पाद्य स्थिति कल्प: Difference between revisions
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<p> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/421/616/10 <span class="SanskritText">पज्जो समणकप्पो नाम दशमः। वर्षाकालस्य चतुर्षु मासेषु एकत्रैवावस्थानं भ्रमण-त्यागः। स्थावरजंगमजीवाकुला हि तदा क्षितिः। तदा भ्रमणे महान-संयमः... इति विंशत्यधिकं दिवसशतं एकत्रावस्थनमित्ययमुत्सर्गः। कारणापेक्षया तु हीनाधिकं वावस्थानं, संयतानां आषाढशुद्धदशम्यां स्थितानां उपरिष्टाच्च कार्तिकपौर्णमास्यास्त्रिंशद्दिवसावस्थानं। वृष्टिबहुलतां, श्रुतग्रहणं, शक्त्यभाववैयावृत्त्यकरणं प्रयोजनमुद्दिश्य अवस्थानमेकत्रेति उत्कृष्टः कालः। माया, दुर्भिक्षे, ग्रामजनपदचलने वा गच्छनाशनिमित्ते समुपस्थिते देशांतरं याति। ...पौर्णमास्यामाषाढयामतिक्रांतायां प्रतिपदादिषु दिनेषु याति। यावच्च त्यक्ता विंशतिदिवसा एतदपेक्ष्य हीनता कालस्य एषः। </span>= <span class="HindiText">वर्षा काल में चार मास में एक ही स्थान में रहना अर्थात् भ्रमण का त्याग यह पाद्य नाम का दसवां स्थिति कल्प है। वर्षा काल में जमीन स्थावर और त्रस जीवों से व्याप्त होती है। ऐसे समय में मुनि यदि विहार करेंगे तो महा असंयम होगा। ...इत्यादि दोषों से बचने के लिए मुनि एक सौ बीस दिवस एक स्थान में रहते हैं, यह उत्सर्ग नियम है। कारण वश इससे अधिक या कम दिवस भी एक स्थान में ठहर सकते हैं। आषाढ़ शुक्ला दशमी से प्रारंभ कर कार्तिक पौर्णमासी के आगे भी और तीस दिन तक एक स्थान में रह सकते हैं। अध्ययन, वृष्टि की अधिकता, शक्ति का अभाव, वैयावृत्त्य करना इत्यादि प्रयोजन हो तो अधिक दिन तक रह सकते हैं। ...मारी रोग, दुर्भिक्ष में ग्राम के लोगों का अथवा देश के लोगों का अपना स्थान छोड़कर अन्य ग्रामादिक में जाना, गच्छ का नाश होने के निमित्त उपस्थित होना, इत्यादि कारण उपस्थित होने पर मुनि चातुर्मास में भी अन्य स्थानों पर जाते हैं। ...इसलिए आषाढ़ पूर्णिमा व्यतीत होने पर प्रतिपदा वगैरह तिथि में अन्यत्र चले जाते हैं। इस प्रकार बीस दिन एक सौ बीस में कम किये जाते हैं, इस तरह काल की हीनता है। <br /> | <p><span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/421/616/10 </span><span class="SanskritText">पज्जो समणकप्पो नाम दशमः। वर्षाकालस्य चतुर्षु मासेषु एकत्रैवावस्थानं भ्रमण-त्यागः। स्थावरजंगमजीवाकुला हि तदा क्षितिः। तदा भ्रमणे महान-संयमः... इति विंशत्यधिकं दिवसशतं एकत्रावस्थनमित्ययमुत्सर्गः। कारणापेक्षया तु हीनाधिकं वावस्थानं, संयतानां आषाढशुद्धदशम्यां स्थितानां उपरिष्टाच्च कार्तिकपौर्णमास्यास्त्रिंशद्दिवसावस्थानं। वृष्टिबहुलतां, श्रुतग्रहणं, शक्त्यभाववैयावृत्त्यकरणं प्रयोजनमुद्दिश्य अवस्थानमेकत्रेति उत्कृष्टः कालः। माया, दुर्भिक्षे, ग्रामजनपदचलने वा गच्छनाशनिमित्ते समुपस्थिते देशांतरं याति। ...पौर्णमास्यामाषाढयामतिक्रांतायां प्रतिपदादिषु दिनेषु याति। यावच्च त्यक्ता विंशतिदिवसा एतदपेक्ष्य हीनता कालस्य एषः। </span>= <span class="HindiText">वर्षा काल में चार मास में एक ही स्थान में रहना अर्थात् भ्रमण का त्याग यह पाद्य नाम का दसवां स्थिति कल्प है। वर्षा काल में जमीन स्थावर और त्रस जीवों से व्याप्त होती है। ऐसे समय में मुनि यदि विहार करेंगे तो महा असंयम होगा। ...इत्यादि दोषों से बचने के लिए मुनि एक सौ बीस दिवस एक स्थान में रहते हैं, यह उत्सर्ग नियम है। कारण वश इससे अधिक या कम दिवस भी एक स्थान में ठहर सकते हैं। आषाढ़ शुक्ला दशमी से प्रारंभ कर कार्तिक पौर्णमासी के आगे भी और तीस दिन तक एक स्थान में रह सकते हैं। अध्ययन, वृष्टि की अधिकता, शक्ति का अभाव, वैयावृत्त्य करना इत्यादि प्रयोजन हो तो अधिक दिन तक रह सकते हैं। ...मारी रोग, दुर्भिक्ष में ग्राम के लोगों का अथवा देश के लोगों का अपना स्थान छोड़कर अन्य ग्रामादिक में जाना, गच्छ का नाश होने के निमित्त उपस्थित होना, इत्यादि कारण उपस्थित होने पर मुनि चातुर्मास में भी अन्य स्थानों पर जाते हैं। ...इसलिए आषाढ़ पूर्णिमा व्यतीत होने पर प्रतिपदा वगैरह तिथि में अन्यत्र चले जाते हैं। इस प्रकार बीस दिन एक सौ बीस में कम किये जाते हैं, इस तरह काल की हीनता है। <br /> | ||
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Revision as of 13:01, 14 October 2020
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/421/616/10 पज्जो समणकप्पो नाम दशमः। वर्षाकालस्य चतुर्षु मासेषु एकत्रैवावस्थानं भ्रमण-त्यागः। स्थावरजंगमजीवाकुला हि तदा क्षितिः। तदा भ्रमणे महान-संयमः... इति विंशत्यधिकं दिवसशतं एकत्रावस्थनमित्ययमुत्सर्गः। कारणापेक्षया तु हीनाधिकं वावस्थानं, संयतानां आषाढशुद्धदशम्यां स्थितानां उपरिष्टाच्च कार्तिकपौर्णमास्यास्त्रिंशद्दिवसावस्थानं। वृष्टिबहुलतां, श्रुतग्रहणं, शक्त्यभाववैयावृत्त्यकरणं प्रयोजनमुद्दिश्य अवस्थानमेकत्रेति उत्कृष्टः कालः। माया, दुर्भिक्षे, ग्रामजनपदचलने वा गच्छनाशनिमित्ते समुपस्थिते देशांतरं याति। ...पौर्णमास्यामाषाढयामतिक्रांतायां प्रतिपदादिषु दिनेषु याति। यावच्च त्यक्ता विंशतिदिवसा एतदपेक्ष्य हीनता कालस्य एषः। = वर्षा काल में चार मास में एक ही स्थान में रहना अर्थात् भ्रमण का त्याग यह पाद्य नाम का दसवां स्थिति कल्प है। वर्षा काल में जमीन स्थावर और त्रस जीवों से व्याप्त होती है। ऐसे समय में मुनि यदि विहार करेंगे तो महा असंयम होगा। ...इत्यादि दोषों से बचने के लिए मुनि एक सौ बीस दिवस एक स्थान में रहते हैं, यह उत्सर्ग नियम है। कारण वश इससे अधिक या कम दिवस भी एक स्थान में ठहर सकते हैं। आषाढ़ शुक्ला दशमी से प्रारंभ कर कार्तिक पौर्णमासी के आगे भी और तीस दिन तक एक स्थान में रह सकते हैं। अध्ययन, वृष्टि की अधिकता, शक्ति का अभाव, वैयावृत्त्य करना इत्यादि प्रयोजन हो तो अधिक दिन तक रह सकते हैं। ...मारी रोग, दुर्भिक्ष में ग्राम के लोगों का अथवा देश के लोगों का अपना स्थान छोड़कर अन्य ग्रामादिक में जाना, गच्छ का नाश होने के निमित्त उपस्थित होना, इत्यादि कारण उपस्थित होने पर मुनि चातुर्मास में भी अन्य स्थानों पर जाते हैं। ...इसलिए आषाढ़ पूर्णिमा व्यतीत होने पर प्रतिपदा वगैरह तिथि में अन्यत्र चले जाते हैं। इस प्रकार बीस दिन एक सौ बीस में कम किये जाते हैं, इस तरह काल की हीनता है।
- वर्षायोग स्थापना निष्ठापना विधि(देखें कृतिकर्म - 4)।