतिस्थापना व निक्षेपके लक्षण</p> | <p>5. अतिस्थापना व निक्षेपके लक्षण</p> | ||
<p class="SanskritText">लब्धिसार / जीवतत्त्व प्रदीपिका / मूल या टीका गाथा 56/87/12 अपकृष्टद्रव्यस्य निक्षेपस्थानं निक्षेपः, निक्षिप्यतेऽस्मिन्नित निर्वचनात्। तेनातिक्रम्यमाणं स्थानमतिस्थापनं, अतिस्थाप्यते अतिक्रम्यतेऽस्मिन्निति अतिस्थापनम्।</p> | <p class="SanskritText">लब्धिसार / जीवतत्त्व प्रदीपिका / मूल या टीका गाथा 56/87/12 अपकृष्टद्रव्यस्य निक्षेपस्थानं निक्षेपः, निक्षिप्यतेऽस्मिन्नित निर्वचनात्। तेनातिक्रम्यमाणं स्थानमतिस्थापनं, अतिस्थाप्यते अतिक्रम्यतेऽस्मिन्निति अतिस्थापनम्।</p> | ||
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<p>2. अपकर्षण सामान्य निर्देश</p> | <p>2. अपकर्षण सामान्य निर्देश</p> | ||
<p>1. अव्याघात अपकर्षण विधान</p> | <p>1. अव्याघात अपकर्षण विधान</p> | ||
<p> लब्धिसार / मू. व टीका/56-58/88-90 केवल भावार्थ [नोट-साथ आगे दिया गया | <p> लब्धिसार / मू. व टीका/56-58/88-90 केवल भावार्थ [नोट-साथ आगे दिया गया यंत्र देखिए। द्वितीयावलीके प्रथम निषेकका अपकर्षण करि नीचे (प्रथमावली में) निक्षेपण करिये तहाँ भी कुछ निषेकोमें तो निक्षेपण करते हैं, और कुछ निषेक अतिस्थापना रूप रहते हैं। उनका विशेष प्रमाण बताते हैं।] प्रथमावलीके निषेकनि विषैं समयघाट आवलीका त्रिभागसे एक समय अधिक प्रमाण निषेक तो निक्षेपरूप हैं (अर्थात् यदि आवली 16 समय समय प्रमाण तो 16-1\3+1=6 निषेक निक्षेप रूप है।) इस विषैं सोई द्रव्य दीजिये है। बहुरि अवशेष (नं.7-16 तकके 10) निषेक अतिस्थापना रूप हैं। </p> | ||
<p>(देखें [[ | <p>(देखें [[ यंत्र नं#2 | यंत्र नं - 2]])।</p> | ||
<p>(Kosh1_P000113_Fig0010)</p> | <p>(Kosh1_P000113_Fig0010)</p> | ||
<p>यातै ऊपरि द्वितीयावलीके द्वितीय निषेकका अपकर्षण किया। तहाँ एक समय अधिक आवली मात्र (16+1=17) याके बीच निषेक हैं। तिनि विषैं निक्षेप तो (वही पहले वाला अर्थात्) निषेक घाट? आवलीका त्रिभागसे एक समय अधिक ही है। अति-स्थापना पूर्वतैं एक समय अधिक हैं (क्योंकि द्वितीयावलिका प्रथम समय जिसके द्रव्यको पहिले अपकर्षण कर दिया गया है, अब खाली होकर अतिस्थापनाके समयोंमें सम्मिलित हो गया है।) ऐसे क्रमतैं द्वितीयावलीके तृतीयादि निषेकनिका अपकर्षण होते निक्षेप तो पूर्वोक्त प्रमाण ही और अतिस्थापना एक एक समय अधिक क्रमतै जानना। (इसी प्रकार बढ़ते-बढ़ते) अतिस्थापना आवली मात्र (अर्थात् 16 निषेक प्रमाण) ही है, सो यहू उत्कृष्ट अतिस्थापना है। यहाँ तैं (आगै) ऊपरिके निषेकनिका द्रव्य (अर्थात् द्वितीय स्थितिके नं.7 आदि निषेक) अपकर्षण किये सर्वत्र अतिस्थापना तो आवली मात्र ही जानना अर निक्षेप एक-एक समय क्रमतैं बँधता जाये।</p> | <p>यातै ऊपरि द्वितीयावलीके द्वितीय निषेकका अपकर्षण किया। तहाँ एक समय अधिक आवली मात्र (16+1=17) याके बीच निषेक हैं। तिनि विषैं निक्षेप तो (वही पहले वाला अर्थात्) निषेक घाट? आवलीका त्रिभागसे एक समय अधिक ही है। अति-स्थापना पूर्वतैं एक समय अधिक हैं (क्योंकि द्वितीयावलिका प्रथम समय जिसके द्रव्यको पहिले अपकर्षण कर दिया गया है, अब खाली होकर अतिस्थापनाके समयोंमें सम्मिलित हो गया है।) ऐसे क्रमतैं द्वितीयावलीके तृतीयादि निषेकनिका अपकर्षण होते निक्षेप तो पूर्वोक्त प्रमाण ही और अतिस्थापना एक एक समय अधिक क्रमतै जानना। (इसी प्रकार बढ़ते-बढ़ते) अतिस्थापना आवली मात्र (अर्थात् 16 निषेक प्रमाण) ही है, सो यहू उत्कृष्ट अतिस्थापना है। यहाँ तैं (आगै) ऊपरिके निषेकनिका द्रव्य (अर्थात् द्वितीय स्थितिके नं.7 आदि निषेक) अपकर्षण किये सर्वत्र अतिस्थापना तो आवली मात्र ही जानना अर निक्षेप एक-एक समय क्रमतैं बँधता जाये।</p> | ||
<p>(Kosh1_P000114_Fig0011)</p> | <p>(Kosh1_P000114_Fig0011)</p> | ||
<p>तहाँ स्थितिका | <p>तहाँ स्थितिका अंत निषेकका द्रव्यको अपकर्षण करि नीचले निषेकनि विषैं निक्षेपण करते, तिस अंत निषेकके नीचे आवली मात्र निषेक तौ अतिस्थापना रूप हैं, और समय अधिक दोय आवली करि हीन उत्कृष्ट स्थिति मात्र निक्षेप है। सो यहू उत्कृष्ट निक्षेप जानना। (कुल स्थितिमेंसे एक आवली तो आबाधा काल और एक आवली अतिस्थापना काल तथा एक समय अंतिम निषेकका कम करनेपर यह उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होता है। </p> | ||
<p>(दे, | <p>(दे, यंत्र नं. 4)।</p> | ||
<p>2. अपकर्षण योग्य स्थान व प्रकृतियाँ</p> | <p>2. अपकर्षण योग्य स्थान व प्रकृतियाँ</p> | ||
<p class="SanskritText">गोम्मट्टसार | <p class="SanskritText">गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 445-448/595-598 ओवकट्टणकरणंपुण अजीगिसत्ताण जोगिचरिमोत्ति। खीणं मुहुमंताणं खयदेसं सावलीयसमयोत्ति ॥445॥ उवसंतोत्ति सुराऊ मिच्छत्तिय खवगसोलसणं च। खयदेसोत्ति य खवगे अट्ठकसायादिवीसाणं ॥446॥ मिच्छत्तिमसोलसाणं उवसमसेढिम्मि संतमोहोत्ति। अट्टकसायादीणं उव्वसमियट्ठाणगोत्ति हवे ॥447॥ पढमकसायाणं च विसंजोजकं वोत्ति अयददेसोत्ति। णिरयतिरियाउगाणमुदीरणसत्तोदया सिद्धा ॥448॥</p> | ||
<p class="HindiText">= अयोगि विषैं सत्त्वरूप वही पिच्यासी प्रकृति (पाँच शरीर, पाँच | <p class="HindiText">= अयोगि विषैं सत्त्वरूप वही पिच्यासी प्रकृति (पाँच शरीर, पाँच बंधन,</p> | ||
<p>5 5</p> | <p>5 5</p> | ||
<p>पाँच संघात, छः संस्थान, तीन अंगोपांग, छः संहनन, पाँच वर्ण,</p> | <p>पाँच संघात, छः संस्थान, तीन अंगोपांग, छः संहनन, पाँच वर्ण,</p> | ||
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<p>72 प्रकृति की तौ अयोगिके द्वि चरम समय सत्त्वसे व्युच्छित्ति होती है बहुरि जिनका उदय अयोगि विषैं पाइये ऐसे उदयरूप अन्यतम</p> | <p>72 प्रकृति की तौ अयोगिके द्वि चरम समय सत्त्वसे व्युच्छित्ति होती है बहुरि जिनका उदय अयोगि विषैं पाइये ऐसे उदयरूप अन्यतम</p> | ||
<p>1</p> | <p>1</p> | ||
<p>वेदनीय, मनुष्यगति, | <p>वेदनीय, मनुष्यगति, पंचेंद्रिय, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय,</p> | ||
<p>1 1 1 1 1 1 1</p> | <p>1 1 1 1 1 1 1</p> | ||
<p>यशःकीर्ति, तीर्थंकरत्व, मनुष्यायु व आनुपूर्वी, उच्च गोत्र-इन</p> | <p>यशःकीर्ति, तीर्थंकरत्व, मनुष्यायु व आनुपूर्वी, उच्च गोत्र-इन</p> | ||
<p>1 1 2 1</p> | <p>1 1 2 1</p> | ||
<p>तेरह प्रकृतियोंकी अयोगिके | <p>तेरह प्रकृतियोंकी अयोगिके अंत समय सत्त्वसे व्युच्छित्ति होती है। सर्व मिलि 85 भई।) तिनिकै (85 प्रकृतिनि कै) सयोगिका अंत समय पर्यंत अपकर्षण जानना। बहुरि क्षीणकषाय विषय सत्त्वसे व्युच्छित्ति भई सोलह और सूक्ष्म-सांपरायविषैं सत्त्वतैं व्युच्छित्ति भया सूक्ष्म लोभ इन तेरह प्रकृतिनिकैं क्षयदेश पर्यंत अपकर्षणकरण जानना। (पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अंतराय, निद्रा-प्रचला ये सोलह तथा सूक्ष्म लोभ। सर्व मिलि 7 भई।)</p> | ||
<p>5 4 5 2</p> | <p>5 4 5 2</p> | ||
<p>तहाँ क्षयदेश कहा सो कहिये है - जे प्रकृति अन्य प्रकृतिरूप उदय देय विनसै है; ऐसी परमुखोदयी हैं, तिनकै तो | <p>तहाँ क्षयदेश कहा सो कहिये है - जे प्रकृति अन्य प्रकृतिरूप उदय देय विनसै है; ऐसी परमुखोदयी हैं, तिनकै तो अंतकांडककी अंत फालि क्षयदेश। बहुरि अपने ही रूप फल देइ विनसै हैं ऐसी स्वमुखोदयी प्रकृति, तिनक एक-एक समय अधिक आवली प्रमाण क्षयदेश है, तातैं तिनि सतरह प्रकृतिनिकै एक समय आवली काल पर्यंत अपकर्षण पाइये ॥445॥ उपशांतकषाय पर्यंत देवायुके अपकर्षणकरण है। बहुरि मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति ये तीन और `णिरय तिरक्खा' इत्यादि सूत्रोक्त अनिवृत्तिकरण विषै क्षय भई सोलह प्रकृति (नरक गति व आनुपूर्वी, तिर्यंचगति व आनुपूर्वी,</p> | ||
<p>2 2</p> | <p>2 2</p> | ||
<p>विकलत्रय, स्त्यानगृद्धित्रिक, उद्योत, आतप, | <p>विकलत्रय, स्त्यानगृद्धित्रिक, उद्योत, आतप, एकेंद्रिय, साधारण</p> | ||
<p>3 3 1 1 1 1</p> | <p>3 3 1 1 1 1</p> | ||
<p>सूक्ष्म, स्थावर, इन सोलह प्रकृतिनिकी अनिवृत्तिकरणके पहिले भाग</p> | <p>सूक्ष्म, स्थावर, इन सोलह प्रकृतिनिकी अनिवृत्तिकरणके पहिले भाग</p> | ||
<p>1 1</p> | <p>1 1</p> | ||
<p>विषैं सत्त्वसे व्युच्छित्ति है)। इनिके क्षयदेश | <p>विषैं सत्त्वसे व्युच्छित्ति है)। इनिके क्षयदेश पर्यंत अपकर्षणकरण है-अंतकांडकका अंतका फालि पर्यंत है, ऐसा जानना। बहुरि आठ कषायने आदि देकरि अनिवृत्तिकरणविषैं क्षय भई ऐसी बीस प्रकृति (अप्रत्याख्यान कषाय, प्रत्याख्यान कषाय, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद</p> | ||
<p>4 4 1 1</p> | <p>4 4 1 1</p> | ||
<p>छह नोकषाय, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध मान व माया। सर्व मिलि</p> | <p>छह नोकषाय, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध मान व माया। सर्व मिलि</p> | ||
<p>6 1 3</p> | <p>6 1 3</p> | ||
<p>20 भई।) तिनिकैं अपने-अपने क्षयदेश | <p>20 भई।) तिनिकैं अपने-अपने क्षयदेश पर्यंत अपकर्षणकरण है। जिस स्थानक क्षय भया सो क्षय देश कहिये ॥446॥</p> | ||
<p>उपशम श्रेणीविषैं मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्व प्रकृति ये तीन अर नरक द्विकादिक सोलह (अनिवृत्तिकरणमें व्युच्छित्तिप्राप्त पूर्वोक्त 16) इसिकै | <p>उपशम श्रेणीविषैं मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्व प्रकृति ये तीन अर नरक द्विकादिक सोलह (अनिवृत्तिकरणमें व्युच्छित्तिप्राप्त पूर्वोक्त 16) इसिकै उपशांतकषाय पर्यंत अपकर्षण है। बहुरि अष्ट कषायादिक (अनिवृत्तिकरणमें व्युच्छित्ति प्राप्त पूर्वोक्त 20) तिनके अपने-अपने उपशमनेके ठिकाने पर्यंत अपकर्षणकरण है ॥447॥ अनंतानुबंधी चतुष्ककै देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्तनि विषैं यथा संभक जहाँ विसंयोजना होई तहाँ पर्यंत उपकर्षणकरण है ॥448॥</p> | ||
<p>3. अपकृष्ट द्रव्यमें भी पुनः परिवर्तन होना | <p>3. अपकृष्ट द्रव्यमें भी पुनः परिवर्तन होना संभव है</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 6/1,9-8,16/22/347 ओकड्डदि जे अंसेसे काले ते च होंति भजिदव्वा। वड्डीए अवठ्ठाणे हाणीए संकमे उदए ॥22॥</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 6/1,9-8,16/22/347 ओकड्डदि जे अंसेसे काले ते च होंति भजिदव्वा। वड्डीए अवठ्ठाणे हाणीए संकमे उदए ॥22॥</p> | ||
<p class="HindiText">= जिन कर्मांशोंका अपकर्षण करता है वे | <p class="HindiText">= जिन कर्मांशोंका अपकर्षण करता है वे अनंतर कालमें स्थित्यादिकी वृद्धि, अवस्थान, हानि, संक्रमण, और उदय, इनसे भजनीय हैं, अर्थात् अपकर्षण किये जानेके अनंतर समयमें ही उनमें वृद्धि आदिक उक्त क्रियाओंको होना संभव है ॥22॥</p> | ||
<p>4. उदयावलिसे बाहर स्थित निषेकोंका ही अपकर्षण होता है भीतरवालोंका नहीं</p> | <p>4. उदयावलिसे बाहर स्थित निषेकोंका ही अपकर्षण होता है भीतरवालोंका नहीं</p> | ||
<p class="SanskritText">कषायपाहुड़ पुस्तक 7/पूर्ण सूत्र/$423-424/239 ओक्कड्डणादो झीणट्ठिदियं णाम किं ॥423॥ जं कम्ममुदयावलियब्भंतरे ट्ठियं तमोक्कडुणादो झीणट्ठिदियं। जमुदयावलिबाहिरे ट्ठिदं तमोक्कड्डणादो अज्झीणट्ठिदियं ॥424॥</p> | <p class="SanskritText">कषायपाहुड़ पुस्तक 7/पूर्ण सूत्र/$423-424/239 ओक्कड्डणादो झीणट्ठिदियं णाम किं ॥423॥ जं कम्ममुदयावलियब्भंतरे ट्ठियं तमोक्कडुणादो झीणट्ठिदियं। जमुदयावलिबाहिरे ट्ठिदं तमोक्कड्डणादो अज्झीणट्ठिदियं ॥424॥</p> | ||
<p class="HindiText">= प्रश्न-वे कौनसे कर्मपरमाणु हैं जो अपकर्षणसे झीन (रहित) स्थितिवाले हैं ॥423॥ उत्तर-जो कर्मपरमाणु उदयावलिके भीतर स्थित हैं वे अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं और जो कर्मपरमाणु उदयावलिके बाहर स्थित है वे अपकर्षणसे अझीन स्थितिवाले हैं। अर्थात् उदयावलिके भीतर स्थित कर्म परमाणुओंका अपकर्षण नहीं होता, | <p class="HindiText">= प्रश्न-वे कौनसे कर्मपरमाणु हैं जो अपकर्षणसे झीन (रहित) स्थितिवाले हैं ॥423॥ उत्तर-जो कर्मपरमाणु उदयावलिके भीतर स्थित हैं वे अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं और जो कर्मपरमाणु उदयावलिके बाहर स्थित है वे अपकर्षणसे अझीन स्थितिवाले हैं। अर्थात् उदयावलिके भीतर स्थित कर्म परमाणुओंका अपकर्षण नहीं होता, किंतु उदयावलिके बाहर स्थित कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण हो सकता है।</p> | ||
<p>3. अपसरण निर्देश</p> | <p>3. अपसरण निर्देश</p> | ||
<p>1. चौंतीस स्थिति | <p>1. चौंतीस स्थिति बंधापसरण निर्देश</p> | ||
<p>1. मनुष्य व तिर्यंचोंकी अपेक्षा</p> | <p>1. मनुष्य व तिर्यंचोंकी अपेक्षा</p> | ||
<p> लब्धिसार / मू.व.जी.प्र.8/9-16/47-53 केवल भाषार्थ "प्रथमोपशम सम्यक्त्वको सन्मुख भया मिथ्यादृष्टि जीव सो विशुद्धताकी वृद्धिकरि वर्द्धमान होता संता प्रायोग्यलब्धिका प्रथम समयतैं लगाय पूर्व स्थिति | <p> लब्धिसार / मू.व.जी.प्र.8/9-16/47-53 केवल भाषार्थ "प्रथमोपशम सम्यक्त्वको सन्मुख भया मिथ्यादृष्टि जीव सो विशुद्धताकी वृद्धिकरि वर्द्धमान होता संता प्रायोग्यलब्धिका प्रथम समयतैं लगाय पूर्व स्थिति बंधकै (?) संख्यातवें भागमात्र अंतःकोटाकोटी सागर प्रमाण आयु बिना सात कर्मनिका स्थितिबंध करै है ॥9॥ तिस अंतःकोटाकोटी सागर स्थितिबंध तैं पल्यका संख्यातवां भागमात्र घटता स्थितिबंध अंतर्मुहूर्त पर्यंत समानता लिये करै। बहुरि तातैं पल्यका संख्यातवां भागमात्र घटता स्थितिबंध अंतर्मुहूर्त पर्यंत करै है। ऐसे क्रमतै संख्यात स्थितिबंधापसरणनि करि पृथक्त्वसौ (800 या 900) सागर घटै पहिला स्थिति बंधापसरण स्थान होइ। 2 बहुरि तिस ही क्रमतैं तिस तैं भी पृथक्त्वसौ घटै दूसरा स्थितिबंधापसरण स्थान ही है। ऐसै इस ही क्रमतैं इतना-इतना स्थिति बंध घटै एक-एक स्थान होइ। ऐसे स्थिति बंधापसरणके चौतीस स्थान होइ। चौतीस स्थाननिविषैं कैसी प्रकृतिका (बंध) व्युच्छेद हो है सो कहिए ॥10॥ 1. पहिला नरकायुका व्युच्छित्ति स्थान है। इहां तै लगाय उपशम सम्यक्त्व पर्यंत नरकायुका बंध न होइ, ऐसे ही आगे जानना। 2. दूसरा तिर्यंचायुका है। (इसी क्रमसे) 3. मनुष्यायु; 4. देवायु; 5. नरकगति व आनुपूर्वी; 6. संयोगरूप सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण (संयोग रूप अर्थात् तीनोंका युगपत् बंध); 7. संयोगरूप सूक्ष्म अपर्याप्त प्रत्येक; 8. संयोगरूप बादर अपर्याप्त साधारण; 9. संयोगरूप बादर अपर्याप्त प्रत्येक; 10. संयोगरूप बेइंद्रिय अपर्याप्त; 11. संयोगरूप तेइंद्रिय अपर्याप्त; 12. संयोगरूप असंज्ञी पंचेंद्रिय अपर्याप्त; 14. संयोगरूप संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त ॥11॥ 15. संयोगरूप सूक्ष्म पर्याप्त साधारण; 16. संयोगरूप सूक्ष्म पर्याप्त प्रत्येक; 17. संयोगरूप बादर पर्याप्त साधारण; 18. संयोगरूप बादर पर्याप्त प्रत्येक एकेंद्रिय आतप स्थावर; 19. संयोगरूप बेइंद्रिय पर्याप्त; 20. संयोगरूप तेइंद्रिय पर्याप्त; 21. चौइंद्रिय पर्याप्त; 22. असंज्ञी, पंचेंद्रिय, पर्याप्त ॥12॥ 23. संयोगरूप तिर्यंच व आनपूर्वी तथा उद्योत; 24. नीच गोत्र; 25. संयोगरूप अप्रशस्त विहायोगति दुर्भग-दुःस्वरअनादेय; 26. हुंडकसंस्थान, सृपाटिका संहनन; 27. नपुंसकवेद; 28. वामन संस्थान, कीलित संहनन; ॥13॥ 29. कुब्जक संस्थान, अर्धनाराच संहनन; 30. स्त्रीवेद; 31. स्वाति संस्थान, नारोच संहनन, 32. न्यग्रोध संस्थान, वज्रनाराच संहनन; 33. संयोगरूप मनुष्यगति व आनुपूर्वी औदारिक शरीर व अंगोपांग-वज्र-वृषभनाराच संहनन; 34. संयोगरूप अस्थिर-अशुभ-अयश ॥14॥ अरति-शोक-असाता-। ऐसे ये चौतीस स्थान भव्य और अभव्यके समान हो हैं ॥15॥ मनुष्य तिर्यंचनिकैं तो सामान्योक्त चौतीस स्थान पाइये है तिनके 117 बंध योग्यमें-से 46 की व्युच्छित्ति भई, अवशेष 71 बांधिये है ॥16॥</p> | ||
<p>( धवला पुस्तक 6/1,9-2,2/135/5) ( लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 222-223/267) ( कषायपाहुड़ पुस्तक 10-94/40/पृ.617-619) (म.व./पु.3/115-116)।</p> | <p>( धवला पुस्तक 6/1,9-2,2/135/5) ( लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 222-223/267) ( कषायपाहुड़ पुस्तक 10-94/40/पृ.617-619) (म.व./पु.3/115-116)।</p> | ||
<p>2. भवनत्रिक व सौधर्म युगलकी अपेक्षा</p> | <p>2. भवनत्रिक व सौधर्म युगलकी अपेक्षा</p> | ||
<p> लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 16/53 केवल भावार्थ "भवनत्रिक व सौधर्म युगलविषैं दूसरा, तीसरा अठारहवाँ और तेईसवाँ आदि इस (23-32) और | <p> लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 16/53 केवल भावार्थ "भवनत्रिक व सौधर्म युगलविषैं दूसरा, तीसरा अठारहवाँ और तेईसवाँ आदि इस (23-32) और अंतका चौतीसवाँ ये चौदह स्थान ही संभवै है। तहां 31 प्रकृतिनि की व्युच्छित्ति हो है और बंध योग्य 103 विषैं 72 प्रकृतिनिका बंध अवशेष रहे है ॥16॥</p> | ||
<p>3. प्रथम छह नरकों तथा सनत्कुमारादि 10 स्वर्गोंकी अपेक्षा</p> | <p>3. प्रथम छह नरकों तथा सनत्कुमारादि 10 स्वर्गोंकी अपेक्षा</p> | ||
<p> लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 17/54 केवल भाषार्थ-"रत्नप्रभा आदि छह नरक पृथिवीनिविषैं और सनत्कुमार आदि दश स्वर्गनिविषैं पूर्वोक्त (भवनत्रिकके) 14 स्थान अठारहवें बिना पाइये है। तिनि तेरह स्थाननिकरि अठाईस प्रकृति व्युच्छित्ति हो हैं। तहाँ बंधयोग्य 100 प्रकृतिनिविषैं 72 का | <p> लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 17/54 केवल भाषार्थ-"रत्नप्रभा आदि छह नरक पृथिवीनिविषैं और सनत्कुमार आदि दश स्वर्गनिविषैं पूर्वोक्त (भवनत्रिकके) 14 स्थान अठारहवें बिना पाइये है। तिनि तेरह स्थाननिकरि अठाईस प्रकृति व्युच्छित्ति हो हैं। तहाँ बंधयोग्य 100 प्रकृतिनिविषैं 72 का बंध अवशेष रहे है ॥17॥</p> | ||
<p>4. आनतसे उपरिम ग्रैवेयक तककी अपेक्षा</p> | <p>4. आनतसे उपरिम ग्रैवेयक तककी अपेक्षा</p> | ||
<p> लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 18/55 केवल भाषार्थ-" | <p> लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 18/55 केवल भाषार्थ-"आनंत स्वर्गादि उपरिम ग्रैवेयक पर्यंत विषै (उपरोक्त) 13 स्थान दूसरा व तेईसवाँ बिना पाइये। तहाँ तिनि ग्यारह स्थाननिकरि चौबीस घटाइ बंधयोग्य 96 प्रकृतिनिविधै 72 बाँधिये है ॥18॥</p> | ||
<p>5. सातवीं पृथिवीकी अपेक्षा</p> | <p>5. सातवीं पृथिवीकी अपेक्षा</p> | ||
<p> लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 19/55 केवल भाषार्थ-"सातवीं नरक पृथिवी विषै जे (उपरोक्त) 11 स्थान तीसरा करि हीन और दूसरा करि सहित तथा चौबीसवाँ करि हीन पाइये। तहाँ तिनि 10 स्थानानि करि तेईसवाँ उद्योत सहित ये चौबीस घटाइ | <p> लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 19/55 केवल भाषार्थ-"सातवीं नरक पृथिवी विषै जे (उपरोक्त) 11 स्थान तीसरा करि हीन और दूसरा करि सहित तथा चौबीसवाँ करि हीन पाइये। तहाँ तिनि 10 स्थानानि करि तेईसवाँ उद्योत सहित ये चौबीस घटाइ बंध योग्य 96 प्रकृतिनिविषैं 73 वा 72 बाँधिये है, जातैं उद्योतको बंध वा अबंध दोनों संभवे है ॥19॥</p> | ||
<p>2. स्थिति सत्त्वापसरण निर्देश</p> | <p>2. स्थिति सत्त्वापसरण निर्देश</p> | ||
<p> समयसार / आत्मख्याति गाथा 427-428/506 केवल भाषार्थ-"मोहादिकका क्रम लिए जो क्रमकरण (देखें [[ क्रमकरण ]]) रूप | <p> समयसार / आत्मख्याति गाथा 427-428/506 केवल भाषार्थ-"मोहादिकका क्रम लिए जो क्रमकरण (देखें [[ क्रमकरण ]]) रूप बंध भया, तातै परै इस ही क्रम लिये तितने ही संख्यात हजार स्थिति बंध भये असंज्ञी पंचेंद्रिय समान (सागरोपमलक्षणपृथक्त्व) स्थिति सत्त्व है। बहुरि तातैं परै जैसे-जैसे मोहनीयादिकका क्रमकरण पर्यंत स्थिति बंधका व्याख्यान किया तैसे ही स्थिति सत्त्वका होना अनुक्रम तैं जानना। तहाँ एक पल्य स्थिति पर्यंत पल्यका संख्यातवाँ भागमात्र, तातैं दूरापकृष्टि पर्यंत पल्यका संख्यातवां भागमात्र, तातैं संख्यात हजार वर्ष स्थिति पर्यंत पल्यका असंख्यातवां बहुभागमात्र आयाम लिये जो स्थिति बंधापसरण तिनिकरि स्थिति बंधका घटना कहा था, तैसे ही इहाँ तितने आयाम लिये स्थिति कांडकनिकरिस्थितिसत्त्वका घटना हो है। बहुरि तहाँ संख्यात हजार स्थिति बंधका व्यतीत होना कहा तैसे इहाँ भी कहिए है, वा तहाँ तितने स्थिति कांडनिका व्यतीत होना कहिए। जातैं स्थिति बंधापसरण और स्थितिकांडोत्करणका काल समान है। बहुरि तहाँ स्थिति बंध जहाँ कह्या था यहाँ स्थिति सत्त्व तहाँ कहना। बहुरि अल्प बहुत्व त्रैराशिक आदि विशेष बंधापसरणवत् ही जानना। सो स्थिति सत्त्वका क्रम कहिए - प्रत्येक संख्यात हजार कांडक गये क्रमतै असंज्ञी पंचेंद्रिय, चौइंद्रिय, तेइंद्रिय, बेंइंद्रिय, एकेंद्रियनिकै स्थिति बंधकै समान कर्मनिकी स्थिति सत्त्व हजार, सौ पचास, पच्चीस, एक सागर प्रमाण हो है। बहुरि संख्यात स्थिति कांडके भये बीसयानि (नाम गोत्र) का एक पल्य : तीसियनि (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अंतराय) का ड्योढ पल्य : मोह का दोय पल्य स्थिति सत्त्व ही है। 1. तातै परै पूर्व सत्त्वका संख्यात बहुभागमात्र एक कांडक भये बीसयनिका पल्यके संख्यात भागमात्र स्थिति सत्त्व भया तिस कालविषैं वीसयनिकेतै तीसयनिका संख्यातसगुणा मोहका विशेष अधिक स्थिति सत्त्व भया। 2. बहुरि इस क्रमतै संख्यात हजार स्थिति कांडक भये तीसयनिका (एक) पल्यमात्र, मोहका त्रिभाग अधिक पल्य (1/1\3) मात्र स्थिति सत्त्व भया। ताके परै एक कांडक भये तीसयनिका भी पल्यके संख्यातवें भागमात्र स्थिति सत्त्व हो है। तिस समय बीसयनिका स्तोक तातैं तीसयनिका संख्यातगुणा तैते मोहका संख्यातगुणा स्थिति सत्त्व हो है। 3. बहुरि इस क्रम लिये संख्यात स्थितिकांडक भये मोहका पल्यमात्र स्थिति सत्त्व हो है। बहुरि एक कांडक भये मोहका पल्यमात्र स्थिति सत्त्व हो है। बहुरि एक कांडक भये माहका भी पल्यके संख्यातवें भागमात्र स्थिति सत्त्व हो है। तीहिं समय सातों कर्मनिका स्थिति सत्त्व पल्यके संख्यातवें भागमात्र भया। तहाँ वीसयनिका स्तोक, तीसयनिका संख्यातगुणा तातैं मोहका संख्यातगुणा स्थिति सत्त्व हो है। 4. तातैं परै इस क्रम लिये संख्यात हजार स्थितिकांडक भये बीसयनिका स्थितिसत्त्व दूरापकृष्टिकौ उल्लंघि पल्यके असंख्यातवें भागमात्र भया। तिस समय बीसयनिका स्तोक तातैं तीसयनिका असंख्यातगुणा तातैं मोहकासंख्यातगुणा स्थिति सत्त्व हो है। 5. तातैं परै इस क्रम लिये संख्यात हजार स्थितिकांडक भये तीसयनिका स्थितिसत्त्व दूरापकृष्टिकौ उल्लंघि पल्यके असंख्यातवें भागमात्र भया। तब सर्व ही कर्मनिका स्थितिसत्त्व पल्यके असंख्यातवें भागमात्र भया। तहाँ बीसयनिका स्तोक तातैं तीसयनिका असंख्यातगुणा तातैं मोहका असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व हो है। 6. बहुरि इस क्रमकरि संख्यात हजार स्थितिकांडक भये नाम-गोत्रका स्तोक तातैं मोहका असंख्यात गुणा तातैं तीसयनिका असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व हो है। 7. बहुरि इस क्रम लिये संख्यात हजार स्थितिकान्डक भये मोहका स्तोक तातैं बीसयनिका असंख्यातगुणा तातैं तीसयनिका असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व ही है। 8. बहुरि इस क्रम लिये संख्यात हजार स्थिति कांडक भये मोहका स्तोक तातैं बीसयनिका असंख्यातगुणा तातैं तीन घातियानिका असंख्यातगुणा तातैं वेदनीयका असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व हो है। 9. बहुरि इस क्रम लिये संख्यात हजार स्थितिकांडक भये मोहका स्तोक, तातैं तीन घातियानिका असंख्यातगुणा तातैं नाम-गोत्रका असंख्यातगुणा तातैं वेदनीयका विशेष अधिक स्थितिसत्त्व हो है। 10. ऐसे अंतविषैं नामगोत्रतैं वेदनीयका स्थितिसत्त्व साधिक भया तब मोहादिकैं क्रम लिये स्थिति सत्त्वका क्रमकरण भया ॥427॥ बहुरि इस क्रमकरणतैं परैं संख्यात हजार स्थितिबंध व्यतीत भये जो पल्यका असंख्यातवाँ भागमात्र स्थितिहोइ ताकौं होतै संतै तहाँ असंख्यात समय प्रबद्धनिकी उदीरणा हो है। इहाँ तैं पहिले अपकर्षण किया द्रव्यकौ उदयावलो विषैं देनेके अर्थि असंख्यात लोकप्रमाण भागहार संभवै था। तहाँ समयप्रबद्धके असंख्यातवाँ भाग मात्र उदीरणाद्रव्य था। अब तहाँ पल्यका असंख्यातवाँ भागप्रमाण भागहार होनेतैं असंख्यात समयप्रबद्धमात्र उदीरणाद्रव्य भया ॥428॥</p> | ||
<p>3. 34 | <p>3. 34 बंधापसरणोंकी अभव्योंमें संभावना व असंभावना संबंधी दो मत</p> | ||
<p>1. अभव्यको भी संभव है</p> | <p>1. अभव्यको भी संभव है</p> | ||
<p class="SanskritText">लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 15/47 बंधापसरणस्थानानि भव्याभव्येषु सामान्यानि।</p> | <p class="SanskritText">लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 15/47 बंधापसरणस्थानानि भव्याभव्येषु सामान्यानि।</p> | ||
<p class="HindiText">= चौतीस | <p class="HindiText">= चौतीस बंधापसरणस्थान भव्य वा अभव्यके समान ही है।</p> | ||
<p>2. अभव्यका संभव नहीं</p> | <p>2. अभव्यका संभव नहीं</p> | ||
<p class="SanskritText">महाबंध पुस्तक 3/115/11 पंचिदियाणं सण्णीणं मिच्छादिट्ठीणं अब्भवसिद्धियां पाओग्गं अंतोकोडाकोडिपुधत्तं बंधमाणस्स णत्थि ट्ठिदिबंधवोच्छेदो।</p> | <p class="SanskritText">महाबंध पुस्तक 3/115/11 पंचिदियाणं सण्णीणं मिच्छादिट्ठीणं अब्भवसिद्धियां पाओग्गं अंतोकोडाकोडिपुधत्तं बंधमाणस्स णत्थि ट्ठिदिबंधवोच्छेदो।</p> | ||
<p class="HindiText">= | <p class="HindiText">= पंचेंद्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवोंमें अभव्योंके योग्य अंतःकोडाकोड़ीपृथक्त्वप्रमाण स्थितिका बंध करनेवाले जीवके स्थितिकी बंध व्युच्छित्ति नहीं होती है।</p> | ||
<p>4. व्याघात या | <p>4. व्याघात या कांडकघात निर्देश</p> | ||
<p>1. | <p>1. स्थितिकांडक घात विधान</p> | ||
<p> लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 60/92 केवल भाषार्थ "जहाँ स्थिति | <p> लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 60/92 केवल भाषार्थ "जहाँ स्थिति कांडकघात होइ सो व्याघात कहिए। तहाँ कहिए है-कोई जीव उत्कृष्ट स्थिति बांधि पीछे क्षयोपशमलब्धिकरि विशुद्ध भया तब बंधी थी जो स्थित तीहीं विषै आबाधरूप बंधावलीकौ व्यतीत भये पीछे एक अंतर्मुहूर्त कालकरि स्थितिकांडकका घात किया। तहाँ जो उत्कृष्ट स्थितिबांधी थी, तिस विषैं अंतःकोटाकोटी सागर प्रमाण स्थिति अवशेष राखि अन्य सर्व स्थितिका घात तिस कांडककरि हो है। तहाँ कांडकविषैं जेती स्थिति घटाई ताके सर्व निषेकनिका परमाणूनिकौ समय समय प्रति असंख्यातगुणा क्रम लिये, अवशेष राखी स्थितिविषैं अंतर्मुहूर्त पर्यंत निक्षेपण करिए है। सो समय-समय प्रति जो द्रव्य निक्षेपण किया सोई फालि है। तहाँ अंतकी फालिविषैं, स्थितिके अंत निषेकका जो द्रव्य ताकौ ग्रहि अवसेष राखी स्थितिविषैं दिया। तहाँ अंतःकोटाकोटी सागरकरि हीन उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना हो है, जातैं इस विषैं सो द्रव्य न दिया। इहाँ उत्कृष्ट स्थितिविषैं अंतःकोटाकोटी सागरमात्र स्थिति अवशेष रही तिसविषैं द्रव्य दिया, सो यहू निक्षेप रूप भया। तातैं यहू घटाया अर एक अंत निषेकका द्रव्य ग्रह्या ही है तातैं एक समय घटाया है अंक संदृष्टिकरि जैसे हजार समयनिकी स्थितिविषैं कांडकघातकरि सौ समयकी स्थिति राखी। (तहाँ सौ समय उत्कृष्ट निक्षेप रूप रहे अर्थात्, हजारवाँ समय संबंधी निषेकका द्रव्यकौ आदिके सौ समयसंबंधी निषेकनिविषैं दिया)। तहाँ शेष बचे 899 मात्र समय उत्कृष्ट अतिस्थापना हो है ॥59-60॥</p> | ||
<p>सत्तास्थितनिषेक-0</p> | <p>सत्तास्थितनिषेक-0</p> | ||
<p>उत्कीरित निषेक-X</p> | <p>उत्कीरित निषेक-X</p> | ||
<p>(Kosh1_P000116_Fig0012)</p> | <p>(Kosh1_P000116_Fig0012)</p> | ||
<p>नोट-[अव्याघात विधानमें अतिस्थापना केवल आवली मात्रथी और निक्षेप एक एक समय बढ़ता हुआ लगभग पूर्ण स्थिति प्रमाण ही रहता था, इसलिए तहाँ स्थितिका घात होना संभव न था। यहाँ प्रदेशोंका अपकर्षण तो हुआ पर स्थितिका नहीं।</p> | <p>नोट-[अव्याघात विधानमें अतिस्थापना केवल आवली मात्रथी और निक्षेप एक एक समय बढ़ता हुआ लगभग पूर्ण स्थिति प्रमाण ही रहता था, इसलिए तहाँ स्थितिका घात होना संभव न था। यहाँ प्रदेशोंका अपकर्षण तो हुआ पर स्थितिका नहीं।</p> | ||
<p>यहाँ स्थिति | <p>यहाँ स्थिति कांडक घात विषैं निक्षेप अत्यंत अल्प है और शेष सर्व स्थिति अतिस्थापना रूप रहती है, अर्थात् अपकृष्ट द्रव्य केवल अल्प मात्र निषेकोंमें ही मिलाया जाता है शेष सर्व स्थितिमें नहीं। उस स्थानका द्रव्य हटाकर निक्षेषमें मिला दिया और तहाँ दिया कुछ न गया। इसलिए वह सर्वस्थान निषेकोंसे शून्य हो गया। यही स्थितिका घटना है। (देखें [[ अपकर्षण#2.1 | अपकर्षण - 2.1]])। जैसे अव्याघात विधानमें आवली प्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना प्राप्त होनेके पश्चात्, ऊपरका जो निषेक उठाया जाता था उसका समय तो अतिस्थापनाके आवली प्रमाण समयोंमें से नीचेका एक समय निक्षेप रूप बन जाता था। क्योंकि निक्षेप रूप अन्य निषेकोंके साथ-साथ उसमें भी अपकृष्ट द्रव्य मिलाया जाता था। इस प्रकार अतिस्थापनामें तो एक-एक समयकी वृद्धि व हानि बराबर बनी रहनेके कारण वह तो अंत तक आवली प्रमाण ही रहती थी, और निक्षेपमें बराबर एक एक समयकी वृद्धि होनेके कारण वह कुल स्थितिसे केवल अतिस्थापनावली करि हीन रहता था। यहाँ व्याघात विधान विषै उलटा क्रम है। यहाँ निक्षेपमें वृद्धि होनेकी बजाये अतिस्थापनामें वृद्धि होती है। अपकर्षण-द्वारा जितनी स्थिति शेष रखी गयी उतना ही यहाँ उत्कृष्ट निक्षेप है। जघन्य निक्षेपका यहाँ विकल्प नहीं है। तथा उससे पूर्व स्थितिके अंतिम समय तक सर्वकाल अतिस्थापना रूप है। यहाँ ऊपरवाले निषेकोंका द्रव्य पहिले उठाया जाता है और नीचे वालोंका क्रम पूर्वक उसके पीछे। अव्याघात विधानमें प्रति समय एक ही निषेक उठाया जाता था पर यहाँ प्रति समय असंख्यात निषेकोंका द्रव्य इकट्ठा उठाया जाता है। एक समयमें उठाये गये सर्व द्रव्यको एक फालि कहते हैं। व्याघात विधानका कुल काल केवल एक अंतर्मुहूर्त है, जिसमें कि उपरोक्त सर्व स्थितिका घात करना इष्ट है। अंतर्मुहूर्तके असंख्यातों खंड है। प्रत्येक खंडमें भी प्रति समय एक एक फालिके क्रमसे जितना द्रव्य समय उठाया गया उसे एक कांडक कहते हैं। इस प्रकार एक एक अंतर्मुहूर्तमें एक एक कांडकका निक्षेपण करते हुए कुल व्याघातके कालमें असंख्यात कांडक उठा लिये जाते हैं, और निक्षेप रूप निषेकोंके अतिरिक्त ऊपरके अन्य सर्व निषेकोंके समय कार्माण द्रव्यसे शून्य कर दिये जाते हैं। इसीलिए स्थितिका घात हुआ कहा जाता है। क्योंकि इस विधानमें कांडकरूपसे द्रव्यका निक्षेपण होता है, इसलिए इसे कांडक घात कहते हैं, और स्थितिका घात होनेके कारण व्याघात कहते हैं।]</p> | ||
<p>2. कान्डकघातके बना स्थितिघात | <p>2. कान्डकघातके बना स्थितिघात संभव नहीं</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 12/4,2,14,40/489/8 खंडयघादेण विणा कम्मट्ठिदीए घादाभावादो।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 12/4,2,14,40/489/8 खंडयघादेण विणा कम्मट्ठिदीए घादाभावादो।</p> | ||
<p class="HindiText">= | <p class="HindiText">= कांडकघातके बिना कर्मस्थितिका घात संभव नहीं है।</p> | ||
<p>3. आयुका | <p>3. आयुका स्थितिकांडकघात नहीं होता</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 6/1,9-8,5/224/3 अपुव्वकरणस्स आयुगवज्जाणे सव्वकम्माणट्ठिदिखंडओ होदि।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 6/1,9-8,5/224/3 अपुव्वकरणस्स आयुगवज्जाणे सव्वकम्माणट्ठिदिखंडओ होदि।</p> | ||
<p class="HindiText">= (अपूर्वकरणके प्रकरणमें) यह | <p class="HindiText">= (अपूर्वकरणके प्रकरणमें) यह स्थितिखंड आयु कर्मको छोड़कर शेष समस्त कर्मोंका होता है। (अन्यत्र भी सर्वत्र यह नियम लागू होता है)।</p> | ||
<p>4. | <p>4. स्थितिकांडकघात व स्थिति बंधापसरणमें अंतर</p> | ||
<p class="SanskritText">क्षपणासार / मूल या टीका गाथा 418/499 बंधोसरणा बंधो ठिदिखंडं संतमोसरदि ॥418॥</p> | <p class="SanskritText">क्षपणासार / मूल या टीका गाथा 418/499 बंधोसरणा बंधो ठिदिखंडं संतमोसरदि ॥418॥</p> | ||
<p class="HindiText">= | <p class="HindiText">= स्थितिबंधापसरणकरि स्थितिबंध घटै है और स्थिति कांडकनिकरि स्थितिसत्त्व घटै है। नोट-(स्थिति बंधापसरणमें विशेष हानिक्रमसे बंध घटता है और स्थितिकांडकघातमें गुणहानिक्रमसे सत्त्व घटता है।)</p> | ||
<p class="SanskritText">लब्धिसार / जीवतत्त्व प्रदीपिका / मूल या टीका गाथा 79/114 | <p class="SanskritText">लब्धिसार / जीवतत्त्व प्रदीपिका / मूल या टीका गाथा 79/114 एकैकस्थितिखंडनिपतनकालः, एकैकस्थितिबंधापसरणकालश्च समानावंतर्मुहूर्तमात्रो।</p> | ||
<p class="HindiText">= जाकरि एक बार स्थिति सत्त्व घटाइये ऐसा कान्डकोत्करणकाल और जाकरि एक बार | <p class="HindiText">= जाकरि एक बार स्थिति सत्त्व घटाइये ऐसा कान्डकोत्करणकाल और जाकरि एक बार स्थितिबंध घटाइये सो स्थिति बंधापसारणकाल ए दोऊ समान हैं, अंतर्मुहूर्त मात्र हैं।</p> | ||
<p>5. | <p>5. अनुभागकांडकघात विधान</p> | ||
<p> लब्धिसार / मू.व. टीका 80-81/114/116 केवल भाषार्थ `अप्रशस्त जे असाता प्रकृति तिनिका अनुभाग | <p> लब्धिसार / मू.व. टीका 80-81/114/116 केवल भाषार्थ `अप्रशस्त जे असाता प्रकृति तिनिका अनुभाग कांडकायाम अनंतबहुभागमात्र है। अपूर्वकरणका प्रथम समय विषैं (चारित्रमोहोपशमका प्रकरण है) जो पाइए अनुभाग सत्त्व ताको अनंतका भाग दीए तहाँ एक कांडक करि बहुभाग घटावै। एक भाग अवशेष राखै है। यहु प्रथम खंड भया। याकौ अनंतका भाग दीए दूसरे कांडक करि बहुभाग घटाइ एक भाग अवशेष राखे है। ऐसै एक एक अंतर्मुहूर्त करि एक एक अनुभाग कंडकघात हो है। तहाँ एक अनुभाग काम्डकोत्करण काल विषैं समय-समय प्रति एक-एक फालिका घटावना हो है ॥80॥ अनुभागको प्राप्त ऐसे कर्म परमाणु संबंधी एक गुणहानिविषैं स्पर्धकनिका प्रमाण सो स्तोक है। तातैं अनंतगुणे अतिस्थापनारूप स्पर्धक हैं। तातैं अनंतगुणे निक्षेप स्पर्धक है। तातैं अनंतगुणा अनुभाग कांडकायाम है। इहाँ ऐसा जानना कि कर्मनिके अनुभाग विषैं अनुभाग रचना है। तहाँ प्रथमादि स्पर्धक स्तोक अनुभाग युक्त हैं। ऊपरिके स्पर्धक बहु अनुभाग युक्त हैं। ऐसे तहाँ तिनि सर्व स्पर्धकनिकौं अनंतका भाग दियें बहुभागमात्र जे ऊपरिके स्पर्धक, तिनिके परमाणूनिकौ एक भागमात्र जे निचले स्पर्धक तिनि विषैं, केतेइक ऊपरिके स्पर्धक छोड़ि अवशेष निचले स्पर्धकनिरूपपरिणमावै है। तहाँ केतेइक परमाणु पहिले समय परिणमावै है, केतेइक दूसरे समय परिणमावै हैं। ऐसे अंतर्मुहूर्त कालकरि सर्व परमाणुपरिणमाइ तिनि ऊपरिके स्पर्धकनिका अभावकरै है। तिनिका द्रव्यको जे कांडकघात भये पीछैं अवशेष स्पर्धक रहैं। तिनि विषैं तिनि प्रथमादि स्पर्धकनिविषैं मिलाया, ते तौ निक्षेप रूप हैं, अर तिनि ऊपरिके स्पर्धकनि विषैं न मिलाया ते अतिस्थापना रूप हैं ॥81॥</p> | ||
<p>( क्षपणासार / मूल या टीका गाथा 408 409/493)</p> | <p>( क्षपणासार / मूल या टीका गाथा 408 409/493)</p> | ||
<p>6. अनुभाग | <p>6. अनुभाग कांडकघात व अयवर्तनघातमें अंतर</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 12/4,2,7,41/32/1 एसो अणुभागखंडयघादो त्ति किण्ण वुच्चदे। ण, पारद्धपढमसमयादो अंतोमुहुत्तेणं कालेण जो घादो णिप्पज्जदि सो अणुभागखंडघादो णाम, जो पुण उक्कोरणकालेण विणा एगसमएणेव पददि सा अणुसमओवट्टणा। अण्णं च, अणुसमओवट्टणाए णियमेण अणंता भागा हम्मंति, अणुभागखंडयघादे पुण णत्थि एसो णियमो, छव्विहहाणीएखंडयघादुबलंभादो।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 12/4,2,7,41/32/1 एसो अणुभागखंडयघादो त्ति किण्ण वुच्चदे। ण, पारद्धपढमसमयादो अंतोमुहुत्तेणं कालेण जो घादो णिप्पज्जदि सो अणुभागखंडघादो णाम, जो पुण उक्कोरणकालेण विणा एगसमएणेव पददि सा अणुसमओवट्टणा। अण्णं च, अणुसमओवट्टणाए णियमेण अणंता भागा हम्मंति, अणुभागखंडयघादे पुण णत्थि एसो णियमो, छव्विहहाणीएखंडयघादुबलंभादो।</p> | ||
<p class="HindiText">= प्रश्न - इसे (अनुसमयापवर्तनाघातको) | <p class="HindiText">= प्रश्न - इसे (अनुसमयापवर्तनाघातको) अनुभागकांडकघात क्यों नहीं कहते? उत्तर-नहीं, क्योंकि, प्रारंभ किये गये प्रथम समयसे लेकर अंतर्मुहूर्त कालके द्वारा जो घात निष्पन्न होता है, वह अनुभागकांडकघात है। परंतु उत्कीरण कालके बिना एक समय द्वारा ही जो घात होता है, वह अनुसमयापवर्तना है। दूसरे अनुसमयापवर्तनामें नियमसे अनंत बहुभाग नष्ट होता है परंतु अनुभाग कांडकघातमें यह नियम नहीं है, क्योंकि छह प्रकारकी हानि द्वारा कांडकघातकी उपलब्धि होती है। विशेषार्थ-कांडक पोरको कहते हैं। कुल अनुभागके हिस्से करके, एक एक हिस्सेका फालि क्रमसे अंतर्मुहूर्त काल द्वारा अभाव करना अनुभाग कांडक घात कहलाता है। और प्रति समय अनंत बहुभाग अनुभागका अभाव करना अनुसमयापवर्तना कहलाती है। मुख्य रूपसे यही इन दोनोंमें अंतर है।</p> | ||
<p>7. शुभ प्रकृतियोंका अनुभाग घात नहीं होता</p> | <p>7. शुभ प्रकृतियोंका अनुभाग घात नहीं होता</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 12/4,2,7,14/18/1 सुहाणं पयडीणं विसोहिदो केवलिसमुग्घादेण जे गणिरोहेण वा अणुभागघादो णत्थि त्ति जाणवेदि। खीणकसायसजोगीसुट्ठिदिअणुभागघादेसु संतेसु वि सुहाणं पयडीणं अणुभागघादो त्ति सिद्धेट्ठिदिअणुभागवज्जिदे सुहाणं पयडीणमुक्कस्साणुभागो होदि णत्थि त्ति अत्थावत्तिसिद्धं।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 12/4,2,7,14/18/1 सुहाणं पयडीणं विसोहिदो केवलिसमुग्घादेण जे गणिरोहेण वा अणुभागघादो णत्थि त्ति जाणवेदि। खीणकसायसजोगीसुट्ठिदिअणुभागघादेसु संतेसु वि सुहाणं पयडीणं अणुभागघादो त्ति सिद्धेट्ठिदिअणुभागवज्जिदे सुहाणं पयडीणमुक्कस्साणुभागो होदि णत्थि त्ति अत्थावत्तिसिद्धं।</p> | ||
<p class="HindiText">= शुभ प्रकृतियोंके अनुभागका घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योगिनिरोधसे नहीं होता। क्षीणकषाय और सयोगी गुणस्थानोंमें स्थितिघात व अनुभागघातके होनेपर भी शुभ प्रकृतियोंके अनुभाग घात वहाँ नहीं होता, यह सिद्ध होनेपर `स्थिति व अनुभागसे रहित अयोगी गुणस्थानमें शुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग होता है,' यह अर्थापत्तिसे सिद्ध है।</p> | <p class="HindiText">= शुभ प्रकृतियोंके अनुभागका घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योगिनिरोधसे नहीं होता। क्षीणकषाय और सयोगी गुणस्थानोंमें स्थितिघात व अनुभागघातके होनेपर भी शुभ प्रकृतियोंके अनुभाग घात वहाँ नहीं होता, यह सिद्ध होनेपर `स्थिति व अनुभागसे रहित अयोगी गुणस्थानमें शुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग होता है,' यह अर्थापत्तिसे सिद्ध है।</p> | ||
<p class="SanskritText">लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 80/114 सुहपयडीणं णियमा णत्थि त्ति रसस्स खंडाणि।</p> | <p class="SanskritText">लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 80/114 सुहपयडीणं णियमा णत्थि त्ति रसस्स खंडाणि।</p> | ||
<p class="HindiText">= शुभ प्रकृतियोंका | <p class="HindiText">= शुभ प्रकृतियोंका अनुभागकांडकघात नियमसे नहीं होता है।</p> | ||
<p>8. प्रदेशघातसे स्थिति घटती है, अनुभाग नहीं</p> | <p>8. प्रदेशघातसे स्थिति घटती है, अनुभाग नहीं</p> | ||
<p class="SanskritText">कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$572/337/11 ट्ठिदीए इव पदेसगलणाए अणुभागघादो णत्थि त्ति। </p> | <p class="SanskritText">कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$572/337/11 ट्ठिदीए इव पदेसगलणाए अणुभागघादो णत्थि त्ति। </p> | ||
<p class="HindiText">= प्रदेशोंके गलनेसे जैसे स्थितिघात होता है, वैसे प्रदेशोंके गलनेसे अनुभागका घात नहीं होता।</p> | <p class="HindiText">= प्रदेशोंके गलनेसे जैसे स्थितिघात होता है, वैसे प्रदेशोंके गलनेसे अनुभागका घात नहीं होता।</p> | ||
<p>9. स्थिति व अनुभाग घातमें परस्पर | <p>9. स्थिति व अनुभाग घातमें परस्पर संबंध</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,27/216/10 अंतोमुहुत्तेण एक्केक्कं ट्ठिदिकंडयं घादेंतो अप्पणो कालब्भंतरे संखेज्जसहस्साणि ट्ठिदिकंडयाणि घादेदि। तत्तियाणि चेव ट्ठिदिबंधोसरणाणि वि करेदि। तेहिंतो संखेज्जसहस्सगुणे अणुभागकंडय-घादे करेदि, `एक्काणुभाग-कंडय-उक्कीरणकालादी एक्कं ट्ठिदिकंडय-उक्कीरणकालो संखेज्जगुणो' त्ति सुत्तादो।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,27/216/10 अंतोमुहुत्तेण एक्केक्कं ट्ठिदिकंडयं घादेंतो अप्पणो कालब्भंतरे संखेज्जसहस्साणि ट्ठिदिकंडयाणि घादेदि। तत्तियाणि चेव ट्ठिदिबंधोसरणाणि वि करेदि। तेहिंतो संखेज्जसहस्सगुणे अणुभागकंडय-घादे करेदि, `एक्काणुभाग-कंडय-उक्कीरणकालादी एक्कं ट्ठिदिकंडय-उक्कीरणकालो संखेज्जगुणो' त्ति सुत्तादो।</p> | ||
<p class="HindiText">= एक-एक | <p class="HindiText">= एक-एक अंतर्मुहूर्त में एक-एक स्थितिकांडकका घात करता हुआ अपने कालके भीतर संख्यात हजार स्थितिकांडकोंका घात करता है। और उतने ही स्थितिबंधापसरण करता है। तथा उनसे संख्यात हजार गुणे अनुभागकांडकोंका घात करता है, क्योंकि, एक अनुभागकान्डकके उत्कीरणकालसे एक स्थितिकांडककाउत्कीरणकाल संख्यात गुणा है। </p> | ||
<p>( लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 79/114)</p> | <p>( लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 79/114)</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 12/4,2,13,40/393/12 पडिभग्गपढमसमयप्पहुडि जाव अंतोमुहुत्तकालो ण गदो ताव अणुभागखंडयघादाभावादो।</p> | <p> धवला पुस्तक 12/4,2,13,40/393/12 पडिभग्गपढमसमयप्पहुडि जाव अंतोमुहुत्तकालो ण गदो ताव अणुभागखंडयघादाभावादो।</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 12/4,2,13,94/413/7 अंतोमुहुत्तचरिमसमयस्स कधसुक्कस्साणुभागसंभवो। ण, तस्स अणुभागखंडयघादाभावादो।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 12/4,2,13,94/413/7 अंतोमुहुत्तचरिमसमयस्स कधसुक्कस्साणुभागसंभवो। ण, तस्स अणुभागखंडयघादाभावादो।</p> | ||
<p class="HindiText">= प्रतिभग्न होनेके प्रथम समयसे लेकर जब तक | <p class="HindiText">= प्रतिभग्न होनेके प्रथम समयसे लेकर जब तक अंतर्मुहूर्तकाल नहीं बीत जाता तब तक अनुभागकांडकघात संभव नहीं। = प्रश्न-अंतर्मुहूर्त के अंतिम समयमें उत्कृष्ट अनुभागकी संभावना कैसे है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, उसके अनुभागकांडक घातका अभाव है।</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 12/4,2,13,41/1-2/394 ट्ठिदिघाते हंमंते अणुभागा आऊण सव्वेसिं। अणुभागेण विणा वि हु आउववज्जाण ट्ठिदिघातो ॥1॥ अणुभागे हंमंते ट्ठिदिघादो आउआण सव्वेसिं। ट्ठिदिघादेण विणा वि हु आउववज्जाणमणुभागो ॥2॥</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 12/4,2,13,41/1-2/394 ट्ठिदिघाते हंमंते अणुभागा आऊण सव्वेसिं। अणुभागेण विणा वि हु आउववज्जाण ट्ठिदिघातो ॥1॥ अणुभागे हंमंते ट्ठिदिघादो आउआण सव्वेसिं। ट्ठिदिघादेण विणा वि हु आउववज्जाणमणुभागो ॥2॥</p> | ||
<p class="HindiText">= स्थितिघात होनेपर (ही) सब आयुओंके अनुभागका नाश होता है। ( | <p class="HindiText">= स्थितिघात होनेपर (ही) सब आयुओंके अनुभागका नाश होता है। (परंतु) आयुको छोड़कर शेष कर्मोंका अनुभागके बिना भी स्थितिघात होता है ॥1॥ (इसी प्रकार) अनुभागका घात होनेपर ही सब आयुओंका स्थितिघात होता है (परंतु) आयुको छोड़कर शेष कर्मोंका स्थितिघातके बिना भी अनुभागघात होता है ॥2॥</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 12/4,2,16,162/431/13 आउअस्स खवगसेढीए पदेसस्स गुणसेडिणिज्जराभावो व ट्ठिदि-अणुभागाणं घादाभावादो।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 12/4,2,16,162/431/13 आउअस्स खवगसेढीए पदेसस्स गुणसेडिणिज्जराभावो व ट्ठिदि-अणुभागाणं घादाभावादो।</p> | ||
<p class="HindiText">= क्षपकश्रेणीमें आयुकर्मके प्रदेशोंकी गुणश्रेणी निर्जरके अभावके समान स्थिति और अनुभागके घातका अभाव है। (इसीलिए वहाँ घातको प्राप्त हुआ अनुभाग | <p class="HindiText">= क्षपकश्रेणीमें आयुकर्मके प्रदेशोंकी गुणश्रेणी निर्जरके अभावके समान स्थिति और अनुभागके घातका अभाव है। (इसीलिए वहाँ घातको प्राप्त हुआ अनुभाग अनंतगुणा हो जाता है)।</p> | ||
Revision as of 16:17, 19 August 2020
अपकर्षणका अर्थ घटना है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रके कारण स्वतः अथवा तपश्चरण आदिके द्वारा साधक पूर्वोपार्जित कर्मोंकी स्थति व अनुभाग बराबर घटता हुआ अथवा घातता हुआ आगे बढ़ता है। इसीका नाम मोक्षमार्गमें अपकर्षण इष्ट है। संसारी जीवों के भी प्रतिपल शुभ या अशुभ परिणामोंके कारण पुण्य या पाप प्रकृतियोंका अपकर्षण हुआ करता है। वह अपकर्षण दो प्रकारसे होता है-साधारण व गुणाकार रूपसे। इनमें पहिलेको अपकर्षण व अपसरण तथा दूसरेको कांडकघात कहते हैं, क्योंकि इसमें कर्मोंके गट्ठे के गट्ठे एक-एक बारमें तोड़ दिये जाते हैं। यह कांडकघात ही मोक्षका साक्षात् कारण है और केवल ऊँचे दर्जेके ध्यानियोंको होता है। इसी विषयका परिचय इस अधिकारमें दिया गया है।
1. भेद व लक्षण
1. अपकर्षण सामान्यका लक्षण।
2. अपकर्षणके भेद (अव्याघात व व्याघात)।
3. अव्याघात अपकर्षणका लक्षण।
4. व्याघात अपकर्षणका लक्षण।
5. अतिस्थापना व निक्षेपके लक्षण।
• जघन्य उत्कृष्ट निक्षेप व अतिस्थापना। - देखें अपकर्षण - 2.1; 4/2।
2. अपकर्षण सामान्य निर्देश
1. अव्याघात अपकर्षण विधान।
2. अपकर्षण योग्य स्थान व प्रकृतियाँ।
3. अपकृष्ट द्रव्यमें भी पुनः परिवर्तन होना संभव है।
4. उदयावलिसे बाहर स्थित निषेकोंका ही अपकर्षण होता है भीतरवालों का नहीं।
3. अपसरण निर्देश
1. चौंतीस स्थितिबंधापसरण निर्देश।
(पृथक्-पृथक् चारों गतियोंके जीवोंकी अपेक्षा)
2. स्थिति सत्त्वापसरण निर्देश।
3. 34 बंधापसरणोंकी अभव्योंमें संभावना व असंभावना संबंधी दो मत।
• स्थिति बंधापसरण कालका लक्षण-देखें अपकर्षण - 4.4
4. व्याघात या कांडकघात निर्देश
1. स्थितिकांडकघात विधान
• चारित्रमोहोपशम विधानमें स्थितिकांडकघात। - देखें लब्धिसार मूल या टीका गाथा 77-78/112 * चारित्रमोहक्षपणा विधानमें स्थितिकांडकघात। - देखें क्षपणासार - 405-407/491 2. कांडकघातके बिना स्थितिघात संभव नहीं
2. आयुका स्थितिकांडकघात नहीं होता।
3. स्थितिकांडकघात व स्थितिबंधापसरण में अंतर।
4. अनुभागकांडक विधान।
5. अनुभागकांडकघात व अपवर्तनाघातमें अंतर।
• अनुभागकांडकघातमें अंतरंगकी प्रधानता। - देखें कारण - II.2
6. शुभ प्रकृतियोंका अनुभागघात नहीं होता।
7. प्रदेशघातसे स्थिति घटती है, अनुभाग नहीं।
8. स्थिति व अनुभागघातमें परस्पर संबंध।
• आयुकर्मके स्थिति व अनुभागघात संबंधी। - देखें आयु - 5
1. भेद व लक्षण
1. अपकर्षण सामान्यका लक्षण
धवला पुस्तक 10/4,2,4,21/53/2 पदेसाणं ठिदीणमोवट्टणा ओक्कड्डणा णाम।
= कर्मप्रदेशोंकी स्थितियों के अपवर्तन (घटने) का नाम अपकर्षण है।
गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 438/591 स्थित्यनुभागयोर्हानिरपकर्षणं णाम।
= स्थिति और अनुभागकी हानि अर्थात् पहिले बांधी थी उससे कम करना अपकर्षण है।
लब्धिसार / भाषा/55/87 स्थिति घटाय ऊपरिके निषेकनिका द्रव्य नीचले निषेकनि विषैं जहाँ दीजिये तहाँ अपकर्षण कहिये। (पीछे उदय आने योग्य द्रव्यको ऊपरका और पहिले उदयमें आने योग्यको नीचेका जानना चाहिए।
( गोम्मटसार जीवकांड/ भाषा/258/566/16)।
2. अपकर्षणके भेद
(अपकर्षण दो प्रकारका कहा गया है - अव्याघात अपकर्षण और व्याघात अपकर्षण। व्याघात अपकर्षणका ही दूसरा नाम कांडकघात भी है, जैसा कि इस संज्ञासे ही विदित है)।
3. अव्याघात अपकर्षणका लक्षण
लब्धिसार / भाषा/56/88/1 जहाँ स्थितकांडकघात न पाइए सो अव्याघात कहिये।
4. व्याघात अपकर्षणका लक्षण
लब्धिसार / भाषा/59/92/1 जहाँ स्थितिकांडकघात होई सोव्याघात कहिये।
5. अतिस्थापना व निक्षेपके लक्षण
लब्धिसार / जीवतत्त्व प्रदीपिका / मूल या टीका गाथा 56/87/12 अपकृष्टद्रव्यस्य निक्षेपस्थानं निक्षेपः, निक्षिप्यतेऽस्मिन्नित निर्वचनात्। तेनातिक्रम्यमाणं स्थानमतिस्थापनं, अतिस्थाप्यते अतिक्रम्यतेऽस्मिन्निति अतिस्थापनम्।
= अपकर्षण किये गये द्रव्यका निक्षेपणस्थान, अर्थात् जिन निषेकोंमें उन्हें मिलाते हैं, वे निषेक निक्षेप कहलाते हैं, क्योंकि, जिसमें क्षेपण किया जाये सो निक्षेप है, ऐसा वचन है, उसके द्वारा अतिक्रमण या उल्लंघन किया जानेवाला स्थान, अर्थात् जिन निषेकोंमें नहीं मिलाते वे सब, अतिस्थापना हैं, क्योंकि `जिसमें अतिस्थापन या अतिक्रमण किया जाता है, सो अतिस्थापना है' ऐसा इसका अर्थ है।
( लब्धिसार / भाषा/55/87/2) ( लब्धिसार / भाषा/81/116/18)।
2. अपकर्षण सामान्य निर्देश
1. अव्याघात अपकर्षण विधान
लब्धिसार / मू. व टीका/56-58/88-90 केवल भावार्थ [नोट-साथ आगे दिया गया यंत्र देखिए। द्वितीयावलीके प्रथम निषेकका अपकर्षण करि नीचे (प्रथमावली में) निक्षेपण करिये तहाँ भी कुछ निषेकोमें तो निक्षेपण करते हैं, और कुछ निषेक अतिस्थापना रूप रहते हैं। उनका विशेष प्रमाण बताते हैं।] प्रथमावलीके निषेकनि विषैं समयघाट आवलीका त्रिभागसे एक समय अधिक प्रमाण निषेक तो निक्षेपरूप हैं (अर्थात् यदि आवली 16 समय समय प्रमाण तो 16-1\3+1=6 निषेक निक्षेप रूप है।) इस विषैं सोई द्रव्य दीजिये है। बहुरि अवशेष (नं.7-16 तकके 10) निषेक अतिस्थापना रूप हैं।
(देखें यंत्र नं - 2)।
(Kosh1_P000113_Fig0010)
यातै ऊपरि द्वितीयावलीके द्वितीय निषेकका अपकर्षण किया। तहाँ एक समय अधिक आवली मात्र (16+1=17) याके बीच निषेक हैं। तिनि विषैं निक्षेप तो (वही पहले वाला अर्थात्) निषेक घाट? आवलीका त्रिभागसे एक समय अधिक ही है। अति-स्थापना पूर्वतैं एक समय अधिक हैं (क्योंकि द्वितीयावलिका प्रथम समय जिसके द्रव्यको पहिले अपकर्षण कर दिया गया है, अब खाली होकर अतिस्थापनाके समयोंमें सम्मिलित हो गया है।) ऐसे क्रमतैं द्वितीयावलीके तृतीयादि निषेकनिका अपकर्षण होते निक्षेप तो पूर्वोक्त प्रमाण ही और अतिस्थापना एक एक समय अधिक क्रमतै जानना। (इसी प्रकार बढ़ते-बढ़ते) अतिस्थापना आवली मात्र (अर्थात् 16 निषेक प्रमाण) ही है, सो यहू उत्कृष्ट अतिस्थापना है। यहाँ तैं (आगै) ऊपरिके निषेकनिका द्रव्य (अर्थात् द्वितीय स्थितिके नं.7 आदि निषेक) अपकर्षण किये सर्वत्र अतिस्थापना तो आवली मात्र ही जानना अर निक्षेप एक-एक समय क्रमतैं बँधता जाये।
(Kosh1_P000114_Fig0011)
तहाँ स्थितिका अंत निषेकका द्रव्यको अपकर्षण करि नीचले निषेकनि विषैं निक्षेपण करते, तिस अंत निषेकके नीचे आवली मात्र निषेक तौ अतिस्थापना रूप हैं, और समय अधिक दोय आवली करि हीन उत्कृष्ट स्थिति मात्र निक्षेप है। सो यहू उत्कृष्ट निक्षेप जानना। (कुल स्थितिमेंसे एक आवली तो आबाधा काल और एक आवली अतिस्थापना काल तथा एक समय अंतिम निषेकका कम करनेपर यह उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होता है।
(दे, यंत्र नं. 4)।
2. अपकर्षण योग्य स्थान व प्रकृतियाँ
गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 445-448/595-598 ओवकट्टणकरणंपुण अजीगिसत्ताण जोगिचरिमोत्ति। खीणं मुहुमंताणं खयदेसं सावलीयसमयोत्ति ॥445॥ उवसंतोत्ति सुराऊ मिच्छत्तिय खवगसोलसणं च। खयदेसोत्ति य खवगे अट्ठकसायादिवीसाणं ॥446॥ मिच्छत्तिमसोलसाणं उवसमसेढिम्मि संतमोहोत्ति। अट्टकसायादीणं उव्वसमियट्ठाणगोत्ति हवे ॥447॥ पढमकसायाणं च विसंजोजकं वोत्ति अयददेसोत्ति। णिरयतिरियाउगाणमुदीरणसत्तोदया सिद्धा ॥448॥
= अयोगि विषैं सत्त्वरूप वही पिच्यासी प्रकृति (पाँच शरीर, पाँच बंधन,
5 5
पाँच संघात, छः संस्थान, तीन अंगोपांग, छः संहनन, पाँच वर्ण,
5 6 3 6 5
दोय गंध, पाँच रस, आठ स्पर्श, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुस्वर-दुःस्वर,
2 5 8 2 2 2
देवगति व आनुपूर्वी, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति दुर्भग,
2 2 1
निर्माण, अयशःकीर्ति, अनादेय, प्रत्येक, अपर्याप्त, अगुरुलघु, उपघात
1 1 1 1 1 1 1
परघात, उच्छ्वास, अनुदयरूप अन्यतम वेदनीय, नीच गोत्र-ये
1 1 1 1
72 प्रकृति की तौ अयोगिके द्वि चरम समय सत्त्वसे व्युच्छित्ति होती है बहुरि जिनका उदय अयोगि विषैं पाइये ऐसे उदयरूप अन्यतम
1
वेदनीय, मनुष्यगति, पंचेंद्रिय, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय,
1 1 1 1 1 1 1
यशःकीर्ति, तीर्थंकरत्व, मनुष्यायु व आनुपूर्वी, उच्च गोत्र-इन
1 1 2 1
तेरह प्रकृतियोंकी अयोगिके अंत समय सत्त्वसे व्युच्छित्ति होती है। सर्व मिलि 85 भई।) तिनिकै (85 प्रकृतिनि कै) सयोगिका अंत समय पर्यंत अपकर्षण जानना। बहुरि क्षीणकषाय विषय सत्त्वसे व्युच्छित्ति भई सोलह और सूक्ष्म-सांपरायविषैं सत्त्वतैं व्युच्छित्ति भया सूक्ष्म लोभ इन तेरह प्रकृतिनिकैं क्षयदेश पर्यंत अपकर्षणकरण जानना। (पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अंतराय, निद्रा-प्रचला ये सोलह तथा सूक्ष्म लोभ। सर्व मिलि 7 भई।)
5 4 5 2
तहाँ क्षयदेश कहा सो कहिये है - जे प्रकृति अन्य प्रकृतिरूप उदय देय विनसै है; ऐसी परमुखोदयी हैं, तिनकै तो अंतकांडककी अंत फालि क्षयदेश। बहुरि अपने ही रूप फल देइ विनसै हैं ऐसी स्वमुखोदयी प्रकृति, तिनक एक-एक समय अधिक आवली प्रमाण क्षयदेश है, तातैं तिनि सतरह प्रकृतिनिकै एक समय आवली काल पर्यंत अपकर्षण पाइये ॥445॥ उपशांतकषाय पर्यंत देवायुके अपकर्षणकरण है। बहुरि मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति ये तीन और `णिरय तिरक्खा' इत्यादि सूत्रोक्त अनिवृत्तिकरण विषै क्षय भई सोलह प्रकृति (नरक गति व आनुपूर्वी, तिर्यंचगति व आनुपूर्वी,
2 2
विकलत्रय, स्त्यानगृद्धित्रिक, उद्योत, आतप, एकेंद्रिय, साधारण
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सूक्ष्म, स्थावर, इन सोलह प्रकृतिनिकी अनिवृत्तिकरणके पहिले भाग
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विषैं सत्त्वसे व्युच्छित्ति है)। इनिके क्षयदेश पर्यंत अपकर्षणकरण है-अंतकांडकका अंतका फालि पर्यंत है, ऐसा जानना। बहुरि आठ कषायने आदि देकरि अनिवृत्तिकरणविषैं क्षय भई ऐसी बीस प्रकृति (अप्रत्याख्यान कषाय, प्रत्याख्यान कषाय, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद
4 4 1 1
छह नोकषाय, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध मान व माया। सर्व मिलि
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20 भई।) तिनिकैं अपने-अपने क्षयदेश पर्यंत अपकर्षणकरण है। जिस स्थानक क्षय भया सो क्षय देश कहिये ॥446॥
उपशम श्रेणीविषैं मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्व प्रकृति ये तीन अर नरक द्विकादिक सोलह (अनिवृत्तिकरणमें व्युच्छित्तिप्राप्त पूर्वोक्त 16) इसिकै उपशांतकषाय पर्यंत अपकर्षण है। बहुरि अष्ट कषायादिक (अनिवृत्तिकरणमें व्युच्छित्ति प्राप्त पूर्वोक्त 20) तिनके अपने-अपने उपशमनेके ठिकाने पर्यंत अपकर्षणकरण है ॥447॥ अनंतानुबंधी चतुष्ककै देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्तनि विषैं यथा संभक जहाँ विसंयोजना होई तहाँ पर्यंत उपकर्षणकरण है ॥448॥
3. अपकृष्ट द्रव्यमें भी पुनः परिवर्तन होना संभव है
धवला पुस्तक 6/1,9-8,16/22/347 ओकड्डदि जे अंसेसे काले ते च होंति भजिदव्वा। वड्डीए अवठ्ठाणे हाणीए संकमे उदए ॥22॥
= जिन कर्मांशोंका अपकर्षण करता है वे अनंतर कालमें स्थित्यादिकी वृद्धि, अवस्थान, हानि, संक्रमण, और उदय, इनसे भजनीय हैं, अर्थात् अपकर्षण किये जानेके अनंतर समयमें ही उनमें वृद्धि आदिक उक्त क्रियाओंको होना संभव है ॥22॥
4. उदयावलिसे बाहर स्थित निषेकोंका ही अपकर्षण होता है भीतरवालोंका नहीं
कषायपाहुड़ पुस्तक 7/पूर्ण सूत्र/$423-424/239 ओक्कड्डणादो झीणट्ठिदियं णाम किं ॥423॥ जं कम्ममुदयावलियब्भंतरे ट्ठियं तमोक्कडुणादो झीणट्ठिदियं। जमुदयावलिबाहिरे ट्ठिदं तमोक्कड्डणादो अज्झीणट्ठिदियं ॥424॥
= प्रश्न-वे कौनसे कर्मपरमाणु हैं जो अपकर्षणसे झीन (रहित) स्थितिवाले हैं ॥423॥ उत्तर-जो कर्मपरमाणु उदयावलिके भीतर स्थित हैं वे अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं और जो कर्मपरमाणु उदयावलिके बाहर स्थित है वे अपकर्षणसे अझीन स्थितिवाले हैं। अर्थात् उदयावलिके भीतर स्थित कर्म परमाणुओंका अपकर्षण नहीं होता, किंतु उदयावलिके बाहर स्थित कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण हो सकता है।
3. अपसरण निर्देश
1. चौंतीस स्थिति बंधापसरण निर्देश
1. मनुष्य व तिर्यंचोंकी अपेक्षा
लब्धिसार / मू.व.जी.प्र.8/9-16/47-53 केवल भाषार्थ "प्रथमोपशम सम्यक्त्वको सन्मुख भया मिथ्यादृष्टि जीव सो विशुद्धताकी वृद्धिकरि वर्द्धमान होता संता प्रायोग्यलब्धिका प्रथम समयतैं लगाय पूर्व स्थिति बंधकै (?) संख्यातवें भागमात्र अंतःकोटाकोटी सागर प्रमाण आयु बिना सात कर्मनिका स्थितिबंध करै है ॥9॥ तिस अंतःकोटाकोटी सागर स्थितिबंध तैं पल्यका संख्यातवां भागमात्र घटता स्थितिबंध अंतर्मुहूर्त पर्यंत समानता लिये करै। बहुरि तातैं पल्यका संख्यातवां भागमात्र घटता स्थितिबंध अंतर्मुहूर्त पर्यंत करै है। ऐसे क्रमतै संख्यात स्थितिबंधापसरणनि करि पृथक्त्वसौ (800 या 900) सागर घटै पहिला स्थिति बंधापसरण स्थान होइ। 2 बहुरि तिस ही क्रमतैं तिस तैं भी पृथक्त्वसौ घटै दूसरा स्थितिबंधापसरण स्थान ही है। ऐसै इस ही क्रमतैं इतना-इतना स्थिति बंध घटै एक-एक स्थान होइ। ऐसे स्थिति बंधापसरणके चौतीस स्थान होइ। चौतीस स्थाननिविषैं कैसी प्रकृतिका (बंध) व्युच्छेद हो है सो कहिए ॥10॥ 1. पहिला नरकायुका व्युच्छित्ति स्थान है। इहां तै लगाय उपशम सम्यक्त्व पर्यंत नरकायुका बंध न होइ, ऐसे ही आगे जानना। 2. दूसरा तिर्यंचायुका है। (इसी क्रमसे) 3. मनुष्यायु; 4. देवायु; 5. नरकगति व आनुपूर्वी; 6. संयोगरूप सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण (संयोग रूप अर्थात् तीनोंका युगपत् बंध); 7. संयोगरूप सूक्ष्म अपर्याप्त प्रत्येक; 8. संयोगरूप बादर अपर्याप्त साधारण; 9. संयोगरूप बादर अपर्याप्त प्रत्येक; 10. संयोगरूप बेइंद्रिय अपर्याप्त; 11. संयोगरूप तेइंद्रिय अपर्याप्त; 12. संयोगरूप असंज्ञी पंचेंद्रिय अपर्याप्त; 14. संयोगरूप संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त ॥11॥ 15. संयोगरूप सूक्ष्म पर्याप्त साधारण; 16. संयोगरूप सूक्ष्म पर्याप्त प्रत्येक; 17. संयोगरूप बादर पर्याप्त साधारण; 18. संयोगरूप बादर पर्याप्त प्रत्येक एकेंद्रिय आतप स्थावर; 19. संयोगरूप बेइंद्रिय पर्याप्त; 20. संयोगरूप तेइंद्रिय पर्याप्त; 21. चौइंद्रिय पर्याप्त; 22. असंज्ञी, पंचेंद्रिय, पर्याप्त ॥12॥ 23. संयोगरूप तिर्यंच व आनपूर्वी तथा उद्योत; 24. नीच गोत्र; 25. संयोगरूप अप्रशस्त विहायोगति दुर्भग-दुःस्वरअनादेय; 26. हुंडकसंस्थान, सृपाटिका संहनन; 27. नपुंसकवेद; 28. वामन संस्थान, कीलित संहनन; ॥13॥ 29. कुब्जक संस्थान, अर्धनाराच संहनन; 30. स्त्रीवेद; 31. स्वाति संस्थान, नारोच संहनन, 32. न्यग्रोध संस्थान, वज्रनाराच संहनन; 33. संयोगरूप मनुष्यगति व आनुपूर्वी औदारिक शरीर व अंगोपांग-वज्र-वृषभनाराच संहनन; 34. संयोगरूप अस्थिर-अशुभ-अयश ॥14॥ अरति-शोक-असाता-। ऐसे ये चौतीस स्थान भव्य और अभव्यके समान हो हैं ॥15॥ मनुष्य तिर्यंचनिकैं तो सामान्योक्त चौतीस स्थान पाइये है तिनके 117 बंध योग्यमें-से 46 की व्युच्छित्ति भई, अवशेष 71 बांधिये है ॥16॥
( धवला पुस्तक 6/1,9-2,2/135/5) ( लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 222-223/267) ( कषायपाहुड़ पुस्तक 10-94/40/पृ.617-619) (म.व./पु.3/115-116)।
2. भवनत्रिक व सौधर्म युगलकी अपेक्षा
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 16/53 केवल भावार्थ "भवनत्रिक व सौधर्म युगलविषैं दूसरा, तीसरा अठारहवाँ और तेईसवाँ आदि इस (23-32) और अंतका चौतीसवाँ ये चौदह स्थान ही संभवै है। तहां 31 प्रकृतिनि की व्युच्छित्ति हो है और बंध योग्य 103 विषैं 72 प्रकृतिनिका बंध अवशेष रहे है ॥16॥
3. प्रथम छह नरकों तथा सनत्कुमारादि 10 स्वर्गोंकी अपेक्षा
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 17/54 केवल भाषार्थ-"रत्नप्रभा आदि छह नरक पृथिवीनिविषैं और सनत्कुमार आदि दश स्वर्गनिविषैं पूर्वोक्त (भवनत्रिकके) 14 स्थान अठारहवें बिना पाइये है। तिनि तेरह स्थाननिकरि अठाईस प्रकृति व्युच्छित्ति हो हैं। तहाँ बंधयोग्य 100 प्रकृतिनिविषैं 72 का बंध अवशेष रहे है ॥17॥
4. आनतसे उपरिम ग्रैवेयक तककी अपेक्षा
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 18/55 केवल भाषार्थ-"आनंत स्वर्गादि उपरिम ग्रैवेयक पर्यंत विषै (उपरोक्त) 13 स्थान दूसरा व तेईसवाँ बिना पाइये। तहाँ तिनि ग्यारह स्थाननिकरि चौबीस घटाइ बंधयोग्य 96 प्रकृतिनिविधै 72 बाँधिये है ॥18॥
5. सातवीं पृथिवीकी अपेक्षा
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 19/55 केवल भाषार्थ-"सातवीं नरक पृथिवी विषै जे (उपरोक्त) 11 स्थान तीसरा करि हीन और दूसरा करि सहित तथा चौबीसवाँ करि हीन पाइये। तहाँ तिनि 10 स्थानानि करि तेईसवाँ उद्योत सहित ये चौबीस घटाइ बंध योग्य 96 प्रकृतिनिविषैं 73 वा 72 बाँधिये है, जातैं उद्योतको बंध वा अबंध दोनों संभवे है ॥19॥
2. स्थिति सत्त्वापसरण निर्देश
समयसार / आत्मख्याति गाथा 427-428/506 केवल भाषार्थ-"मोहादिकका क्रम लिए जो क्रमकरण (देखें क्रमकरण ) रूप बंध भया, तातै परै इस ही क्रम लिये तितने ही संख्यात हजार स्थिति बंध भये असंज्ञी पंचेंद्रिय समान (सागरोपमलक्षणपृथक्त्व) स्थिति सत्त्व है। बहुरि तातैं परै जैसे-जैसे मोहनीयादिकका क्रमकरण पर्यंत स्थिति बंधका व्याख्यान किया तैसे ही स्थिति सत्त्वका होना अनुक्रम तैं जानना। तहाँ एक पल्य स्थिति पर्यंत पल्यका संख्यातवाँ भागमात्र, तातैं दूरापकृष्टि पर्यंत पल्यका संख्यातवां भागमात्र, तातैं संख्यात हजार वर्ष स्थिति पर्यंत पल्यका असंख्यातवां बहुभागमात्र आयाम लिये जो स्थिति बंधापसरण तिनिकरि स्थिति बंधका घटना कहा था, तैसे ही इहाँ तितने आयाम लिये स्थिति कांडकनिकरिस्थितिसत्त्वका घटना हो है। बहुरि तहाँ संख्यात हजार स्थिति बंधका व्यतीत होना कहा तैसे इहाँ भी कहिए है, वा तहाँ तितने स्थिति कांडनिका व्यतीत होना कहिए। जातैं स्थिति बंधापसरण और स्थितिकांडोत्करणका काल समान है। बहुरि तहाँ स्थिति बंध जहाँ कह्या था यहाँ स्थिति सत्त्व तहाँ कहना। बहुरि अल्प बहुत्व त्रैराशिक आदि विशेष बंधापसरणवत् ही जानना। सो स्थिति सत्त्वका क्रम कहिए - प्रत्येक संख्यात हजार कांडक गये क्रमतै असंज्ञी पंचेंद्रिय, चौइंद्रिय, तेइंद्रिय, बेंइंद्रिय, एकेंद्रियनिकै स्थिति बंधकै समान कर्मनिकी स्थिति सत्त्व हजार, सौ पचास, पच्चीस, एक सागर प्रमाण हो है। बहुरि संख्यात स्थिति कांडके भये बीसयानि (नाम गोत्र) का एक पल्य : तीसियनि (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अंतराय) का ड्योढ पल्य : मोह का दोय पल्य स्थिति सत्त्व ही है। 1. तातै परै पूर्व सत्त्वका संख्यात बहुभागमात्र एक कांडक भये बीसयनिका पल्यके संख्यात भागमात्र स्थिति सत्त्व भया तिस कालविषैं वीसयनिकेतै तीसयनिका संख्यातसगुणा मोहका विशेष अधिक स्थिति सत्त्व भया। 2. बहुरि इस क्रमतै संख्यात हजार स्थिति कांडक भये तीसयनिका (एक) पल्यमात्र, मोहका त्रिभाग अधिक पल्य (1/1\3) मात्र स्थिति सत्त्व भया। ताके परै एक कांडक भये तीसयनिका भी पल्यके संख्यातवें भागमात्र स्थिति सत्त्व हो है। तिस समय बीसयनिका स्तोक तातैं तीसयनिका संख्यातगुणा तैते मोहका संख्यातगुणा स्थिति सत्त्व हो है। 3. बहुरि इस क्रम लिये संख्यात स्थितिकांडक भये मोहका पल्यमात्र स्थिति सत्त्व हो है। बहुरि एक कांडक भये मोहका पल्यमात्र स्थिति सत्त्व हो है। बहुरि एक कांडक भये माहका भी पल्यके संख्यातवें भागमात्र स्थिति सत्त्व हो है। तीहिं समय सातों कर्मनिका स्थिति सत्त्व पल्यके संख्यातवें भागमात्र भया। तहाँ वीसयनिका स्तोक, तीसयनिका संख्यातगुणा तातैं मोहका संख्यातगुणा स्थिति सत्त्व हो है। 4. तातैं परै इस क्रम लिये संख्यात हजार स्थितिकांडक भये बीसयनिका स्थितिसत्त्व दूरापकृष्टिकौ उल्लंघि पल्यके असंख्यातवें भागमात्र भया। तिस समय बीसयनिका स्तोक तातैं तीसयनिका असंख्यातगुणा तातैं मोहकासंख्यातगुणा स्थिति सत्त्व हो है। 5. तातैं परै इस क्रम लिये संख्यात हजार स्थितिकांडक भये तीसयनिका स्थितिसत्त्व दूरापकृष्टिकौ उल्लंघि पल्यके असंख्यातवें भागमात्र भया। तब सर्व ही कर्मनिका स्थितिसत्त्व पल्यके असंख्यातवें भागमात्र भया। तहाँ बीसयनिका स्तोक तातैं तीसयनिका असंख्यातगुणा तातैं मोहका असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व हो है। 6. बहुरि इस क्रमकरि संख्यात हजार स्थितिकांडक भये नाम-गोत्रका स्तोक तातैं मोहका असंख्यात गुणा तातैं तीसयनिका असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व हो है। 7. बहुरि इस क्रम लिये संख्यात हजार स्थितिकान्डक भये मोहका स्तोक तातैं बीसयनिका असंख्यातगुणा तातैं तीसयनिका असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व ही है। 8. बहुरि इस क्रम लिये संख्यात हजार स्थिति कांडक भये मोहका स्तोक तातैं बीसयनिका असंख्यातगुणा तातैं तीन घातियानिका असंख्यातगुणा तातैं वेदनीयका असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व हो है। 9. बहुरि इस क्रम लिये संख्यात हजार स्थितिकांडक भये मोहका स्तोक, तातैं तीन घातियानिका असंख्यातगुणा तातैं नाम-गोत्रका असंख्यातगुणा तातैं वेदनीयका विशेष अधिक स्थितिसत्त्व हो है। 10. ऐसे अंतविषैं नामगोत्रतैं वेदनीयका स्थितिसत्त्व साधिक भया तब मोहादिकैं क्रम लिये स्थिति सत्त्वका क्रमकरण भया ॥427॥ बहुरि इस क्रमकरणतैं परैं संख्यात हजार स्थितिबंध व्यतीत भये जो पल्यका असंख्यातवाँ भागमात्र स्थितिहोइ ताकौं होतै संतै तहाँ असंख्यात समय प्रबद्धनिकी उदीरणा हो है। इहाँ तैं पहिले अपकर्षण किया द्रव्यकौ उदयावलो विषैं देनेके अर्थि असंख्यात लोकप्रमाण भागहार संभवै था। तहाँ समयप्रबद्धके असंख्यातवाँ भाग मात्र उदीरणाद्रव्य था। अब तहाँ पल्यका असंख्यातवाँ भागप्रमाण भागहार होनेतैं असंख्यात समयप्रबद्धमात्र उदीरणाद्रव्य भया ॥428॥
3. 34 बंधापसरणोंकी अभव्योंमें संभावना व असंभावना संबंधी दो मत
1. अभव्यको भी संभव है
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 15/47 बंधापसरणस्थानानि भव्याभव्येषु सामान्यानि।
= चौतीस बंधापसरणस्थान भव्य वा अभव्यके समान ही है।
2. अभव्यका संभव नहीं
महाबंध पुस्तक 3/115/11 पंचिदियाणं सण्णीणं मिच्छादिट्ठीणं अब्भवसिद्धियां पाओग्गं अंतोकोडाकोडिपुधत्तं बंधमाणस्स णत्थि ट्ठिदिबंधवोच्छेदो।
= पंचेंद्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवोंमें अभव्योंके योग्य अंतःकोडाकोड़ीपृथक्त्वप्रमाण स्थितिका बंध करनेवाले जीवके स्थितिकी बंध व्युच्छित्ति नहीं होती है।
4. व्याघात या कांडकघात निर्देश
1. स्थितिकांडक घात विधान
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 60/92 केवल भाषार्थ "जहाँ स्थिति कांडकघात होइ सो व्याघात कहिए। तहाँ कहिए है-कोई जीव उत्कृष्ट स्थिति बांधि पीछे क्षयोपशमलब्धिकरि विशुद्ध भया तब बंधी थी जो स्थित तीहीं विषै आबाधरूप बंधावलीकौ व्यतीत भये पीछे एक अंतर्मुहूर्त कालकरि स्थितिकांडकका घात किया। तहाँ जो उत्कृष्ट स्थितिबांधी थी, तिस विषैं अंतःकोटाकोटी सागर प्रमाण स्थिति अवशेष राखि अन्य सर्व स्थितिका घात तिस कांडककरि हो है। तहाँ कांडकविषैं जेती स्थिति घटाई ताके सर्व निषेकनिका परमाणूनिकौ समय समय प्रति असंख्यातगुणा क्रम लिये, अवशेष राखी स्थितिविषैं अंतर्मुहूर्त पर्यंत निक्षेपण करिए है। सो समय-समय प्रति जो द्रव्य निक्षेपण किया सोई फालि है। तहाँ अंतकी फालिविषैं, स्थितिके अंत निषेकका जो द्रव्य ताकौ ग्रहि अवसेष राखी स्थितिविषैं दिया। तहाँ अंतःकोटाकोटी सागरकरि हीन उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना हो है, जातैं इस विषैं सो द्रव्य न दिया। इहाँ उत्कृष्ट स्थितिविषैं अंतःकोटाकोटी सागरमात्र स्थिति अवशेष रही तिसविषैं द्रव्य दिया, सो यहू निक्षेप रूप भया। तातैं यहू घटाया अर एक अंत निषेकका द्रव्य ग्रह्या ही है तातैं एक समय घटाया है अंक संदृष्टिकरि जैसे हजार समयनिकी स्थितिविषैं कांडकघातकरि सौ समयकी स्थिति राखी। (तहाँ सौ समय उत्कृष्ट निक्षेप रूप रहे अर्थात्, हजारवाँ समय संबंधी निषेकका द्रव्यकौ आदिके सौ समयसंबंधी निषेकनिविषैं दिया)। तहाँ शेष बचे 899 मात्र समय उत्कृष्ट अतिस्थापना हो है ॥59-60॥
सत्तास्थितनिषेक-0
उत्कीरित निषेक-X
(Kosh1_P000116_Fig0012)
नोट-[अव्याघात विधानमें अतिस्थापना केवल आवली मात्रथी और निक्षेप एक एक समय बढ़ता हुआ लगभग पूर्ण स्थिति प्रमाण ही रहता था, इसलिए तहाँ स्थितिका घात होना संभव न था। यहाँ प्रदेशोंका अपकर्षण तो हुआ पर स्थितिका नहीं।
यहाँ स्थिति कांडक घात विषैं निक्षेप अत्यंत अल्प है और शेष सर्व स्थिति अतिस्थापना रूप रहती है, अर्थात् अपकृष्ट द्रव्य केवल अल्प मात्र निषेकोंमें ही मिलाया जाता है शेष सर्व स्थितिमें नहीं। उस स्थानका द्रव्य हटाकर निक्षेषमें मिला दिया और तहाँ दिया कुछ न गया। इसलिए वह सर्वस्थान निषेकोंसे शून्य हो गया। यही स्थितिका घटना है। (देखें अपकर्षण - 2.1)। जैसे अव्याघात विधानमें आवली प्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना प्राप्त होनेके पश्चात्, ऊपरका जो निषेक उठाया जाता था उसका समय तो अतिस्थापनाके आवली प्रमाण समयोंमें से नीचेका एक समय निक्षेप रूप बन जाता था। क्योंकि निक्षेप रूप अन्य निषेकोंके साथ-साथ उसमें भी अपकृष्ट द्रव्य मिलाया जाता था। इस प्रकार अतिस्थापनामें तो एक-एक समयकी वृद्धि व हानि बराबर बनी रहनेके कारण वह तो अंत तक आवली प्रमाण ही रहती थी, और निक्षेपमें बराबर एक एक समयकी वृद्धि होनेके कारण वह कुल स्थितिसे केवल अतिस्थापनावली करि हीन रहता था। यहाँ व्याघात विधान विषै उलटा क्रम है। यहाँ निक्षेपमें वृद्धि होनेकी बजाये अतिस्थापनामें वृद्धि होती है। अपकर्षण-द्वारा जितनी स्थिति शेष रखी गयी उतना ही यहाँ उत्कृष्ट निक्षेप है। जघन्य निक्षेपका यहाँ विकल्प नहीं है। तथा उससे पूर्व स्थितिके अंतिम समय तक सर्वकाल अतिस्थापना रूप है। यहाँ ऊपरवाले निषेकोंका द्रव्य पहिले उठाया जाता है और नीचे वालोंका क्रम पूर्वक उसके पीछे। अव्याघात विधानमें प्रति समय एक ही निषेक उठाया जाता था पर यहाँ प्रति समय असंख्यात निषेकोंका द्रव्य इकट्ठा उठाया जाता है। एक समयमें उठाये गये सर्व द्रव्यको एक फालि कहते हैं। व्याघात विधानका कुल काल केवल एक अंतर्मुहूर्त है, जिसमें कि उपरोक्त सर्व स्थितिका घात करना इष्ट है। अंतर्मुहूर्तके असंख्यातों खंड है। प्रत्येक खंडमें भी प्रति समय एक एक फालिके क्रमसे जितना द्रव्य समय उठाया गया उसे एक कांडक कहते हैं। इस प्रकार एक एक अंतर्मुहूर्तमें एक एक कांडकका निक्षेपण करते हुए कुल व्याघातके कालमें असंख्यात कांडक उठा लिये जाते हैं, और निक्षेप रूप निषेकोंके अतिरिक्त ऊपरके अन्य सर्व निषेकोंके समय कार्माण द्रव्यसे शून्य कर दिये जाते हैं। इसीलिए स्थितिका घात हुआ कहा जाता है। क्योंकि इस विधानमें कांडकरूपसे द्रव्यका निक्षेपण होता है, इसलिए इसे कांडक घात कहते हैं, और स्थितिका घात होनेके कारण व्याघात कहते हैं।]
2. कान्डकघातके बना स्थितिघात संभव नहीं
धवला पुस्तक 12/4,2,14,40/489/8 खंडयघादेण विणा कम्मट्ठिदीए घादाभावादो।
= कांडकघातके बिना कर्मस्थितिका घात संभव नहीं है।
3. आयुका स्थितिकांडकघात नहीं होता
धवला पुस्तक 6/1,9-8,5/224/3 अपुव्वकरणस्स आयुगवज्जाणे सव्वकम्माणट्ठिदिखंडओ होदि।
= (अपूर्वकरणके प्रकरणमें) यह स्थितिखंड आयु कर्मको छोड़कर शेष समस्त कर्मोंका होता है। (अन्यत्र भी सर्वत्र यह नियम लागू होता है)।
4. स्थितिकांडकघात व स्थिति बंधापसरणमें अंतर
क्षपणासार / मूल या टीका गाथा 418/499 बंधोसरणा बंधो ठिदिखंडं संतमोसरदि ॥418॥
= स्थितिबंधापसरणकरि स्थितिबंध घटै है और स्थिति कांडकनिकरि स्थितिसत्त्व घटै है। नोट-(स्थिति बंधापसरणमें विशेष हानिक्रमसे बंध घटता है और स्थितिकांडकघातमें गुणहानिक्रमसे सत्त्व घटता है।)
लब्धिसार / जीवतत्त्व प्रदीपिका / मूल या टीका गाथा 79/114 एकैकस्थितिखंडनिपतनकालः, एकैकस्थितिबंधापसरणकालश्च समानावंतर्मुहूर्तमात्रो।
= जाकरि एक बार स्थिति सत्त्व घटाइये ऐसा कान्डकोत्करणकाल और जाकरि एक बार स्थितिबंध घटाइये सो स्थिति बंधापसारणकाल ए दोऊ समान हैं, अंतर्मुहूर्त मात्र हैं।
5. अनुभागकांडकघात विधान
लब्धिसार / मू.व. टीका 80-81/114/116 केवल भाषार्थ `अप्रशस्त जे असाता प्रकृति तिनिका अनुभाग कांडकायाम अनंतबहुभागमात्र है। अपूर्वकरणका प्रथम समय विषैं (चारित्रमोहोपशमका प्रकरण है) जो पाइए अनुभाग सत्त्व ताको अनंतका भाग दीए तहाँ एक कांडक करि बहुभाग घटावै। एक भाग अवशेष राखै है। यहु प्रथम खंड भया। याकौ अनंतका भाग दीए दूसरे कांडक करि बहुभाग घटाइ एक भाग अवशेष राखे है। ऐसै एक एक अंतर्मुहूर्त करि एक एक अनुभाग कंडकघात हो है। तहाँ एक अनुभाग काम्डकोत्करण काल विषैं समय-समय प्रति एक-एक फालिका घटावना हो है ॥80॥ अनुभागको प्राप्त ऐसे कर्म परमाणु संबंधी एक गुणहानिविषैं स्पर्धकनिका प्रमाण सो स्तोक है। तातैं अनंतगुणे अतिस्थापनारूप स्पर्धक हैं। तातैं अनंतगुणे निक्षेप स्पर्धक है। तातैं अनंतगुणा अनुभाग कांडकायाम है। इहाँ ऐसा जानना कि कर्मनिके अनुभाग विषैं अनुभाग रचना है। तहाँ प्रथमादि स्पर्धक स्तोक अनुभाग युक्त हैं। ऊपरिके स्पर्धक बहु अनुभाग युक्त हैं। ऐसे तहाँ तिनि सर्व स्पर्धकनिकौं अनंतका भाग दियें बहुभागमात्र जे ऊपरिके स्पर्धक, तिनिके परमाणूनिकौ एक भागमात्र जे निचले स्पर्धक तिनि विषैं, केतेइक ऊपरिके स्पर्धक छोड़ि अवशेष निचले स्पर्धकनिरूपपरिणमावै है। तहाँ केतेइक परमाणु पहिले समय परिणमावै है, केतेइक दूसरे समय परिणमावै हैं। ऐसे अंतर्मुहूर्त कालकरि सर्व परमाणुपरिणमाइ तिनि ऊपरिके स्पर्धकनिका अभावकरै है। तिनिका द्रव्यको जे कांडकघात भये पीछैं अवशेष स्पर्धक रहैं। तिनि विषैं तिनि प्रथमादि स्पर्धकनिविषैं मिलाया, ते तौ निक्षेप रूप हैं, अर तिनि ऊपरिके स्पर्धकनि विषैं न मिलाया ते अतिस्थापना रूप हैं ॥81॥
( क्षपणासार / मूल या टीका गाथा 408 409/493)
6. अनुभाग कांडकघात व अयवर्तनघातमें अंतर
धवला पुस्तक 12/4,2,7,41/32/1 एसो अणुभागखंडयघादो त्ति किण्ण वुच्चदे। ण, पारद्धपढमसमयादो अंतोमुहुत्तेणं कालेण जो घादो णिप्पज्जदि सो अणुभागखंडघादो णाम, जो पुण उक्कोरणकालेण विणा एगसमएणेव पददि सा अणुसमओवट्टणा। अण्णं च, अणुसमओवट्टणाए णियमेण अणंता भागा हम्मंति, अणुभागखंडयघादे पुण णत्थि एसो णियमो, छव्विहहाणीएखंडयघादुबलंभादो।
= प्रश्न - इसे (अनुसमयापवर्तनाघातको) अनुभागकांडकघात क्यों नहीं कहते? उत्तर-नहीं, क्योंकि, प्रारंभ किये गये प्रथम समयसे लेकर अंतर्मुहूर्त कालके द्वारा जो घात निष्पन्न होता है, वह अनुभागकांडकघात है। परंतु उत्कीरण कालके बिना एक समय द्वारा ही जो घात होता है, वह अनुसमयापवर्तना है। दूसरे अनुसमयापवर्तनामें नियमसे अनंत बहुभाग नष्ट होता है परंतु अनुभाग कांडकघातमें यह नियम नहीं है, क्योंकि छह प्रकारकी हानि द्वारा कांडकघातकी उपलब्धि होती है। विशेषार्थ-कांडक पोरको कहते हैं। कुल अनुभागके हिस्से करके, एक एक हिस्सेका फालि क्रमसे अंतर्मुहूर्त काल द्वारा अभाव करना अनुभाग कांडक घात कहलाता है। और प्रति समय अनंत बहुभाग अनुभागका अभाव करना अनुसमयापवर्तना कहलाती है। मुख्य रूपसे यही इन दोनोंमें अंतर है।
7. शुभ प्रकृतियोंका अनुभाग घात नहीं होता
धवला पुस्तक 12/4,2,7,14/18/1 सुहाणं पयडीणं विसोहिदो केवलिसमुग्घादेण जे गणिरोहेण वा अणुभागघादो णत्थि त्ति जाणवेदि। खीणकसायसजोगीसुट्ठिदिअणुभागघादेसु संतेसु वि सुहाणं पयडीणं अणुभागघादो त्ति सिद्धेट्ठिदिअणुभागवज्जिदे सुहाणं पयडीणमुक्कस्साणुभागो होदि णत्थि त्ति अत्थावत्तिसिद्धं।
= शुभ प्रकृतियोंके अनुभागका घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योगिनिरोधसे नहीं होता। क्षीणकषाय और सयोगी गुणस्थानोंमें स्थितिघात व अनुभागघातके होनेपर भी शुभ प्रकृतियोंके अनुभाग घात वहाँ नहीं होता, यह सिद्ध होनेपर `स्थिति व अनुभागसे रहित अयोगी गुणस्थानमें शुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग होता है,' यह अर्थापत्तिसे सिद्ध है।
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 80/114 सुहपयडीणं णियमा णत्थि त्ति रसस्स खंडाणि।
= शुभ प्रकृतियोंका अनुभागकांडकघात नियमसे नहीं होता है।
8. प्रदेशघातसे स्थिति घटती है, अनुभाग नहीं
कषायपाहुड़ पुस्तक 5/4-22/$572/337/11 ट्ठिदीए इव पदेसगलणाए अणुभागघादो णत्थि त्ति।
= प्रदेशोंके गलनेसे जैसे स्थितिघात होता है, वैसे प्रदेशोंके गलनेसे अनुभागका घात नहीं होता।
9. स्थिति व अनुभाग घातमें परस्पर संबंध
धवला पुस्तक 1/1,1,27/216/10 अंतोमुहुत्तेण एक्केक्कं ट्ठिदिकंडयं घादेंतो अप्पणो कालब्भंतरे संखेज्जसहस्साणि ट्ठिदिकंडयाणि घादेदि। तत्तियाणि चेव ट्ठिदिबंधोसरणाणि वि करेदि। तेहिंतो संखेज्जसहस्सगुणे अणुभागकंडय-घादे करेदि, `एक्काणुभाग-कंडय-उक्कीरणकालादी एक्कं ट्ठिदिकंडय-उक्कीरणकालो संखेज्जगुणो' त्ति सुत्तादो।
= एक-एक अंतर्मुहूर्त में एक-एक स्थितिकांडकका घात करता हुआ अपने कालके भीतर संख्यात हजार स्थितिकांडकोंका घात करता है। और उतने ही स्थितिबंधापसरण करता है। तथा उनसे संख्यात हजार गुणे अनुभागकांडकोंका घात करता है, क्योंकि, एक अनुभागकान्डकके उत्कीरणकालसे एक स्थितिकांडककाउत्कीरणकाल संख्यात गुणा है।
( लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 79/114)
धवला पुस्तक 12/4,2,13,40/393/12 पडिभग्गपढमसमयप्पहुडि जाव अंतोमुहुत्तकालो ण गदो ताव अणुभागखंडयघादाभावादो।
धवला पुस्तक 12/4,2,13,94/413/7 अंतोमुहुत्तचरिमसमयस्स कधसुक्कस्साणुभागसंभवो। ण, तस्स अणुभागखंडयघादाभावादो।
= प्रतिभग्न होनेके प्रथम समयसे लेकर जब तक अंतर्मुहूर्तकाल नहीं बीत जाता तब तक अनुभागकांडकघात संभव नहीं। = प्रश्न-अंतर्मुहूर्त के अंतिम समयमें उत्कृष्ट अनुभागकी संभावना कैसे है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, उसके अनुभागकांडक घातका अभाव है।
धवला पुस्तक 12/4,2,13,41/1-2/394 ट्ठिदिघाते हंमंते अणुभागा आऊण सव्वेसिं। अणुभागेण विणा वि हु आउववज्जाण ट्ठिदिघातो ॥1॥ अणुभागे हंमंते ट्ठिदिघादो आउआण सव्वेसिं। ट्ठिदिघादेण विणा वि हु आउववज्जाणमणुभागो ॥2॥
= स्थितिघात होनेपर (ही) सब आयुओंके अनुभागका नाश होता है। (परंतु) आयुको छोड़कर शेष कर्मोंका अनुभागके बिना भी स्थितिघात होता है ॥1॥ (इसी प्रकार) अनुभागका घात होनेपर ही सब आयुओंका स्थितिघात होता है (परंतु) आयुको छोड़कर शेष कर्मोंका स्थितिघातके बिना भी अनुभागघात होता है ॥2॥
धवला पुस्तक 12/4,2,16,162/431/13 आउअस्स खवगसेढीए पदेसस्स गुणसेडिणिज्जराभावो व ट्ठिदि-अणुभागाणं घादाभावादो।
= क्षपकश्रेणीमें आयुकर्मके प्रदेशोंकी गुणश्रेणी निर्जरके अभावके समान स्थिति और अनुभागके घातका अभाव है। (इसीलिए वहाँ घातको प्राप्त हुआ अनुभाग अनंतगुणा हो जाता है)।