आर्जव धर्म: Difference between revisions
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[[बारसाणुवेक्खा]] गाथा संख्या ७३ मोत्तूण कुडिल भावं णिम्मलहिदयेण चरदि जो समणो। अज्जवधम्मं तइयो तस्स दु संभवदि णियमेण ।।७३।।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[बारसाणुवेक्खा]] गाथा संख्या ७३ मोत्तूण कुडिल भावं णिम्मलहिदयेण चरदि जो समणो। अज्जवधम्मं तइयो तस्स दु संभवदि णियमेण ।।७३।।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= जो मनस्वी प्राणी (शुभ विचार वाला) कुटिल भाव व मायाचारी परिणामोंको छोड़कर शुद्ध हृदयसे चारित्रका पालन करता है, उसके नियमसे तीसरा आर्जव नामका धर्म होता है।</p> | <p class="HindiSentence">= जो मनस्वी प्राणी (शुभ विचार वाला) कुटिल भाव व मायाचारी परिणामोंको छोड़कर शुद्ध हृदयसे चारित्रका पालन करता है, उसके नियमसे तीसरा आर्जव नामका धर्म होता है।</p> | ||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ९/६/४१२/६ योगस्यावक्रता आर्जवम्।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ९/६/४१२/६ योगस्यावक्रता आर्जवम्।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= योगोंका वक्र न होना आर्जव है।</p> | <p class="HindiSentence">= योगोंका वक्र न होना आर्जव है।</p> | ||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/६/५९५)<br> | ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/६/५९५)<br> | ||
[[भगवती आराधना]] / [[विजयोदयी टीका]]/ गाथा संख्या ४६/१५४ आकृष्टान्तद्वयसूत्रवद्वक्रताभावः आर्जवमित्युच्यते।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[भगवती आराधना]] / [[विजयोदयी टीका]]/ गाथा संख्या ४६/१५४ आकृष्टान्तद्वयसूत्रवद्वक्रताभावः आर्जवमित्युच्यते।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= डोरीके दो छोर पकड़ कर खींचनेसे वह सरल होती है। उसी तरह मनमें-से कपट दूर करने पर वह सरल होता है अर्थात् मनकी सरलताका नाम आर्जव है।</p> | <p class="HindiSentence">= डोरीके दो छोर पकड़ कर खींचनेसे वह सरल होती है। उसी तरह मनमें-से कपट दूर करने पर वह सरल होता है अर्थात् मनकी सरलताका नाम आर्जव है।</p> | ||
पं./वि.१/८९ हृदि यत्तद्वाचि बहिः फलति तदेवार्जवं भवत्येतत्। धर्मो निकृतिरधर्मो द्वाविह सुरसद्मनरकपथौ ।।८९।।< | <p class="SanskritPrakritSentence">पं./वि.१/८९ हृदि यत्तद्वाचि बहिः फलति तदेवार्जवं भवत्येतत्। धर्मो निकृतिरधर्मो द्वाविह सुरसद्मनरकपथौ ।।८९।।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= जो विचार हृदयमें स्थिर है, वही वचनमें रहता है तथा वही बाहर फलता है अर्थात् शरीरसे भी तद्नुसार ही कार्य किया जाता है, यह आर्जव धर्म है, इससे विपरीत दूसरोंको धोखा देना, यह अधर्म है। ये दोनों यहाँ क्रमसे देवगति और नरकगतिके कारण हैं।</p> | <p class="HindiSentence">= जो विचार हृदयमें स्थिर है, वही वचनमें रहता है तथा वही बाहर फलता है अर्थात् शरीरसे भी तद्नुसार ही कार्य किया जाता है, यह आर्जव धर्म है, इससे विपरीत दूसरोंको धोखा देना, यह अधर्म है। ये दोनों यहाँ क्रमसे देवगति और नरकगतिके कारण हैं।</p> | ||
[[कार्तिकेयानुप्रेक्षा]] / मूल या टीका गाथा संख्या ३९६ जो चिंतेइ ण वंकंण कुणदि वंकंण जंपदे वंकं। ण य गोवदि णिय दोसं अज्जव-धम्मो हवे तस्स ।।३९६।।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[कार्तिकेयानुप्रेक्षा]] / मूल या टीका गाथा संख्या ३९६ जो चिंतेइ ण वंकंण कुणदि वंकंण जंपदे वंकं। ण य गोवदि णिय दोसं अज्जव-धम्मो हवे तस्स ।।३९६।।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= जो मुनि कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता और कुटिल बात नहीं बोलता तथा अपना दोष नहीं छिपाता वह आर्जव धर्मका धारी होता है क्योंकि मन, वचन, कायाकी सरलताका नाम आर्जव धर्म है।</p> | <p class="HindiSentence">= जो मुनि कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता और कुटिल बात नहीं बोलता तथा अपना दोष नहीं छिपाता वह आर्जव धर्मका धारी होता है क्योंकि मन, वचन, कायाकी सरलताका नाम आर्जव धर्म है।</p> | ||
([[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या ६/१५)<br> | ([[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या ६/१५)<br> | ||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> आर्जवधर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ </LI> </OL> | <OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> आर्जवधर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ </LI> </OL> | ||
[[भगवती आराधना]] / मुल या टीका गाथा संख्या १४३१-१४३५ अदिगूहिदा वि दोसा जणेण कालंतरेणणज्जंति। मायाए पउत्ताए को इत्थ गुणो हवदि लद्धो ।।१४३१।। पडि भोगम्मि असंते णियडि सहस्सेहि गूहमाणस्स। चंदग्गहोव्व दोसो खणेण सो पायडो होइ ।।१४३२।। जणपायडो वि दोसो दोसोत्ति ण घेप्पए सभागस्स। जह समलत्ति ण घिप्पदि समलं पि जए तलायजलं ।।१४३३।। डभसएहिं बहुगेहिं सुपउत्तेहिं अपडिभोगस्स। हत्थं ण एदि अत्थो अण्णादो सपडिभोगादो ।।१४३४।। इह य परत्तय लोए दोसे बहुए य आवट्टइ माया। इदि अप्पणो गणित्ता परिहरिदव्वा हवइ माया ।।१४३५।।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[भगवती आराधना]] / मुल या टीका गाथा संख्या १४३१-१४३५ अदिगूहिदा वि दोसा जणेण कालंतरेणणज्जंति। मायाए पउत्ताए को इत्थ गुणो हवदि लद्धो ।।१४३१।। पडि भोगम्मि असंते णियडि सहस्सेहि गूहमाणस्स। चंदग्गहोव्व दोसो खणेण सो पायडो होइ ।।१४३२।। जणपायडो वि दोसो दोसोत्ति ण घेप्पए सभागस्स। जह समलत्ति ण घिप्पदि समलं पि जए तलायजलं ।।१४३३।। डभसएहिं बहुगेहिं सुपउत्तेहिं अपडिभोगस्स। हत्थं ण एदि अत्थो अण्णादो सपडिभोगादो ।।१४३४।। इह य परत्तय लोए दोसे बहुए य आवट्टइ माया। इदि अप्पणो गणित्ता परिहरिदव्वा हवइ माया ।।१४३५।।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= दोषोंको अतिशय छिपाने पर भी कालान्तरसे कुछ काल व्यतीत होनेके बाद वे दोष लोगोंको मालूम पड़ते ही हैं, इसलिए मायाका प्रयोग करनेपर भी क्या फायदा होता है? ध्यानमें नहीं आता ।।१४३१।। उत्कृष्ट भाग्य यदि न होगा तो हमारों कपट करके दोषोंको छिपाने पर भी प्रगट होते ही है। जैसे-चन्द्रको राहु ग्रस लेता है यह बात छिपती नहीं सर्वजन प्रसिद्ध होती है। वैसे ही दोष छिपानेका कितना भी प्रयत्न करो, परन्तु यदि तुम पुण्यवान् न होगे तो तुम्हारे दोष लोगोंको मालूम होंगे ही ।।१४३२।। जो पुण्यवान् पुरुष है उसका दोष लोगोंको प्रत्यक्ष होने पर भी लोग उसको दोष मानते नहीं है, जैसे तालाबका पानी मलिन होने पर भी उसके मलिनपनाकी तरफ जब लक्ष्य नहीं देते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि-पुण्यवान्को कपट करनेकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि दोष प्रकट होने पर भी श्रीमान् मान्य होते ही हैं ।।१४३३।। सैंकड़ों कपट प्रयोग करने पर भी और बे मालूम कपट प्रयोग करने पर भी पुण्यवान् मनुष्यसे भिन्नं अर्थात् पापी मनुष्यको धन प्राप्त नहीं होता, तात्पर्य कपट करनेसे धन प्राप्त नहीं होता पुण्यसे ही मिलता है ।।१४३४।। इस प्रकार इस भव व परभवमें मायासे अनेक दोष उत्पन्न होते हैं ऐसा जानकर मायाका त्याग करना चाहिए ।।१४३५।।</p> | <p class="HindiSentence">= दोषोंको अतिशय छिपाने पर भी कालान्तरसे कुछ काल व्यतीत होनेके बाद वे दोष लोगोंको मालूम पड़ते ही हैं, इसलिए मायाका प्रयोग करनेपर भी क्या फायदा होता है? ध्यानमें नहीं आता ।।१४३१।। उत्कृष्ट भाग्य यदि न होगा तो हमारों कपट करके दोषोंको छिपाने पर भी प्रगट होते ही है। जैसे-चन्द्रको राहु ग्रस लेता है यह बात छिपती नहीं सर्वजन प्रसिद्ध होती है। वैसे ही दोष छिपानेका कितना भी प्रयत्न करो, परन्तु यदि तुम पुण्यवान् न होगे तो तुम्हारे दोष लोगोंको मालूम होंगे ही ।।१४३२।। जो पुण्यवान् पुरुष है उसका दोष लोगोंको प्रत्यक्ष होने पर भी लोग उसको दोष मानते नहीं है, जैसे तालाबका पानी मलिन होने पर भी उसके मलिनपनाकी तरफ जब लक्ष्य नहीं देते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि-पुण्यवान्को कपट करनेकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि दोष प्रकट होने पर भी श्रीमान् मान्य होते ही हैं ।।१४३३।। सैंकड़ों कपट प्रयोग करने पर भी और बे मालूम कपट प्रयोग करने पर भी पुण्यवान् मनुष्यसे भिन्नं अर्थात् पापी मनुष्यको धन प्राप्त नहीं होता, तात्पर्य कपट करनेसे धन प्राप्त नहीं होता पुण्यसे ही मिलता है ।।१४३४।। इस प्रकार इस भव व परभवमें मायासे अनेक दोष उत्पन्न होते हैं ऐसा जानकर मायाका त्याग करना चाहिए ।।१४३५।।</p> | ||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/६/२७/५९९/१५), ([[चारित्रसार]] पृष्ठ संख्या ६२/२), ([[पद्मनन्दि पंचविंशतिका]] अधिकार संख्या १/९०), ([[ज्ञानार्णव]] अधिकार संख्या १९/५८-६७)<br> | ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/६/२७/५९९/१५), ([[चारित्रसार]] पृष्ठ संख्या ६२/२), ([[पद्मनन्दि पंचविंशतिका]] अधिकार संख्या १/९०), ([[ज्ञानार्णव]] अधिकार संख्या १९/५८-६७)<br> |
Revision as of 11:36, 25 May 2009
बारसाणुवेक्खा गाथा संख्या ७३ मोत्तूण कुडिल भावं णिम्मलहिदयेण चरदि जो समणो। अज्जवधम्मं तइयो तस्स दु संभवदि णियमेण ।।७३।।
= जो मनस्वी प्राणी (शुभ विचार वाला) कुटिल भाव व मायाचारी परिणामोंको छोड़कर शुद्ध हृदयसे चारित्रका पालन करता है, उसके नियमसे तीसरा आर्जव नामका धर्म होता है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ९/६/४१२/६ योगस्यावक्रता आर्जवम्।
= योगोंका वक्र न होना आर्जव है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/६/५९५)
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या ४६/१५४ आकृष्टान्तद्वयसूत्रवद्वक्रताभावः आर्जवमित्युच्यते।
= डोरीके दो छोर पकड़ कर खींचनेसे वह सरल होती है। उसी तरह मनमें-से कपट दूर करने पर वह सरल होता है अर्थात् मनकी सरलताका नाम आर्जव है।
पं./वि.१/८९ हृदि यत्तद्वाचि बहिः फलति तदेवार्जवं भवत्येतत्। धर्मो निकृतिरधर्मो द्वाविह सुरसद्मनरकपथौ ।।८९।।
= जो विचार हृदयमें स्थिर है, वही वचनमें रहता है तथा वही बाहर फलता है अर्थात् शरीरसे भी तद्नुसार ही कार्य किया जाता है, यह आर्जव धर्म है, इससे विपरीत दूसरोंको धोखा देना, यह अधर्म है। ये दोनों यहाँ क्रमसे देवगति और नरकगतिके कारण हैं।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा संख्या ३९६ जो चिंतेइ ण वंकंण कुणदि वंकंण जंपदे वंकं। ण य गोवदि णिय दोसं अज्जव-धम्मो हवे तस्स ।।३९६।।
= जो मुनि कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता और कुटिल बात नहीं बोलता तथा अपना दोष नहीं छिपाता वह आर्जव धर्मका धारी होता है क्योंकि मन, वचन, कायाकी सरलताका नाम आर्जव धर्म है।
(तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या ६/१५)
- आर्जवधर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा संख्या १४३१-१४३५ अदिगूहिदा वि दोसा जणेण कालंतरेणणज्जंति। मायाए पउत्ताए को इत्थ गुणो हवदि लद्धो ।।१४३१।। पडि भोगम्मि असंते णियडि सहस्सेहि गूहमाणस्स। चंदग्गहोव्व दोसो खणेण सो पायडो होइ ।।१४३२।। जणपायडो वि दोसो दोसोत्ति ण घेप्पए सभागस्स। जह समलत्ति ण घिप्पदि समलं पि जए तलायजलं ।।१४३३।। डभसएहिं बहुगेहिं सुपउत्तेहिं अपडिभोगस्स। हत्थं ण एदि अत्थो अण्णादो सपडिभोगादो ।।१४३४।। इह य परत्तय लोए दोसे बहुए य आवट्टइ माया। इदि अप्पणो गणित्ता परिहरिदव्वा हवइ माया ।।१४३५।।
= दोषोंको अतिशय छिपाने पर भी कालान्तरसे कुछ काल व्यतीत होनेके बाद वे दोष लोगोंको मालूम पड़ते ही हैं, इसलिए मायाका प्रयोग करनेपर भी क्या फायदा होता है? ध्यानमें नहीं आता ।।१४३१।। उत्कृष्ट भाग्य यदि न होगा तो हमारों कपट करके दोषोंको छिपाने पर भी प्रगट होते ही है। जैसे-चन्द्रको राहु ग्रस लेता है यह बात छिपती नहीं सर्वजन प्रसिद्ध होती है। वैसे ही दोष छिपानेका कितना भी प्रयत्न करो, परन्तु यदि तुम पुण्यवान् न होगे तो तुम्हारे दोष लोगोंको मालूम होंगे ही ।।१४३२।। जो पुण्यवान् पुरुष है उसका दोष लोगोंको प्रत्यक्ष होने पर भी लोग उसको दोष मानते नहीं है, जैसे तालाबका पानी मलिन होने पर भी उसके मलिनपनाकी तरफ जब लक्ष्य नहीं देते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि-पुण्यवान्को कपट करनेकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि दोष प्रकट होने पर भी श्रीमान् मान्य होते ही हैं ।।१४३३।। सैंकड़ों कपट प्रयोग करने पर भी और बे मालूम कपट प्रयोग करने पर भी पुण्यवान् मनुष्यसे भिन्नं अर्थात् पापी मनुष्यको धन प्राप्त नहीं होता, तात्पर्य कपट करनेसे धन प्राप्त नहीं होता पुण्यसे ही मिलता है ।।१४३४।। इस प्रकार इस भव व परभवमें मायासे अनेक दोष उत्पन्न होते हैं ऐसा जानकर मायाका त्याग करना चाहिए ।।१४३५।।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/६/२७/५९९/१५), (चारित्रसार पृष्ठ संख्या ६२/२), (पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार संख्या १/९०), (ज्ञानार्णव अधिकार संख्या १९/५८-६७)
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या १७-२३/५७७ भावार्थ-वह कपटी है, इस तरहकी अपकीर्ति को जो सहन कर नहीं सकता उसकी तो बात क्या, जो सहन भी कर सकता है वह भी इस संसार मार्गको बढ़ाने वाली अनन्तानुबन्धी इस मायाको दूरसे छोड़ दे। क्योंकि नहीं तो मुझे पुंस्त्व पर्याय प्राप्त न होगी। इस लोकमें तेरा कोई भी विश्वास न करेगा। जिन्होंने आर्जव धर्म रूपी नौकाके द्वारा माया रूपी नदीको लाँघ लिया है वे लोकोत्तर पुरुष जयवन्त रहो। परन्तु मायापूर्ण वाक्योंसे अर्थात् `कुंजरो न नरः' ऐसे मायापूर्ण वाक्योंसे गुरु द्रोणाचार्यको धोखा देनेके कारण युधिष्ठिरको इतनी ग्लानि हुई कि उन्होनें अपने को सत्पुरुषसे छिपा लिया। इस प्रकार मायासे बड़े-बड़े पुरुषोंको क्लेश हुआ है ऐसा जानकर मायाका त्याग कर देना चाहिए।
- दश धर्म सम्बन्धी विशेषताएँ - देखे धर्म ८।