बोधपाहुड़ गाथा 48: Difference between revisions
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<div class="HindiGatha"><div>प्रव्रज्या जिनवर कही सम्पन्न हों असंपन्न हों ।</div> | <div class="HindiGatha"><div>प्रव्रज्या जिनवर कही सम्पन्न हों असंपन्न हों ।</div> | ||
<div>उत्तम मध्यम घरों में आहार लें समभाव से ॥४८॥</div> | <div>उत्तम मध्यम घरों में आहार लें समभाव से ॥४८॥</div> | ||
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<div class="HindiBhavarth"><div>उत्तम गेह अर्थात् शोभा सहित राजभवनादि और मध्यमगेह अर्थात् जिसमें अपेक्षा नहीं है । शोभारहित सामान्य लोगों का घर इनमें तथा दरिद्र-धनवान् इनमें निरपेक्ष अर्थात् इच्छारहित हैं, सब ही योग्य जगह पर आहार ग्रहण किया जाता है । इसप्रकार प्रव्रज्या कही है ।</div> | |||
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<div class="HindiBhavarth"><div>मुनि दीक्षासहित होते हैं और आहार लेने को जाते हैं, तब इसप्रकार विचार नहीं करते हैं कि बड़े घर जाना अथवा छोटे घर वा दरिद्री के घर या धनवान के घर जाना इसप्रकार वांछारहित निर्दोष आहार की योग्यता हो वहाँ सब ही जगह से योग्य आहार ले लेते हैं, इसप्रकार दीक्षा है ॥४८॥</div> | <div class="HindiBhavarth"><div>मुनि दीक्षासहित होते हैं और आहार लेने को जाते हैं, तब इसप्रकार विचार नहीं करते हैं कि बड़े घर जाना अथवा छोटे घर वा दरिद्री के घर या धनवान के घर जाना इसप्रकार वांछारहित निर्दोष आहार की योग्यता हो वहाँ सब ही जगह से योग्य आहार ले लेते हैं, इसप्रकार दीक्षा है ॥४८॥</div> |
Revision as of 16:18, 2 November 2013
उत्तममज्झिमगेहे दारिद्दे ईसरे णिरावेक्खा ।
सव्वत्थ गिहिदपिंडा पव्वज्ज एरिसा भणिया ॥४८॥
उत्तममध्यगेहे दरिद्रे ईश्वरे निरपेक्षा ।
सर्वत्र गृहीतपिण्डा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥४८॥
आगे फिर कहते हैं -
हरिगीत
प्रव्रज्या जिनवर कही सम्पन्न हों असंपन्न हों ।
उत्तम मध्यम घरों में आहार लें समभाव से ॥४८॥
उत्तम गेह अर्थात् शोभा सहित राजभवनादि और मध्यमगेह अर्थात् जिसमें अपेक्षा नहीं है । शोभारहित सामान्य लोगों का घर इनमें तथा दरिद्र-धनवान् इनमें निरपेक्ष अर्थात् इच्छारहित हैं, सब ही योग्य जगह पर आहार ग्रहण किया जाता है । इसप्रकार प्रव्रज्या कही है ।
मुनि दीक्षासहित होते हैं और आहार लेने को जाते हैं, तब इसप्रकार विचार नहीं करते हैं कि बड़े घर जाना अथवा छोटे घर वा दरिद्री के घर या धनवान के घर जाना इसप्रकार वांछारहित निर्दोष आहार की योग्यता हो वहाँ सब ही जगह से योग्य आहार ले लेते हैं, इसप्रकार दीक्षा है ॥४८॥