मधु: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> मधु</strong>-<strong>निषेध का कारण</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> मधु</strong>-<strong>निषेध का कारण</strong> <br /> | ||
देखें [[ मांस#2 | मांस - 2 ]]नवनीत, मद्य, मांस व मधु ये चार महाविकृतियाँ हैं।</span><br /> | देखें [[ मांस#2 | मांस - 2 ]]नवनीत, मद्य, मांस व मधु ये चार महाविकृतियाँ हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/69-70 </span><span class="SanskritGatha">मधुशकलमपि प्रायो मधुरकरहिंसात्मको भवति लोके। भजति मधुमूढधीको य: स भवति हिंसकोऽत्यंतकम्।69। स्वयमेव विगलितं यो गृह्णोयाद्वा छलेन मधुगोलात्। तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात्।70।</span> = <span class="HindiText">मधु की बूँद भी मधुमक्खी की हिंसारूप ही होती है, अत: जो मंदमति मधु का सेवन करता है, वह अत्यंत हिंसक है।69। स्वयमेव चूए हुए अथवा छल द्वारा मधु के छत्ते से लिये हुए मधु का ग्रहण करने से भी हिंसा होती है, क्योंकि इस प्रकार उसके आश्रित रहने वाले अनेकों क्षुद्रजीवों का घात होता है।</span><br /> | |||
यो.सा./अ/8/32 <span class="SanskritGatha">बहुजीवप्रघातोत्थं बहुजीवोद्भवास्पदम्। असंयमविभीतेन त्रेधा मध्वपि वर्ज्यते।62।</span> = <span class="HindiText">संयम की रक्षा करने वालों को बहुत जीवों के घात से उत्पन्न तथा बहुत जीवों की उत्पत्ति के स्थानभूत मधु को मन वचन काय से छोड़ देना चाहिए।</span><br /> | यो.सा./अ/8/32 <span class="SanskritGatha">बहुजीवप्रघातोत्थं बहुजीवोद्भवास्पदम्। असंयमविभीतेन त्रेधा मध्वपि वर्ज्यते।62।</span> = <span class="HindiText">संयम की रक्षा करने वालों को बहुत जीवों के घात से उत्पन्न तथा बहुत जीवों की उत्पत्ति के स्थानभूत मधु को मन वचन काय से छोड़ देना चाहिए।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> अमितगति श्रावकाचार/5/32 </span><span class="SanskritGatha">योऽत्ति नाम भेषजेच्छया, सोऽपि याति लघु दुःखमुल्वणम्। किं न नाशयति जीवितेच्छया, भक्षितं झटिति जीवितं विषम्।32। </span>= <span class="HindiText">जो औषध की इच्छा से भी मधु खाता है, सो भी तीव्र दुःख को शीघ्र प्राप्त होता है, क्योंकि, जीने की इच्छा से खाया हुआ विष, क्या शीघ्र ही जीवन का नाश नहीं कर देता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/2/11 </span><span class="SanskritGatha">मधुकृद्व्रातघातोत्थं मध्वशुच्यपि बिंदुश:। खादन् बध्नात्यघं सप्तग्रामदाहांहसोऽधिकम्।32।</span> = <span class="HindiText">मधु को उपार्जन करने वाले प्राणियों के समूह के नाश से उत्पन्न होने वाली तथा अपवित्र, ऐसी मधु की एक बूँद भी खानेवाला पुरुष सात ग्रामों को जलाने से भी अधिक पाप को बाँधता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> लाटी संहिता/2/72-74 </span><span class="SanskritGatha">माक्षिकं मक्षिकानां हि मांसासृक् पीडनोद्भवम्। प्रसिद्धं सर्वलोके स्यादागमेष्वपि सूचितम्।72 न्यायात्तद्भक्षणे नूनं पिशिताशनदूषणम्। त्रसास्ता मक्षिका यस्मादामिषं तत्कलेवरम्।73। किंच तत्र निकोतादि जीवा: संसर्गजा क्षणात्। संमूर्च्छिमा न मुंचंति तत्सनं जातु क्रव्यवत्।74।</span> = <span class="HindiText">मधु की उत्पत्ति मक्खियों के मांस रक्त आदि के निचोड़ से होती है, यह बात समस्त संसार में प्रसिद्ध है, तथा शास्त्रों में भी यही बात बतलायी है।72। इस प्रकार न्याय से भी यह बात सिद्ध हो जाती है कि मधु के खाने में मांस-भक्षण का दोष आता है, क्योंकि मक्खियाँ त्रस जीव होने से उनका कलेवर मांस कहलाता है।73। इसके सिवाय एक बात यह भी है कि जिस प्रकार मांस में सूक्ष्म निगोदराशि उत्पन्न होती रहती है, उसी प्रकार जिस किसी भी अवस्था में रहते हुए भी मधु में सदा जीव उत्पन्न होते रहते हैं। उन जीवों से रहित मधु कभी नहीं होता है।74।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> मधुत्याग के अतिचार</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> मधुत्याग के अतिचार</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/3/13 </span><span class="SanskritGatha">प्राय: पुष्पाणि नाश्नीयान्मधुव्रतविशुद्धये। वस्त्यादिष्वपि मध्वादिप्रयोगं नार्हति व्रती।13।</span> = <span class="HindiText">मधुत्याग व्रती के लिए फूलों का खाना तथा वस्तिकर्म आदि (पिंडदान या औषधि आदि) के लिए भी मधु को खाना वर्जित है। ‘प्राय:’ शब्द से, अच्छी तरह से शोधे जाने योग्य महुआ व नागकेसर आदि के फूलों का अत्यंत निषेध नहीं किया गया है। (यह अर्थ पं. आशाधर जी ने स्वयं लिखा है )।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> लाटी संहिता/2/77 </span><span class="SanskritGatha"> प्राग्वदत्राप्यतीचारा: संति केचिज्जिनागमात्। यथा पुष्परस: पीत: पुष्पाणामासवो यथा।77।</span> = <span class="HindiText">मद्य व मांसवत् मधु के अतिचारों का भी शास्त्रों में कथन किया गया है। जैसे -फूलों का रस या उनसे बना हुआ आसव आदि का पीना। गुलकंद का खाना भी इसी दोष में गर्भित है। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> मधु नामक पौराणिक पुरुष</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> मधु नामक पौराणिक पुरुष</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> <span class="GRef"> महापुराण/59/88 </span>पूर्वभव में वर्तमान नारायण का धन जुए में जीता था। और वर्तमान भव में तृतीय प्रतिनारायण हुआ। अपर नाम ‘मेरक’ था।–विशेष देखें [[ शलका पुरुष#5 | शलका पुरुष - 5]]। </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> <span class="GRef"> पद्मपुराण/ </span>सर्ग/श्लोक।–मथुरा के राजा हरिवाहन का पुत्र था। (12/3)। रावण की पुत्री कृतिचित्रा का पति था। (12/18)। रामचंद्रजी के छोटे भाई शत्रुघ्न के साथ युद्ध करते समय प्रतिबोध को प्राप्त हुआ। (89/96)। हाथी पर बैठे-बैठे दीक्षा धारण कर ली। (89/111)। तदनंतर समाधिमरण-पूर्वक सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुआ। (89/115)।</li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> <span class="GRef"> हरिवंशपुराण/43/ </span>श्लोक–अयोध्या नगरी में हेमनाभ का पुत्र तथा कैटभ का बड़ा भाई था।159। राज्य प्राप्त करके। (160)। राजा वीरसेन की स्त्री चंद्राभा पर मोहित हो गया। (165)। बहाना कर दोनों को अपने घर बुलाया तथा चंद्राभा को रोककर वीरसेन को लौटा दिया। (171-176)। एक बार एक व्यक्ति को परस्त्रीगमन के अपराध में राजा मधु ने हाथ-पाँव काटने का दंड दिया। इस चंद्रभा ने उसे उसका अपराध याद दिलाया। जिससे उसे वैराग्य आ गया और विमलवाहन मुनि के संघ में भाई कैटभ आदि के साथ दीक्षित हो गया। चंद्राभा ने भी आर्यिका की दीक्षा ली। (180-202)। शरीर छोड़ आरण अच्युत स्वर्ग में इंद्र हुआ। (216)। यह प्रद्युम्न कुमार का पूर्व का दूसरा भव है।–देखें [[ प्रद्मुम्न ]]।</li> | ||
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Revision as of 13:01, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- मधु की अभक्ष्यता का निर्देश―(देखें भक्ष्याभक्ष्य - 2)।
- मधु-निषेध का कारण
देखें मांस - 2 नवनीत, मद्य, मांस व मधु ये चार महाविकृतियाँ हैं।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/69-70 मधुशकलमपि प्रायो मधुरकरहिंसात्मको भवति लोके। भजति मधुमूढधीको य: स भवति हिंसकोऽत्यंतकम्।69। स्वयमेव विगलितं यो गृह्णोयाद्वा छलेन मधुगोलात्। तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात्।70। = मधु की बूँद भी मधुमक्खी की हिंसारूप ही होती है, अत: जो मंदमति मधु का सेवन करता है, वह अत्यंत हिंसक है।69। स्वयमेव चूए हुए अथवा छल द्वारा मधु के छत्ते से लिये हुए मधु का ग्रहण करने से भी हिंसा होती है, क्योंकि इस प्रकार उसके आश्रित रहने वाले अनेकों क्षुद्रजीवों का घात होता है।
यो.सा./अ/8/32 बहुजीवप्रघातोत्थं बहुजीवोद्भवास्पदम्। असंयमविभीतेन त्रेधा मध्वपि वर्ज्यते।62। = संयम की रक्षा करने वालों को बहुत जीवों के घात से उत्पन्न तथा बहुत जीवों की उत्पत्ति के स्थानभूत मधु को मन वचन काय से छोड़ देना चाहिए।
अमितगति श्रावकाचार/5/32 योऽत्ति नाम भेषजेच्छया, सोऽपि याति लघु दुःखमुल्वणम्। किं न नाशयति जीवितेच्छया, भक्षितं झटिति जीवितं विषम्।32। = जो औषध की इच्छा से भी मधु खाता है, सो भी तीव्र दुःख को शीघ्र प्राप्त होता है, क्योंकि, जीने की इच्छा से खाया हुआ विष, क्या शीघ्र ही जीवन का नाश नहीं कर देता है।
सागार धर्मामृत/2/11 मधुकृद्व्रातघातोत्थं मध्वशुच्यपि बिंदुश:। खादन् बध्नात्यघं सप्तग्रामदाहांहसोऽधिकम्।32। = मधु को उपार्जन करने वाले प्राणियों के समूह के नाश से उत्पन्न होने वाली तथा अपवित्र, ऐसी मधु की एक बूँद भी खानेवाला पुरुष सात ग्रामों को जलाने से भी अधिक पाप को बाँधता है।
लाटी संहिता/2/72-74 माक्षिकं मक्षिकानां हि मांसासृक् पीडनोद्भवम्। प्रसिद्धं सर्वलोके स्यादागमेष्वपि सूचितम्।72 न्यायात्तद्भक्षणे नूनं पिशिताशनदूषणम्। त्रसास्ता मक्षिका यस्मादामिषं तत्कलेवरम्।73। किंच तत्र निकोतादि जीवा: संसर्गजा क्षणात्। संमूर्च्छिमा न मुंचंति तत्सनं जातु क्रव्यवत्।74। = मधु की उत्पत्ति मक्खियों के मांस रक्त आदि के निचोड़ से होती है, यह बात समस्त संसार में प्रसिद्ध है, तथा शास्त्रों में भी यही बात बतलायी है।72। इस प्रकार न्याय से भी यह बात सिद्ध हो जाती है कि मधु के खाने में मांस-भक्षण का दोष आता है, क्योंकि मक्खियाँ त्रस जीव होने से उनका कलेवर मांस कहलाता है।73। इसके सिवाय एक बात यह भी है कि जिस प्रकार मांस में सूक्ष्म निगोदराशि उत्पन्न होती रहती है, उसी प्रकार जिस किसी भी अवस्था में रहते हुए भी मधु में सदा जीव उत्पन्न होते रहते हैं। उन जीवों से रहित मधु कभी नहीं होता है।74। - मधुत्याग के अतिचार
सागार धर्मामृत/3/13 प्राय: पुष्पाणि नाश्नीयान्मधुव्रतविशुद्धये। वस्त्यादिष्वपि मध्वादिप्रयोगं नार्हति व्रती।13। = मधुत्याग व्रती के लिए फूलों का खाना तथा वस्तिकर्म आदि (पिंडदान या औषधि आदि) के लिए भी मधु को खाना वर्जित है। ‘प्राय:’ शब्द से, अच्छी तरह से शोधे जाने योग्य महुआ व नागकेसर आदि के फूलों का अत्यंत निषेध नहीं किया गया है। (यह अर्थ पं. आशाधर जी ने स्वयं लिखा है )।
लाटी संहिता/2/77 प्राग्वदत्राप्यतीचारा: संति केचिज्जिनागमात्। यथा पुष्परस: पीत: पुष्पाणामासवो यथा।77। = मद्य व मांसवत् मधु के अतिचारों का भी शास्त्रों में कथन किया गया है। जैसे -फूलों का रस या उनसे बना हुआ आसव आदि का पीना। गुलकंद का खाना भी इसी दोष में गर्भित है। - मधु नामक पौराणिक पुरुष
- महापुराण/59/88 पूर्वभव में वर्तमान नारायण का धन जुए में जीता था। और वर्तमान भव में तृतीय प्रतिनारायण हुआ। अपर नाम ‘मेरक’ था।–विशेष देखें शलका पुरुष - 5।
- पद्मपुराण/ सर्ग/श्लोक।–मथुरा के राजा हरिवाहन का पुत्र था। (12/3)। रावण की पुत्री कृतिचित्रा का पति था। (12/18)। रामचंद्रजी के छोटे भाई शत्रुघ्न के साथ युद्ध करते समय प्रतिबोध को प्राप्त हुआ। (89/96)। हाथी पर बैठे-बैठे दीक्षा धारण कर ली। (89/111)। तदनंतर समाधिमरण-पूर्वक सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुआ। (89/115)।
- हरिवंशपुराण/43/ श्लोक–अयोध्या नगरी में हेमनाभ का पुत्र तथा कैटभ का बड़ा भाई था।159। राज्य प्राप्त करके। (160)। राजा वीरसेन की स्त्री चंद्राभा पर मोहित हो गया। (165)। बहाना कर दोनों को अपने घर बुलाया तथा चंद्राभा को रोककर वीरसेन को लौटा दिया। (171-176)। एक बार एक व्यक्ति को परस्त्रीगमन के अपराध में राजा मधु ने हाथ-पाँव काटने का दंड दिया। इस चंद्रभा ने उसे उसका अपराध याद दिलाया। जिससे उसे वैराग्य आ गया और विमलवाहन मुनि के संघ में भाई कैटभ आदि के साथ दीक्षित हो गया। चंद्राभा ने भी आर्यिका की दीक्षा ली। (180-202)। शरीर छोड़ आरण अच्युत स्वर्ग में इंद्र हुआ। (216)। यह प्रद्युम्न कुमार का पूर्व का दूसरा भव है।–देखें प्रद्मुम्न ।
पुराणकोष से
(1) वसंत ऋतु । हरिवंशपुराण 55.29
(2) एक लेह्य पदार्थ-शहद । इसकी इच्छा, सेवन और अनुमोदना नरक का कारण है । महापुराण 10.21, 25-26
(3) तापस सित तथा तापसी मृगशृंगिणी का पुत्र । एक दिन इसने विनयदत्त द्वारा दत्त आहारदान का माहात्म्य देखकर दीक्षा ले ली थी । अंत में यह मरकर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ था और वहाँ से चयकर कीचक हुआ । हरिवंशपुराण 46.54-55
(4) भरतक्षेत्र का एक पर्वत । इसका अपर नाम धरणोमौलि था । किष्किंधपुर की रचना हो जाने के बाद यह किष्किंध नाम से विख्यात हुआ । पद्मपुराण 1. 58, 5.508-511, 520-521
(5) रत्नपुर नगर का नृप-तीसरा प्रतिनारायण । पूर्वभव में यह राजा बलि था । इसने इस पर्याय में वर्तमान नारायण स्वयंभू के पूर्वभव के जीव सुकेतु का जुए में समस्त धन जीत लिया था । पूर्व जन्म के इस वैर से नारायण स्वयंभू मधु का नाम भी नहीं सुनना चाहता था । वह मधु के लिए प्राप्त किसी भी राजा की भेंट को स्वयं ले लेता था । इससे कुपित होकर मधु ने स्वयंभू को मारने के लिए चक्र चलाया था किंतु चक्र स्वयंभू की दाहिनी भुजा पर जाकर स्थिर हो गया । इसी से स्वयंभू ने मधु को मारा था वह मरकर सातवें नरक में उत्पन्न हुआ । महापुराण 59. 88-99
(6) प्रद्युम्नकुमार के दूसरे पूर्वभव का जीव― जंबूद्वीप के कुरू जांगल देश के हस्तिनापुर नगर के राजा अर्हद्दास और उसकी रानी काश्यपा का ज्येष्ठ पुत्र और क्रीडव का बड़ा भाई । अर्हद्दास ने इसे राज्य और क्रीडव को युवराज पद देकर दीक्षा ले ली थी । अमलकंठ नगर का राजा कनकरथ इसका सेवक था । एक दिन यह कनकरथ की स्त्री कनकमाला को देखकर उस पर आसक्त हो गया । इसने कनकमाला को अपनी रानी भी बना लिया । अंत में विमलवाहन मुनि से धर्म-श्रवण कर इसने दुराचार की निंदा की और भाई क्रीडव के साथ यह संयमी बन गया । आयु के अंत में विधिपूर्वक आराधना करके दोनों भाई महाशुक्र स्वर्ग में इंद्र हुए । यह वहाँ से च्युत होकर रुक्मिणी का पुत्र हुआ हरिवंशपुराण में इसे अयोध्या नगरी के राजा हेमनाभ की रानी धरावती का पुत्र कहा है तथा वटपुर नगर के वीरसेन की स्त्री चंद्राभा पर आसक्त बताया गया है । परस्त्री-सेवी को क्या दंड दिया जावे पूछे जाने पर इसने उसके हाथ-पैर और सिर काटकर शारीरिक दंड देने के लिए ज्यों ही कहा कि चंद्राभा ने तुरंत ही इससे कहा था कि परस्त्रीहरण का अपराध तो इसने भी किया है । यह सुनकर यह विरक्त हुआ और इसने दीक्षा ले ली । इस प्रकार दोनों भाई शरीर-त्याग कर क्रमश: आरण और अच्युत स्वर्ग में इंद्र और सामानिक देव हुए । इसके पुत्र का नाम कुलवर्धन था । महापुराण 72.38-46, हरिवंशपुराण 43.159-215
(7) मथुरा नगरी के हरिवंशी राजा हरिवाहन और उसकी रानी माधवी का पुत्र । असुरेंद्र ने इसे सहस्नांतक शूलरत्न दिया था । रावण की पुत्री कृतचित्रा इसकी पत्नी थी । शत्रुघ्न ने मथुरा का राज्य लेने के लिए इससे युद्ध किया था युद्ध में अपने पुत्र लवणार्णव के मारे जाने पर इसने अपना अंत निकट जान लिया था । अत उसी समय दिगंबर मुनियों के वचन स्मरण करके इसने दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग किया और मुनि होकर केशलोंच किया था अंत में समाधिपूर्वक शरीर त्याग कर यह सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुआ । पद्मपुराण 12. 6-18, 53-54, 80, 111, 115, 89.5-6
(8) एक नृप । जरासंध ने कृष्ण के पक्षधरों से युद्ध करने के लिए इसके मस्तक पर चर्मपट्ट बांध कर इसे सेना के साथ समरभूमि में भेजा था । इसने कृष्ण का मस्तक काटने और पांडवों का विनाश करने की घोषणा की थी पर यह सफल नहीं हुआ । पांडवपुराण 20.304
(9) राम के समय का एक पेय-मदिरा । इसका व्यवहार सैनिकों में होता था । स्त्रियां भी मधु-पान करती थी । पद्मपुराण 73. 139, 102.105