जयवर्मा: Difference between revisions
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―( महापुराण/5/ श्लोक नं.) गंधिला देश में सिंहपुरनगर के राजा श्रीषेण का पुत्र था।205। पिता द्वारा छोटे भाई को राज्य दिया जाने के कारण विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली।207-208। आकाश में से जाते हुए महीधर नाम के विद्याधर को देखकर विद्याधरों के भोगों की प्राप्ति का निदान किया। उसी समय सर्पदंश के निमित्त से मरकर महाबल नाम का विद्याधर हुआ।209-211। यह ऋषभदेव के पूर्व का दसवाँ भव है–देखें [[ ऋषभ ]]। | ―(<span class="GRef"> महापुराण/5/ </span>श्लोक नं.) गंधिला देश में सिंहपुरनगर के राजा श्रीषेण का पुत्र था।205। पिता द्वारा छोटे भाई को राज्य दिया जाने के कारण विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली।207-208। आकाश में से जाते हुए महीधर नाम के विद्याधर को देखकर विद्याधरों के भोगों की प्राप्ति का निदान किया। उसी समय सर्पदंश के निमित्त से मरकर महाबल नाम का विद्याधर हुआ।209-211। यह ऋषभदेव के पूर्व का दसवाँ भव है–देखें [[ ऋषभ ]]। | ||
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Revision as of 13:00, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से == ―( महापुराण/5/ श्लोक नं.) गंधिला देश में सिंहपुरनगर के राजा श्रीषेण का पुत्र था।205। पिता द्वारा छोटे भाई को राज्य दिया जाने के कारण विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली।207-208। आकाश में से जाते हुए महीधर नाम के विद्याधर को देखकर विद्याधरों के भोगों की प्राप्ति का निदान किया। उसी समय सर्पदंश के निमित्त से मरकर महाबल नाम का विद्याधर हुआ।209-211। यह ऋषभदेव के पूर्व का दसवाँ भव है–देखें ऋषभ ।
पुराणकोष से
(1) विदेहस्थ गंधिल देश के सिंहपुर नगर के राजा श्रीषेण का ज्येष्ठ पुत्र । पिता के द्वारा छोटे भाई को राज्य दिये जाने के कारण विरक्त होकर इसने स्वयंप्रभ गुरु से दीक्षा ले ली थी । आकाश से महीधर नामक विद्याधर को जाते देखकर इसने विद्याधरों के भोगों की प्राप्ति का निदान किया था और उसी समय सर्पदंश के निमित्त से भरकर पूर्वकृत निदानवश महाबल नाम का विद्याधर हुआ था । महापुराण 5.204-211
(2) अयोध्या नगर का राजा । यह रानी सुप्रभा का पति और अजितंजय का पिता था । इसने अभिनंदन नामक मुनि से दीक्षा ली थी तथा आचाम्लवर्धन नामक तप से कर्मबंधन से मुक्त होकर अविनाशी परमपद प्राप्त किया था । महापुराण 44.106-107
(3) राजा जयकुमार के पक्ष का एक मुकुटबद्ध भूपाल । यह श्रीपाल की पत्नी जयावती का भाई और जयसेना का पिता था । इसने जयकुमार की ससैन्य सहायता की थी । महापुराण 47.174,44. 106-107, पांडवपुराण 3.94-95