लेश्या: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText" name="1.1" id="1.1"><strong> लेश्या सामान्य के लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.1" id="1.1"><strong> लेश्या सामान्य के लक्षण </strong></span><br /> | ||
पं. सं./प्रा./1/142-143<span class="PrakritGatha"> लिप्पइ अप्पीकीरइ एयाए णियय पुण्ण पावं च। जीवोत्ति होइ लेसा लेसागुणजाणयक्खाया।142। जह गेरुवेण कुड्डो लिप्पइ लेवेण आमपिट्टेण। तह परिणामों लिप्पइ सुहासुहा यत्ति लेव्वेण।143।</span>= <span class="HindiText">जिसके द्वारा जीव पुण्य-पापसे अपनेको लिप्त करता है, उनके आधीन करता है उसको लेश्या कहते हैं।142। ( धवला 1/1,1,4/ ग, 94/150); ( गोम्मटसार जीवकांड/ मू /489) जिस प्रकार आमपिष्टसे मिश्रित गेरु मिट्टीके लेप द्वारा दीवाल लीपी या रंगी जाती है, उसी प्रकार शुभ और अशुभ भावरूप लेपके द्वारा जो आत्माका परिणाम लिप्त किया जाता है उसको लेश्या कहते हैं।143।</span><br /> | पं. सं./प्रा./1/142-143<span class="PrakritGatha"> लिप्पइ अप्पीकीरइ एयाए णियय पुण्ण पावं च। जीवोत्ति होइ लेसा लेसागुणजाणयक्खाया।142। जह गेरुवेण कुड्डो लिप्पइ लेवेण आमपिट्टेण। तह परिणामों लिप्पइ सुहासुहा यत्ति लेव्वेण।143।</span>= <span class="HindiText">जिसके द्वारा जीव पुण्य-पापसे अपनेको लिप्त करता है, उनके आधीन करता है उसको लेश्या कहते हैं।142। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/ </span>ग, 94/150); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/ </span>मू /489) जिस प्रकार आमपिष्टसे मिश्रित गेरु मिट्टीके लेप द्वारा दीवाल लीपी या रंगी जाती है, उसी प्रकार शुभ और अशुभ भावरूप लेपके द्वारा जो आत्माका परिणाम लिप्त किया जाता है उसको लेश्या कहते हैं।143।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/149/6 </span><span class="SanskritText">निमपतीति लेश्या।.... कर्मभिरात्मानमित्याध्या पारपेक्षित्वात्। अथवात्मप्रवृत्तिसंश्लेषणकारी लेश्या। प्रवृतिशब्दस्य कर्मपर्यायत्वात्।</span>= <span class="HindiText">जो म्पिन करी है उसको लेश्या कहते हैं।(<span class="GRef"> धवला 1/1,1,136/283/9 </span>) अथवा जो आत्मा और कर्मका संबंध करनेवाली है उसको लेश्या कहते हैं। यहाँ पर प्रृवत्ति शब्द कर्मका पर्याचवाची है। (<span class="GRef"> धवला 7/2,1,3/7/7 </span>)।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 8/3,273/356/4 </span><span class="PrakritText">का लेस्साणाम। जीव- कम्माणं संसिलेसयणयरी, मिच्छत्तसंजम- कसायजोगा त्ति भणिदं होदि।</span>=<span class="HindiText">जीव व कर्म का संबंध कराती है वह लेश्या कहलाती है। अभिप्राय यह है कि मिथ्यात्व,असंयम, कषाय और योग ये लेश्या हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.2" id="1.2"><strong> लेश्या के भेद-प्रभेद </strong> <br /> | <li><span class="HindiText" name="1.2" id="1.2"><strong> लेश्या के भेद-प्रभेद </strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1.2.1" id="1.2.1"><strong> द्रव्य व भाव दो भेद - </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.2.1" id="1.2.1"><strong> द्रव्य व भाव दो भेद - </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/10 </span><span class="SanskritText">लेश्या द्विविधा, द्रव्यलेश्या भावलेश्या चेति।</span> = <span class="HindiText">लेश्या दो प्रकार की है - द्रव्यलेश्या और भावलेश्या (<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/6/8/109/22 </span>); (<span class="GRef"> धवला 2/1, 1/419/8 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/489/894/12 </span>)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.2.2" id="1.2.2"><strong> द्रव्य-भाव लेश्या के उत्तर भेद-</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.2.2" id="1.2.2"><strong> द्रव्य-भाव लेश्या के उत्तर भेद-</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम /1/,1/ </span>सू. 136/386 <span class="PrakritText">लेस्साणुवादेण अत्थि किण्हलेस्सिया णीललेस्सिया काउलेस्सिया तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया सुक्केस्सिया अलेस्सिया चेदि।136।</span> = <span class="HindiText">लेश्या मार्गणा के अनुवाद से कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या और अलेश्यावाले जीव होते हैं। 136। (<span class="GRef"> धवला 16/485/7 </span>)।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/12 </span><span class="SanskritText">सा षड्विधा - कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या चेति।</span> = <span class="HindiText">लेश्या छह प्रकार की है - कृष्ण लेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, पीतलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/6/8/388/5 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/493/896 </span>); (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/13/38 </span>)।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/494-495/897 </span><span class="PrakritText">दव्वलेस्सा। सा सीढा किण्हादी अणेयभेयो सभेयेण।494। छप्पय णीलकवोदसुहेममंबुजसंखसण्णिहा वण्णे। संखेज्जासंखेज्जाणंतवियप्पा य पत्तेय।495।</span> = <span class="HindiText">द्रव्यलेश्या कृष्णादिक छह प्रकार की है उनमें एक-एक भेद अपने-अपने उत्तर भेदों के द्वारा अनेक रूप है।494। कृष्ण-भ्रमर के सदृश काला वर्ण, नील-नील मणि के सदृश, कापोत-कापोत के सदृश वर्ण, तेजो-सुवर्ण सदृश वर्ण, पद्म-कमल समान वर्ण, शुक्ल - शंख के समानवर्ण वाली है। जिस प्रकार कृष्णवर्म हीन-उत्कृष्ट-पर्यंत अनंत भेदों को लिये है उसी प्रकार छहों द्रव्य-लेश्या के जघन्य से उत्कृष्ट पर्यंत शरीर के वर्ण की अपेक्षा संख्यात, असंख्यात व अनंत तक भेद हो जाते हैं।495।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/704/1141/5 </span><span class="SanskritText"> लेश्या सा च शुभाशुभेदाद् द्वेधा। तत्र अशुभा कृष्णनीलकपोतभेदात् त्रेधा, शुभापि तेजःपद्मशुक्लभेदात्त्रेधा।</span> = <span class="HindiText">वह लेश्या शुभ व अशुभ के भेद से दो प्रकार की है। अशुभ लेश्या कृष्ण, नील व कपोत के भेद से तीन प्रकार की है। और शुभ लेश्या भी पीत, पद्म व शुक्ल के भेद से तीन प्रकार है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.3.1" id="1.3.1"><strong> द्रव्य लेश्या</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.3.1" id="1.3.1"><strong> द्रव्य लेश्या</strong> </span><br /> | ||
पं.सं. /प्रा./1/183-184 <span class="PrakritGatha">किण्हा भमर-सवण्णा णीला पुण णील - गुलियसंकासा। काऊ कओदवण्णा तेऊ तवणिज्जवण्णा दु।183। पम्हा पउमसवण्णा सुक्का पुणु कासकुसुमसंकासा। वण्णंतरं च एदे हवंति परिमिता अणंता वा।184।</span> = <span class="HindiText">कृष्ण लेश्या, भौंरे के समान वर्णवाली, नील लेश्या-नील की गोली, नीलमणि या मयूरकंठ के समान वर्णवाली कापोत-कबूतर के समान वर्णवाली, तेजो-तप्त सुवर्ण के समान वर्णवाली पद्म लेश्या पद्म के सदृश वर्णवाली। और शुक्ललेश्या कांस के फूल के समान श्वेत वर्णवाली है। ( धवला 16/ गा. 1-2/485)।</span><br /> | पं.सं. /प्रा./1/183-184 <span class="PrakritGatha">किण्हा भमर-सवण्णा णीला पुण णील - गुलियसंकासा। काऊ कओदवण्णा तेऊ तवणिज्जवण्णा दु।183। पम्हा पउमसवण्णा सुक्का पुणु कासकुसुमसंकासा। वण्णंतरं च एदे हवंति परिमिता अणंता वा।184।</span> = <span class="HindiText">कृष्ण लेश्या, भौंरे के समान वर्णवाली, नील लेश्या-नील की गोली, नीलमणि या मयूरकंठ के समान वर्णवाली कापोत-कबूतर के समान वर्णवाली, तेजो-तप्त सुवर्ण के समान वर्णवाली पद्म लेश्या पद्म के सदृश वर्णवाली। और शुक्ललेश्या कांस के फूल के समान श्वेत वर्णवाली है। (<span class="GRef"> धवला 16/ </span>गा. 1-2/485)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/7/11/604/13 </span><span class="SanskritText">शरीरनामोदयापादिता द्रव्यलेश्या। </span>=<span class="HindiText"> शरीर नाम कर्मोदय से उत्पन्न द्रव्यलेश्या होती है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/494 </span><span class="PrakritText">वण्णोदयेण जणिदो सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा।</span> = <span class="HindiText">वर्ण नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुआ जो शरीर का वर्ण उसको द्रव्यलेश्या कहते हैं।494। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/536 </span>)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.3.2" id="1.3.2"><strong> भावलेश्या</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.3.2" id="1.3.2"><strong> भावलेश्या</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/11 </span><span class="SanskritText">भावलेश्या कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्तिरिति कृत्वा औदयिकोत्युच्यते।</span> =<span class="HindiText"> भावलेश्या कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति रूप है, इसलिए वह औदयिकी कही जाती है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/6/8/109/14 </span>); (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/13/38/5 </span>)।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/149/8 </span><span class="SanskritText">कषायानुरंजिता कायवाङ्मनोयोगप्रवृत्तिर्लेश्या</span> =<span class="HindiText"> कषाय से अनुरंजित मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/490/895 </span>); (<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/ </span>ता.प्र./119)।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/536/931 </span><span class="PrakritText">लेस्सा। मोहोदयखओवसमोवसमखयजजीव- फंदणं भावो।</span> = <span class="HindiText">मोहनीय कर्म के उदय, क्षयोपशम, उपशम अथवा क्षय से उत्पन्न हुआ जो जीव का स्पंंद सो भावलेश्या है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.4.1" id="1.4.1">.<strong> कृष्णलेश्या</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.1" id="1.4.1">.<strong> कृष्णलेश्या</strong> </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./1/144-145 <span class="PrakritGatha">चंडो ण मुयदि वेरं भंडण-सीलो य धम्म दयरहिओ। दुट्ठो ण य एदि वसं लक्खणमेदं तु किण्हस्स।200। मंदो बुद्धि- विहीणो णिव्विणाणी य विसय-लोलो य। माणी मायी य तहा आलस्सो चेय भेज्जो य।201।</span> = <span class="HindiText">तीव्र क्रोध करने वाला हो, वैरको न छोड़े, लड़ना जिसका स्वभाव हो, धर्म और दया से रहित हो, दुष्ट हो, जो किसी के वश को प्राप्त न हो, ये सब कृष्णलेश्यावालों के लक्षण हैं।200। मंद अर्थात् स्वच्छंद हो, वर्तमान कार्य करने में विवेकरहित हो। कलाचातुर्य से रहित हो, पंचेंद्रिय के विषयों में लंपट हो, मानी, मायावी, आलसी और भीरु हो, ये सब कृष्णलेश्या वालों के लक्षण हैं।201। ( धवला 1/1,1,136/ गा. 200-201/388), ( गोम्मटसार जीवकांड/509-510 )।</span><br /> | पं.सं./प्रा./1/144-145 <span class="PrakritGatha">चंडो ण मुयदि वेरं भंडण-सीलो य धम्म दयरहिओ। दुट्ठो ण य एदि वसं लक्खणमेदं तु किण्हस्स।200। मंदो बुद्धि- विहीणो णिव्विणाणी य विसय-लोलो य। माणी मायी य तहा आलस्सो चेय भेज्जो य।201।</span> = <span class="HindiText">तीव्र क्रोध करने वाला हो, वैरको न छोड़े, लड़ना जिसका स्वभाव हो, धर्म और दया से रहित हो, दुष्ट हो, जो किसी के वश को प्राप्त न हो, ये सब कृष्णलेश्यावालों के लक्षण हैं।200। मंद अर्थात् स्वच्छंद हो, वर्तमान कार्य करने में विवेकरहित हो। कलाचातुर्य से रहित हो, पंचेंद्रिय के विषयों में लंपट हो, मानी, मायावी, आलसी और भीरु हो, ये सब कृष्णलेश्या वालों के लक्षण हैं।201। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,136/ </span>गा. 200-201/388), (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/509-510 </span>)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/2/295-296 </span><span class="PrakritGatha">किण्हादितिलेस्सजुदा जे पुरिसा ताण लक्खणं एदं। गोत्तं तह सकलत्तं एक्कं वंछेदि मारिदुं दुट्ठो।295। धम्म दया परिचत्तो अमुक्कवेरो पयंडकलहयरो। बहुकोहो किण्हाए जम्मदि धूमादि चरिमंते।296। </span>= <span class="HindiText">कृष्णलेश्या से युक्त दुष्ट पुरुष अपने ही गोत्रीय तथा एकमात्र स्वकलत्र को भी मारने की इच्छा करता है।295। दया -धर्म से रहित, वैरको न छोड़ने वाला, प्रचंड कलह करने वाला और क्रोधी जीव कृष्णलेश्या के साथ धूमप्रभा पृथिवी से अंतिम पृथिवी तक जन्म लेता है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/22/10/239/25 </span><span class="SanskritText">अनुनयानभ्युपगमोपदेशाग्रहणवैरामोचनातिचंडत्व -दुर्मुखत्व - निरनुकंपता-क्लेशन-मारणा-परितोषणादि कृष्णलेश्या लक्षणम्।</span> =<span class="HindiText"> दुराग्रह, उपदेशावमानन, तीव्र वैर, अतिक्रोध, दुर्मुख, निर्दयता, क्लेश, ताप, हिंसा, असंतोष आदि परम तामसभा व कृष्णलेश्या के लक्षण हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.4.2" id="1.4.2"><strong> नीललेश्या</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.2" id="1.4.2"><strong> नीललेश्या</strong> </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./1/146<span class="PrakritGatha"> णिद्दावंचण-बहुलो धण-धण्णे होइ तिव्व-सण्णो य। लक्खणभेदं भणियं समासदो णील-लेस्सस्स।202। </span>= <span class="HindiText">बहुत निद्रालु हो, पर वचन में अतिदक्ष हो, और धन-धान्य के संग्रहादि में तीव्र लालसावाला हो, ये सब संक्षेप से नीललेश्यावाले के लक्षण कहे गये हैं।146। ( धवला 1/1,1,136/ गा. 202/389); ( गोम्मटसार जीवकांड/511/590 ); (पं.सं./मं./1/274)।</span><br /> | पं.सं./प्रा./1/146<span class="PrakritGatha"> णिद्दावंचण-बहुलो धण-धण्णे होइ तिव्व-सण्णो य। लक्खणभेदं भणियं समासदो णील-लेस्सस्स।202। </span>= <span class="HindiText">बहुत निद्रालु हो, पर वचन में अतिदक्ष हो, और धन-धान्य के संग्रहादि में तीव्र लालसावाला हो, ये सब संक्षेप से नीललेश्यावाले के लक्षण कहे गये हैं।146। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,136/ </span>गा. 202/389); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/511/590 </span>); (पं.सं./मं./1/274)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/2/297-298 </span><span class="PrakritGatha">विसयासत्तो विमदी माणी विण्णाणवज्जिदो मंदो। अलसो भीरूमायापवंचबहलो य णिद्दालू।297। परवंचणप्पसत्तो लोहंधो धणसुहाकंखी। बहुसण्णा णीलाए जम्मदि तं चेव धूमंतं।298।</span> =<span class="HindiText"> विषयों में आसक्त, मतिहीन, मानी, विवेक बुद्धि से रहित, मंद, आलसी, कायर, प्रचुर माया प्रपंच में संलग्न, निंद्राशील, दूसरों केठगने में तत्पर, लोभ से अंध, धन-धान्यजनित सुखका इच्छुक और बहुसंज्ञायुक्त अर्थात्आहारादि संज्ञाओं में आसक्त ऐसा जीव, नीललेश्या के साथ धूम्रप्रभा तक जाता है।297-298।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/22/11/239/26 </span><span class="SanskritText"> आलस्य-विज्ञानहानि-कार्यानिष्ठापनभीरूता- विषयातिगृद्धि-माया-तृष्णातिमानवंचनानृतभाषण-चापलातिलुब्धत्वादि नीललेश्यालक्षणम्।</span> = <span class="HindiText">आलस्य, मूर्खता, कार्यानिष्ठा, भीरुता, अतिविषयाभिलाष, अतिगृद्धि, माया, तृष्णा, अतिमान, वंचना, अनृत भाषण, चपलता, अतिलोभ आदि भाव नीललेश्या के लक्षण हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.4.3" id="1.4.3"><strong> कापोतलेश्या</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.3" id="1.4.3"><strong> कापोतलेश्या</strong> </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./1/147-148 <span class="PrakritGatha">रूसइ णिदंइ अण्णे दूसणबहलोय सोय-भय-बहलो। असुवइ परिभवइपरं पसंसइ य अप्पयं बहुसो।147। ण य पत्तियइ परं सो अप्पाणं पिव परं पि मण्णंतो।तूसइ अइथुव्वंतो ण य जाणइ ट्ठणि-बड्ढीओ।148। मरणं पत्थेइ रणे देइ सु बहुयं पिथुव्वमाणो हु। ण गणइ कज्जाकज्जं लक्खणमेयं तु काउस्स।149। </span>= <span class="HindiText">जो दूसरें के ऊपर रोष करता हो, दूसरों की निंदा करता हो, दषूण बहुल हो, शोक बहुल हो, भय बहुल हो, दूसरों सेईर्ष्या करता हो, पर का परभाव करता हो, नाना प्रकार से अपनी प्रशंसा करता हो, पर का विश्वास न करता हो, अपने समान दूसरे को मानता हो, स्तुति किये जाने पर अति संतुष्ट हो, अपनी हानि और वृद्धि को न जानता हो, रण में मरण का इच्छुक हो, स्तुति या प्रशंसा किये जाने पर बहुत धनादिक देवे और कर्तव्य-अकर्तव्य को कुछ भी न गिनता हो, ये सब कापोत लेश्या के चिह्न हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/2/299-301 );( धवला 1/1,1,136/ गा. 203-205/389); ( गोम्मटसार जीवकांड/512-514/910-911 ); (पं.सं./सं./1/276-277)।</span><br /> | पं.सं./प्रा./1/147-148 <span class="PrakritGatha">रूसइ णिदंइ अण्णे दूसणबहलोय सोय-भय-बहलो। असुवइ परिभवइपरं पसंसइ य अप्पयं बहुसो।147। ण य पत्तियइ परं सो अप्पाणं पिव परं पि मण्णंतो।तूसइ अइथुव्वंतो ण य जाणइ ट्ठणि-बड्ढीओ।148। मरणं पत्थेइ रणे देइ सु बहुयं पिथुव्वमाणो हु। ण गणइ कज्जाकज्जं लक्खणमेयं तु काउस्स।149। </span>= <span class="HindiText">जो दूसरें के ऊपर रोष करता हो, दूसरों की निंदा करता हो, दषूण बहुल हो, शोक बहुल हो, भय बहुल हो, दूसरों सेईर्ष्या करता हो, पर का परभाव करता हो, नाना प्रकार से अपनी प्रशंसा करता हो, पर का विश्वास न करता हो, अपने समान दूसरे को मानता हो, स्तुति किये जाने पर अति संतुष्ट हो, अपनी हानि और वृद्धि को न जानता हो, रण में मरण का इच्छुक हो, स्तुति या प्रशंसा किये जाने पर बहुत धनादिक देवे और कर्तव्य-अकर्तव्य को कुछ भी न गिनता हो, ये सब कापोत लेश्या के चिह्न हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/2/299-301 </span>);(<span class="GRef"> धवला 1/1,1,136/ </span>गा. 203-205/389); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/512-514/910-911 </span>); (पं.सं./सं./1/276-277)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/22/10/239/28 </span><span class="SanskritText">मात्सर्य - पैशुन्य- परपरिभवात्मप्रशंसापरपरिवादवृद्धिहान्यगणनात्मीय जो वितनिराशता प्रशस्यमानधनदान युद्धनरगौद्ययादि कापोत लेश्यालक्षणम्।</span> = <span class="HindiText">मात्सर्य, पैशुन्य, परपरिभव, आत्माप्रशंसा परपरिवाद, जीवन नैराश्य, प्रशंसक को धन देना, युद्ध मरणोद्यम आदि कापोत लेश्या के लक्षण हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.4.4" id="1.4.4"><strong> पीत लेश्या</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.4" id="1.4.4"><strong> पीत लेश्या</strong> </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./1/150 <span class="PrakritGatha">जाणइ कज्जाकज्जं सेयासेयं च सव्वसमपासी। दय-दाणरदो य विद लक्खणमेयं तु तेउस्स।150।</span> = <span class="HindiText">जो अपने कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य और सेव्य-असेव्य को जानता हो, सब में समदर्शी हो, दया और दान में रत हो, मृद स्वभावी और ज्ञानी हो, ये सब तेजोलेश्यावाले के लक्षण हैं।150। ( धवला 1/1,1,136/ गा. 206/389); ( गोम्मटसार जीवकांड/515/911 ); (पं.सं./सं./2/279) (दे आयु/3)।</span><br /> | पं.सं./प्रा./1/150 <span class="PrakritGatha">जाणइ कज्जाकज्जं सेयासेयं च सव्वसमपासी। दय-दाणरदो य विद लक्खणमेयं तु तेउस्स।150।</span> = <span class="HindiText">जो अपने कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य और सेव्य-असेव्य को जानता हो, सब में समदर्शी हो, दया और दान में रत हो, मृद स्वभावी और ज्ञानी हो, ये सब तेजोलेश्यावाले के लक्षण हैं।150। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,136/ </span>गा. 206/389); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/515/911 </span>); (पं.सं./सं./2/279) (दे आयु/3)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/22/10/239/29 </span><span class="SanskritText">दृढमित्रता सानुक्रोशत्व-सत्यवाद दानशीलात्मीयकार्यसंपादनपटुविज्ञानयोग- सर्वधर्मसमदर्शनादि तेजोलेश्या लक्षणम्।</span> =<span class="HindiText">दृढता, मित्रता, दयालुता, सत्यवादिता, दानशीलत्व, स्वकार्य-पटुता, सर्वधर्म समदर्शित्व आदि तेजोलेश्या के लक्षण हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.4.5" id="1.4.5"><strong> पद्मलेश्या</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.5" id="1.4.5"><strong> पद्मलेश्या</strong> </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./1/151 <span class="PrakritGatha">चाई भद्दो चोक्खो उज्जुयकम्मो य खमइं वहुयं पि।साहुगुणपूयणिरओ लक्खणमेयं तु पउमस्स।151। </span>=<span class="HindiText"> जो त्यागी हो, भद्र हो, चोखा (सच्चा) हो, उत्तम काम करने वाला हो, बहुत भी अपराध या हानि होने पर क्षमा कर दे, साधुजनों के गुणों के पूजन में निरत हो, ये सब पद्मलेश्या के लक्षण हैं।151। ( धवला 1/1,1,136/206/390 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/516/912 ); (पं.सं./सं./1/151)।</span><br /> | पं.सं./प्रा./1/151 <span class="PrakritGatha">चाई भद्दो चोक्खो उज्जुयकम्मो य खमइं वहुयं पि।साहुगुणपूयणिरओ लक्खणमेयं तु पउमस्स।151। </span>=<span class="HindiText"> जो त्यागी हो, भद्र हो, चोखा (सच्चा) हो, उत्तम काम करने वाला हो, बहुत भी अपराध या हानि होने पर क्षमा कर दे, साधुजनों के गुणों के पूजन में निरत हो, ये सब पद्मलेश्या के लक्षण हैं।151। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,136/206/390 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/516/912 </span>); (पं.सं./सं./1/151)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/22/10/239/31 </span><span class="SanskritText"> सत्यवाक्यक्षमोपेत-पंडित-सत्त्विकदानविशारद-चतुरर्जुगुरुदेवतापूजाकरणनिरतत्वादिपद्मलेश्यालक्षणम्।</span> = <span class="HindiText">सत्यवाक्, क्षमा, सात्विकदान, पांडित्य, गुरु-देवता पूजन में रुचि आदि पद्मलेश्या के लक्षण हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.4.6" id="1.4.6"><strong> शुक्ललेश्या</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4.6" id="1.4.6"><strong> शुक्ललेश्या</strong> </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./1/152 <span class="PrakritGatha">ण कुणेइं पक्खवायं ण वि य णिदाणं समो य सव्वेसु। णत्थि य राओ दोसो णेहो वि हु सुक्कलेसस्स।152। </span>= <span class="HindiText">जो पक्षपात न करता हो, और न निदान करता हो, सब में समान व्यवहार करता हो, जिसे परमें राग-द्वेष वा स्नेह न हो, ये सब शुक्ललेश्या के लक्षण हैं।152। ( धवला 1/1,1,136/208/390 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/517/912 ); )पं.सं./सं./1/281)।</span><br /> | पं.सं./प्रा./1/152 <span class="PrakritGatha">ण कुणेइं पक्खवायं ण वि य णिदाणं समो य सव्वेसु। णत्थि य राओ दोसो णेहो वि हु सुक्कलेसस्स।152। </span>= <span class="HindiText">जो पक्षपात न करता हो, और न निदान करता हो, सब में समान व्यवहार करता हो, जिसे परमें राग-द्वेष वा स्नेह न हो, ये सब शुक्ललेश्या के लक्षण हैं।152। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,136/208/390 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/517/912 </span>); )पं.सं./सं./1/281)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक 4/22/10/239/33 </span><span class="SanskritText">वैररागमोहविरह-रिपुदोषग्रहणनिदानवर्जनसार्व-सावद्यकार्यारंभौदासीन्य -श्रेयोमार्गानुष्ठानादि शुक्ललेश्यालक्षणम्।</span> =<span class="HindiText"> निर्वैर, वीतरागता, शत्रु के भी दोषों पर दृष्टि न देना, निंदा न करना, पाप कार्यों से उदासीनता, श्रेयोमार्ग रुचि आदि शुक्ल लेश्या के लक्षण हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.5" id="1.5"><strong> अलेश्या का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.5" id="1.5"><strong> अलेश्या का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./1/153 <span class="PrakritGatha">किण्हाइलेसरहिया संसारविणिग्गया अणंतसुहा। सिद्धिपुरीसंपत्ता अलेसिया ते मुणेयव्वा।153। </span>= <span class="HindiText">जो कृष्णादि छहों लेश्या से रहित है, पंच परिवर्तन रूप संसार से विनिर्गत है, अनंत सुखी है, और आत्मोपलब्धि रूप सिद्धिपुरी को संप्राप्त है, ऐसे अयोगिकेवली और सिद्ध जीवों को अलेश्या जानना चाहिए।153। ( धवला 1/1,1,136/209/390 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/556 ); (पं.सं./सं./1/283)।<br /> | पं.सं./प्रा./1/153 <span class="PrakritGatha">किण्हाइलेसरहिया संसारविणिग्गया अणंतसुहा। सिद्धिपुरीसंपत्ता अलेसिया ते मुणेयव्वा।153। </span>= <span class="HindiText">जो कृष्णादि छहों लेश्या से रहित है, पंच परिवर्तन रूप संसार से विनिर्गत है, अनंत सुखी है, और आत्मोपलब्धि रूप सिद्धिपुरी को संप्राप्त है, ऐसे अयोगिकेवली और सिद्ध जीवों को अलेश्या जानना चाहिए।153। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,136/209/390 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/556 </span>); (पं.सं./सं./1/283)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1.6" id="1.6"><strong> लेश्या के लक्षण संबंधी शंका </strong> <br /> | <li><span class="HindiText" name="1.6" id="1.6"><strong> लेश्या के लक्षण संबंधी शंका </strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1.6.1" id="1.6.1"><strong>‘लिंपतीति लेश्या’ लक्षण संबंधी</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.6.1" id="1.6.1"><strong>‘लिंपतीति लेश्या’ लक्षण संबंधी</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/149/6 </span><span class="SanskritText">न भूमिलेपिकयातिव्याप्तिदोषः कर्मभिरात्मानमित्याध्याहारापेक्षित्वात्। अथवात्मप्रवृत्तिसंश्लेषणकरी लेश्या। नात्रातिप्रसंगदोषः प्रवृत्तिशब्दस्य कर्मपर्यायत्वात्।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न -</strong> (लिंपन करती है वह लेश्या है यह लक्षण भूमिलेपिका आदि में चला जाता है।) <strong>उत्तर -</strong> इस प्रकार लक्षण करने पर भी भूमि लेपिका आदि में अतिव्याप्त दोष नहीं होता, क्योंकि इस लक्षण में ‘कर्मों से आत्मा को इस अध्याहार की अपेक्षा है’ इसका तात्पर्य है जो कर्मों से आत्मा को लिप्त करती है वह लेश्या है अथवा जो प्रवृत्ति कर्म का संबंध करनेवाली है उसको लेश्या कहते हैं ऐसा लक्षण करने पर अतिव्याप्त दोष भी नहीं आता क्योंकि यहाँ प्रवृत्ति शब्द कर्म का पर्यायवाची ग्रहण किया है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,136/386/10 </span><span class="SanskritText">कषायानुरंजितैव योगप्रवृत्तिर्लेश्येति नात्र परिगृह्यते सयोगकेवलिनोऽलेश्यत्वापत्तेः अस्तु चेन्न, ‘शुक्ललेश्यः सयोगकेवली’ इति वचनव्याघातात्। </span>= <span class="HindiText">‘कषाय से अनुरंजितयोग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं, ‘यह अर्थ यहाँ नहीं ग्रहण करना चाहिए’, क्योंकि इस अर्थ के ग्रहण करने पर सयोगिकेवली को लेश्या रहितपने की आपत्ति होती है। <strong>प्रश्न -</strong> ऐसा ही मान लें तो। <strong>उत्तर -</strong> नहीं, क्योंकि केवली को शुक्ल लेश्या होती है’ इस वचन का व्याघात होता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.6.2" id="1.6.2"><strong>‘कर्म बंध संश्लेषकारी’ के अर्थ में</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.6.2" id="1.6.2"><strong>‘कर्म बंध संश्लेषकारी’ के अर्थ में</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 7/2,1,61/105/4 </span><span class="PrakritText">जदि बंधकारणाणं लेस्सत्तं उच्चादि तो पमादस्स वि लेस्सत्तं किण्ण इच्छिज्जदि। ण, तस्स कसाएसु अंतब्भावादो। असंजमस्स किण्ण इच्छिज्जदि। ण, तस्स वि लेस्सायम्मे अंतब्भावादो। मिच्छत्तस्स किण्ण इच्छिज्जदि। होदु तस्स लेस्साववएसो, विरोहाभावादो। किंतु कसायाणं चेव एत्थ पहाणत्तंहिंसादिलेस्सायम्मकरणादो, सेसेसु तदभावादो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> बंध के कारणों को ही लेश्याभाव कहा जाता है तो प्रमाद को भी लेश्याभाव क्यों न मान लिया जाये। <strong>उत्तर -</strong> नहीं, क्योंकि प्रमाद का तो कषायों में ही अंतर्भाव हो जाता है। (और भी देखें [[ प्रत्यय#1.3 | प्रत्यय - 1.3]])। <strong>प्रश्न -</strong> असंयम को भी लेश्या क्यों नहीं मानते ? <strong>उत्तर- </strong>नहीं, क्योंकि असंयम का भी तो लेश्या कर्म में अंतर्भाव हो जाता है। <strong>प्रश्न – </strong>मिथ्यात्व को लेश्याभाव क्यों नहीं मानते? <strong>उत्तर -</strong> मिथ्यात्व को लेश्याभाव कह सकते हैं, क्योंकि उसमें कोई विरोध नहीं आता। किंतु यहाँ कषायों का ही प्राधान्य है, क्योंकि कषाय ही लेश्या कर्म के कारण हैं और अन्य बंध कारणों में उसका अभाव है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.7" id="1.7"><strong> लेश्या के दोनों लक्षणों का समन्वय</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.7" id="1.7"><strong> लेश्या के दोनों लक्षणों का समन्वय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,136/388/1 </span><span class="SanskritText">संसारवृद्धिहेतुर्लेश्येति प्रतिज्ञायमाने लिंपतीति लेश्येत्यनेन विरोधश्चेन्न, लेपाविनाभावित्वेन तद्वृद्धेरपि तद्व्यपदेशाविरोधात्। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong>संसार की वृद्धि का हेतु लेश्या है ऐसी प्रतिज्ञा करने पर ‘जो लिप्त करती है उसे लेश्या कहते हैं’; इस वचन के साथ विरोध आता है। <strong>उत्तर -</strong> नहीं, क्योंकि, कर्म लेप की अविनाभावी होने रूप से संसार की वृद्धि को भी लेश्या ऐसी संज्ञा देने से कोई विरोध नहीं आता है। अतः उन दोनों से पृथग्भूत लेश्या है यह बात निश्चित हो जाती है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="2.1" id="2.1"><strong> तरतमता की अपेक्षा लेश्याओं में छह विभाग</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.1" id="2.1"><strong> तरतमता की अपेक्षा लेश्याओं में छह विभाग</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,136/388/3 </span><span class="SanskritText">षड्विधः कषायोदयः। तद्यथा, तीव्रतमः तीव्रतरः तीव्रः मंदः मंदतरः मंदतमम् इति। एतेभ्यः षड्भ्यः कषायोदयेभ्यः परिपाट्या षड् लेश्या भवंति।</span> = <span class="HindiText">कषाय का उदय छह प्रकार का होता है। वह इस प्रकार है, तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मंद, मंदतर और मंदतम। इन छह प्रकार के कषाय के उदय से उत्पन्न हई परिपाटी क्रम से लेश्या भी छह हो जाती है। - (और भी देखें [[ आयु#3.19 | आयु - 3.19]])। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="2.2" id="2.2"><strong> लेश्या नाम कषायका है, योग का है वा दोनों का :</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.2" id="2.2"><strong> लेश्या नाम कषायका है, योग का है वा दोनों का :</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,136/386/99 </span><span class="SanskritText">लेश्या नाम योगः कषायस्तावुभौ वा। किं चातो नाद्यौ विकल्पौ योगकषायमार्गणयोरेव तस्या अंतर्भावात्। न तृतीयविकल्पस्तस्यापि तथाविधत्वात्। ... कर्मलेवैककार्यकृर्तत्वेनैकत्वमापन्नयोर्योगकषाययोर्लेश्यात्वाभ्युपगमात्। नैकत्वात्तयोरत्नर्भवति द्वयात्मकैकस्य जात्यांतरमापंनस्य केवलेनैकेन सहैकत्वसमानत्वयोर्विरोधात्।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/149/8 </span><span class="SanskritText"> ततो न केवलः कषायो लेश्या, नापि योगः, अपि तु कषायानुविद्धा योगप्रवृत्तिर्लेश्येति सिद्धम्। ततो न वीतरागाणां योगो लेश्येति न प्रत्यवस्येयं तंत्रत्वाद्योगस्य, न कषायस्तंत्रं विशेषणत्वतस्तस्य प्राधान्याभावात्। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> लेश्या योग को कहते हैं, अथवा, कषाय को कहते हैं, या योग और कषाय दोनों को कहते हैं। इनमें से आदि के दो विकल्प (योग और कषाय) तो मान नहीं सकते, क्योंकि वैसा मानने पर योग और कषाय मार्गणा में ही उसका अंतर्भाव हो जायेगा। तीसरा विकल्प भी नहीं मान सकते हैं क्योंकि वह भी आदि के दो विकल्पों के समान है। <strong>उत्तर -</strong> </span> | |||
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<li class="HindiText"> कर्म लेप रूप एक कार्य को करने वाले होने की अपेक्षा एकपने को प्राप्त हुए योग और कषाय को लेश्या माना है। यदि कहा जाये कि एकता काप्राप्त हुए योग और कषायरूप लेश्या होने से उन दोनों में लेश्या का अर्ंताव हो जायेगा, सो भी ठीक नहीं है क्योंकि दो धर्मों के संयोग से उत्पन्न हुए द्वयात्मक अतएव किसी एक तीसरी अवस्था को प्राप्त हुए किसी एक धर्म का केवल एक के साथ एकत्व अथवा समानता मानने में विरोध आता है। </li> | <li class="HindiText"> कर्म लेप रूप एक कार्य को करने वाले होने की अपेक्षा एकपने को प्राप्त हुए योग और कषाय को लेश्या माना है। यदि कहा जाये कि एकता काप्राप्त हुए योग और कषायरूप लेश्या होने से उन दोनों में लेश्या का अर्ंताव हो जायेगा, सो भी ठीक नहीं है क्योंकि दो धर्मों के संयोग से उत्पन्न हुए द्वयात्मक अतएव किसी एक तीसरी अवस्था को प्राप्त हुए किसी एक धर्म का केवल एक के साथ एकत्व अथवा समानता मानने में विरोध आता है। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> केवल कषाय और केवल योग को लेश्या, नहीं कह सकते हैं किंतु कषायानुविद्ध योगप्रवृत्तिको ही लेश्या कहते हैं, यह बात सिद्ध हो जाती है। इससे बारहवें आदि गुणस्थानवर्ती वीतरागियों के केवल योग को लेश्या नहीं कह सकते ऐसा निश्चय नहीं कर लेना चाहिए, क्योंकि लेश्या में योग की प्रधानता है, कषाय प्रधान नहीं है, क्योंकि, वह योग प्रवृत्ति का विशेषण है, अतएव उसकी प्रधानता नहीं हो सकती है।</span><br /> | <li><span class="HindiText"> केवल कषाय और केवल योग को लेश्या, नहीं कह सकते हैं किंतु कषायानुविद्ध योगप्रवृत्तिको ही लेश्या कहते हैं, यह बात सिद्ध हो जाती है। इससे बारहवें आदि गुणस्थानवर्ती वीतरागियों के केवल योग को लेश्या नहीं कह सकते ऐसा निश्चय नहीं कर लेना चाहिए, क्योंकि लेश्या में योग की प्रधानता है, कषाय प्रधान नहीं है, क्योंकि, वह योग प्रवृत्ति का विशेषण है, अतएव उसकी प्रधानता नहीं हो सकती है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 7/2, 1,63/104/12 </span><span class="PrakritText"> जदि कसाओदए लेस्साओ उच्चंति तो खीणकसायाणं लेस्साभावो पसज्जदे। सच्चभेदं जदि कसाओदयादो चेव लेस्सुप्पत्ती इच्छिज्जदि। किंतु सरीरणामक्ममोदयजणिदजोगोवि लेस्साति इच्छिज्जदि, कम्मबंधणिमित्तत्तादो। </span>= </li> | |||
<li class="HindiText"> क्षीणकषाय जीवों में लेश्या के अभाव का प्रसंग आता यदि केवल कषायोदय से ही लेश्या की उत्पत्ति मानी जाती। किंतु शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योंकि वह भी कर्म के बंध में निमित्त होता है।<br /> | <li class="HindiText"> क्षीणकषाय जीवों में लेश्या के अभाव का प्रसंग आता यदि केवल कषायोदय से ही लेश्या की उत्पत्ति मानी जाती। किंतु शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योंकि वह भी कर्म के बंध में निमित्त होता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="2.3" id="2.3"><strong> योग व कषाय से पृथक् लेश्या मानने की क्या आवश्यकता ?</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.3" id="2.3"><strong> योग व कषाय से पृथक् लेश्या मानने की क्या आवश्यकता ?</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,136/387/5 </span><span class="SanskritText">योगकषायकार्याद्वयतिरिक्तलेश्याकार्यानुपलंभान्न ताभ्यांपृथग्लेश्यास्तीति चेन्न, योगकषायाभ्यां प्रत्यनीकत्वाद्यालंबनाचार्यादिबाह्यार्थसंनिधानेनापन्नलेश्याभावाभ्यां संसारवृद्धिकार्यस्य तत्केवलकार्याद्वयतिरिक्तस्योपलंभात्।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न -</strong> योग और कषायों से भिन्न लेश्या का कार्य नहीं पाया जाता है, इसलिए उन दोनों से भिन्न लेश्या नहीं मानी जा सकती। <strong>उत्तर -</strong> नहीं, क्योंकि, विपरीतता को प्राप्त हुए मिथ्यात्व, अविरति आदि के आलंबन रूप आचार्यादिबाह्य पदार्थों के संपर्क से लेश्या भाव को प्राप्त हुए योग और कषायों से केवल योग और केवल कषाय के कार्य से भिन्न संसार की वृद्धि रूप कार्य की उपलब्धि है जो केवल योग और केवल कषाय का कार्य नहीं कहा जा सकता है, इसलिए लेश्या उन दोनों से भिन्न है, यह बात सिद्ध हो जाती है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="2.4" id="2.4"><strong> लेश्या का कषायों में अंतर्भाव क्यों नहीं कर देते ?</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.4" id="2.4"><strong> लेश्या का कषायों में अंतर्भाव क्यों नहीं कर देते ?</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/6/8/109/25 </span><span class="SanskritText">कषायश्चौदयिको व्याख्यातः, ततो लेश्यानर्थांतरभूतेति; नैष दोषः; कषायोदयतीव्रमंदावस्थापेक्षा भेदादर्थांतरत्वम्। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> कषाय औदयिक होती हैं, इसलिए लेश्या का कषायों में अंतर्भाव हो जाता है। <strong>उत्तर -</strong> यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि, कषायोदय के तीव्र - मंद आदि तारतम्य से अनुरंजित लेश्या पृथक् ही है।<br /> | |||
देखें [[ लेश्या#2.2 | लेश्या - 2.2 ]](केवल कषाय को लेश्या नहीं कहते अपितु कषायानुविद्ध योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं )। <br /> | देखें [[ लेश्या#2.2 | लेश्या - 2.2 ]](केवल कषाय को लेश्या नहीं कहते अपितु कषायानुविद्ध योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं )। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="3.1" id="3.1"><strong> अपर्याप्त काल में शुक्ल व कापोत लेश्या ही होती है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.1" id="3.1"><strong> अपर्याप्त काल में शुक्ल व कापोत लेश्या ही होती है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 2/1,1/422/6 </span><span class="PrakritText">जम्हा सव्व-कम्मस्स विस्सोवचओ सुक्किलो भवदि तम्हा विग्गहगदीएबहमाण-सव्वजीवाणं सरीरस्स सुक्कलेस्सा भवदि। पुणो सरीरं घेत्तूण जाव पज्जत्तीओ समाणेदि ताव छव्वण्ण-परमाणु पुंज-णिप्पज्जमाण -सरीरत्तादो तस्स सरीरस्स लेस्सा काउलेस्सेत्ति भण्णदे, एवं दो सरीरलेस्साओ भवंति।</span> = <span class="HindiText">जिस कारण से संपूर्ण कर्मों काविस्रसोपचय शुक्ल ही होता है, इसलिए विग्रहगति में विद्यमान संपूर्ण जीवों के शरीर को शुक्ललेश्या होती है। तदनंतर शरीर को ग्रहण करके जब तक पर्याप्तियों को पूर्ण करता है तब तक छह वर्ण वाले परमाणुओ के पुंज से शरीर की उत्पत्ति होती है, इसलिए उस शरीर की कपोत लेश्या कही जाती है। इस प्रकार अपर्याप्त अवस्था में शरीर संबंधी दो ही लेश्याएँ होती हैं। (<span class="GRef"> धवला 2/1,1/654/1;609/9 </span>।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3.2" id="3.2"><strong> नरक गति में द्रव्य से कृष्ण लेश्या ही होती है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.2" id="3.2"><strong> नरक गति में द्रव्य से कृष्ण लेश्या ही होती है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड </span>व.जी.प्र./496/898 <span class="SanskritText">णिरया किण्हा।496। नारका सर्वे कृष्णा एव।</span> = <span class="HindiText">नारकी सर्व कृष्ण वर्णवाले ही हैं। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3.3" id="3.3"><strong> जल की द्रव्यलेश्या शुक्ल ही है </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.3" id="3.3"><strong> जल की द्रव्यलेश्या शुक्ल ही है </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 2/1,1/609/9 </span><span class="PrakritText">सुहम आऊणं काउलेस्सा वा बादरआऊणं फलिहवण्णलेस्सा। कुदो।घणोदधि-घणवलयागासपदिद-पाणीयाणं धवलवण्ण दंसणादो। धवल-किसण-णील-पीयल-रत्ताअंब-पाणीय दंसणादो ण धवलवण्णमेव पाणीयमिदि वि पि भणंति, तण्ण घडदे। कुदो। आयारभावे भट्टियाएसंजोगेण जलस्स बहवण्ण-ववहारदंसणादो। आऊणँ सहावण्णो पुण धवलो चेव। </span>=<span class="HindiText"> सूक्ष्मअपकायिक जीवों के अपर्याप्त काल में द्रव्य से कापोतलेश्या और बादरकायिक जीवों के स्फटिकवर्णवाली शुक्ल कहना चाहिए, क्योंकि, घनोदधिवात और घनवलयवात द्वारा आकाश सेगिरे हुए पानी का धवल वर्ण देखा जाता है। <strong>प्रश्न -</strong> कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि धवल, कृष्ण, नील, पीत, रक्त और आताम्र वर्ण का पानी देखा जाने से धवल वर्ण हो होता है। ऐसा कहना नहीं बनता ? <strong>उत्तर -</strong> उनका कहना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि, आधार के होने पर मिट्टी के संयोग से जल अनेक वर्णवाला हो जाता है ऐसा व्यवहार देखा जाता है। किंतु जल का स्वाभाविक वर्ण धवल ही होता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3.4" id="3.4"><strong> भवन त्रिक में छहों द्रव्यलेश्या संभव हैं </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.4" id="3.4"><strong> भवन त्रिक में छहों द्रव्यलेश्या संभव हैं </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 2/1,1,/532-535/6 </span><span class="SanskritText">देवाणं पज्जत्तकाले दव्वदो छ लेस्साओ हवंति त्ति एदं ण घडदे, तेसिं पज्जत्तकाले भावदो छ- लेस्साभावादो। ... जा भावलेस्सा तल्लेस्सा चेव ... णोकम्मपरमाणवो आगच्छंति।532। ण ताव अपज्जत्तकालभावलेस्सा ....पज्जत्तकाले भावलेस्सं पि णियमेण अणुहरइ पज्जत्त-दव्वलेस्सा ...। धवलवण्णवलयाएभावदो सुक्कलेस्सप्पसंगादो। ... दव्वलेस्सा णाम वण्णणामकम्मोदयादो भवदि, ण भावलेस्सादो। ... वण्णणामकम्मोदयादो भवणवासिय-वाणवेंतर -जो-इसियाणं दव्वदो छ लेस्साओ भवंति, उवरिमदेवाणं तेउ-पम्म-सुक्क लेस्साओ भवंति। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> देवों के पर्याप्तकाल में द्रव्य से छहों लेश्याएँ होती हैं यह वचन घटित नहीं होता है, क्योंकि उनके पर्याप्त काल में भाव से छहों लेश्याओं का अभाव है। ... क्योंकि जो भावलेश्या होती है उसी लेश्यावाले ही ... नोकर्म परमाणु आते हैं। <strong>उत्तर -</strong> द्रव्यलेश्या अपर्याप्तकाल में ... इसी प्रकार पर्याप्तकाल में भी पर्याप्त जीव संबंधी द्रव्यलेश्या भावलेश्या का नियम से अनुकरण नहींकरती है क्योंकि वैसा मानने पर ... तो धवल वर्णवाले बगुले के भी भाव से शुक्ललेश्या का प्रसंग प्राप्त होगा। ... दसरी बात यह भी है कि द्रव्यलेश्या वर्ण नामा नामकर्म के उदय से होती है भावलेश्या नहीं। ... वर्ण नामा नाम कर्म के उदय से भवनवासी, वातव्यंतर और ज्योतिषी देवों के द्रव्य की अपेक्षा छहों लेश्याएँ होती हैं तथा भवनत्रिक से ऊपर देवों के तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ होती हैं। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/496/898 </span>)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3.5" id="3.5"><strong> आहारक शरीर की शुक्ललेश्या होती है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.5" id="3.5"><strong> आहारक शरीर की शुक्ललेश्या होती है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 14/5,4,239/327/9 </span><span class="PrakritText">पंचवण्णाणमाहारसरीरपरमाणूणं कथं सुक्किलत्तं जुज्जदे। ण, विस्सासुवचयवण्णं पडुच्च धवलत्तुवलंभादो। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> आहारक शरीर के परमाणु पाँच वर्णवाले हैं। उनमें केवल शुक्लपना कैसे बन सकता है। <strong>उत्तर -</strong> नहीं, क्योंकि विस्रसोपचय के वर्ण की अपेक्षा धवलपना उपलब्ध होता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3.6" id="3.6"><strong> कपाट समुद्घात में कापोतलेश्या होती है </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.6" id="3.6"><strong> कपाट समुद्घात में कापोतलेश्या होती है </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 2/1, 1/654/3 </span><span class="PrakritText">कवाडगद-सजोगिकेवलिस्स वि सरीरस्स काउलेस्सा। चेव हवदि। एत्थ वि कारणं पुव्वं व वत्तत्वं। सजोगिकेवलिस्स पुव्विल्ल-सरीरं छव्ववण्णं जदि वि हवदि तो वि तण्ण घेप्पदि; कवाडगद-केवलस्सि अपज्जत्तजोगे वट्टमाणस्स पुव्विल्लसरीरेण सह संबंधाभावादो। अहवा पुव्विल्लछव्वण्ण-सरीरमस्सिऊण उवयारेण दव्वदो सजोगिकेवलिस्स छ लेस्साओ हवंति।</span> = <span class="HindiText">कपाट समुद्धातगत सयोगिकेवली के शरीर की भी कापोतलेश्या ही होती है। यहाँ पर भी पूर्व (अपर्याप्तवत् देखें [[ लेश्या#3.1 | लेश्या - 3.1]]) के समान ही कारण कहना चाहिए। यद्यपि सयोगिकेवली के पहले का शरीर छहों वर्ण वाला होता है; क्योंकि अपर्याप्त योग में वर्तमान कपाट-समुद्धातगतसयोगि केवली का पहले के शरीर के साथ संबंध नहीं रहता है। अथवा पहले के षड्वर्णवाले शरीर का आश्रय लेकर उपचार द्रव्य की अपेक्षा सयोगिकेवली के छहों लेश्याएँ होती हैं। (<span class="GRef"> धवला 2/1,1/660/2 </span>)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4.1" id="4.1"><strong> लेश्यामार्गणा में भाव लेश्या अभिप्रेत है </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4.1" id="4.1"><strong> लेश्यामार्गणा में भाव लेश्या अभिप्रेत है </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/10 </span><span class="PrakritText"> जीवभावाधिकाराद् द्रव्यलेश्यानाधिकृता।</span> = <span class="HindiText">यहाँ जीव के भावों का अधिकार होने से द्रव्यलेश्या नहीं ली गयी है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/6/8/109/23 </span>) </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 2/1,1/431/6 </span><span class="PrakritText"> केईसरीर-णिव्वत्तणट्ठमागद-परमाणुवण्णं घेत्तूण संजदासंजदादीण भावलेस्सं परूवयंति। तण्ण घडदे, ... वचनव्याघाताच्च। कम्म-लेवहेददो जोग-कसाया चेव भाव-लेस्सा त्ति गेण्हिदव्वं।</span> = <span class="HindiText">कितने ही आचार्य, शरीर-रचना के लिए आये हुए परमाणुओं के वर्ण को लेकर संयतासंयतादि गुणस्थानवर्ती जीवों के भावलेश्या का वर्णन करते हैं किंतु उनका यह कथन घटित नहीं होता है। ... आगम का वचन भी व्याघात होता है। इसलिए कर्म लेपका कारण होने कषाय से अनुरंजित (जीव) प्रकृति ही भावलेश्या है। ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4.2" id="4.2"><strong> छहों भाव लेश्याओं के दृष्टांत</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4.2" id="4.2"><strong> छहों भाव लेश्याओं के दृष्टांत</strong> </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./1/192<span class="PrakritText"> णिम्मूल खंध साहा गुंछा चुणिऊण कोइ पडिदाइं। जह एदेसिं भावा तह विय लेसा मुणेयव्वा।</span> = <span class="HindiText">कोई पुरुष वृक्ष को जड़-मूल से उखाड़कर, कोई स्कंध से काटकर, कोई गुच्छों को तोड़कर, कोई शाखा को काटकर, कोई फलों को चुनकर, कोई गिरे हुए फलों को बीनकर खाना चाहें तो उनके भाव उत्तरोत्तर विशुद्ध हैं, उसी प्रकार कृष्णादि लेश्याओं के भाव भी परस्पर विशुद्ध हैं।192।</span><br /> | पं.सं./प्रा./1/192<span class="PrakritText"> णिम्मूल खंध साहा गुंछा चुणिऊण कोइ पडिदाइं। जह एदेसिं भावा तह विय लेसा मुणेयव्वा।</span> = <span class="HindiText">कोई पुरुष वृक्ष को जड़-मूल से उखाड़कर, कोई स्कंध से काटकर, कोई गुच्छों को तोड़कर, कोई शाखा को काटकर, कोई फलों को चुनकर, कोई गिरे हुए फलों को बीनकर खाना चाहें तो उनके भाव उत्तरोत्तर विशुद्ध हैं, उसी प्रकार कृष्णादि लेश्याओं के भाव भी परस्पर विशुद्ध हैं।192।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 2/1,1/ </span>गा.225/533<span class="PrakritGatha"> णिम्मूलखंधसाहुवसाहं वुच्चितु वाउपडिदाइं। अब्भंतरलेस्साणभिंदइ एदाइं वयणाहं।225।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/506 </span><span class="PrakritGatha">पहिया जे छप्पुरिसा परिभट्टारण्णमज्झदेसम्हि। फलभरियरुक्खमेगं पेक्खित्ता ते विंचितंति।506।</span> = | |||
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<li class="HindiText"> छह लेश्यावाले छह पथिक वन में मार्ग से भ्रष्ट होकर फलों से पूर्ण किसी वृक्ष को देखकर अपने मन में विचार करते हैं, और उसके अनुसार वचन कहते हैं - (गो.सा.) </li> | <li class="HindiText"> छह लेश्यावाले छह पथिक वन में मार्ग से भ्रष्ट होकर फलों से पूर्ण किसी वृक्ष को देखकर अपने मन में विचार करते हैं, और उसके अनुसार वचन कहते हैं - (गो.सा.) </li> | ||
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<li><span class="HindiText" name="4.3" id="4.3"><strong> लेश्या अधिकार में 16 प्ररूपणाएँ</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4.3" id="4.3"><strong> लेश्या अधिकार में 16 प्ररूपणाएँ</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/491-492/896 </span><span class="PrakritText">णिद्देसवण्णपरिणामसंकमो कम्मलक्खणगदी य। सामी साहणसंखा खेत्तं फासं तदो कालो।491। अंतरभावप्पबहु अहियारा सोलसा हवंति त्ति। लेस्साण साहणट्ठं जहाकमं तेहिं वीच्छामि .492।</span> = <span class="HindiText">निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म, लक्षण, गति, स्वामी, साधन, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्प-बहुत्व ये लेश्याओं की सिद्धि के लिए सोलह अधिकार परमागम में कहे हैं।491-492।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4.4" id="4.4"><strong> वैमानिक देवों में द्रव्य व भावलेश्या समान होती है परंतु अन्य जीवों में नियम नहीं </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4.4" id="4.4"><strong> वैमानिक देवों में द्रव्य व भावलेश्या समान होती है परंतु अन्य जीवों में नियम नहीं </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/672 </span><span class="PrakritText">सोहम्मप्पहुदीणं एदाओ दव्वभावलेस्साओ।</span> =<span class="HindiText"> सौधर्मादिक देवों के ये द्रव्य व भाव लेश्याएँ समान होती हैं। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/496 </span>)। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 2/1, 1/534/6 </span><span class="PrakritText">ण ताव अपज्जत्तकाल भावलेस्समणुहरइ दव्वलेस्सा, उत्तम-भोगभूमि-मणुस्साणमपज्जत्तकाले असुह-त्ति-लेस्साणं गउरवण्णा भावापत्तीदो।ण पज्जत्तदकाले भावलेस्सं पि णियमेण अणुहरइ पज्जत्तव्वलेस्सा,, छव्विह-भाव-लेस्सासु परियट्टंत-तिरिक्ख मणुसपज्जत्ताणं दव्वलेस्साए अणियमप्पसंगादो। धवलवण्णबलायाएभावदो सुक्कलेस्सप्पसंगादो। आहारसरीराणं धवलवण्णाणं विग्गहगदि-ट्ठिय-सव्व जीवाणं धवलवण्णाणं भावदो सुक्कलेस्सावत्तीदो चेव। किं च, दव्वलेस्सा णाम वण्णणामकम्मोदयादो भवदि ण भावलेस्सादो।</span> =<span class="HindiText"> द्रव्यलेश्या अपर्याप्त काल में होने वाली भावलेश्या का तो अनुकरण करती नहीं है, अन्यथा अपर्याप्त काल में अशुभ तीनों लेश्यावाले उत्तम भोगभूमियाँ मनुष्यों के गौर वर्णका अभाव प्राप्त हो जायेगा। इसी प्रकार पर्याप्तकाल में भी पर्याप्त जीवसंबंधी द्रव्य लेश्या भावलेश्या का नियम से अनुकरण नहीं करती है, क्योंकि वैसा मानने पर छह प्रकार की भाव लेश्याओं में निरंतर परिवर्तन करने वाले पर्याप्त तिर्यंच और मनुष्यों के द्रव्य लेश्या के अनियमपने का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। और यदि द्रव्य लेश्या के अनुरूप ही भावलेश्या मानी जाये, तो धवल वर्णवाले बगुले के भी भाव से शुक्ललेश्या का प्रसंग प्राप्त होगा। तथा धवल वर्णवाले आहारक शरीरों के और धवल वर्णवाले विग्रहगति में विद्यमान सभी जीवों के भाव की अपेक्षा से शुक्ललेश्या की आपत्ति प्राप्त होगी। दूसरी बात यह भी है कि द्रव्य लेश्या वर्णनामा नाम कर्म के उदय से होती है, भाव लेश्या से नहीं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4.5" id="4.5"><strong> शुभ लेश्या के अभाव में भी नारकियों के सम्यक्त्वादि कैसे ?</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4.5" id="4.5"><strong> शुभ लेश्या के अभाव में भी नारकियों के सम्यक्त्वादि कैसे ?</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/3/4/163/30 </span><span class="SanskritText"> नित्यग्रहणाल्लेश्याद्यनिवृत्तिप्रसंग इति चेत; न; आभीक्ष्ण्यवचनत्वात् नित्यप्रहसितवत्।4। ... लेश्यादीनामपिव्ययोदयाभाबान्नित्यत्वे सति नरकादप्रच्यवः स्यादिति। तन्न; किं कारणम् । ... अशुभकर्मोदयनिमित्तवशात् लेश्यादयोऽनारतं प्रादुर्भवंतीति आभीक्ष्ण्यवचनो नित्यशब्दः प्रयुक्तः। ... एतेषां नारकाणां स्वायुःप्रमाणावधृता द्रव्यलेश्या उक्ताः, भावलेश्यास्तु षडपि प्रत्येकमंतर्मुहर्तपरिवर्तिंयः।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> लेश्या आदि को उदय का अभाव न होने से, अर्थात् नित्य होने से नरक से अच्युतिका तथा लेश्या की अनिवृत्ति का प्रसंग आ जावेगा। <strong>उत्तर -</strong> ऐसा नहीं है, क्योंकि यहाँ नित्य शब्द बहुधा केअर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैसे - देवदत्त नित्य हँसता है, अर्थात् निमित्त मिलने पर देवदत्त जरूर हँसता है, उसी तरह नारकी भी कर्मोदय से निमित्त मिलने पर अवश्य ही अशुभतर लेश्या वाले होते हैं, यहाँ नित्य शब्द का अर्थ शाश्वत व कूटस्थ नहीं है। ... नारकियों में अपनी आयु के प्रमाण काल पर्यंत (कृष्णादि तीन) द्रव्यलेश्या कही गयी है। भाव लेश्या तो छहों होती हैं और वे अंतर्मुहूर्त में बदलती रहती हैं।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> लब्धिसार/ </span>जी.प्र./101/138/8<span class="SanskritText"> नरकगतौ नियताशुभलेश्यात्वेऽपि कषायाणां मंदानुभागोदयवशेन तत्त्वार्थश्रद्धानानुगुणकारणपरिणामरूपविशुद्धि विशेषसंभवस्याविरोधात्।</span> = <span class="HindiText">यद्यपि नारकियों में नियम से अशुभलेश्या है तथापि वहाँ जो लेश्या पायी जाती है उस लेश्या में कषायों के मंद अनुभाग उदय के वश से तत्त्वार्थ श्रद्धानुरूप गुण के कारण परिणाम रूप विशुद्धि विशेष की असंभावना नहीं है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4.6" id="4.6"><strong> भाव लेश्या के काल से गुणस्थान का काल अधिक है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4.6" id="4.6"><strong> भाव लेश्या के काल से गुणस्थान का काल अधिक है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 5/1,6/308/149/1 </span><span class="PrakritText">लेस्साद्धादो गुणद्धाए बहुत्तुवदेसा।</span> = <span class="HindiText">लेश्या के काल से गुणस्थापना का काल बहुत होता है, ऐसा उपदेश पाया जाता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4.7" id="4.7"><strong> लेश्या परिवर्तन क्रम संबंधी नियम</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4.7" id="4.7"><strong> लेश्या परिवर्तन क्रम संबंधी नियम</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/499-503 </span><span class="PrakritGatha">लोगाणमसंखेज्जा उदयट्ठाणा कसायग्ग होंति। तत्थ किलिट्ठा असुहा सुहाविशुद्धा तदालावा।499। तिव्वतमा तिब्बतरा तिव्वासुहा सुहा तहा मंदा।मंदतरा मंदतमा छट्ठाणगया हु पत्तेयं।500। असुहाणं वरमज्झिम अवरंसे किण्हणीलकाउतिए। परिणमदि कमेणप्पा परिहाणीदो किलेसस्स।501। काऊ णीलं किण्हं परिणमदि किलेसवड्ढिदो अप्पा। एवं किलेसहाणीवड्ढीदो होदि असुहतियं।502। तेऊ पडमे मुक्के सुहाणमवरादि असंगे अप्पा। सुद्धिस्स य वड्ढीदो हाणीदो अण्णदा होदि।503। संकमणं सट्ठाणपरट्ठाणं होदि किण्हसुक्काणं। वड्ढीसु हि सट्ठाणं उभयं हाणिम्मि सेस, उभये वि।504। लेस्साणुक्कस्सादो वरहाणी अवरगादवरवड्ढी। सट्ठाणे अवरादो हाणी णियमापरट्ठाणे।505।</span> =<span class="HindiText">कषायों के उदयस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं। इसमें से अशुभ लेश्याओं के संक्लेश रूप स्थान यद्यपि सामान्य से असंख्यात लोकप्रमाण है तथापि विशेषता की अपेक्षा असंख्यात लोक प्रमाण में असंख्यात लोक प्रमाण राशि का भाग देने से जो लब्ध आवे उसके बहु भाग संक्लेश रूप स्थान हैं और एक भाग प्रमाण शुभ लेश्याओं के स्थान हैं।499। अशुभ लेश्या संबंधी तीव्रतम, तीव्रतर और तीव्र ये तीन स्थान, और शुभ लेश्या संबंधी मंद मंदतर मंदतम ये तीन स्थान होते हैं।500। कृष्ण, नील, कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओं के उत्कृष्ट मध्यम जघन्य अंश रूप में यह आत्मक्रम से संक्लेश की हानि होने से परिणमन करता है।501। उत्तरोत्तर संक्लेश परिणामों की वृद्धि होने से यह आत्मा कापोत से नील और नील से कृष्ण लेश्यारूप परिणमन करता है।इस तरह यह जीव संक्लेश की हानि और वृद्धि की अपेक्षा से तीन अशुभ लेश्या रूप परिणमन करता है।502। उत्तरोत्तर विशुद्धि होने से यह आत्मा पीत, पद्म, शुक्ल इन शुभ लेश्याओं के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट अंश रूप परिणमन करता है। विशुद्धि की हानि होने से उत्कृष्ट से जघन्य पर्यंत शुक्ल पद्म पीत लेश्या रूप परिणमन करता है।503। परिणामों की पलटन को संक्रमण कहते हैं उसके दो भेद हैं - स्वस्थान, परस्थान संक्रमण। कृष्ण और शुक्ल में वृद्धि की अपेक्षा स्वस्थान संक्रमण होता है। और हानि की अपेक्षा दोनों संक्रमण होते हैं। तथा शेष चार लेश्याओं में स्वस्थान परस्थान दोनों संक्रमण संभव हैं।504। स्वस्थान की अपेक्षा लेश्याओं के उत्कृष्ट स्थान के समीपवर्ती परिणाम उत्कृष्ट स्थान के परिणाम से अनंत भाग हानि रूप हैं। तथा स्वस्थान की अपेक्षा से ही जघन्य स्थान के समीपवर्ती, स्थान का परिणाम जघन्य स्थान से अनंत भाग वृद्धिरूप है। संपूर्ण लेश्याओं के जघन्य स्थान से यदि हानि हो तो नियम से अनंत गुण हानि रूप परस्थान संक्रमण होता है।505। (<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/549/726/16 </span>)।<br /> | |||
देखें [[ काल#5.18 | काल - 5.18 ]](शुक्ल लेश्या से क्रमशः कापोत नील लेश्याओं में परिणमन करके पीछे कृष्ण लेश्या रूप परिणमन स्वीकार किया गया है। (पद्म, पीत में आने का नियम नहीं) कृष्ण लेश्या परिणति के अनंतर ही कापोत रूप परिणमन शक्ति का अभाव है )।<br /> | देखें [[ काल#5.18 | काल - 5.18 ]](शुक्ल लेश्या से क्रमशः कापोत नील लेश्याओं में परिणमन करके पीछे कृष्ण लेश्या रूप परिणमन स्वीकार किया गया है। (पद्म, पीत में आने का नियम नहीं) कृष्ण लेश्या परिणति के अनंतर ही कापोत रूप परिणमन शक्ति का अभाव है )।<br /> | ||
देखें [[ काल#5.16 | काल - 5.16]]-17 (विवक्षित लेश्याको प्राप्त करके अंतर्मुहूर्तसे पहले गुणस्थान या लेश्या परिवर्तन नहीं होता )।<br /> | देखें [[ काल#5.16 | काल - 5.16]]-17 (विवक्षित लेश्याको प्राप्त करके अंतर्मुहूर्तसे पहले गुणस्थान या लेश्या परिवर्तन नहीं होता )।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="5.1" id="5.1"><strong> सम्यक्त्व व गुणस्थानों में लेश्या</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.1" id="5.1"><strong> सम्यक्त्व व गुणस्थानों में लेश्या</strong> </span><br /> | ||
पं.सं. 1/1/सू. 137-140<span class="PrakritText"> किण्हलेस्सिया पीतलेस्सिया काउलेस्सिया एइंदियप्पहुडि जाव असंजद-सम्माइट्ठि त्ति।137। तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया सण्णि-मिच्छाइट्ठि-प्पहुडिजाव अप्पमत्तसंजदा त्ति।138। सुक्कलेस्सिया सण्णि मिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जावसजोगिकेवलि त्ति।139। तेण परमलेस्सिया।140।</span> = <span class="HindiText">कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोतलेश्या वाले जीव एकेंद्रिय से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते हैं।137। पीत लेश्या और पद्म लेश्यावाले जीव संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्त संयत गुणस्थान तक होते हैं।138। शुक्ल लेश्यावाले जीव संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगि केवली गुणस्थान तक होते हैं।139। तेरहवें गुणस्थान के आगे के सभी जीव लेश्या रहित हैं।140।</span><br /> | पं.सं. 1/1/सू. 137-140<span class="PrakritText"> किण्हलेस्सिया पीतलेस्सिया काउलेस्सिया एइंदियप्पहुडि जाव असंजद-सम्माइट्ठि त्ति।137। तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया सण्णि-मिच्छाइट्ठि-प्पहुडिजाव अप्पमत्तसंजदा त्ति।138। सुक्कलेस्सिया सण्णि मिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जावसजोगिकेवलि त्ति।139। तेण परमलेस्सिया।140।</span> = <span class="HindiText">कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोतलेश्या वाले जीव एकेंद्रिय से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते हैं।137। पीत लेश्या और पद्म लेश्यावाले जीव संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्त संयत गुणस्थान तक होते हैं।138। शुक्ल लेश्यावाले जीव संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगि केवली गुणस्थान तक होते हैं।139। तेरहवें गुणस्थान के आगे के सभी जीव लेश्या रहित हैं।140।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-8/263/1 </span><span class="PrakritText"> कदकरणिज्जकालव्वंतरे तस्स मरणं पि होज्ज, काउ-तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साणमण्णदराए लेस्सा वि परिणाममेज्ज ...।</span> = <span class="HindiText">कृतकृत्य वेदक काल के भीतर उसका मरण भी हो, कापोत, तेज पद्म और शुक्ल; इन लेश्याओं में से किसी एक लेश्या के द्वारा परिणमित भी हो ...।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/354/509/15 </span><span class="SanskritText"> शुभलेश्यात्रये तद्विराधनासंभवात्।</span> = <span class="HindiText">तीनों शुभ लेश्याओं में सम्यक्त्व की विराधना नहीं होती। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5.2" id="5.2"><strong> उपरले गुणस्थानों में लेश्या कैसे संभव है ?</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.2" id="5.2"><strong> उपरले गुणस्थानों में लेश्या कैसे संभव है ?</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/6/160/1 </span><span class="SanskritText">ननु च उपशांतकषाये सयोगकेवलिनि चशुक्ललेश्यास्तीत्यागमः। तत्र कषायानुरंजना भावादौदयिकत्वं नोपपद्यते। नैष दोषः; पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया यासौ योगप्रवृत्तिः कषायानुरंजिता सैवेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते। तदभावादयोगकेवल्यलेश्य इति निश्चीयते।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> उपशांत कषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली गुणस्थान में शुक्ललेश्या है ऐसा आगम है, परंतु वहाँ पर कषाय का उदय नहीं है इसलिए औदयिकता नहीं बन सकता। <strong>उत्तर -</strong> यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो योगप्रवृत्ति कषाय के उदय से अनुरंजित है वही यह है इस प्रकार पूर्वभाव प्रज्ञापन नय की अपेक्षा उपशांत कषाय आदि गुणस्थानों में भी लेश्या को औदयिक कहा गया है। किंतु अयोगकेवली के योग प्रवृत्ति नहीं है इसलिए वे लेश्या रहित हैं, ऐसा निश्चय है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/6/8/109/29 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड </span>मू./533/926)।<br /> | |||
देखें [[ लेश्या#2.2 | लेश्या - 2.2 ]](बारहवें गुणस्थानवर्ती वीतरागियों के केवल योग को लेश्या नहीं कहते, ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए )।</span><br /> | देखें [[ लेश्या#2.2 | लेश्या - 2.2 ]](बारहवें गुणस्थानवर्ती वीतरागियों के केवल योग को लेश्या नहीं कहते, ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए )।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,139/391/8 </span><span class="SanskritText">कथं क्षीणोपशांतकषायाणां शुक्ललेश्येति चेन्न, कर्मलेपनिमित्तयोगस्य तत्र सत्त्वापेक्षया तेषां शुक्ललेश्यास्तित्वाविरोधात्।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न -</strong> जिन जीवों की कषाय क्षीण अथवा उपशांत हो गयी है उनके शुक्ललेश्या का होना कैसे संभव है ? <strong>उत्तर -</strong> नहीं, क्योंकि जिन जीवों की कषाय क्षीण अथवा उपशांत हो गयी है उनमें कर्मलेप का कारण योग पाया जाता है, इसलिए इस अपेक्षा से उनके शुक्ल लेश्या के सद्भाव मानने में विरोध नहीं आता। (<span class="GRef"> धवला 2/1,1/439/5 </span>), (<span class="GRef"> धवला 7/2,1,61/105/1 </span>)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5.3" id="5.3"><strong> नरक के एक ही पटल में भिन्न-भिन्न लेश्याएं कैसे संभव हैं ?</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.3" id="5.3"><strong> नरक के एक ही पटल में भिन्न-भिन्न लेश्याएं कैसे संभव हैं ?</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 4/1,5,290/461/2 </span><span class="PrakritText">सव्वेसिं णेरइयाणं तत्थ (पंचम पुढवीए) तणाणं तीए (कीण्ह) चेव लेस्साए अभावा। एक्कम्हि पत्थड़े भिण्णलेस्साणं कधं संभवो। ण विरोहाभावा। एसो अत्थो सव्वत्थ जाणिदव्वो। </span>= <span class="HindiText">पाँचवीं पृथ्वी के अधस्तन प्रस्तार के समस्त नारकियों के उसी ही (कृष्ण) लेश्या का अभाव है। (इसी प्रकार अन्य पृथिवियों में भी)। <strong>प्रश्न -</strong> एक ही प्रस्तार में दो भिन्न-भिन्न लेश्याओं का होना कैसे संभव है। <strong>उत्तर -</strong> एक ही प्रस्तार में भिन्न-भिन्न जीवों के भिन्न-भिन्न लेश्या के होने में कोई विरोध नहीं है। यही अर्थ सर्वत्र जानना चाहिए।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5.4" id="5.4"><strong> मरण समय में संभव लेश्याएँ</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.4" id="5.4"><strong> मरण समय में संभव लेश्याएँ</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 8/3,258/323/1 </span><span class="PrakritText"> सव्वे देवा मुदक्खणेण चेव अणियमेण असुहतिलेस्सासु णिवदंति त्ति गहिदे जुज्जदे। ... मुददेवाणं सव्वेसिं पि काउ लेस्साए चेव परिणामब्भुवगमादो।</span> = | |||
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<li> <span class="HindiText">सब देव मरण क्षण में ही नियम रहित अशुभ तीन लेश्याओं में गिरते हैं। </span></li> | <li> <span class="HindiText">सब देव मरण क्षण में ही नियम रहित अशुभ तीन लेश्याओं में गिरते हैं। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> सब ही मृत देवों का कापोत लेश्या में ही परिणमन स्वीकार किया गया है।</span><br /> | <li><span class="HindiText"> सब ही मृत देवों का कापोत लेश्या में ही परिणमन स्वीकार किया गया है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 2/1,1/511/3 </span><span class="PrakritText"> णेरइया असंजदसम्माइट्ठिणो पढमपुढवि आदि जाव छट्ठी पुढविपज्जवसाणासु पुढवीसु ट्ठिदा कालं काऊण मणुस्सेसु चेव अप्पप्पणो पुढविपाओग्गलेस्साहि सह उप्पज्जंति त्ति किण्ह-णील-काउलेस्सा लब्भंति। देवा विअसंजदसम्माइट्ठिणो कालं काऊण मणुस्सेसु उप्पज्जमाणा तेउ-पम्म-सुक्ललेस्साहि सह मणुस्सेसु उववज्जंति।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 2/1,1/656/12 </span><span class="PrakritText">देव-मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो तेउ-पम्मसुक्कलेस्सासु वट्टमाणा णट्ठलेस्सा होऊण तिरिक्खमणुस्सेसुप्पज्जमाणा उप्पण्ण-पढमसमए चेव किण्हणील-काउलेस्साहि सह परिणमंति। </span>= | |||
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<li class="HindiText"> प्रथम पृथिवी से लेकर छठी पृथिवी पर्यंत पृथिवियों में रहनेवाले असंयत सम्यग्दृष्टि नारकी मरण करके मनुष्यों में अपनी-अपनी पृथिवी के योग्य लेश्याओं के साथ ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए उनके कृष्ण,नील, कापोत लेश्याएं पायी जाती हैं। </li> | <li class="HindiText"> प्रथम पृथिवी से लेकर छठी पृथिवी पर्यंत पृथिवियों में रहनेवाले असंयत सम्यग्दृष्टि नारकी मरण करके मनुष्यों में अपनी-अपनी पृथिवी के योग्य लेश्याओं के साथ ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए उनके कृष्ण,नील, कापोत लेश्याएं पायी जाती हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> उसी प्रकार असंयत सम्यग्दृष्टि देव भी मरण करके मनुष्यों में उत्पन्न होते हुए अपनी-अपनी पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओं के साथ ही मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। </li> | <li class="HindiText"> उसी प्रकार असंयत सम्यग्दृष्टि देव भी मरण करके मनुष्यों में उत्पन्न होते हुए अपनी-अपनी पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओं के साथ ही मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याओं में वर्तमान मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि देव तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होते समय नष्टलेश्या होकर अर्थात् अपनी-अपनी पूर्व की लेश्या को छोड़कर मनुष्यों और तिर्यंचों में उत्पन्न होने के प्रथम समय कृष्ण, नील और कापोत लेश्या से परिणत हो जाते हैं। ( धवला 2/1,1/794/5 )।<br /> | <li class="HindiText"> तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याओं में वर्तमान मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि देव तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होते समय नष्टलेश्या होकर अर्थात् अपनी-अपनी पूर्व की लेश्या को छोड़कर मनुष्यों और तिर्यंचों में उत्पन्न होने के प्रथम समय कृष्ण, नील और कापोत लेश्या से परिणत हो जाते हैं। (<span class="GRef"> धवला 2/1,1/794/5 </span>)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="5.5" id="5.5"><strong> अपर्याप्त काल में संभव लेश्याएँ</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.5" id="5.5"><strong> अपर्याप्त काल में संभव लेश्याएँ</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 2/1,1,/ </span>पृ. /पंक्ति नं.<span class="PrakritText"> णेरइय-तिरिक्ख-भवणवासिय-वाणविंतर जोइसियदेवाणमपज्जत्तकाले किण्ह-णीलकाउलेस्साओ भवंति। सोधम्मादि उवरिमदेवाणमपज्जत्तकाले तेउ-पम्मसुक्कलेस्साओ भवंति (422/10)असंजदसम्माइट्ठीणमपज्जत्तकाले छ लेस्साओ। ... मिच्छाइट्ठि – सासणसम्माइट्ठोणं ओरालियमिस्सकायजोगे वट्टमाणाणं किण्ह-णीलकाउलेस्सा चेव हवंति (654/1,7)। देव मिच्छाइट्ठिसासणसम्माइट्ठोणं तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पज्जमाणाणं ... संकिलेसेण तेउ -पम्म-सुक्कलेस्साओ फिट्टिऊण किण्ह-णील-काउलेस्साणं एगदमा भवदि। ... सम्माइट्ठीणं पुण- तेउ-पंप-सुक्कलेस्साओ चिरंतणाओ जाव अंतोमुहुत्तं ताव ण णस्संति। (794/5)। </span>= | |||
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<li class="HindiText"> नारकी, तिर्यंच, भवनवासी, वान व्यंतर और ज्योतिषी देवों के अपर्याप्त काल में कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं होती हैं। तथा सौधर्मादि ऊपर के देवों के अपर्याप्त काल में पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या होती हैं। ऐसा जानना चाहिए। </li> | <li class="HindiText"> नारकी, तिर्यंच, भवनवासी, वान व्यंतर और ज्योतिषी देवों के अपर्याप्त काल में कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं होती हैं। तथा सौधर्मादि ऊपर के देवों के अपर्याप्त काल में पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या होती हैं। ऐसा जानना चाहिए। </li> | ||
<li class="HindiText"> असंयत सम्यग्दृष्टियों के अपर्याप्त काल में छहों लेश्याएं होती हैं। </li> | <li class="HindiText"> असंयत सम्यग्दृष्टियों के अपर्याप्त काल में छहों लेश्याएं होती हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> औदारिक मिश्रकायोगी के भाव से छहों लेश्याएं होती हैं। औदारिक-मिश्रकाययोग में वर्तमान मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों के भाव से कृष्ण, नील और कापत लेश्याएं ही होती हैं। </li> | <li class="HindiText"> औदारिक मिश्रकायोगी के भाव से छहों लेश्याएं होती हैं। औदारिक-मिश्रकाययोग में वर्तमान मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों के भाव से कृष्ण, नील और कापत लेश्याएं ही होती हैं। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देवों के मरते समय संक्लेश उत्पन्न हो जाने से तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं नष्ट होकर कृष्ण, नील और कापोत लेश्या में से यथा संभव कोई एक लेश्या हो जाती है। किंतु सम्यग्दृष्टि देवों के चिरंतन) पुरानी तेज, पद्म और शुक्ललेश्याएं मरण करने के अनंतर अंतर्मुहूर्त तक नष्ट नहीं होती हैं, इसलिए शुक्ल लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि देवों के औदारिककाय नहीं होता। ( धवला 2/1,1/656/12 )।</span><br /> | <li><span class="HindiText"> मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देवों के मरते समय संक्लेश उत्पन्न हो जाने से तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं नष्ट होकर कृष्ण, नील और कापोत लेश्या में से यथा संभव कोई एक लेश्या हो जाती है। किंतु सम्यग्दृष्टि देवों के चिरंतन) पुरानी तेज, पद्म और शुक्ललेश्याएं मरण करने के अनंतर अंतर्मुहूर्त तक नष्ट नहीं होती हैं, इसलिए शुक्ल लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि देवों के औदारिककाय नहीं होता। (<span class="GRef"> धवला 2/1,1/656/12 </span>)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/625/468/12 </span><span class="SanskritText"> तद्भवप्रथमकालांतर्मुहूर्त पूर्वभवलेश्यासद्भावात्।</span> =<span class="HindiText">वर्तमान भव के प्रथम अंतर्मुहर्त काल में पूर्वभव की लेश्या का सद्भाव होने से ...। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5.6.1" id="5.6.1"><strong> मिश्रयोग सामान्य में छहों लेश्या संबंधी</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.6.1" id="5.6.1"><strong> मिश्रयोग सामान्य में छहों लेश्या संबंधी</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 2/1, 1/654/9 </span><span class="PrakritText">देवणेरइयसम्माइट्ठिणं मणूसगदीए उप्पण्णाणं ओरालियमिस्सकायजोगे वट्टमाणाणं अविणट्टं - पुव्विल्ल-भाव-लेस्साणं भावेण छ लेस्साओ लब्भंति त्ति। </span>= <span class="HindiText">देव और नारकी मनुष्यगति में उत्पन्न हुए हैं, औदारिक मिश्रकाय योग में वर्तमान हैं, और जिनकी पूर्वभव संबंधी भाव लेश्याएं अभीतक नष्ट नहीं हुई हैं, ऐसे जीवों के भाव से छहों लेश्याएँ पायी जाती हैं; इसलिए औदारिकमिश्र काययोगी जीवों के छहों लेश्याएँ कही गयी हैं।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li class="HindiText" name="5.6.2" id="5.6.2"><strong> मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि के शुभ लेश्या संबंधी</strong> <br /> | <li class="HindiText" name="5.6.2" id="5.6.2"><strong> मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि के शुभ लेश्या संबंधी</strong> <br /> | ||
देखें [[ लेश्या#5.4 | लेश्या - 5.4 ]]में | देखें [[ लेश्या#5.4 | लेश्या - 5.4 ]]में <span class="GRef"> धवला 2/1,1/794/5 </span>(मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि देवों के मरते समय संक्लेश हो जाने से पीत, पद्म व शुक्ल लेश्याएँ नष्ट होकर कृष्ण, नील, व कापोत में से यथा संभव कोई एक लेश्या हो जाती है। )<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="5.6.3" id="5.6.3"><strong> अविरत सम्यग्दृष्टि में छहों लेश्या संबंधी</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.6.3" id="5.6.3"><strong> अविरत सम्यग्दृष्टि में छहों लेश्या संबंधी</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला /2/1,1/752/7 </span><span class="PrakritText">छट्ठीदो पुढवीदो किण्हलेस्सासम्माइट्ठिणो मणुसेसु जे आगच्छंति तेसिं वेदगसम्मत्तेण सह किण्हलेस्सा लब्भदि त्ति। </span>= <span class="HindiText">छठी पृथिवी से जो कृष्ण लेश्यावाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्यों में आते हैं, उनके अपर्याप्त काल में वेदक सम्यक्त्व के साथ कृष्ण लेश्या पायी जाती है।<br /> | |||
देखें [[ लेश्या#5.4 | लेश्या - 5.4 ]]में | देखें [[ लेश्या#5.4 | लेश्या - 5.4 ]]में <span class="GRef"> धवला 2/1,1/511/3 </span>(1-6 पृथिवी तक के असंयत सम्यग्दृष्टि नारकी जीव अपने-अपने योग्य कृष्ण, नील, व कापोत लेश्या के साथ मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। उसी प्रकार असंयत सम्यग्दृष्टि देव भी अपने-अपने योग्य पीत, पद्म व शुक्ल लेश्याओं के साथ मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्यों के अपर्याप्त काल में छहों लेश्याएं बन जाती हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 2/1,1/657/3 </span><span class="PrakritText">सम्माइट्ठिणो तहा ण परिणमंति, अंतोमुहुत्तं पुव्विल्ललेस्साहि सह अच्छिय अण्णलेस्सं गच्छंति। किं कारणं। सम्माइट्ठीणं बुद्धिट्ठिय परमेट्ठीयं मिच्छाइट्ठीणं मरणकाले संकिलासाभावादो। णेरइय-सम्माइट्ठिणो पुण चिराण-लेस्साहि सह मणुस्सेसुप्पज्जंति।</span> = <span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि देव अशुभ लेशायाओं रूप से परिणत नहीं होते हैं, किंतु तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होने के प्रथम समय से लगाकर अंतर्मुहुर्ततक पूर्व रहकर पीछे अन्य लेश्याओं को प्राप्त होते हैं। किंतु नारकी सम्यग्दृष्टि तो पुरानी चिरंतन लेश्याओं के साथ ही मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि के अपर्याप्त अवस्था में छहों लेश्याएं बन जाती हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5.7" id="5.7"><strong> कपाट समुद्धात में लेश्या</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.7" id="5.7"><strong> कपाट समुद्धात में लेश्या</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 2/1, 1/654/9 </span><span class="PrakritText">कवाडगद-सजोगिकेवलिस्स सुक्कलेस्सा चेव भवदि।</span> =<span class="HindiText"> कपाट समुद्धातगत औदारिक मिश्र काययोगी सयोगिकेवली के एक शुक्ललेश्या होती है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5.8" id="5.8"><strong> चारों गतियों में लेश्या की तरतमता</strong></span><strong><br></strong>मू.आ./1134-1137 <span class="PrakritGatha">काऊ काऊ तह काउणील णीला य णीलकिण्हाय। किण्हा य परमकिण्हा लेस्सा रदणादिपुढवीसु।1134। तेऊ तेऊ तह तेउ पम्म पम्मा य पम्मसुक्का य। सुक्का य परमसुक्का लेस्साभेदो मुणे यव्वो। 1135। तिण्हं दोण्हं दोण्हं छण्हं दोण्हं च तेरसण्हं च। एतो य चोद्दसण्हं लेस्सा भवणादिदेवाणं।1136। एइंदियवियलिंदिय असण्णिणो तिण्णि होंति असुहाओ। संकादीदाऊण तिण्णि सुहा छप्पि सेसाणं।1137।</span> =<span class="HindiText">नरकगति - रत्नप्रभा आदि नरक की पृथिवियों में जघन्य कापोती, मध्यम कापोती, उत्कृष्ट कापोती, तथा जघन्य नील, मध्यम नील, उत्कृष्ट नील तथा जघन्य कृष्ण लेश्या और उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या हैं।1134। देवगति - भवनवासी आदि देवों के क्रम से जघन्य तेजोलेश्या भवनत्रिक में हैं, दो स्वर्गों में मध्यम तेजोलेश्या है, दो में उत्कृष्ट तेजो लेश्या है जघन्य पद्मलेश्या है, छह में मध्यम पद्मलेश्या है, दो में उत्कृष्ट पद्मलेश्या है और जघन्य शुक्ल लेश्या है, तेरह में मध्यम शुक्ललेश्या है और चौदह विमानों में चरण शुक्ललेश्या है।1135-1136। तिर्यंच व मनुष्य - एकेंद्री, विकलेंद्री असंज्ञीपंचेंद्री के तीन अशुभ लेश्या होती है, असंख्याल वर्ष की आयु वाले भोगभूमिया कुभोगभूमिया मनुष्य तिर्यंचों के छहों लेश्या होती है।1137। ( सर्वार्थसिद्धि/3/3/207/1; 4/22/253/4 ) (पं.सं./प्रा./1/185-189); ( राजवार्तिक/3/3/4/164/6; 4/22/240/24 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/529-534 )। </span></li></ol></li></ol> | <li><span class="HindiText" name="5.8" id="5.8"><strong> चारों गतियों में लेश्या की तरतमता</strong></span><strong><br></strong>मू.आ./1134-1137 <span class="PrakritGatha">काऊ काऊ तह काउणील णीला य णीलकिण्हाय। किण्हा य परमकिण्हा लेस्सा रदणादिपुढवीसु।1134। तेऊ तेऊ तह तेउ पम्म पम्मा य पम्मसुक्का य। सुक्का य परमसुक्का लेस्साभेदो मुणे यव्वो। 1135। तिण्हं दोण्हं दोण्हं छण्हं दोण्हं च तेरसण्हं च। एतो य चोद्दसण्हं लेस्सा भवणादिदेवाणं।1136। एइंदियवियलिंदिय असण्णिणो तिण्णि होंति असुहाओ। संकादीदाऊण तिण्णि सुहा छप्पि सेसाणं।1137।</span> =<span class="HindiText">नरकगति - रत्नप्रभा आदि नरक की पृथिवियों में जघन्य कापोती, मध्यम कापोती, उत्कृष्ट कापोती, तथा जघन्य नील, मध्यम नील, उत्कृष्ट नील तथा जघन्य कृष्ण लेश्या और उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या हैं।1134। देवगति - भवनवासी आदि देवों के क्रम से जघन्य तेजोलेश्या भवनत्रिक में हैं, दो स्वर्गों में मध्यम तेजोलेश्या है, दो में उत्कृष्ट तेजो लेश्या है जघन्य पद्मलेश्या है, छह में मध्यम पद्मलेश्या है, दो में उत्कृष्ट पद्मलेश्या है और जघन्य शुक्ल लेश्या है, तेरह में मध्यम शुक्ललेश्या है और चौदह विमानों में चरण शुक्ललेश्या है।1135-1136। तिर्यंच व मनुष्य - एकेंद्री, विकलेंद्री असंज्ञीपंचेंद्री के तीन अशुभ लेश्या होती है, असंख्याल वर्ष की आयु वाले भोगभूमिया कुभोगभूमिया मनुष्य तिर्यंचों के छहों लेश्या होती है।1137। (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/3/207/1; 4/22/253/4 </span>) (पं.सं./प्रा./1/185-189); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/3/4/164/6; 4/22/240/24 </span>); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/529-534 </span>)। </span></li></ol></li></ol> | ||
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Revision as of 13:01, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से ==
कषाय से अनुरंजित जीव की मन, वचन, काय की प्रवृत्ति भाव लेश्या कहलाती है। आगम में इनका कृष्णादि छह रंगों द्वारा निर्देश किया गया है। इनमें से तीन शुभ व तीन अशुभ होती हैं . राग व कषाय का अभाव हो जाने से मुक्त जीवों को लेश्या नहीं होती। शरीर के रंग को द्रव्यलेश्य कहते हैं। देव व नारकियों में द्रव्य व भाव लेश्या समान होती है , पर अन्य जीवों में इनकी समानता का नियम नहीं है। द्रव्यलेश्या आयु पर्यंत एक ही रहती है पर भाव लेश्या जीवों के परिणामों के अनुसार बराबर बदलती रहती है।
- भेद लक्षण व तत्संबंधी शंका समाधान
- लेश्या सामान्य के लक्षण।
- लेश्या के भेद-प्रभेद।
- द्रव्य, भाव लेश्या के लक्षण।
- कृष्णादि भाव लेश्याओं के लक्षण।
- अलेश्या का लक्षण।
- लेश्या के लक्षण संबंधी शंका समाधान।
- लेश्या के दोनों लक्षणों का समन्वय।
- कषायनुरंजित योग प्रवृत्ति संबंधी
- तरतमता की अपेक्षा लेश्याओं में छह विभाग।
- लेश्या नाम कषाय का है, योग का है वा दोनों का है।
- योग व कषायों से पृथक् लेश्या मानने की क्या आवश्यकता।
- कषाय का कषायों में अंतर्भाव क्यों नहीं कर देते।
- कषाय शक्ति स्थानों में संभव लेश्या - देखें आयु - 3.19।
- लेश्या में कथंचित् कषाय की प्रधानता - देखें लेश्या - 1.6.2
- कषाय की तीव्रता- मंदता में लेश्या कारण है - देखें कषाय - 3.5
- द्रव्य लेश्या निर्देश
- अपार्यप्त काल में केवल शुक्ल व कापोत लेश्या ही होती है।
- नरक गति में द्रव्य से कृष्णलेश्या ही होती है।
- जल की द्रव्यलेश्या शुक्ल ही है।
- भवनत्रिक में छहों द्रव्यलेश्या संभव हैं।
- आहारक शरीर की शुक्ललेश्या होती है।
- कपाट समुद्घात में कापोतलेश्या होती है।
- भावलेश्या निर्देश
- लेश्या औदयिक भाव है- देखें उदय - 9.2।
- लेश्यामार्गणा में भावलेश्या अभिप्रेत है।
- छहों भाव लेश्याओं के दृष्टांत।
- लेश्या अधिकारों में 16 प्ररूपणाएँ।
- वैमानिक देवों में द्रव्य व भावलेश्या समान होती है, परंतु अन्यजीवों में नियम नहीं।
- द्रव्य व भावलेश्या में परस्पर कोई संबंध नहीं। - देखें सत् ।
- शुभ लेश्या के अभाव में भी नारकियों के सम्यक्त्वादि कैसे।
- भावलेश्या के काल से गुणस्थान का काल अधिक है।
- लेश्या नित्य परिवर्तन स्वभावी है - देखें लेश्या - 4.5,6।
- लेश्या परिवर्तन क्रम संबंधी नियम।
- भावलेश्याओं का स्वामित्व व शंका समाधान
- सम्यक्त्व व गुणस्थानों में लेश्या।
- शुभ लेश्या में सम्यक्त्व विराधित नहीं होता। - देखें लेश्या - 5.1।
- चारों ध्यानों में संभव लेश्याएं - देखें वह वह ध्यान ।
- कदाचित् साधु में ही कृष्णलेश्या की संभावना। -देखें साधु - 5.5
- उपरले गुणस्थानों में लेश्या कैसे संभव है ?
- केवली के लेश्या उपचार से है। - देखें केवली - 6.1।
- नरक के एक ही पटल में भिन्न-भिन्न लेश्याएँ कैसे संभव है ?
- मरण समय में संभव लेश्याएँ।
- अपर्याप्त काल में संभ्व लेश्याएँ।
- अपर्याप्त या मिश्रयोग में लेश्या संबंधी शंका समाधान
- मिश्रयोग सामान्य में छहों लेश्या संबंधी।
- मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि के शुभ लेश्या संबंधी।
- अविरत सम्यग्दृष्टि के छहों लेश्या संबंधी।
- कपाट समुद्घात में लेश्या।
- चारों गतियों में लेश्या की तरतमता।
- लेश्या के स्वामियों संबंधी, गुणस्थान, जीवसमास मार्गणास्थानादि 20 प्ररूपणाएँ- देखें सत् - 5.6
- लेश्या में सत् (अस्तित्व) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भावव अल्पबहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ। -देखें वह वह नाम ।
- लेश्या में पाँच भावों संबंधी प्ररूपणाएँ। -देखें भाव - 2.9-11।
- लेश्या मार्गणा में कर्मों का बंध, उदय, सत्त्व। -देखें वह वह नाम ।
- अशुभ लेश्यामें तीर्थंकरत्व के बंधकी प्रतिष्ठापना संभव नहीं।-देखें तीर्थंकर - 2।
- आयुबंध योग्य लेश्याएँ।-देखें आयु - 3.19
- कौन लेश्यासे मरकर कहाँ जन्मता है देखें जन्म - 6
- शुभ लेश्याओं में मरण नहीं होता – देखें मरण - 4।
- लेश्याके साथ आयुबंध व जन्म करण का परस्पर संबंधजंम/5/7।
- सभी मार्गणास्थानों में आयुके अनुसार व्ययय होनेका नियम।-देखें मर्गणा - 6
- भेद लक्षण व तत्संबंधी शंका समाधान
- लेश्या सामान्य के लक्षण
पं. सं./प्रा./1/142-143 लिप्पइ अप्पीकीरइ एयाए णियय पुण्ण पावं च। जीवोत्ति होइ लेसा लेसागुणजाणयक्खाया।142। जह गेरुवेण कुड्डो लिप्पइ लेवेण आमपिट्टेण। तह परिणामों लिप्पइ सुहासुहा यत्ति लेव्वेण।143।= जिसके द्वारा जीव पुण्य-पापसे अपनेको लिप्त करता है, उनके आधीन करता है उसको लेश्या कहते हैं।142। ( धवला 1/1,1,4/ ग, 94/150); ( गोम्मटसार जीवकांड/ मू /489) जिस प्रकार आमपिष्टसे मिश्रित गेरु मिट्टीके लेप द्वारा दीवाल लीपी या रंगी जाती है, उसी प्रकार शुभ और अशुभ भावरूप लेपके द्वारा जो आत्माका परिणाम लिप्त किया जाता है उसको लेश्या कहते हैं।143।
धवला 1/1,1,4/149/6 निमपतीति लेश्या।.... कर्मभिरात्मानमित्याध्या पारपेक्षित्वात्। अथवात्मप्रवृत्तिसंश्लेषणकारी लेश्या। प्रवृतिशब्दस्य कर्मपर्यायत्वात्।= जो म्पिन करी है उसको लेश्या कहते हैं।( धवला 1/1,1,136/283/9 ) अथवा जो आत्मा और कर्मका संबंध करनेवाली है उसको लेश्या कहते हैं। यहाँ पर प्रृवत्ति शब्द कर्मका पर्याचवाची है। ( धवला 7/2,1,3/7/7 )।
धवला 8/3,273/356/4 का लेस्साणाम। जीव- कम्माणं संसिलेसयणयरी, मिच्छत्तसंजम- कसायजोगा त्ति भणिदं होदि।=जीव व कर्म का संबंध कराती है वह लेश्या कहलाती है। अभिप्राय यह है कि मिथ्यात्व,असंयम, कषाय और योग ये लेश्या हैं।
- लेश्या के भेद-प्रभेद
- द्रव्य व भाव दो भेद -
सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/10 लेश्या द्विविधा, द्रव्यलेश्या भावलेश्या चेति। = लेश्या दो प्रकार की है - द्रव्यलेश्या और भावलेश्या ( राजवार्तिक/2/6/8/109/22 ); ( धवला 2/1, 1/419/8 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/489/894/12 )।
- द्रव्य-भाव लेश्या के उत्तर भेद-
षट्खंडागम /1/,1/ सू. 136/386 लेस्साणुवादेण अत्थि किण्हलेस्सिया णीललेस्सिया काउलेस्सिया तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया सुक्केस्सिया अलेस्सिया चेदि।136। = लेश्या मार्गणा के अनुवाद से कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या और अलेश्यावाले जीव होते हैं। 136। ( धवला 16/485/7 )।
सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/12 सा षड्विधा - कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या चेति। = लेश्या छह प्रकार की है - कृष्ण लेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, पीतलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या। ( राजवार्तिक/2/6/8/388/5 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/493/896 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/38 )।
गोम्मटसार जीवकांड/494-495/897 दव्वलेस्सा। सा सीढा किण्हादी अणेयभेयो सभेयेण।494। छप्पय णीलकवोदसुहेममंबुजसंखसण्णिहा वण्णे। संखेज्जासंखेज्जाणंतवियप्पा य पत्तेय।495। = द्रव्यलेश्या कृष्णादिक छह प्रकार की है उनमें एक-एक भेद अपने-अपने उत्तर भेदों के द्वारा अनेक रूप है।494। कृष्ण-भ्रमर के सदृश काला वर्ण, नील-नील मणि के सदृश, कापोत-कापोत के सदृश वर्ण, तेजो-सुवर्ण सदृश वर्ण, पद्म-कमल समान वर्ण, शुक्ल - शंख के समानवर्ण वाली है। जिस प्रकार कृष्णवर्म हीन-उत्कृष्ट-पर्यंत अनंत भेदों को लिये है उसी प्रकार छहों द्रव्य-लेश्या के जघन्य से उत्कृष्ट पर्यंत शरीर के वर्ण की अपेक्षा संख्यात, असंख्यात व अनंत तक भेद हो जाते हैं।495।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/704/1141/5 लेश्या सा च शुभाशुभेदाद् द्वेधा। तत्र अशुभा कृष्णनीलकपोतभेदात् त्रेधा, शुभापि तेजःपद्मशुक्लभेदात्त्रेधा। = वह लेश्या शुभ व अशुभ के भेद से दो प्रकार की है। अशुभ लेश्या कृष्ण, नील व कपोत के भेद से तीन प्रकार की है। और शुभ लेश्या भी पीत, पद्म व शुक्ल के भेद से तीन प्रकार है।
- द्रव्य व भाव दो भेद -
- द्रव्य-भाव लेश्याओं के लक्षण
- द्रव्य लेश्या
पं.सं. /प्रा./1/183-184 किण्हा भमर-सवण्णा णीला पुण णील - गुलियसंकासा। काऊ कओदवण्णा तेऊ तवणिज्जवण्णा दु।183। पम्हा पउमसवण्णा सुक्का पुणु कासकुसुमसंकासा। वण्णंतरं च एदे हवंति परिमिता अणंता वा।184। = कृष्ण लेश्या, भौंरे के समान वर्णवाली, नील लेश्या-नील की गोली, नीलमणि या मयूरकंठ के समान वर्णवाली कापोत-कबूतर के समान वर्णवाली, तेजो-तप्त सुवर्ण के समान वर्णवाली पद्म लेश्या पद्म के सदृश वर्णवाली। और शुक्ललेश्या कांस के फूल के समान श्वेत वर्णवाली है। ( धवला 16/ गा. 1-2/485)।
राजवार्तिक/9/7/11/604/13 शरीरनामोदयापादिता द्रव्यलेश्या। = शरीर नाम कर्मोदय से उत्पन्न द्रव्यलेश्या होती है।
गोम्मटसार जीवकांड/494 वण्णोदयेण जणिदो सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा। = वर्ण नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुआ जो शरीर का वर्ण उसको द्रव्यलेश्या कहते हैं।494। ( गोम्मटसार जीवकांड/536 )।
- भावलेश्या
सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/11 भावलेश्या कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्तिरिति कृत्वा औदयिकोत्युच्यते। = भावलेश्या कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति रूप है, इसलिए वह औदयिकी कही जाती है। ( राजवार्तिक/2/6/8/109/14 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/38/5 )।
धवला 1/1,1,4/149/8 कषायानुरंजिता कायवाङ्मनोयोगप्रवृत्तिर्लेश्या = कषाय से अनुरंजित मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड/490/895 ); ( पंचास्तिकाय/ ता.प्र./119)।
गोम्मटसार जीवकांड/536/931 लेस्सा। मोहोदयखओवसमोवसमखयजजीव- फंदणं भावो। = मोहनीय कर्म के उदय, क्षयोपशम, उपशम अथवा क्षय से उत्पन्न हुआ जो जीव का स्पंंद सो भावलेश्या है।
- द्रव्य लेश्या
- कृष्णादि भावलेश्याओं के लक्षण
- . कृष्णलेश्या
पं.सं./प्रा./1/144-145 चंडो ण मुयदि वेरं भंडण-सीलो य धम्म दयरहिओ। दुट्ठो ण य एदि वसं लक्खणमेदं तु किण्हस्स।200। मंदो बुद्धि- विहीणो णिव्विणाणी य विसय-लोलो य। माणी मायी य तहा आलस्सो चेय भेज्जो य।201। = तीव्र क्रोध करने वाला हो, वैरको न छोड़े, लड़ना जिसका स्वभाव हो, धर्म और दया से रहित हो, दुष्ट हो, जो किसी के वश को प्राप्त न हो, ये सब कृष्णलेश्यावालों के लक्षण हैं।200। मंद अर्थात् स्वच्छंद हो, वर्तमान कार्य करने में विवेकरहित हो। कलाचातुर्य से रहित हो, पंचेंद्रिय के विषयों में लंपट हो, मानी, मायावी, आलसी और भीरु हो, ये सब कृष्णलेश्या वालों के लक्षण हैं।201। ( धवला 1/1,1,136/ गा. 200-201/388), ( गोम्मटसार जीवकांड/509-510 )।
तिलोयपण्णत्ति/2/295-296 किण्हादितिलेस्सजुदा जे पुरिसा ताण लक्खणं एदं। गोत्तं तह सकलत्तं एक्कं वंछेदि मारिदुं दुट्ठो।295। धम्म दया परिचत्तो अमुक्कवेरो पयंडकलहयरो। बहुकोहो किण्हाए जम्मदि धूमादि चरिमंते।296। = कृष्णलेश्या से युक्त दुष्ट पुरुष अपने ही गोत्रीय तथा एकमात्र स्वकलत्र को भी मारने की इच्छा करता है।295। दया -धर्म से रहित, वैरको न छोड़ने वाला, प्रचंड कलह करने वाला और क्रोधी जीव कृष्णलेश्या के साथ धूमप्रभा पृथिवी से अंतिम पृथिवी तक जन्म लेता है।
राजवार्तिक/4/22/10/239/25 अनुनयानभ्युपगमोपदेशाग्रहणवैरामोचनातिचंडत्व -दुर्मुखत्व - निरनुकंपता-क्लेशन-मारणा-परितोषणादि कृष्णलेश्या लक्षणम्। = दुराग्रह, उपदेशावमानन, तीव्र वैर, अतिक्रोध, दुर्मुख, निर्दयता, क्लेश, ताप, हिंसा, असंतोष आदि परम तामसभा व कृष्णलेश्या के लक्षण हैं।
- नीललेश्या
पं.सं./प्रा./1/146 णिद्दावंचण-बहुलो धण-धण्णे होइ तिव्व-सण्णो य। लक्खणभेदं भणियं समासदो णील-लेस्सस्स।202। = बहुत निद्रालु हो, पर वचन में अतिदक्ष हो, और धन-धान्य के संग्रहादि में तीव्र लालसावाला हो, ये सब संक्षेप से नीललेश्यावाले के लक्षण कहे गये हैं।146। ( धवला 1/1,1,136/ गा. 202/389); ( गोम्मटसार जीवकांड/511/590 ); (पं.सं./मं./1/274)।
तिलोयपण्णत्ति/2/297-298 विसयासत्तो विमदी माणी विण्णाणवज्जिदो मंदो। अलसो भीरूमायापवंचबहलो य णिद्दालू।297। परवंचणप्पसत्तो लोहंधो धणसुहाकंखी। बहुसण्णा णीलाए जम्मदि तं चेव धूमंतं।298। = विषयों में आसक्त, मतिहीन, मानी, विवेक बुद्धि से रहित, मंद, आलसी, कायर, प्रचुर माया प्रपंच में संलग्न, निंद्राशील, दूसरों केठगने में तत्पर, लोभ से अंध, धन-धान्यजनित सुखका इच्छुक और बहुसंज्ञायुक्त अर्थात्आहारादि संज्ञाओं में आसक्त ऐसा जीव, नीललेश्या के साथ धूम्रप्रभा तक जाता है।297-298।
राजवार्तिक/4/22/11/239/26 आलस्य-विज्ञानहानि-कार्यानिष्ठापनभीरूता- विषयातिगृद्धि-माया-तृष्णातिमानवंचनानृतभाषण-चापलातिलुब्धत्वादि नीललेश्यालक्षणम्। = आलस्य, मूर्खता, कार्यानिष्ठा, भीरुता, अतिविषयाभिलाष, अतिगृद्धि, माया, तृष्णा, अतिमान, वंचना, अनृत भाषण, चपलता, अतिलोभ आदि भाव नीललेश्या के लक्षण हैं।
- कापोतलेश्या
पं.सं./प्रा./1/147-148 रूसइ णिदंइ अण्णे दूसणबहलोय सोय-भय-बहलो। असुवइ परिभवइपरं पसंसइ य अप्पयं बहुसो।147। ण य पत्तियइ परं सो अप्पाणं पिव परं पि मण्णंतो।तूसइ अइथुव्वंतो ण य जाणइ ट्ठणि-बड्ढीओ।148। मरणं पत्थेइ रणे देइ सु बहुयं पिथुव्वमाणो हु। ण गणइ कज्जाकज्जं लक्खणमेयं तु काउस्स।149। = जो दूसरें के ऊपर रोष करता हो, दूसरों की निंदा करता हो, दषूण बहुल हो, शोक बहुल हो, भय बहुल हो, दूसरों सेईर्ष्या करता हो, पर का परभाव करता हो, नाना प्रकार से अपनी प्रशंसा करता हो, पर का विश्वास न करता हो, अपने समान दूसरे को मानता हो, स्तुति किये जाने पर अति संतुष्ट हो, अपनी हानि और वृद्धि को न जानता हो, रण में मरण का इच्छुक हो, स्तुति या प्रशंसा किये जाने पर बहुत धनादिक देवे और कर्तव्य-अकर्तव्य को कुछ भी न गिनता हो, ये सब कापोत लेश्या के चिह्न हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/2/299-301 );( धवला 1/1,1,136/ गा. 203-205/389); ( गोम्मटसार जीवकांड/512-514/910-911 ); (पं.सं./सं./1/276-277)।
राजवार्तिक/4/22/10/239/28 मात्सर्य - पैशुन्य- परपरिभवात्मप्रशंसापरपरिवादवृद्धिहान्यगणनात्मीय जो वितनिराशता प्रशस्यमानधनदान युद्धनरगौद्ययादि कापोत लेश्यालक्षणम्। = मात्सर्य, पैशुन्य, परपरिभव, आत्माप्रशंसा परपरिवाद, जीवन नैराश्य, प्रशंसक को धन देना, युद्ध मरणोद्यम आदि कापोत लेश्या के लक्षण हैं।
- पीत लेश्या
पं.सं./प्रा./1/150 जाणइ कज्जाकज्जं सेयासेयं च सव्वसमपासी। दय-दाणरदो य विद लक्खणमेयं तु तेउस्स।150। = जो अपने कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य और सेव्य-असेव्य को जानता हो, सब में समदर्शी हो, दया और दान में रत हो, मृद स्वभावी और ज्ञानी हो, ये सब तेजोलेश्यावाले के लक्षण हैं।150। ( धवला 1/1,1,136/ गा. 206/389); ( गोम्मटसार जीवकांड/515/911 ); (पं.सं./सं./2/279) (दे आयु/3)।
राजवार्तिक/4/22/10/239/29 दृढमित्रता सानुक्रोशत्व-सत्यवाद दानशीलात्मीयकार्यसंपादनपटुविज्ञानयोग- सर्वधर्मसमदर्शनादि तेजोलेश्या लक्षणम्। =दृढता, मित्रता, दयालुता, सत्यवादिता, दानशीलत्व, स्वकार्य-पटुता, सर्वधर्म समदर्शित्व आदि तेजोलेश्या के लक्षण हैं।
- पद्मलेश्या
पं.सं./प्रा./1/151 चाई भद्दो चोक्खो उज्जुयकम्मो य खमइं वहुयं पि।साहुगुणपूयणिरओ लक्खणमेयं तु पउमस्स।151। = जो त्यागी हो, भद्र हो, चोखा (सच्चा) हो, उत्तम काम करने वाला हो, बहुत भी अपराध या हानि होने पर क्षमा कर दे, साधुजनों के गुणों के पूजन में निरत हो, ये सब पद्मलेश्या के लक्षण हैं।151। ( धवला 1/1,1,136/206/390 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/516/912 ); (पं.सं./सं./1/151)।
राजवार्तिक/4/22/10/239/31 सत्यवाक्यक्षमोपेत-पंडित-सत्त्विकदानविशारद-चतुरर्जुगुरुदेवतापूजाकरणनिरतत्वादिपद्मलेश्यालक्षणम्। = सत्यवाक्, क्षमा, सात्विकदान, पांडित्य, गुरु-देवता पूजन में रुचि आदि पद्मलेश्या के लक्षण हैं।
- शुक्ललेश्या
पं.सं./प्रा./1/152 ण कुणेइं पक्खवायं ण वि य णिदाणं समो य सव्वेसु। णत्थि य राओ दोसो णेहो वि हु सुक्कलेसस्स।152। = जो पक्षपात न करता हो, और न निदान करता हो, सब में समान व्यवहार करता हो, जिसे परमें राग-द्वेष वा स्नेह न हो, ये सब शुक्ललेश्या के लक्षण हैं।152। ( धवला 1/1,1,136/208/390 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/517/912 ); )पं.सं./सं./1/281)।
राजवार्तिक 4/22/10/239/33 वैररागमोहविरह-रिपुदोषग्रहणनिदानवर्जनसार्व-सावद्यकार्यारंभौदासीन्य -श्रेयोमार्गानुष्ठानादि शुक्ललेश्यालक्षणम्। = निर्वैर, वीतरागता, शत्रु के भी दोषों पर दृष्टि न देना, निंदा न करना, पाप कार्यों से उदासीनता, श्रेयोमार्ग रुचि आदि शुक्ल लेश्या के लक्षण हैं।
- . कृष्णलेश्या
- अलेश्या का लक्षण
पं.सं./प्रा./1/153 किण्हाइलेसरहिया संसारविणिग्गया अणंतसुहा। सिद्धिपुरीसंपत्ता अलेसिया ते मुणेयव्वा।153। = जो कृष्णादि छहों लेश्या से रहित है, पंच परिवर्तन रूप संसार से विनिर्गत है, अनंत सुखी है, और आत्मोपलब्धि रूप सिद्धिपुरी को संप्राप्त है, ऐसे अयोगिकेवली और सिद्ध जीवों को अलेश्या जानना चाहिए।153। ( धवला 1/1,1,136/209/390 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/556 ); (पं.सं./सं./1/283)।
- लेश्या के लक्षण संबंधी शंका
- ‘लिंपतीति लेश्या’ लक्षण संबंधी
धवला 1/1,1,4/149/6 न भूमिलेपिकयातिव्याप्तिदोषः कर्मभिरात्मानमित्याध्याहारापेक्षित्वात्। अथवात्मप्रवृत्तिसंश्लेषणकरी लेश्या। नात्रातिप्रसंगदोषः प्रवृत्तिशब्दस्य कर्मपर्यायत्वात्। = प्रश्न - (लिंपन करती है वह लेश्या है यह लक्षण भूमिलेपिका आदि में चला जाता है।) उत्तर - इस प्रकार लक्षण करने पर भी भूमि लेपिका आदि में अतिव्याप्त दोष नहीं होता, क्योंकि इस लक्षण में ‘कर्मों से आत्मा को इस अध्याहार की अपेक्षा है’ इसका तात्पर्य है जो कर्मों से आत्मा को लिप्त करती है वह लेश्या है अथवा जो प्रवृत्ति कर्म का संबंध करनेवाली है उसको लेश्या कहते हैं ऐसा लक्षण करने पर अतिव्याप्त दोष भी नहीं आता क्योंकि यहाँ प्रवृत्ति शब्द कर्म का पर्यायवाची ग्रहण किया है।
धवला 1/1,1,136/386/10 कषायानुरंजितैव योगप्रवृत्तिर्लेश्येति नात्र परिगृह्यते सयोगकेवलिनोऽलेश्यत्वापत्तेः अस्तु चेन्न, ‘शुक्ललेश्यः सयोगकेवली’ इति वचनव्याघातात्। = ‘कषाय से अनुरंजितयोग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं, ‘यह अर्थ यहाँ नहीं ग्रहण करना चाहिए’, क्योंकि इस अर्थ के ग्रहण करने पर सयोगिकेवली को लेश्या रहितपने की आपत्ति होती है। प्रश्न - ऐसा ही मान लें तो। उत्तर - नहीं, क्योंकि केवली को शुक्ल लेश्या होती है’ इस वचन का व्याघात होता है।
- ‘कर्म बंध संश्लेषकारी’ के अर्थ में
धवला 7/2,1,61/105/4 जदि बंधकारणाणं लेस्सत्तं उच्चादि तो पमादस्स वि लेस्सत्तं किण्ण इच्छिज्जदि। ण, तस्स कसाएसु अंतब्भावादो। असंजमस्स किण्ण इच्छिज्जदि। ण, तस्स वि लेस्सायम्मे अंतब्भावादो। मिच्छत्तस्स किण्ण इच्छिज्जदि। होदु तस्स लेस्साववएसो, विरोहाभावादो। किंतु कसायाणं चेव एत्थ पहाणत्तंहिंसादिलेस्सायम्मकरणादो, सेसेसु तदभावादो। = प्रश्न - बंध के कारणों को ही लेश्याभाव कहा जाता है तो प्रमाद को भी लेश्याभाव क्यों न मान लिया जाये। उत्तर - नहीं, क्योंकि प्रमाद का तो कषायों में ही अंतर्भाव हो जाता है। (और भी देखें प्रत्यय - 1.3)। प्रश्न - असंयम को भी लेश्या क्यों नहीं मानते ? उत्तर- नहीं, क्योंकि असंयम का भी तो लेश्या कर्म में अंतर्भाव हो जाता है। प्रश्न – मिथ्यात्व को लेश्याभाव क्यों नहीं मानते? उत्तर - मिथ्यात्व को लेश्याभाव कह सकते हैं, क्योंकि उसमें कोई विरोध नहीं आता। किंतु यहाँ कषायों का ही प्राधान्य है, क्योंकि कषाय ही लेश्या कर्म के कारण हैं और अन्य बंध कारणों में उसका अभाव है।
- ‘लिंपतीति लेश्या’ लक्षण संबंधी
- लेश्या के दोनों लक्षणों का समन्वय
धवला 1/1,1,136/388/1 संसारवृद्धिहेतुर्लेश्येति प्रतिज्ञायमाने लिंपतीति लेश्येत्यनेन विरोधश्चेन्न, लेपाविनाभावित्वेन तद्वृद्धेरपि तद्व्यपदेशाविरोधात्। = प्रश्न -संसार की वृद्धि का हेतु लेश्या है ऐसी प्रतिज्ञा करने पर ‘जो लिप्त करती है उसे लेश्या कहते हैं’; इस वचन के साथ विरोध आता है। उत्तर - नहीं, क्योंकि, कर्म लेप की अविनाभावी होने रूप से संसार की वृद्धि को भी लेश्या ऐसी संज्ञा देने से कोई विरोध नहीं आता है। अतः उन दोनों से पृथग्भूत लेश्या है यह बात निश्चित हो जाती है।
- लेश्या सामान्य के लक्षण
- कषायानुरंजित योग प्रवृत्ति संबंधी
- तरतमता की अपेक्षा लेश्याओं में छह विभाग
धवला 1/1,1,136/388/3 षड्विधः कषायोदयः। तद्यथा, तीव्रतमः तीव्रतरः तीव्रः मंदः मंदतरः मंदतमम् इति। एतेभ्यः षड्भ्यः कषायोदयेभ्यः परिपाट्या षड् लेश्या भवंति। = कषाय का उदय छह प्रकार का होता है। वह इस प्रकार है, तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मंद, मंदतर और मंदतम। इन छह प्रकार के कषाय के उदय से उत्पन्न हई परिपाटी क्रम से लेश्या भी छह हो जाती है। - (और भी देखें आयु - 3.19)।
- लेश्या नाम कषायका है, योग का है वा दोनों का :
धवला 1/1,1,136/386/99 लेश्या नाम योगः कषायस्तावुभौ वा। किं चातो नाद्यौ विकल्पौ योगकषायमार्गणयोरेव तस्या अंतर्भावात्। न तृतीयविकल्पस्तस्यापि तथाविधत्वात्। ... कर्मलेवैककार्यकृर्तत्वेनैकत्वमापन्नयोर्योगकषाययोर्लेश्यात्वाभ्युपगमात्। नैकत्वात्तयोरत्नर्भवति द्वयात्मकैकस्य जात्यांतरमापंनस्य केवलेनैकेन सहैकत्वसमानत्वयोर्विरोधात्।
धवला 1/1,1,4/149/8 ततो न केवलः कषायो लेश्या, नापि योगः, अपि तु कषायानुविद्धा योगप्रवृत्तिर्लेश्येति सिद्धम्। ततो न वीतरागाणां योगो लेश्येति न प्रत्यवस्येयं तंत्रत्वाद्योगस्य, न कषायस्तंत्रं विशेषणत्वतस्तस्य प्राधान्याभावात्। = प्रश्न - लेश्या योग को कहते हैं, अथवा, कषाय को कहते हैं, या योग और कषाय दोनों को कहते हैं। इनमें से आदि के दो विकल्प (योग और कषाय) तो मान नहीं सकते, क्योंकि वैसा मानने पर योग और कषाय मार्गणा में ही उसका अंतर्भाव हो जायेगा। तीसरा विकल्प भी नहीं मान सकते हैं क्योंकि वह भी आदि के दो विकल्पों के समान है। उत्तर -- कर्म लेप रूप एक कार्य को करने वाले होने की अपेक्षा एकपने को प्राप्त हुए योग और कषाय को लेश्या माना है। यदि कहा जाये कि एकता काप्राप्त हुए योग और कषायरूप लेश्या होने से उन दोनों में लेश्या का अर्ंताव हो जायेगा, सो भी ठीक नहीं है क्योंकि दो धर्मों के संयोग से उत्पन्न हुए द्वयात्मक अतएव किसी एक तीसरी अवस्था को प्राप्त हुए किसी एक धर्म का केवल एक के साथ एकत्व अथवा समानता मानने में विरोध आता है।
- केवल कषाय और केवल योग को लेश्या, नहीं कह सकते हैं किंतु कषायानुविद्ध योगप्रवृत्तिको ही लेश्या कहते हैं, यह बात सिद्ध हो जाती है। इससे बारहवें आदि गुणस्थानवर्ती वीतरागियों के केवल योग को लेश्या नहीं कह सकते ऐसा निश्चय नहीं कर लेना चाहिए, क्योंकि लेश्या में योग की प्रधानता है, कषाय प्रधान नहीं है, क्योंकि, वह योग प्रवृत्ति का विशेषण है, अतएव उसकी प्रधानता नहीं हो सकती है।
धवला 7/2, 1,63/104/12 जदि कसाओदए लेस्साओ उच्चंति तो खीणकसायाणं लेस्साभावो पसज्जदे। सच्चभेदं जदि कसाओदयादो चेव लेस्सुप्पत्ती इच्छिज्जदि। किंतु सरीरणामक्ममोदयजणिदजोगोवि लेस्साति इच्छिज्जदि, कम्मबंधणिमित्तत्तादो। = - क्षीणकषाय जीवों में लेश्या के अभाव का प्रसंग आता यदि केवल कषायोदय से ही लेश्या की उत्पत्ति मानी जाती। किंतु शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योंकि वह भी कर्म के बंध में निमित्त होता है।
- योग व कषाय से पृथक् लेश्या मानने की क्या आवश्यकता ?
धवला 1/1,1,136/387/5 योगकषायकार्याद्वयतिरिक्तलेश्याकार्यानुपलंभान्न ताभ्यांपृथग्लेश्यास्तीति चेन्न, योगकषायाभ्यां प्रत्यनीकत्वाद्यालंबनाचार्यादिबाह्यार्थसंनिधानेनापन्नलेश्याभावाभ्यां संसारवृद्धिकार्यस्य तत्केवलकार्याद्वयतिरिक्तस्योपलंभात्। = प्रश्न - योग और कषायों से भिन्न लेश्या का कार्य नहीं पाया जाता है, इसलिए उन दोनों से भिन्न लेश्या नहीं मानी जा सकती। उत्तर - नहीं, क्योंकि, विपरीतता को प्राप्त हुए मिथ्यात्व, अविरति आदि के आलंबन रूप आचार्यादिबाह्य पदार्थों के संपर्क से लेश्या भाव को प्राप्त हुए योग और कषायों से केवल योग और केवल कषाय के कार्य से भिन्न संसार की वृद्धि रूप कार्य की उपलब्धि है जो केवल योग और केवल कषाय का कार्य नहीं कहा जा सकता है, इसलिए लेश्या उन दोनों से भिन्न है, यह बात सिद्ध हो जाती है।
- लेश्या का कषायों में अंतर्भाव क्यों नहीं कर देते ?
राजवार्तिक/2/6/8/109/25 कषायश्चौदयिको व्याख्यातः, ततो लेश्यानर्थांतरभूतेति; नैष दोषः; कषायोदयतीव्रमंदावस्थापेक्षा भेदादर्थांतरत्वम्। = प्रश्न - कषाय औदयिक होती हैं, इसलिए लेश्या का कषायों में अंतर्भाव हो जाता है। उत्तर - यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि, कषायोदय के तीव्र - मंद आदि तारतम्य से अनुरंजित लेश्या पृथक् ही है।
देखें लेश्या - 2.2 (केवल कषाय को लेश्या नहीं कहते अपितु कषायानुविद्ध योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं )।
- तरतमता की अपेक्षा लेश्याओं में छह विभाग
- द्रव्य लेश्या निर्देश
- अपर्याप्त काल में शुक्ल व कापोत लेश्या ही होती है
धवला 2/1,1/422/6 जम्हा सव्व-कम्मस्स विस्सोवचओ सुक्किलो भवदि तम्हा विग्गहगदीएबहमाण-सव्वजीवाणं सरीरस्स सुक्कलेस्सा भवदि। पुणो सरीरं घेत्तूण जाव पज्जत्तीओ समाणेदि ताव छव्वण्ण-परमाणु पुंज-णिप्पज्जमाण -सरीरत्तादो तस्स सरीरस्स लेस्सा काउलेस्सेत्ति भण्णदे, एवं दो सरीरलेस्साओ भवंति। = जिस कारण से संपूर्ण कर्मों काविस्रसोपचय शुक्ल ही होता है, इसलिए विग्रहगति में विद्यमान संपूर्ण जीवों के शरीर को शुक्ललेश्या होती है। तदनंतर शरीर को ग्रहण करके जब तक पर्याप्तियों को पूर्ण करता है तब तक छह वर्ण वाले परमाणुओ के पुंज से शरीर की उत्पत्ति होती है, इसलिए उस शरीर की कपोत लेश्या कही जाती है। इस प्रकार अपर्याप्त अवस्था में शरीर संबंधी दो ही लेश्याएँ होती हैं। ( धवला 2/1,1/654/1;609/9 ।
- नरक गति में द्रव्य से कृष्ण लेश्या ही होती है
गोम्मटसार जीवकांड व.जी.प्र./496/898 णिरया किण्हा।496। नारका सर्वे कृष्णा एव। = नारकी सर्व कृष्ण वर्णवाले ही हैं।
- जल की द्रव्यलेश्या शुक्ल ही है
धवला 2/1,1/609/9 सुहम आऊणं काउलेस्सा वा बादरआऊणं फलिहवण्णलेस्सा। कुदो।घणोदधि-घणवलयागासपदिद-पाणीयाणं धवलवण्ण दंसणादो। धवल-किसण-णील-पीयल-रत्ताअंब-पाणीय दंसणादो ण धवलवण्णमेव पाणीयमिदि वि पि भणंति, तण्ण घडदे। कुदो। आयारभावे भट्टियाएसंजोगेण जलस्स बहवण्ण-ववहारदंसणादो। आऊणँ सहावण्णो पुण धवलो चेव। = सूक्ष्मअपकायिक जीवों के अपर्याप्त काल में द्रव्य से कापोतलेश्या और बादरकायिक जीवों के स्फटिकवर्णवाली शुक्ल कहना चाहिए, क्योंकि, घनोदधिवात और घनवलयवात द्वारा आकाश सेगिरे हुए पानी का धवल वर्ण देखा जाता है। प्रश्न - कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि धवल, कृष्ण, नील, पीत, रक्त और आताम्र वर्ण का पानी देखा जाने से धवल वर्ण हो होता है। ऐसा कहना नहीं बनता ? उत्तर - उनका कहना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि, आधार के होने पर मिट्टी के संयोग से जल अनेक वर्णवाला हो जाता है ऐसा व्यवहार देखा जाता है। किंतु जल का स्वाभाविक वर्ण धवल ही होता है।
- भवन त्रिक में छहों द्रव्यलेश्या संभव हैं
धवला 2/1,1,/532-535/6 देवाणं पज्जत्तकाले दव्वदो छ लेस्साओ हवंति त्ति एदं ण घडदे, तेसिं पज्जत्तकाले भावदो छ- लेस्साभावादो। ... जा भावलेस्सा तल्लेस्सा चेव ... णोकम्मपरमाणवो आगच्छंति।532। ण ताव अपज्जत्तकालभावलेस्सा ....पज्जत्तकाले भावलेस्सं पि णियमेण अणुहरइ पज्जत्त-दव्वलेस्सा ...। धवलवण्णवलयाएभावदो सुक्कलेस्सप्पसंगादो। ... दव्वलेस्सा णाम वण्णणामकम्मोदयादो भवदि, ण भावलेस्सादो। ... वण्णणामकम्मोदयादो भवणवासिय-वाणवेंतर -जो-इसियाणं दव्वदो छ लेस्साओ भवंति, उवरिमदेवाणं तेउ-पम्म-सुक्क लेस्साओ भवंति। = प्रश्न - देवों के पर्याप्तकाल में द्रव्य से छहों लेश्याएँ होती हैं यह वचन घटित नहीं होता है, क्योंकि उनके पर्याप्त काल में भाव से छहों लेश्याओं का अभाव है। ... क्योंकि जो भावलेश्या होती है उसी लेश्यावाले ही ... नोकर्म परमाणु आते हैं। उत्तर - द्रव्यलेश्या अपर्याप्तकाल में ... इसी प्रकार पर्याप्तकाल में भी पर्याप्त जीव संबंधी द्रव्यलेश्या भावलेश्या का नियम से अनुकरण नहींकरती है क्योंकि वैसा मानने पर ... तो धवल वर्णवाले बगुले के भी भाव से शुक्ललेश्या का प्रसंग प्राप्त होगा। ... दसरी बात यह भी है कि द्रव्यलेश्या वर्ण नामा नामकर्म के उदय से होती है भावलेश्या नहीं। ... वर्ण नामा नाम कर्म के उदय से भवनवासी, वातव्यंतर और ज्योतिषी देवों के द्रव्य की अपेक्षा छहों लेश्याएँ होती हैं तथा भवनत्रिक से ऊपर देवों के तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ होती हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड/496/898 )।
- आहारक शरीर की शुक्ललेश्या होती है
धवला 14/5,4,239/327/9 पंचवण्णाणमाहारसरीरपरमाणूणं कथं सुक्किलत्तं जुज्जदे। ण, विस्सासुवचयवण्णं पडुच्च धवलत्तुवलंभादो। = प्रश्न - आहारक शरीर के परमाणु पाँच वर्णवाले हैं। उनमें केवल शुक्लपना कैसे बन सकता है। उत्तर - नहीं, क्योंकि विस्रसोपचय के वर्ण की अपेक्षा धवलपना उपलब्ध होता है।
- कपाट समुद्घात में कापोतलेश्या होती है
धवला 2/1, 1/654/3 कवाडगद-सजोगिकेवलिस्स वि सरीरस्स काउलेस्सा। चेव हवदि। एत्थ वि कारणं पुव्वं व वत्तत्वं। सजोगिकेवलिस्स पुव्विल्ल-सरीरं छव्ववण्णं जदि वि हवदि तो वि तण्ण घेप्पदि; कवाडगद-केवलस्सि अपज्जत्तजोगे वट्टमाणस्स पुव्विल्लसरीरेण सह संबंधाभावादो। अहवा पुव्विल्लछव्वण्ण-सरीरमस्सिऊण उवयारेण दव्वदो सजोगिकेवलिस्स छ लेस्साओ हवंति। = कपाट समुद्धातगत सयोगिकेवली के शरीर की भी कापोतलेश्या ही होती है। यहाँ पर भी पूर्व (अपर्याप्तवत् देखें लेश्या - 3.1) के समान ही कारण कहना चाहिए। यद्यपि सयोगिकेवली के पहले का शरीर छहों वर्ण वाला होता है; क्योंकि अपर्याप्त योग में वर्तमान कपाट-समुद्धातगतसयोगि केवली का पहले के शरीर के साथ संबंध नहीं रहता है। अथवा पहले के षड्वर्णवाले शरीर का आश्रय लेकर उपचार द्रव्य की अपेक्षा सयोगिकेवली के छहों लेश्याएँ होती हैं। ( धवला 2/1,1/660/2 )।
- अपर्याप्त काल में शुक्ल व कापोत लेश्या ही होती है
- भाव लेश्या निर्देश
- लेश्यामार्गणा में भाव लेश्या अभिप्रेत है
सर्वार्थसिद्धि/2/6/159/10 जीवभावाधिकाराद् द्रव्यलेश्यानाधिकृता। = यहाँ जीव के भावों का अधिकार होने से द्रव्यलेश्या नहीं ली गयी है। ( राजवार्तिक/2/6/8/109/23 )
धवला 2/1,1/431/6 केईसरीर-णिव्वत्तणट्ठमागद-परमाणुवण्णं घेत्तूण संजदासंजदादीण भावलेस्सं परूवयंति। तण्ण घडदे, ... वचनव्याघाताच्च। कम्म-लेवहेददो जोग-कसाया चेव भाव-लेस्सा त्ति गेण्हिदव्वं। = कितने ही आचार्य, शरीर-रचना के लिए आये हुए परमाणुओं के वर्ण को लेकर संयतासंयतादि गुणस्थानवर्ती जीवों के भावलेश्या का वर्णन करते हैं किंतु उनका यह कथन घटित नहीं होता है। ... आगम का वचन भी व्याघात होता है। इसलिए कर्म लेपका कारण होने कषाय से अनुरंजित (जीव) प्रकृति ही भावलेश्या है। ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए।
- छहों भाव लेश्याओं के दृष्टांत
पं.सं./प्रा./1/192 णिम्मूल खंध साहा गुंछा चुणिऊण कोइ पडिदाइं। जह एदेसिं भावा तह विय लेसा मुणेयव्वा। = कोई पुरुष वृक्ष को जड़-मूल से उखाड़कर, कोई स्कंध से काटकर, कोई गुच्छों को तोड़कर, कोई शाखा को काटकर, कोई फलों को चुनकर, कोई गिरे हुए फलों को बीनकर खाना चाहें तो उनके भाव उत्तरोत्तर विशुद्ध हैं, उसी प्रकार कृष्णादि लेश्याओं के भाव भी परस्पर विशुद्ध हैं।192।
धवला 2/1,1/ गा.225/533 णिम्मूलखंधसाहुवसाहं वुच्चितु वाउपडिदाइं। अब्भंतरलेस्साणभिंदइ एदाइं वयणाहं।225।
गोम्मटसार जीवकांड/506 पहिया जे छप्पुरिसा परिभट्टारण्णमज्झदेसम्हि। फलभरियरुक्खमेगं पेक्खित्ता ते विंचितंति।506। =- छह लेश्यावाले छह पथिक वन में मार्ग से भ्रष्ट होकर फलों से पूर्ण किसी वृक्ष को देखकर अपने मन में विचार करते हैं, और उसके अनुसार वचन कहते हैं - (गो.सा.)
- जड़-मूल से वृक्ष को काटो, स्कंध को काटो, शाखाओं को काटो, उपशाखाओं को काटो, फलों को तोड़कर खाओ और वायु से पतित फलों को खाओ, इस प्रकार ये अभ्यंतर अर्थात् भावलेश्याओं के भेद को प्रकट करते हैं। 225। (ध.गो.सा./मू./507)।
- लेश्या अधिकार में 16 प्ररूपणाएँ
गोम्मटसार जीवकांड/491-492/896 णिद्देसवण्णपरिणामसंकमो कम्मलक्खणगदी य। सामी साहणसंखा खेत्तं फासं तदो कालो।491। अंतरभावप्पबहु अहियारा सोलसा हवंति त्ति। लेस्साण साहणट्ठं जहाकमं तेहिं वीच्छामि .492। = निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म, लक्षण, गति, स्वामी, साधन, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्प-बहुत्व ये लेश्याओं की सिद्धि के लिए सोलह अधिकार परमागम में कहे हैं।491-492।
- वैमानिक देवों में द्रव्य व भावलेश्या समान होती है परंतु अन्य जीवों में नियम नहीं
तिलोयपण्णत्ति/8/672 सोहम्मप्पहुदीणं एदाओ दव्वभावलेस्साओ। = सौधर्मादिक देवों के ये द्रव्य व भाव लेश्याएँ समान होती हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड/496 )।
धवला 2/1, 1/534/6 ण ताव अपज्जत्तकाल भावलेस्समणुहरइ दव्वलेस्सा, उत्तम-भोगभूमि-मणुस्साणमपज्जत्तकाले असुह-त्ति-लेस्साणं गउरवण्णा भावापत्तीदो।ण पज्जत्तदकाले भावलेस्सं पि णियमेण अणुहरइ पज्जत्तव्वलेस्सा,, छव्विह-भाव-लेस्सासु परियट्टंत-तिरिक्ख मणुसपज्जत्ताणं दव्वलेस्साए अणियमप्पसंगादो। धवलवण्णबलायाएभावदो सुक्कलेस्सप्पसंगादो। आहारसरीराणं धवलवण्णाणं विग्गहगदि-ट्ठिय-सव्व जीवाणं धवलवण्णाणं भावदो सुक्कलेस्सावत्तीदो चेव। किं च, दव्वलेस्सा णाम वण्णणामकम्मोदयादो भवदि ण भावलेस्सादो। = द्रव्यलेश्या अपर्याप्त काल में होने वाली भावलेश्या का तो अनुकरण करती नहीं है, अन्यथा अपर्याप्त काल में अशुभ तीनों लेश्यावाले उत्तम भोगभूमियाँ मनुष्यों के गौर वर्णका अभाव प्राप्त हो जायेगा। इसी प्रकार पर्याप्तकाल में भी पर्याप्त जीवसंबंधी द्रव्य लेश्या भावलेश्या का नियम से अनुकरण नहीं करती है, क्योंकि वैसा मानने पर छह प्रकार की भाव लेश्याओं में निरंतर परिवर्तन करने वाले पर्याप्त तिर्यंच और मनुष्यों के द्रव्य लेश्या के अनियमपने का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। और यदि द्रव्य लेश्या के अनुरूप ही भावलेश्या मानी जाये, तो धवल वर्णवाले बगुले के भी भाव से शुक्ललेश्या का प्रसंग प्राप्त होगा। तथा धवल वर्णवाले आहारक शरीरों के और धवल वर्णवाले विग्रहगति में विद्यमान सभी जीवों के भाव की अपेक्षा से शुक्ललेश्या की आपत्ति प्राप्त होगी। दूसरी बात यह भी है कि द्रव्य लेश्या वर्णनामा नाम कर्म के उदय से होती है, भाव लेश्या से नहीं।
- शुभ लेश्या के अभाव में भी नारकियों के सम्यक्त्वादि कैसे ?
राजवार्तिक/3/3/4/163/30 नित्यग्रहणाल्लेश्याद्यनिवृत्तिप्रसंग इति चेत; न; आभीक्ष्ण्यवचनत्वात् नित्यप्रहसितवत्।4। ... लेश्यादीनामपिव्ययोदयाभाबान्नित्यत्वे सति नरकादप्रच्यवः स्यादिति। तन्न; किं कारणम् । ... अशुभकर्मोदयनिमित्तवशात् लेश्यादयोऽनारतं प्रादुर्भवंतीति आभीक्ष्ण्यवचनो नित्यशब्दः प्रयुक्तः। ... एतेषां नारकाणां स्वायुःप्रमाणावधृता द्रव्यलेश्या उक्ताः, भावलेश्यास्तु षडपि प्रत्येकमंतर्मुहर्तपरिवर्तिंयः। =प्रश्न - लेश्या आदि को उदय का अभाव न होने से, अर्थात् नित्य होने से नरक से अच्युतिका तथा लेश्या की अनिवृत्ति का प्रसंग आ जावेगा। उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि यहाँ नित्य शब्द बहुधा केअर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैसे - देवदत्त नित्य हँसता है, अर्थात् निमित्त मिलने पर देवदत्त जरूर हँसता है, उसी तरह नारकी भी कर्मोदय से निमित्त मिलने पर अवश्य ही अशुभतर लेश्या वाले होते हैं, यहाँ नित्य शब्द का अर्थ शाश्वत व कूटस्थ नहीं है। ... नारकियों में अपनी आयु के प्रमाण काल पर्यंत (कृष्णादि तीन) द्रव्यलेश्या कही गयी है। भाव लेश्या तो छहों होती हैं और वे अंतर्मुहूर्त में बदलती रहती हैं।
लब्धिसार/ जी.प्र./101/138/8 नरकगतौ नियताशुभलेश्यात्वेऽपि कषायाणां मंदानुभागोदयवशेन तत्त्वार्थश्रद्धानानुगुणकारणपरिणामरूपविशुद्धि विशेषसंभवस्याविरोधात्। = यद्यपि नारकियों में नियम से अशुभलेश्या है तथापि वहाँ जो लेश्या पायी जाती है उस लेश्या में कषायों के मंद अनुभाग उदय के वश से तत्त्वार्थ श्रद्धानुरूप गुण के कारण परिणाम रूप विशुद्धि विशेष की असंभावना नहीं है।
- भाव लेश्या के काल से गुणस्थान का काल अधिक है
धवला 5/1,6/308/149/1 लेस्साद्धादो गुणद्धाए बहुत्तुवदेसा। = लेश्या के काल से गुणस्थापना का काल बहुत होता है, ऐसा उपदेश पाया जाता है।
- लेश्या परिवर्तन क्रम संबंधी नियम
गोम्मटसार जीवकांड/499-503 लोगाणमसंखेज्जा उदयट्ठाणा कसायग्ग होंति। तत्थ किलिट्ठा असुहा सुहाविशुद्धा तदालावा।499। तिव्वतमा तिब्बतरा तिव्वासुहा सुहा तहा मंदा।मंदतरा मंदतमा छट्ठाणगया हु पत्तेयं।500। असुहाणं वरमज्झिम अवरंसे किण्हणीलकाउतिए। परिणमदि कमेणप्पा परिहाणीदो किलेसस्स।501। काऊ णीलं किण्हं परिणमदि किलेसवड्ढिदो अप्पा। एवं किलेसहाणीवड्ढीदो होदि असुहतियं।502। तेऊ पडमे मुक्के सुहाणमवरादि असंगे अप्पा। सुद्धिस्स य वड्ढीदो हाणीदो अण्णदा होदि।503। संकमणं सट्ठाणपरट्ठाणं होदि किण्हसुक्काणं। वड्ढीसु हि सट्ठाणं उभयं हाणिम्मि सेस, उभये वि।504। लेस्साणुक्कस्सादो वरहाणी अवरगादवरवड्ढी। सट्ठाणे अवरादो हाणी णियमापरट्ठाणे।505। =कषायों के उदयस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं। इसमें से अशुभ लेश्याओं के संक्लेश रूप स्थान यद्यपि सामान्य से असंख्यात लोकप्रमाण है तथापि विशेषता की अपेक्षा असंख्यात लोक प्रमाण में असंख्यात लोक प्रमाण राशि का भाग देने से जो लब्ध आवे उसके बहु भाग संक्लेश रूप स्थान हैं और एक भाग प्रमाण शुभ लेश्याओं के स्थान हैं।499। अशुभ लेश्या संबंधी तीव्रतम, तीव्रतर और तीव्र ये तीन स्थान, और शुभ लेश्या संबंधी मंद मंदतर मंदतम ये तीन स्थान होते हैं।500। कृष्ण, नील, कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओं के उत्कृष्ट मध्यम जघन्य अंश रूप में यह आत्मक्रम से संक्लेश की हानि होने से परिणमन करता है।501। उत्तरोत्तर संक्लेश परिणामों की वृद्धि होने से यह आत्मा कापोत से नील और नील से कृष्ण लेश्यारूप परिणमन करता है।इस तरह यह जीव संक्लेश की हानि और वृद्धि की अपेक्षा से तीन अशुभ लेश्या रूप परिणमन करता है।502। उत्तरोत्तर विशुद्धि होने से यह आत्मा पीत, पद्म, शुक्ल इन शुभ लेश्याओं के जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट अंश रूप परिणमन करता है। विशुद्धि की हानि होने से उत्कृष्ट से जघन्य पर्यंत शुक्ल पद्म पीत लेश्या रूप परिणमन करता है।503। परिणामों की पलटन को संक्रमण कहते हैं उसके दो भेद हैं - स्वस्थान, परस्थान संक्रमण। कृष्ण और शुक्ल में वृद्धि की अपेक्षा स्वस्थान संक्रमण होता है। और हानि की अपेक्षा दोनों संक्रमण होते हैं। तथा शेष चार लेश्याओं में स्वस्थान परस्थान दोनों संक्रमण संभव हैं।504। स्वस्थान की अपेक्षा लेश्याओं के उत्कृष्ट स्थान के समीपवर्ती परिणाम उत्कृष्ट स्थान के परिणाम से अनंत भाग हानि रूप हैं। तथा स्वस्थान की अपेक्षा से ही जघन्य स्थान के समीपवर्ती, स्थान का परिणाम जघन्य स्थान से अनंत भाग वृद्धिरूप है। संपूर्ण लेश्याओं के जघन्य स्थान से यदि हानि हो तो नियम से अनंत गुण हानि रूप परस्थान संक्रमण होता है।505। ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/549/726/16 )।
देखें काल - 5.18 (शुक्ल लेश्या से क्रमशः कापोत नील लेश्याओं में परिणमन करके पीछे कृष्ण लेश्या रूप परिणमन स्वीकार किया गया है। (पद्म, पीत में आने का नियम नहीं) कृष्ण लेश्या परिणति के अनंतर ही कापोत रूप परिणमन शक्ति का अभाव है )।
देखें काल - 5.16-17 (विवक्षित लेश्याको प्राप्त करके अंतर्मुहूर्तसे पहले गुणस्थान या लेश्या परिवर्तन नहीं होता )।
- लेश्यामार्गणा में भाव लेश्या अभिप्रेत है
- भाव लेश्याओं का स्वामित्व व शंका समाधान
- सम्यक्त्व व गुणस्थानों में लेश्या
पं.सं. 1/1/सू. 137-140 किण्हलेस्सिया पीतलेस्सिया काउलेस्सिया एइंदियप्पहुडि जाव असंजद-सम्माइट्ठि त्ति।137। तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया सण्णि-मिच्छाइट्ठि-प्पहुडिजाव अप्पमत्तसंजदा त्ति।138। सुक्कलेस्सिया सण्णि मिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जावसजोगिकेवलि त्ति।139। तेण परमलेस्सिया।140। = कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोतलेश्या वाले जीव एकेंद्रिय से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते हैं।137। पीत लेश्या और पद्म लेश्यावाले जीव संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्त संयत गुणस्थान तक होते हैं।138। शुक्ल लेश्यावाले जीव संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगि केवली गुणस्थान तक होते हैं।139। तेरहवें गुणस्थान के आगे के सभी जीव लेश्या रहित हैं।140।
धवला 6/1,9-8/263/1 कदकरणिज्जकालव्वंतरे तस्स मरणं पि होज्ज, काउ-तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साणमण्णदराए लेस्सा वि परिणाममेज्ज ...। = कृतकृत्य वेदक काल के भीतर उसका मरण भी हो, कापोत, तेज पद्म और शुक्ल; इन लेश्याओं में से किसी एक लेश्या के द्वारा परिणमित भी हो ...।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/354/509/15 शुभलेश्यात्रये तद्विराधनासंभवात्। = तीनों शुभ लेश्याओं में सम्यक्त्व की विराधना नहीं होती।
- उपरले गुणस्थानों में लेश्या कैसे संभव है ?
सर्वार्थसिद्धि/2/6/160/1 ननु च उपशांतकषाये सयोगकेवलिनि चशुक्ललेश्यास्तीत्यागमः। तत्र कषायानुरंजना भावादौदयिकत्वं नोपपद्यते। नैष दोषः; पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया यासौ योगप्रवृत्तिः कषायानुरंजिता सैवेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते। तदभावादयोगकेवल्यलेश्य इति निश्चीयते। = प्रश्न - उपशांत कषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली गुणस्थान में शुक्ललेश्या है ऐसा आगम है, परंतु वहाँ पर कषाय का उदय नहीं है इसलिए औदयिकता नहीं बन सकता। उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो योगप्रवृत्ति कषाय के उदय से अनुरंजित है वही यह है इस प्रकार पूर्वभाव प्रज्ञापन नय की अपेक्षा उपशांत कषाय आदि गुणस्थानों में भी लेश्या को औदयिक कहा गया है। किंतु अयोगकेवली के योग प्रवृत्ति नहीं है इसलिए वे लेश्या रहित हैं, ऐसा निश्चय है। ( राजवार्तिक/2/6/8/109/29 ); ( गोम्मटसार जीवकांड मू./533/926)।
देखें लेश्या - 2.2 (बारहवें गुणस्थानवर्ती वीतरागियों के केवल योग को लेश्या नहीं कहते, ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए )।
धवला 1/1,1,139/391/8 कथं क्षीणोपशांतकषायाणां शुक्ललेश्येति चेन्न, कर्मलेपनिमित्तयोगस्य तत्र सत्त्वापेक्षया तेषां शुक्ललेश्यास्तित्वाविरोधात्। = प्रश्न - जिन जीवों की कषाय क्षीण अथवा उपशांत हो गयी है उनके शुक्ललेश्या का होना कैसे संभव है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि जिन जीवों की कषाय क्षीण अथवा उपशांत हो गयी है उनमें कर्मलेप का कारण योग पाया जाता है, इसलिए इस अपेक्षा से उनके शुक्ल लेश्या के सद्भाव मानने में विरोध नहीं आता। ( धवला 2/1,1/439/5 ), ( धवला 7/2,1,61/105/1 )।
- नरक के एक ही पटल में भिन्न-भिन्न लेश्याएं कैसे संभव हैं ?
धवला 4/1,5,290/461/2 सव्वेसिं णेरइयाणं तत्थ (पंचम पुढवीए) तणाणं तीए (कीण्ह) चेव लेस्साए अभावा। एक्कम्हि पत्थड़े भिण्णलेस्साणं कधं संभवो। ण विरोहाभावा। एसो अत्थो सव्वत्थ जाणिदव्वो। = पाँचवीं पृथ्वी के अधस्तन प्रस्तार के समस्त नारकियों के उसी ही (कृष्ण) लेश्या का अभाव है। (इसी प्रकार अन्य पृथिवियों में भी)। प्रश्न - एक ही प्रस्तार में दो भिन्न-भिन्न लेश्याओं का होना कैसे संभव है। उत्तर - एक ही प्रस्तार में भिन्न-भिन्न जीवों के भिन्न-भिन्न लेश्या के होने में कोई विरोध नहीं है। यही अर्थ सर्वत्र जानना चाहिए।
- मरण समय में संभव लेश्याएँ
धवला 8/3,258/323/1 सव्वे देवा मुदक्खणेण चेव अणियमेण असुहतिलेस्सासु णिवदंति त्ति गहिदे जुज्जदे। ... मुददेवाणं सव्वेसिं पि काउ लेस्साए चेव परिणामब्भुवगमादो। =- सब देव मरण क्षण में ही नियम रहित अशुभ तीन लेश्याओं में गिरते हैं।
- सब ही मृत देवों का कापोत लेश्या में ही परिणमन स्वीकार किया गया है।
धवला 2/1,1/511/3 णेरइया असंजदसम्माइट्ठिणो पढमपुढवि आदि जाव छट्ठी पुढविपज्जवसाणासु पुढवीसु ट्ठिदा कालं काऊण मणुस्सेसु चेव अप्पप्पणो पुढविपाओग्गलेस्साहि सह उप्पज्जंति त्ति किण्ह-णील-काउलेस्सा लब्भंति। देवा विअसंजदसम्माइट्ठिणो कालं काऊण मणुस्सेसु उप्पज्जमाणा तेउ-पम्म-सुक्ललेस्साहि सह मणुस्सेसु उववज्जंति।
धवला 2/1,1/656/12 देव-मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो तेउ-पम्मसुक्कलेस्सासु वट्टमाणा णट्ठलेस्सा होऊण तिरिक्खमणुस्सेसुप्पज्जमाणा उप्पण्ण-पढमसमए चेव किण्हणील-काउलेस्साहि सह परिणमंति। =- प्रथम पृथिवी से लेकर छठी पृथिवी पर्यंत पृथिवियों में रहनेवाले असंयत सम्यग्दृष्टि नारकी मरण करके मनुष्यों में अपनी-अपनी पृथिवी के योग्य लेश्याओं के साथ ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए उनके कृष्ण,नील, कापोत लेश्याएं पायी जाती हैं।
- उसी प्रकार असंयत सम्यग्दृष्टि देव भी मरण करके मनुष्यों में उत्पन्न होते हुए अपनी-अपनी पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओं के साथ ही मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं।
- तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याओं में वर्तमान मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि देव तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होते समय नष्टलेश्या होकर अर्थात् अपनी-अपनी पूर्व की लेश्या को छोड़कर मनुष्यों और तिर्यंचों में उत्पन्न होने के प्रथम समय कृष्ण, नील और कापोत लेश्या से परिणत हो जाते हैं। ( धवला 2/1,1/794/5 )।
- अपर्याप्त काल में संभव लेश्याएँ
धवला 2/1,1,/ पृ. /पंक्ति नं. णेरइय-तिरिक्ख-भवणवासिय-वाणविंतर जोइसियदेवाणमपज्जत्तकाले किण्ह-णीलकाउलेस्साओ भवंति। सोधम्मादि उवरिमदेवाणमपज्जत्तकाले तेउ-पम्मसुक्कलेस्साओ भवंति (422/10)असंजदसम्माइट्ठीणमपज्जत्तकाले छ लेस्साओ। ... मिच्छाइट्ठि – सासणसम्माइट्ठोणं ओरालियमिस्सकायजोगे वट्टमाणाणं किण्ह-णीलकाउलेस्सा चेव हवंति (654/1,7)। देव मिच्छाइट्ठिसासणसम्माइट्ठोणं तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पज्जमाणाणं ... संकिलेसेण तेउ -पम्म-सुक्कलेस्साओ फिट्टिऊण किण्ह-णील-काउलेस्साणं एगदमा भवदि। ... सम्माइट्ठीणं पुण- तेउ-पंप-सुक्कलेस्साओ चिरंतणाओ जाव अंतोमुहुत्तं ताव ण णस्संति। (794/5)। =- नारकी, तिर्यंच, भवनवासी, वान व्यंतर और ज्योतिषी देवों के अपर्याप्त काल में कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं होती हैं। तथा सौधर्मादि ऊपर के देवों के अपर्याप्त काल में पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या होती हैं। ऐसा जानना चाहिए।
- असंयत सम्यग्दृष्टियों के अपर्याप्त काल में छहों लेश्याएं होती हैं।
- औदारिक मिश्रकायोगी के भाव से छहों लेश्याएं होती हैं। औदारिक-मिश्रकाययोग में वर्तमान मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों के भाव से कृष्ण, नील और कापत लेश्याएं ही होती हैं।
- मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देवों के मरते समय संक्लेश उत्पन्न हो जाने से तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएं नष्ट होकर कृष्ण, नील और कापोत लेश्या में से यथा संभव कोई एक लेश्या हो जाती है। किंतु सम्यग्दृष्टि देवों के चिरंतन) पुरानी तेज, पद्म और शुक्ललेश्याएं मरण करने के अनंतर अंतर्मुहूर्त तक नष्ट नहीं होती हैं, इसलिए शुक्ल लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि देवों के औदारिककाय नहीं होता। ( धवला 2/1,1/656/12 )।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/625/468/12 तद्भवप्रथमकालांतर्मुहूर्त पूर्वभवलेश्यासद्भावात्। =वर्तमान भव के प्रथम अंतर्मुहर्त काल में पूर्वभव की लेश्या का सद्भाव होने से ...।
- अपर्याप्त या मिश्र योग में लेश्या संबंधी शंका समाधान
- मिश्रयोग सामान्य में छहों लेश्या संबंधी
धवला 2/1, 1/654/9 देवणेरइयसम्माइट्ठिणं मणूसगदीए उप्पण्णाणं ओरालियमिस्सकायजोगे वट्टमाणाणं अविणट्टं - पुव्विल्ल-भाव-लेस्साणं भावेण छ लेस्साओ लब्भंति त्ति। = देव और नारकी मनुष्यगति में उत्पन्न हुए हैं, औदारिक मिश्रकाय योग में वर्तमान हैं, और जिनकी पूर्वभव संबंधी भाव लेश्याएं अभीतक नष्ट नहीं हुई हैं, ऐसे जीवों के भाव से छहों लेश्याएँ पायी जाती हैं; इसलिए औदारिकमिश्र काययोगी जीवों के छहों लेश्याएँ कही गयी हैं।
- मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि के शुभ लेश्या संबंधी
देखें लेश्या - 5.4 में धवला 2/1,1/794/5 (मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि देवों के मरते समय संक्लेश हो जाने से पीत, पद्म व शुक्ल लेश्याएँ नष्ट होकर कृष्ण, नील, व कापोत में से यथा संभव कोई एक लेश्या हो जाती है। )
- अविरत सम्यग्दृष्टि में छहों लेश्या संबंधी
धवला /2/1,1/752/7 छट्ठीदो पुढवीदो किण्हलेस्सासम्माइट्ठिणो मणुसेसु जे आगच्छंति तेसिं वेदगसम्मत्तेण सह किण्हलेस्सा लब्भदि त्ति। = छठी पृथिवी से जो कृष्ण लेश्यावाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्यों में आते हैं, उनके अपर्याप्त काल में वेदक सम्यक्त्व के साथ कृष्ण लेश्या पायी जाती है।
देखें लेश्या - 5.4 में धवला 2/1,1/511/3 (1-6 पृथिवी तक के असंयत सम्यग्दृष्टि नारकी जीव अपने-अपने योग्य कृष्ण, नील, व कापोत लेश्या के साथ मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। उसी प्रकार असंयत सम्यग्दृष्टि देव भी अपने-अपने योग्य पीत, पद्म व शुक्ल लेश्याओं के साथ मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्यों के अपर्याप्त काल में छहों लेश्याएं बन जाती हैं।
धवला 2/1,1/657/3 सम्माइट्ठिणो तहा ण परिणमंति, अंतोमुहुत्तं पुव्विल्ललेस्साहि सह अच्छिय अण्णलेस्सं गच्छंति। किं कारणं। सम्माइट्ठीणं बुद्धिट्ठिय परमेट्ठीयं मिच्छाइट्ठीणं मरणकाले संकिलासाभावादो। णेरइय-सम्माइट्ठिणो पुण चिराण-लेस्साहि सह मणुस्सेसुप्पज्जंति। = सम्यग्दृष्टि देव अशुभ लेशायाओं रूप से परिणत नहीं होते हैं, किंतु तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होने के प्रथम समय से लगाकर अंतर्मुहुर्ततक पूर्व रहकर पीछे अन्य लेश्याओं को प्राप्त होते हैं। किंतु नारकी सम्यग्दृष्टि तो पुरानी चिरंतन लेश्याओं के साथ ही मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि के अपर्याप्त अवस्था में छहों लेश्याएं बन जाती हैं।
- मिश्रयोग सामान्य में छहों लेश्या संबंधी
- कपाट समुद्धात में लेश्या
धवला 2/1, 1/654/9 कवाडगद-सजोगिकेवलिस्स सुक्कलेस्सा चेव भवदि। = कपाट समुद्धातगत औदारिक मिश्र काययोगी सयोगिकेवली के एक शुक्ललेश्या होती है।
- चारों गतियों में लेश्या की तरतमता
मू.आ./1134-1137 काऊ काऊ तह काउणील णीला य णीलकिण्हाय। किण्हा य परमकिण्हा लेस्सा रदणादिपुढवीसु।1134। तेऊ तेऊ तह तेउ पम्म पम्मा य पम्मसुक्का य। सुक्का य परमसुक्का लेस्साभेदो मुणे यव्वो। 1135। तिण्हं दोण्हं दोण्हं छण्हं दोण्हं च तेरसण्हं च। एतो य चोद्दसण्हं लेस्सा भवणादिदेवाणं।1136। एइंदियवियलिंदिय असण्णिणो तिण्णि होंति असुहाओ। संकादीदाऊण तिण्णि सुहा छप्पि सेसाणं।1137। =नरकगति - रत्नप्रभा आदि नरक की पृथिवियों में जघन्य कापोती, मध्यम कापोती, उत्कृष्ट कापोती, तथा जघन्य नील, मध्यम नील, उत्कृष्ट नील तथा जघन्य कृष्ण लेश्या और उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या हैं।1134। देवगति - भवनवासी आदि देवों के क्रम से जघन्य तेजोलेश्या भवनत्रिक में हैं, दो स्वर्गों में मध्यम तेजोलेश्या है, दो में उत्कृष्ट तेजो लेश्या है जघन्य पद्मलेश्या है, छह में मध्यम पद्मलेश्या है, दो में उत्कृष्ट पद्मलेश्या है और जघन्य शुक्ल लेश्या है, तेरह में मध्यम शुक्ललेश्या है और चौदह विमानों में चरण शुक्ललेश्या है।1135-1136। तिर्यंच व मनुष्य - एकेंद्री, विकलेंद्री असंज्ञीपंचेंद्री के तीन अशुभ लेश्या होती है, असंख्याल वर्ष की आयु वाले भोगभूमिया कुभोगभूमिया मनुष्य तिर्यंचों के छहों लेश्या होती है।1137। ( सर्वार्थसिद्धि/3/3/207/1; 4/22/253/4 ) (पं.सं./प्रा./1/185-189); ( राजवार्तिक/3/3/4/164/6; 4/22/240/24 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/529-534 )।
- सम्यक्त्व व गुणस्थानों में लेश्या
पुराणकोष से
(1) अग्रायणीयपूर्व की पंचमवस्तु के चौथे कर्मप्रकृति प्राभृत का तेरहवां योगद्वार । हरिवंशपुराण 10. 81, 83 दे अग्रायणीयपूर्व
(2) कषाय के उदय से अनुरंजित मन, वचन, काय की प्रवृत्ति । इसके मूलत: दो भेद हैं― द्रव्यलेश्या और भावलेश्या । विशेषरूप से इसके छ: भेद हैं― पीत, पद्म, शुक्ल, कृष्ण, नील और कापोत । महापुराण 10.96-98, पांडवपुराण 22.72