महामेरु: Difference between revisions
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<p> सुमेरु पर्वत । यह जंबूद्वीप के मध्यभाग में अवस्थित तथा एक लाख योजन विस्तार वाला है । यह कभी नष्ट नहीं होता । इसका मूलभाग वज्रमय है । ऊपर का भाग स्वर्ण तथा मणियों एव रत्नों से निर्मित है । सौधर्म स्वर्ग की भूमि और इस पर्वत के शिखर में केवल बाल के अग्रभाग बराबर ही अंतर रह जाता है । समतल पृथिवी से यह निन्यानवे हजार नीचे पृथिवी के भीतर है । पृथिवी पर दश हजार योजन और शिखर पर एक हजार योजन चौड़ा है । इसके मध्यभाग के नीचे भद्रशाल महावन, कटिभाग में नंदनवन, इसके ऊपर सौमनस वन और सबसे ऊपर मुकुट के समान पांडुकवन है । इस पांडुकवन में तीर्थंकरों के अभिषेक हेतु एक पांडुक शिला भी है । <span class="GRef"> महापुराण 13.68-71, 78, 82, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 3.32-36, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.1-3 </span></p> | <div class="HindiText"> <p> सुमेरु पर्वत । यह जंबूद्वीप के मध्यभाग में अवस्थित तथा एक लाख योजन विस्तार वाला है । यह कभी नष्ट नहीं होता । इसका मूलभाग वज्रमय है । ऊपर का भाग स्वर्ण तथा मणियों एव रत्नों से निर्मित है । सौधर्म स्वर्ग की भूमि और इस पर्वत के शिखर में केवल बाल के अग्रभाग बराबर ही अंतर रह जाता है । समतल पृथिवी से यह निन्यानवे हजार नीचे पृथिवी के भीतर है । पृथिवी पर दश हजार योजन और शिखर पर एक हजार योजन चौड़ा है । इसके मध्यभाग के नीचे भद्रशाल महावन, कटिभाग में नंदनवन, इसके ऊपर सौमनस वन और सबसे ऊपर मुकुट के समान पांडुकवन है । इस पांडुकवन में तीर्थंकरों के अभिषेक हेतु एक पांडुक शिला भी है । <span class="GRef"> महापुराण 13.68-71, 78, 82, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 3.32-36, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.1-3 </span></p> | ||
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Revision as of 16:56, 14 November 2020
सुमेरु पर्वत । यह जंबूद्वीप के मध्यभाग में अवस्थित तथा एक लाख योजन विस्तार वाला है । यह कभी नष्ट नहीं होता । इसका मूलभाग वज्रमय है । ऊपर का भाग स्वर्ण तथा मणियों एव रत्नों से निर्मित है । सौधर्म स्वर्ग की भूमि और इस पर्वत के शिखर में केवल बाल के अग्रभाग बराबर ही अंतर रह जाता है । समतल पृथिवी से यह निन्यानवे हजार नीचे पृथिवी के भीतर है । पृथिवी पर दश हजार योजन और शिखर पर एक हजार योजन चौड़ा है । इसके मध्यभाग के नीचे भद्रशाल महावन, कटिभाग में नंदनवन, इसके ऊपर सौमनस वन और सबसे ऊपर मुकुट के समान पांडुकवन है । इस पांडुकवन में तीर्थंकरों के अभिषेक हेतु एक पांडुक शिला भी है । महापुराण 13.68-71, 78, 82, पद्मपुराण 3.32-36, हरिवंशपुराण 5.1-3