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<strong>शुभनंदि रविनंदि</strong>-<span>इंद्रनंदी कृत श्रुतावतार श्लोक 171-173 के अनुसार आपको आचार्य परंपरा से षट्‌खंडागम विषयक सिद्धांतों का ज्ञान प्राप्त था। इनके समीप में श्रवण करके ही आ.बप्पदेव ने षट्‌खंडागम तथा कषायपाहुड़ पर व्याख्या लिखी थी। प्राचीन श्रुतधरों की श्रेणी में बैठाकर यद्यपि डा.नेमिचंद ने इन्हें वी.नि.श.5-6 (ई.श.1) में स्थापित करने का प्रयत्न किया है, परंतु उनकी यह कल्पना इसलिये कुछ संगत प्रतीत नहीं होती क्योंकि षट्‌खंडागम के रचयिता आ.भूतबलि के काल की पूर्वाविधि वी.नि.593 से ऊपर किसी प्रकार भी ले जायी जानी संभव नहीं है। (देखें [[ कोष ]]।/परिशिष्ट 2)।</span></p> | <strong>शुभनंदि रविनंदि</strong>-<span>इंद्रनंदी कृत श्रुतावतार श्लोक 171-173 के अनुसार आपको आचार्य परंपरा से षट्‌खंडागम विषयक सिद्धांतों का ज्ञान प्राप्त था। इनके समीप में श्रवण करके ही आ.बप्पदेव ने षट्‌खंडागम तथा कषायपाहुड़ पर व्याख्या लिखी थी। प्राचीन श्रुतधरों की श्रेणी में बैठाकर यद्यपि डा.नेमिचंद ने इन्हें वी.नि.श.5-6 (ई.श.1) में स्थापित करने का प्रयत्न किया है, परंतु उनकी यह कल्पना इसलिये कुछ संगत प्रतीत नहीं होती क्योंकि षट्‌खंडागम के रचयिता आ.भूतबलि के काल की पूर्वाविधि वी.नि.593 से ऊपर किसी प्रकार भी ले जायी जानी संभव नहीं है। (देखें [[ कोष ]]।/परिशिष्ट 2)।</span></p> | ||
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<strong>षट्‌खंडागम</strong>-<span>भगवान् महावीर से आचार्य परंपरा द्वारा आगत श्रुतज्ञान का अंश होने से कषायपाहुड़ के पश्चात् षट्‌खंडागम ही दिगंबर आम्नाय का द्वितीय महनीय ग्रंथ है। अग्रायणी नामक द्वितीय पूर्व के ‘महाकर्म्मप्रकृति’ नामक चौथे प्राभृत का विवेचन इसमें निबद्ध है (जै./1/61)। इसका असली नाम क्या था यह आज ज्ञात नहीं है। जीवस्थान आदि छ: खंडों में विभक्त होने के कारण इसका ‘षट्‌खंडागम’ नाम प्रसिद्ध हो गया है। (जै./1/51)। इसके प्रत्येक खंड में अनेक-अनेक अधिकार हैं। जैसे कि जीवस्थान नामक प्रथम खंड में सत्प्ररूपणा, द्रव्य प्रमाणानुगम आदि आठ अधिकार हैं। इसके रचयिता के विषय में धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी ने यह लिखा है कि "आ.पुष्पदंत ने 'वीसदि' नामक सूत्रों की रचना की, और उन सूत्रों को देखकर आ.भूतबलि ने द्रव्य प्रमाणानुगम आदि विशिष्ट ग्रंथ की रचना की" । ( धवला 1/ पृष्ठ 71)। इस 'अवशिष्ट' शब्द पर से यह अनुमान होता है कि आ.पुष्पदंत (ई.66-106) द्वारा रचित 'वीसदि' सूत्र ही जीवस्थान नामक प्रथम खंड का सत्प्ररूपणा नामक प्रथम अधिकार है जिसमें बीस प्ररूपणाओं का विवेचन निबद्ध है। इस खंड के शेष सात अधिकार तथा उनके आगे शेष पांच खंड आ.भूतबलि की रचना है। यदि इन दोनों ने आ.धरसेन (वी.नि.630) के पास इस सिद्धांत का अध्ययन किया है तो इस ग्रंथ के आद्य तीन खंडों की रचना वी.नि.650 (ई.123) के आसपास स्थापित की जा सकती है (जै./2/123) और ये तीन खंड टीका लिखने के लिये आ.कुंदकुंद (ई.127) को प्राप्त हो सकते हैं।</span></p> | <strong>षट्‌खंडागम</strong>-<span>भगवान् महावीर से आचार्य परंपरा द्वारा आगत श्रुतज्ञान का अंश होने से कषायपाहुड़ के पश्चात् षट्‌खंडागम ही दिगंबर आम्नाय का द्वितीय महनीय ग्रंथ है। अग्रायणी नामक द्वितीय पूर्व के ‘महाकर्म्मप्रकृति’ नामक चौथे प्राभृत का विवेचन इसमें निबद्ध है (जै./1/61)। इसका असली नाम क्या था यह आज ज्ञात नहीं है। जीवस्थान आदि छ: खंडों में विभक्त होने के कारण इसका ‘षट्‌खंडागम’ नाम प्रसिद्ध हो गया है। (जै./1/51)। इसके प्रत्येक खंड में अनेक-अनेक अधिकार हैं। जैसे कि जीवस्थान नामक प्रथम खंड में सत्प्ररूपणा, द्रव्य प्रमाणानुगम आदि आठ अधिकार हैं। इसके रचयिता के विषय में धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी ने यह लिखा है कि "आ.पुष्पदंत ने 'वीसदि' नामक सूत्रों की रचना की, और उन सूत्रों को देखकर आ.भूतबलि ने द्रव्य प्रमाणानुगम आदि विशिष्ट ग्रंथ की रचना की" । (<span class="GRef"> धवला 1/ </span>पृष्ठ 71)। इस 'अवशिष्ट' शब्द पर से यह अनुमान होता है कि आ.पुष्पदंत (ई.66-106) द्वारा रचित 'वीसदि' सूत्र ही जीवस्थान नामक प्रथम खंड का सत्प्ररूपणा नामक प्रथम अधिकार है जिसमें बीस प्ररूपणाओं का विवेचन निबद्ध है। इस खंड के शेष सात अधिकार तथा उनके आगे शेष पांच खंड आ.भूतबलि की रचना है। यदि इन दोनों ने आ.धरसेन (वी.नि.630) के पास इस सिद्धांत का अध्ययन किया है तो इस ग्रंथ के आद्य तीन खंडों की रचना वी.नि.650 (ई.123) के आसपास स्थापित की जा सकती है (जै./2/123) और ये तीन खंड टीका लिखने के लिये आ.कुंदकुंद (ई.127) को प्राप्त हो सकते हैं।</span></p> | ||
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इन छ: खंडों में से ‘महाबंध’ नामक अंतिम खंड को छोड़कर शेष 5 खंडों पर अनेकों टीकायें लिखी गयी हैं। यथा-</p> | इन छ: खंडों में से ‘महाबंध’ नामक अंतिम खंड को छोड़कर शेष 5 खंडों पर अनेकों टीकायें लिखी गयी हैं। यथा-</p> |
Revision as of 13:00, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से ==
पंचसंग्रह
इस नाम के चार ग्रंथ प्रसिद्ध हैं–दो प्राकृत गाथाबद्ध हैं और दो संस्कृत श्लोकबद्ध । प्राकृत वालों में एक दिगंबरीय है और एक श्वेतांबरीय ।325। इन दोनों पर ही अनेकों टीकायें हैं । संस्कृत वाले दोनों दिगंबरीय प्राकृत के रूपांतर मात्र होने से ।326। दिगंबरीय हैं । पाँच-पाँच अधिकारों में विभक्त होने से तथा कर्मस्तव आदि आगम प्राभृतों का संग्रह होने से इनका ‘पंचसंग्रह’ नाम सार्थक है ।343। गोमट्टसार आदि कुछ अन्य ग्रंथ भी इस नाम से अपना उल्लेख करने में गौरव का अनुभव करते हैं । इन सबका क्रम से परिचय दिया जाता है ।
- दिगंबरीय प्राकृत पंचसंग्रह–
सबसे अधिक प्राचीन है । इसके पाँच अधिकारों के नाम हैं–जीवसमास, प्रकृतिसमुत्कीर्तना, कर्मस्तव, शतक और सप्तितका । षट्खंडागम का और कषायपाहुड़ का अनुसरण करने वाले प्रथम दो अधिकारों में जीवसमास, गुणस्थान मार्गणास्थान आदि का तथा मूलोत्तर कर्म प्रकृतियों का विवेचन किया गया है । कर्मस्तव आदि अपर तीन अधिकार उस उस नाम वाले आगम प्राभृतों को आत्मसात करते हुए कर्मों के बंध उदय सत्त्व का विवेचन करते हैं ।343। इसमें कुल 1324 गाथायें तथा 500 श्लोक प्रमाण गद्य भाग है । समय–इसके रचयिता का नाम तथा समय ज्ञात नहीं है । तथापि अकलंक भट्ट (ई. 620-680) कृत राजवार्तिक में इसका उल्लेख प्राप्त होने से इसका समय वि.श.8 से पूर्व ही अनुमान किया जाता है ।351। (जै./1/पृष्ठ) । डॉ. A.N.Up. ने इसे वि.श.5-8 में स्थापित किया है । (पं.सं./प्र. 39) ।
- श्वेतांबरीय प्राकृत पंचसंग्रह–
श्वेतांबर आम्नाय का प्राकृत गाथाबद्ध यह ग्रंथ भी दिगंबरीय की भाँति 5 अधिकारों में विभक्त है । उनके नाम तथा विषय भी लगभग वही हैं । गाथा संख्या 1005 है । इसके रचयिता चंद्रर्षि महत्तर माने गए हैं, जिन्होंने इस पर स्वयं 8000 श्लोक प्रमाण ‘स्वोपज्ञ’ टीका लिखी है । इसके अतिरिक्त आ. मलयगिरि (वि. श. 12) कृत एक संस्कृत टीका भी उपलब्ध है । मूल ग्रंथ को आचार्य ने महान या यथार्थ कहा है ।351। समय–चंद्रर्षि महत्तर का काल वि.श.10 का अंतिम चरण निर्धारित किया गया है ।366। (देखें चंद्रर्षि ), (जै./1/351, 366) ।
- 3-4. संस्कृत पंचसंग्रह–
दो उपलब्ध हैं । दोनों ही दिगंबरीय प्राकृत पंचसंग्रह के संस्कृत रूपांतर मात्र हैं । इनमें से एक चित्रकूट (चित्तौड़) निवासी श्रीपाल मुत डड्ढा की रचना है और दूसरा आचार्य अमितगति की । पहले में 1243 और दूसरे में 700 अनुष्टुप् पद्य हैं और साथ-साथ क्रमशः 1456 और 1000 श्लोक प्रमाण गद्य भाग है । समय–आ. अमितगति वाले की रचना वि.सं.1073 में होनी निश्चित है । डड्ढा वाले का रचनाकाल निम्न तथ्यों पर से. वि. 1012 और 1047 के मध्य कभी होना निर्धारित किया गया है । क्योंकि एक ओर तो इसमें अमृतचंद्राचार्य (वि.962-1012) कृत तत्त्वार्थसार का एक श्लोक इसमें उद्धृत पाया जाता है और दूसरी ओर इसका एक श्लोक आचार्य जयसेन नं. 4 (वि. 1050) में उद्धृत है । तीसरी ओर गोमट्टसार (वि. 1040) का प्रभाव जिस प्रकार अमितगति कृत पंचसंग्रह पर दिखाई देता है, उस प्रकार इस पर दिखाई नहीं देता है । इस पर से यह अनुमान होता है कि गोमट्टसार की रचना डड्ढा कृत पंचसंग्रह के पश्चात् हुई है । (जै./1/372-375) ।
- 5-6. पंचसंग्रह की टीकायें–
5. दिगंबरीय पंचसंग्रह पर दो टीकायें उपलब्ध हैं । एक वि.1526 की है, जिसका रचयिता अज्ञात है । दूसरी वि.1620 की है । इसके रचयिता भट्टारक सुमतिकीर्ति हैं ।448। परंतु भ्रांतिवश इसे मुनि पद्मनंदि की मान लिया गया है । वास्तव में ग्रंथ में इस नाम का उल्लेख ग्रंथकार के प्रति नहीं, प्रत्युत उस प्रकरण के रचयिता की ओर संकेत करता है जिसे ग्रंथकर्त्ता भट्टारक सुमतिकीर्ति ने पद्मनंदि कृत ‘जंबूदीव पण्णति’ से लेकर ग्रंथ के ‘शतक’ नामक अंतिम अधिकार में ज्यों का त्यों आत्मसात कर लिया है ।449। पंचसंग्रह के आधार पर लिखी गयी होने से भले इसे टीका कहो, परंतु विविध ग्रंथों से उद्धृत गाथाओं तथा प्रकरणों की बहुलता होने से यह टीका तो नाममात्र ही है ।448। लेखक ने स्वयं टीका न कहकर ‘आराधना’ नाम दिया है ।445। चूर्णियों की शैली में लिखित इसमें 546 गाथा प्रमाण तो पद्यभाग है और 4000 श्लोक प्रमाण गद्य भाग है । (जै./1/पृष्ठ संख्या), (ती./3/379) । 6. इन्हीं भट्टारक सुमतिकीर्ति द्वारा रचित एक अन्य भी पंचसंग्रह वृत्ति प्राप्त है । यह वास्तव में अकेले सुमतिकीर्ति की न होकर इनकी तथा ज्ञानभूषण की साझली है । वास्तव में पंचसंग्रह की न होकर गोमट्टसार की टीका है, क्योंकि इसका मूल आधार ‘पंचसंग्रह’ नहीं है, बल्कि गोमट्टसार की ‘जीवप्रबोधिनी’ टीका के आधार पर लिखित ‘कर्म प्रकृति’ नामक ग्रंथ है । ग्रंथकार ने इसे ‘लघुगोमट्टसार’ अपर नाम ‘पंचसंग्रह’ कहा है । समय–वि. 1620 । (जै./1/471-480) ।
- अन्यान्य पंचसंग्रह–
इनके अतिरिक्त भी पंचसंग्रह नामक कई ग्रंथों का उल्लेख प्राप्त होता है । जैसे ‘गोमट्टसार’ के रचयिता श्री नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने उसे ‘पंचसंग्रह’ कहा है । श्रीहरि दामोदर वेलंकर ने अपने जिनरत्न कोश में ‘पंचसंग्रह दीपक’ नाम के किसी ग्रंथ का उल्लेख किया है, जो कि इनके अनुसार गोमट्टसार का इंद्र वामदेव द्वारा रचित संस्कृत पद्यानुवाद है । पाँच अधिकारों में विभक्त इसमें 1498 पद्य हैं । (पं.सं./प्र.14/ A.N.Up.) ।
पद्धति टीका–
इंद्रनंदी कृत श्रुतावतार के कथनानुसार आचार्य शामकुंड ने ‘कषायपाहुड’ तथा ‘षट्खंडागम’ के आद्य पांच खंडों पर ‘पद्धति’ नामक एक टीका लिखी थी, जिसकी भाषा संस्कृत तथा प्राकृत का मिश्रण थी, परंतु शामकुंड क्योंकि कुंद कुंद का ही कोई बिगड़ा हुआ नाम प्रतीत होता है, इसलिए कुछ विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि आचार्य कुंद-कुंद कृत ‘परिकर्म टीका’ का ही यह कोई अपर नाम है । (जै./1/274) ।
परिकर्म टीका–
इंद्रनंदी कृत श्रुतावतार के कथनानुसार आचार्य कुंदकुंद ने षट्खंडागम के आद्य 5 खंडों पर 12000 श्लोक प्रमाण इस नाम की एक टीका रची थी ।264। धवला टीका में इसके उद्धरण प्रायः ‘जीवस्थान’ नामक प्रथम खंड के द्वितीय अधिकार ‘द्रव्य प्रमाणानुगम’ में आते हैं, जिस पर से यह अनुमान होता है कि इस टीका में जीवों की संख्या का प्रतिपादन बहुलता के साथ किया गया है । धवलाकार ने कई स्थानों पर ‘परिकर्म सूत्र’ कहकर इस टीका का ही उल्लेख किया है, ऐसा प्रतीत होता है ।268। कुंद-कुंद की समयसार आदि अन्य रचनाओं की भाँति यह ग्रंथ गाथाबद्ध नहीं है, तदपि प्राकृत भाषाबद्ध अवश्य है । पंडित कैलाशचंद इसे कुंद-कुंद कृत मानते हैं । (जै./1/पृष्ठ संख्या) ।
बप्पदेव–
इंद्रनंदि कृत श्रुतावतार श्लोक नं.171-176 के अनुसार भागीरथी और कृष्णा नदी के मध्य अर्थात् धारवाड़ या बेलगांव जिले के अंतर्गत उत्कलिका नगरी के समीप ‘मगणवल्ली’ ग्राम में आचार्य शुभनंदि तथा शिवनंदि (ई.श.2-3) से सिद्धांत का श्रवण करके आपने कषायपाहुड़ सहित, षट्खंडागम के आद्य पाँच खंडों पर 60,000 श्लोक प्रमाण और उसके महाबंध नामक षष्टम खंड पर 8000 श्लोक प्रमाण व्याख्या लिखी थी । (जै./1/271), (ती./2/95) । इन्होंने षट्खंडागम से ‘महाबंध’ नामक षष्टम खंड को पृथक् करके उसके स्थान पर उपर्युक्त ‘व्याख्या प्रज्ञप्ति’ का संक्षिप्त रूप उसमें मिला दिया था । समय–इनके गुरु शुभनंदि को वी.नि.श.5 का विद्वान कल्पित करके डॉ. नेमिचंद्र ने यद्यपि वी.नि.श.5-6 (ई.श.1) में प्रतिष्ठित किया है, परंतु इंद्रनंदि कृत श्रुतावतार के अनुसार ये वि.श.7 (ई.श.6-7) के विद्वान हैं । (जै./1/386) ।
मलयगिरि
‘‘कर्म प्रकृति/293’’, सित्तरि या सप्ततिका ।318।, पंचसंग्रह ।360। आदि श्वेतांबर ग्रंथों के टीकाकार एक प्रसिद्ध श्वेतांबराचार्य । समय–‘कर्मप्रकृति’ की टीकायें गंर्गर्षि (वि. श. 10) और पंचसंग्रह की रचना गुजरात के चालुक्यवंशी नरेश के शासन काल में होने की सूचना उपलब्ध होने से इनको हम वि.श.12 के पूर्वार्ध में स्थापित कर सकते हैं ।360। (जै./1/पृष्ठ संख्या) ।
महाबंध–
30,000 श्लोक प्रमाण यह सिद्धांत ग्रंथ आचार्य भूतबली (ई.66-156) द्वारा रचित षट्खंडागम का अंतिम खंड है, जो अत्यंत विशाल तथा गंभीर होने के कारण एक स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रसिद्ध हो गया है । विवरणात्मक शैली में अति विस्तार युक्त तथा सुबोध होने के कारण किसी भी आचार्य ने इस पर कोई टीका नहीं लिखी । आचार्य वीरसेन स्वामी ने भी 5 खंडों पर तो विस्तृत टीका लिखी, परंतु इस षष्टम खंड पर टीका लिखने की आवश्यकता नहीं समझी । (जै./1/152) । इस ग्रंथ में स्वामित्व भागाभाग आदि अनुयोग द्वारों के द्वारा विस्तार को प्राप्त प्रकृति, स्थिति, अनुभाग व प्रदेश बंध का और उनके बंधकों तथा बंधनीयों का विवेचन निबद्ध है । (जै./1/153) । इस ग्रंथ की प्रारंभिक भूमिका ‘सत्कर्म’ नाम से प्रसिद्ध है, जिस पर ‘सत्कर्म पत्रिका’ नामक व्याख्या उपलब्ध है । (देखें सत्कर्म पंंजिका ) ।
विशेषावश्यक भाष्य–
आचार्य जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण द्वारा रचित यह एक विशालकाय सिद्धांत विषयक श्वेतांबर ग्रंथ है । ग्रंथ समाप्ति में इसका समाप्ति काल वि.666 बताया गया है । परंतु पंडित सुखलाल जी के अनुसार यह इसका लेखन काल है । ग्रंथ का रचना काल उससे पूर्व लगभग वि.650 में स्थापित किया जा सकता है । (जै./2/331) ।
व्याख्या प्रज्ञप्ति–
षट्खंडागम के छः खंडों से अधिक वह अतिरिक्त खंड जिसे आचार्य भूतबली ने छोड़ दिया था और जिसे आचार्य बप्पदेव (वि. श. 7) ने 60,000 श्लोक प्रमाण व्याख्या लिखकर पूरा किया था । वाटग्राम (बड़ौदा) के जिनमंदिर में इसे प्राप्त करके ही श्री ‘वीरसेन स्वामी’ ने ‘सत्कर्म’ नाम से धवला के परिशिष्ट रूप एक अतिरिक्त खंड की रचना की थी । (देखें सत्कर्म ) (इंद्रनंदि श्रुतावतार श्लोक 173-181); (जै./1/279); (ती./2/96) ॥
पुराणकोष से
शतक-इस नाम के दो ग्रंथ प्राप्त हैं।
- 'कर्म प्रकृति' नामक श्वेतांबर ग्रंथ के बड़े भाई के रूप में प्रसिद्ध इस ग्रंथ के रचयिता भी 'कर्म प्रकृति' के कर्ता आ.शिवशर्म सूरि (वि.500) ही बताये जाते हैं। गाथा संख्या 107 होने से इसका 'शतक' नाम सार्थक है, और कर्मों के बंध उदय आदि का प्ररूपक होने से 'बंध शतक' कहलाता है।313। दृष्टिवाद अंग के अष्टम पूर्व 'कर्म प्रवाद' की बंध विषयक गाथाओं का संग्रह होने से इसे 'बंध समास' भी कहा जा सकता है।314। गाथा संख्या 105 में इसे 'कर्म प्रवाद' अंग का संक्षिप्त स्यंद या सार कहा गया है।312। चूर्णिकार चंद्रर्षि महत्तर ने इसकी उत्पत्ति दृष्टिवाद अंग के ‘अग्रणी’ नामक द्वि.पूर्व के अंतर्गत ‘महाकर्म प्रकृति प्राभृत’ के 'बंधन' नामक अष्टम अनुयोग द्वार से बताई है।358। इसके पूर्वार्ध भाग में जीव समास, गुणस्थान, मार्गणा स्थान आदि में समवेत जीवकांडका, और अपरार्ध भाग में कर्मों के बंध उदय सत्त्व की व्युच्छित्ति विषयक कर्मकांड का विवेचन निबद्ध है।312। रचयिता ने अपने ‘कर्म प्रकृति’ नामक ग्रंथ में सर्वत्र ‘शतक’ के स्थान पर ‘बंध शतक’ का नामोल्लेख किया है।313। समय-वि.500। (जै./1/पृष्ठ)। इस पर अनेकों चूर्णियां लिखी जा चुकी हैं। (देखें कोष ।। में परिशिष्ट 1/चूर्णि)।
- उपर्युक्त ग्रंथ को ही कुछ अंतर के साथ श्री देवेंद्र सूरि ने भी लिखा है। जिस पर उन्हीं की एक स्वोपज्ञ टीका भी है। समय-वि.श.13 का अंत। (जै./1/435)।
शिवशर्म सूरि-एक प्राचीन श्वेतांबराचार्य। नंदीसूत्र आदि के पाठ का अवलोकन करने से अनुमान होता है कि आप संभवत: देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण से भी पूर्ववर्ती हैं और दशपूर्वधारी भी हैं।303। दृष्टिवाद अंग के अंशभूत ‘महाकर्म प्रकृति प्राभृत’ का ज्ञान इन्हें आचार्य परंपरा से प्राप्त था। उच्छिन्न हो जाने की आशंका से अपने उस ज्ञान को ‘कर्म प्रकृति’ नामक ग्रंथ में निबद्ध कर दिया था। (पीछे ‘बंध शतक’ के नाम से उसी का कुछ विस्तार किया)। श्वेतांबरांनाय में क्योंकि दृष्टिवाद अंग वी.नि.1000 तक जीवित रहा माना जाता है, इसलिये आपको वि.500 के आसपास स्थापित किया जा सकता है।304। (जै./1/पृष्ठ)।
शुभनंदि रविनंदि-इंद्रनंदी कृत श्रुतावतार श्लोक 171-173 के अनुसार आपको आचार्य परंपरा से षट्खंडागम विषयक सिद्धांतों का ज्ञान प्राप्त था। इनके समीप में श्रवण करके ही आ.बप्पदेव ने षट्खंडागम तथा कषायपाहुड़ पर व्याख्या लिखी थी। प्राचीन श्रुतधरों की श्रेणी में बैठाकर यद्यपि डा.नेमिचंद ने इन्हें वी.नि.श.5-6 (ई.श.1) में स्थापित करने का प्रयत्न किया है, परंतु उनकी यह कल्पना इसलिये कुछ संगत प्रतीत नहीं होती क्योंकि षट्खंडागम के रचयिता आ.भूतबलि के काल की पूर्वाविधि वी.नि.593 से ऊपर किसी प्रकार भी ले जायी जानी संभव नहीं है। (देखें कोष ।/परिशिष्ट 2)।
षट्खंडागम-भगवान् महावीर से आचार्य परंपरा द्वारा आगत श्रुतज्ञान का अंश होने से कषायपाहुड़ के पश्चात् षट्खंडागम ही दिगंबर आम्नाय का द्वितीय महनीय ग्रंथ है। अग्रायणी नामक द्वितीय पूर्व के ‘महाकर्म्मप्रकृति’ नामक चौथे प्राभृत का विवेचन इसमें निबद्ध है (जै./1/61)। इसका असली नाम क्या था यह आज ज्ञात नहीं है। जीवस्थान आदि छ: खंडों में विभक्त होने के कारण इसका ‘षट्खंडागम’ नाम प्रसिद्ध हो गया है। (जै./1/51)। इसके प्रत्येक खंड में अनेक-अनेक अधिकार हैं। जैसे कि जीवस्थान नामक प्रथम खंड में सत्प्ररूपणा, द्रव्य प्रमाणानुगम आदि आठ अधिकार हैं। इसके रचयिता के विषय में धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी ने यह लिखा है कि "आ.पुष्पदंत ने 'वीसदि' नामक सूत्रों की रचना की, और उन सूत्रों को देखकर आ.भूतबलि ने द्रव्य प्रमाणानुगम आदि विशिष्ट ग्रंथ की रचना की" । ( धवला 1/ पृष्ठ 71)। इस 'अवशिष्ट' शब्द पर से यह अनुमान होता है कि आ.पुष्पदंत (ई.66-106) द्वारा रचित 'वीसदि' सूत्र ही जीवस्थान नामक प्रथम खंड का सत्प्ररूपणा नामक प्रथम अधिकार है जिसमें बीस प्ररूपणाओं का विवेचन निबद्ध है। इस खंड के शेष सात अधिकार तथा उनके आगे शेष पांच खंड आ.भूतबलि की रचना है। यदि इन दोनों ने आ.धरसेन (वी.नि.630) के पास इस सिद्धांत का अध्ययन किया है तो इस ग्रंथ के आद्य तीन खंडों की रचना वी.नि.650 (ई.123) के आसपास स्थापित की जा सकती है (जै./2/123) और ये तीन खंड टीका लिखने के लिये आ.कुंदकुंद (ई.127) को प्राप्त हो सकते हैं।
इन छ: खंडों में से ‘महाबंध’ नामक अंतिम खंड को छोड़कर शेष 5 खंडों पर अनेकों टीकायें लिखी गयी हैं। यथा-
- आद्य तीनों खंडों पर आ.कुंदकुंद (ई.127) कृत 'परिकर्म' टीका।
- आद्य 5 खंडों पर आ.समंतभद्र (ई.श.2) टीका। कुछ विद्वानों को यह बात स्वीकार नहीं है।
- आद्य पाँच खंडों पर आ.शामकुंड (ई.श.3) कृत 'पद्धति' नामक टीका।
- तंबूलाचार्य (ई.श.3-4) कृत 'चूड़ामणि' टीका।
- आ.बप्पदेव (ई.श.6-7) कृत 'व्याख्या प्रज्ञप्ति' टीका। (जै./1/263 पर उद्धृत इंद्रनंदि श्रुतावतार)।
सत्कर्म-इंद्रनंदि कृत श्रुतावतार के अनुसार यह ग्रंथ षट्खंडागम के छ: खंडों के अतिरिक्त वह अधिक खंड है, जिसे कि आ.बप्पदेव (ई.श.6-7) कृत उपर्युक्त 'व्याख्या प्रज्ञप्ति' की टीका के रूप में आ.वीरसेन स्वामी (ई.770-827) ने रचा है। (देखें व्याख्या प्रज्ञप्ति ) षट्खंडागम के 'वर्गणा' नामक पंचम खंड के अंतिम सूत्र को देशामर्शक मानकर उन्होंने निबंधनादि अठारह अधिकारों में विभक्त इसका धवला के परिशिष्ट रूपेण ग्रहण किया है। मुद्रित षट्खंडागम की 15वीं पुस्तक में प्रकाशित है। (ती./1/96); (और भी देखें आगे ‘सत्कर्म पंजिका’)।
सत्कर्म पंजिका-धवला के परिशिष्ट रूप से गृहीत ‘सत्कर्म’ प्ररूपणा के निबंधन आदि अठारह योगद्वारों या अधिकारों में से प्रथम चार पर रचित यह एक ऐसी टीका है जिसे लेखक ने स्वयं, तथा आचार्यों ने भी 'सु-महार्थ' अथवा 'महार्थ' कहा है। उन-उन अधिकारों की पूरी टीका न होकर यह केवल उन विषयों का खुलासा करती है जो कि उन अधिकारों में अतिदूर अवगाहित प्रतीत होते हैं। षट्खंडागम के 'महाबंध' नामक षष्टम खंड की ताड़पत्रीय प्रति के आद्य 27 पत्रों पर यह अंकित है। (जै./1/284-285)। इसके रचयिता के काल तथा नाम का स्पष्ट उल्लेख कहीं उपलब्ध नहीं है, परंतु 'महाबंध' की ताड़पत्रीय प्रति पर लिखा होने से तथा इसके कतिपय उल्लेखों का अवलोकन करने से ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी रचना संभवत: धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी के सामने (ई.770-820) में अथवा उनके पश्चात् तत्काल ही हो गयी थी। इसलिये बहुत संभव है कि उनके शिष्य श्री जिनसेन स्वामी ने श्रीपाल, पद्मसेन तथा देवसेन नाम वाले जिन तीन विद्वानों का नामोल्लेख किया है और इस हेतु से जो उनके गुरु भाई प्रतीत होते हैं, उनमें से ही किसी ने इसकी रचना की हो। (जै./1/292)।
सप्ततिका-कर्मों के बंध उदय सत्त्व विषयक चर्चा करने वाला, श्वेतांबर आम्नाय का यह ग्रंथ 70 गाथा युक्त होने के कारण प्राकृत भाषा में 'सत्तरि' नाम से प्रसिद्ध है। संस्कृत में इसे 'सप्ततिका' भी कहा जा सकता है।318। यद्यपि गाथा 1 में इसके रचयिता ने इसे शिवशर्म सूरि कृत ‘शतक’ की भांति दृष्टिवाद अंग का संक्षिप्त स्यंद या सार कहा है, तदपि यह उससे भिन्न है, क्योंकि शिवशर्म सूरि की ही दूसरी कृति 'कर्म प्रकृति' के साथ कई स्थलों पर मतभेद पाया जाता है।321। इस पर रचित एक चूर्णि (वि.1080-1135) तथा आ.मलयगिरि (वि.श.12) कृत टीकायें भी उपलब्ध हैं। आ.जिनभद्र गणी के विशेषावश्यक भाष्य (वि.650) में क्योंकि ‘कर्म प्रकृति’ तथा ‘शतक’ की भाँति इसकी गाथायें भी उद्धृत हुई मिलती हैं, इसलिये इसे हम वि.श.7 के पश्चात् का नहीं कह सकते। (जै./1/पृष्ठ)।
सिंहसूरि-तत्त्वार्थाधिगम भाष्य के वृत्तिकार सिद्धसेन गणी के दादा गुरु (देखें आगे सिद्धसेन गणी)। ये श्वेतांबराचार्य मल्लवादी कृत-‘नय चक्र’ के वृत्तिकार माने जाते हैं।330। इनकी इस वृत्ति में एक ओर तो विशेषावश्यक भाष्य (वि.650) के कुछ वाक्य उद्धृत पाये जाते हैं और दूसरी और बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति (वि.622-707) का यहां कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता, जबकि इनके प्रशिष्य सिद्धसेन गणी ने अपनी 'तत्त्वार्थभाष्य वृत्ति' में उनका पर्याप्त आश्रय लिया है। इसलिये इन्हें हम वि.श.7 के मध्य में स्थापित कर सकते हैं। (जै.1/330-365); (जै./2/301)।
सिद्धर्षि-'उपमिति भव प्रपंच कथा' के रचयिता एक श्वेतांबराचार्य। उक्त ग्रंथ के अनुसार सूर्याचार्य के शिष्य छेल महत्तर और उनके स्वामी दुर्गा स्वामी हुए। इन दुर्गा स्वामी ने ही इनको तथा इनके शिक्षा गुरु गर्ग स्वामी को दीक्षित किया था। समय-ग्रंथ रचना काल वि.962 (ई.905)। (जै./1/361)।
सिद्धसेन दिवाकर-दिगंबर आचार्य-आप दिगंबर तथा श्वेतांबर दोनों आम्नायों में प्रसिद्ध हैं। दिवाकर की उपाधि इन्हें श्वेतांबराचार्य अभयदेव सूरि (वि.श.12) ने सन्मति सूत्र की अपनी टीका में प्रदान की हैं जो दिगंबर आम्नाय में प्राप्त नहीं है। दिगंबर आम्नाय में इन्हें सन्मति सूत्र के साथ-साथ कल्याण मंदिर स्तोत्र जैसे कुछ भक्तिपरक ग्रंथों के भी रचयिता माना गया है, जबकि श्वेतांबर आम्नाय में इन्हें न्यायावतार तथा द्वात्रिंशिकाओं आदि के कर्ता कहा जाता है।212। पं.जुगल किशोर जी मुख्तार के अनुसार ये दोनों व्यक्ति भिन्न हैं। द्वात्रिंशिकाओं आदि के कर्ता सिद्धसेन गणी हैं जो श्वेतांबर थे। उनकी चर्चा आगे की जायेगी। सन्मति सूत्र के कर्ता सिद्धसेन दिगंबर हैं। आ.जिनसेन ने आदिपुराण तथा हरिवंशपुराण में इनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है।206। आ.समंतभद्र की भांति इनके विषय में भी यह कथा प्रसिद्ध है कि कल्याण मंदिर स्तोत्र के प्रभाव से इन्होंने रुद्र लिंग को फाड़कर राजा विक्रमादित्य (चंद्रगुप्त द्वि.) को संबोधित किया था।207-209।
गुरु-आप उज्जैनी में देवर्षि ब्राह्मण के पुत्र और वृद्धवादि के शिष्य थे।206। धर्माचार्य को भी इनका गुरु बताया जाता है।207। कृतियें-सन्मति सूत्र, कल्याण मंदिर स्तोत्र, तथा द्वात्रिंशिकाओं में से कुछ इनकी हैं।210। समय-इनके समय के विषय में भी मतभेद पाया जाता है। कट्टरपंथी श्वेतांबर आचार्य इन्हें कुंदकुंद से भी पहले वि.श.1 में स्थापित करते हैं, परंतु श्वेतांबर के प्रसिद्ध विद्वान् पं.सुखलाल जी मालवणिया आ.पूज्यपाद (वि.श.6 पूर्वार्ध) कृत सर्वार्थ सिद्धि में तथा जैनेंद्र व्याकरण में इनके कतिपय सूत्र तथा वाक्य उद्धृत देखकर इनका काल वि.श.5 का प्रथम पाद और वि.श.4 का अंतिम पाद कल्पित करते हैं।209। दिगंबर विद्वानों में मुख्तारसाहब इन्हें पूज्यपाद (वि.श.6) और अकलंक भट्ट (वि.श.7) के मध्य वि.635 के आसपास स्थापित करते हैं। इस विषय में इनका हेतु यह है कि एक ओर तो इनके द्वारा रचित सन्मति सूत्र के वाक्य विशेषावश्यक भाष्य (वि.650) में तथा धवला जय धवला (वि.713-763) में उद्धृत पाये जाते हैं और दूसरी ओर सन्मति सूत्र में कथित ज्ञान तथा दर्शन उपयोग के अभेदवाद की चर्चा जिस प्रकार अकलंक (वि.श.7) कृत राजवार्तिक में पाई जाती है उस प्रकार पूज्यपाद (वि.श.6) कृत सर्वार्थ सिद्धि में नहीं पायी जाती/211। (ती./2/पृष्ठ)।
सिद्धसेन (गणी)-श्वेतांबर आचार्य थे। मूल आगम ग्रंथों को प्राकृत से संस्कृत में रूपांतरित करने के विचार मात्र से इन्हें एक बार श्वेतांबर संघ से 12 वर्ष के लिये निष्कासित कर दिया गया था। इस काल में ये दिगंबर साधुओं के संपर्क में आये और इन्हीं दिनों उनसे प्रभावित होकर इन्होंने भक्तिपरक द्वात्रिंशिकाओं की रचना की। दिगंबर संघ में इनका प्रभाव बढ़ता देख श्वेतांबर संघ ने इनके प्रायश्चित्त की अवधि घटा दी और ये पुन: श्वेतांबर संघ में आ गए। (ती./2/210)। आ.शीलांक (वि.श.9-10) ने अपनी 'आचारांग सूत्रवृत्ति' में इनका 'गंधहस्ती' के नाम से उल्लेख किया है (देखें गंधहस्ती )। यद्यपि श्वेतांबर लोग इन्हें ही सन्मति सूत्र का कर्ता मानते हैं, परंतु मुख्तार साहब की अपेक्षा ये उनसे भिन्न हैं (देखें सिद्धसेन दिवाकर )।
गुरु-तत्त्वार्थाधिगम भाष्य पर लिखित अपनी वृत्ति में आपने अपने को दिन्न गणी के शिष्य सिंह सूरि (वि.श.7 का अंत) का प्रशिष्य और भास्वामी का शिष्य घोषित किया है (जै./2/329) कृतियें-तत्त्वार्थाधिगम भाष्य पर बृहद् वृत्ति, न्यायावतार तथा भक्तिपरक कुछ द्वात्रिंशिकायें। (ती./2/292) समय-एक ओर तो आपकी तत्त्वार्थाधिगम वृत्ति में बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति (वि.श.7 का अंत) का और अकलंक भट्ट (वि.श.7) कृत 'सिद्धि विनिश्चय' का उल्लेख उपलब्ध होता है, और दूसरी ओर प्रभावक चारित्र (वि.श.8) में आपका नामोल्लेख पाया जाता है, इसलिये आपको वि.श.8 के पूर्वार्ध में स्थापित किया जा सकता है (जै./2/331)। आपके दादागुरु सिंहसूरि का काल क्योंकि वि.श.7 निर्धारित किया जा चुका है (देखें इससे पहले सिंहसूरि ) इसलिये उनके साथ भी इसकी संगति बैठ जाती है। पं.सुखलाल जी मालवणिया ने इनके काल की अपरावधि वि.श.9 निर्धारित की है। (जै./1/365)।