व्याख्याप्रज्ञप्ति: Difference between revisions
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<p id="1"> (1) द्वादशांग श्रुत का पांचवाँ अंग । इसमें दो लाख अट्ठाईस हजार पदों में मुनियों के द्वारा विनयपूर्वक पूछे गये प्रश्न और केवली द्वारा दिये गए उनके उत्तरों का विस्तृत वर्णन है । <span class="GRef"> महापुराण 34.139, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 10. 34-35 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1"> (1) द्वादशांग श्रुत का पांचवाँ अंग । इसमें दो लाख अट्ठाईस हजार पदों में मुनियों के द्वारा विनयपूर्वक पूछे गये प्रश्न और केवली द्वारा दिये गए उनके उत्तरों का विस्तृत वर्णन है । <span class="GRef"> महापुराण 34.139, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 10. 34-35 </span></p> | ||
<p id="2">(2) दृष्टिवाद अंग के परिकर्म भेद के पाँच भेदों में यह पांचवां भेद है । इसमें चौरासी लाख उंतीस हजार पद है जिनमें रूपी-अरूपी द्रव्य तथा भव्य-अभव्य जीवों का वर्णन किया गया है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 10.61-62, 67-68 </span></p> | <p id="2">(2) दृष्टिवाद अंग के परिकर्म भेद के पाँच भेदों में यह पांचवां भेद है । इसमें चौरासी लाख उंतीस हजार पद है जिनमें रूपी-अरूपी द्रव्य तथा भव्य-अभव्य जीवों का वर्णन किया गया है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 10.61-62, 67-68 </span></p> | ||
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Revision as of 16:58, 14 November 2020
(1) द्वादशांग श्रुत का पांचवाँ अंग । इसमें दो लाख अट्ठाईस हजार पदों में मुनियों के द्वारा विनयपूर्वक पूछे गये प्रश्न और केवली द्वारा दिये गए उनके उत्तरों का विस्तृत वर्णन है । महापुराण 34.139, हरिवंशपुराण 10. 34-35
(2) दृष्टिवाद अंग के परिकर्म भेद के पाँच भेदों में यह पांचवां भेद है । इसमें चौरासी लाख उंतीस हजार पद है जिनमें रूपी-अरूपी द्रव्य तथा भव्य-अभव्य जीवों का वर्णन किया गया है । हरिवंशपुराण 10.61-62, 67-68