सांख्य: Difference between revisions
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Revision as of 16:38, 19 August 2020
1. सामान्य परिचय
स.म./परि-घ./पृ.421 आत्मा के तत्त्वज्ञान को अथवा सम्यग्दर्शन प्रतिपादक शास्त्र को सांख्य कहते हैं। इनको ही प्रधानता देने के कारण इस मत का नाम सांख्य है। अथवा 25 तत्त्वों का वर्णन करने के कारण सांख्य कहा जाता है।
2. प्रवर्तक साहित्य व समय
स.म./परि-घ.पृ.423 1. इसके मूल प्रणेता महर्षि कपिल थे, जिन्हें क्षत्रिय पुत्र बताया जाता है और उपनिषदों आदि में जिसे अवतार माना गया है। कृतियाँ-सांख्य प्रवचन सूत्र, तथा तत्त्व समास। समय-भगवान् वीर व बुद्ध से पूर्व। 2. कपिल के साक्षात् शिष्य आसुरि हुए। समय-ई.पू.600। 3. आसुरि के शिष्य पंचशिख थे। इन्होंने इस मत का बहुत विस्तार किया। कृतियाँ-तत्त्वसमास पर व्याख्या। समय-गार्वे के अनुसार ई.श.1। 4. वार्षगण्य भी इसी गुरु परंपरा में हुए। समय ई.230-300। वार्षगण्य के शिष्य विंध्यवासी थे। जिनका असली नाम रुद्रिल था। समय-ई.250-320। 5. ईश्वर कृष्ण बड़े प्रसिद्ध टीकाकार हुए हैं। कृतियाँ-षष्टितंत्र के आधार पर रचित सांख्यकारिका या सांख्य सप्तति। समय-एक मान्यता के अनुसार ई.श.2 तथा दूसरी मान्यता से ई.340-380। 6. सांख्य कारिका पर माठर और गौड़पाद ने टीकाएँ लिखी हैं। 7. वाचस्पति मिश्र (ई.840) ने न्याय वैशेषिक दर्शनों की तरह सांख्यकारिका पर सांख्यकौमुदी और व्यास भाष्य पर तत्त्व वैशारदी नामक टीकाएँ लिखीं। 8. विज्ञानभिक्षु एक प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। इन्होंने पूर्व के विस्मृत ईश्वरववाद का पुन: उद्धार किया। कृतियाँ-सांख्यसूत्रों पर सांख्य प्रवचन भाष्य तथा सांख्यसार, पातंजलभाष्य वार्तिक, ब्रह्म सूत्र के ऊपर विज्ञानामृत भाष्य आदि ग्रंथों की रचना की। 9. इनके अतिरिक्त भी-भार्गव, वाल्मीकि, हारीति, देवल, सनक, नंद, सनातन, सनत्कुमार, अंगिरा आदि सांख्य विचारक हुए।
2. तत्त्व विचार
(षड्दर्शन समुच्चय/34-42/32-37); (भारतीय दर्शन)। 1. मूल पदार्थ दो हैं-पुरुष व प्रकृति। 2. पुरुष चेतन तत्त्व है। वह एक निष्क्रिय, निर्गुण, निर्लिप्त, सूक्ष्म, व इंद्रियातीत है। 3. प्रकृति जड़ है। वह दो प्रकार है-परा व अपरा। परा प्रकृति को प्रधान मूला या अव्यक्त तथा अपरा प्रकृति को व्यक्त कहते हैं। अव्यक्त प्रकृति तीन गुणों की साम्यावस्था स्वरूप है, तथा वह एक है। व्यक्तप्रकृति अनित्य, अव्यापक, क्रियाशील तथा सगुण है। यह सूक्ष्म से स्थूल पर्यंत क्रम से 23 भेदरूप है-महत् या बुद्धि, अहंकार, मन, पाँच ज्ञानेंद्रिय, पाँच कर्मेंद्रिय, पाँच तन्मात्राएँ व पाँच भूत। 4. सत्त्व, रज व तम तीन गुण हैं। सत्त्व, प्रकाशस्वरूप 'रज' क्रियाशील, और 'तम' अंधकार व अवरोधक स्वरूप है। यह तीनों गुण अपनी साम्यावस्था में सदृश परिणामी होने से अव्यक्त रहते हैं और वैसा दृश्य होने पर व्यक्त हैं, क्योंकि तब कभी तो सत्त्व गुण प्रधान हो जाता है और कभी रज या तमोगुण। उस समय अन्य गुणों की शक्ति हीन रहने से वे अप्रधान होते हैं। 5. रजो गुण के कारण व्यक्त व अव्यक्त दोनों ही प्रकृति नित्य परिणमन करती रहती हैं। वह परिणमन तीन प्रकार का है-धर्म, लक्षण व अवस्था। धर्मों का आविर्भाव व तिरोभाव होना धर्मपरिणाम है, जैसे मनुष्य से देव होना। प्रतिक्षण होने वाली सूक्ष्म विलक्षणता लक्षण परिणाम है और एक ही रूप से टिके हुए अवस्था बदलना अवस्था परिणाम है जैसे बच्चे से बूढ़ा होना। इन तीन गुणों की प्रधानता होने से बुद्धि आदि 33 तत्त्व भी तीन प्रकार हो जाते हैं-सात्त्विक, राजसिक, व तामसिक। जैसे-ज्ञान-वैराग्य पूर्ण बुद्धि सात्त्विक है, विषय विलासी राजसिक है और अधर्म हिंसा आदि में प्रवृत्त तामसिक है-इत्यादि। 6. चक्षु, आदि ज्ञानेंद्रिय हैं। हाथ, पाँव, वचन, गुदा व जननेंद्रिय कर्मेंद्रिय है, ज्ञानेंद्रियों के विषयभूत रूप आदि पाँच तन्मात्राएँ है और उनके स्थूल विषयभूत पृथ्वी आदि भूत कहलाते हैं।
4. ईश्वर व सुख-दु:ख विचार
षड्दर्शन समुच्चय (35-36/22-33); (भारतीय दर्शन)। 1. ये लोग ईश्वर तथा यज्ञ-याग आदि क्रियाकांड को स्वीकार नहीं करते। 2. सत्त्वादि गुणों की विषमता के कारण ही सुख-दुख उत्पन्न होते हैं। वे तीन प्रकार के हैं-आध्यात्मिक, आधिभौतिक, व आधिदैविक। 3. आध्यात्मिक दो प्रकार हैं-कायिक व मानसिक। मनुष्य, पशु आदि कृत आधिभौतिक और यक्ष, राक्षस आदि या अतिवृष्टि आदिकृत आधिदैविक हैं।
5. सृष्टि, प्रलय व मोक्ष विचार
षड्दर्शन समुच्चय (44/38); (भारतीय दर्शन)। 1. यद्यपि पुरुष तत्त्व रूप से एक है। प्रकृति की विकृति से चेतन प्रतिबिंब रूप जो बुद्धियाँ उत्पन्न होती हैं-वे अनेक हैं। जड़ होते हुए भी यह बुद्धि चेतनवत् दीखती हैं। इसे ही बद्ध पुरुष या जीवात्मा कहते हैं। त्रिगुणधारी होने के कारण यह परिणामी है। 2. महत्, अंहकार, ग्यारह इंद्रियाँ न पाँच तन्मात्राएँ, प्राण व अपान इन सत्तरह तत्तवों से मिलकर सूक्ष्म शरीर बनता है जिसे लिंग शरीर भी कहते हैं। वह इस स्थूल शरीर के भीतर रहता है, सूक्ष्म है और इसका मूल कारण है। यह स्वयं निरूपण योग्य है, पर नट की भाँति नाना शरीरों को धारण करता है। 3. जीवात्मा अपने अदृष्ट के साथ परा प्रकृति में लय रहता है। जब उसका अदृष्ट पाकोन्मुख होता है तब तमो गुण का प्रभाव हट जाता है। पुरुष का प्रतिबिंब उस प्रकृति पर पड़ता है, जिससे उसमें क्षोभ या चंचलता उत्पन्न होती है और स्वत: परिणमन करती हुई महत् आदि 23 विकारों को उत्पन्न करती है। उससे सूक्ष्म शरीर और उससे स्थूल शरीर बनता है यही सृष्टि है। 4. अदृष्ट के विषय समाप्त हो जाने पर ये सब पुन: उलटे क्रम से पूर्वोक्त प्रकृति में लय होकर साम्यावस्था में स्थित हो जाते हैं। यही प्रलय है। 5. अनादि काल से इस जीवात्मा को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं है। 25 तत्त्वों के ज्ञान से उसे अपने स्वरूप का भान होता है तब उसके राजसिक व तामसिक गुणों का अभाव हो जाता है। एक ज्ञानमात्र रह जाता है, वही कैवल्य की प्राप्ति है। इसे ही मोक्ष कहते हैं। 6. वह मुक्तात्मा जब तक शरीर में रहता है तब तक जीवन्मुक्त कहलाता है और शरीर छूट जाने पर विदेह मुक्त कहलाता है। 7. पुरुष व मुक्त जीव में यह अंतर है कि पुरुष तो एक है और मुक्तात्माएँ अपने अपने सत्त्व गुणों की पृथक्ता के कारण अनेक हैं। पुरुष, अनादि व नित्य है और मुक्तात्मा सादि व नित्य।
6. कारण कार्य विचार
(भारतीय दर्शन) ये लोक सत्कार्यवादी हैं। अर्थात् इनके अनुसार कार्य सदा अपने करणभूत पदार्थ में विद्यमान रहता है। कार्य क्षण से पूर्व वह अव्यक्त रहता है। उसकी व्यक्ति ही कार्य है। वस्तुत: न कुछ उत्पन्न होता है न नष्ट।
7. प्रमाण विचार
(भारतीय दर्शन) प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम तीन प्रमाण मानता है। अनुमान व आगम नैयायिकोंवत् है। 'बुद्धि' अहंकार व मन को साथ लेकर बाहर निकल जाती है। और 'इंद्रिय विशेष के द्वारा उसके प्रतिनियत विषय को ग्रहण करके तदाकार हो जाती है। बुद्धि का विषयाकार होना ही प्रत्यक्ष है।
* अन्य संबंधित विषय
- वैदिक अन्य दर्शनों का क्रमिक विकास-देखें दर्शन ।
- साधु तथा साधना-देखें योगदर्शन ।
- सांख्य व योगदर्शन की तुलना-देखें योगदर्शन ।
8. जैन बौद्ध व सांख्यदर्शन की तुलना
स्याद्वादमंजरी/ परि-घ./पृ.420 1. जैन व बौद्ध की तरह सांख्य भी वेद, ईश्वर, याज्ञिक क्रियाकांड, व जाति भेद को स्वीकार नहीं करता। जैनों की भाँति ही बहु आत्मवाद तथा जीव का मोक्ष होना मानता है। जैन व बौद्ध की भाँति परिणामवाद को स्वीकार करता है। अपने तीर्थंकर कपिल को क्षत्रियों में उत्पन्न हुआ मानता है। वैदिक देवी-देवताओं पर विश्वास नहीं करता और वैदिक ऋचाओं पर कटाक्ष करता है। तत्त्वज्ञान, संन्यास, व तपश्चरण को प्रधानता देता है। ब्रह्मचर्य को यथार्थ यज्ञ मानता है। गृहस्थ धर्म की अपेक्षा संन्यास धर्म को अधिक महत्त्व देता है। [self] 2. सांख्यों की भाँति जैन भी किसी न किसी रूप में 25 तत्त्वों को स्वीकार करते हैं। तथा परम भावग्राही द्रव्यार्थिक नय से स्वीकार किया गया एक, व्यापक, नित्य, चैतन्यमात्र, जीव तत्त्व ही पुरुष है। संग्रह नय से स्वीकार किया गया एक, व्यापक, नित्य, अजीव तत्त्व ही अव्यक्त प्रकृति है। द्रव्य व भावकर्म व्यक्त प्रकृति है। शुद्ध निश्चय नय से जिसे उपरोक्त प्रकृति का कार्य, विकार तथा जड़माया कहा गया है, ऐसा ज्ञान का क्षयोपशम सामान्य महत् या बुद्धि तत्त्व है, मोहजनित सर्व भाव अहंकार तत्त्व हैं, संकल्प विकल्प रूप भावमन मनतत्त्व है, पाँचों भावेंद्रियाँ ज्ञानेंद्रियाँ हैं। व्यवहार नय से भेद करके देखा जाये तो शरीर के अवयवभूत वाक्, पाणि, पाद आदि पाँच कर्मोंद्रियाँ भी पृथक् तत्त्व हैं। शुद्ध निश्चय नय से ये सभी तत्त्व चिदाभास हैं, यही प्रकृति पर पुरुष का प्रतिबिंब है। यह तो चेतन जगत् का विश्लेषण हुआ। जड़ जगत् की तरफ भी इसी प्रकार शुद्ध कारण परमाणु व्यक्त प्रकृति है। शुद्ध ऋजुसूत्र या पर्यायार्थिक दृष्टि से भिन्न माने गये स्पर्श रस आदि उस परमाणु के गुणों के स्वलक्षणभूत अविभाग प्रतिच्छेद ही तन्मात्राएँ हैं। नैगम व व्यवहार नय से अविभाग प्रतिच्छेदों से युक्त परमाणु और परमाणुओं के बंध से पृथिवी आदि पाँच भूतों की उत्पत्ति होती है। असद्भूत व्यवहार नय से द्रव्यकर्मरूप कार्मण शरीर और अशुद्ध निश्चयनय औदारिक व क्षायोपशमिक भावरूप कार्मण शरीर ही जीव का सूक्ष्म शरीर है जिसके कारण उसके स्थूल शरीर का निर्माण होता है और जिसके विनाश से उसका मोक्ष होता है। सृष्टि मोक्ष की यही प्रक्रिया सांख्यमत को मान्य है। शुद्ध पारिणामिक भावरूप पुरुष व अव्यक्त प्रकृति को ही तत्त्वरूप से देखते हुए अन्य सब भेदों को उसी में लय कर देना शुद्ध द्रव्यार्थिक दृष्टि है। वही परमार्थ ज्ञान या विवेक ख्याति है। तथा वही एकमात्र साक्षात् मोक्ष का कारण है। इस प्रकार सांख्य व जैन तुल्य हैं। 3. परंतु दूसरी ओर जैन तो उपरोक्त सर्व नयों के विरोधी भी नयों के विषयों को स्वीकार करते हुए अनेकांतवादी हैं और सांख्य उन्हें न स्वीकार करते हुए एकांतवादी हैं। यथा संग्रहनय से जो पुरुष व प्रकृति तत्त्व एक-एक व सर्व व्यापक हैं वही व्यवहार नय से अनेक व अव्यापक भी हैं। शुद्ध निश्चय नय से जो पुरुष नित्य है अशुद्ध निश्चय नय से अनित्य भी है। शुद्ध निश्चय नय से जो बुद्धि, अहंकार, मन व ज्ञानेंद्रिय प्रकृति के विकार हैं अशुद्ध निश्चय नय से वही जीव की स्वभावभूत पर्यायें हैं। इत्यादि। इस प्रकार दोनों दर्शनों में भेद है।