क्षुधापरीषह: Difference between revisions
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<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/9/420/6 </span><span class="SanskritText">भिक्षोर्निवद्याहारगवेषिणस्तदलाभे ईषल्लाभे च अनिवृत्तवेदनस्याकाले अदेशे च भिक्षां प्रति निवृत्तेच्छस्य...संतप्तभ्राष्ट्रपतितजलबिंदुकतिपयवत्सहसा परिशुष्कपानस्योदीर्णक्षुद्वेदनस्यापि सतो सतोभिक्षालाभादलाभमधिकगुणं मन्यमानस्य क्षुद्बाधाप्रत्यचिंतनं क्षुद्विजय:।</span>=<span class="HindiText">जो भिक्षु निर्दोष आहार का शोध करता है। जो भिक्षा के नहीं मिलने पर या अल्प मात्रा में मिलने पर क्षुधा की वेदना को प्राप्त नहीं होता, अकाल में या अदेश में जिसे भिक्षा लेने की इच्छा नहीं होती...अत्यंत गर्म भांड में गिरी हुई जल की कतिपय बूँदों के समान जिसका जलपान सूख गया है, और क्षुधा वेदना की उदीरणा होने पर भी जो भिक्षा लाभ की अपेक्षा उसके अलाभ को अधिक गुणकारी मानता है, उसका क्षुधाजन्य बाधा का चिंतन नहीं करना क्षुधापरीषहजय है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/9/2/608 </span>); (<span class="GRef"> चारित्रसार/108/5 </span>)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> क्षुधा और पिपासा में अंतर</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> क्षुधा और पिपासा में अंतर</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/9/4/608/31 </span><span class="SanskritText">क्षुत्पिपासयो; पृथग्वचनमनर्थकम् । कुत:। ऐकार्थ्यादिति; तन्न; किं कारणम् । सामर्थ्यभेदात् । अन्यद्धि क्षुध: सामर्थ्यमन्यत्पिपासाया:। अभ्यवहारसामान्यात् एकार्थमिति; तदपि न युक्तम्; कुत:। अधिकरणभेदात् । अन्यद्धि क्षुध: प्रतीकाराधिकरणम्, अन्यत् पिपासाया:।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न—</strong>क्षुधा परीषह और पिपासा परीषह को पृथक् पृथक् कहना व्यर्थ है, क्योंकि दोनों का एक ही अर्थ है। <strong>उत्तर—</strong>ऐसा नहीं है। क्योंकि भूख और प्यास की सामर्थ्य जुदी-जुदी है। <strong>प्रश्न—</strong>अभ्यवहार सामान्य होने से दोनों एक ही हैं। <strong>उत्तर—</strong>ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि दोनों में अधिकरण भेद है अर्थात् दोनों की शांति के साधन पृथक् पृथक् हैं। </span></li> | |||
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Revision as of 12:59, 14 October 2020
- लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/9/9/420/6 भिक्षोर्निवद्याहारगवेषिणस्तदलाभे ईषल्लाभे च अनिवृत्तवेदनस्याकाले अदेशे च भिक्षां प्रति निवृत्तेच्छस्य...संतप्तभ्राष्ट्रपतितजलबिंदुकतिपयवत्सहसा परिशुष्कपानस्योदीर्णक्षुद्वेदनस्यापि सतो सतोभिक्षालाभादलाभमधिकगुणं मन्यमानस्य क्षुद्बाधाप्रत्यचिंतनं क्षुद्विजय:।=जो भिक्षु निर्दोष आहार का शोध करता है। जो भिक्षा के नहीं मिलने पर या अल्प मात्रा में मिलने पर क्षुधा की वेदना को प्राप्त नहीं होता, अकाल में या अदेश में जिसे भिक्षा लेने की इच्छा नहीं होती...अत्यंत गर्म भांड में गिरी हुई जल की कतिपय बूँदों के समान जिसका जलपान सूख गया है, और क्षुधा वेदना की उदीरणा होने पर भी जो भिक्षा लाभ की अपेक्षा उसके अलाभ को अधिक गुणकारी मानता है, उसका क्षुधाजन्य बाधा का चिंतन नहीं करना क्षुधापरीषहजय है। ( राजवार्तिक/9/9/2/608 ); ( चारित्रसार/108/5 )।
- क्षुधा और पिपासा में अंतर
राजवार्तिक/9/9/4/608/31 क्षुत्पिपासयो; पृथग्वचनमनर्थकम् । कुत:। ऐकार्थ्यादिति; तन्न; किं कारणम् । सामर्थ्यभेदात् । अन्यद्धि क्षुध: सामर्थ्यमन्यत्पिपासाया:। अभ्यवहारसामान्यात् एकार्थमिति; तदपि न युक्तम्; कुत:। अधिकरणभेदात् । अन्यद्धि क्षुध: प्रतीकाराधिकरणम्, अन्यत् पिपासाया:।=प्रश्न—क्षुधा परीषह और पिपासा परीषह को पृथक् पृथक् कहना व्यर्थ है, क्योंकि दोनों का एक ही अर्थ है। उत्तर—ऐसा नहीं है। क्योंकि भूख और प्यास की सामर्थ्य जुदी-जुदी है। प्रश्न—अभ्यवहार सामान्य होने से दोनों एक ही हैं। उत्तर—ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि दोनों में अधिकरण भेद है अर्थात् दोनों की शांति के साधन पृथक् पृथक् हैं।