विभाव व वैभाविकी शक्ति निर्देश: Difference between revisions
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<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/65 </span><span class="PrakritText">सहजादो रूवंतरगहणं जो सो हु विव्भावो।65।</span> =<span class="HindiText"> सहज अर्थात् स्वभाव से रूपांतर का ग्रहण करना विभाव है। </span><br /> | |||
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<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/105 </span><span class="SanskritText"> तद्गुणाकारसंक्रांतिर्भावा वैभाविकश्चितः। </span>=<span class="HindiText"> आत्मा के गुणों का कर्मरूप पुद्गलों के गुणों के आकाररूप कथंचित् संक्रमण होना वैभाविक भाव कहलाता है। <br /> | |||
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<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/ </span>श्लो.<span class="SanskritGatha">अप्यस्त्यनादिसिद्धस्य सतः स्वाभाविकी क्रिया वैभाविकी क्रिया चास्ति पारिणामिकशक्तितः।61। न परं स्यात्परायत्ता सतो वैभाविकी क्रिया। यस्मात्सतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्यैर्न शक्यते।62। ननु वैभाविकभावाख्या क्रिया चेत्पारिणामिकी। स्वाभाविक्याः क्रियायाश्च कः शेषो ही विशेषभाक्।63। नैवं यतो विशेषोऽस्ति बद्धाबद्धावबोधयोः। मोहकर्मावृतो बद्धः स्यादबद्धस्तदत्ययात्।66। ननु बद्धत्वं किं नाम किमशुद्धत्वमर्थतः। वावदूकोऽथ संदिग्धो बोध्यः कश्चिदिति क्रमात्।71। अर्थाद्वैभाविकी शक्तिर्या सा चेदुपयोगिनी। तद्गुणाकाग्संक्रांतिर्बंधः स्यादन्यहेतुकः।72। तत्र बंधे न हेतुः स्याच्छक्तिर्वैभाविकी परम्। नोपयोगापि तत्किंतु परायत्तं प्रयोजकम्।73। अस्ति वैभाविकी शक्तिस्तत्तद्द्रव्योपजीविनी। सा चेद्बंधस्य हेतुः स्यादर्थामुक्तेरसंभवः।74। उपयोगः स्यादभिव्यक्तिः शक्तेः स्वार्थाधिकारिणी। सैब बंधस्य हेतुश्चेत्सर्वो बंधः समस्यताम्।75। तस्माद्धेतुसामग्रीसांनिध्ये तद्गुणाकृतिः। स्वाकारस्य परायत्त तया बद्धोपराधवान्।76।</span> = <span class="HindiText">स्वतः अनादिसिद्ध भी सत् में परिणमनशीलता के कारण स्वाभाविक व वैभाविक दो प्रकार की क्रिया होती है।61। वैभाविकी क्रिया केवल पराधीन नहीं होती, क्योंकि द्रव्य की अविद्यमान शक्ति दूसरों के द्वारा उत्पन्न नहीं करायी जा सकती।62। <strong>प्रश्न–</strong>यदि वैभाविकी क्रिया भी सत् की परिणमनशीलता से ही होती है तो उसमें फिर स्वाभाविकी क्रिया से क्या भेद है। <strong>उत्तर–</strong>ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बद्ध और अबद्ध ज्ञान में भेद (स्पष्ट) है। मोहनीय कर्म से आवृत ज्ञान बद्ध है और उससे रहित अबद्ध है।66। <strong>प्रश्न–</strong>वस्तुतः बद्धत्व व अशुद्धत्व क्या हैं।71। <strong>उत्तर–</strong>वैभाविकी शक्ति के उपयोगरूप हो जाने पर जो परद्रव्य के निमित्त से जीव व पुद्गल के गुणों का संक्रमण हो जाता है वह बंध कहलाता है।72। [परगुणाकाररूप पारिणामिकी क्रियाबंध है और उस क्रिया के होने पर जीव व पुद्गल दोनों को अपने गुणों से च्युत हो जाना अशुद्धता है–देखें [[ अशुद्धता उस बंध में केवल वैभाविकी शक्ति कारण नहीं है और न केवल उसका उपयोग कारण है ]], किंतु उन दोनों का परस्पर में एक दूसरे के आधीन होकर रहना ही प्रयोजक है।73। यदि वैभाविकी शक्ति ही बंध का कारण माना जायेगा, तो जीव की मुक्ति ही असंभव हो जायेगी, क्योंकि वह शक्ति द्रव्योपजीवी है।74। शक्ति की अपने विषय में अधिकार रखने वाली व्यक्तता उपयोग कहलाता है। वह भी अकेला बंध का कारण नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर भी सभी प्रकार का बंध उसी में समा जायेगा।75। अतः उसकी हेतुभूत समस्त सामग्री के मिलने पर अपने-अपने आकार का परद्रव्य के निमित्त से, जिसके साथ बंध होना है उसके गुणाकाररूप से संक्रमण हो जाता है। इसी से यह अपराधी जीव बँधा हुआ है।76। <br /> | |||
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<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/ </span>श्लोक-<span class="SanskritGatha">ननु वैभाविकी शक्तिस्तया स्यादन्ययोगतः। परयोगाद्विना किं न स्याद्वास्ति तथान्यथा।79। सत्यं नित्या तथा शक्तिः शक्तित्वात्शुद्धशक्तिवत्। अथान्यथा सतो नाशः शक्तीनां नाशतः क्रमात्।80। किंतु तस्यास्तथाभावः शुद्धादन्योन्यहेतुकः। तन्निमित्तद्विना शुद्धो भावः स्यात्केवलं स्वतः।81। अस्ति वैभाविकी शक्तिः स्वतस्तेषु गुणेषु च। जंतोः संसृत्यवस्थायां वैकृतास्ति स्वहेतुतः।949।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>यदि वैभाविकी शक्ति जीव पुद्गल के परस्पर योग से बंध कराने में समर्थ होती है तो क्या पर योग के बिना वह बंध कराने में समर्थ नहीं है। अर्थात् कर्मों का संबंध छूट जाने पर उसमें बंध कराने की सामर्थ्य रहती है या नहीं। <strong>उत्तर–</strong>तुम्हारा कहना ठीक है, परंतु शक्ति होने के कारण अन्य स्वभाविकी शक्तियों की भाँति वह भी नित्य रहती है, अन्यथा तो क्रम से एक-एक शक्ति का नाश होते-होते द्रव्य का ही नाश हो जायेगा।79-80। किंतु उस शक्ति का अशुद्ध परिणमन अवश्य पर निमित्त से होता है। निमित्त के हट जाने पर स्वयं उसका केवल शुद्ध ही परिणमन होता है।81। सिद्ध जीवों के गुणों में भी स्वतः सिद्ध वैभाविकी शक्ति होती है जो जीव की संसार अवस्था में स्वयं अनादिकाल से विकृत हो रही है।949। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> स्वाभाविक व वैभाविक दो शक्तियाँ मानना योग्य नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> स्वाभाविक व वैभाविक दो शक्तियाँ मानना योग्य नहीं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/ </span>श्लोक <span class="SanskritGatha">ननु चेवं चैका शक्तित्तद्भावो द्विविधो भवेत्। एकः स्वभाविको भावो भावो वैभाविकी परः।83। चेदवश्यं हि द्रे शक्ति सतः स्तः का क्षतिः सताम्। स्वाभाविकी स्वभावैः स्वैः स्वैर्विभावैर्विभावजा।84। नैवं यतोऽस्ति परिणामि शक्तिजातं सतोऽखिलम्। कथं वैभाविकी शक्तिर्न स्याद्वैपारिणामिकी।88। पारिणामात्मिका काचिच्छक्तिश्चापारिणामिकी। तद्ग्राहकपमाणस्याभावात्संदृष्टयभावतः।89। तस्माद्वैभाविकी शक्तिः स्वयं स्वाभाविको भवेत्। परिणामात्मिका भावैरभावे कृत्सन्कर्मणाम्।90। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>इससे तो ऐसा सिद्ध होता है कि शक्ति तो एक है, पर उसका ही परिणमन दो प्रकार का होता है। एक स्वाभाविक और दूसरा वैभाविक।83। तो फिर द्रव्यों में स्वाभाविकी और वैभाविकी ऐसी दो स्वतंत्र शक्तियाँ मान लेने में क्या क्षति है, क्योंकि द्रव्य के स्वभावों में स्वाभाविकी शक्ति और उसके विभावों में वैभाविकी शक्ति यथा अवसर काम करती रहेंगी।84। <strong>उत्तर–</strong>ऐसा नहीं है, क्योंकि सत् की सब शक्तियाँ जब परिणमन स्वभावी हैं, तो फिर यह वैभाविकी शक्ति भी नित्य पारिणामिकी क्यों न होगी।88। कोई शक्ति तो परिणामी हो और कोई अपरिणामी, इस प्रकार के उदाहरण का तथा उसके ग्राहक प्रमाण का अभाव है।89। इसलिए ऐसा ही मानना योग्य है कि वैभाविकी शक्ति संपूर्ण कर्मों का अभाव होने पर अपने भावों से ही स्वयं स्वाभाविक परिणमनशील हो जाती है।90। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> स्वभाव व विभाव शक्तियों का समन्वय</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> स्वभाव व विभाव शक्तियों का समन्वय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/91-93 </span><span class="SanskritGatha">ततः सिद्ध सतोऽवश्यं न्यायात् शक्तिद्वयं यतः। सदवस्थाभेदतो द्वैतं न द्वैतं युगपत्तयोः।91। यौगपद्येमहान् दौषस्तद्द्वयस्य नयादपि। कार्यकारणयोर्नाशो नाशः स्याद्बंधमोक्षयोः।92। नैकशक्तेर्द्विधाभावो यौगपद्यानुषंगतः। सति तत्र विभावस्य नित्यत्वं स्यादबाधितम्।93। </span>= <span class="HindiText">इसलिए यह सिद्ध होता है कि न्यायानुसार पदार्थ में दो शक्तियाँ तो अवश्य हैं, परंतु उन दोनों शक्तियों में सत् की अवस्था भेद से ही भेद है। द्रव्य में युगपत् दोनों शक्तियों का द्वैत नहीं है।91। क्योंकि दोनों का युगपत् सद्भाव मानने से महान् दोष उत्पन्न होता है। क्योंकि इस प्रकार कार्यकारण भाव के नाश का तथा बंध व मोक्ष के नाश का प्रसंग प्राप्त होता है।92। न ही एक शक्ति के युगपत् दो परिणाम माने जा सकते हैं, क्योंकि इस प्रकार मानने से स्वभाव व विभाव की युगपतता तथा विभाव परिणाम की नित्यता प्राप्त होती है।93। </span></li> | |||
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Revision as of 13:02, 14 October 2020
- विभाव व वैभाविकी शक्ति निर्देश
- विभाव का लक्षण
नयचक्र बृहद्/65 सहजादो रूवंतरगहणं जो सो हु विव्भावो।65। = सहज अर्थात् स्वभाव से रूपांतर का ग्रहण करना विभाव है।
आलापपद्धति/6 स्वभावादन्यथाभवनं विभावः। = स्वभाव से अन्यथा परिणमन करना विभाव है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/105 तद्गुणाकारसंक्रांतिर्भावा वैभाविकश्चितः। = आत्मा के गुणों का कर्मरूप पुद्गलों के गुणों के आकाररूप कथंचित् संक्रमण होना वैभाविक भाव कहलाता है।
- स्वभाव व विभाव क्रिया तथा उनकी हेतुभूता वैभाविकी शक्ति
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/ श्लो.अप्यस्त्यनादिसिद्धस्य सतः स्वाभाविकी क्रिया वैभाविकी क्रिया चास्ति पारिणामिकशक्तितः।61। न परं स्यात्परायत्ता सतो वैभाविकी क्रिया। यस्मात्सतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्यैर्न शक्यते।62। ननु वैभाविकभावाख्या क्रिया चेत्पारिणामिकी। स्वाभाविक्याः क्रियायाश्च कः शेषो ही विशेषभाक्।63। नैवं यतो विशेषोऽस्ति बद्धाबद्धावबोधयोः। मोहकर्मावृतो बद्धः स्यादबद्धस्तदत्ययात्।66। ननु बद्धत्वं किं नाम किमशुद्धत्वमर्थतः। वावदूकोऽथ संदिग्धो बोध्यः कश्चिदिति क्रमात्।71। अर्थाद्वैभाविकी शक्तिर्या सा चेदुपयोगिनी। तद्गुणाकाग्संक्रांतिर्बंधः स्यादन्यहेतुकः।72। तत्र बंधे न हेतुः स्याच्छक्तिर्वैभाविकी परम्। नोपयोगापि तत्किंतु परायत्तं प्रयोजकम्।73। अस्ति वैभाविकी शक्तिस्तत्तद्द्रव्योपजीविनी। सा चेद्बंधस्य हेतुः स्यादर्थामुक्तेरसंभवः।74। उपयोगः स्यादभिव्यक्तिः शक्तेः स्वार्थाधिकारिणी। सैब बंधस्य हेतुश्चेत्सर्वो बंधः समस्यताम्।75। तस्माद्धेतुसामग्रीसांनिध्ये तद्गुणाकृतिः। स्वाकारस्य परायत्त तया बद्धोपराधवान्।76। = स्वतः अनादिसिद्ध भी सत् में परिणमनशीलता के कारण स्वाभाविक व वैभाविक दो प्रकार की क्रिया होती है।61। वैभाविकी क्रिया केवल पराधीन नहीं होती, क्योंकि द्रव्य की अविद्यमान शक्ति दूसरों के द्वारा उत्पन्न नहीं करायी जा सकती।62। प्रश्न–यदि वैभाविकी क्रिया भी सत् की परिणमनशीलता से ही होती है तो उसमें फिर स्वाभाविकी क्रिया से क्या भेद है। उत्तर–ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बद्ध और अबद्ध ज्ञान में भेद (स्पष्ट) है। मोहनीय कर्म से आवृत ज्ञान बद्ध है और उससे रहित अबद्ध है।66। प्रश्न–वस्तुतः बद्धत्व व अशुद्धत्व क्या हैं।71। उत्तर–वैभाविकी शक्ति के उपयोगरूप हो जाने पर जो परद्रव्य के निमित्त से जीव व पुद्गल के गुणों का संक्रमण हो जाता है वह बंध कहलाता है।72। [परगुणाकाररूप पारिणामिकी क्रियाबंध है और उस क्रिया के होने पर जीव व पुद्गल दोनों को अपने गुणों से च्युत हो जाना अशुद्धता है–देखें अशुद्धता उस बंध में केवल वैभाविकी शक्ति कारण नहीं है और न केवल उसका उपयोग कारण है , किंतु उन दोनों का परस्पर में एक दूसरे के आधीन होकर रहना ही प्रयोजक है।73। यदि वैभाविकी शक्ति ही बंध का कारण माना जायेगा, तो जीव की मुक्ति ही असंभव हो जायेगी, क्योंकि वह शक्ति द्रव्योपजीवी है।74। शक्ति की अपने विषय में अधिकार रखने वाली व्यक्तता उपयोग कहलाता है। वह भी अकेला बंध का कारण नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर भी सभी प्रकार का बंध उसी में समा जायेगा।75। अतः उसकी हेतुभूत समस्त सामग्री के मिलने पर अपने-अपने आकार का परद्रव्य के निमित्त से, जिसके साथ बंध होना है उसके गुणाकाररूप से संक्रमण हो जाता है। इसी से यह अपराधी जीव बँधा हुआ है।76।
- वह शक्ति नित्य है पर स्वयं स्वभाव या विभाव रूप परिणत हो जाती है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/ श्लोक-ननु वैभाविकी शक्तिस्तया स्यादन्ययोगतः। परयोगाद्विना किं न स्याद्वास्ति तथान्यथा।79। सत्यं नित्या तथा शक्तिः शक्तित्वात्शुद्धशक्तिवत्। अथान्यथा सतो नाशः शक्तीनां नाशतः क्रमात्।80। किंतु तस्यास्तथाभावः शुद्धादन्योन्यहेतुकः। तन्निमित्तद्विना शुद्धो भावः स्यात्केवलं स्वतः।81। अस्ति वैभाविकी शक्तिः स्वतस्तेषु गुणेषु च। जंतोः संसृत्यवस्थायां वैकृतास्ति स्वहेतुतः।949। = प्रश्न–यदि वैभाविकी शक्ति जीव पुद्गल के परस्पर योग से बंध कराने में समर्थ होती है तो क्या पर योग के बिना वह बंध कराने में समर्थ नहीं है। अर्थात् कर्मों का संबंध छूट जाने पर उसमें बंध कराने की सामर्थ्य रहती है या नहीं। उत्तर–तुम्हारा कहना ठीक है, परंतु शक्ति होने के कारण अन्य स्वभाविकी शक्तियों की भाँति वह भी नित्य रहती है, अन्यथा तो क्रम से एक-एक शक्ति का नाश होते-होते द्रव्य का ही नाश हो जायेगा।79-80। किंतु उस शक्ति का अशुद्ध परिणमन अवश्य पर निमित्त से होता है। निमित्त के हट जाने पर स्वयं उसका केवल शुद्ध ही परिणमन होता है।81। सिद्ध जीवों के गुणों में भी स्वतः सिद्ध वैभाविकी शक्ति होती है जो जीव की संसार अवस्था में स्वयं अनादिकाल से विकृत हो रही है।949।
- स्वाभाविक व वैभाविक दो शक्तियाँ मानना योग्य नहीं
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/ श्लोक ननु चेवं चैका शक्तित्तद्भावो द्विविधो भवेत्। एकः स्वभाविको भावो भावो वैभाविकी परः।83। चेदवश्यं हि द्रे शक्ति सतः स्तः का क्षतिः सताम्। स्वाभाविकी स्वभावैः स्वैः स्वैर्विभावैर्विभावजा।84। नैवं यतोऽस्ति परिणामि शक्तिजातं सतोऽखिलम्। कथं वैभाविकी शक्तिर्न स्याद्वैपारिणामिकी।88। पारिणामात्मिका काचिच्छक्तिश्चापारिणामिकी। तद्ग्राहकपमाणस्याभावात्संदृष्टयभावतः।89। तस्माद्वैभाविकी शक्तिः स्वयं स्वाभाविको भवेत्। परिणामात्मिका भावैरभावे कृत्सन्कर्मणाम्।90। = प्रश्न–इससे तो ऐसा सिद्ध होता है कि शक्ति तो एक है, पर उसका ही परिणमन दो प्रकार का होता है। एक स्वाभाविक और दूसरा वैभाविक।83। तो फिर द्रव्यों में स्वाभाविकी और वैभाविकी ऐसी दो स्वतंत्र शक्तियाँ मान लेने में क्या क्षति है, क्योंकि द्रव्य के स्वभावों में स्वाभाविकी शक्ति और उसके विभावों में वैभाविकी शक्ति यथा अवसर काम करती रहेंगी।84। उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि सत् की सब शक्तियाँ जब परिणमन स्वभावी हैं, तो फिर यह वैभाविकी शक्ति भी नित्य पारिणामिकी क्यों न होगी।88। कोई शक्ति तो परिणामी हो और कोई अपरिणामी, इस प्रकार के उदाहरण का तथा उसके ग्राहक प्रमाण का अभाव है।89। इसलिए ऐसा ही मानना योग्य है कि वैभाविकी शक्ति संपूर्ण कर्मों का अभाव होने पर अपने भावों से ही स्वयं स्वाभाविक परिणमनशील हो जाती है।90।
- स्वभाव व विभाव शक्तियों का समन्वय
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/91-93 ततः सिद्ध सतोऽवश्यं न्यायात् शक्तिद्वयं यतः। सदवस्थाभेदतो द्वैतं न द्वैतं युगपत्तयोः।91। यौगपद्येमहान् दौषस्तद्द्वयस्य नयादपि। कार्यकारणयोर्नाशो नाशः स्याद्बंधमोक्षयोः।92। नैकशक्तेर्द्विधाभावो यौगपद्यानुषंगतः। सति तत्र विभावस्य नित्यत्वं स्यादबाधितम्।93। = इसलिए यह सिद्ध होता है कि न्यायानुसार पदार्थ में दो शक्तियाँ तो अवश्य हैं, परंतु उन दोनों शक्तियों में सत् की अवस्था भेद से ही भेद है। द्रव्य में युगपत् दोनों शक्तियों का द्वैत नहीं है।91। क्योंकि दोनों का युगपत् सद्भाव मानने से महान् दोष उत्पन्न होता है। क्योंकि इस प्रकार कार्यकारण भाव के नाश का तथा बंध व मोक्ष के नाश का प्रसंग प्राप्त होता है।92। न ही एक शक्ति के युगपत् दो परिणाम माने जा सकते हैं, क्योंकि इस प्रकार मानने से स्वभाव व विभाव की युगपतता तथा विभाव परिणाम की नित्यता प्राप्त होती है।93।
- विभाव का लक्षण