मुनिसुव्रत: Difference between revisions
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Revision as of 16:32, 19 August 2020
(1) उत्सर्पिणी काल के ग्यारहवें तीर्थंकर । महापुराण 76.479
(2) अवसर्पिणी काल के दुःखमा-सुखमा नामक चौथे काल के उत्तरार्ध में उत्पन्न हुए बीसवें तीर्थंकर । मुनियों को अहिंसा आदि सुव्रतों के दाता होने से ये सार्थक नामधारी थे । इनकी जन्मभूमि भरतक्षेत्र में स्थित मगध देश का राजगृह नगर था । इनके पिता का नाम हरिवंशी काश्यपगोत्री राजा सुमित्र और माता का नाम सोमा था । हरिवंशपुराण के अनुसार इनकी जन्मभूमि कुशाग्रपुर नगर तथा माता का नाम पद्मावती था । इनके गर्भ में आने पर इनको माता ने रात्रि के अंतिम प्रहर में सोलह सूरज देखे थे । वे हैं― गज, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चंद्रमा, बालसूर्य, मत्स्य, कलश, कमलसर, समुद्र, सिंहासन, देवविमान, नागेंद्रभवन, रत्नराशि और निर्धूम अग्नि । ये श्रावण कृष्णा द्वितीया तिथि और श्रवण नक्षत्र में प्राणत स्वर्ग से, हरिवंशपुराण के अनुसार सहस्रार स्वर्ग से अवतरित होकर गर्भ में आये तथा नौ मास साढ़े आठ दिन गर्भ में रहकर मल्लिनाथ तीर्थंकर के पश्चात् चौवन लाख वर्ष व्यतीत हो जाने पर माघ कृष्णा द्वादशी को श्रवण नक्षत्र में उत्पन्न हुए थे । सुमेरु पर्वत पर इनका जन्माभिषेक कर इंद्र ने इनका मुनिसुव्रत नाम रखा था । ये समस्त शुभ लक्षणों से संपन्न थे । शारीरिक ऊँचाई बीस धनुष और कांति मयूरकंठ के समान नीली थी । पूर्ण आयु तीस हजार वर्ष थी । इसमें साढ़े सात हजार वर्ष का इनका कुमारकाल रहा । पंद्रह हजार वर्ष तक इन्होंने राज्य किया और शेष साढ़े सात हजार वर्ष तक संयमी होकर विहार करते रहे । इनके वैराग्य का कारण उनके यागहस्ती नामक हाथी का संयमासंयम ग्रहण करना था । लौकांतिक देवों ने आकर इनके विचारों का समर्थन किया और दीक्षा कल्याणक मनाया । हरिवंशपुराण में इनके वैराग्य का कारण शुभ्रमेघ के उदय और उनके शीघ्र विलीन होने का दृश्यावलोकन कहा है । इन्होंने युवराज विजय को और हरिवंशपुराण के अनुसार रानी प्रभावती के पुत्र सुव्रत को राज्य दिया । इसके पश्चात् ये अपराजित नाम की पालकी में बैठकर नील वन गये थे । वहाँ इन्होंने षष्ठोपवास पूर्वक वैशाख कृष्णा दशमी के दिन श्रवण नक्षत्र में सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण किया था । प्रथम पारणा राजगृहनगर में राजा वृषभसेन के यहाँ हुई थी । उन्होंने इन्हें आहार देकर पांच आश्चर्य प्राप्त किये थे । उन्होंने खड़े होकर पाणिपात्र से खीर का आहार किया था । उसी खीर का आहार हजारों मुनियों को भी दिया गया था, किंतु खीर समाप्त नहीं हुई थी । ग्यारह मास/तेरह मास छद्मस्थ रहकर दीक्षावन (नीलवन) में चंपक वृक्ष के नीचे दो दिन के उपवास का नियम लेकर ध्यान के द्वारा चारों घातिकर्म नाशकर वैशाख कृष्णा दसवीं श्रवण-नक्षत्र में केवली हुए थे । अहमिंद्रों ने इस समय अपने-अपने आसनों से सात-सात पद आगे चलकर हाथ जोड़ करके मस्तक से लगाये और इन्हें परोक्ष नमन किया था सौधर्मेंद्र ने ज्ञानकल्याणक का उत्सव कर समवसरण की रचना की थी । इनके संघ में महापुराण के अनुसार अठारह और हरिवंशपुराण के अनुसार अट्ठाईस गणधर थे । तीस हजार मुनियों में पाँच सौ द्वादशांग के ज्ञाता इक्कीस हजार शिक्षक, एक हजार आठ सौ अवधिज्ञानी, एक हजार आठ सौ केवलज्ञानी, दो हजार दो सौ विक्रियाऋद्धिधारी, एक हजार पाँच सौ मन:पर्ययज्ञानी और एक हजार दो सौ वादी तथा पुष्पदंता आदि पचास हजार आर्यिकाएँ और असंख्यात देव-देवियों का समूह था । इन्होंने आर्य क्षेत्र में विहार किया था । एक मास की आयु शेष रह जाने पर ये सम्मेदाचल आये तथा यही योग-निरोध कर एक हजार मुनियों के साथ खड्गासन से फाल्गुन कृष्णा द्वादशी के दिन रात्रि के पिछले प्रहर में मोक्ष गये । इंद्र ने सोत्साह इनका निर्वाण-कल्याणक मनाया था । महापुराण 2.132, 16.20-21, 67.21-60, हरिवंशपुराण 15.61-62, 16.2-76, पांडवपुराण 22.1, वीरवर्द्धमान चरित्र 1.30, 18. 107