जीवत्व: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
mNo edit summary |
||
Line 34: | Line 34: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: ज]] | [[Category: ज]] [[Category: द्रव्यानुयोग]] |
Revision as of 22:57, 22 August 2022
जीव के स्वभाव का नाम जीवत्व है। पारिणामिक होने के कारण यह न द्रव्य कहा जा सकता है न गुण या पर्याय। इसे केवल चैतन्य कह सकते हैं। किसी अपेक्षा यह औदयिक भी है और इसीलिए मुक्त जीवों में इसका अभाव माना जाता है।
- लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/7/161/3 जीवत्वं चैतन्यमित्यर्थ:। =जीवत्व का अर्थ चैतन्य है।
समयसार / आत्मख्याति/ परि./शक्ति नं.1 आत्मद्रव्यहेतुभूतचैतन्यमात्रभावधारणलक्षणा जीवत्वशक्ति:। =आत्मद्रव्य के कारणभूत ऐसे चैतन्यमात्र भाव का धारण जिसका लक्षण है अर्थात् स्वरूप है, ऐसी जीवत्व शक्ति है।
- जीवत्व भाव पारिणामिक है
राजवार्तिक/2/7/3-6/110/24 आयुद्रव्यापेक्षं जीवत्वं न पारिणामिकमिति चेत्; न; पुद्गलद्रव्यसंबंधे सत्यन्यद्रव्यसामर्थ्याभावात् ।3। सिद्धस्याजीवत्वप्रसंगात् ।4। जीवे त्रिकालविषयविग्रहदर्शनादिति चेत्; न; रूढिशब्दस्य निष्पत्त्यर्थत्वात् ।5। अथवा, चैतन्यं जीवशब्देनाभिधीयते, तच्चानादिद्रव्यभवननिमित्तत्वात् पारिणामिकम् । =प्रश्न–जीवत्व तो आयु नाम द्रव्यकर्म की अपेक्षा करके वर्तता है, इसलिए वह पारिणामिक नहीं है ? उत्तर–ऐसा नहीं है; उस पुद्गलात्मक आयुद्रव्य का संबंध तो धर्मादि अन्य द्रव्यों से भी है, अत: उनमें भी जीवत्व नहीं है।3। और सिद्धों में कर्म संबंध न होने से जीवत्व का अभाव होना चाहिए। शंका–‘जो प्राणों द्वारा जीता है, जीता था और जीवेगा’ ऐसी जीवत्व शब्द की व्युत्पत्ति है? उत्तर–नहीं, वह केवल रूढ़ि से है। उससे कोई सिद्धांत फलित नहीं होता। जीव का वास्तविक अर्थ तो चैतन्य ही है और वह अनादि पारिणामिक द्रव्य निमित्तक है।
- जीवत्व भाव कथंचित् औदयिक है
धवला 14/5,6,16/13/1 जीवभव्वाभव्वत्तादि पारिणामिया वि अत्थि, ते एत्थ किण्ण परूविदा। वुच्चदे–आउआदिपाणाणं धारणं जीवणं तं च अजोगिचरिमसमयादो उवरि णत्थि, सिद्धेसु पाणणिबंधणट्ठकम्माभावादो। ...सिद्धेसु पाणाभावण्णहाणुववत्तीदो जीवत्तं ण पारिणामियं किं कम्मबिवागजं; यद्यस्य भावाभावानुविधानतो भवति तत्तस्येति वदंति तद्विद इति न्यायात् । ततो जीवभावो ओदइओ त्ति सिद्धं। =प्रश्न–जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व आदिक जीव भाव पारिणामिक भी हैं, उनका यहाँ क्यों कथन नहीं किया ? उत्तर–कहते हैं–आयु आदि प्राणों का धारण करना जीवन है। वह अयोगी के अंतिम समय से आगे नहीं पाया जाता, क्योंकि, सिद्धों के प्राणों के कारणभूत आठ कर्मों का अभाव है।...सिद्धों में प्राणों का अभाव अन्यथा बन नहीं सकता, इससे मालूम पड़ता है कि जीवत्व पारिणामिक नहीं है। किंतु वह कर्म के विपाक से उत्पन्न होता है, क्योंकि जो जिसके सद्भाव व असद्भाव का अविनाभावी होता है, वह उसका है, ऐसा कार्यकारणभाव के ज्ञाता कहते हैं, ऐसा न्याय है। इसलिए जीवभाव (जीवत्व) औदयिक है यह सिद्ध होता है।
- पारिणामिक व औदयिकपने का समन्वय
धवला 14/5,6,16/13/7 तच्चत्थे जं जीवभावस्स पारिणामियत्तं परूविदं तं पाणधारणत्तं पडुच्च ण परूविदं, किंतु चेदणगुणमवलंबिय तत्थ परूवणा कदा। तेण तं पि ण विरुज्झइ। =तत्त्वार्थसूत्र में जीवत्व को जो पारिणामिक कहा है, वह प्राणों को धारण करने की अपेक्षा न कहकर चैतन्यगुण की अपेक्षा से कहा है। इसलिए वह कथन विरोध को प्राप्त नहीं होता।
- मोक्ष में भव्यत्व भाव का अभाव हो जाता है पर जीवत्व का नहीं
तत्त्वार्थसूत्र/10/3 औपशमिकादिभव्यत्वानांच।3।
राजवार्तिक/10/3/1/642/7 अन्येषां जीवत्वादीनां पारिणामिकानां मोक्षावस्थायामनिवृत्तिज्ञापनार्थं भव्यत्व-ग्रहणं क्रियते। तेन पारिणामिकेषु भव्यत्वस्य औपशमिकादीनां च भावानामभावान्मोक्षो भवतीत्यवगम्यते। =भव्यत्व का ग्रहण सूत्र में इसलिए किया है कि जीवत्वादि अन्य पारिणामिक भावों की निवृत्ति का प्रसंग न आ जावे। अत: पारिणामिक भावों में से तो भव्यत्व और औपशमिकादि शेष 4 भावों में से सभी का अभाव होने से मोक्ष होता है, यह जाना जाता है।
- अन्य संबंधित विषय