सावद्य: Difference between revisions
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<span class="HindiText">हिंसा जनक मन वचन काय के व्यापार को सावद्य कहते हैं। पूजा, ब्रह्मचर्य आदि भी यद्यपि कथंचित् सावद्य हैं, परंतु धर्म के सहकारी व अधिक पुण्योत्पादक होने से ग्राह्य है। पर खर कर्म आदि अन्य लौकिक सावद्य व्यापार त्याज्य है।</span> | <span class="HindiText">हिंसा जनक मन वचन काय के व्यापार को सावद्य कहते हैं। पूजा, ब्रह्मचर्य आदि भी यद्यपि कथंचित् सावद्य हैं, परंतु धर्म के सहकारी व अधिक पुण्योत्पादक होने से ग्राह्य है। पर खर कर्म आदि अन्य लौकिक सावद्य व्यापार त्याज्य है।</span> | ||
<p class="HindiText"><strong>1. सावद्ययोग सामान्य का लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>1. सावद्ययोग सामान्य का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/750-751 सर्वशब्देन तत्रांतर्बहिर्वृत्तिर्यदर्थत:। प्राणच्छेदो हि सावद्यं सैव हिंसा प्रकीर्तिता।750। योगस्तत्रोपयोगो वा बुद्धिपूर्व: स उच्यते। सूक्ष्मश्चाबुद्धिपूर्वो य: स स्मृतो योग इत्यपि।751।</span> =<span class="HindiText">'सर्वसावद्ययोग' इस पद में अर्थ की अपेक्षा 'सर्व' शब्द से अंतरंग और बहिरंग प्रवृत्ति अर्थात् मन, वचन, काय तीनों की प्रवृत्ति है। तथा निश्चय से 'सावद्य' शब्द का अर्थ प्राणच्छेद है। और वही हिंसा कही जाती है।750। उस हिंसा में जो बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक स्थूल या सूक्ष्म उपयोग होता है वह भी योग शब्द का अर्थ है।751।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/750-751 </span>सर्वशब्देन तत्रांतर्बहिर्वृत्तिर्यदर्थत:। प्राणच्छेदो हि सावद्यं सैव हिंसा प्रकीर्तिता।750। योगस्तत्रोपयोगो वा बुद्धिपूर्व: स उच्यते। सूक्ष्मश्चाबुद्धिपूर्वो य: स स्मृतो योग इत्यपि।751।</span> =<span class="HindiText">'सर्वसावद्ययोग' इस पद में अर्थ की अपेक्षा 'सर्व' शब्द से अंतरंग और बहिरंग प्रवृत्ति अर्थात् मन, वचन, काय तीनों की प्रवृत्ति है। तथा निश्चय से 'सावद्य' शब्द का अर्थ प्राणच्छेद है। और वही हिंसा कही जाती है।750। उस हिंसा में जो बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक स्थूल या सूक्ष्म उपयोग होता है वह भी योग शब्द का अर्थ है।751।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>* सावद्य वचन का लक्षण</strong>-देखें [[ वचन#1.3 | वचन - 1.3]]।</p> | <p class="HindiText"><strong>* सावद्य वचन का लक्षण</strong>-देखें [[ वचन#1.3 | वचन - 1.3]]।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong>2. सावद्य कर्म के भेद</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>2. सावद्य कर्म के भेद</strong></p> | ||
<p class="HindiText">1. असि, मसि आदि रूप आजीविका की अपेक्षा</p> | <p class="HindiText">1. असि, मसि आदि रूप आजीविका की अपेक्षा</p> | ||
<p><span class="SanskritText"> राजवार्तिक/3/36/2/200/32 कर्मार्यास्त्रेधा-सावद्यकर्मार्या अल्पसावद्यकर्मार्या असावद्यकर्मार्याश्चेति। सावद्यकर्मार्या: षोढा-असि-मसि-कृषि-विद्या-शिल्प-वणिक्कर्मभेदात् ।</span> =<span class="HindiText">कर्मार्य तीन प्रकार के हैं-सावद्यकर्मार्य, अल्पसावद्यकर्मार्य और असावद्यकर्मार्य। तहाँ भी सावद्यकर्मार्य असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वणिक्कर्म के भेद से छह प्रकार के हैं।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/3/36/2/200/32 </span>कर्मार्यास्त्रेधा-सावद्यकर्मार्या अल्पसावद्यकर्मार्या असावद्यकर्मार्याश्चेति। सावद्यकर्मार्या: षोढा-असि-मसि-कृषि-विद्या-शिल्प-वणिक्कर्मभेदात् ।</span> =<span class="HindiText">कर्मार्य तीन प्रकार के हैं-सावद्यकर्मार्य, अल्पसावद्यकर्मार्य और असावद्यकर्मार्य। तहाँ भी सावद्यकर्मार्य असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वणिक्कर्म के भेद से छह प्रकार के हैं।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> महापुराण/16/179 असिर्मषि: कृषिर्विद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च। कर्माणीमानि षोढा स्यु: प्रजाजीवनहेतव:।179।</span> =<span class="HindiText">असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य, और शिल्प ये छह कार्य प्रजा की आजीविका के कारण हैं।179।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> महापुराण/16/179 </span>असिर्मषि: कृषिर्विद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च। कर्माणीमानि षोढा स्यु: प्रजाजीवनहेतव:।179।</span> =<span class="HindiText">असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य, और शिल्प ये छह कार्य प्रजा की आजीविका के कारण हैं।179।</span></p> | ||
<p class="HindiText">2. खरकर्म (क्रूर व्यापार) और उनके 15 अतिचार</p> | <p class="HindiText">2. खरकर्म (क्रूर व्यापार) और उनके 15 अतिचार</p> | ||
<p><span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/5/21-23 व्रतयेत्खरकर्मात्र मलान् पंचदश त्यजेत् । वृत्तिं वनाग्ंयनस्स्फोटभाटकैर्यंत्रपीडनम् ।21। निर्लांछनासतीपोषौ सर:-शोषं दवप्रदाम् । विषलाक्षादंतकेशरसवाणिज्यमंगिरुक् ।22। इति केचिन्न तच्चारु लोके सावद्यकर्मणाम् । अगण्यत्वात्प्रणेयं वा तदप्यतिजडान् प्रति।23। | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/5/21-23 </span>व्रतयेत्खरकर्मात्र मलान् पंचदश त्यजेत् । वृत्तिं वनाग्ंयनस्स्फोटभाटकैर्यंत्रपीडनम् ।21। निर्लांछनासतीपोषौ सर:-शोषं दवप्रदाम् । विषलाक्षादंतकेशरसवाणिज्यमंगिरुक् ।22। इति केचिन्न तच्चारु लोके सावद्यकर्मणाम् । अगण्यत्वात्प्रणेयं वा तदप्यतिजडान् प्रति।23। | ||
</span> = <span class="HindiText">श्रावकों को प्राणियों को दु:ख देने वाले खर कर्म अर्थात् क्रूर व्यापार सब छोड़ देने चाहिए, तथा उनके पंद्रह अतिचार भी छोड़ने चाहिए। वे 15 कर्म ये हैं-1. वनजीविका, 2.अग्निजीविका, 3. अनोजीविका (शकटजीविका), 4. स्फोटजीविका, 5. भाटजीविका, 6. यंत्रपीडन, 7. निर्लांछन, 8. असतीपोष, 9. सर:शोष, 10. दवप्रद, 11. विषवाणिज्य, 12. लाक्षावाणिज्य, 13. दंतवाणिज्य, 14. केशवाणिज्य और 15. रस वाणिज्य।21-23।</span></p> | </span> = <span class="HindiText">श्रावकों को प्राणियों को दु:ख देने वाले खर कर्म अर्थात् क्रूर व्यापार सब छोड़ देने चाहिए, तथा उनके पंद्रह अतिचार भी छोड़ने चाहिए। वे 15 कर्म ये हैं-1. वनजीविका, 2.अग्निजीविका, 3. अनोजीविका (शकटजीविका), 4. स्फोटजीविका, 5. भाटजीविका, 6. यंत्रपीडन, 7. निर्लांछन, 8. असतीपोष, 9. सर:शोष, 10. दवप्रद, 11. विषवाणिज्य, 12. लाक्षावाणिज्य, 13. दंतवाणिज्य, 14. केशवाणिज्य और 15. रस वाणिज्य।21-23।</span></p> | ||
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<strong>3. असि, मसि आदि कर्मों के लक्षण</strong></p> | <strong>3. असि, मसि आदि कर्मों के लक्षण</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText"> राजवार्तिक/3/36/2/201/1 असिधनुरादिप्रहरणप्रयोगकुशला असिकर्मार्या:। द्रव्यायव्ययादिलेखननिपुणा मषीकर्मार्या:। हलकुलिदंतालकादिकृष्युपकरणविधानविद: कृषीबला: कृषिकर्मार्या:। आलेख्यगणितादिद्विसप्ततिकलावदाता विद्याकर्मार्या: चतुषष्टिगुणसंपन्नाश्च। रजकनापितायस्कारकुलालसुवर्णकारादय: शिल्पकर्मार्या:। चंदनादिगंधघृतादिरसशाल्यादिधांयकार्पासाद्याछादनमुक्तादिनानाद्रव्यसंग्रहकारिणो बहुविधा वणिक्कर्मार्या:।</span> =<span class="HindiText">तलवार, धनुषादि शस्त्रविद्या में निपुण असिकर्मार्य हैं। द्रव्य अर्थात् रुपये-पैसे की आमदनी खर्च आदि के लेखन में निपुण अर्थात् मुनीमी का कार्य करने वाले मषिकर्मार्य हैं। हल, कुलि, दांती आदि से कृषि करने वाले कृषिकर्मार्य हैं। चित्र खेंचना या गणित आदि 72 कलाओं में निपुण विद्याकर्मार्य हैं। अथवा 64 गुण या ऋद्धियों से संपन्न विद्याकर्म आर्य हैं। धोबी, नाई, लुहार, कुम्हार, सुनार आदि शिल्प कर्मार्य हैं। चंदनादि सुगंध पदार्थों का, घी आदि का अथवा रस व धान्यादि का तथा कपास, वस्त्र, मोती आदि नाना प्रकार के द्रव्यों का संग्रह करने वाले अनेक प्रकार के वणिक कर्मार्य हैं। ( महापुराण/16/181-182 )</span></p> | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/3/36/2/201/1 </span>असिधनुरादिप्रहरणप्रयोगकुशला असिकर्मार्या:। द्रव्यायव्ययादिलेखननिपुणा मषीकर्मार्या:। हलकुलिदंतालकादिकृष्युपकरणविधानविद: कृषीबला: कृषिकर्मार्या:। आलेख्यगणितादिद्विसप्ततिकलावदाता विद्याकर्मार्या: चतुषष्टिगुणसंपन्नाश्च। रजकनापितायस्कारकुलालसुवर्णकारादय: शिल्पकर्मार्या:। चंदनादिगंधघृतादिरसशाल्यादिधांयकार्पासाद्याछादनमुक्तादिनानाद्रव्यसंग्रहकारिणो बहुविधा वणिक्कर्मार्या:।</span> =<span class="HindiText">तलवार, धनुषादि शस्त्रविद्या में निपुण असिकर्मार्य हैं। द्रव्य अर्थात् रुपये-पैसे की आमदनी खर्च आदि के लेखन में निपुण अर्थात् मुनीमी का कार्य करने वाले मषिकर्मार्य हैं। हल, कुलि, दांती आदि से कृषि करने वाले कृषिकर्मार्य हैं। चित्र खेंचना या गणित आदि 72 कलाओं में निपुण विद्याकर्मार्य हैं। अथवा 64 गुण या ऋद्धियों से संपन्न विद्याकर्म आर्य हैं। धोबी, नाई, लुहार, कुम्हार, सुनार आदि शिल्प कर्मार्य हैं। चंदनादि सुगंध पदार्थों का, घी आदि का अथवा रस व धान्यादि का तथा कपास, वस्त्र, मोती आदि नाना प्रकार के द्रव्यों का संग्रह करने वाले अनेक प्रकार के वणिक कर्मार्य हैं। (<span class="GRef"> महापुराण/16/181-182 </span>)</span></p> | ||
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<strong>4. सावद्य अल्पसावद्य व असावद्य कर्मार्य के लक्षण</strong></p> | <strong>4. सावद्य अल्पसावद्य व असावद्य कर्मार्य के लक्षण</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText"> राजवार्तिक/3/36/2/201/6 षडप्येते अविरतिप्रवणत्वात् सावद्यकर्मार्या:, अल्पसावद्यकर्मार्या: श्रावका: श्राविकाश्च विरत्यविरतिपरिणतत्वात्, असावद्यकर्मार्या: संयता:, कर्मक्षयार्थोद्यतविरतिपरिणतत्वात्।</span> = | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/3/36/2/201/6 </span>षडप्येते अविरतिप्रवणत्वात् सावद्यकर्मार्या:, अल्पसावद्यकर्मार्या: श्रावका: श्राविकाश्च विरत्यविरतिपरिणतत्वात्, असावद्यकर्मार्या: संयता:, कर्मक्षयार्थोद्यतविरतिपरिणतत्वात्।</span> = | ||
<span class="HindiText">ये उपरोक्त असि, मषि आदि छह सावद्यकर्म करने वाले सावद्य कर्मार्य हैं, क्योंकि वे अविरति प्रधानी हैं। विरति, अविरति दोनों रूप से परिणत होने के कारण श्रावक और श्राविकाएँ अल्प सावद्य कर्मार्य हैं। कर्म क्षय को उद्यत तथा विरतिरूप परिणत होने के कारण मुनिव्रत धारी संयत असावद्य कर्मार्य हैं।</span></p> | <span class="HindiText">ये उपरोक्त असि, मषि आदि छह सावद्यकर्म करने वाले सावद्य कर्मार्य हैं, क्योंकि वे अविरति प्रधानी हैं। विरति, अविरति दोनों रूप से परिणत होने के कारण श्रावक और श्राविकाएँ अल्प सावद्य कर्मार्य हैं। कर्म क्षय को उद्यत तथा विरतिरूप परिणत होने के कारण मुनिव्रत धारी संयत असावद्य कर्मार्य हैं।</span></p> | ||
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<strong>5. पंद्रह खरकर्मों के लक्षण</strong></p> | <strong>5. पंद्रह खरकर्मों के लक्षण</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/5/21-23 की टीका-खरकर्म खरं क्रूरं प्राणिबाधकं कर्म व्यापारं। ...तत्र वनजीविका छिन्नस्याच्छिन्नस्य वा वनस्पतिसमूहादेर्विक्रयेण तथा गोधूमादि धान्यानां ...पेषणेन दलनेन वा वर्तनम् । अग्निजीविका अंगारजीविकाख्या।...अनोजीविका शकटजीविका शकटरथतच्चक्रादीनां स्वयं परेण वा निष्पादनम् वाहनेन विक्रयणेन वृत्तिर्बहुभूतग्रामोपमर्दिका गवादीनां च बंधादिहेतु:। स्फोटजीविका उडादिकर्मणा पृथिवीकायिकाद्युपमर्दहेतुना जीवनम् । भाटकजीविका शकटादिभारवाहनमूल्येन जीवनम् । यंत्रपीडाकर्म तिलयंत्रादिपीडनं तिलादिकं च दत्वा तैलादिप्रतिग्रहणम् ।... निर्लांछनं निर्लांछनकर्म वृषभादेर्नासावेधादिका जीविका। निर्लांछनं नितरां लांछनमंगावयवच्छेद:। असतीपोष: प्राणिघ्नप्राणिपोषोभाटिग्रहणार्थं दासपोषं च। सर:शोषो धान्यवपनाद्यर्थं वितरणं तच्च फलनिरपेक्षतात्पर्याद्वनेचरैर्वह्निज्वालनं व्यसनजमुच्यते। पुण्यबुद्धिजं तु यथा...तृणदाहे सति नवतृणांकुरोद्भवाद्गावश्चरंतीति वा क्षेत्रं वा सस्यसंपत्तिवृद्धयेऽग्निज्वालनम् ।...विषवाणिज्यं जीवघ्नवस्तुविक्रय:। लाक्षावाणिज्यं लाक्षाविक्रयणम् । लाक्षाया: सूक्ष्मत्रसजंतुघातानंतकायिकप्रवालजालोपमर्दाविनाभाविना स्वयोनिवृक्षादुद्धरणेन टंगणमन:शिलासकूमालिप्रभृतीनां बाह्यजीवघातहेतुत्वेन गुग्गुलिकाया धातकीपुष्पत्वचश्च मद्यहेतुत्वेन तद्विक्रयस्य पापाश्रयत्वात् । दंतवाणिज्यं हस्त्यादिदंताद्यवयवानां पुलिंदादिषु द्रव्यदानेन तदुत्पत्तिस्थाने वाणिज्यार्थं ग्रहणम् ।...अनाकारे तु दंतादिक्रयविक्रये न दोष:। केशवाणिज्यं द्विपदादिविक्रय:।...रसवाणिज्यं नवनीतादिविक्रय:। मधुवसामद्यादौ तु जंतुघातोद्भवत्वम् ।</span> =<span class="HindiText"> प्राणियों को पीड़ा उत्पन्न करने वाले व्यापार को खरकर्म अर्थात् क्रूरकर्म कहते हैं। वे पंद्रह प्रकार के हैं-1. स्वयं टूटे हुए अथवा तोड़कर वृक्ष आदि वनस्पति का बेचना अथवा गेहूँ आदि धान्यों का पीस-कूटकर व्यापार करना वनजीविका है। 2. कोयला तैयार करना अग्निजीविका है। 3. स्वयं गाड़ी, रथ तथा उसके चक्र वगैरह बनाना अथवा दूसरों से बनवाना, गाड़ी जोतने का व्यापार स्वयं करना अथवा दूसरों से करवाना, गाड़ी आदि के बेचने का व्यापार करना अनोजीविका है। 4. पटाखे व आतिशबाजी आदि बारूद की चीजों से आजीविका करना स्फोट जीविका है। 5. गाड़ी, घोड़ा आदि से बोझा ढोकर जो भाड़े की आजीविका की जाती है, वह भाटक जीविका कहलाती है। 6. तेल निकालने के लिए कोल्हू चलाना य सरसों तिल आदि को कोल्हू में पिलवाना, तिल वगैरह देकर उनके बदले तेल लेना आदि यंत्रपीडन जीविका है। 7. बैल आदि पशुओं के नाक आदि छेदने का धंधा करना अथवा शरीर के अवयव छेदने को निर्लांछन कर्म कहते हैं। 8. हिंसक प्राणियों का पालन-पोषण करना और किसी प्रकार के भाड़े की उत्पत्ति के लिए दास और दासियों का पोषण करना असतीपोष कहलाता है। 9. अनाज बोने के लिए जलाशयों से नाली खोदकर पानी निकालना सर:शोष कहलाता है। 10. वन में घास वगैरह को जलाने के लिए आग लगाना दवप्रढ़ कहलाता है। यह दो प्रकार का है-एक व्यसनज और दूसरा पुण्य बुद्धिज। बिना प्रयोजन के भीलों द्वारा वन में आग लगवाना व्यसनज दवप्रद है, और पुण्यबुद्धि से दीपों में अग्नि प्रज्वलित करायी जाना पुण्य बुद्धिज दवप्रदा है। तथा अच्छी उपज होने की बुद्धि से घास आदि जलवाना दवप्रदा है। 11. विष का प्राणिघातक व्यापार करना विषवाणिज्य है। 12. लकड़ी के कीड़े जिन छोटे-छोटे पत्तों पर बैठते हैं, तथा उनमें जो सूक्ष्म त्रस होते हैं उनके घात के बिना लाख पैदा ही नहीं होती। अत: लाख का और इसी प्रकार टाकनखार, मनसिल, गूगल, धाय के फूल व छाल जिससे मद्य बनता है आदि पदार्थों का व्यापार लाक्षा वाणिज्य में गर्भित है। 13. भीलों आदि से हाथी दाँत आदि खरीद करना दंतवाणिज्य है। जहाँ दाँत आदि का उत्पत्ति स्थान नहीं है वहाँ इस व्यापार का निषेध नहीं है। 14. दासी दास और पशुओं के व्यापार को केश वाणिज्य कहते हैं। 15. मक्खन, मधु, चरबी, मद्य, आदि का व्यापार रस वाणिज्य है।</span></p> | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> सागार धर्मामृत/5/21-23 </span>की टीका-खरकर्म खरं क्रूरं प्राणिबाधकं कर्म व्यापारं। ...तत्र वनजीविका छिन्नस्याच्छिन्नस्य वा वनस्पतिसमूहादेर्विक्रयेण तथा गोधूमादि धान्यानां ...पेषणेन दलनेन वा वर्तनम् । अग्निजीविका अंगारजीविकाख्या।...अनोजीविका शकटजीविका शकटरथतच्चक्रादीनां स्वयं परेण वा निष्पादनम् वाहनेन विक्रयणेन वृत्तिर्बहुभूतग्रामोपमर्दिका गवादीनां च बंधादिहेतु:। स्फोटजीविका उडादिकर्मणा पृथिवीकायिकाद्युपमर्दहेतुना जीवनम् । भाटकजीविका शकटादिभारवाहनमूल्येन जीवनम् । यंत्रपीडाकर्म तिलयंत्रादिपीडनं तिलादिकं च दत्वा तैलादिप्रतिग्रहणम् ।... निर्लांछनं निर्लांछनकर्म वृषभादेर्नासावेधादिका जीविका। निर्लांछनं नितरां लांछनमंगावयवच्छेद:। असतीपोष: प्राणिघ्नप्राणिपोषोभाटिग्रहणार्थं दासपोषं च। सर:शोषो धान्यवपनाद्यर्थं वितरणं तच्च फलनिरपेक्षतात्पर्याद्वनेचरैर्वह्निज्वालनं व्यसनजमुच्यते। पुण्यबुद्धिजं तु यथा...तृणदाहे सति नवतृणांकुरोद्भवाद्गावश्चरंतीति वा क्षेत्रं वा सस्यसंपत्तिवृद्धयेऽग्निज्वालनम् ।...विषवाणिज्यं जीवघ्नवस्तुविक्रय:। लाक्षावाणिज्यं लाक्षाविक्रयणम् । लाक्षाया: सूक्ष्मत्रसजंतुघातानंतकायिकप्रवालजालोपमर्दाविनाभाविना स्वयोनिवृक्षादुद्धरणेन टंगणमन:शिलासकूमालिप्रभृतीनां बाह्यजीवघातहेतुत्वेन गुग्गुलिकाया धातकीपुष्पत्वचश्च मद्यहेतुत्वेन तद्विक्रयस्य पापाश्रयत्वात् । दंतवाणिज्यं हस्त्यादिदंताद्यवयवानां पुलिंदादिषु द्रव्यदानेन तदुत्पत्तिस्थाने वाणिज्यार्थं ग्रहणम् ।...अनाकारे तु दंतादिक्रयविक्रये न दोष:। केशवाणिज्यं द्विपदादिविक्रय:।...रसवाणिज्यं नवनीतादिविक्रय:। मधुवसामद्यादौ तु जंतुघातोद्भवत्वम् ।</span> =<span class="HindiText"> प्राणियों को पीड़ा उत्पन्न करने वाले व्यापार को खरकर्म अर्थात् क्रूरकर्म कहते हैं। वे पंद्रह प्रकार के हैं-1. स्वयं टूटे हुए अथवा तोड़कर वृक्ष आदि वनस्पति का बेचना अथवा गेहूँ आदि धान्यों का पीस-कूटकर व्यापार करना वनजीविका है। 2. कोयला तैयार करना अग्निजीविका है। 3. स्वयं गाड़ी, रथ तथा उसके चक्र वगैरह बनाना अथवा दूसरों से बनवाना, गाड़ी जोतने का व्यापार स्वयं करना अथवा दूसरों से करवाना, गाड़ी आदि के बेचने का व्यापार करना अनोजीविका है। 4. पटाखे व आतिशबाजी आदि बारूद की चीजों से आजीविका करना स्फोट जीविका है। 5. गाड़ी, घोड़ा आदि से बोझा ढोकर जो भाड़े की आजीविका की जाती है, वह भाटक जीविका कहलाती है। 6. तेल निकालने के लिए कोल्हू चलाना य सरसों तिल आदि को कोल्हू में पिलवाना, तिल वगैरह देकर उनके बदले तेल लेना आदि यंत्रपीडन जीविका है। 7. बैल आदि पशुओं के नाक आदि छेदने का धंधा करना अथवा शरीर के अवयव छेदने को निर्लांछन कर्म कहते हैं। 8. हिंसक प्राणियों का पालन-पोषण करना और किसी प्रकार के भाड़े की उत्पत्ति के लिए दास और दासियों का पोषण करना असतीपोष कहलाता है। 9. अनाज बोने के लिए जलाशयों से नाली खोदकर पानी निकालना सर:शोष कहलाता है। 10. वन में घास वगैरह को जलाने के लिए आग लगाना दवप्रढ़ कहलाता है। यह दो प्रकार का है-एक व्यसनज और दूसरा पुण्य बुद्धिज। बिना प्रयोजन के भीलों द्वारा वन में आग लगवाना व्यसनज दवप्रद है, और पुण्यबुद्धि से दीपों में अग्नि प्रज्वलित करायी जाना पुण्य बुद्धिज दवप्रदा है। तथा अच्छी उपज होने की बुद्धि से घास आदि जलवाना दवप्रदा है। 11. विष का प्राणिघातक व्यापार करना विषवाणिज्य है। 12. लकड़ी के कीड़े जिन छोटे-छोटे पत्तों पर बैठते हैं, तथा उनमें जो सूक्ष्म त्रस होते हैं उनके घात के बिना लाख पैदा ही नहीं होती। अत: लाख का और इसी प्रकार टाकनखार, मनसिल, गूगल, धाय के फूल व छाल जिससे मद्य बनता है आदि पदार्थों का व्यापार लाक्षा वाणिज्य में गर्भित है। 13. भीलों आदि से हाथी दाँत आदि खरीद करना दंतवाणिज्य है। जहाँ दाँत आदि का उत्पत्ति स्थान नहीं है वहाँ इस व्यापार का निषेध नहीं है। 14. दासी दास और पशुओं के व्यापार को केश वाणिज्य कहते हैं। 15. मक्खन, मधु, चरबी, मद्य, आदि का व्यापार रस वाणिज्य है।</span></p> | ||
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<strong>6. कृषि को लोक में सर्वोत्तम उद्यम माना जाता है</strong></p> | <strong>6. कृषि को लोक में सर्वोत्तम उद्यम माना जाता है</strong></p> | ||
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<strong>7. दान, पूजा, शील, उपवास भी कथंचित् सावद्य है</strong></p> | <strong>7. दान, पूजा, शील, उपवास भी कथंचित् सावद्य है</strong></p> | ||
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<span class="PrakritText"> कषायपाहुड़ 1/1,1/82/100/2 दाणं पूजा सीलमुववासो चेदि चउव्विहो सावयधम्मो। एसो चउव्विहो वि छज्जीवविराहओ; पयणपायणग्गिसूधुक्कण-जालण-सूदि-सूदाणादिवावारेहि जीवविराहणाए विणा दाणाणुववत्तीदो। तरुवरछिंदण-छिंदावणिट्टपादण-पादावणतद्दहण-दहावणादिवावारेण छज्जीवविराहणहेउणा विणा जिणभवणकरणकरावणण्णहाणुववत्तीदो। ण्हवणोवलेण-संमज्जण-छहावण-पु (फु)ल्लारोवण-धूवदहणादिवावारेहि जीवबहाविणाभावीहिविणा पूजकरणाणुववत्तीदो। कथं सीलरक्खणं सावज्जं। ण; सदारपीडाए विणा सीलपरिवालणाणुववत्तीदो। कधमुववासो सावज्जो। ण; सपोट्टत्थपाणिपीडाए विणा उववासाणुववत्तीदो।</span> =<span class="HindiText">दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकों के धर्म हैं। ये चारों ही प्रकार का श्रावक धर्म छह काय के जीवों की विराधना का कारण है। क्योंकि भोजन का पकाना, दूसरे से पकवाना, अग्नि का सुलगाना, अग्नि का जलाना, अग्नि का खूतना और खुतवाना आदि व्यापारों से होने वाली जीवविराधना के बिना दान नहीं बन सकता है। उसी प्रकार वृक्ष का काटना और कटवाना, ईंट का गिराना और गिरवाना, तथा उनको पकाना और पकवाना आदि छह काय के जीवों की विराधना के कारणभूत व्यापार के बिना जिनभवन का निर्माण करना अथवा करवाना नहीं बन सकता है। तथा अभिषेक करना, अवलेप करना, सम्मार्जन करना, चंदन लगाना, फूल चढ़ाना और धूप का जलाना आदि जीववध के अविनाभावी व्यापारों के बिना पूजा करना नहीं बन सकता है। अपनी स्त्री को पीड़ा दिये बिना शील का परिपालन नहीं हो सकता है, इसलिए शील की रक्षा भी सावद्य है। अपने पेट में स्थित प्राणियों को पीड़ा दिये बिना उपवास बन नहीं सकता है, इसलिए उपवास भी सावद्य है।</span></p> | <span class="PrakritText"><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,1/82/100/2 </span>दाणं पूजा सीलमुववासो चेदि चउव्विहो सावयधम्मो। एसो चउव्विहो वि छज्जीवविराहओ; पयणपायणग्गिसूधुक्कण-जालण-सूदि-सूदाणादिवावारेहि जीवविराहणाए विणा दाणाणुववत्तीदो। तरुवरछिंदण-छिंदावणिट्टपादण-पादावणतद्दहण-दहावणादिवावारेण छज्जीवविराहणहेउणा विणा जिणभवणकरणकरावणण्णहाणुववत्तीदो। ण्हवणोवलेण-संमज्जण-छहावण-पु (फु)ल्लारोवण-धूवदहणादिवावारेहि जीवबहाविणाभावीहिविणा पूजकरणाणुववत्तीदो। कथं सीलरक्खणं सावज्जं। ण; सदारपीडाए विणा सीलपरिवालणाणुववत्तीदो। कधमुववासो सावज्जो। ण; सपोट्टत्थपाणिपीडाए विणा उववासाणुववत्तीदो।</span> =<span class="HindiText">दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकों के धर्म हैं। ये चारों ही प्रकार का श्रावक धर्म छह काय के जीवों की विराधना का कारण है। क्योंकि भोजन का पकाना, दूसरे से पकवाना, अग्नि का सुलगाना, अग्नि का जलाना, अग्नि का खूतना और खुतवाना आदि व्यापारों से होने वाली जीवविराधना के बिना दान नहीं बन सकता है। उसी प्रकार वृक्ष का काटना और कटवाना, ईंट का गिराना और गिरवाना, तथा उनको पकाना और पकवाना आदि छह काय के जीवों की विराधना के कारणभूत व्यापार के बिना जिनभवन का निर्माण करना अथवा करवाना नहीं बन सकता है। तथा अभिषेक करना, अवलेप करना, सम्मार्जन करना, चंदन लगाना, फूल चढ़ाना और धूप का जलाना आदि जीववध के अविनाभावी व्यापारों के बिना पूजा करना नहीं बन सकता है। अपनी स्त्री को पीड़ा दिये बिना शील का परिपालन नहीं हो सकता है, इसलिए शील की रक्षा भी सावद्य है। अपने पेट में स्थित प्राणियों को पीड़ा दिये बिना उपवास बन नहीं सकता है, इसलिए उपवास भी सावद्य है।</span></p> | ||
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<strong>* सावद्य होते हुए भी पूजा करना इष्ट है</strong>-देखें [[ धर्म#5.2 | धर्म - 5.2]]।</p> | <strong>* सावद्य होते हुए भी पूजा करना इष्ट है</strong>-देखें [[ धर्म#5.2 | धर्म - 5.2]]।</p> | ||
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<span class="PrakritText">मू.आ./798-801 वसुधम्मिवि विहरंता पीडं ण करेंति कस्सइ कयाई। जीवेसु दयाववण्णा माया जह पुत्तभंडेसु।798। तणरुक्खहरिच्छेदणतयपत्तपवालकंदमूलाइं। फलपुप्फबीयघादं ण करिंति मुणी ण कारिंति।801।</span> =<span class="HindiText">सब जीवों में दया को प्राप्त सब साधु पृथिवी पर विहार करते हुए भी किसी जीव को कभी भी पीड़ा नहीं करते हैं। जैसे माता पुत्र के ऊपर हित ही करती है उसी तरह सबका हित ही चाहते हैं।798। मुनिराज तृण वृक्ष हरित इनका छेदन, वल्कल पत्ता कोंपल कंदमूल इनका छेदन तथा फल, पुष्प, बीज इनका घात न तो आप करते हैं और न दूसरे से कराते हैं।801।</span></p> | <span class="PrakritText">मू.आ./798-801 वसुधम्मिवि विहरंता पीडं ण करेंति कस्सइ कयाई। जीवेसु दयाववण्णा माया जह पुत्तभंडेसु।798। तणरुक्खहरिच्छेदणतयपत्तपवालकंदमूलाइं। फलपुप्फबीयघादं ण करिंति मुणी ण कारिंति।801।</span> =<span class="HindiText">सब जीवों में दया को प्राप्त सब साधु पृथिवी पर विहार करते हुए भी किसी जीव को कभी भी पीड़ा नहीं करते हैं। जैसे माता पुत्र के ऊपर हित ही करती है उसी तरह सबका हित ही चाहते हैं।798। मुनिराज तृण वृक्ष हरित इनका छेदन, वल्कल पत्ता कोंपल कंदमूल इनका छेदन तथा फल, पुष्प, बीज इनका घात न तो आप करते हैं और न दूसरे से कराते हैं।801।</span></p> | ||
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<span class="PrakritText"> प्रवचनसार/250 जदि कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्थमुज्जदो समणो। ण हवदि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से।250।</span></p> | <span class="PrakritText"><span class="GRef"> प्रवचनसार/250 </span>जदि कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्थमुज्जदो समणो। ण हवदि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से।250।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/250/344/13 इदमत्र तात्पर्यम्-योऽसौ स्वपोषणार्थं शिष्यादिमोहेन वा सावद्यं नेच्छति तस्येदं व्याख्यानं शोभते यदि पुनरन्यत्र सावद्यमिच्छति वैयावृत्त्यादिस्वकीयावस्थायोग्ये धर्मकार्ये नेच्छति तदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्ति।</span> =<span class="HindiText">यदि (श्रमण) वैयावृत्ति के लिए उद्यमी वर्तता हुआ छह काय को पीड़ित करता है तो वह श्रमण नहीं है, गृहस्थ है; क्योंकि, वह श्रावकों का धर्म है।250। इसका यह तात्पर्य है कि-जो अपने पोषण के लिए या शिष्यादि के मोह से सावद्य की इच्छा नहीं करता उसको तो यह उपरोक्त व्याख्यान शोभा देता है, परंतु यदि अन्य कार्यों में तो सावद्य की इच्छा करे और अपनी-अपनी भूमिकानुसार वैयावृत्ति आदि धर्मकार्यों की इच्छा न करे तो उसके सम्यक्त्व ही नहीं है।</span></p> | <span class="SanskritText"><span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/250/344/13 </span>इदमत्र तात्पर्यम्-योऽसौ स्वपोषणार्थं शिष्यादिमोहेन वा सावद्यं नेच्छति तस्येदं व्याख्यानं शोभते यदि पुनरन्यत्र सावद्यमिच्छति वैयावृत्त्यादिस्वकीयावस्थायोग्ये धर्मकार्ये नेच्छति तदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्ति।</span> =<span class="HindiText">यदि (श्रमण) वैयावृत्ति के लिए उद्यमी वर्तता हुआ छह काय को पीड़ित करता है तो वह श्रमण नहीं है, गृहस्थ है; क्योंकि, वह श्रावकों का धर्म है।250। इसका यह तात्पर्य है कि-जो अपने पोषण के लिए या शिष्यादि के मोह से सावद्य की इच्छा नहीं करता उसको तो यह उपरोक्त व्याख्यान शोभा देता है, परंतु यदि अन्य कार्यों में तो सावद्य की इच्छा करे और अपनी-अपनी भूमिकानुसार वैयावृत्ति आदि धर्मकार्यों की इच्छा न करे तो उसके सम्यक्त्व ही नहीं है।</span></p> | ||
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<strong>* श्रावक को सावद्य योग का निषेध</strong>-देखें [[ सावद्य#2.2 | सावद्य - 2.2]]।</p> | <strong>* श्रावक को सावद्य योग का निषेध</strong>-देखें [[ सावद्य#2.2 | सावद्य - 2.2]]।</p> |
Revision as of 13:02, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से == हिंसा जनक मन वचन काय के व्यापार को सावद्य कहते हैं। पूजा, ब्रह्मचर्य आदि भी यद्यपि कथंचित् सावद्य हैं, परंतु धर्म के सहकारी व अधिक पुण्योत्पादक होने से ग्राह्य है। पर खर कर्म आदि अन्य लौकिक सावद्य व्यापार त्याज्य है।
1. सावद्ययोग सामान्य का लक्षण
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/750-751 सर्वशब्देन तत्रांतर्बहिर्वृत्तिर्यदर्थत:। प्राणच्छेदो हि सावद्यं सैव हिंसा प्रकीर्तिता।750। योगस्तत्रोपयोगो वा बुद्धिपूर्व: स उच्यते। सूक्ष्मश्चाबुद्धिपूर्वो य: स स्मृतो योग इत्यपि।751। ='सर्वसावद्ययोग' इस पद में अर्थ की अपेक्षा 'सर्व' शब्द से अंतरंग और बहिरंग प्रवृत्ति अर्थात् मन, वचन, काय तीनों की प्रवृत्ति है। तथा निश्चय से 'सावद्य' शब्द का अर्थ प्राणच्छेद है। और वही हिंसा कही जाती है।750। उस हिंसा में जो बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक स्थूल या सूक्ष्म उपयोग होता है वह भी योग शब्द का अर्थ है।751।
* सावद्य वचन का लक्षण-देखें वचन - 1.3।
2. सावद्य कर्म के भेद
1. असि, मसि आदि रूप आजीविका की अपेक्षा
राजवार्तिक/3/36/2/200/32 कर्मार्यास्त्रेधा-सावद्यकर्मार्या अल्पसावद्यकर्मार्या असावद्यकर्मार्याश्चेति। सावद्यकर्मार्या: षोढा-असि-मसि-कृषि-विद्या-शिल्प-वणिक्कर्मभेदात् । =कर्मार्य तीन प्रकार के हैं-सावद्यकर्मार्य, अल्पसावद्यकर्मार्य और असावद्यकर्मार्य। तहाँ भी सावद्यकर्मार्य असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वणिक्कर्म के भेद से छह प्रकार के हैं।
महापुराण/16/179 असिर्मषि: कृषिर्विद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च। कर्माणीमानि षोढा स्यु: प्रजाजीवनहेतव:।179। =असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य, और शिल्प ये छह कार्य प्रजा की आजीविका के कारण हैं।179।
2. खरकर्म (क्रूर व्यापार) और उनके 15 अतिचार
सागार धर्मामृत/5/21-23 व्रतयेत्खरकर्मात्र मलान् पंचदश त्यजेत् । वृत्तिं वनाग्ंयनस्स्फोटभाटकैर्यंत्रपीडनम् ।21। निर्लांछनासतीपोषौ सर:-शोषं दवप्रदाम् । विषलाक्षादंतकेशरसवाणिज्यमंगिरुक् ।22। इति केचिन्न तच्चारु लोके सावद्यकर्मणाम् । अगण्यत्वात्प्रणेयं वा तदप्यतिजडान् प्रति।23। = श्रावकों को प्राणियों को दु:ख देने वाले खर कर्म अर्थात् क्रूर व्यापार सब छोड़ देने चाहिए, तथा उनके पंद्रह अतिचार भी छोड़ने चाहिए। वे 15 कर्म ये हैं-1. वनजीविका, 2.अग्निजीविका, 3. अनोजीविका (शकटजीविका), 4. स्फोटजीविका, 5. भाटजीविका, 6. यंत्रपीडन, 7. निर्लांछन, 8. असतीपोष, 9. सर:शोष, 10. दवप्रद, 11. विषवाणिज्य, 12. लाक्षावाणिज्य, 13. दंतवाणिज्य, 14. केशवाणिज्य और 15. रस वाणिज्य।21-23।
3. असि, मसि आदि कर्मों के लक्षण
राजवार्तिक/3/36/2/201/1 असिधनुरादिप्रहरणप्रयोगकुशला असिकर्मार्या:। द्रव्यायव्ययादिलेखननिपुणा मषीकर्मार्या:। हलकुलिदंतालकादिकृष्युपकरणविधानविद: कृषीबला: कृषिकर्मार्या:। आलेख्यगणितादिद्विसप्ततिकलावदाता विद्याकर्मार्या: चतुषष्टिगुणसंपन्नाश्च। रजकनापितायस्कारकुलालसुवर्णकारादय: शिल्पकर्मार्या:। चंदनादिगंधघृतादिरसशाल्यादिधांयकार्पासाद्याछादनमुक्तादिनानाद्रव्यसंग्रहकारिणो बहुविधा वणिक्कर्मार्या:। =तलवार, धनुषादि शस्त्रविद्या में निपुण असिकर्मार्य हैं। द्रव्य अर्थात् रुपये-पैसे की आमदनी खर्च आदि के लेखन में निपुण अर्थात् मुनीमी का कार्य करने वाले मषिकर्मार्य हैं। हल, कुलि, दांती आदि से कृषि करने वाले कृषिकर्मार्य हैं। चित्र खेंचना या गणित आदि 72 कलाओं में निपुण विद्याकर्मार्य हैं। अथवा 64 गुण या ऋद्धियों से संपन्न विद्याकर्म आर्य हैं। धोबी, नाई, लुहार, कुम्हार, सुनार आदि शिल्प कर्मार्य हैं। चंदनादि सुगंध पदार्थों का, घी आदि का अथवा रस व धान्यादि का तथा कपास, वस्त्र, मोती आदि नाना प्रकार के द्रव्यों का संग्रह करने वाले अनेक प्रकार के वणिक कर्मार्य हैं। ( महापुराण/16/181-182 )
4. सावद्य अल्पसावद्य व असावद्य कर्मार्य के लक्षण
राजवार्तिक/3/36/2/201/6 षडप्येते अविरतिप्रवणत्वात् सावद्यकर्मार्या:, अल्पसावद्यकर्मार्या: श्रावका: श्राविकाश्च विरत्यविरतिपरिणतत्वात्, असावद्यकर्मार्या: संयता:, कर्मक्षयार्थोद्यतविरतिपरिणतत्वात्। = ये उपरोक्त असि, मषि आदि छह सावद्यकर्म करने वाले सावद्य कर्मार्य हैं, क्योंकि वे अविरति प्रधानी हैं। विरति, अविरति दोनों रूप से परिणत होने के कारण श्रावक और श्राविकाएँ अल्प सावद्य कर्मार्य हैं। कर्म क्षय को उद्यत तथा विरतिरूप परिणत होने के कारण मुनिव्रत धारी संयत असावद्य कर्मार्य हैं।
5. पंद्रह खरकर्मों के लक्षण
सागार धर्मामृत/5/21-23 की टीका-खरकर्म खरं क्रूरं प्राणिबाधकं कर्म व्यापारं। ...तत्र वनजीविका छिन्नस्याच्छिन्नस्य वा वनस्पतिसमूहादेर्विक्रयेण तथा गोधूमादि धान्यानां ...पेषणेन दलनेन वा वर्तनम् । अग्निजीविका अंगारजीविकाख्या।...अनोजीविका शकटजीविका शकटरथतच्चक्रादीनां स्वयं परेण वा निष्पादनम् वाहनेन विक्रयणेन वृत्तिर्बहुभूतग्रामोपमर्दिका गवादीनां च बंधादिहेतु:। स्फोटजीविका उडादिकर्मणा पृथिवीकायिकाद्युपमर्दहेतुना जीवनम् । भाटकजीविका शकटादिभारवाहनमूल्येन जीवनम् । यंत्रपीडाकर्म तिलयंत्रादिपीडनं तिलादिकं च दत्वा तैलादिप्रतिग्रहणम् ।... निर्लांछनं निर्लांछनकर्म वृषभादेर्नासावेधादिका जीविका। निर्लांछनं नितरां लांछनमंगावयवच्छेद:। असतीपोष: प्राणिघ्नप्राणिपोषोभाटिग्रहणार्थं दासपोषं च। सर:शोषो धान्यवपनाद्यर्थं वितरणं तच्च फलनिरपेक्षतात्पर्याद्वनेचरैर्वह्निज्वालनं व्यसनजमुच्यते। पुण्यबुद्धिजं तु यथा...तृणदाहे सति नवतृणांकुरोद्भवाद्गावश्चरंतीति वा क्षेत्रं वा सस्यसंपत्तिवृद्धयेऽग्निज्वालनम् ।...विषवाणिज्यं जीवघ्नवस्तुविक्रय:। लाक्षावाणिज्यं लाक्षाविक्रयणम् । लाक्षाया: सूक्ष्मत्रसजंतुघातानंतकायिकप्रवालजालोपमर्दाविनाभाविना स्वयोनिवृक्षादुद्धरणेन टंगणमन:शिलासकूमालिप्रभृतीनां बाह्यजीवघातहेतुत्वेन गुग्गुलिकाया धातकीपुष्पत्वचश्च मद्यहेतुत्वेन तद्विक्रयस्य पापाश्रयत्वात् । दंतवाणिज्यं हस्त्यादिदंताद्यवयवानां पुलिंदादिषु द्रव्यदानेन तदुत्पत्तिस्थाने वाणिज्यार्थं ग्रहणम् ।...अनाकारे तु दंतादिक्रयविक्रये न दोष:। केशवाणिज्यं द्विपदादिविक्रय:।...रसवाणिज्यं नवनीतादिविक्रय:। मधुवसामद्यादौ तु जंतुघातोद्भवत्वम् । = प्राणियों को पीड़ा उत्पन्न करने वाले व्यापार को खरकर्म अर्थात् क्रूरकर्म कहते हैं। वे पंद्रह प्रकार के हैं-1. स्वयं टूटे हुए अथवा तोड़कर वृक्ष आदि वनस्पति का बेचना अथवा गेहूँ आदि धान्यों का पीस-कूटकर व्यापार करना वनजीविका है। 2. कोयला तैयार करना अग्निजीविका है। 3. स्वयं गाड़ी, रथ तथा उसके चक्र वगैरह बनाना अथवा दूसरों से बनवाना, गाड़ी जोतने का व्यापार स्वयं करना अथवा दूसरों से करवाना, गाड़ी आदि के बेचने का व्यापार करना अनोजीविका है। 4. पटाखे व आतिशबाजी आदि बारूद की चीजों से आजीविका करना स्फोट जीविका है। 5. गाड़ी, घोड़ा आदि से बोझा ढोकर जो भाड़े की आजीविका की जाती है, वह भाटक जीविका कहलाती है। 6. तेल निकालने के लिए कोल्हू चलाना य सरसों तिल आदि को कोल्हू में पिलवाना, तिल वगैरह देकर उनके बदले तेल लेना आदि यंत्रपीडन जीविका है। 7. बैल आदि पशुओं के नाक आदि छेदने का धंधा करना अथवा शरीर के अवयव छेदने को निर्लांछन कर्म कहते हैं। 8. हिंसक प्राणियों का पालन-पोषण करना और किसी प्रकार के भाड़े की उत्पत्ति के लिए दास और दासियों का पोषण करना असतीपोष कहलाता है। 9. अनाज बोने के लिए जलाशयों से नाली खोदकर पानी निकालना सर:शोष कहलाता है। 10. वन में घास वगैरह को जलाने के लिए आग लगाना दवप्रढ़ कहलाता है। यह दो प्रकार का है-एक व्यसनज और दूसरा पुण्य बुद्धिज। बिना प्रयोजन के भीलों द्वारा वन में आग लगवाना व्यसनज दवप्रद है, और पुण्यबुद्धि से दीपों में अग्नि प्रज्वलित करायी जाना पुण्य बुद्धिज दवप्रदा है। तथा अच्छी उपज होने की बुद्धि से घास आदि जलवाना दवप्रदा है। 11. विष का प्राणिघातक व्यापार करना विषवाणिज्य है। 12. लकड़ी के कीड़े जिन छोटे-छोटे पत्तों पर बैठते हैं, तथा उनमें जो सूक्ष्म त्रस होते हैं उनके घात के बिना लाख पैदा ही नहीं होती। अत: लाख का और इसी प्रकार टाकनखार, मनसिल, गूगल, धाय के फूल व छाल जिससे मद्य बनता है आदि पदार्थों का व्यापार लाक्षा वाणिज्य में गर्भित है। 13. भीलों आदि से हाथी दाँत आदि खरीद करना दंतवाणिज्य है। जहाँ दाँत आदि का उत्पत्ति स्थान नहीं है वहाँ इस व्यापार का निषेध नहीं है। 14. दासी दास और पशुओं के व्यापार को केश वाणिज्य कहते हैं। 15. मक्खन, मधु, चरबी, मद्य, आदि का व्यापार रस वाणिज्य है।
6. कृषि को लोक में सर्वोत्तम उद्यम माना जाता है
कुरल काव्य/104/1 नरो गच्छतु कुत्रापि सर्वत्रान्नमपेक्षते। तत्सिद्धिश्च कृषेस्तस्मात् सुभिक्षेऽपि हिताय सा।1। =आदमी जहाँ चाहे घूमें, पर अंत में अपने भोजन के लिए उसे हल का सहारा लेना ही पड़ेगा। इसलिए हर तरह की सस्ती होने पर भी कृषि सर्वोत्तम उद्यम है।1।
7. दान, पूजा, शील, उपवास भी कथंचित् सावद्य है
कषायपाहुड़ 1/1,1/82/100/2 दाणं पूजा सीलमुववासो चेदि चउव्विहो सावयधम्मो। एसो चउव्विहो वि छज्जीवविराहओ; पयणपायणग्गिसूधुक्कण-जालण-सूदि-सूदाणादिवावारेहि जीवविराहणाए विणा दाणाणुववत्तीदो। तरुवरछिंदण-छिंदावणिट्टपादण-पादावणतद्दहण-दहावणादिवावारेण छज्जीवविराहणहेउणा विणा जिणभवणकरणकरावणण्णहाणुववत्तीदो। ण्हवणोवलेण-संमज्जण-छहावण-पु (फु)ल्लारोवण-धूवदहणादिवावारेहि जीवबहाविणाभावीहिविणा पूजकरणाणुववत्तीदो। कथं सीलरक्खणं सावज्जं। ण; सदारपीडाए विणा सीलपरिवालणाणुववत्तीदो। कधमुववासो सावज्जो। ण; सपोट्टत्थपाणिपीडाए विणा उववासाणुववत्तीदो। =दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकों के धर्म हैं। ये चारों ही प्रकार का श्रावक धर्म छह काय के जीवों की विराधना का कारण है। क्योंकि भोजन का पकाना, दूसरे से पकवाना, अग्नि का सुलगाना, अग्नि का जलाना, अग्नि का खूतना और खुतवाना आदि व्यापारों से होने वाली जीवविराधना के बिना दान नहीं बन सकता है। उसी प्रकार वृक्ष का काटना और कटवाना, ईंट का गिराना और गिरवाना, तथा उनको पकाना और पकवाना आदि छह काय के जीवों की विराधना के कारणभूत व्यापार के बिना जिनभवन का निर्माण करना अथवा करवाना नहीं बन सकता है। तथा अभिषेक करना, अवलेप करना, सम्मार्जन करना, चंदन लगाना, फूल चढ़ाना और धूप का जलाना आदि जीववध के अविनाभावी व्यापारों के बिना पूजा करना नहीं बन सकता है। अपनी स्त्री को पीड़ा दिये बिना शील का परिपालन नहीं हो सकता है, इसलिए शील की रक्षा भी सावद्य है। अपने पेट में स्थित प्राणियों को पीड़ा दिये बिना उपवास बन नहीं सकता है, इसलिए उपवास भी सावद्य है।
* सावद्य होते हुए भी पूजा करना इष्ट है-देखें धर्म - 5.2।
8. साधुओं को सावद्य योग का निषेध व समन्वय
मू.आ./798-801 वसुधम्मिवि विहरंता पीडं ण करेंति कस्सइ कयाई। जीवेसु दयाववण्णा माया जह पुत्तभंडेसु।798। तणरुक्खहरिच्छेदणतयपत्तपवालकंदमूलाइं। फलपुप्फबीयघादं ण करिंति मुणी ण कारिंति।801। =सब जीवों में दया को प्राप्त सब साधु पृथिवी पर विहार करते हुए भी किसी जीव को कभी भी पीड़ा नहीं करते हैं। जैसे माता पुत्र के ऊपर हित ही करती है उसी तरह सबका हित ही चाहते हैं।798। मुनिराज तृण वृक्ष हरित इनका छेदन, वल्कल पत्ता कोंपल कंदमूल इनका छेदन तथा फल, पुष्प, बीज इनका घात न तो आप करते हैं और न दूसरे से कराते हैं।801।
प्रवचनसार/250 जदि कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्थमुज्जदो समणो। ण हवदि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से।250।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/250/344/13 इदमत्र तात्पर्यम्-योऽसौ स्वपोषणार्थं शिष्यादिमोहेन वा सावद्यं नेच्छति तस्येदं व्याख्यानं शोभते यदि पुनरन्यत्र सावद्यमिच्छति वैयावृत्त्यादिस्वकीयावस्थायोग्ये धर्मकार्ये नेच्छति तदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्ति। =यदि (श्रमण) वैयावृत्ति के लिए उद्यमी वर्तता हुआ छह काय को पीड़ित करता है तो वह श्रमण नहीं है, गृहस्थ है; क्योंकि, वह श्रावकों का धर्म है।250। इसका यह तात्पर्य है कि-जो अपने पोषण के लिए या शिष्यादि के मोह से सावद्य की इच्छा नहीं करता उसको तो यह उपरोक्त व्याख्यान शोभा देता है, परंतु यदि अन्य कार्यों में तो सावद्य की इच्छा करे और अपनी-अपनी भूमिकानुसार वैयावृत्ति आदि धर्मकार्यों की इच्छा न करे तो उसके सम्यक्त्व ही नहीं है।
* श्रावक को सावद्य योग का निषेध-देखें सावद्य - 2.2।
पुराणकोष से
हिंसा आदि पापों का जनक मन, वचन और काय का व्यापार । महापुराण 17.202