असत्: Difference between revisions
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[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या १/३२/१३८/७ असदविद्यमाननित्यर्थः।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या १/३२/१३८/७ असदविद्यमाननित्यर्थः।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= असत् का अर्थ अविद्यमान है।</p> | <p class="HindiSentence">= असत् का अर्थ अविद्यमान है।</p> | ||
न.वि./वृ.१/४/१२१/७ न सदिति विजातीयविशेषव्यापकत्वेन न गच्छतीत्यसत्।< | <p class="SanskritPrakritSentence">न.वि./वृ.१/४/१२१/७ न सदिति विजातीयविशेषव्यापकत्वेन न गच्छतीत्यसत्।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= जो विशेष व्यापकरूपसे प्राप्त होता हो सो असत् है।</p> | <p class="HindiSentence">= जो विशेष व्यापकरूपसे प्राप्त होता हो सो असत् है।</p> | ||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> आकाशपुष्पादि असंभव वस्तुओंका कथंचित् सत्त्व </LI> </OL> | <OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> आकाशपुष्पादि असंभव वस्तुओंका कथंचित् सत्त्व </LI> </OL> | ||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या २/८/१८/१२१/२२ कर्मवेशवशात् नानाजातिसंबन्धमापन्नवती जीवतो जीवस्य मण्डूकभावावाप्तौ तत्व्यपदेशभाजः पुनर्युवतिजन्मन्यवाप्ते `यः शिखण्डकः स एवायम्' इत्येकजीवसंबन्धित्वात् मण्डूकशिखण्ड इत्यस्ति। एवं बन्ध्यापुत्र-शशविषाणादिष्वपि योज्यम्। आकाशकुसुमे कथम्। तत्रापि यथा वनस्पतिनामकर्मोदयापादित विशेषस्य वृक्षस्य जीवपुद्गलसमुदायस्य पुष्पमिति व्यपदिश्यते, अन्यदपि पुद्गलद्रव्यं पुष्पभावेन परिणतं तेन व्याप्तव्यात्। एवमाकाशेनातिव्याप्तत्वं समानमिति तत्तस्यपीति व्यपदेशो युक्तः। अथ तत्कृतोपकारापेक्षया तस्येत्युच्यतेः आकाशकृतागाहनोपकारापेक्षया कथ तस्य न स्यात्। वृक्षात् प्रच्युतमप्याकाशान्न प्रच्यवते इति नित्यं तत्सम्बन्धि। अथ अर्थान्तरभावात्तस्य न स्यादिति मतम्; वृक्षस्यापिन स्यात्।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या २/८/१८/१२१/२२ कर्मवेशवशात् नानाजातिसंबन्धमापन्नवती जीवतो जीवस्य मण्डूकभावावाप्तौ तत्व्यपदेशभाजः पुनर्युवतिजन्मन्यवाप्ते `यः शिखण्डकः स एवायम्' इत्येकजीवसंबन्धित्वात् मण्डूकशिखण्ड इत्यस्ति। एवं बन्ध्यापुत्र-शशविषाणादिष्वपि योज्यम्। आकाशकुसुमे कथम्। तत्रापि यथा वनस्पतिनामकर्मोदयापादित विशेषस्य वृक्षस्य जीवपुद्गलसमुदायस्य पुष्पमिति व्यपदिश्यते, अन्यदपि पुद्गलद्रव्यं पुष्पभावेन परिणतं तेन व्याप्तव्यात्। एवमाकाशेनातिव्याप्तत्वं समानमिति तत्तस्यपीति व्यपदेशो युक्तः। अथ तत्कृतोपकारापेक्षया तस्येत्युच्यतेः आकाशकृतागाहनोपकारापेक्षया कथ तस्य न स्यात्। वृक्षात् प्रच्युतमप्याकाशान्न प्रच्यवते इति नित्यं तत्सम्बन्धि। अथ अर्थान्तरभावात्तस्य न स्यादिति मतम्; वृक्षस्यापिन स्यात्।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= वह सत् भी सिद्ध हो जाता है। यथा-कोई जीव मेंढक था और वही जीव जब युवतीकी पर्यायको धारण करता है तो भूतपूर्वनयकी अपेक्षा उस युवतीको भी हम मेंढक कह ही सकते हैं। और उसके युवतीपर्यायापन्न मण्डूककी शिखा होनेसे मण्डूकशिखण्ड व्यवहार हो सकता है। इसी प्रकार वन्ध्यापुत्र व शशविषाणादिमें भी लागू करना चाहिए। <br> <b>प्रश्न</b> - आकाशपुष्पमें कैसे लागू होता है? <br> <b>उत्तर</b> - वनस्पति नामकर्मका जिस जीवके उदय है। वह जीव और पुद्गलका समुदाय पुष्प कहा जाता है। जिस प्रकार वृक्षके द्वारा व्याप्त होनेसे वह पुष्प पुद्गल वृक्षका कहा जाता है, उसी तरह आकाशके द्वारा व्याप्त होनेके कारण आकाशका क्यों न कहा जाय? वृक्षके द्वारा उपकृत होनेके कारण यदि वह वृक्षका कहा जाता है तो आकाशकृत अवगाहनरूप उपकारकी अपेक्षा उसे आकाशका भी कहना चाहिए। वृक्षसे टूटकर फूल गिर भी जाय पर आकाशसे तो कभी भी दूर नही हो सकता। सदा आकाशमें ही रहता है। अथवा मण्डूकशिण्डविषयक ज्ञानका विषय होनेसे भी (ज्ञान नयकी अपेक्षा) मण्डूक शिखण्डका सद्भाव सिद्ध मानना चाहिए।</p> | <p class="HindiSentence">= वह सत् भी सिद्ध हो जाता है। यथा-कोई जीव मेंढक था और वही जीव जब युवतीकी पर्यायको धारण करता है तो भूतपूर्वनयकी अपेक्षा उस युवतीको भी हम मेंढक कह ही सकते हैं। और उसके युवतीपर्यायापन्न मण्डूककी शिखा होनेसे मण्डूकशिखण्ड व्यवहार हो सकता है। इसी प्रकार वन्ध्यापुत्र व शशविषाणादिमें भी लागू करना चाहिए। <br> <b>प्रश्न</b> - आकाशपुष्पमें कैसे लागू होता है? <br> <b>उत्तर</b> - वनस्पति नामकर्मका जिस जीवके उदय है। वह जीव और पुद्गलका समुदाय पुष्प कहा जाता है। जिस प्रकार वृक्षके द्वारा व्याप्त होनेसे वह पुष्प पुद्गल वृक्षका कहा जाता है, उसी तरह आकाशके द्वारा व्याप्त होनेके कारण आकाशका क्यों न कहा जाय? वृक्षके द्वारा उपकृत होनेके कारण यदि वह वृक्षका कहा जाता है तो आकाशकृत अवगाहनरूप उपकारकी अपेक्षा उसे आकाशका भी कहना चाहिए। वृक्षसे टूटकर फूल गिर भी जाय पर आकाशसे तो कभी भी दूर नही हो सकता। सदा आकाशमें ही रहता है। अथवा मण्डूकशिण्डविषयक ज्ञानका विषय होनेसे भी (ज्ञान नयकी अपेक्षा) मण्डूक शिखण्डका सद्भाव सिद्ध मानना चाहिए।</p> | ||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१८/१०/४६७/३२ खरो मृतः गौर्जातः स एव जीव इत्येकजीवविवक्षायां खरव्यपदेशभाजो जीवस्य गोजातिसंक्रमे विषाणोपलब्धेः अर्थखरविषाणस्यापि जात्यस्तित्वसद्भावात् उभयधर्मासिद्धता।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ५/१८/१०/४६७/३२ खरो मृतः गौर्जातः स एव जीव इत्येकजीवविवक्षायां खरव्यपदेशभाजो जीवस्य गोजातिसंक्रमे विषाणोपलब्धेः अर्थखरविषाणस्यापि जात्यस्तित्वसद्भावात् उभयधर्मासिद्धता।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= कोई जीव जो पहिले खर था, मरकर गौ उत्पन्न हुआ और उसके सींग निकल आये। ऐसी दशामें एक जीवकी अपेक्षा अर्थरूपसे भी `खरविषाण' प्रयोग हो ही जाता है।</p> | <p class="HindiSentence">= कोई जीव जो पहिले खर था, मरकर गौ उत्पन्न हुआ और उसके सींग निकल आये। ऐसी दशामें एक जीवकी अपेक्षा अर्थरूपसे भी `खरविषाण' प्रयोग हो ही जाता है।</p> | ||
([[सप्तभंग तरंङ्गिनी]] पृष्ठ संख्या ५४/१)<br> | ([[सप्तभंग तरंङ्गिनी]] पृष्ठ संख्या ५४/१)<br> |
Revision as of 02:09, 25 May 2009
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या १/३२/१३८/७ असदविद्यमाननित्यर्थः।
= असत् का अर्थ अविद्यमान है।
न.वि./वृ.१/४/१२१/७ न सदिति विजातीयविशेषव्यापकत्वेन न गच्छतीत्यसत्।
= जो विशेष व्यापकरूपसे प्राप्त होता हो सो असत् है।
- आकाशपुष्पादि असंभव वस्तुओंका कथंचित् सत्त्व
राजवार्तिक अध्याय संख्या २/८/१८/१२१/२२ कर्मवेशवशात् नानाजातिसंबन्धमापन्नवती जीवतो जीवस्य मण्डूकभावावाप्तौ तत्व्यपदेशभाजः पुनर्युवतिजन्मन्यवाप्ते `यः शिखण्डकः स एवायम्' इत्येकजीवसंबन्धित्वात् मण्डूकशिखण्ड इत्यस्ति। एवं बन्ध्यापुत्र-शशविषाणादिष्वपि योज्यम्। आकाशकुसुमे कथम्। तत्रापि यथा वनस्पतिनामकर्मोदयापादित विशेषस्य वृक्षस्य जीवपुद्गलसमुदायस्य पुष्पमिति व्यपदिश्यते, अन्यदपि पुद्गलद्रव्यं पुष्पभावेन परिणतं तेन व्याप्तव्यात्। एवमाकाशेनातिव्याप्तत्वं समानमिति तत्तस्यपीति व्यपदेशो युक्तः। अथ तत्कृतोपकारापेक्षया तस्येत्युच्यतेः आकाशकृतागाहनोपकारापेक्षया कथ तस्य न स्यात्। वृक्षात् प्रच्युतमप्याकाशान्न प्रच्यवते इति नित्यं तत्सम्बन्धि। अथ अर्थान्तरभावात्तस्य न स्यादिति मतम्; वृक्षस्यापिन स्यात्।
= वह सत् भी सिद्ध हो जाता है। यथा-कोई जीव मेंढक था और वही जीव जब युवतीकी पर्यायको धारण करता है तो भूतपूर्वनयकी अपेक्षा उस युवतीको भी हम मेंढक कह ही सकते हैं। और उसके युवतीपर्यायापन्न मण्डूककी शिखा होनेसे मण्डूकशिखण्ड व्यवहार हो सकता है। इसी प्रकार वन्ध्यापुत्र व शशविषाणादिमें भी लागू करना चाहिए।
प्रश्न - आकाशपुष्पमें कैसे लागू होता है?
उत्तर - वनस्पति नामकर्मका जिस जीवके उदय है। वह जीव और पुद्गलका समुदाय पुष्प कहा जाता है। जिस प्रकार वृक्षके द्वारा व्याप्त होनेसे वह पुष्प पुद्गल वृक्षका कहा जाता है, उसी तरह आकाशके द्वारा व्याप्त होनेके कारण आकाशका क्यों न कहा जाय? वृक्षके द्वारा उपकृत होनेके कारण यदि वह वृक्षका कहा जाता है तो आकाशकृत अवगाहनरूप उपकारकी अपेक्षा उसे आकाशका भी कहना चाहिए। वृक्षसे टूटकर फूल गिर भी जाय पर आकाशसे तो कभी भी दूर नही हो सकता। सदा आकाशमें ही रहता है। अथवा मण्डूकशिण्डविषयक ज्ञानका विषय होनेसे भी (ज्ञान नयकी अपेक्षा) मण्डूक शिखण्डका सद्भाव सिद्ध मानना चाहिए।
राजवार्तिक अध्याय संख्या ५/१८/१०/४६७/३२ खरो मृतः गौर्जातः स एव जीव इत्येकजीवविवक्षायां खरव्यपदेशभाजो जीवस्य गोजातिसंक्रमे विषाणोपलब्धेः अर्थखरविषाणस्यापि जात्यस्तित्वसद्भावात् उभयधर्मासिद्धता।
= कोई जीव जो पहिले खर था, मरकर गौ उत्पन्न हुआ और उसके सींग निकल आये। ऐसी दशामें एक जीवकी अपेक्षा अर्थरूपसे भी `खरविषाण' प्रयोग हो ही जाता है।
(सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ संख्या ५४/१)
- असत् का उत्पाद असम्भव है - देखे [[सत् <]] /LI>