नि:शंकित: Difference between revisions
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<span class="GRef"> समयसार/228 </span><span class="PrakritGatha">सम्मदिट्ठी जीवा णिस्संका होंति णिब्भया। सत्तभयविप्पमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्संका।228। </span>=<span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि जीव नि:शंक होते हैं, इसलिए निर्भय होते हैं। क्योंकि वे सप्तभयों से रहित होते हैं, इसलिए नि:शंक होते हैं। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/24/1/529/8 </span>) (<span class="GRef"> चारित्रसार/4/3 </span>) (<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/481 </span>)।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/227/ </span>क.154 <span class="SanskritText">सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कर्तुं क्षमंते परं, यद्वज्रेऽपि पतत्यमी भयचलत्त्रैलोक्यमुक्तध्वनि। सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शंकां विहाय स्वयं, जानंत: स्वमबध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यवंतो न हि।154।</span>=<span class="HindiText">जिसके भय से चलायमान होते हुए, तीनों लोक अपने मार्ग को छोड़ देते हैं–ऐसा वज्रपात होने पर भी, ये सम्यग्दृष्टिजीव स्वभावत: निर्भय होने से, समस्त शंका को छोड़कर, स्वयं अपने अबध्य ज्ञानशरीरी जानते हुए, ज्ञान से च्युत नहीं होते। ऐसा परम साहस करने के लिए मात्र सम्यग्दृष्टि ही समर्थ है। (विशेष दे.<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/228/ </span>क.155-160)।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह/41/171/1 </span><span class="SanskritText">निश्चयनयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिशंकितगुणस्य सहकारित्वेनेहलोकात्राणगुप्तिव्याधिवेदनाकस्मिकाभिधानभयसप्तकं मुक्त्वा घोरोपसर्ग परीषहप्रस्तावेऽपि शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयभावेनैव नि:शंकगुणो ज्ञातव्य इति।</span>=<span class="HindiText">निश्चय नय से उस व्यवहार नि:शंका गुण की (देखो आगे) सहायता से इस लोक का भय, आदि सात भयों (देखें [[ भय ]]) को छोड़कर घोर उपसर्ग तथा परीषहों के आने पर भी शुद्ध उपयोगरूप जो निश्चय रत्नत्रय है उसकी भावना को ही नि:शंक गुण जानना चाहिए।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> व्यवहार लक्षण―अर्हद्ववचन व तत्त्वादि में शंका का अभाव</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> व्यवहार लक्षण―अर्हद्ववचन व तत्त्वादि में शंका का अभाव</strong></span><br /> | ||
मू.आ./248 <span class="PrakritGatha">णव य पदत्था एदे जिणदिट्ठा वण्णिदा मए तच्चा। तत्थ भवे जा संका दंसणघादी हवदि एसो।248।</span> =<span class="HindiText">जिन भगवान् द्वारा उपदिष्ट ये नौ पदार्थ, यथार्थ स्वरूप से मैंने (आ.वद्दकेर स्वामी ने) वर्णन किये हैं। इनमें जो शंका का होना वह दर्शन को घातने वाला पहिला दोष है।</span><br /> | मू.आ./248 <span class="PrakritGatha">णव य पदत्था एदे जिणदिट्ठा वण्णिदा मए तच्चा। तत्थ भवे जा संका दंसणघादी हवदि एसो।248।</span> =<span class="HindiText">जिन भगवान् द्वारा उपदिष्ट ये नौ पदार्थ, यथार्थ स्वरूप से मैंने (आ.वद्दकेर स्वामी ने) वर्णन किये हैं। इनमें जो शंका का होना वह दर्शन को घातने वाला पहिला दोष है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/11 </span><span class="SanskritGatha">इदमेवेदृशमेव तत्त्वं नात्यन्न चान्यथा। इत्यकं पायसांभोवत्सन्मार्गेऽसंशया रुचि:।11।</span> =<span class="HindiText">वस्तु का स्वरूप यही है और नहीं है, इसी प्रकार का है अन्य प्रकार का नहीं है, इस प्रकार से जैनमार्ग में तलवार के पानी (आब) के समान निश्चल श्रद्धान नि:शंकित अंग कहा जाता है। (<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/415 </span>)।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/24/1/529/9 </span><span class="SanskritText">अर्हदुपदिष्टेवा प्रवचने किमिदं स्याद्वा न वेति शंकानिरासो नि:शंकितत्वम् ।</span>=<span class="HindiText">अर्हंत उपदिष्ट प्रवचन में ‘क्या ऐसा ही है या नहीं’ इस प्रकार की शंका का निरास करना नि:शंकितपना है। (<span class="GRef"> चारित्रसार/4/4 </span>); (<span class="GRef"> पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/23 </span>) (<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/414 </span>) (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/2/72/200 </span>)।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/41/169/10 </span><span class="SanskritText">रागादिदोषा अज्ञानं वासत्यवचनकारणं तदुभयमपि वीतरागसर्वज्ञानां नास्ति तत: कारणात्तत्प्रणीते हेयोपादेयतत्त्वे मोक्षे मोक्षमार्गे च भव्यै: संशय: संदेहो न कर्त्तव्य:।...इदं व्यवहारेण सम्यक्त्वस्य व्याख्यानम् ।</span>=<span class="HindiText">राग आदि दोष तथा अज्ञान ये दोनों असत्य बोलने के कारण हैं और ये दोनों ही वीतराग सर्वज्ञ जिनेंद्र देव में नहीं हैं, इस कारण उनके द्वारा निरूपित हेयोपादेय तत्त्व में मोक्ष में और मोक्षमार्ग में भव्य जीवों को संशय नहीं करना चाहिए।...यह व्यवहारनय से सम्यक्त्व का व्याख्यान किया गया।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/482 </span><span class="SanskritText">अर्थवशादत्र सूत्रार्थे शंका न स्यान्मनीषिणाम् । सूक्ष्मांतरितदूरार्था: स्युस्तदास्तिक्यगोचरा:। </span>=<span class="HindiText">सूक्ष्म अंतरित और दूरवर्ती पदार्थ सम्यग्दृष्टि को आस्तिक्यगोचर है, इसलिए उसको, इनके अस्तित्व का प्रतिपादन करने वाले आगम में किसी प्रयोजनवश कभी भी शंका नहीं होती है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> नि:शंकित अंग की प्रधानता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> नि:शंकित अंग की प्रधानता</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/2/73/201 </span><span class="SanskritGatha">सुरुचि: कृतनिश्चयोऽपि हंतुं द्विषत: प्रत्ययमाश्रित: स्पृशंतम् । उभयीं जिनवाचि कोटिमाजौ तुरगं वीर इव प्रतीर्यते तै:।73।</span> =<span class="HindiText">मोहादिक के रुचिपूर्वक हनन का निश्चय करने पर भी यदि जिन वचन के विषय में दोनों कोटियों के संशयरूप ज्ञान पर आरूढ रहे, (अर्थात् वस्तु अंशों के संबंध में ‘ऐसा ही है अथवा अन्यथा है’ ऐसा संशय बना रहे) तो इधर उधर भागने वाले घोड़े पर आरूढ योद्धावत् वैरियों द्वारा मारा जाता है अर्थात् मिथ्यात्व को प्राप्त होता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि को कदाचित् तत्त्वों में संदेह होना संभव है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि को कदाचित् तत्त्वों में संदेह होना संभव है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़/1/1,1/126/3 </span><span class="PrakritText"> संसयविवज्जासाणज्झवसायभावगयगणहरदेव पडि पट्टमाणसहावा। </span>=<span class="HindiText">गणधरदेव के संशय विपर्यय और अनध्यवसाय भाव को प्राप्त होने पर (उसको दूर करने के लिए) उनके प्रति प्रवृत्ति करना (दिव्यध्वनि का) स्वभाव है।<br /> | |||
देखें [[ अनुभाग#4 | अनुभाग - 4 ]]सम्यग्दर्शन का घात नहीं करने वाला संदेह सम्यग्प्रकृति के उदय से होता है और सर्वघातीसंदेह मिथ्यात्व के उदय से होता है।<br /> | देखें [[ अनुभाग#4 | अनुभाग - 4 ]]सम्यग्दर्शन का घात नहीं करने वाला संदेह सम्यग्प्रकृति के उदय से होता है और सर्वघातीसंदेह मिथ्यात्व के उदय से होता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> सम्यग्दृष्टि को भय न होने का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> सम्यग्दृष्टि को भय न होने का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/288/ </span>क.155<span class="SanskritText"> लोक: शाश्वत एक एष सकलव्यक्तो विविक्तात्मनश्चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येकक:। लोकोऽयं न तवापरस्तदपरस्तस्यास्ति तद्भी: कुतो, निश्शंक: सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति।155।</span> =<span class="HindiText">यह चित्स्वरूप ही इस विविक्त आत्मा का शाश्वत, एक और सकलव्यक्त लोक है, क्योंकि मात्र चित्स्वरूप लोक को यह ज्ञानी आत्मा स्वयमेव एकाकी देखता है–अनुभव करता है। यह चित्स्वरूप लोक ही तेरा है, उससे भिन्न दूसरा कोई लोक–यह लोक या परलोक–तेरा नहीं है, ऐसा ज्ञानी विचार करता है, जानता है। इसलिए ज्ञानी को इस लोक का तथा परलोक का भय कहाँ से हो? वह तो स्वयं निरंतर नि:शंक वर्तता हुआ सहज ज्ञान का सदा अनुभव करता है। (कलश 156-160 में इसी प्रकार अन्य भी छहों भयों के लिए कहा गया है।) (<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/514,522,527,535,542,546 </span>)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> सम्यग्दृष्टि का भय भय नहीं होता</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> सम्यग्दृष्टि का भय भय नहीं होता</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध </span>श्लोक नं. <span class="SanskritGatha">परत्रात्मानुभूतेर्वै विना भीति: कुतस्तनी। भीति: पर्यायमूढानां नात्मतत्त्वैकचेतसाम् ।495। ननु संति चतस्रोऽपि संज्ञास्तस्यास्य कस्यचित् । अर्वाक् च तत् परि (स्थिति) च्छेदस्थानादस्तित्वसंभवात् ।498। तत्कथं नाम निर्भीक: सर्वतो दृष्टिवानपि। अप्यनिष्टार्थसंयोगादस्त्यध्यक्षं प्रयत्नवान् ।499। सत्यं भीकोऽपि निर्भीकस्तत्स्वामित्वाद्यभावत:। रूपि द्रव्यं यथा चक्षु: पश्यदपि न पश्यति।509। सम्यग्दृष्टि: सदैकत्वं स्वं समासादयन्निव। यावत्कर्मातिरिक्तत्वाच्छुद्धमत्येति चिन्मयम् ।512। शरीरं सुखदु:खादि पुत्रपौत्रादिकं तथा। अनित्यं कर्मकार्यत्वादस्वरूपमवैति य:।513।</span> =<span class="HindiText">निश्चय करके परपदार्थों में आत्मीय बुद्धि के बिना भय कैसे हो सकता है, अत: पर्यायों में मोह करने वाले मिथ्यादृष्टियों को ही भय होता है, केवल शुद्ध आत्मा का अनुभव करने वाले सम्यग्दृष्टियों को भय नहीं होता।495। <strong>प्रश्न</strong>–किसी सम्यग्दृष्टि के भी आहार भय मैथुन व परिग्रह ये चारों संज्ञाएँ होती हैं, क्योंकि जिस गुणस्थान तक जिस जिस संज्ञा की व्युच्छित्ति नहीं होती है (देखें [[ संज्ञा#8 | संज्ञा - 8]]) उस गुणस्थान तक या उससे पहिले के गुणस्थानों में वे वे संज्ञाएँ पायी जाती हैं।498। इसलिए सम्यग्दृष्टि सर्वथा निर्भीक कैसे हो सकता है। और वह प्रत्यक्ष में भी अनिष्ट पदार्थ के संयोग के होने से उसकी निवृत्ति के लिए प्रयत्नवान् देखा जाता है? <strong>उत्तर</strong>–ठीक है; किंतु सम्यग्दृष्टि के परपदार्थों में स्वामित्व नहीं होता है, अत: वह भयवान् होकर के भी निर्भीक है। जैसे कि–चक्षु इंद्रिय रूपी द्रव्य को देखने पर भी यदि उधर उपयुक्त न हो तो देख नहीं पाता।500। सम्यग्दृष्टि जीव संपूर्ण कर्मों से भिन्न होने के कारण अपने केवल सत्सवरूप एकता को प्राप्त करता हुआ ही मानो, उसको शुद्ध चिन्मय रूप से अनुभव करता है।512। और वह कर्मों के फलरूप शरीर सुख दुख आदि पुत्र पौत्र आदि को अनित्य तथा आत्मस्वरूप से भिन्न समझता है।513। [इसलिए उसे भय कैसे हो सकता है–(देखें [[ इससे पहले वाला शीर्षक ]])] (<span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/ </span>पं.जयचंद/2/11/3)।<br><span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/ </span>पं.जयचंद/2/11/10 भय होतै ताका इलाज भागना इत्यादि करै है, तहाँ वर्तमान की पीड़ा नहीं सही जाय तातै इलाज करै है। यह निर्बंलाई का दोष है। </span></li> | |||
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Revision as of 13:00, 14 October 2020
- नि:शंकितगुण का लक्षण
- निश्चय लक्षण–सप्तभय रहितता
समयसार/228 सम्मदिट्ठी जीवा णिस्संका होंति णिब्भया। सत्तभयविप्पमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्संका।228। =सम्यग्दृष्टि जीव नि:शंक होते हैं, इसलिए निर्भय होते हैं। क्योंकि वे सप्तभयों से रहित होते हैं, इसलिए नि:शंक होते हैं। ( राजवार्तिक/6/24/1/529/8 ) ( चारित्रसार/4/3 ) ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/481 )।
समयसार / आत्मख्याति/227/ क.154 सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कर्तुं क्षमंते परं, यद्वज्रेऽपि पतत्यमी भयचलत्त्रैलोक्यमुक्तध्वनि। सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शंकां विहाय स्वयं, जानंत: स्वमबध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यवंतो न हि।154।=जिसके भय से चलायमान होते हुए, तीनों लोक अपने मार्ग को छोड़ देते हैं–ऐसा वज्रपात होने पर भी, ये सम्यग्दृष्टिजीव स्वभावत: निर्भय होने से, समस्त शंका को छोड़कर, स्वयं अपने अबध्य ज्ञानशरीरी जानते हुए, ज्ञान से च्युत नहीं होते। ऐसा परम साहस करने के लिए मात्र सम्यग्दृष्टि ही समर्थ है। (विशेष दे. समयसार / आत्मख्याति/228/ क.155-160)।
द्रव्यसंग्रह/41/171/1 निश्चयनयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिशंकितगुणस्य सहकारित्वेनेहलोकात्राणगुप्तिव्याधिवेदनाकस्मिकाभिधानभयसप्तकं मुक्त्वा घोरोपसर्ग परीषहप्रस्तावेऽपि शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयभावेनैव नि:शंकगुणो ज्ञातव्य इति।=निश्चय नय से उस व्यवहार नि:शंका गुण की (देखो आगे) सहायता से इस लोक का भय, आदि सात भयों (देखें भय ) को छोड़कर घोर उपसर्ग तथा परीषहों के आने पर भी शुद्ध उपयोगरूप जो निश्चय रत्नत्रय है उसकी भावना को ही नि:शंक गुण जानना चाहिए।
- व्यवहार लक्षण―अर्हद्ववचन व तत्त्वादि में शंका का अभाव
मू.आ./248 णव य पदत्था एदे जिणदिट्ठा वण्णिदा मए तच्चा। तत्थ भवे जा संका दंसणघादी हवदि एसो।248। =जिन भगवान् द्वारा उपदिष्ट ये नौ पदार्थ, यथार्थ स्वरूप से मैंने (आ.वद्दकेर स्वामी ने) वर्णन किये हैं। इनमें जो शंका का होना वह दर्शन को घातने वाला पहिला दोष है।
रत्नकरंड श्रावकाचार/11 इदमेवेदृशमेव तत्त्वं नात्यन्न चान्यथा। इत्यकं पायसांभोवत्सन्मार्गेऽसंशया रुचि:।11। =वस्तु का स्वरूप यही है और नहीं है, इसी प्रकार का है अन्य प्रकार का नहीं है, इस प्रकार से जैनमार्ग में तलवार के पानी (आब) के समान निश्चल श्रद्धान नि:शंकित अंग कहा जाता है। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/415 )।
राजवार्तिक/6/24/1/529/9 अर्हदुपदिष्टेवा प्रवचने किमिदं स्याद्वा न वेति शंकानिरासो नि:शंकितत्वम् ।=अर्हंत उपदिष्ट प्रवचन में ‘क्या ऐसा ही है या नहीं’ इस प्रकार की शंका का निरास करना नि:शंकितपना है। ( चारित्रसार/4/4 ); ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/23 ) ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/414 ) ( अनगारधर्मामृत/2/72/200 )।
द्रव्यसंग्रह टीका/41/169/10 रागादिदोषा अज्ञानं वासत्यवचनकारणं तदुभयमपि वीतरागसर्वज्ञानां नास्ति तत: कारणात्तत्प्रणीते हेयोपादेयतत्त्वे मोक्षे मोक्षमार्गे च भव्यै: संशय: संदेहो न कर्त्तव्य:।...इदं व्यवहारेण सम्यक्त्वस्य व्याख्यानम् ।=राग आदि दोष तथा अज्ञान ये दोनों असत्य बोलने के कारण हैं और ये दोनों ही वीतराग सर्वज्ञ जिनेंद्र देव में नहीं हैं, इस कारण उनके द्वारा निरूपित हेयोपादेय तत्त्व में मोक्ष में और मोक्षमार्ग में भव्य जीवों को संशय नहीं करना चाहिए।...यह व्यवहारनय से सम्यक्त्व का व्याख्यान किया गया।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/482 अर्थवशादत्र सूत्रार्थे शंका न स्यान्मनीषिणाम् । सूक्ष्मांतरितदूरार्था: स्युस्तदास्तिक्यगोचरा:। =सूक्ष्म अंतरित और दूरवर्ती पदार्थ सम्यग्दृष्टि को आस्तिक्यगोचर है, इसलिए उसको, इनके अस्तित्व का प्रतिपादन करने वाले आगम में किसी प्रयोजनवश कभी भी शंका नहीं होती है।
- निश्चय लक्षण–सप्तभय रहितता
- नि:शंकित अंग की प्रधानता
अनगारधर्मामृत/2/73/201 सुरुचि: कृतनिश्चयोऽपि हंतुं द्विषत: प्रत्ययमाश्रित: स्पृशंतम् । उभयीं जिनवाचि कोटिमाजौ तुरगं वीर इव प्रतीर्यते तै:।73। =मोहादिक के रुचिपूर्वक हनन का निश्चय करने पर भी यदि जिन वचन के विषय में दोनों कोटियों के संशयरूप ज्ञान पर आरूढ रहे, (अर्थात् वस्तु अंशों के संबंध में ‘ऐसा ही है अथवा अन्यथा है’ ऐसा संशय बना रहे) तो इधर उधर भागने वाले घोड़े पर आरूढ योद्धावत् वैरियों द्वारा मारा जाता है अर्थात् मिथ्यात्व को प्राप्त होता है।
- क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि को कदाचित् तत्त्वों में संदेह होना संभव है
कषायपाहुड़/1/1,1/126/3 संसयविवज्जासाणज्झवसायभावगयगणहरदेव पडि पट्टमाणसहावा। =गणधरदेव के संशय विपर्यय और अनध्यवसाय भाव को प्राप्त होने पर (उसको दूर करने के लिए) उनके प्रति प्रवृत्ति करना (दिव्यध्वनि का) स्वभाव है।
देखें अनुभाग - 4 सम्यग्दर्शन का घात नहीं करने वाला संदेह सम्यग्प्रकृति के उदय से होता है और सर्वघातीसंदेह मिथ्यात्व के उदय से होता है।
- सम्यग्दृष्टि को कदाचित् अंध श्रद्धान भी होता है–देखें श्रद्धान - 2।
- भय के भेद व लक्षण
- सम्यग्दृष्टि को भय न होने का कारण व प्रयोजन
समयसार / आत्मख्याति/288/ क.155 लोक: शाश्वत एक एष सकलव्यक्तो विविक्तात्मनश्चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येकक:। लोकोऽयं न तवापरस्तदपरस्तस्यास्ति तद्भी: कुतो, निश्शंक: सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति।155। =यह चित्स्वरूप ही इस विविक्त आत्मा का शाश्वत, एक और सकलव्यक्त लोक है, क्योंकि मात्र चित्स्वरूप लोक को यह ज्ञानी आत्मा स्वयमेव एकाकी देखता है–अनुभव करता है। यह चित्स्वरूप लोक ही तेरा है, उससे भिन्न दूसरा कोई लोक–यह लोक या परलोक–तेरा नहीं है, ऐसा ज्ञानी विचार करता है, जानता है। इसलिए ज्ञानी को इस लोक का तथा परलोक का भय कहाँ से हो? वह तो स्वयं निरंतर नि:शंक वर्तता हुआ सहज ज्ञान का सदा अनुभव करता है। (कलश 156-160 में इसी प्रकार अन्य भी छहों भयों के लिए कहा गया है।) ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/514,522,527,535,542,546 )।
- सम्यग्दृष्टि का भय भय नहीं होता
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक नं. परत्रात्मानुभूतेर्वै विना भीति: कुतस्तनी। भीति: पर्यायमूढानां नात्मतत्त्वैकचेतसाम् ।495। ननु संति चतस्रोऽपि संज्ञास्तस्यास्य कस्यचित् । अर्वाक् च तत् परि (स्थिति) च्छेदस्थानादस्तित्वसंभवात् ।498। तत्कथं नाम निर्भीक: सर्वतो दृष्टिवानपि। अप्यनिष्टार्थसंयोगादस्त्यध्यक्षं प्रयत्नवान् ।499। सत्यं भीकोऽपि निर्भीकस्तत्स्वामित्वाद्यभावत:। रूपि द्रव्यं यथा चक्षु: पश्यदपि न पश्यति।509। सम्यग्दृष्टि: सदैकत्वं स्वं समासादयन्निव। यावत्कर्मातिरिक्तत्वाच्छुद्धमत्येति चिन्मयम् ।512। शरीरं सुखदु:खादि पुत्रपौत्रादिकं तथा। अनित्यं कर्मकार्यत्वादस्वरूपमवैति य:।513। =निश्चय करके परपदार्थों में आत्मीय बुद्धि के बिना भय कैसे हो सकता है, अत: पर्यायों में मोह करने वाले मिथ्यादृष्टियों को ही भय होता है, केवल शुद्ध आत्मा का अनुभव करने वाले सम्यग्दृष्टियों को भय नहीं होता।495। प्रश्न–किसी सम्यग्दृष्टि के भी आहार भय मैथुन व परिग्रह ये चारों संज्ञाएँ होती हैं, क्योंकि जिस गुणस्थान तक जिस जिस संज्ञा की व्युच्छित्ति नहीं होती है (देखें संज्ञा - 8) उस गुणस्थान तक या उससे पहिले के गुणस्थानों में वे वे संज्ञाएँ पायी जाती हैं।498। इसलिए सम्यग्दृष्टि सर्वथा निर्भीक कैसे हो सकता है। और वह प्रत्यक्ष में भी अनिष्ट पदार्थ के संयोग के होने से उसकी निवृत्ति के लिए प्रयत्नवान् देखा जाता है? उत्तर–ठीक है; किंतु सम्यग्दृष्टि के परपदार्थों में स्वामित्व नहीं होता है, अत: वह भयवान् होकर के भी निर्भीक है। जैसे कि–चक्षु इंद्रिय रूपी द्रव्य को देखने पर भी यदि उधर उपयुक्त न हो तो देख नहीं पाता।500। सम्यग्दृष्टि जीव संपूर्ण कर्मों से भिन्न होने के कारण अपने केवल सत्सवरूप एकता को प्राप्त करता हुआ ही मानो, उसको शुद्ध चिन्मय रूप से अनुभव करता है।512। और वह कर्मों के फलरूप शरीर सुख दुख आदि पुत्र पौत्र आदि को अनित्य तथा आत्मस्वरूप से भिन्न समझता है।513। [इसलिए उसे भय कैसे हो सकता है–(देखें इससे पहले वाला शीर्षक )] ( दर्शनपाहुड़/ पं.जयचंद/2/11/3)।
दर्शनपाहुड़/ पं.जयचंद/2/11/10 भय होतै ताका इलाज भागना इत्यादि करै है, तहाँ वर्तमान की पीड़ा नहीं सही जाय तातै इलाज करै है। यह निर्बंलाई का दोष है।
- संशय अतिचार व संशय मिथ्यात्व में अंतर–देखें संशय - 5।