अरति परिषह: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
No edit summary |
||
Line 2: | Line 2: | ||
<p class="HindiText">= जो संयत इंद्रियों के इष्ट विषय संबंध के प्रति निरुत्सुक है; जो गीत, नृत्य और वादित्र आदिसे रहित शून्यघर, देवकुल, तरुकोटर, और शिलागुफा आदिमें स्वाध्याय, ध्यान और भावनामें लीन हैं; पहिले देखे हुए सुने हुए और अनुभव किये हुए विषय भोगके स्मरण, विषय भोग संबंधी कथाके श्रवण और कामशर प्रवेशके लिए जिसका हृदय निश्छिद्र है और जो प्राणियोंके ऊपर सदाकाल सदय है; उसके अरति परिषहजय जानना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= जो संयत इंद्रियों के इष्ट विषय संबंध के प्रति निरुत्सुक है; जो गीत, नृत्य और वादित्र आदिसे रहित शून्यघर, देवकुल, तरुकोटर, और शिलागुफा आदिमें स्वाध्याय, ध्यान और भावनामें लीन हैं; पहिले देखे हुए सुने हुए और अनुभव किये हुए विषय भोगके स्मरण, विषय भोग संबंधी कथाके श्रवण और कामशर प्रवेशके लिए जिसका हृदय निश्छिद्र है और जो प्राणियोंके ऊपर सदाकाल सदय है; उसके अरति परिषहजय जानना चाहिए।</p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 9/9/11/609/36) ( चारित्रसार पृष्ठ 115/3)</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 9/9/11/609/36) ( चारित्रसार पृष्ठ 115/3)</p> | ||
<p>2. अरति व अन्य परिषहोंमें अंतर</p> | <p><br> | ||
2. <big>अरति व अन्य परिषहोंमें अंतर</big></p> | |||
<p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 9/9/12/610/3 स्यादेतत्-क्षुधादीनां सर्वेषामरतिहेतुत्वात् पृथगरतिग्रहणमनर्थकमिति। तन्नः किं कारणम्। क्षुधाद्यभावेऽपि मोहादयात्तत्प्रवृत्तेः। मोहोदयाकुलितचेतसो हि क्षुधादिवेदनाभावेऽपि संयमेऽरतिरुपजायते।</p> | <p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 9/9/12/610/3 स्यादेतत्-क्षुधादीनां सर्वेषामरतिहेतुत्वात् पृथगरतिग्रहणमनर्थकमिति। तन्नः किं कारणम्। क्षुधाद्यभावेऽपि मोहादयात्तत्प्रवृत्तेः। मोहोदयाकुलितचेतसो हि क्षुधादिवेदनाभावेऽपि संयमेऽरतिरुपजायते।</p> | ||
<p class="HindiText">= प्रश्न-क्षुधा आदिक सर्व हो परिषह अरतिके हेतु होनेके कारण अरति परिषहका पृथक् ग्रहण अनर्थक है।</p> | <p class="HindiText">= प्रश्न-क्षुधा आदिक सर्व हो परिषह अरतिके हेतु होनेके कारण अरति परिषहका पृथक् ग्रहण अनर्थक है।</p> | ||
Line 16: | Line 17: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: अ]] | [[Category: अ]] | ||
[[Category: चरणानुयोग]] |
Revision as of 17:58, 23 August 2022
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/9/422/7 संयतस्येंद्रियेष्टविषयसंबंधं प्रति निरुत्सुकस्य गीतनृत्यवादित्रादिविरहितेषु शून्यागारदेवकुलतरुकोटरशिलागुहादिषु स्वाध्यायध्यानभावनारतिमास्कंदतो दृष्टश्रुतानुभूतरतिस्मरणतत्कथाश्रवणकामशरप्रवेशनिर्विवरहृदयस्य प्राणिषु सदा सदयस्यारतिपरिषहजयोऽवसेयः।
= जो संयत इंद्रियों के इष्ट विषय संबंध के प्रति निरुत्सुक है; जो गीत, नृत्य और वादित्र आदिसे रहित शून्यघर, देवकुल, तरुकोटर, और शिलागुफा आदिमें स्वाध्याय, ध्यान और भावनामें लीन हैं; पहिले देखे हुए सुने हुए और अनुभव किये हुए विषय भोगके स्मरण, विषय भोग संबंधी कथाके श्रवण और कामशर प्रवेशके लिए जिसका हृदय निश्छिद्र है और जो प्राणियोंके ऊपर सदाकाल सदय है; उसके अरति परिषहजय जानना चाहिए।
(राजवार्तिक अध्याय 9/9/11/609/36) ( चारित्रसार पृष्ठ 115/3)
2. अरति व अन्य परिषहोंमें अंतर
राजवार्तिक अध्याय 9/9/12/610/3 स्यादेतत्-क्षुधादीनां सर्वेषामरतिहेतुत्वात् पृथगरतिग्रहणमनर्थकमिति। तन्नः किं कारणम्। क्षुधाद्यभावेऽपि मोहादयात्तत्प्रवृत्तेः। मोहोदयाकुलितचेतसो हि क्षुधादिवेदनाभावेऽपि संयमेऽरतिरुपजायते।
= प्रश्न-क्षुधा आदिक सर्व हो परिषह अरतिके हेतु होनेके कारण अरति परिषहका पृथक् ग्रहण अनर्थक है।
उत्तर-नहीं, क्योंकि, क्षुधादिके न होनेपर भी मोह कर्मके उदयसे होनेवाली संयमको अरति का संग्रह करनेके लिए `अरति' का पृथक् ग्रहण किया है।