कीर्ति: Difference between revisions
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<p id="1"> (1) एक आचार्य । इन्होंने वर्द्धमान जिनेंद्र द्वारा कथित रामकथारूप अर्थ आचार्य प्रभव से प्राप्त किया था । <span class="GRef"> पद्मपुराण 1.41-42 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1"> (1) एक आचार्य । इन्होंने वर्द्धमान जिनेंद्र द्वारा कथित रामकथारूप अर्थ आचार्य प्रभव से प्राप्त किया था । <span class="GRef"> पद्मपुराण 1.41-42 </span></p> | ||
<p id="2">(2) एक दिक्कुमारी व्यंतर देवी । यह गर्भावस्था में तीर्थंकर की माता की स्तुति करती है । इसकी आयु एक पल्य होती है । यह केसरी नाम के विशाल सरोवर के कमलों पर निर्मित भवन में रहती है । छ: मातृकाओं में यह इंद्र की एक वल्लभा है । <span class="GRef"> महापुराण 12. 163-164, 38.226, 63.200, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 3.112-113, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.121, 1305131, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 7.105-108 </span></p> | <p id="2">(2) एक दिक्कुमारी व्यंतर देवी । यह गर्भावस्था में तीर्थंकर की माता की स्तुति करती है । इसकी आयु एक पल्य होती है । यह केसरी नाम के विशाल सरोवर के कमलों पर निर्मित भवन में रहती है । छ: मातृकाओं में यह इंद्र की एक वल्लभा है । <span class="GRef"> महापुराण 12. 163-164, 38.226, 63.200, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 3.112-113, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.121, 1305131, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 7.105-108 </span></p> | ||
<p id="3">(3) परमेष्ठियों के गुणरूप सत्ताईस सूत्रपदों में एक सूत्रपद । इसके प्राप्त होने पर पारिव्राज्य का लक्षण प्रकट होता है । जो कीर्ति की इच्छा का परित्याग करके अपने गुणों की प्रशंसा करना छोड़ देता है और महातपश्चरण करता हुआ स्तुति तथा निंदा में समानभाव रखता है वह तीनों लोकों के इंद्रों के द्वारा स्वत: प्रशंसित होता है । <span class="GRef"> महापुराण 39.162-165, 191 </span></p> | <p id="3">(3) परमेष्ठियों के गुणरूप सत्ताईस सूत्रपदों में एक सूत्रपद । इसके प्राप्त होने पर पारिव्राज्य का लक्षण प्रकट होता है । जो कीर्ति की इच्छा का परित्याग करके अपने गुणों की प्रशंसा करना छोड़ देता है और महातपश्चरण करता हुआ स्तुति तथा निंदा में समानभाव रखता है वह तीनों लोकों के इंद्रों के द्वारा स्वत: प्रशंसित होता है । <span class="GRef"> महापुराण 39.162-165, 191 </span></p> | ||
<p id="4">(4) कुरुवंश में उत्पन्न हुए चक्रवर्ती महापद्म की वंशपरंपरा में राजा कुलकीर्ति के पश्चात् हुआ एक नृप । सुकीर्ति इन्हीं के बाद इस वंश का शासक हुआ था । सुकीर्ति के बाद भी इसी वंश में कीर्ति नामक एक राजा और हुआ था । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 45.24-25 </span></p> | <p id="4">(4) कुरुवंश में उत्पन्न हुए चक्रवर्ती महापद्म की वंशपरंपरा में राजा कुलकीर्ति के पश्चात् हुआ एक नृप । सुकीर्ति इन्हीं के बाद इस वंश का शासक हुआ था । सुकीर्ति के बाद भी इसी वंश में कीर्ति नामक एक राजा और हुआ था । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 45.24-25 </span></p> | ||
<p id="5">(5) समवसरण में सभागृहों के आगे के तीसरे कोट के पूर्वी द्वार के आठ नामों में एक नाम । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 57.56-57 </span></p> | <p id="5">(5) समवसरण में सभागृहों के आगे के तीसरे कोट के पूर्वी द्वार के आठ नामों में एक नाम । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 57.56-57 </span></p> | ||
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Revision as of 16:53, 14 November 2020
(1) एक आचार्य । इन्होंने वर्द्धमान जिनेंद्र द्वारा कथित रामकथारूप अर्थ आचार्य प्रभव से प्राप्त किया था । पद्मपुराण 1.41-42
(2) एक दिक्कुमारी व्यंतर देवी । यह गर्भावस्था में तीर्थंकर की माता की स्तुति करती है । इसकी आयु एक पल्य होती है । यह केसरी नाम के विशाल सरोवर के कमलों पर निर्मित भवन में रहती है । छ: मातृकाओं में यह इंद्र की एक वल्लभा है । महापुराण 12. 163-164, 38.226, 63.200, पद्मपुराण 3.112-113, हरिवंशपुराण 5.121, 1305131, वीरवर्द्धमान चरित्र 7.105-108
(3) परमेष्ठियों के गुणरूप सत्ताईस सूत्रपदों में एक सूत्रपद । इसके प्राप्त होने पर पारिव्राज्य का लक्षण प्रकट होता है । जो कीर्ति की इच्छा का परित्याग करके अपने गुणों की प्रशंसा करना छोड़ देता है और महातपश्चरण करता हुआ स्तुति तथा निंदा में समानभाव रखता है वह तीनों लोकों के इंद्रों के द्वारा स्वत: प्रशंसित होता है । महापुराण 39.162-165, 191
(4) कुरुवंश में उत्पन्न हुए चक्रवर्ती महापद्म की वंशपरंपरा में राजा कुलकीर्ति के पश्चात् हुआ एक नृप । सुकीर्ति इन्हीं के बाद इस वंश का शासक हुआ था । सुकीर्ति के बाद भी इसी वंश में कीर्ति नामक एक राजा और हुआ था । हरिवंशपुराण 45.24-25
(5) समवसरण में सभागृहों के आगे के तीसरे कोट के पूर्वी द्वार के आठ नामों में एक नाम । हरिवंशपुराण 57.56-57