लोकोत्तरवाद: Difference between revisions
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Revision as of 16:33, 19 August 2020
धवला 13/5, 5, 50/288/3 लोक एव लौकिकः।...लोक्यंत उपलभ्यंते यस्मिन् जीवादयः पदार्थाः स लोकः। स त्रिविध ऊर्ध्वाधोमध्यलोकभेदेन। स लोकः कथ्यते अनेनेति लौकिकवादः सिद्धांतः। लोइयवादो त्ति गदं लोकोत्तरः अलोकः स उच्यते अनेनेति लोकोत्तरवादः। लोकोत्तरीयवादो त्ति गदं। = लौकिक शब्द का अर्थ लोक ही है। जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं अर्थात् उपलब्ध होते हैं उसे लोक कहते हैं। वह तीन प्रकार का है−ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक। जिसके द्वारा इस लोक का कथन किया जाता है वह सिद्धांत लौकिकवाद कहलाता है। इस प्रकार लौकिकवाद का कथन किया। लोकोत्तर पद का अर्थ अलोक है, जिसके द्वारा उसका कथन किया जाता है वह श्रुत लोकोत्तरवाद कहा जाता है, इस प्रकार लोकोत्तर का कथन किया।
गोम्मटसार कर्मकांड/893 सइउट्ठिया पसिद्धी दुव्वारा मेलिदेहिंवि सुरेंहि। मज्झिमपंडवखित्ता माला पंचसु वि खित्तेव। = एक ही बार उठी हुई लोक प्रसिद्धि देवों से भी मिलकर दूर नहीं हो सकती और की तो बात क्या ? जैसे कि द्रौपदीकर केवल अर्जुन - पांडव के गले में डाली हुई माला की ‘पाँचों पांडवों को पहनायी है’ ऐसी प्रसिद्धि हो गयी। इस प्रकार लोकवादी लोक प्रवृत्ति को सर्वस्व मानते हैं।और भी देखें सत्य संवृति व व्यवहार सत्य ।