गणित: Difference between revisions
From जैनकोष
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.1.5" id="I.1.5">उपमा कालप्रमाण निर्देश</strong> <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="I.1.5.1" id="I.1.5.1">पल्य सागर आदि का निर्देश</strong> <br /> | |||
तिलोयपण्णत्ति/1/94‐130; ( सर्वार्थसिद्धि/3/38/233/5 ); ( राजवार्तिक/3/38/7/208/7 ); ( हरिवंशपुराण/7/47‐56 ); ( त्रिलोकसार/102 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/35‐42 ) ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/118 का उपोद्घात/पृ. 86/4)।<br /> | |||
व्यवहार पल्य के वर्ष=1 प्रमाण योजन गोल व गहरे गर्त में 1‐7 दिन तक के उत्तम भोगभूमिया भेड़ के बच्चे के बालों के अग्रभागों का प्रमाण×100 वर्ष=<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0043.gif" alt="" width="17" height="30" /> × 43 × 20003 × 23 × 23 × 23 × 23 × 63 × 5003 × 83 × 83 × 83 × 83 × 83 × 83 × 83 = 45 अक्षर प्रमाण बालाग्र×100 वर्ष अथवा–4134,5263,0308,2031,7774,9512,192000000000000000000×100 वर्ष<br /> | |||
व्यवहार पल्य के समय= उपरोक्त प्रमाण वर्ष×2×3×2×2×15×30×2×38 <img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0006.gif" alt="" width="6" height="30" />×7×7×(आवलीप्रमाण संख्यात)×(जघन्य युक्तासंख्यात) समय<br /> | |||
उद्धार पल्य के समय=उपरोक्त 45 अक्षर प्रमाण रोमराशि प्रमाण×असंख्यात क्रोड़ वर्षों के समय।<br /> | |||
अद्धापल्य के समय=उद्धार पल्य के उपरोक्त समय×असंख्य वर्षों के समय।<br /> | |||
व्यवहार उद्धार या अद्धासागर=10 कोड़ाकोड़ी विवक्षित पल्य <br /> | |||
तिलोयपण्णत्ति/4/315‐319; ( राजवार्तिक/3/38/7/208/20 )<br /> | |||
10 कोड़ाकोड़ी अद्धासागर=1 अवसर्पिणीकाल या 1 उत्सर्पिणीकाल<br /> | |||
1 अवसर्पिणी या 1 उत्सर्पिणी=एक कल्प काल<br /> | |||
2 कल्प (अव.+उत.)=1 युग<br /> | |||
एक उत्सर्पिणी या एक अवसर्पिणी=छह काल–सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमा दुषमा, दुषमा सुषमा, दुषमा, दुषमा दुषमा।<br /> | |||
सुषमा सुषमा काल=4 कोड़ा कोड़ी अद्धा सागर<br /> | |||
सुषमाकाल =3 कोड़ा कोड़ी अद्धा सागर <br /> | |||
सुषमा दुषमा काल=2 कोड़ा कोड़ी अद्धा सागर <br /> | |||
दुषमा सुषमा काल=1को. को. अद्धासागर‐42000 वर्ष<br /> | |||
दुषमाकाल =21000 वर्ष<br /> | |||
दुषमा दुषमा काल=21000 वर्ष </li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="I.1.5.2" id="I.1.5.2"> क्षेत्र प्रमाण का काल प्रमाण के रूप में प्रयोग</strong> </span><BR> | |||
धवला 10/4;2,4,32/113/1 <span class="PrakritText">अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ भागाहारो होदि।</span>=<span class="HindiText">अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है जो असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के समय, उतना भागाहार है। ( धवला 10/4,2,4,32/12 )।</span><BR> | |||
<span class="HindiText"> गोम्मटसार जीवकांड/ भाषा/117 का उपोद्घात/325/2 कालपरिमाणविषै जहाँ लोक परिमाण कहें तहाँ लोक के जितने प्रदेश होंहि तितने समय जानने।</span></li></ol></li> | |||
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<ol start="6"> | |||
<li><strong name="I.1.6" id="I.1.6"><span class="HindiText"> उपमा प्रमाण की प्रयोग विधि</span></strong> <br> तिलोयपण्णत्ति/1/110‐113 <span class="PrakritGatha">उस्सेहअंगुलेणं सुराणणरतिरियणारयाणं च। उस्सेहंगुलमाणं चउदेवणिदेणयराणिं।110। दीवो दहिसेलाणं वेदीण णदीण कुंडनगदीणं। वस्साणं च पमाणं होदि पमाणुंगलेणेव।111। भिंगारकलसदप्पणवेणुपडहजुगाणसयणसगदाणं। हलमूसलसत्तितोमरसिंहासणबाणणालिअक्खाणं।112। चामरदुंदुहिपोढच्छत्ताणं नरणिवासणगराणं। उज्जाणपहुदियाणं संखा आदंगुलं णेया।113।</span>=<span class="HindiText">उत्सेधांगुल से देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नारकियों के शरीर की ऊँचाई का प्रमाण और चारों प्रकार के देवों के निवास स्थान व नगरादिक का प्रमाण जाना जाता है।110। द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुंड या सरोवर, जगती और भरतादि क्षेत्र इन सबका प्रमाण प्रमाणांगुल से ही हुआ करता है।111। झारी, कलश, दर्पण, वेणु, भेरी, युग, शय्या, शकट (गाड़ी या रथ) हल, मूसल, शक्ति, तोमर, सिंहासन, बाण, नालि, अक्ष, चामर, दुंदुभी, पीठ, छत्र (अर्थात् तीर्थंकरों व चक्रवर्तियों आदि शलाका पुरुषों की सर्व विभूति) मनुष्यों के निवास स्थान व नगर और उद्यान आदिकों की संख्या आत्मांगुल से समझना चाहिए।111‐113। ( राजवार्तिक/3/38/6/207/33 ) </span><br> | |||
तिलोयपण्णत्ति/1/94 <span class="PrakritGatha">ववहारुद्धारद्धातियपल्ला पढमयम्मि संखाओ। विदिये दीवसमुद्दा तदिये मिज्जेदि कम्मठिदि।94।</span>=<span class="HindiText">व्यवहार पल्य, उद्धार पल्य और अद्धापल्य ये पल्य के तीन भेद हैं। इनमें से प्रथम पल्य से संख्या (द्रव्य प्रमाण); द्वितीय से द्वीप समुद्रादि (की संख्या) और तृतीय से कर्मों का (भव स्थिति, आयु स्थिति, काय स्थिति आदि काल प्रमाण लगाया जाता है।</span> ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/36 ); ( त्रिलोकसार/93 ) सर्वार्थसिद्धि/3/38/233/5 <span class="SanskritText"> तत्र पल्यं त्रिविधम्‐व्यवहारपल्यमुद्धारपल्यमद्धापल्यमिति। अन्वर्थसंज्ञा एता: आद्य व्यवहारपल्यमित्युच्यते, उत्तरपल्यद्वयव्यवहारबीजत्वात् । नानेन किंचित्परिच्छेद्यमस्तीति। द्वितीयमुद्धारपल्यम् । तत उद्धृतैर्लौमकच्छेदैर्द्वीपसमुद्रा: संख्यायंत इति। तृतीयमद्धापल्यम् । अद्धा कालस्थितिरित्यर्थ:। ...अर्धतृतीयोद्धारसागारोपमानां यावंतो रोमच्छेदास्तावंतो द्वीपसमुद्रा। ...अनेनाद्धापल्येन नारकतैर्यग्योनीनां देवमनुष्याणां च कर्मस्थितिर्भवस्थितिरायु:स्थिति: कायस्थितिश्च परिच्छेत्तव्या।</span>=<span class="HindiText">पल्य तीन प्रकार का है—व्यवहारपल्य, उद्धारपल्य और अद्धापल्य। ये तीनों सार्थक नाम हैं। आदि के पल्य को व्यवहारपल्य कहते हैं; क्योंकि यह आगे के दो पल्यों का मूल है। इसके द्वारा और किसी वस्तु का प्रमाण नहीं किया जाता। दूसरा उद्धारपल्य है। उद्धारपल्य में से निकाले गये रोम के छेदों द्वारा द्वीप और समुद्रों की गिनती की जाती है। तीसरा अद्धापल्य है। अद्धा और काल स्थिति ये एकार्थवाची शब्द हैं।...ढाई उद्धार सागर के जितने रोम खंड हों उतने सब द्वीप और समुद्र हैं।...अद्धापल्य के द्वारा नारकी, तिर्यंच, देव और मनुष्यों की कर्मस्थिति, भवस्थिति, आयुस्थिति और कायस्थिति की गणना करनी चाहिए। ( राजवार्तिक/3/38/7/208/7,22 ); ( हरिवंशपुराण/7/51‐52 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/28‐31 ) </span><br> राजवार्तिक/3/38/5/ पृष्ठ/पंक्ति<span class="SanskritText"> यत्र संख्येन प्रयोजनं तत्राजघन्योत्कृष्टसंख्येयग्राह्यम् ।206/29। यत्रावलिकाया कार्यं तत्र जघन्ययुक्तासंख्येयग्राह्यम् ।207/3। यत्र संख्येयासंख्येया प्रयोजनं तत्राजघन्योत्कृष्टासंख्येयासंख्येयं ग्राह्यम् ।207/13। अभव्यराशिप्रमाणमार्गणे जघंययुक्तानंतं ग्राह्यम् ।207/16। यत्राऽनंतानंतमार्गणा तत्राजघंयोत्कृष्टाऽनंताऽनंतं ग्राह्यम् ।507/23।</span> =<span class="HindiText">जहाँ भी संख्यात शब्द आता है। वहाँ यही अजघन्योत्कृष्ट संख्यात लिया जाता है। जहाँ आवली से प्रयोजन होता है, वहाँ जघन्य युक्तासंख्येय लिया जाता है। असंख्यासंख्येय के स्थानों में अजघन्योत्कृष्ट असंख्येयासंख्येय विवक्षित होता है। अभव्य राशि के प्रमाण में जघन्य युक्तानंत लिया जाता है। जहाँ अनंतानंत का प्रकरण आता है वहाँ अजघन्योत्कृष्ट अनंतानंत लेना चाहिए। </span> हरिवंशपुराण/7/22 <span class="SanskritText">सोध्वा द्विगुणितो रज्जुस्तनुवातोभयांतभाग् । निष्पद्यते त्रयो लोका: प्रमीयंते बुधैस्तथा।52।</span>=<span class="HindiText">द्वीपसागरों के एक दिशा के विस्तार को दुगुना करने पर रज्जु का प्रमाण निकलता है। यह रज्जु दोनों दिशाओं में तनुवातवलय के अंत भाग को स्पर्श करती है। विद्वान् लोग इसके द्वारा तीनों लोकों का प्रमाण निकालते हैं। </span></li> | |||
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Revision as of 11:41, 27 August 2020
यद्यपि गणित एक लौकिक विषय है परंतु आगम के करणानुयोग विभाग में सर्वत्र इसकी आवश्यकता पड़ती है। कितनी ऊँची श्रेणी का गणित वहाँ प्रयुक्त हुआ यह बात उसको पढ़ने से ही संबंध रखती है। यहाँ उस संबंधी ही गणित के प्रमाण, प्रक्रियाएँ व सहनानी आदि संग्रह की गयी हैं।
- गणित विषयक प्रमाण
- द्रव्य क्षेत्रादि के प्रमाणों का निर्देश
- संख्यात, असंख्यात व अनंत–देखें वह वह नाम ।
- लौकिक व लोकोत्तर प्रमाणों के भेदादि–देखें प्रमाण - 5।
- राजू विषयक विशेष विचार–देखें राजू ।
- संख्यात, असंख्यात व अनंत–देखें वह वह नाम ।
- द्रव्यक्षेत्रादि प्रमाणों की अपेक्षा सहनानियाँ
- लौकिक संख्याओं की अपेक्षा सहनानियाँ।
- अलौकिक संख्याओं की अपेक्षा सहनानियाँ।
- द्रव्य गणना की अपेक्षा सहनानियाँ।
- पुद्गलपरिवर्तन निर्देश की अपेक्षा सह.।
- एकेंद्रियादि जीवनिर्देश की अपेक्षा सह.।
- कर्म व स्पर्धकादि निर्देश की अपेक्षा सह.।
- क्षेत्र प्रमाणों की अपेक्षा सहनानियाँ।
- कालप्रमाणों की अपेक्षा सहनानियाँ।
- लौकिक संख्याओं की अपेक्षा सहनानियाँ।
- गणित प्रक्रियाओं की अपेक्षा सहनानियाँ
- परिकर्माष्टक की अपेक्षा सहनानियाँ।
- लघुरिक्थ गणित की अपेक्षा सहनानियाँ।
- श्रेणी गणित की अपेक्षा सहनानियाँ।
- षट्गुणवृद्धि हानि की अपेक्षा सहनानियाँ।
- परिकर्माष्टक की अपेक्षा सहनानियाँ।
- अक्षर अंकक्रम की अपेक्षा सहनानियाँ।
- अक्षर क्रम की अपेक्षा सहनानियाँ।
- अंकक्रम की अपेक्षा सहनानियाँ।
- आंकड़ों की अपेक्षा सहनानियाँ।
- कर्मों की स्थिति व अनुभाग की अपेक्षा सह.।
- अक्षर क्रम की अपेक्षा सहनानियाँ।
- द्रव्य क्षेत्रादि के प्रमाणों का निर्देश
- गणित विषयक प्रक्रियाएँ
- परिकर्माष्टक गणित निर्देश
- अंकों की गति वाम भाग से होती है।
- परिकर्माष्टक के नाम निर्देश।
- 3-4. संकलन व व्यकलन की प्रक्रियाएँ।
- 5-6. गुणकार व भागहार की प्रक्रियाएँ।
- विभिन्न भागहारों का निर्देश–देखें संक्रमण ।
- वर्ग व वर्गमूल की प्रक्रिया।
- घन व घनमूल की प्रक्रिया।
- विरलन देय घातांक गणित की प्रक्रिया।
- भिन्न परिकर्माष्टक (fraction) की प्रक्रिया।
- शून्य परिकर्माष्टक की प्रक्रिया।
- अंकों की गति वाम भाग से होती है।
- अर्द्धच्छेद या लघुरिक्थ गणित निर्देश
- अर्द्धच्छेद आदि का सामान्य निर्देश।
- लघुरिक्थ विषयक प्रक्रियाएँ।
- अर्द्धच्छेद आदि का सामान्य निर्देश।
- अक्षसंचार गणित निर्देश
- अक्षसंचार विषयक शब्दों का परिचय।
- अक्षसंचार विधि का उदाहरण।
- प्रमाद के 37500 दोषों के प्रस्तार यंत्र।
- नष्ट निकालने की विधि।
- समुद्दिष्ट निकालने की विधि।
- अक्षसंचार विषयक शब्दों का परिचय।
- त्रैराशिक व संयोगी भंग गणित निर्देश
- द्वि त्रि आदि संयोगी भंग प्राप्ति विधि।
- त्रैराशिक गणित विधि।
- द्वि त्रि आदि संयोगी भंग प्राप्ति विधि।
- श्रेणी व्यवहार गणित सामान्य
- श्रेणी व्यवहार परिचय।
- सर्वधारा आदि श्रेणियों का परिचय।
- सर्वधन आदि शब्दों का परिचय।
- संकलन व्यवहार श्रेणी संबंधी प्रक्रियाएँ।
- गुणन व्यवहार श्रेणी संबंधी प्रक्रियाएँ।
- मिश्रित श्रेणी व्यवहार की प्रक्रियाएँ।
- द्वीप सागरों में चंद्र-सूर्य आदि का प्रमाण निकालने की प्रक्रिया।
- श्रेणी व्यवहार परिचय।
- गुणहानि रूप श्रेणी व्यवहार निर्देश
- गुणहानि सामान्य व गुणहानि आयाम निर्देश।
- गुणहानि सिद्धांत विषयक शब्दों का परिचय।
- गुणहानि सिद्धांत विषयक प्रक्रियाएँ।
- कर्मस्थिति की अन्योन्याभ्यस्त राशिएँ।
- गुणहानि सामान्य व गुणहानि आयाम निर्देश।
- षट्गुण हानि वृद्धि–देखें वह वह नाम ।
- क्षेत्रफल आदि निर्देश
- चतुरस्र संबंधी।
- वृत्त (circle) संबंधी।
- धनुष (arc) संबंधी।
- वृत्तवलय (ring) संबंधी।
- विवक्षित द्वीप सागर संबंधी।
- बेलनाकार (cylinderical) संबंधी।
- अन्य आकारों संबंधी।
- चतुरस्र संबंधी।
- परिकर्माष्टक गणित निर्देश
- गणित विषयक प्रमाण
- द्रव्य क्षेत्रादि के प्रमाणों का निर्देश
- संख्या की अपेक्षा द्रव्यप्रमाण निर्देश
( धवला 5/ प्र./22)
- संख्या की अपेक्षा द्रव्यप्रमाण निर्देश
- द्रव्य क्षेत्रादि के प्रमाणों का निर्देश
1 |
एक |
1 |
16 |
निरब्बुद |
(10,000,000)9 |
2 |
दस |
10 |
17 |
अहह |
(10,000,000)10 |
3 |
शत |
100 |
18 |
अबब |
(10,000,000)11 |
4 |
सहस्र |
1000 |
19 |
अटट |
(10,000,000)12 |
5 |
दस सह. |
10,000 |
20 |
सोगंधिक |
(10,000,000)13 |
6 |
शत सह. |
100,000 |
21 |
उप्पल |
(10,000,000)14 |
7 |
दसशत सहस्र |
10,000,000 |
22 |
कुमुद |
(10,000,000)15 |
8 |
कोटि |
10,000,000 |
23 |
पुंडरीक |
(10,000,000)16 |
9 |
पकोटि |
(10,000,000)2 |
24 |
पदुम |
(10,000,000)17 |
10 |
कोटिप्पकोटि |
(10,000,000)3 |
25 |
कथान |
(10,000,000)18 |
11 |
नहुत |
(10,000,000)4 |
26 |
महाकथान |
(10,000,000)19 |
12 |
निन्नहुत |
(10,000,000)5 |
27 |
असंख्येय |
(10,000,000)20 |
13 |
अखोभिनी |
(10,000,000)6 |
28 |
पुणट्ठी |
=(256)2=65536 |
14 |
बिंदु |
(10,000,000)7 |
29 |
बादाल |
=पणट्ठी2 |
15 |
अब्बुद |
(10,000,000)8 |
30 |
एकट्ठी |
=बादाल2 |
तिलोयपण्णत्ति/4/309‐311; ( राजवार्तिक/3/38/5/306/17 ); ( त्रिलोकसार 28‐51 )
1. जघन्य संख्यात =2
2. उत्कृष्ट संख्यात =जघन्य परीतासंख्यात–1
3. मध्यम संख्यात =(जघन्य +1) से (उत्कृष्ट–1) तक
नोट—आगम में जहाँ संख्यात कहा जाता है वहाँ तीसरा विकल्प समझना चाहिए।
4. जघन्य परीतासंख्यात=अनवस्थित कुंडों में अघाऊरूप से भरे सरसों के दानों का प्रमाण 199711293845131636363636363636363636363636363 <img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0039.gif" alt="" width="14" height="30" /> (देखें असंख्यात - 9)
5. उत्कृष्ट परीतासंख्यात=जघन्य युक्तासंख्यात–1
6. मध्यम परीतासंख्यात =(जघन्य+1) से (उत्कृष्ट–1) तक
7. जघन्य युक्तासंख्यात =यदि जघन्य परीतासंख्यात=क
<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0004.gif" alt="" width="71" height="26" /> (देखें असंख्यात - 9)
8. उत्कृष्ट युक्तासंख्यात =जघन्य असंख्यातासंख्यात–1
9. मध्यम युक्तासंख्यात =(जघन्य+1) से (उत्कृष्ट–1) तक
10. जघन्य असंख्यातासंख्यात=(जघन्य युक्ता.)जघन्य युक्ता. (देखें असंख्यात - 9)
11. उत्कृष्ट असंख्याता.=जघन्य परीतानंत—1
12. मध्यम असंख्याता.=(जघन्य+1) से (उत्कृष्ट–1) तक
13. जघन्य परीतानंत=जघन्य असंख्यातासंख्यात को तीन बार वर्गित संवर्गित करके उसमें द्रव्यों के प्रदेशों आदि रूप से कुछ राशियाँ जोड़ना (देखें अनंत - 1.4)
14. उत्कृष्ट परीतानंत=जघन्य युक्तानंत–1
15. मध्यम परीतानंत=(जघन्य+1) से (उत्कृष्ट–1) तक
16. जघन्य युक्तानंत=जघन्य परीतानंत की दो बार वर्गित संवर्गित राशि (देखें अनंत - 1.6)
17. उत्कृष्ट युक्तानंत=जघन्य अनंतानंत–1
18. मध्यम युक्तानंत =(जघन्य+1) से (उत्कृष्ट–1) तक
19. जघन्य अनंतानंत =(जघन्य युक्ता.) (जघन्य युक्ता.) (देखें अनंत - 1.7)
20. उत्कृष्ट अनंतानंत=जघन्य अनंतानंत को तीन बार वर्गित संवर्गित करके उसमें कुछ राशि में मिलान (देखें अनंत )
21. मध्यम अनंतानंत =(जघन्य+1) से (उत्कृष्ट–1) तक
- तौल की अपेक्षा द्रव्यप्रमाण निर्देश
राजवार्तिक/3/38/205/26 |
|
4 महा अधिक तृण फल |
=1 श्वेत सर्षप फल |
16 श्वेत सर्षप फल |
=1 धान्यमाष फल |
2 धान्यमाष फल |
=1 गुंजाफल |
2 गुंजाफल |
=1 रूप्यमाष फल |
13 रूप्यमाष फल |
=1 धरण |
2 <img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0041.gif" alt="" width="6" height="30" /> धरण |
=1 सुवर्ण या 1 कंस |
4 सुवर्ण या 4 कंस |
=1 पल |
100 पल |
=1 तुला या 1 अर्धकंस |
3 तुला या 3 अर्धकंस |
=एक कुडब (पुसेरा) |
4 कुडब (पुसेरे) |
=1 प्रस्थ (सेर) |
4 प्रस्थ (सेर) |
=1 आढक |
4 आढक |
=1 द्रोण |
16 द्रोण |
=1 खारी |
20 खारी |
=1 वाह |
- क्षेत्र के प्रमाणों का निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/1/102‐116 ( राजवार्तिक/3/38/6/207/26 ); ( हरिवंशपुराण/7/36‐46 ); (जं प./13/16‐34); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/118 की उत्थानिका या उपोद्घात/285/7); ( धवला/3/ प्र/36)।
द्रव्य का अविभागी अंश = परमाणु |
8 जूं=1 यव |
अनंतानंत परमा. = 1 अवसन्नासन्न |
8 यव = 1 उत्सेधांगुल |
8 अवसन्नासन्न = 1 सन्नासन्न |
500 उ. अंगुल = 1 प्रमाणांगुल |
8 सन्नासन्न = 1 त्रुटरेण(व्यवहाराणु) |
आत्मांगुल ( तिलोयपण्णत्ति/1/109/13 ) = भरत ऐरावत क्षेत्र के चक्रवर्ती का अंगुल |
8 त्रुटरेणु = 1 त्रसरेणु (त्रस जीव के पाँव से उड़नेवाला अणु) |
6 विवक्षित अंगुल = 1 विवक्षित पाद |
8 त्रसरेणु = 1 रथरेणु (रथ से उड़ने वाली धूल का अणु.) |
2 वि. पाद = 1 वि. वितस्ति |
8 रथरेणु = उत्तम भोगभूमिज का बालाग्र. |
2 वि. वितस्ति = 1 वि. हस्त |
8 उ.भो.भू.बा. = मध्यम भो.भू.बा. |
2 वि. हस्त = 1 वि. किष्कु |
8 म.भो.भू.बा. = जघन्य भो.भू.बा. |
2 किष्कु = 1 दंड, युग, धनुष, मूसल या नाली, नाड़ी |
8 ज.भो.भू.बा. = कर्मभूमिज का बालाग्र. |
2000 दंड या धनु = 1 कोश |
8 क.भू.बालाग्र. = 1 लिक्षा (लीख) |
4 कोश = 1 योजन |
8 लीख = 1 जूं |
नोट—उत्सेधांगुल से मानव या व्यवहार योजन होता है और प्रमाणांगुल से प्रमाण योजन। |
( तिलोयपण्णत्ति/1/131‐132 ); ( राजवार्तिक/3/38/7/208/10,23 )
500 मानव योजन = 1 प्रमाण योजन (महायोजन या दिव्य योजन) 80 लाख गज= 4545.45 मील |
1 योजन = 768000 अंगुल |
1 प्रमाण योजन गोल व गहरे कुंड के आश्रय से उत्पन्न = 1 अद्धापल्य (देखें पल्य ) |
(1 अद्धापल्य या प्रमाण योजन3)छे जबकि छे = अद्धापल्य की अर्द्धछेद राशि या log2 पल्य = 1 सूच्यंगुल ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/ पृ.288/4) |
1 सूच्यंगुल2 = 1 प्रतरांगुल |
1 सूच्यंगुल3 = 1 घनांगुल |
(1 घनांगुल)अद्धापल्य÷असं (असं=असंख्यात) = जगत्श्रेणी (प्रथम मत) ( धवला/3/9,2,4/34/1 ) |
(1 घनांगुल)छे÷असं. = जगत्श्रेणी (द्वि. मत) |
(छे व असं.=देखें ऊपर ) = ( धवला/3/1,24/34/1 ) |
जगत्श्रेणी÷7 = 1 रज्जू (देखें राजू ) |
(जगत्श्रेणी)2 = 1 जगत्प्रतर |
(जगत्श्रेणी)3 = जगत्घन या घनलोक |
( धवला/9/4,1,2/39/4 ) = (आवली÷असं)आवली÷असं (आवली = आवली के समयों प्रमाण आकाश प्रदेश) |
- सामान्य काल प्रमाण निर्देश
- प्रथम प्रकार से काल प्रमाण निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/4/285‐309; ( राजवार्तिक/3/38/7/208/35 ); ( हरिवंशपुराण/7/18‐31 ); ( धवला/3/1,2,6/ गा.35‐36/65-66); ( धवला/4/1,5,1/318/2 ); ( महापुराण/3/217‐227 ); (जं.दी./13/4‐15); ( गोम्मटसार जीवकांड/574‐576/1018‐1028 ); ( चारित्तपाहुड़/ टी./17/40 पर उद्धृत)
नोट— तिलोयपण्णत्ति व धवला अनुयोगद्वार आदि में प्रयुक्त नामों के क्रम में कुछ अंतर है वह भी नीचे दिया गया है। ( तिलोयपण्णत्ति/ प्र./80/H. L. jain) (जं.प./के अंत में प्रो. लक्ष्मीचंद)
तिलोयपण्णत्ति व राजवार्तिक आदि में पूर्व व पूर्वांग से लेकर अंतिम अचलात्मवाले विकल्प तक गुणाकार में कुछ अंतर दिया है वह भी नीचे दिया जाता है।
नामक्रम भेद—
- प्रथम प्रकार से काल प्रमाण निर्देश
क्रमांक |
तिलोयपण्णत्ति/4/285‐309 |
अनुयोग द्वार सूत्र 114‐137 |
जं.प./दिग/13/4‐14 |
जं.प./श्वे/पृ.39‐40अनु.सू. पृ.342‐343 |
यो.क./8‐10; 29‐31; 62‐71 |
1 |
समय समय |
समय |
समय |
समय |
समय |
2 |
आवलि |
आवलिका |
आवली |
आवली |
उच्छ्वास |
3 |
उच्छ्वास |
आन |
उच्छ्वास |
आनप्राण |
स्तोक |
4 |
प्राण (निश्वास) |
प्राणु |
स्तोक |
स्तोक |
लव |
5 |
स्तोक |
स्तोक |
लव |
लव |
नालिका |
6 |
लव |
लव |
नाली |
मुहूर्त |
मुहूर्त |
7 |
नाली |
... |
मुहूर्त |
अहोरात्र |
अहोरात्र |
8 |
मुहूर्त |
मुहूर्त |
दिवस |
पक्ष |
पक्ष |
9 |
दिवस |
अहोरात्र |
मास |
मास मास |
मास |
10 |
पक्ष |
पक्ष |
ऋतु |
ऋतु |
संवत्सर |
11 |
मास |
मास |
अयन |
अयन |
पूर्वांग |
12 |
ऋतु |
ऋतु |
वर्ष |
संवत्सर |
पूर्व |
13 |
अयन |
अयन |
युग |
युग |
लतांग |
14 |
वर्ष |
वर्ष |
दशवर्ष |
वर्षशत |
लता |
15 |
युग |
युग |
वर्षशत |
वर्षसहस्र |
महालतांग |
16 |
वर्षदशक |
... |
वर्षसहस्र |
वर्षशतसहस्र |
महालता |
17 |
वर्षशत |
वर्षशत |
दशवर्षसहस्र |
पूर्वांग |
नलिनांग |
18 |
वर्षसहस्र |
वर्षसहस्र |
वर्षशतसहस्र |
पूर्व |
नलिन |
19 |
द |
... |
पूर्वांग |
त्रुटितांग |
महानलिनांग |
20 |
वर्ष लक्ष |
वर्षशतसह. |
पूर्व |
त्रुटित |
महानलिन |
21 |
पूर्वांग |
पूर्वांग |
पूर्वांग |
अडडांग |
पद्मांग |
22 |
पूर्व |
पूर्व |
पूर्व |
अडड |
पद्म |
23 |
नियुतांग |
त्रुटितांग |
नयुतांग |
अववांग |
महापद्मांग |
24 |
नियुत |
त्रुटित |
नयुत |
अवव |
महापद्म |
25 |
कुमुदांग |
अटटांग |
कुमुदांग |
हूहूअंग |
कमलांग |
26 |
कुमुद |
अटट |
कुमुद |
हूहू |
कमल |
27 |
पद्मांग |
अववांग |
पद्मांग |
उत्पलांग |
महाकमलांग |
28 |
पद्म |
अवव |
पद्म |
उत्पल |
महाकमल |
29 |
नलिनांग |
हूहूकांग |
नलिनांग |
पद्मांग |
कुमुदांग |
30 |
नलिन |
हूहूक |
नलिन |
पद्म |
कुमुद |
31 |
कमलांग |
उत्पलांग |
कमलांग |
नलिनांग |
महाकुमुदांग |
32 |
कमल |
उत्पल |
कमल |
नलिन |
महाकुमुद |
33 |
त्रुटितांग |
पद्मांग |
त्रुटितांग |
अत्थिनेपुरांग |
त्रुटितांग |
34 |
त्रुटित |
पद्म |
त्रुटित |
अत्थिनेपुर |
त्रुटित |
35 |
अटटांग |
नलिनांग |
अटटांग |
आउअंग (अयुतांग) |
महात्रुटितांग |
36 |
अटट |
नलिन |
अटट |
आउ(अयुत) |
महात्रुटित |
37 |
अममांग |
अर्थनिपुरांग |
अममांग |
नयुतांग |
अडडांग |
38 |
अमम |
अर्थनिपुर |
अमम |
नयुत |
अडड |
39 |
हाहांग |
अयुतांग |
हाहांग |
प्रयुतांग |
महाअडडांग |
40 |
हाहा |
अयुत |
हाहा |
प्रयुत |
महाअडड |
41 |
हूहूवंग |
नयुतांग |
हूहूअंग |
चूलितांग |
ऊहांग |
42 |
हूहू |
नयुत |
हूहू |
चूलित |
ऊह |
43 |
लतांग |
प्रयुतांग |
लतांग |
शीर्षप्रहेलिकांग |
महाऊहांग |
44 |
लता |
प्रयुत |
लता |
शीर्षप्रहेलिका |
महाऊह |
45 |
महालतांग |
चूलिकांग |
महालतांग |
.... |
शीर्षप्रहेलिकांग |
46 |
महालता |
चूलिका |
महालता |
.... |
शीर्षप्रहेलिका |
47 |
श्रीकल्प |
शीर्षप्रहेलिकांग |
शीर्षप्रकंपित |
.... |
.... |
48 |
हस्तप्रहेलित |
शीर्षप्रहेलिका |
हस्तप्रहेलित |
.... |
.... |
49 |
अचलात्म |
... |
अचलात्म |
.... |
.... |
काल प्रमाण–
पूर्वोक्त प्रमाणों में से‐(सर्व प्रमाण); ( धवला/3/34/ H. L. jain)
1. |
समय = एक परमाणु के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर मंदगति से जाने का काल। |
2. |
ज. युक्ता. असंख्यात समय = .... = 1 आवली |
3‐4 |
संख्यात आवली = <img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0042.gif" alt="" width="45" height="30" /> सैकेंड = 1 उच्छ्वास या प्राण |
5. |
7 उच्छ्वास = 5 <img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0005.gif" alt="" width="18" height="31" /> सैकेंड = 1 स्तोक |
6. |
7 स्तोक = 37 <img src="JSKHtmlSample_clip_image006_0003.gif" alt="" width="12" height="30" /> सैकेंड = 1 लव |
7. |
38 <img src="JSKHtmlSample_clip_image008_0003.gif" alt="" width="6" height="30" /> लव = 24 मिनिट = 1 नाली (घड़ी) |
8. |
2 नाली (घड़ी) 1510 निमेष = 48 मिनट = 1 मुहूर्त 3773 उच्छ्वास (देखें मुहूर्त ) |
* |
मूहूर्त—1 समय = 1 भिन्न मुहूर्त |
* |
(भिन्न मुहूर्त–1 समय) से (आवली+1 समय) तक = 1 अंतर्मुहूर्त |
9. |
30 मुहूर्त 24 घंटे = 1 अहोरात्र (दिवस) |
10. |
15 अहोरात्रि = 1 पक्ष |
पूर्वोक्त प्रमाणों में से—नं. 1, 2, 3,4, 7, ( धवला/5/21/ H. L. jain)
|
क्रम |
राजवार्तिक ; हरिवंशपुराण ; जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो |
ति.प; महापुराण |
प्रमाण निर्देश |
21 |
84 लाख वर्ष |
84 लाख वर्ष |
1 पूर्वांग |
22 |
84 लाख पूर्वांग |
84 लाख पूर्वांग |
1 पूर्व |
* |
|
84 पूर्व |
1 पूर्वांग |
* |
|
84 लाख पूर्वांग |
1 पर्व |
23 |
84 लाख पूर्व |
84 पर्व |
1 नियुतांग |
24 |
84 लाख नियुतांग |
84 लाख नियुतांग |
1 नियुत |
25 |
84 लाख नियुत |
84 नियुत |
1 कुमुदांग |
26 |
84 लाख कुमुदांग |
84 लाख कुमुदांग |
1 कुमुद |
27 |
84 लाख कुमुद |
84 कुमुद |
1 पद्मांग |
28 |
84 लाख पद्मांग |
84 लाख पद्मांग |
1 पद्म |
29 |
84 लाख पद्म |
84 पद्म |
1 नलिनांग |
30 |
84 लाख नलिनांग |
84 लाख नलिनांग |
1 नलिन |
31 |
84 लाख नलिन |
84 नलिन |
1 कमलांग |
32 |
84 लाख कमलांग |
84 लाख कमलांग |
1 कमल |
33 |
84 लाख कमल |
84 कमल |
1 त्रुटितांग |
34 |
84 लाख त्रुटितांग |
84 लाख त्रुटितांग |
1 त्रुटित |
35 |
84 लाख त्रुटित |
84 त्रुटित |
1 अटटांग |
36 |
84 लाख अटटांग |
84 लाख अटटांग |
1 अटट |
37 |
84 लाख अटट |
84 अटट |
1 अममांग |
38 |
84 लाख अममांग |
84 लाख अममांग |
1 अमम |
39 |
84 लाख अमम |
84 अमम |
1 हाहांग |
40 |
84 लाख हाहांग |
84 लाख हाहांग |
1 हाहा |
41 |
84 लाख हाहा |
84 हाहा |
1 हूहू अंग |
42 |
84 लाख हूहू अंग |
84 लाख हूहू अंग |
1 हूहू |
43 |
84 लाख हूहू |
84 हूहू |
1 लतांग |
44 |
84 लाख लतांग |
84 लाख लतांग |
1 लता |
45 |
84 लाख लता |
84 लता |
1 महालतांग |
46 |
84 लाख महालतांग |
84 लाख महालतांग |
1 महालता |
|
ति.प; राजवार्तिक ; हरिवंशपुराण ; जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो |
महापुराण |
प्रमाण निर्देश |
47 |
84 लाख महालता |
84 महालता |
1 श्रीकल्प |
48 |
84 लाख श्रीकल्प |
84 लाख श्रीकल्प |
1 हस्तप्रहेलित |
49 |
84 लाख हस्तप्रहेलित |
84 हस्तप्रहेलित |
1 अचलात्म |
ति.प्र./4/308 अचलात्म=(84)31×(10)80 वर्ष |
- दूसरे प्रकार से काल प्रमाण निर्देश
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/25/52/5
असंख्यात समय |
=1 निमेष |
एक मिनट |
= 60 सैकेंड |
15 निमेष |
=1 काष्ठा (2 सैकेंड) |
24 सैकेंड |
=1 पल |
30 काष्ठा |
=1 कला (मिनट) |
60 पल (24 मिनिट) |
=1 घड़ी |
कुछ अधिक 20 कला (महाभारत की अपेक्षा 15 कला) |
=(24 मिनट) 1 घटिका (घड़ी) |
शेष पूर्ववत् — |
|
एक मिनिट |
=540000 प्रतिविपलांश |
||
60 प्रतिविपलांश |
=प्रतिविपल |
||
2 घड़ी (महाभारत की अपेक्षा 3कला+3 काष्ठा) |
=1 मुहूर्त |
60 प्रतिविपल |
=1 विपल |
60 विपल |
=1 पल |
||
60 पल |
=1 घड़ी |
||
आगे पूर्ववत् — |
शेष पूर्ववत् — |
- उपमा कालप्रमाण निर्देश
- पल्य सागर आदि का निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/1/94‐130; ( सर्वार्थसिद्धि/3/38/233/5 ); ( राजवार्तिक/3/38/7/208/7 ); ( हरिवंशपुराण/7/47‐56 ); ( त्रिलोकसार/102 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/35‐42 ) ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/118 का उपोद्घात/पृ. 86/4)।
व्यवहार पल्य के वर्ष=1 प्रमाण योजन गोल व गहरे गर्त में 1‐7 दिन तक के उत्तम भोगभूमिया भेड़ के बच्चे के बालों के अग्रभागों का प्रमाण×100 वर्ष=<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0043.gif" alt="" width="17" height="30" /> × 43 × 20003 × 23 × 23 × 23 × 23 × 63 × 5003 × 83 × 83 × 83 × 83 × 83 × 83 × 83 = 45 अक्षर प्रमाण बालाग्र×100 वर्ष अथवा–4134,5263,0308,2031,7774,9512,192000000000000000000×100 वर्ष
व्यवहार पल्य के समय= उपरोक्त प्रमाण वर्ष×2×3×2×2×15×30×2×38 <img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0006.gif" alt="" width="6" height="30" />×7×7×(आवलीप्रमाण संख्यात)×(जघन्य युक्तासंख्यात) समय
उद्धार पल्य के समय=उपरोक्त 45 अक्षर प्रमाण रोमराशि प्रमाण×असंख्यात क्रोड़ वर्षों के समय।
अद्धापल्य के समय=उद्धार पल्य के उपरोक्त समय×असंख्य वर्षों के समय।
व्यवहार उद्धार या अद्धासागर=10 कोड़ाकोड़ी विवक्षित पल्य
तिलोयपण्णत्ति/4/315‐319; ( राजवार्तिक/3/38/7/208/20 )
10 कोड़ाकोड़ी अद्धासागर=1 अवसर्पिणीकाल या 1 उत्सर्पिणीकाल
1 अवसर्पिणी या 1 उत्सर्पिणी=एक कल्प काल
2 कल्प (अव.+उत.)=1 युग
एक उत्सर्पिणी या एक अवसर्पिणी=छह काल–सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमा दुषमा, दुषमा सुषमा, दुषमा, दुषमा दुषमा।
सुषमा सुषमा काल=4 कोड़ा कोड़ी अद्धा सागर
सुषमाकाल =3 कोड़ा कोड़ी अद्धा सागर
सुषमा दुषमा काल=2 कोड़ा कोड़ी अद्धा सागर
दुषमा सुषमा काल=1को. को. अद्धासागर‐42000 वर्ष
दुषमाकाल =21000 वर्ष
दुषमा दुषमा काल=21000 वर्ष - क्षेत्र प्रमाण का काल प्रमाण के रूप में प्रयोग
धवला 10/4;2,4,32/113/1 अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ भागाहारो होदि।=अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है जो असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के समय, उतना भागाहार है। ( धवला 10/4,2,4,32/12 )।
गोम्मटसार जीवकांड/ भाषा/117 का उपोद्घात/325/2 कालपरिमाणविषै जहाँ लोक परिमाण कहें तहाँ लोक के जितने प्रदेश होंहि तितने समय जानने।
- पल्य सागर आदि का निर्देश
- उपमा प्रमाण की प्रयोग विधि
तिलोयपण्णत्ति/1/110‐113 उस्सेहअंगुलेणं सुराणणरतिरियणारयाणं च। उस्सेहंगुलमाणं चउदेवणिदेणयराणिं।110। दीवो दहिसेलाणं वेदीण णदीण कुंडनगदीणं। वस्साणं च पमाणं होदि पमाणुंगलेणेव।111। भिंगारकलसदप्पणवेणुपडहजुगाणसयणसगदाणं। हलमूसलसत्तितोमरसिंहासणबाणणालिअक्खाणं।112। चामरदुंदुहिपोढच्छत्ताणं नरणिवासणगराणं। उज्जाणपहुदियाणं संखा आदंगुलं णेया।113।=उत्सेधांगुल से देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नारकियों के शरीर की ऊँचाई का प्रमाण और चारों प्रकार के देवों के निवास स्थान व नगरादिक का प्रमाण जाना जाता है।110। द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुंड या सरोवर, जगती और भरतादि क्षेत्र इन सबका प्रमाण प्रमाणांगुल से ही हुआ करता है।111। झारी, कलश, दर्पण, वेणु, भेरी, युग, शय्या, शकट (गाड़ी या रथ) हल, मूसल, शक्ति, तोमर, सिंहासन, बाण, नालि, अक्ष, चामर, दुंदुभी, पीठ, छत्र (अर्थात् तीर्थंकरों व चक्रवर्तियों आदि शलाका पुरुषों की सर्व विभूति) मनुष्यों के निवास स्थान व नगर और उद्यान आदिकों की संख्या आत्मांगुल से समझना चाहिए।111‐113। ( राजवार्तिक/3/38/6/207/33 )
तिलोयपण्णत्ति/1/94 ववहारुद्धारद्धातियपल्ला पढमयम्मि संखाओ। विदिये दीवसमुद्दा तदिये मिज्जेदि कम्मठिदि।94।=व्यवहार पल्य, उद्धार पल्य और अद्धापल्य ये पल्य के तीन भेद हैं। इनमें से प्रथम पल्य से संख्या (द्रव्य प्रमाण); द्वितीय से द्वीप समुद्रादि (की संख्या) और तृतीय से कर्मों का (भव स्थिति, आयु स्थिति, काय स्थिति आदि काल प्रमाण लगाया जाता है। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/36 ); ( त्रिलोकसार/93 ) सर्वार्थसिद्धि/3/38/233/5 तत्र पल्यं त्रिविधम्‐व्यवहारपल्यमुद्धारपल्यमद्धापल्यमिति। अन्वर्थसंज्ञा एता: आद्य व्यवहारपल्यमित्युच्यते, उत्तरपल्यद्वयव्यवहारबीजत्वात् । नानेन किंचित्परिच्छेद्यमस्तीति। द्वितीयमुद्धारपल्यम् । तत उद्धृतैर्लौमकच्छेदैर्द्वीपसमुद्रा: संख्यायंत इति। तृतीयमद्धापल्यम् । अद्धा कालस्थितिरित्यर्थ:। ...अर्धतृतीयोद्धारसागारोपमानां यावंतो रोमच्छेदास्तावंतो द्वीपसमुद्रा। ...अनेनाद्धापल्येन नारकतैर्यग्योनीनां देवमनुष्याणां च कर्मस्थितिर्भवस्थितिरायु:स्थिति: कायस्थितिश्च परिच्छेत्तव्या।=पल्य तीन प्रकार का है—व्यवहारपल्य, उद्धारपल्य और अद्धापल्य। ये तीनों सार्थक नाम हैं। आदि के पल्य को व्यवहारपल्य कहते हैं; क्योंकि यह आगे के दो पल्यों का मूल है। इसके द्वारा और किसी वस्तु का प्रमाण नहीं किया जाता। दूसरा उद्धारपल्य है। उद्धारपल्य में से निकाले गये रोम के छेदों द्वारा द्वीप और समुद्रों की गिनती की जाती है। तीसरा अद्धापल्य है। अद्धा और काल स्थिति ये एकार्थवाची शब्द हैं।...ढाई उद्धार सागर के जितने रोम खंड हों उतने सब द्वीप और समुद्र हैं।...अद्धापल्य के द्वारा नारकी, तिर्यंच, देव और मनुष्यों की कर्मस्थिति, भवस्थिति, आयुस्थिति और कायस्थिति की गणना करनी चाहिए। ( राजवार्तिक/3/38/7/208/7,22 ); ( हरिवंशपुराण/7/51‐52 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/28‐31 )
राजवार्तिक/3/38/5/ पृष्ठ/पंक्ति यत्र संख्येन प्रयोजनं तत्राजघन्योत्कृष्टसंख्येयग्राह्यम् ।206/29। यत्रावलिकाया कार्यं तत्र जघन्ययुक्तासंख्येयग्राह्यम् ।207/3। यत्र संख्येयासंख्येया प्रयोजनं तत्राजघन्योत्कृष्टासंख्येयासंख्येयं ग्राह्यम् ।207/13। अभव्यराशिप्रमाणमार्गणे जघंययुक्तानंतं ग्राह्यम् ।207/16। यत्राऽनंतानंतमार्गणा तत्राजघंयोत्कृष्टाऽनंताऽनंतं ग्राह्यम् ।507/23। =जहाँ भी संख्यात शब्द आता है। वहाँ यही अजघन्योत्कृष्ट संख्यात लिया जाता है। जहाँ आवली से प्रयोजन होता है, वहाँ जघन्य युक्तासंख्येय लिया जाता है। असंख्यासंख्येय के स्थानों में अजघन्योत्कृष्ट असंख्येयासंख्येय विवक्षित होता है। अभव्य राशि के प्रमाण में जघन्य युक्तानंत लिया जाता है। जहाँ अनंतानंत का प्रकरण आता है वहाँ अजघन्योत्कृष्ट अनंतानंत लेना चाहिए। हरिवंशपुराण/7/22 सोध्वा द्विगुणितो रज्जुस्तनुवातोभयांतभाग् । निष्पद्यते त्रयो लोका: प्रमीयंते बुधैस्तथा।52।=द्वीपसागरों के एक दिशा के विस्तार को दुगुना करने पर रज्जु का प्रमाण निकलता है। यह रज्जु दोनों दिशाओं में तनुवातवलय के अंत भाग को स्पर्श करती है। विद्वान् लोग इसके द्वारा तीनों लोकों का प्रमाण निकालते हैं।
अंक-विद्या । यह एक विज्ञान है । वृषभदेव ने ब्राह्मी और सुंदरी दोनों पुत्रियों को अक्षर, संगीत, चित्र आदि विद्याओं के साथ इसका अभ्यास कराया था । हरिवंशपुराण 8.43, 9.24